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खण्ड ]
* नवतत्त्व अधिकार #
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१ - स्थूल-स्थूल, जैसे पृथ्वी - पर्वतादिकः २ -स्थूल, जैसे जल, दूध आदि तरल पदार्थ, ३ - स्थूल सूक्ष्म, जैसे छाया, आताप आदि नेत्र- इन्द्रियगोचरः ४ – सूक्ष्म-स्थूल, जैसे नेत्रके बिना अन्य चार इन्द्रियोंसे ग्रहण - योग्य शब्द, गन्ध आदि । ५ - सूक्ष्म, जैसे कर्मोकी वर्गणाएँ और ६ - सूक्ष्म सूक्ष्म, जैसे परमाणु ।
पुण्य
'पुनाति -- आत्मानं पवित्रयतीति पुण्यम्' - आत्माको जो पवित्र करे वह 'पुण्य' है। अर्थान् जीवके शुभ परिणाम के निमित्त से पुद्गल के जो शुभ कर्म रूपी शक्ति होती है, उसको 'पुण्य' कहते हैं।
समस्त संसार में शुभ अशुभ कर्मके रज रूपी पुद्गल ठसाटस भरे हुये हैं। जीव अर्थात् प्राणो जैसे मन, वचन और कायसे शुभ-अशुभ कर्म करता है, उसके अनुसार आत्म- प्रदेशोंपर रज रूपी पुद्गल चिमट जाते हैं। इन कर्म-पुद्गलों का पूरा विवरण 'कर्म अधिकार' में किया गया है, वहाँ देखना चाहिये । पुण्य कर्मोंका बाँधना मुशकिल है, पर भोगना आसान है । बड़े त्याग, सेवा, इन्द्रिय-दमन आदि पुण्यका बन्ध होता है । पर इसके फलोंका भोगना बड़ा प्रिय लगता है । पुण्य मोक्षका कारण नहीं है । पुण्य से संसार में हर प्रकारके सुख व वैभवकी प्राप्ति होती है । शास्त्रकारोंने पुण्यको स्वर्णकी बेड़ीसे उपमा दी है । संसारी जीव सुख, सम्पत्ति, वैभव आदिके बड़े अभिलाषी होते हैं। इस