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* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
[द्वितीय
विचार करना, देखना या कहना । अनेकान्तवादका एक ही शब्दमें हम अर्थ करना चाहें तो उसे 'अपेक्षावाद' कह सकते हैं । एक ही वस्तुमें अमुक-अमुक अपेक्षासे भिन्न-भिन्न धर्मों को स्वीकार करने हीका नाम अनेकान्तवाद यानी स्याद्वाद है। जैसे एक ही पुरुष भिन्न-भिन्न लोगोंकी अपेक्षासे पिता, पुत्र, चाचा, भतीजा, पति, मामा, भानेज आदि माना जाता है । इसी प्रकार एक ही वस्तुमें भिन्न-भिन्न अपेक्षासे भिन्न-भिन्न धर्म माने जाते हैं। एक ही घटमें नित्यत्व और अनित्यत्व आदि विरुद्ध रूपमें दिखाई देनेवाले धर्मको तद्र पमें ही स्वीकार करनेका नाम एकान्तवाद-दर्शन है। स्याद्वाद, अपेक्षावाद और कथंचिद्वाद अनेकान्तवादके ही पर्याय -समानार्थवाची शब्द हैं।
जैनदर्शन किसी भी पदार्थको एकान्त नहीं मानता। उसके मतसे पदार्थमात्र ही अनेकान्त है। केवल एक ही दृष्टि से किये गये पदार्थ-निश्चयको जैनदर्शन अपूर्ण समझता है। उसका कथन है कि वस्तुका स्वरूप ही कुछ ऐसे ढङ्गका है कि वह एक ही समयमें एक ही शब्दके द्वारा पूर्णतया नहीं कहा जा सकता। एक ही पुरुप अपने पुत्रकी अपेक्षासे पिता, अपने भतीजे की अपेक्षासे चचा और अपने चचाकी अपेक्षासे भतीजा होता है। इस प्रकार परस्पर दिखाई देनेवाली बातें भी भिन्नभिन्न अपेक्षाओंसे एक ही मनुष्यमें स्थित रहती हैं । यही हालत प्रायः सभी वस्तुओंकी है। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे