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________________ * कर्म अधिकार * १२७ प्रचलाप्रचला - चलते-फिरते जिस जीवको नींद आती है, उसकी नींदको प्रचलाप्रचला कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे ऐसी नींद आती है, उस कर्मको 'प्रचलाप्रचला कर्म' कहते हैं । खण्ड ] स्त्यानगृद्धि - जो जीव दिनमें अथवा रातमें सोचे हुए कामको नींद अवस्थामें कर डालता है, उसकी इस नींदको स्त्यानगृद्धि कहते हैं । जिस कर्मके उदयसे ऐसी नींद आती है, उस कर्मको 'सत्यानगृद्धि' कर्म कहते हैं। ऋषभ नाराचसंहननवाले जीवको जब इस स्त्यानगृद्धि कर्मका उदय होता है, तब उसे वासुदेवका आधा बल हो जाता है। यह जीव मरनेपर अवश्य नरक जाता है । ग - वेदनीय कर्म: इस कर्मका स्वभाव तलवारकी शहद लगी हुई धाराको चाटने के समान है | वेदनीय कर्मके दो भेद हैं : १ - सातावेदनीय और २ - असातावेदनीय | १ - तलवार की धारपर लगे हुए शहदको चाटने के समान सातावेदनीय है । २ - तलवारकी धारसे जीवके कटने के समान असातावेदनीय है । १ - जिस कर्म के उदयसे आत्माको विषय सम्बन्धी सुखका अनुभव होता है, उसे 'सातावेदनीय कर्म' कहते हैं ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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