________________
२२६
* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
[तृतीय
के अधिकारी होते हैं और जो सती 'मदनरेखा'की भांति निर्मल शीलका पालन करते हैं. वे भाग्यवान् जीवोंमें सम्मानित होकर सुगतिका उपार्जन करते हैं।
(४१) हे भव्यप्राणियो ! मनुष्य को अपने वैभव, सम्पत्ति,रूप, बल, बड़प्पन गादि बातोंपर कभी अभिमान नहीं करना चाहिये क्योंकि इस असार संमारमें एक वस्तु भी ऐसी दृष्टि नहीं पाती जो सदैव ही एक स्थितिमें रहती हो। जैसे जिस बालकको हम सांसारिक वासनारहित पालनमें झलता देखते हैं. वहीं कुछ काल बाद, जवानीक मदसे मस्त, सांसारिक मोहक पदार्थामे परिवप्टिन हमें दिखाई देता है । जो अपने शरीर-बलसे-मदसे उन्मन होकर पृथ्वीपर पैर रखना भी लज्जास्पद समझना है, वहीं बुढ़ापेमें लकड़ी के सहारे टकटक करता चलता है । जिस मूर्य को हम सबर ही अपनी प्रखर प्रतापी किरणों फैलाते हुये उदयाचल के सिंहासनपर आरूढ़ होता हुआ देखते हैं, वही मंध्याकं ममय विस्तेज हो, क्रोधमे लाल बन अस्ताचल की गहन गुफामें छिपना हुआ दिखाई देता है। जिसके घर ऋद्धि-समृद्धि छल की पड़ती थी, वही आज दर-दरका भिम्बारी बन रहा है। जिम मनुष्य के रूपलावण्यपर जो लोग मुन्ध हो जाते थे, आज वही उसको देख कर घृणासे मुंह फेर लेते हैं । लाखों-करोड़ों मनुष्य जिनकी
आँखके इशारेपर चलते थे, उन्हीं चक्रवतियों को निर्जन वनोंमें निवास करना पड़ा है; इत्यादि । इस कारण विचारशील मनुष्य को