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* जेल में मेरा जैनाभ्यास *
द्वितीय
वाले सर्वज्ञ, वीतराग, तीर्थकर भगवानसे सांसारिक जीवोंको सच्चे धर्मका उपदेश मिलता है-यही सर्वज्ञोपदेश संसारमें प्राणीमात्र केलिये हितकारी व उपयोगी होता है।
ऊपरके चार अघातीय अर्थात् वेदनीय, गोत्र, नाम और आयु कर्मकी स्थिति पूरी होनेपर जीव अपने ऊर्ध्व-गमन स्वभावसे जिस स्थानपर कर्मोंसे मुक्त होता है उस स्थानसे सीधा पवनके झकोरोंसे रहित अग्निकी तरह ऊर्ध्वगमन करता है और जहाँ तक ऊपर बताये हुए गमनसहचरी धर्मद्रव्यका सद्भाव है वहाँ तक गमन करता है। आगे धर्मद्रव्य अर्थात् धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे अलोकाकाशमें उसका गमन नहीं होता। इस कारण समस्त मुक्त जीव लोकके शिखर पर विराजमान रहते हैं। यहाँ जिस शरीरसे जीव मुक्ति प्राप्त करता है उस शरीरसे जीव-आकार (: होजाता है ) अर्थात् पोलका भाग नहीं रहनेसे श्रात्म-प्रदेश ठोस हो जाते हैं-किंचित् न्यून हो जाते हैं। __ यदि यहाँ कोई यह शङ्का करे कि जब जीव मोक्षसे लौटकर श्राते नहीं तथा नवीन जीव उत्पन्न होते नहीं और मुक्ति होनेका सिलसिला हमेशा जारी रहता है तो एक दिन संसारके सब जीव मीक्षको प्राप्त कर लेंगे और संसार शून्य हो जायगा । पर इसका उत्तर अथवा समाधान यह है कि जीव-राशि अक्षय अनन्त है, जिस तरह आकाश द्रव्य सर्वव्यापी अनन्त है।