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* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
[तृतीय
(४६) अज्ञानी पुरुष संसारकी चमक-दमक और वेष-भूषाको देखकर प्रसन्न होते हैं । परन्तु मृत्यु किसी क्षण भी इस बातको जताने याद दिलाने में त्रुटि नहीं करती है कि यह दुनियाँ केवल एक प्रकारकी सराय अथवा धोकेकी टट्टी है, जहाँपर कि सदैवके लिये ठहरना सर्वथा असम्भव है।
(४७) संसारमें मनुष्यका जीवन बहुत अल्प है। इस तुच्छ जीवनकेलिये यह अज्ञानी जीव नाना प्रकार के प्रपश्च, जंजाल व झूठे ढोंग रचता है। पर यह अज्ञानी इस घातको नहीं जानता है कि बजाय दूसरोंक फंसान के मैं स्वयं ही इन जालों में फंस जाऊंगा। जिस प्रकार एक मकड़ी अपने बनाये हुए जालम स्वयं फंस जातो है। एक समय इन संसारी जालौस मुक्त होना तो सम्भव है. पर कर्मरूपी जालोंसे बचना सर्वथा असम्भव है। इस कारण मनुष्य को संसार में अपने जीवनको शुभकार्यों द्वारा सफल बनाना चाहिये ।
(४८) यह संसार बड़ा विचित्र है तथा गहन है कयोंकि इसमें दुःखरूपी अग्निकी ज्याला धधक रही है। इसमें जो इन्द्रियाधीन सुख हैं, वे अन्तमें विग्स है अर्थात दु:ख के कारण हैं और जो काम
और अर्थ हैं, वे अनित्य हैं अर्थात् सदा नहीं रहने । इसलिये भव्य जनोंको अमूल्य मनुष्य-जन्मको नष्ट न करके उसे सार्थक बनाना । चाहिये।
(४६) हे आत्मन ! शरीरको तू रोगोंसे छिदा हुआ समझकर, यौवनको बुढ़ापेसे घिरा हुआ जानकर, ऐश्वयं तथा सम्पदाओंको