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________________ खण्ड] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश * २१६ इसलिये हे मुमुक्षो! यदि तू उपरोक्त प्रकारका सुखी और गुणी बनना चाहता हो तो तुझे उक्त प्रकारके साधुजनोंसत्पुरुषोंकी संगति अनुरागपूर्वक और प्रयत्नपूर्वक कर । __ (३३ ) सुदेवमें देव बुद्धि, सुगुरुमें गुरु-बुद्धि और सुधर्ममें शुद्ध धर्म-बुद्धि रखनेको 'सम्यक्त्व' कहते हैं और कुदेवमें देवबुद्धि, कुगुरुमें गुरु-बुद्धि और कुधर्ममें धर्म-बुद्धि रखनेको 'मिथ्यात्व' कहते हैं। __ प्रश्न उठता है कि सुदेव, सुगुरु और सुधर्म किसको कहना चाहिये ? उत्तर इस प्रकार है: सुदेव-रागद्वेषसे रहित, मोह महामलका नाश करनेवाले, केवलज्ञान केवलदर्शन-युक्त, देव और दानवोंके पूज्य, सद्भूतार्थके उपदेशक और समस्त कर्मो का क्षयकर परम पदको प्राप्त करनेवाले वीतराग भगवानको 'देव' कहते हैं। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त तप, अनन्त बल-वीर्य, अनन्त क्षायिक सम्यक्त्व, वनवृषभनाराच संहनन, समचतुरमा संस्थान, चौंतीस अतिशय, पैंतीस वाणी गुण और एक हजार आठ उत्तम लक्षण युक्त हों; चासठ इन्द्रोंके पूजनीय होः कषायरहित, रागद्वेषरहित, शोकचिन्तारहित, भयरहित और ममत्वरहित हों; अहिंसा व्रतके पालनेवाले तथा महादयालु हों और जो समस्त कर्मोका क्षय कर परम पदको प्राप्त कर चुके हों, ऐसे वीतरागको “देव" कहते हैं।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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