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खण्ड
* फर्म अधिकार *
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२-जिस कर्मके उदयसे अर्द्ध शुद्ध और अर्द्ध अशुद्ध सम्यक्त्व होता है, उसे 'मिश्रमोहनीय कर्म' कहते हैं।
३-जिस कमके उदयसे जीवकी हितमें अहित बुद्धि और अहितमें हित बुद्धि होती है अर्थात् अहितको हित और हितको अहित समझता है, उसे 'मिथ्यात्वमोहनीय कर्म' कहते हैं। २-जिस कर्मके उदयसे आत्मा अपने असली स्वरूपको पाता
है, उसे 'चारित्रमोहनीय कर्म' कहते हैं।
चारित्रमोहनीय कर्मके दो भेद होते हैं। १-कषायमोहनीय, २-नोकषायमोहनीय । कषायमोहनीयके १६ भेद हैं और नोकषायमोहनीयके । भेद हैं। कषायका अर्थ है-जन्म-मरणरूप संसार, उसकी प्राप्ति जिससे हो, उसे 'कषाय' कहते हैं । - कषायमोहनीयके १६ भेद निम्न प्रकार होते हैं:
१-जिस कषायसे जीव अनन्तकाल संसारमें भ्रमण करता है, उस कषायको 'अनन्तानुबन्धी कषाय' कहते हैं। जिस प्रकार पर्वत फटनेपर नहीं मिलता, उसी प्रकारसे यह कषाय किसी भी उपायसे शान्त नहीं होती।
२-जिस कषायके उदयसे श्रावक-धर्मकी प्राप्ति नहीं होती है, उसे 'अप्रत्याख्यानावरण कषाय' कहते हैं । जिस प्रकार सूखे तालाबमें मिट्टीके फट जानेपर दरारें हो जाती हैं। वे वर्षा होनेसे मिलती हैं, उसी प्रकार यह कषाय विशेष परिभ्रमणसे शान्त होती है।