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* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
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प्रकार अगर एक पुरुषार्थी और ज्ञानी आत्मा कर्मरूपी शत्रुको विजय करना चाहता है तो उसको अपने कर्मरूपी शत्रुके बारेमें पूरा-पूरा अध्ययन कर लेना चाहिये ताकि वह आसानीसे जीता जा सके और मुक्तिरूपी राज्य विजय किया जा सके।
प्रश्न यह उठता है कि कर्म दो प्रकारके होते हैं-एक शुभ कर्म और दूसरा अशुभ कर्म । शुभ कर्म करनेसे आत्माको अानन्द व सुखकी प्राप्ति होती है और अशुभ कर्म करनेसे आत्माको दुःख व तकलीफ मिलती है। तब किस प्रकार शास्त्रकार शुभ और अशुभ, दोनो प्रकारके कर्मोंको छोड़नेको कहते हैं, जब कि शुभ कर्मसे सुख व आनन्दकी प्राप्ति होती है।
इसका मतलब यह है कि शुभ कमों द्वारा जो आनन्द व सुख मिलते हैं, वे असार व क्षणिक हैं। कोई यह कहेगा कि वे क्षणिक कैसे हैं, जब कि शुभ कर्म करनेवाली आत्मा देवगतिको प्राप्तकर सागरोंकी आयु व अनेक आनन्द व सुखकारी ऋिद्धि व सिद्धि भोगती है ? यह बात बिलकुल यथार्थ है, पर इस न्यायसं विचारना चाहिये कि एक समय नहीं, दस समय नहीं, हजार समय नहीं, बल्कि असंख्यात समय यह आत्मा देवगतिके आनन्द व सुखोंको भोग आया है, पर आज तक इसकी गरज नहीं सरी है अर्थात् परम आनन्द पदको प्राप्त नहीं हुआ है । इस ख्यालसे यह सारे सुख व आनन्द क्षणिक हैं । संसारके सारे आनन्द व सुख किम्पाक फलके समान हैं, जो देखने और खानेमें बड़ा सुन्दर