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________________ २२० * जेल में मेरा जैनाभ्यास * तृतीय सुगुरु-जो सर्व प्रकारकी हिंसाका त्याग कर चुके हैं; जब बोलते हैं, तब सत्य ही बोलते हैं; किसी प्रकारका परिग्रह अर्थात् धन आदि नहीं रखते हैं। किसीकी बिना दी हुई वस्तु ग्रहण नहीं करते हैं; नौ बाढ़ों सहित शुद्ध ब्रह्मचर्य पालते हैं; क्रोध, मान, माया और लोभका त्याग करते हैं; पाँच इन्द्रियसम्बन्धी कोई विपय. सेवन नहीं करते; सदा ज्ञान, ध्यान और तपस्यामें मग्न रहते हैं; न किसीसे राग और न किसीसे द्वेष करते हैं: सदा सरल-परिणामी हैं तथा जो अन्य अनेक गुणयुक्त हैं. ऐसे मुनियोंको 'गुरु' कहते हैं +। सुधर्म-अनादिकालमे आत्माके साथ लगे हुए कर्माको नष्ट कर जो जीवोंको सांसारिक दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुख में पहुँचाता है, उसे 'धर्म'-'मुधर्म'* कहते हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग रूप बन्धहेतुओंके के कारण जीव कोका बन्ध किया करता है । इस बन्धक + विषयाशावशातीतो, निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते ॥" -स्वामी समन्तभद्राचार्य । * "देशयामि समीचीनं, धर्म कर्मनिवर्हणम् । संबरदुःखतः सत्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे ॥" -स्वामी समन्तभद्राचार्य । + अगाड़ी इनका विस्तृत वर्णन किया गया है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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