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कर्म अधिकार नदर्शनमें कर्मवाद एक मुख्य सिद्धान्त है । जिस
के प्रकार वेदान्तदर्शन, न्यायदर्शन, वैशेषिकदर्शन इत्यादि ईश्वरको सृष्टि का अधिष्ठाता और कर्ता-उसकी प्रेरणासे अच्छे-बुरे कर्मों का फल मिलता है, यह मानते हैं; उस प्रकार जैनदर्शन नहीं मानता । जैनदर्शन न तो ईश्वरको सृष्टिको रचनेवाला अथवा अधिष्ठाता मानता है, और न उसकी प्रेरणासे कर्मों का फल मिलता है, यह मानता है।
कर्मवादका मन्तव्य है कि जिस प्रकार जीव, कर्म करनेको स्वतन्त्र है; उसी प्रकार उसके कर्म भोगनेको भी वह आजाद है। जैनदर्शन सृष्टिको अनादि-अनन्त मानता है अर्थात् न तो वह कभी पैदा हुई और न कभी उसका विनाश होगा।
ईश्वरको कर्त्ता या प्रेरक माननेवाले कर्मवादपर नीचे लिखे आक्षेप किया करते हैं :
१-छोटी-मोटी चीज जैसे घड़ी, मकान, महल इत्यादि, यदि किसी व्यक्तिके द्वारा निर्मित होती हैं तो फिर सम्पूर्ण जगत, जो कार्य रूप दिखाई देता है, उसका भी कोई उत्पादक अवश्य होना चाहिये।