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नय अधिकार
शाक ही वस्तुके विषयमें भिन्न-भिन्न दृष्टि-विन्दुओंसे उत्पन्न
* होने वाले भिन्न-भिन्न यथार्थ अभिप्रायको 'नय' कहते हैं । एक ही मनुष्य भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे काका, भतीजा, मामा, भानेज, पुत्र, पिता, ससुर, जमाई आदि समझा जाता है; यह नयके सिना और कुछ नहीं है । हम यह बता चुके हैं कि वस्तुमें एक ही धर्म नहीं है। अनेक धर्मवाली वस्तुमें अमुक धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाला जो अभिप्राय बंधता है, उसको जैन-शास्त्रोंमें 'नय' संज्ञा दी है। वस्तुमें जितने धर्म हैं, उनसे सम्बन्ध रखनेवाले जितने अभिप्राय हैं, वे सब 'नय' कहलाते हैं।
इस बातको सब मानते हैं कि आत्मा नित्य है और यह बात भी ठीक है, क्योंकि इसका नाश नहीं होता है। मगर इस बातका सबको अनुभव हो सकता है कि उसका परिवर्तन विचित्र तरहसे होता है। कारण, आत्मा किसी समय पशु अवस्थामें होती है, किसी समय मनुष्य-स्थिति प्राप्त करती है, कभी देवगतिकी भोक्ता बनती है, यह कितना परिवर्तन है ? एक ही आत्माकी यह कैसी विलक्षण अवस्था है ? यह क्या बताती है ?