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________________ १४६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वितीय ... .. ... . है-सदा पाप कमोंसे डरता है-क्षमावन्त है-मार्दव आदि गुणोंसे युक्त है; इत्यादि। (२) अशुभनामकर्मके कारण:जिसके मनमें कुछ है और ऊपर कुछ है-दूसरोंको ठगता है-धोखा देता है-झूठी गवाही देता है-घीमें चर्बी आदि वस्तु मिलाता है-दूधमें पानी या अच्छी वस्तुमें निबल वस्तु मिलाता है-अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करता है जो वेश्याओंको वस्त्र, अलंकार देनेवाला हो-धर्मादेके पैसेको खाने वाला या उसका दुरुपयोग करनेवाला हो। उक्त कार्य करनेवाला जीव नरक व एकेन्द्रिय जाति पाता है और अपयश व अकीर्तिको प्राप्त करता है। ७-गोत्रकर्म-बन्धके कारणः(१) उच्चगोत्र-बन्धके कारणः जो किसी व्यक्तिमें दोषके रहते हुए भी उनके विषयमें उदासीन-सिर्फ गुणोंको ही देखनेवाला है-आठ प्रकारके मदोंसे रहित अर्थात् जातिमद, कुलमद, रूपमद, बलमद, श्रुतमद, ऐश्वर्यमद, लाभमद और तपोमद, इनसे रहित है-हमेशा पढ़ने-पढ़ाने में जिसका अनुराग है-जिनेन्द्र भगवान्, सिद्ध, आचाय, उपाध्याय, साधु, माता-पिता तथा गुणवानोंकी भक्ति करता है; इत्यादि।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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