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* जेलमें मेरा जैनाभ्यास *
[तृतीय
स्वरूप स्थिति नहीं हो सकती। इसलिये वह मोहकी दूसरी शक्ति को मन्द करने के लिए प्रयास करती है। जब वह उस शक्तिको अंशतः शिथिल कर पाती है तब उसकी और भी उत्क्रान्ति हो जाती है। जिसमें अंशतः स्वरूप- स्थिरता या परिस्थिति त्याग होनेसे चतुर्थ भूमिकाकी अपेक्षा अधिक शान्ति-लाभ होता है । यह 'देशविरति' नामका पाँचवाँ गुणस्थान है ।
इस गुणस्थान में विकासगामी आत्माको यह विचार होने लगता है कि यदि अल्प-विरति से ही इतना अधिक शान्ति-लाभ हुआ तो फिर सर्वविरति - जड़ भावोंके सर्वथा परिहार से कितना शान्ति-लाभ न होगा । इस विचारसे प्रेरित होकर व प्राम श्राध्यात्मिक शान्तिके अनुभव से बलवान होकर वह विकासगामी आत्मा चारित्रमोहको अधिकांशमें शिथिल करके पहलेकी अपेक्षा भी अधिक स्वरूप- स्थिरता व स्वरूप लाभ प्राप्त करनेकी चेष्टा करती है । इस चेष्टा में कृतकृत्य होते ही उसे सर्व विरति संयम प्राप्त होता है । जिसमें पौद्गलिक भावोंपर मूर्च्छा बिलकुल नहीं रहती और उसका सारा समय स्वरूपकी अभिव्यक्ति करने के काम में ही खर्च होता है। यह 'सर्वविरति' नामका छठा गुणस्थान है । इसमें आत्म-कल्याणके अतिरिक्त लोक-कल्याणकी भावना और तदनुकूल प्रवृति भी होती हैं, जिससे कभी-कभी थोड़ी-बहुत मात्रामें प्रमाद आ जाता है । पाँचवें गुणस्थानकी अपेक्षा इस छठे गुणस्थान में स्वरूप- अभिव्यक्ति अधिक होनेके
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