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________________ १३८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय २-दाता उदार हो, दानकी चीजें मौजूद हों, याचनामें कुशलता हो तो भी जिस कर्मके उदयसे लाभ न हो सके, वह 'लाभान्तराय कर्म' कहलाता है। यह याचना करनेवालेके वास्ते हैं। ३-भोगके सामान मौजूद हों, वैराग्य न हो, तो भी जिस कर्मके उदयसे जीव भोग्य चीजोंको नभोगसके, वह 'भोगान्तराय कर्म' कहलाता है। ४-उपभोगकी सामग्री मौजूद हो, विरति-रहित हो, तथापि जिस कर्मके उदयसे जीव उपभोग्य पदार्थोका उपभोग न ले सके, वह 'उपभोगान्तराय कर्म' कहलाता है। ५-वीर्यका अर्थ है सामर्थ्य । बलवान हो, रोग-रहित हो, युवा हो तथापि जिस कर्मके उदयसे जीव एक तृणको भी टेढ़ा न कर सके, उसे 'वीर्यान्तराय कर्म' कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्मके अवान्तर तीन भेद हैं: बाल-वीर्यान्तराय, पण्डित-वीर्यान्तराय और बाल-पण्डित -वीर्यान्तराय। बन्ध बन्ध किसे कहते हैं ? जीव कषायवश होकर कर्म-पुद्गलोंको ग्रहण करे तथा आत्माके प्रदेश और कर्म के पुद्गल एक साथ मिलें, जैसे-दूध और पानी तथा लोहेका गोला अग्निके पुद्गलोंके साथ सारभूत . हो जाता है, उसे 'बन्ध' कहते हैं।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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