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________________ खण्ड * अहिंसाका स्वरूप * ६५ गृहस्थ नहीं । पर इसकेलिये यह कहना कि यह सर्वथा अव्यवहार्य है अथवा आत्मघातक है, बिलकुल भ्रममूलक है। इस बातको प्रायः सब लोग मानते तथा जानते हैं कि अहिंसा तत्त्वके प्रवर्तकोंने अपने जीवनमें इस तत्त्वका पूर्ण अमल किया था। उनके उपदेशसे प्रेरित होकर लाखों श्रादमी उनके अनुयायी हुए थे, जो कि आजतक उनके उपदेशका पालन करते चले आते हैं। पर किसीको आत्मघात करनेकी श्रावश्यकता नहीं हुई। इस बातसे स्वयं सिद्ध होजाता है कि जैन. अहिंसा अव्यवहार्य नहीं है। इतना अवश्य है कि जो लोग अपने जीवनका सद्व्यय करनेको तैयार नहीं हैं, जो अपने स्वार्थों का भोग देने में हिचकते हैं, उन लोगोंकेलिये यह तत्त्व अवश्य अव्यवहार्य है । क्योंकि अहिंसाका तत्त्व आत्माके उद्धारसे बहुत सम्बन्ध रखता है। इस कारण जो लोग मुमुक्षु हैं-अपनी आत्माका उद्धार करने के इच्छुक हैं, उनको तो जैन-अहिंसा कभी आत्म-नाशक या अव्यवहार्य मालूम नहीं होती। पर स्वार्थ-लोलुप और विलासी आदमियों की तो बात ही दूमरी है। जैन-अहिंसापर दूसरा सबसे बड़ा आक्षेप यह किया जाता है कि उस अहिंसाके प्रचारने भारतवर्षको कायर और गुलाम बना दिया है । इस श्राक्षेपके करनेवालों का कथन है कि अहिंसाजन्य पापोंसे डरकर भारतीय लोगोंने मांस खाना छोड़ दिया
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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