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की ओर रस हो । रसवाले थोड़े-बहुतों में भी ऐसे कम मिलेंगे, जिन्होंने धार्मिक साहित्यकी सब शाखाओं पर सुलभ पुस्तकों को पढ़ा हो। इनमें भी फिरनेका मोह छोड़कर पढ़ने और विचारने वाले बहुत कम मिलेंगे। ऐसे पढ़नेवालों में भी अपने पठनका स्थूल सार निकालनेवाले, और उसे लेखबद्ध करनेवाले तो जैन समाज में नाममात्र के होंगे। जब हम इस पुस्तक में देखते हैं कि इसके लेखकने अनेक पुस्तकें पढ़कर उनको संक्षिप्त सार या संक्षिप्त व्योरा संग्रह किया है और सो भी एक वर्ष जितने परिमित समय में, तब हमें इस पुस्तकका मूल्य निर्धारित करने में कोई कठिनाई नहीं होती । यह पुस्तक इसके लेखककी शक्तियों का परिचय इस प्रकार से करा सकती है:
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(क) तत्व, साहित्य, इतिहास आदि अनेक विषयोंपर विविध पुस्तकें पढ़नेकी रुचि और प्रवृत्ति ।
(ख) पढ़ी हुई पुस्तकों में से अपने लेखानुकूल विषयोंका चुनाव तथा सामग्री-संचय |
(ग) संचित सामग्रीका थोड़े समय में जैसा बन पड़ा, उपयोग कर लेनेका निश्वय तथा साहस ।
उक्त दृष्टिसे यह पुस्तक न केवल साधारण कोटिके गृहस्थ जिज्ञासुओं को ही कामको ओर प्रेरक है, बल्कि साधु समाजके लिये भी यह बोधप्रद है। जो साधुगण अपनी इच्छा से धामिक जेल में ज़िन्दगी भर के लिये पड़े हैं, जिन्हें ज्ञानार्जन के सब सुभीते