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* जेलमें मेरा जैनाभ्यास *
[द्वितीय
हरणसे, तलवारको तोड़कर कटारी बनानेमें, तलवारके श्राकारका नाश, कटारीके आकार की उत्पत्ति और लोहेकी स्थिति, ये तीनों बातें भलीभाँति सिद्ध होजाती हैं। वस्तुमें उत्पत्ति, स्थिति और विनाश, ये तीन गुण स्वभावतया ही रहते हैं । कोई भी वस्तु जब नष्ट होजाती है तो इससे यह न समझना चाहिये कि उसके मूल तत्त्व ही नष्ट होगये । उत्पत्ति और विनाश तो उसके स्थूल रूपके होते हैं । सूक्ष्म परमाणु तो हमेशा स्थित रहते हैं । वे सूक्ष्म परमाणु, दूसरी वस्तु के साथ मिलकर नवीन रूपोंका प्रादुर्भाव करते रहते हैं। जैसे सूर्य की किरणोंसे पानी सूख जाता है, पर इससे यह समझ लेना भूल है कि पानीका अभाव हो गया है । पानी चाहे किसी रूप में क्यों न हो, बराबर स्थित है। यह हो सकता है कि उसका वह सूक्ष्म रूप हमें दिखाई न दे, पर यह तो कभी सम्भव नहीं कि उसका अभाव होजाय । यह सिद्धान्त अटल है कि न तो कोई मूल वस्तु नष्ट ही होती है और न नवीन उत्पन्न ही होती है । इन मूल तत्त्वोंसे जो अनेक प्रकारके परिवर्तन होते रहते हैं, वह विनाश और उत्पाद हैं। इससे सारे पदार्थ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश, इन तीन गुणोंवाले सिद्ध होते हैं ।
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आधुनिक पदार्थ विज्ञानका भी यही मत है। वह कहता है कि " मूल प्रकृति ध्रुव - स्थिर है और उससे उत्पन्न होनेवाले पदार्थ उसके रूपान्तर - परिणामान्तर मात्र हैं"। इस प्रकार उत्पत्ति, स्थिति और विनाशके जैन सिद्धान्तका विज्ञान भी पूर्ण समर्थन करता है ।