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* जेलमें मेरा जैनाभ्यास *
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में लगे हों। साधु, मुनि तो दान ग्रहण करके आत्मोन्नति व शुम कर्म करते हैं और पाखंडी दान ग्रहण करके कुकर्म और अशुभ कर्मोको करते हैं। इस कारण जहाँ तक संभव हो, वहाँ तक गृहस्थको सुपात्रदान देना चाहिये । इसके अतिरिक्त वर्तमान समयमें बहुतसे दान किये जाते हैं। उनमें यह देखना चाहिये कि इससे कोई अनर्थ तो नहीं होता है। यदि ऐसा हो तो दान नहीं देना चाहिये। विद्यादान, अभयदान, अनाथों व अपाहिज व बेवाओंको दान देना भी उचित है।
गृहस्थोंको इस बातका अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि पहिले तो साधुका मिलना ही कठिन है। यदि सौभाग्यवश वे मिल जाय तो प्रेम व आदरसे उन्हें दान देना चाहिये । जो वस्तु उनके लेनके योग्य हो, उसको अशुद्ध नहीं करनी चाहिये और जो वस्तु उनके लेनेके प्रतिकूल हो, उसे शुद्ध कर देनी नहीं चाहिये। ऐसा करनेसे दान देनेवाले व लेनेवाले, दोनोंको दूषण लगता है। सदा विनयपूर्वक दान देना चाहिये । दान देने में लाभ-संकोच पानेसे उसका समस्त महत्त्व चला जाता है। इसलिये यदि दान देना हो तो उदार चित्तसे देना चाहिये।
गृहस्थ अथवा श्रावक धर्म स्वर्णके समान है। जैसे किसीको एक तोला, किसीको दो तोले, किसीको पाँच तोले, किसीको बारह तोले-जिसको जितने सोनेकी आवश्यकता हो, उसको उतना सोना काटकर प्रासानीसे दिया जा सकता है। इसी प्रकार भावक