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* गुरणस्थानका अधिकार *
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स्वरूपकी भ्रान्ति थी, वह दूर हो जाती है । अतएव उसके प्रयत्नकी गति उलटी न होकर सीधी हो जाती है अर्थात् वह विवेकी बनकर कर्त्तव्य- श्रकर्त्तव्यका वास्तविक विभाग कर लेता है । इस दशाको जैनशास्त्र में 'अन्तरात्म-भाव' कहते हैं क्योंकि इस स्थितिको प्राप्त करके विकासगामी आत्मा अपने अन्दर वर्तमान सूक्ष्म और सहज शुद्ध परमात्म-भाव को देखने लगती है । यह दशा विकाश क्रमकी चतुर्थ भूमिका किंवा चतुर्थ गुणस्थान है, जिसे पाकर आत्मा पहले पहल आध्यात्मिक शान्तिका अनुभव करती है। इस भूमिका में आध्यात्मिक दृष्टि यथार्थ होनेके कारण आत्मा विपर्यास-रहित होती है। जिसकी जैनशास्त्र में 'सम्यग्दृष्टि' किंवा 'सम्यक्त्व' कहा है ।
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चतुर्थी की अर्थात् पञ्चमी आदि सब भूमिकाएँ सम्यग्दृष्टि वाली ही समझनी चाहिए, क्योंकि उनमें उत्तरोत्तर विकास तथा दृष्टिकी शुद्धि अधिकाधिक होती जाती है । चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूप-दर्शन करनेसे आत्माको अपूर्व शक्ति मिलती है और उसको विश्वास होता है कि अब मेरा साध्य विषयक भ्रम दूर हुआ अर्थात् अब तक जिस पौद्गलिक व बाह्य सुखको मैं तरस रहा था, वह मिथ्या है। इस प्रकार समझने लगता है ।
मोहकी प्रधान शक्ति दर्शनमोहको शिथिल करके स्वरूपदर्शन कर लेने के बाद भी जब तक उसकी दूसरी शक्ति चारित्रमोहको शिथिल न किया जाय, तब तक स्वरूप लाभ किंवा