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________________ खण्ड * परमेष्ठी अधिकार * ४०१ (क) संसार रूप गहन वनमें अनेक दुःखोंके देनेवाले मोहादि रूप शत्रुओंका हनन करनेवाला जो अरिहन्त देव हैं, उनकोद्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो। .. (ख ) सूर्य मण्डलका आच्छादन करनेवाले मेघके समान ज्ञानादि गुणोंके आवरणोंका हनन करनेवाले जो अरिहन्त देव हैं, उनको द्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो। (ग) आठ कर्म रूप शत्रुओंके नाश करनेवाले अरिहन्त भगवानको द्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो। (घ) पाँचों इन्द्रियोंके विषय, कषाय, परीषह, वेदना तथा उपसर्ग, ये सब जीवोंकेलिये शत्रुभूत हैं। इन शत्रुओके नाशक अरिहन्त देवको द्रव्य और भाव पूर्वक नमस्कार हो। प्रश्न-उक्त लक्षणोंसे युक्त भगवानको नमस्कार करनेका क्या कारण है ? उत्तर--यह संसार एक महाभयङ्कर, कठिन और दुर्गम वन है। उसमें भ्रमण करनेसे सन्तप्त जीवोंको भगवानका स्मरण परमपदका मार्ग दिखानेमें निमित्त रूप होता है। अतः सर्व जीवों के वे परमोपकारी होनेसे नमस्कार करने के योग्य हैं। अतएव उनको अवश्य नमस्कार करना चाहिये । प्रश्न--अरिहंत भगवानका ध्यान किसके समान तथा किस रूपमें करना चाहिये ?
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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