SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड * ध्यानका स्वरूप * ३२७ लिया है, वे इस ध्यानको ध्याकर अनन्त-अक्षय-अमर पदको प्राप्त कर सकेंगे। जो इस ध्यानमें मग्न होते हैं, उन्हें दुनियाँके कोई भी दुःख क्लेश नहीं पहुँचा सकते । वे सदा आनन्दमग्न रहते हैं। जैसे कि 'गजसुकमालजी' के सिरपर उनकी ध्यान अवस्थामें 'सोमल' ब्राह्मणने अपने पूर्वभवक वैरक कारण मट्टी की बाढ़ बाँध कर उसमें जलती हुई तेज अग्निके अंगारे रख दिये थे, जिससे कि 'गजमुकमाल' मुनिका सिर खदबद करने लगा था। पर मुनिने अपने ध्यान में यही सोचा कि यह शरीर मुझसे पृथक है एवं नाशवान है और मेरी आत्मा अजर, अमर. अखण्ड और अविनाशी है । इस कारण मुझको अपने शरीर का कुछ ख्याल नहीं करना चाहिये और ध्यानमें प्रारूढ़ रहना चाहिये । जिसका परिणाम यह हुआ कि गजसुकमाल मुनिको केवलज्ञान और केवलदर्शनकी प्राति हुई और उन्होंने उसी समय निर्वाणपदकी प्राप्ति की। इसी प्रकार एक नहीं अनेक मुनियों ने जिन्होंने अपनी प्रात्माके असली स्वरूपको पहचान लिया था, नाना प्रकारके मारणान्तिक कष्टोंको शान्ति और सरल भावसे सहकर परम आनन्द अवस्थाको प्राप्त किया और मोक्ष पधारे । आधुनिक समयमें भी बहुतसे प्रात्मकल्यागी मुनियोंने समयपर अन्न-जल न मिलने के कारण जंगलों में शान्ति भावसे परिपहोंको सहते हुए 'सन्थारा' धारण किया है और 'पण्डितमरण' किया है। इसी प्रकार संसारमें भव्य प्राणियोंको, जिन्हें अपना मनुष्य-जन्म
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy