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________________ २६६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय विशेषता दिखा सकते हैं। ऐसे लोग यों ही आते हैं और यों ही चले जाते हैं— कुत्ते की मौत मर जाते हैं । शरीर के बलसे । सारांश यह कि मनुष्य संसार में जो काम करता है - अपनी कीर्त्ति बढ़ाता है. परका हित साधन करता है, इस लोक और परलोकको बनाता है, वह सब दिमाग और ये दोनों जिसके ठीक और बलवान होते हैं, वही पुरुष उपरोक्त कार्य सम्पन्न कर सकता है और ये दोनों शक्तियाँ केवल ब्रह्मचर्य के बलपर निर्भर हैं। जिसके पास ब्रह्मचर्य रूपी रत्न मौजूद है, उसका दिमाग और शरीर नीरोग और तन्दुरुस्त रह सकता हैं । इसलिये मनुष्य संसार में यदि कुछ काम करना चाहता और और अपने दोनों भव सुधारना चाहता है तो उसे ब्रह्मचर्यव्रत अवश्य पालना चाहिये । पाँचवाँ व्रत 'परिग्रहपरिमाणात है। इसका अर्थ है यथाशक्ति धन-धान्य आदि दस प्रकारकी बाह्य परिग्रहोंका परिमारण कर लेना अर्थात् कमसे कम जितनी वस्तुओं से अपना काम निकल सके उतनी वस्तुओं की संख्या निश्चित कर ली जाय और शेप वस्तुओं के भोगनेकी अभिलाषा छोड़ दी जाय। इसके भी पाँच प्रतीचार हैं । यथा: * "क्षेत्रवास्तुहिण्यसुवर्णधनधान्यदासीदास कृप्यप्रमाणातिक्रमः ।" - उमास्वाति । ་
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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