________________
२८२
* जेलमें मेरा जैनाभ्यास *
तृतीय
तमाम बातोंका असली मन्तव्य सिर्फ यही है कि जहाँ तक और जिस प्रकार सम्भव हो, वहाँ तक इच्छाओं और श्रावश्यकताओंको कम किया जाय। तमाम उमरमें न मालूम क्या-क्या इच्छायें पैदा हों, इस कारण काफ़ी गुंजाइश रखकर व्रत ग्रहण किये जाते हैं-नियम लिये जाते हैं। पर इन नियमोंको और भी संकुचित बनानेके ख्यालसे प्रत्येक दिनकी आवश्यकता और इच्छाओंको देखते हुये, प्रत्येक दिन नियम और लिये जाते हैं। जैसे आज मैं असुक कोस तक जाऊँगा, अमुक-अमुक वस्तुओंका भोगोपभोग करूँगा । बानीका सबका मेरे त्याग है । इत्यादि ।
जो क्रिया छठे व्रतके अनुसार आ रही थी, उससे कहीं घटकर प्राणी क्रियाका भागी हो, इस कारण यह दसवाँ व्रत प्रत्येक दिन सुबहको ग्रहण किया जाता है और शामको या दूसरे दिन सुबहको विचार किया जाता है कि जो त्याग या नियम हमने किया था, उसमें कोई दूपण तो नहीं लगा है। अगर भूल चूकमें कोई दृषण लग गया हो तो उसकेलिये प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप करना पड़ता है, ताकि भविष्यमें दुबारा भूल न हो।
इस व्रतमें अल्पकालीन प्रत्याख्यान भी किया जाता है। जैसे सूरज उदयसे एक घंटे तक या दाई घंटे तक या दोपहर तक या तीन पहर तक इत्यादिमें खाना खाने और पानी पीने ' अर्थात् किसी किस्मकी खाने पीनेकी कोई वस्तु नहीं खाई या पी ।