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________________ २५४ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [नृतीय - - इसका उत्तर यह है कि जीवनको सफल बनानेके शास्त्रकारोंने दो मार्ग बताये हैं। एक गृहस्थधर्म, दूसरा यतिधर्म । पहिला मार्ग सरल है और दूसरा मार्ग कठिन । यदि हम पहिले मार्गको क्रम-क्रमसे तय करना प्रारम्भ कर दें तो एक दिन हम दूसरा मार्ग भी अवश्य तय कर सकेंगे। गृहस्थधर्मके दो भाग हैं। एक तो वह जिसके अनुसार प्रत्येक गृहन्थ को चलना अनिवार्य है। दूसरा वह, जो गृहस्थ पुरुषार्थ व पराक्रम करके अपने जीवनको सफल बनाना चाहते हैं, उनको ग्रहण करने योग्य है। गृहस्थ धर्मका प्रथम भाग जो प्रत्येक मनुष्य को अनिवाय है, वह निम्न प्रकार है: १-मांस नहीं खाना, २-शिकार नहीं खेलना, ३-शराब नहीं पीना, ४-जुया नहीं खेलना, ५-चारी नहीं करना, ६वेश्यागमन नहीं करना और ७-परदारा-संवन नहीं करना। उपरोक्त मानी कुव्यसन मनुष्यको बुद्धि बिगड़नेवाले, धर्म की ओर चिनको श्राकर्पित न होने देनेवाले और मनुष्यको भयंकर दुगति अर्थात नरकमें ले जानेवाले हैं। इस कारण इनका प्रत्येक प्राणीको न्याग करना चाहिये। "जुमा-ग्वेखन, मांस, मदः वेश्या व्यसन, शिकार । चोरी, पररमणी-रमणा ; मानों व्यसन निधार ॥" -एक प्राचीन दोहा।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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