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जेलमें मेरा जैनाभ्यास **
तृतीय
दिशाकी मर्यादा करनी चाहिये। जितनी मर्यादा वह कम रक्खेगा, उतना ही वह कम दृषणका भागी होगा।
सातवाँ व्रत भीगोपभोगपरिमाण व्रत' है। इसको दृमग गुणव्रत भी कहते हैं। इसका अर्थ है भोगोपभोगको मर्यादा करना । भोग उन वस्तुओं को कहते हैं, जो सिर्फ एक समय काम में श्रावें । जैसे भोजन-पान, फल, ताम्बृज इत्यादि । उपभोग उन वस्तुओं को कहते हैं, जो बार-बार भागने में आय-एक बार काम में लेने के बाद फिर दुवारा भी भागनम सावें। जैसे कपड़ा, टापा, बक्स, पाल की. गाड़ी आदि।
अगर एक मनुष्य भागीय भागों की मर्यादा नहीं करता है तो मारे संसार में जितनी भीगोपभोगकी वस्नुा है. उन सबका पता श्राता है। फिर भले ही वह मनुष्य संसार की बहुत थोड़ी चीज ही अपने व्यवहारने क्यों न लाना हो । इम कारमा प्रत्येक प्राणीको जितनी वस्तु अपने व्यवहारमा मक, उनको छोड़ कर शेष ममन्न वन्नुयोका न्याग कर देना चाहिय-मयादा कर लेना चाहिये । मांस. मा श्रादि अभक्ष्य पदार्थों का सर्व त्याग करना चाहिये । इनके अतिरिक्त राष्ट्रद. मक्खन, जिमीकन्द ( जो मूल या जड़ जमीनके अन्दर पैदा होती है। ) जैसे बालू . प्याज, अदरक, मकर कन्दी श्रादि भी त्यागने योग्य है । तथा गमे फलोंका भी त्याग करना चाहिय जिसमें ज्यादा हिम्सा फका जाय और कम हिम्मा उपयोगमें श्रावे । गृहस्थ के लिये अच्छा