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________________ खण्ड] ३०१ मालको सच्चा कह कर बेचता है; कोई धरोहर रख जाय तो उसे हजम कर जाता है; व्यापार में धोखा देता है या झूठ बोलता है; अच्छे में खराब अथवा नयेमें पुराना माल मिला कर उसे असली और नया माल कह कर बेचता है अपने स्वार्थसे झूठा पन्थ चलाता है; ब्रह्मचारी कहा कर व्यभिचार करता है; अन्धे लूले, लँगड़ों, अपाङ्गोंकी हँसी उड़ाता है । इत्यादि । * ध्यानका स्वरूप # ३- तस्करानुबन्ध - जो प्राणी सदा चोरी करनेका विचार किया करता है और अपने भाई चोरोंको नई-नई नाना प्रकारकी चोरी करने अथवा ठगने की तरकीबें सोचा तथा बताया करता है. और प्रशंसा किया करता है, वह 'तस्करानुबन्ध रौद्रध्यान' ध्याया करता है । इस ध्यानका ध्यानेवाला व्यक्ति निम्न लिखित अशुभ विचार किया करता है: - किस तरह अमुक धनीके घर में चोरी करूँ अथवा डाँका गरूँ, किस तरह ताले अथवा लोहेकी मजबूत तिजूरियोंको तोड़ डालू साहूकार बनकर झूठी डंडी बनाऊँ या और किसी तरह से साहूकारोंका रुपया मारूँ जो इस प्रकार सोचा-विचारा करता है अथवा चोरोंका माल खरीदता है, जबरदस्ती कमजोरों की मिल्कियतपर अपनी मालकीयत जमाता है, वह 'तस्करानुबन्ध रौद्रध्यान' ध्याया करता है। ४ - विषय संरक्षणानुबन्ध - जो प्राणी सदा इसी बात में दत्तचित्त रहता है कि किस प्रकार मैं अपने धन, जन, सम्पत्ति या
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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