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खण्ड
* गुणस्थानका अधिकार *
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कारण यद्यपि विकासगामी आत्माको आध्यात्मिक शान्ति पहलेसे
अधिक ही मिलती है तथापि बीच-बीचमें अनेक प्रमाद उसे * शान्ति-अनुभवमें बाधाएँ पहुँचाते रहते हैं।
शान्ति-अनुभवमें जो बीच-बीच में अनेक प्रमाद उसको बाधा पहुँचाते हैं, उनको वह सहन नहीं कर सकती। अतएव सर्वविरति-जनित शान्ति के साथ अप्रमाद-जनित विशिष्ट शान्तिका अनुभव करनेकी प्रवल लालसोसे प्रेरित होकर वह विकासगामी आत्मा प्रमादका त्याग करती है और स्वरूपकी अभिव्यक्तिक अनुकूल मनन-चिन्तनके सिवाय अन्य सब व्यापारोंका त्यागकर देती है। यही 'अप्रमत्तसंयत' नामक सातवाँ गुणस्थान है। इसमें एक ओर अप्रमाद-जन्य उत्कट सुखका अनुभव आत्माको उस स्थितिमें बने रहने केलिये उत्तेजित करता है और दूसरी ओर प्रमाद-जन्य पूर्व वासनाएँ उसे अपनी ओर खींचती हैं। इस खींचातानीमें विकासगामी आत्मा कभी प्रमादकी तन्द्रा और कभी अप्रमादकी जाप्रति अर्थात् छठे और सातवें गुणस्थानमें अनेक बार जाती-आती रहती है। जिस प्रकार भवरमें पड़ा हुआ तिनका इधरसे उधर और उधरसे इधर चलायमान होता रहता
है, उसी प्रकार छठे और सातवें गुणस्थानके समय विकासगामी ' आत्मा अनवस्थितसी बन जाती है। ' प्रमादके साथ होनेवाले इस आन्तरिक युद्ध के समय विकासगामी आत्मा यदि अपना चरित्र-बल विशेष प्रकाशित करती है