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* जेलमें मेरा जैनाभ्यास *
[तृतीय
उसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती जाती है, त्यों-त्यों वह अधिक असन्तुष्ट होता जाता है। कहा भी है कि धनहीन मनुष्य सौ रुपये चाहता है; सौवाला हजार चाहता है। हजारवाला लाख चाहता है; लाखवाला करोड़ चाहता है; करोड़पति राज्यकी इच्छा रखता है; राजा चक्रवर्ती होना चाहता है: चक्रवर्ती देवता होनेकी इच्छा रखता है और देवता इन्द्रत्वकी अभिलाषा रखता है।
इस कारण जिस प्रकार हो उस प्रकार लोभ अर्थान विशाल इन्छायोको कम करना चाहिये । लोभी मनुष्यको कभी सुख या सन्तापकी प्रानि नहीं होती। किमीन मच कहा है कि जिस प्रकार इंधनसे अग्नि और जलसे समुद्र तुम नहीं होने, उसी प्रकार धनसे लोभीकी तृमि नहीं होती। उसे यह भी विचार नहीं आता कि जब आत्मा समम्न ऐश्वर्यको त्यागकर परभवमें चला जाता है. नव व्यर्थ ही पापकी गटड़ी क्यों बाँधी जाय ? कहनेका मागंश यह है कि परिग्रह का परिमागा बढ़नपर लाभ भी बढ़ जाना है। जिमके कारण उस मनुष्यपर नाना प्रकार के संकट श्रा पड़ने हैं। इस कारण जो प्राणी अपना मनुष्य-जन्म सफल अथवा शान्तिमय बनाना चाहते हैं, उनकी प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि वह अमुक संख्या तक धन, धान्य इत्यादि रकाबगे। उनको व्यवहारमें आनेवाली वस्तुओं की इस प्रकार मर्यादा करनी चाहिये:
भूमि अर्थात् खेत. चारागाह, यंजर, बाग-बगीचा आदि इतने बड़े और इतनी संख्या नक।