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________________ खण्ड] * मनुष्य-जीवनकी सफलता * २६७ - - - (१) क्षेत्र-वास्तु प्रमाणातिक्रम-जमीदारी, मकान श्रादिके परिमाणका उलङ्घन करना। (२) हिरण्य-सुवर्ण प्रमाणातिक्रम-सौने, चाँदी, जवाहरातके गहने आदिके परिमाणका अतिक्रम करना। (३) धन-धान्य प्रमाणातिक्रम-धन-धान्यक प्रमाणका अतिक्रम करना। (४) दासो-दास प्रमाणातिक्रम-नौकर-चाकरके प्रमाणका अतिक्रम करना। ___(५) कुप्य प्रमाणातिक्रम-कपड़े-लत्तोंके प्रमाणका अतिक्रम करना। इस व्रतमें गृहस्थ ( श्रावक ) को बहुत परिग्रह अर्थात धनधान्य आदिकी कमी करनी चाहिये । एक गृहस्थसे सर्वथा परिग्रह का त्याग होना तो कठिन है। क्योंकि बिना धनके गृहस्थका कार्य नहीं चल सकता। यह कहावत भी है कि "साधु कौड़ी रक्खे तो दो कौड़ीका और गृहस्थ बिना कौड़ीके दो कौड़ीका" इस कारण गृहस्थ को द्रव्य रखना अत्यावश्यक है, परन्तु ऐसा भी नहीं होना चाहिये कि द्रव्यकेलिये मनुष्य मर्यादा भङ्ग करे, अतिप्राशा करे, सदा असन्तापी बना रहे, दिन-रात कोल्हू के बैलके समान परिश्रम करता रहे आदि । क्योंकि संसारी मनुष्यका स्वभाव है कि उसे कितनी भी लक्ष्मी प्राप्त हो जाय, पर उसे सन्तोष नहीं होता । ज्यों-ज्यों
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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