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* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
[द्वितीय
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आत्माकी परिवर्तनशीलता। एक शरीरके परिवर्तनसे भी यह समझमें आसकता है कि आत्मा परिवर्तनकी घटमालामें फिरती रहती है; ऐसी स्थितिमें यह नहीं माना जासकता है कि आत्मा सर्वथा एकान्त नित्य है। अतएव यह माना जासकता है कि
आत्मा न एकान्त नित्य है और न एकान्त अनित्य है, बल्कि नित्यानित्य है। इस दशामें जिस दृष्टिसे आत्मा नित्य है वह,
और जिस दृष्टिसे अनित्य है वह, दोनों ही दृष्टियाँ 'नय' कहलाती हैं।
यह बात सुस्पष्ट और निस्सन्देह है कि आत्मा शरीरसे जुदी है, तो भी यह ध्यानमें रखना चाहिये कि आत्मा शरीरमें ऐसे हो व्याप्त हो रही है, जैसे कि मक्खनमें घृत । इसीसे शरीरके किसी भी भागमें जब चोट लगती है, तब तत्काल ही आत्माको वेदना होने लगती है। शरीर और आत्माकं ऐसे प्रगाढ़ सम्बन्ध को लेकर जैनशास्त्रकार कहते हैं कि यद्यपि अात्मा शरीरसे वस्तुतः भिन्न है तथापि सर्वथा भिन्न नहीं । यदि सर्वथा भिन्न मानें तो
आत्माको शरीरपर आघात लगनेसे कुछ कष्ट न होता, जैसा कि एक आदमी को आघात पहुँचनेसे दूसरे आदमीको कष्ट नहीं होता है। परन्तु अनुभव यह सिद्ध करता है कि शरीरपर आघात होनेसे आत्माको उसकी वेदना होती है; इसलिये इसी अंशमें श्रात्मा और शरीरको अभिन्न भी मानना होगा अर्थात् शरीर और आत्मा भिन्न होनेके साथ ही कदाचित् अभिन्न भी हैं। इस