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स्वर
* मेरी भावना*
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अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देन पावे, तो भी न्याय मार्ग, मेरा, कभी न पद डिगने पावे ॥ होकर मुख में मग्न न फले. दख में कभी न घबरावे, पर्वत नदी श्मशान भयानक, अटवास नाहे भय खावे । रहे अडोल अकम्प निरन्तर. यह मन दृढतर बन जावे,
-वियोग प्राने योगमे, महनशीलता दिखलावे ॥ सखा रहे सब जाब जगतके, कोई कमी न घबरावे, और पाप आमा छोड जग, नित्य नये मंगल गाये । पार घर बचा रह धर्मका, मत दप्कर हो जावें, जान चार न जा कर प्रपना, मन ज-जन्म फल सब पावें ।। झाने-माने या ना हे जगले. बाट समयपर हुश्रा कर. धर्म-निष्ट होकर जा मी. न्याय प्रजाका किया कर । गंग-मरी-दर्भिक्ष न फलं. प्रजा शान्तिस जिया करे, परम अहिंसा पम जगत में, फल सब हित के.या कर ॥ फले प्रम परस्पर जगमें. माह दरपर रहा करे, पाप्रेय-बटुक-कटार शब्द नहि, काई मखसे कहा करे । बनकर सब 'युग-वीर हृदयम, देशोन्नति-स्त रहा करें, चस्तु-म्वरूप विचार खशीसे, सब दुख-संकट महा करें।
--श्री जुगुल किशोर जी मुल्यार ।
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