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________________ खण्ड * परमेष्ठी अधिकार * - उसे सहन करते हैं। इस प्रकारसे साधु लोग अरे परिषहोंको शान्तिभावसे सहन करते हैं। . . ऊपर जो शुद्ध और निर्दोष आहार कहा गया मतलब है कि छयानवे प्रकारके दोषसे अगर औषधि, वस्त्र आदि शुद्ध हो तो वे ग्रहण कर हैं। उनमें से कुछ उदाहरणार्थ यहाँ दिये जाते हैं.. १-गृहस्थ साधुके वास्ते बाहार बनाकर प्राचार्य से अगर गृहस्थ अपने भोजनमें साधुके विचारसे कु ते हैं तथा बनाता है ता भी नहीं लेना ३-माल लाकर गृह.५, लेना ४-काई वस्तु तालमें या बन्द किवाड़ों में हेमा ५-रास्तेमें लाकर दे ता नहीं लेना ६-आड़मेंसे । अन्य स्थानसं कोई वस्तु लाकर दे तो नहीं ले सबल छीन कर दे तो नहीं लेना-भागीदार दे तो नहीं लना :--स्त्री अगर बच्चे को दूध पिला रहा .ता उससे आहार नहीं लेना १०--मान, माया और लोभादिके साथ दान ग्रहण नहीं करना ११--भूखों या ब्राह्मणादिकलिये अगर भोजन बना हो तो नहीं लेना १२--सदा एक घरसे श्राहार नहीं लेना १३--जिनके यहाँ अखाद्य वस्तु बनती हों उनके यहाँसे आहार नहीं लेना १४-जो मना करे कि हमारे यहाँ न श्राओ वहाँ नहीं जाना १५--कोई वस्तु सचित्त वस्तुके स्पर्शमें हो तो उसे नहीं लेना १६--द्वारपर भिखारी खड़ा हो तो उस गृह
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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