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खण्ड
* मनुष्य जीवनको सफलता *
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समस्त लोकमें सबसे अधिक संख्या एकेन्द्रिय जीवों की है। उससे कम द्वीन्द्रिय जीवोंकी है। उससे कहीं कम संख्या त्रीन्द्रिय जीवों की है। उससे कहीं कम संख्या चतुरिन्द्रिय जीवों की है। उससे कहीं कम संख्या असंज्ञी जीवोंकी है। उसमें कहीं कम संख्या संज्ञी तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय जीवोंकी है और उससे बहुत कम संख्या मनुष्योंकी होती है। अर्थात् मनुष्योंको संख्या संसार में एक बड़े पर्वतके मुक़ाबिल राईके समान या समुद्र के मुताबिले एक बिन्दुके बराबर भी नहीं है। इसपर भी संसारमं पूर्ण साधना सहित मनुष्य बहुत अल्प संख्या में हैं। ___ संसारमें मनुष्य-जन्मका कुछ भरोसा नहीं है। हमारे देखते देखने अनेक मनुष्य मृत्युको प्राप्त होते चले जाते हैं। मनुष्य जीवन पानीके बुलबुले के समान है। मनुष्य-जीवन बालू की भीतके समान है। मनुष्य-जीवन संध्याके रंगीले बादलों के तुल्य है। मनुष्य के मिरपर काल हर समय खड़ा रहता है। यह उसका केवल पुगय ही है, जो सदा उसकी रक्षा कर रहा है। इस कारण मनुष्य को अपने जीवनको एक अमूल्य जीवन जानकर उसको शुरूसे ही सभाग-सदुपयोगमें लगाना चाहिये। ___ यह तो मानी हुई बात है कि संसारमें किसी भी कार्य, हुनर, विद्या व ज्ञान आदिमें एक दिन में या अल्प समयमें निपुणता प्राम नहीं की जा सकती। सारे कार्यों में क्रम-क्रमसे अर्थात सीढ़ी. दर-सीढ़ी ही उन्नति व निपुणता प्राप्त की जा सकती है। इसी