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* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
[द्वितीय
२- सभी प्राणी अच्छे बुरे कर्म करते हैं, पर कोई बुरे कर्मोंका फल नहीं चाहता और कर्म स्वयं जड़ होनेसे किसी चेतनकी प्रेरणा बिना फल देने में असमर्थ हैं। इसलिये ईश्वर ही प्राणियोंको कर्मफल भोगवाता है।
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३ - ईश्वर एक ऐसी सत्ता अर्थात् आत्मा है, जो सदासे मुक्त है और मुक्त जीवोंकी अपेक्षा उसमें कुछ विशेषता है। इस कारण जैनदर्शन जो यह मानता है कि कर्मोंसे छूट जानेपर सब जीव मुक्त अर्थात् ईश्वर हो जाते हैं, सो ठीक नहीं है ।
आक्षेपोंका समाधान
१ - यह जगत् किसी समय नहीं बना है - वह सदासे हो है। हाँ, इसमें परिवर्तन हुआ करते हैं। अनेक परिवर्तन ऐसे हैं कि जिनके होने में मनुष्य आदि प्राणी वर्गके प्रयत्नकी अपेक्षा देखी जाती है, तथा ऐसे परिवर्तन भी होते हैं कि जिनमें किसीके प्रयत्नकी अपेक्षा नहीं रहती; वे जड़-तत्त्व के तरह-तरह के संयोग से उष्णता, वेग, क्रिया आदि शक्तियोंसे बनते रहते हैं । उदाहरणार्थ - मिट्टी, पत्थर आदि चीजों के इकट्ठ े होने से छोटे-मोटे टीले या पहाड़का बन जाना; इधर-उधर से पानीका प्रवाह मिल जाने से उनका नदी रूपमें बहना, भापका पानी रूप में बरसना, और फिरसे पानीका भाप-रूप बन जाना इत्यादि । इसलिये ईश्वरको सृष्टिका कर्त्ता मानने की कोई आवश्यकता नहीं ।