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________________ ● मुमुक्षुत्रों के लिये उपयोगी उपदेश * २३५ (७१) कर्मोंके अभाव में आत्माका स्वाभाविक गुण प्रगट हो जाता है और स्वाभाविक दशाको प्राप्त कर यह जीव अतिप्रसन्न हो जाता है। इसकी यह स्वाभाविक दशा ही मुक्ति है- मां है - परमधाम है । खण्ड] ( ७२ ) बद्ध दशा किसीको भी प्रिय नहीं है। सबको स्वाधीन होकर ही रहना पसन्द है । इसीलिये यह जीव मुक्त हो जानेपर अतिमुखी हो जाता है। (७३) मुक्तिका सुख - स्वाधीन हो जानेका सुख इन्द्रके सुख से भी अधिक है। कितना अधिक है ? सौ इन्द्रोंके सुखोंका एकत्रीकरण कर लिया जाय तो भी उसकी समानता नहीं हो सकती। नहीं, यह भी गलत है। सच तो यह है कि वह ऐसा सुख है कि किसीकी तुलना करके उसे नहीं बनाया जा सकता । इसीलिये ज्ञानियोंने उसे 'अनुपमेय' कहा है। ( ७२ ) अनुपमेय भी इसलिये हूँ कि वह इन्द्रिय- भांग जन्य सुखसे विजातीय है। इसके अतिरिक्त एक विशेषता उसमें और भी हैं, और वह विशेषता है स्थायित्वकी - निराबाधकी। इन्द्रियभोग-जन्य सुख अस्थायी है-संबाध है— सान्तराय है और आत्मिक सुख अनन्त - स्थायी - निराबाध - निरन्तराय है । ( ७५ ) तभी तो चक्रवर्ती तक भी अपना छह खण्डों का राज्य छोड़कर उस सुखकी प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करते हैं ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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