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* ध्यानका स्वरूप *
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होता है। ऐसी अवस्थामें 'एकत्ववितर्कवीचार' नामक शक्लध्यानका द्वितीय पाद होता है।
जिस समय मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय होनेसे चार घातिया कोका क्षय होजाता है उस समय सम्पूर्ण अतिशयों सहित निर्मल केवलज्ञान प्रकट होजाता है। केवलज्ञान प्राप्त हो जानेपर वीतराग जिनेन्द्र भगवानकी जगत के कल्याणकारी मार्गमें 'जिन' नामकर्मके उदयसे तथा अहिंसारूप दयाके अनन्त प्रवाह के बहनसे स्वतः प्रवृत्ति होती है । उस समय केवली भगवान तच्चरूपी अमृतकी वृष्टि करके संसारमें परम शक्ति उत्पन्न करते हैं तथा मोक्षका मार्ग दिखलाकर जगत की सेवा करते हैं।
जब शुक्लध्यानी केवली भगवान अन्त समय में स्थूल काययोगको सूक्ष्म करते हैं तथा सूक्ष्म काययोगमें रहकर मनायोग
और वचनयोगको रोकते हैं, उस समय केवल सूक्ष्म काययोगकी सूक्ष्म क्रियाके रहजानेसे 'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति' नामका शक्लध्यानका तृतीय पाद होता है।
अरहन्त भगवान् जब मोक्ष स्थानकेलिये गमन करते हैं. उस समय वे सूक्ष्मकाययोगका भी निरोध करके पाँच हस्व स्वरके उचारण कालकी बराबर मेरु पर्वतकी तरह निश्चल रहते हैं। मर्थात् शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होते हैं । यही 'व्युच्छिन्नक्रिया' या 'व्युपरतक्रियानिवृत्ति' नामका शुक्लध्यानका चतुर्थ पाद होता है। इस पादमें समस्त अर्थकी समाप्ति होजाती है तथा मोक्ष पद निकट रह जाता है।