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________________ खण्ड # नवतत्त्व अधिकार * १८४ - - - -- १६-मन, वचन और कायके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंके चञ्चल होनेको 'योग' कहते हैं। योगके तीन भेद हैं:-१-मनोयोग, २-वचनयोग और ३-काययोग। १५-जीवके लक्षण रूप चैतन्यानुविधायी परिणामको 'उपयोग' कहते हैं। उपयोगके दो भेद हैं:-१-साकारोपयुक्त और २-अनाकारोपयुक्त। १८-औदारिक आदि शरीर और भाषा आदि पर्याप्रिक योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को 'आहार' कहते हैं। १६-गतिमें उत्पन्न होनेको 'उपपात' कहते हैं। उपपात पाँच प्रकारका होता है:-१-नरक, २-तिर्यन्च, ३-मनुष्य, ४देव और ५-सिद्ध। २०-जीवके एक शरीरमें रहनको स्थिति' कहते हैं। जीव की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागर है । २१-प्रदेशों की श्रेणीबद्ध व विना श्रेणीस जीवकी मृत्यु हानेको 'समोहाय' कहते हैं। २२-आयु पूर्ण होनेपर एक गतिसे छूटनेको 'च्यवन कहते हैं। २३-एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जानेको 'गमनागमन' कहते हैं। ये तीईस गुण प्रत्येक संसारी जीवमें होते हैं। इनके अवान्तर भेद भी ऊपर कहे गये हैं। वे किसी जीवके कितने ही होते हैं
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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