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* जेल में मेरा जेनाभ्यास *
सभ्य समाज में आज जो अन्ध परम्पराके दुर्गुण बतलाये जाते हैं, वह इस एकमुखी संस्कारका ही परिणाम है | परीक्षाप्रधानीकी विशिष्टता सभोंने स्वीकार की हैं। परीक्षाप्रधानी वही पुरुष हो सकता है, जिसका वास्तविक तत्व के जाननेको आन्त रिक अभिलाषा उत्पन्न होगई हो और धर्म-धर्मान्तिरोंके स्वरूपों को जाननेकी - समझने की जिसे वास्तविक रूचि होगई हो । पृथ्वीपर जितने भर भी दार्शनिक विद्वान हुए हैं, वे सब इसी तत्त्वजिज्ञासा के प्रभाव से - सर्वतोमुखी संस्कार वाली आत्माको बनाने से हुए हैं।
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हपका समय है कि आजकल ऐसे सर्वतोमुखी संस्कारवाले व्यक्तियोंकी संख्या संसार में बढ़ती हुई नजर आ रही है। आजकल हर एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति दूसरे धर्मों की बातें जाननेको उत्सुक दिखलाई पड़ रहा है। दूसरे मजहबों की सभ्यता जानने की अभिलाषा आज प्रायः सभी पढ़े-लिखे व्यक्तियोंमें देखी जा रही है ।
ऐसे ही बन्धुओंके लिये असल में यह पुस्तक लिखी गई है।