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________________ १८६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [द्वतीय १२- पर्याप्ति, १३ - दृष्टि, १४ - दर्शन, १५ - ज्ञान, १६ - योग, १७-उप२० - स्थिति, २१ - समोहाय योग, १८ - आहार, १६ - उपपात २२ - च्यवन और २३ - गति - श्रगति । १ - जीव जिसके द्वारा भोगोपभोग भोगता है तथा कर्मोंका क्षय करता है, उसे 'शरीर' कहते हैं। वह शरीरनामकर्मके उदयसे जीवको प्राप्त होता है। जिसका वर्णन 'कर्म अधिकार' में कर आये हैं । वह शरीर पाँच प्रकारका होता है - (१) श्रदारिक शरीर, (२) वैक्रिय शरीर, (३) आहारिक शरीर, (४) तैजस शरीर और (५) कार्मण शरीर । २ -- शरीर के क़द अथवा लम्बाईको 'अवगाहना' कहते हैं। अवगाहना कम-से-कम श्रङ्गुलके असंख्यातवें भाग-प्रमाण और अधिक-से-अधिक एक लक्ष योजनसे कुछ अधिक तक होती है। 1 ३- शरीर के हाड़ों के बन्धन विशेषको 'संहनन' कहते हैं । 'संहनन' नामक नाम-कर्म के उदयसे जीव को यह प्राप्त होता है । वह छह प्रकारका होता है: - वज्रऋषभनाराच संहनन, ऋषभनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्धनाराच संहनन, कीलक संहन और सेवार्त (असंप्राप्ता पाटिका ) संहनन । ४ - शरीरकी आकृति अथवा शक्ल को 'संस्थान' कहते हैं । यह भी जीवको 'संस्थान' नाम कर्मके उदयसे प्राप्त होता है। यह छह प्रकारका होता है: -- समचतुस्र संस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, सादि संस्थान, वामन संस्थान, कुब्जक संस्थान और इंडक संस्थान |
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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