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________________ खण्ड * फर्म अधिकार * १२६ २-जिस कर्मके उदयसे अर्द्ध शुद्ध और अर्द्ध अशुद्ध सम्यक्त्व होता है, उसे 'मिश्रमोहनीय कर्म' कहते हैं। ३-जिस कमके उदयसे जीवकी हितमें अहित बुद्धि और अहितमें हित बुद्धि होती है अर्थात् अहितको हित और हितको अहित समझता है, उसे 'मिथ्यात्वमोहनीय कर्म' कहते हैं। २-जिस कर्मके उदयसे आत्मा अपने असली स्वरूपको पाता है, उसे 'चारित्रमोहनीय कर्म' कहते हैं। चारित्रमोहनीय कर्मके दो भेद होते हैं। १-कषायमोहनीय, २-नोकषायमोहनीय । कषायमोहनीयके १६ भेद हैं और नोकषायमोहनीयके । भेद हैं। कषायका अर्थ है-जन्म-मरणरूप संसार, उसकी प्राप्ति जिससे हो, उसे 'कषाय' कहते हैं । - कषायमोहनीयके १६ भेद निम्न प्रकार होते हैं: १-जिस कषायसे जीव अनन्तकाल संसारमें भ्रमण करता है, उस कषायको 'अनन्तानुबन्धी कषाय' कहते हैं। जिस प्रकार पर्वत फटनेपर नहीं मिलता, उसी प्रकारसे यह कषाय किसी भी उपायसे शान्त नहीं होती। २-जिस कषायके उदयसे श्रावक-धर्मकी प्राप्ति नहीं होती है, उसे 'अप्रत्याख्यानावरण कषाय' कहते हैं । जिस प्रकार सूखे तालाबमें मिट्टीके फट जानेपर दरारें हो जाती हैं। वे वर्षा होनेसे मिलती हैं, उसी प्रकार यह कषाय विशेष परिभ्रमणसे शान्त होती है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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