Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutram Tika
Author(s): Abhaydevsuri, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-आगम-ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क २० श्री समवायाङ्गसूत्रम् आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितवृत्तिविभूषितम् आच विरा सम्पादकः संशोधकश्च पूज्यपादमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजयः મીરના loan paresan Body -: प्रकाशक :श्री महावीर जैन विद्यालय मुंबई ४०००३६ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शत्रुंजयतीर्थ- पालीताणा गिरिवर दरिशन विरला पावे am Education international ● Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Edison Wavignal to Poate personas www.jamente Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-आगम-ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क २० नवाङ्गीटीकाकारश्रीमदभयदेवसूरिविरचितविवरणविभूषितं पञ्चमगणधरदेवश्री सुधर्मस्वामिपरम्पराऽऽयातं श्री समवायाङ्गसूत्रम् आद्यसंशोधका आगमप्रभाकराः पूज्यपादमुनिराजश्री पुण्यविजयजीमहाराजाः सम्पादकः पुनः संशोधकश्च पूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालङ्कारपूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यरत्नपूज्यपादगुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजयः सहायकाः मुनिराजश्री धर्मचन्द्रविजय-पुण्डरीकरत्नविजय-धर्मघोषविजय-महाविदेहविजयाः --:प्रकाशक :श्री महावीर जैन विद्यालय मुंबई ४०००३६ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं संस्करणम् : वीर संवत् २५३१/ विक्रमसं. २०६१ / ई. स. २००५ प्रतयः २५० मूल्यम् रू. ४५०:०० प्रकाशकः - श्रीमहावीर जैन विद्यालयः ओगस्ट क्रान्तिमार्ग, मुंबई ४०००३६. प्राप्तिस्थान :(१) प्रकाशक (२) सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोळ, अहमदाबाद-३८०००१. फोन : ०७९-२५३५६६९२ टाईप सेटींगश्री पार्श्व कोम्प्युटर्स ५८ पटेल सोसायटी, जवाहर चोक, मणिनगर, अमदावाद. फोन : ०७९-३०९१२१४९ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jaina-Agama-Series No. 20 SAMAVĀYANGASŪTRAM with the commentary by Ācārya Sri Abhayadev-Sūri Mahārā ja critically edited by MUNI JAMBŪVIJAYA disciple of His Holiness Munirāja ŠRI BHUVANAVIJAYAJĪ MAHĀRĀJA SRI MAHAVIRA JAINA VIDYALAYA MUMBAI 400 036 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ First Edition : Vir Samvat 2531 / Vikram Samvat 2061 / A.D. 2005 Copies : 250 Price : Rs. 450=00 Published by : The Secretary, Sri Mahāvira Jaina Vidyalaya August Kranti Marg, Mumbai-400 036. Available At : (1) Publisher (2) Saraswati Pustak Bhandar 112, Hathikhana, Ratanpole, Ahmedabad, Gujarat Rajya (India) - Pin-380001. Tel. : 079-25356692 Composed By Shree Parshva Computers 58, Patel Society, Jawahar Chowk, Maninagar, Ahmedabad. Tel : 079-30912149 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धगिरिमंडन श्री ऋषभदेव भगवान श्री शजयतीर्थाधिपति श्री आदीश्वरपरमात्माने नमः IFFRab Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शंखेश्वरजी तीर्थमां बिराजमान देवाधिदेव immum Dislind SARALBAM श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छ श्री श्रमणसंघना घणा मोटा भागना श्रमण भगवंतोना गुरुदेव परमपूज्य पूज्यपाद तपस्विप्रवर पं. श्री मणिविजयजी गणी (दादा) जन्म-विक्रमसं. १८५२, भादवा सुदि, अघार (विरमगाम पासे) दीक्षा-विक्रमसं. १८७७, पाली (माखाड) पंन्यासपद-विक्रमसं. १९२२, जेठ सुदि १३ अमदावाद स्वर्गवास-विक्रमसं. १९३५, आसो सुदि अमदावाद Education international astromrus Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद महातपस्वी गणिवर्य पं. श्री मणिविजयजी महाराज (दादा)ना शिष्यरत्न ___ पूज्यपाद संघस्थविर आचार्यदेव श्री १००८ विजय सिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) महाराज जन्म : वि. सं. १९११ श्रावण सुदि १५, वळाद (अमदावाद पासे) दीक्षा : वि. सं. १९३४ जेठ वदि २, अमदावाद पंन्यासपद : वि.सं. १९५७, सूरत आचार्यपद : वि. सं. १९७५ महा सुदि ५, महेसाणा स्वर्गवास : वि. सं. २०१५ भाद्रपद वदि १४, अमदावाद Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद संघस्थविर आचार्यदेव श्री १००८ विजयसिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) महाराजना पट्टालंकार पूज्यपाद आचार्यदेवश्री विजयमेघसूरीश्वरजी महाराज जन्म : वि. सं. दीक्षा : वि. सं. पंन्यासपद : वि. सं. आचार्यपद : वि. सं. स्वर्गवास : वि. सं. १९३२ मागशर सुदि ८, चंदेर १९५८ कारतिक वदि ९, मींयागाम-करजण १९६९ कारतिक वदि ४, छाणी १९८१ मागशर सुदि ५, अमदावाद १९९९ आसो सुदि १, अमदावाद w Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. आगमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज जन्म : वि. सं. १९५२ कारतिक सुदि ५, (कपडवंज) दीक्षा : वि. सं. १९६५ महा वदि ५ (छाणी) स्वर्गवास : वि. सं. २०२७ जेठ वदि ६, (मुंबई) ता. १४-६-१९७१ सोमवार For Private & Personal use only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय संघस्थविर श्री १००८ आचार्यदेवश्री विजयसिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) महायजना पट्टालंकार पूज्यपाद आचार्यदेवश्री विजयमेघसूरीश्वरजी महायजना शिष्यरत्न पूज्यपाद गुरुदेव मुनिराजश्री भुवनविजयजी महाराज जन्म : वि. सं. १९५१ श्रावण वदि ५, शनिवार, ता. १०-८-१८९५, मांडल दीक्षा : वि. सं. १९८८ जेठ वदि ६, शुक्रवार, ता. २४-६-१९३२, अमदावाद स्वर्गवास : वि. सं. २०१५ महा सुदि ८, ता. १६-२-१९५९, शंखेश्वरजी तीर्थ Jain Education Intematonal Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद साध्वीजी श्री लाभश्रीजी महाराज (सरकारी उपाश्रयवाला)ना शिष्या पूज्यपाद साध्वीजी श्री मनोहरश्रीजी महाराज जन्म : वि. सं. १९५१ मागशर वदि २, शुक्रवार, ता.१४-१२-१८९४ झींझुवाडा दीक्षा : वि.सं. १९९५ महा वदि १२, बुधवार, ता. १५-२-१९३९ अमदावाद स्वर्गवास : वि. सं. २०५१ पोष सुदि १०, बुधवार, ता. ११-१-१९९५ यत्रे ८-५४ वीशानीमाभवन जैन उपाश्रय, सिद्धक्षेत्र पालिताणा. FFor PrivateRFersonauto Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ.પૂ.આચાર્યશ્રી વિજયવલ્લભસૂરીશ્વરજી મ.સા. જન્મ તિથિ : વિ.સં.૧૯૨૦ કારતક સુદ બીજ (ભાઇબીજ), વડોદરા. દિક્ષા તિથિ : વિ.સં.૧૯૪૩ વૈશાખ સુદ ૧૩, રાધનપુર. સ્વર્ગવાસ તિથિ : વિ. સં. ૨૦૧૦ ભાદરવા સુદ ૧૦ મંગળવાર, તા.૨૨/૯/૧૯૫૪, મુંબઇ ducation International Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रमः १-७ १-१४ पृष्ठाङ्काः પ્રકાશકીય નિવેદન જિનઆગમ જયકારા (ગુજરાતી પ્રસ્તાવના) किञ्चित् प्रास्ताविकम् (हिन्दी) आमुखम् (संस्कृतम्) TWO WORDS पू० पुण्यविजयजीमहाराजगुणानुवादः (ले० पं० बेचरदास जीवराज दोशी) अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર समवायाङ्गसूत्रस्य विषयानुक्रमः समवायाङ्गसूत्रम् नव परिशिष्टानि चित्राणि १-२ १-४६ १-२० १-३१० १-१०५ १-२५ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદન આજથી ૩૭ વર્ષ અગાઉ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે આપણા આચાર્ય ભગવંતો ધર્મગુરુઓ તથા વિદ્વાન શ્રાવકોની ધર્મપિપાસા સંતોષાય તેમજ ધર્મજ્ઞાનના ઊંડાણનો અભ્યાસ શકય બને તે માટે જૈન ધર્મના આગમસૂત્રોનું પ્રકાશન શરૂ કર્યું હતું. જૈન ધર્મના ૨૪મા તીર્થંકર ભગવાન શ્રી મહાવીરસ્વામીના ઉપદેશોનો સંગ્રહ એટલે આગમસૂત્રો. આપણા આગમસૂત્રોનો તલસ્પર્શી અભ્યાસ જૈન ધર્મનું શુદ્ધ સ્વરૂપ બતાવે છે અને તેનું આચરણ મોક્ષમાર્ગનું પ્રેરક બને છે. આગમ ગ્રંથમાળાના મુખ્ય પ્રેરક આગમ પ્રભાકર શ્રુતશીલ-વારિધિ દિવંગત મુનિરાજ પૂજ્યશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજ સાહેબે જ્યોતિષકરંડક ગ્રંથની પ્રાકૃત ભાષામાં રચાયેલી સંક્ષિપ્ત વૃત્તિ (ટિપ્પનકોને સંશોધિત કરેલી છે. આ કાર્ય પૂર્ણ કર્યા પછી એકાદ વર્ષના અંતરે તેઓશ્રી કાળધર્મ પામ્યા: આગમ ગ્રંથમાળાના માર્ગદર્શક કાળધર્મ પામતાં આગમ-પ્રકાશનની પ્રવૃત્તિમાં ઓટ આવશે, શૂન્યાવકાશ સર્જાશે એવી અમોને દહેશત હતી, પરંતુ સમગ્ર ભારતીય દર્શનોના તથા જૈન આગમ ગ્રંથમાળાના મર્મરૂપ વિદ્રવ્રર્ય પૂજ્યપાદ મુનિરાજ શ્રી અંબૂવિજયજી મહારાજ સાહેબે બાકી રહેલાં કાર્યોને આગળ ધપાવવાની અમારી વિનંતી સ્વીકારી એ અમારાં અહોભાગ્ય છે. જૈન આગમ-સૂત્રોના ૨૦ મણકારૂપે ટીકાસહિત સમવાયાંગસૂત્રને પ્રકાશિત કરતાં અમે આનંદ અને હર્ષની લાગણી અનુભવીએ છીએ. આશા છે કે આ ગ્રંથો શ્રી ગુરુદેવો અને આપણા સમાજના સુશ્રાવક-શ્રાવિકાને જૈન ધર્મના તલસ્પર્શી અભ્યાસમાં ખૂબજ મદદરૂપ થશે. શ્રુતભક્તિના ક્ષેત્રે આંતરરાષ્ટ્રીય ખ્યાતિ અપાવે એવાં આ સંગીન અને અનુમોદનીય આગમસૂત્રોના સંશોધન અને પ્રકાશન માટે “શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય જિનાગમ પ્રકાશન ટ્રસ્ટ”ની ખાસ રચના કરવામાં આવી છે જેના હાલના ટ્રસ્ટીઓ નીચે મુજબ છે. ૧. શ્રી શ્રીકાંતભાઈ એસ. વસા ૨. શ્રી અશોકભાઈ કાંતિલાલ કોરા ૩. શ્રી નવનીતભાઈ ખીમચંદ ડગલી ૪. શ્રી રમણીકલાલ પ્રેમચંદ શાહ ૫. શ્રી સેવંતિલાલ કેશવલાલ શાહ ૬. શ્રી જીતેન્દ્રભાઈ બી. શાહ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે અત્યાર સુધીમાં નીચે મુજબનાં આગમ ગ્રંથોનું પ્રકાશન કરેલ છે. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદન ग्रंथांक १ नंदिसुत्तं अणुओगद्दाराइं च संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ४०.०० ग्रंथांक २ (१) आयारंगसुत्तं संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ४०.०० ग्रंथांक २ (२) सूयगडंगसुत्तं संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ४०.०० ग्रंथांक ३ ठाणंगसुत्तं समवायंगसुत्तं च संपादक : जम्बूविजयो मुनिः १२०.०० ग्रंथांक ४ (१) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग-१ संपादक : पं.बेचरदास जीवराज दोशी ४०.०० ग्रंथांक ४ (२) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग-२ संपादक : पं.बेचरदास जीवराज दोशी ४०.०० ग्रंथांक ४ (३) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग-३ संपादक : पं.बेचरदास जीवराज दोशी ४०.०० ग्रंथांक ९ (१) पण्णवण्णासुत्तं भाग-१ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ३०.०० ग्रंथांक ९ (२) पण्णवण्णासुत्तं भाग-२ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ३०.०० ग्रंथांक १५ दसवेयालियसुत्तं, उत्तरायणाइं, आवस्सयसुत्तं च संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ५०.०० ग्रंथांक १७ (१) पइण्णयसुत्ताई भाग-१ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ८०.०० ग्रंथांक १७ (२) पइण्णयसुत्ताई भाग-२ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ८०.०० ग्रंथांक १७ (३) पइण्णयसुत्ताई भाग-३ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ६०.०० ग्रंथांक ५ णायाधम्मकहाओ संपादक : जम्बूविजयो मुनिः १२५.०० ग्रंथांक १८ (१) सटीकम् अनुयोगदारसूत्रम् भाग-१ संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ४५०.०० ग्रंथांक १८ (२) सटीकम् अनुयोगदारसूत्रम् भाग-२ संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ४५०.०० ग्रंथांक १९ (१) सटीकं स्थानाङ्गसूत्रम् भाग-१ संपादक : जम्बूविजयो मुनि: ५५०.०० ग्रंथांक १९ (२) सटीकं स्थानाङ्गसूत्रम् भाग-२ संपादक : जम्बूविजयो मुनि: ५५०.०० ग्रंथांक १९ (३) सटीकं स्थानाङ्गसूत्रम् भाग-३ संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ५५०.०० શ્રુતજ્ઞાન પ્રેરિત જિનાગમ સંશોધન કાર્ય અને ભારતના જુદા જુદા સ્થળોના જ્ઞાનભંડારોની સામગ્રીનો ઉપયોગ કરવા દેવા માટે સહાયરૂપ થયા છે તેવા કાર્યકરોનો તથા આ કાર્યમાં પ્રત્યક્ષ અને પરોક્ષરૂપે સહાયરૂપ થનાર મહાનુભાવોનો અંતઃકરણ પૂર્વક આભાર માનીએ છીએ. આગમ ગ્રંથ સટીક સમવાયાંગસૂત્રનું પ્રકાશન પૂ. આચાર્ય ભગવંતોને તથા તેમના શિષ્યવૃંદને જૈન ધર્મના શ્રદ્ધાવાન શ્રાવકોને તેમજ જૈન ધર્મના સંશોધનમાં રસ ધરાવનાર અભ્યાસીઓને જૈન ધર્મના ઉંડા અભ્યાસ માટે ઉપયોગી થઈ પડશે એવી આશા સાથે વિરમીએ છીએ. આ પુસ્તકના પ્રકાશન માટે અનહદ જહેમત ઉઠાવવા બદલ અમો આગમ વિશારદ પ્રાતઃ સ્મરણીય પૂજ્ય મુનિરાજ શ્રી જંબૂવિજયજી મ.સા.ના ઋણી છીએ. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય ખાંતિલાલ ગોકળદાસ શાહ ઓગષ્ટ ક્રાંતિ માર્ગ, મુંબઈ-૩૬ સુબોધરત્ન ચીમનલાલ ગારડી di. २७-१२-२००४ પ્રકાશચંદ્ર પ્રવીણચંદ્ર ઝવેરી માનદ્ મંત્રીઓ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદન વિદ્યાતીર્થ વિદ્યાલય - શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય પંજાબકેસરી આચાર્યશ્રી પ.પૂ.વિજય વલ્લભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના ઉપદેશથી આજથી નેવ્યાસી વર્ષ પૂર્વે વિ.સં.૧૯૭૦, ફાગણ સુદ પાંચમને સોમવાર, તા. ૨-૩-૧૯૧૪ના શુભ દિવસે “શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની મંગલ સ્થાપના કરવામાં આવી. તે સમયે જૈન સમાજ માટે શિક્ષણની જરૂરિયાત બહુ જ હતી. અને ખાસ કરીને ગ્રામ્ય વિસ્તારના વિદ્યાર્થીઓ શિક્ષણથી વંચીત ન રહે તે બાબત પણ મહાનુભાવોના મનમાં હતી. અનેક શહેર અને સ્થળનું અવલોકન કર્યા બાદ મુંબઈ શહેરની પસંદગી કરવામાં આવી. આ સંસ્થા ફક્ત વિદ્યાર્થીગૃહ ન રહેતાં ચારિત્ર નિર્માણ અને સાંસ્કૃતિક મૂલ્ય અને ધાર્મિક જ્ઞાન પ્રદાનનું કેન્દ્ર બને અને સમાજ સમૃદ્ધ થાય તેવી દષ્ટિ પણ સ્વીકારવામાં આવી હતી. અને સંસ્થાના સ્થાપના સમયે ત્રણ મૂળભૂત મુદ્દાઓ પણ વિચારવામાં આવ્યા હતા. રાત્રિભોજન નિષેધ, અભક્ષ્યનો ત્યાગ અને જિનપૂજા સાથે ધાર્મિક અભ્યાસ વિગેરે ધ્યાનમાં રાખીને પંદર વિદ્યાર્થીઓ સાથે “શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય” ૧૯૧૫માં ભાડાના મકાનમાં શરૂ કરવામાં આવ્યું. જે આજે વટવૃક્ષ બની ગુજરાત-મહારાષ્ટ્ર તેમજ રાજસ્થાનનાં મુખ્ય શહેરોમાં નવ શાખાઓ, ૧,૦૦૦ વિદ્યાર્થીઓ અભ્યાસ કરી શકે તેવું અદ્યતન સુવિધાઓ સાથે શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય ટુંક સમયમાં “શતાબ્દી” તરફ આગળ વધી રહ્યું છે. વિદ્યાર્થીઓના ઉત્તેજન માટે કાર્યશીલ સંસ્થાએ કન્યા કેળવણી માટે ૧૯૪૩માં બંધારણમાં ખાસ સુધારો કરીને કન્યા છાત્રાલય સ્થાપવાનો નિર્ણય કર્યો. પણ એનો અમલ ૧૯૯૨ના અમૃત મહોત્સવની ઉજવણી પ્રસંગે સંસ્થાના કાર્યશીલ હોદ્દેદારોએ જૈન સમાજ પાસે સંકલ્પ મુક્યો અને અમદાવાદ શહેરમાં ૧૯૯૪માં ૮૮ વિદ્યાર્થિનીઓને નિઃશુલ્ક (રહેવા-જમવાની સગવડતા) સગવડ આપવા સાથે શુભ શરૂઆત કરવામાં આવી. ગુજરાત મહારાષ્ટ્ર પછી હિન્દી ભાષી રાજ્ય તરફ આગળ વધવાનો સંકલ્પ અમૃત મહોત્સવ સમાપન સમારોહ સમયે લેવાઈ ચૂક્યો હતો. જે ૨૦૦૧માં ઉદયપુર શાખાનું ઉદ્ઘાટન કરીને પૂર્ણ થયો શ્રી વાડીલાલ સારાભાઈ વિદ્યાર્થીગૃહ, મુંબઈ-૩૬ના મકાનનું નવનિર્માણ કરવાનું હોવાથી હંગામી ધોરણે સને ૨૦૦૧ માં સી.પી. સેંક, મુંબઈ-૪ ખાતે ૨૬ વિદ્યાર્થીઓને પ્રવેશ આપવામાં આવ્યો હતો અને વર્ષ ૨૦૦૪-૦૫ના વર્ષથી સેન્ડહસ્ટ રોડ, મુંબઈ-૯ ખાતે ૮૫ વિદ્યાર્થીઓને પ્રવેશ આપવામાં આવ્યો છે. પણ હજી કન્યા છાત્રાલય માટે કાર્યશીલ હોદ્દેદારો તથા કાર્યવાહકો ગુજરાતના જુદા જુદા શહેરોમાં કન્યા છાત્રાલય ઉભા કરવા માટે દ્રઢ વિશ્વાસ સાથે આગળ વધી રહ્યા છે. સંસ્થાની વિવિધ પ્રવૃત્તિઓ : આ સંસ્થા વિદ્યાશાખા કે કન્યાઓ માટે છાત્રાવાસો ઉભા કરીને સંતોષ ન માનતાં સમાજના યુવા વર્ગને શૈક્ષણિક સહાયની પ્રવૃત્તિઓમાં પણ આગળ રહે છે. તેની વિગત નીચે મુજબ છે. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદન (૧) સંસ્થા દ્વારા પરદેશ જતા વિદ્યાર્થીઓને લોન આપવામાં આવે છે. કોલેજમાં અભ્યાસ કરતી વિદ્યાર્થીનીઓને સંસ્થાના અમદાવાદ ખાતે કન્યા છાત્રાલયમાં ગુણવત્તાના ધોરણે નિઃશુલ્ક પ્રવેશ આપવામાં આવે છે. પ્રવેશથી વંચિત રહી ગયેલ અને અમદાવાદ શહેર સિવાયની કોલેજમાં અભ્યાસ કરતી વિદ્યાર્થિનીઓને અભ્યાસમાં સહાયરૂપ થવા આ સંસ્થા તરફથી ધો.૧૦ થી સ્નાતક સુધીનો અભ્યાસ માટે પૂરક રકમની સહાય શિષ્યવૃત્તિ આપવામાં આવે છે. જેમાં છેલ્લાં છ વર્ષમાં આપેલ રકમ અને વિદ્યાર્થીનીઓની સંખ્યા નીચે દર્શાવેલ છે. ૧૯૯૮-૧૯૯૯ ૮૩ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૧૦૫૬૦૦/૧૯૯૯-૨૦૦૦ ૯૦ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૧૦૯૭૦૦/૨૦૦૦-૨૦૦૧ ૧૩૪ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૧૬૮૦૦૦/૨૦૦૧-૨૦૦૨ ૧૩૪ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૧૬૭૧૦૦/૨૦૦૨-૨૦૦૩ ૧૭૯ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૨૨૨૦૦૦/ ૨૦૦૩-૨૦૦૪ ૧૪૯ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૧૮૭૫00/જૈન સાહિત્ય અને પ્રકાશનને ઉત્તેજન : સંસ્થા દ્વારા જૈન ધર્મના પુસ્તકોના પ્રકાશનને ઉત્તેજન મળે તે માટે શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય જિનાગમ ટ્રસ્ટની રચના કરવામાં આવી છે અને આ ટ્રસ્ટ દ્વારા આગમના ગ્રંથો તૈયાર કરવામાં આવે છે. તેમજ અન્ય પુસ્તકોનું પ્રકાશન પણ સંસ્થા દ્વારા પ્રગટ કરવામાં આવે છે. સાદી અને સરળ ભાષામાં વિવેચનાત્મક અને સંશોધનાત્મક સાહિત્યની વિપુલ સામગ્રી પ્રકટ કરવાની સમયદર્શી આચાર્ય શ્રી વિજયવલ્લભસૂરીશ્વરજી મહારાજ અને સંસ્થાના અનેકમુખ ઉત્કર્ષના પુરસ્કર્તા શ્રી મોતીચંદભાઈ કાપડીઆની ભાવના હતી અને આ માટે મોતીચંદભાઈ કાપડીઆએ ગ્રંથમાળાના સંપાદન કાર્યની શરૂઆત કરી અને આજદિન સુધીમાં ૯ પુસ્તકો તથા શ્રી મોહનલાલ દલીચંદ દેસાઈ (સંગ્રાહક અને સંપાદક) ગ્રંથમાળાના જૈન ગુર્જર કવિઓ ભાગ ૧ થી ૧૦ અને અન્ય સાત પુસ્તકો તથા મુનિશ્રી નંદિઘોષ વિજયજી પ્રકાશિત બે પુસ્તકો પ્રકાશિત થયેલ છે. (૨) જૈનસાહિત્યને ઉત્તેજન મળે તે માટે આજદિન સુધીમાં ૧૬ જૈન સાહિત્ય સમારોહનું જુદા જુદા સ્થળે આયોજન કરવામાં આવેલ છે. વિદ્યાલયની વિદ્યાશાખાઓનો વિસ્તાર : ૧૫ વિદ્યાર્થીઓ સાથે સને ૧૯૧૫માં શરૂ થયેલ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય, ગોવાલીયા ટેન્ક પર સંસ્થાના મકાનમાં ભાવનગર રાજ્યના દીવાન સર પ્રભાશંકર પટનીના શુભ હસ્તે તા.૩૧-૧૦-૧૯૨૫માં ખુલ્લુ મુકવામાં આવ્યું અને ત્યારબાદ સંસ્થાની પ્રગતિ, વિદ્યાશાખાઓની સ્થાપનાનો ઈતિહાસ નીચે મુજબ છે. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદન (૨) ૧૯૪૬ અમદાવાદમાં શ્રી જેસીંગભાઈ ભોળાભાઈ વિદ્યાર્થી ગૃહ શરૂ કરવામાં આવ્યું. (૩) ૧૯૪૭ મહારાષ્ટ્રમાં પૂના શહેરમાં શ્રી ભારત જૈન વિદ્યાલયના નામે શેઠશ્રી ગગલભાઈ હાથીભાઈ જેવા આગેવાનના સહકાર દ્વારા ખુલ્લું મુકવામાં આવ્યું. (૪) ૧૯૫૪ વડોદરા શહેરમાં ચાલતી સંસ્થા શ્રી જૈન વિદ્યાર્થી આશ્રમના સંચાલકોએ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયને સંચાલન સોંપી દીધું. એટલે ૫.પૂ. આચાર્યશ્રી વિજયવલ્લભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ની જન્મભૂમિમાં સંસ્થાએ કાર્યભાર સંભાળીને નામ આપ્યું. શ્રી લહેરચંદ ઉત્તમચંદ વિદ્યાર્થીગૃહ. (૫) ૧૯૬૪ ગુજરાત રાજ્ય સરકારે ખાસ શિક્ષણ સુવિધાઓને ધ્યાનમાં રાખીને વલ્લભવિદ્યાનગર શહેરનો વિકાસ કર્યો. સને ૧૯૫૪માં વડોદરા શાખાની શરૂઆત થયા બાદ દશ વર્ષ પછી આપણી આ પાંચમી સંસ્થા શરૂ કરવામાં આવી. અને આ સંસ્થાને શ્રી લહેરચંદ ઉત્તમચંદ વિદ્યાર્થીગૃહ નામ આપવામાં આવ્યું. (૬) ૧૯૭૦ ભાવનગર શહેરમાં સૌરાષ્ટ્ર તરફથી આવતા વિદ્યાર્થીઓની જરૂરીયાતને લક્ષ્યમાં રાખીને શાખા ખુલ્લી મુકવામાં આવી. આ સંસ્થાને શ્રી મણીલાલ દુર્લભજી વિદ્યાર્થીગૃહ નામ આપવામાં આવ્યું. (૭) ૧૯૭૨ ૫.પૂ.આચાર્યશ્રી વલ્લભસૂરીશ્વરજીના જન્મ શતાબ્દીની વર્ષ ૧૯૭૦ માં જૈન સમાજમાં ધામધુમથી ઉજવણી થઈ હતી. ગુરૂદેવની જન્મ શતાબ્દી નિમિત્તે ઓલ્ડ બોયઝ યુનિયનના પ્રયાસોથી ગુરૂદેવનું નામ જોડીને “શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય” અંધેરીમાં શાખા શરૂ કરી. (૮) ૧૯૯૪ સને ૧૯૪૬ના વર્ષથી કરેલો સંકલ્પ અને ૧૯૯૨માં સંસ્થાના અમૃત મહોત્સવ પ્રસંગે કન્યા છાત્રાલય શરૂ કરવાના દઢ નિર્ધારના ફળ સ્વરૂપ સને ૧૯૯૪માં અમદાવાદમાં કન્યા છાત્રાલય શરૂ કરવામાં આવ્યું અને આ શાખાને શ્રીમતી શારદાબેન ઉત્તમલાલ મહેતા કન્યા છાત્રાલય નામ આપવામાં આવ્યું. (૯) ૨૦૦૧ ગુજરાત-મહારાષ્ટ્ર ઉપરાંત અન્ય રાજ્યમાં શાખા શરૂ કરવાનો સંકલ્પ પુરો થયો. ઉદયપુર મુકામે શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય એલ્મની. એસોસીએશન, યુ.એસ.એ.ના સહકારથી ૮૦ વિદ્યાર્થીઓની કેપેસીટી સાથે પૂર્ણ થયો. અને શાખાને ડો. યાવન્તરાજ પુનમચંદજી અને શ્રીમતી સંપૂર્ણા જૈન વિદ્યાર્થીગૃહ નામ આપવામાં આવ્યું. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદન (૧૦) ૨૦૦૧ સંસ્થાની શ્રી વાડીલાલ સારાભાઈ વિદ્યાર્થીગૃહ, મુંબઈ-૩૬ના મકાનનું નવનિર્માણ કરવાનું હોવાથી વિદ્યાર્થીઓને અગવડતા ન પડે તે માટે શ્રી જૈન ઉદ્યોગગૃહના (સી.પી.ટેક) સ્થિતના મકાનના ચોથા-પાંચમા માળે સને ૨૦૦૧માં ર૬ વિદ્યાર્થીઓને પ્રવેશ આપી, શ્રી સી.પી.ટેક ખાતે હંગામી ધોરણે વિદ્યાર્થીગૃહ શરૂ કરવામાં આવ્યું. (૧૧) ૨૦૦૪-૦૫ વધુ વિદ્યાર્થીઓને પ્રવેશ આપી શકીએ તે કારણે (સી.પી. બેંક શાખામાં હાલ પ્રવેશ આપવામાં આવેલ નથી.) કચ્છી વિશા ઓશવાળ જૈન મહાજનના મકાનના ચોથા અને પાંચમાં માળે ૧૨૦ વિદ્યાર્થીઓનો સમાવેશ થઈ શકે તેવી જગામાં હાલ ૮૫ વિદ્યાર્થીઓને પ્રવેશ આપી સને ૨૦૦૪-૦૫ના વર્ષથી હંગામી ધોરણે વિદ્યાર્થીગૃહ શરૂ કરવામાં આવ્યું. , ઉદ્દેશો અને અમલીકરણ તેમજ એકવીસમી સદી તરફ પ્રયાણ : શરૂઆતમાં જે મૂળભૂત નિયમો ઘડવામાં આવ્યા હતા તે અનુસાર આજ રીતે આજે આઠ દાયકાથી સંસ્થા મક્કમપણે એકવીસમી સદી તરફ આગળ વધી રહી છે. જેમાં નીચેના મૂળભૂત નિયમો અમલમાં છે. (૧) દરેક શાખામાં વિદ્યાર્થીઓ નિયમિત જિનપૂજા કરી શકે તે માટે મુંબઈ, અંધેરી, વડોદરા, વલ્લભવિદ્યાનગર તેમજ ભાવનગરમાં શિખરબંધી દેરાસરજી બનાવેલ છે. જ્યારે પૂના, અમદાવાદ, ઉદયપુરમાં ઘર દેરાસર છે. પૂનામાં ટુંક સમયમાં શિખરબંધી દેરાસર બાંધવા માટે નિર્ણય લેવાયેલ છે. (૨) ધાર્મિક અભ્યાસક્રમ માટે દરેક શાખામાં ધાર્મિક શિક્ષકો દ્વારા ક્લાસ ચલાવવામાં આવે છે. નિયમિત ધાર્મિક પરિક્ષાઓ લેવામાં આવે છે. અને પ્રોત્સાહનરૂપે વિદ્યાર્થીઓને ઈનામો આપવામાં આવે છે. (૩) વિદ્યાર્થીઓને ધાર્મિક પ્રવાસ, ડેવલપમેન્ટ શિબીરો, ઉગ્ર તપશ્ચર્યાઓને પ્રોત્સાહન માટે સુવિધાઓ આપવામાં આવે છે. (૪) વિદ્યાર્થીઓના સાંસ્કૃતિ વિકાસ માટે સ્પર્ધાઓ, રમત-ગમત તેમજ વ્યાયામના સાધનો ઉપલબ્ધ હોય છે. (પ) શાખાના વિદ્યાર્થીઓ દ્વારા “આંતર શાખા હરિફાઈ” યોજવામાં આવે છે. અને પ્રોત્સાહન રૂપે ઈનામો આપવામાં આવે છે. (૬) વિદ્યાર્થીઓને “જનરલ નોલેજ” માટે શાખાઓમાં છાપાં, મેગેજીન-સારાં પુસ્તકો તેમજ વિશાળ લાઈબ્રેરીઓ સ્થાપવામાં આવી છે. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદન (૭) એકવીસમી સદી તરફ જઈ રહેલ વિશ્વમાં આપણે પાછળ ન રહીએ તે માટે વિદ્યાર્થીઓને અદ્યતન ફર્નીચર તેમજ સાત્વીક ભોજન અને કોમ્યુટર શિક્ષણ માટે શાખામાં જ (કોમ્યુટર સુવિધા આપવામાં આવી રહી છે. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય, ૮૯ વર્ષ દરમ્યાન, સમાજના હજારો નવયુવાનોને વિદ્યાના અમૃતનું પાન કરાવી કાર્યદક્ષ અને સ્વાશ્રયી બનાવ્યા છે અને તેમના જીવનને સેવાભાવના, ધાર્મિકતા તેમજ સંસ્કારિતાથી સુવાસિત બનાવ્યા છે. | ઉછરતી પેઢીને વિદ્યાનું દાન અને પ્રેરણાનું પાન કરાવીને સમાજને સમૃદ્ધ, શક્તિશાળી અને સંસ્કારી બનાવનારી વિદ્યાલયની આ મહાપરબ અત્યારે પણ અવિરતપણે ચાલી રહી છે. સમાજના કલ્યાણબંધુ મહાનુભાવો અને પુણ્યમાર્ગના પ્રવાસીઓ ! ઉદાર આર્થિક સહકારરૂપી આપની ભાવનાનાં નીર, આ મહાપરબમાં નિરંતર ઉમેરતા રહેશો ! આપની ઉદારતા આપને ધન્ય બનાવશે અને સમાજને સમૃદ્ધ બનાવશે ! આવો બેવડો લાભ લેવાનું રખે કોઈ ચુકતા ! જ્ઞાન પ્રસાર દ્વારા સમજણને વિસ્તારવાનો જે પુરૂષાર્થ કરે તે જગતનો મોટો ઉપકારી છે. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે આવા પુરૂષાર્થ દ્વારા સમાજને સમૃદ્ધ, શક્તિશાળી અને સુખી બનાવવાનું વિનમ્ર જીવન વ્રત સ્વીકાર્યું છે. જે એ વ્રત પાલનમાં સહાયક થશે તે કૃતકૃત્ય થવાની સાથે સમાજકલ્યાણના સહભાગી બનશે. સૌને સથવારે આપણે તન, મન અને ધનથી વિદ્યાલયની સેવામાં અહર્નિશ ઉભા રહીએ અને યુગપુરૂષના આશીષસહ, ભવ્ય ભૂતકાળના સહારે સુંદર વર્તમાનની કેડી પર કદમ મિલાવી ઉત્કૃષ્ટ ભવિષ્યનું સ્વમ સિદ્ધ કરીએ એજ અભ્યર્થના. મુંબઈ-૩૬ તા.૨૭-૧૨-૨૦૦૪ વિ.સેવકો ખાંતિલાલ ગોકળદાસ શાહ સુબોધરત્ન ચીમનલાલ ગારડી પ્રકાશચંદ્ર પ્રવીણચંદ્ર ઝવેરી માનદ્ મંત્રીઓ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धाचलमण्डन-श्री ऋषभदेवस्वामिने नमः । श्री शान्तिनाथस्वामिने नमः । श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजीपादपद्मभ्यो नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरजीपादपद्येभ्यो नमः । पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयजीपादपद्येभ्यो नमः । જિન આગમ જયકારા (પ્રસ્તાવના) અનંત ઉપકારી પરમકૃપાળુ અરિહંત પરમાત્માની પરમ કૃપાથી તથા પૂજ્યપાદ પરમ ઉપકારી પિતાશ્રી તથા સદગુરુદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજની પરમકૃપા તથા સહાયથી પંચમ ગણધરભગવાન સુધર્માસ્વામિવિરચિત દ્વાદશાંગીના ચતુર્થ અંગ સમવાયાંગસૂત્રને તથા તેના ઉપર આ.ભ. શ્રી અભયદેવસૂરિ વિરચિત ટીકાને પ્રાચીન-પ્રાચીનતર-પ્રાચીનતમ તાડપત્ર ઉપર તથા કાગળ ઉપર લખેલા હસ્તલિખિત આદર્શોને આધારે સંશોધિત તથા સંપાદિત કરીને આગમપ્રેમી જગત સમક્ષ રજુ કરતાં અમને અપાર આનંદનો અનુભવ થાય છે. આગમગ્રંથોને સમજવા તથા શુદ્ધ કરવા માટે ટીકાગ્રંથો અત્યંત જરૂરી છે, તેમજ ટીકાઓ પણ શુદ્ધપાઠવાળી હોય એ અત્યંત જરૂરી છે, આવો અનુભવ અમને વારંવાર થતો રહ્યો છે. એટલે ટીકા ગ્રંથો પણ શુદ્ધ કરીને મુદ્રિત કરવાનો અને પ્રારંભ કર્યો છે. પ્રાચીન પ્રતિઓને આધારે અમે સંશોધિત, સંપાદિત કરેલાં મૂલમાત્ર સ્થાનાંગસૂત્ર તથા સમવાયાંગસૂત્ર શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય-મુંબઈ તરફથી શ્રી જૈન આગમ ગ્રંથમાલા ગ્રંથાંક ૩ માં અનંગસુત્ત સવાયંસુનં આ ગ્રંથમાં વિક્રમ સં.૨૦૪૧ (ઈ.સ.૧૯૮૫) માં પ્રકાશિત થયાં છે. એમાં જે મૂળ સમવાયાંગસૂત્ર છપાયેલું છે તે જ આ સટીક સમવાયાંગ સૂત્રમાં લીધું છે. છતાં કોઈક સ્થળે યથાયોગ્ય સુધારો પણ આમાં કરેલો છે. તથા તે મૂળમાત્ર સમવર્ષાસુત્ત માં વિવિધ પાઠાંતરો અને અનેક અનેક પરિશિષ્ટો આપેલાં છે. તેમજ પ્રસ્તાવનામાં પણ ઘણી ઘણી વાતો જણાવી છે. એટલે સ્થાનાંગ-સમવાયાંગટીકાના અભ્યાસીઓએ પણ એ ટાઈi સુત્ત સમવાયંભુવં ૨ ગ્રંથ સામે રાખીને જ વાંચન કરવું જોઈએ. કારણ કે મૂલ ગ્રંથોના સંશોધન-સંપાદનમાં અમે મૂળ ઉપર જ વિશેષ ધ્યાન આપીએ છીએ. અને ટીકાના સંશોધન-સંપાદનમાં ટીકાને જ શુદ્ધ-સ્પષ્ટ-વિશદ બનાવવા તરફ તેમ જ તેને Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના વિવિધ પરિશિષ્ટોથી અલંકૃત કરવા તરફ ધ્યાન આપીએ છીએ. એટલે મૂળગ્રંથના સંપાદનમાં જણાવેલી અનેક અનેક વાતોનું આ ટીકા ગ્રંથોમાં પુનરાવર્તન નહીં આવે. એટલે જિજ્ઞાસુ અભ્યાસીઓએ એ મૂળગ્રંથનું સંસ્કરણ જ જોઈ લેવું. આ દૃષ્ટિથી નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.અભયદેવસૂરિ વિરચિત ટીકા સહિત સ્થાનાંગ સૂત્રના ૧-૨-૩ ભાગ પ્રકાશિત કર્યા પછી અમે હવે સટીક સમવાયાંગ સૂત્રને પ્રકાશિત કરી રહ્યા છીએ. २ મૂળ સૂત્રોનું જ્યારે સંશોધન-સંપાદન કરીએ છીએ ત્યારે મૂળની પ્રાચીન-પ્રાચીનતરપ્રાચીનતમ હસ્તલિખિત પ્રતિઓનો જ મુખ્ય આધાર લઈએ છીએ. તથા ટીકાના સંશોધનસંપાદનમાં ટીકાની પ્રાચીન-પ્રાચીનતર-પ્રાચીનતમ હસ્તલિખિત પ્રતિઓનો જ મુખ્ય આધાર લઈએ છીએ. એટલે મૂળમાં આવતા પાઠો તથા ટીકામાં આવતાં પ્રતીકરૂપ પાઠોમાં ક્વચિત્ પાઠભેદ જોવામાં આવે તો તે સકારણ છે, એમ સમજવું. પૂ.આ.પ્ર.મુનિરાજશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે કાગળ ઉપર લખેલી બે-ત્રણ પ્રતિ તથા જેસલમેરની એક તાડપત્રપ્રતિના આધારે સુધારેલી સટીક સમવાયાંગની એક મુદ્રિત પ્રતિ મારા પાસે હતી. આ આગમોદય સમિતિથી પ્રકાશિત પ્રતિમાં ૬૦૦ થી ૭૦૦ પાઠો એમણે સુધાર્યા હતા. આજથી લગભગ ૨૫ વર્ષ પહેલાં શંખેશ્વરજી તીર્થ પાસે આવેલા ધામા (આદરિયાણા તથા ઝીંઝુવાડા વચ્ચે) ગામમાં આચાર્ય મહારાજશ્રી કલાપૂર્ણસૂરિજી મ. તથા મુનિચંદ્રવિજયજી આદિ દશ-બાર સાધુઓ સાથે અમે સમવાયાંગ સટીકનું વાંચન કર્યું ત્યારે આ.પ્ર.પુણ્યવિજયજી મહારાજે સુધારેલી પ્રતિનો અમે ઉપયોગ કર્યો હતો. ત્યારે જ આ સુધારાઓ કેટલા સુંદર તથા મહત્ત્વના હતા એનો ખ્યાલ અમને આવ્યો હતો. તે પછી તો ખંભાત શાંતિનાથતાડપત્રીય ભંડારની તથા જેસલમેરની બીજી એક તાડપત્રીય પ્રતિ પણ અમને મળી હતી. આ ત્રણ તાડપત્રીય પ્રતિ સું૰ ને,રના આધારે તેમ જ પાટણના શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય જૈનજ્ઞાનમંદિરમાં રહેલી કાગળની બે પ્રતિ (દેશ, દેર) ને આધારે સમવાયાંગટીકાને સંશોધિત-સંપાદિત કરવા અમે આ પ્રયત્ન કર્યો છે. વં તથા ને? લગભગ સાથે ચાલે છે. કેટલીકવાર ફૈર પ્રતિમાંથી પણ અમને સારા પાઠો મળ્યા છે. એમ લાગે છે કે કોઈ શુદ્ધ તાડપત્રીય પ્રતિ ઉપરથી ઠેર ઉતરી આવી હશે. આ પ્રતિઓનો પરિચય અમે સમવાયાંગસટીકના પ્રારંભમાં તથા અંતમાં ટિપ્પણોમાં આપી દીધો છે. સ્થાનાંગમાં ૧ થી ૧૦ પદાર્થોનું વર્ણન ૧૦ અધ્યયનોમાં છે. એટલે ટીકાકારે એકસ્થાનક, દ્વિસ્થાનક,... એ રીતે અધ્યયનોનાં નામ આપ્યાં છે. સમવાયાંગમાં ૧ થી ૧૦૦ પદાર્થોનું વર્ણન છે ત્યાં પણ સ્થાન, ખ્રિસ્થાન.... એવાં જ નામ આપ્યાં છે. એટલે અમે પણ એ રીતે જ નિર્દેશ કર્યો છે. શ્વેતાંબર મૂર્તિપૂજક સ્થાનકવાસી-તેરાપંથી સંસ્થાઓ દ્વારા પ્રકાશિત ૧. આ.પ્ર.પુણ્યવિજયજી મહારાજે કાગળ ઉપર લખેલી ૐ૦ તથા ॰ બે પ્રતિઓનો ઉપયોગ કર્યો છે. ૪૦ હંસવિજયજી લાયબ્રેરીની પ્રતિ લાગે છે. P = પ્રવર્તક શ્રી કાંતિવિજયજી મહારાજના વડોદરાના ભંડારની પ્રતિ લાગે છે. અમે આ પ્રતિ જોઈ પણ નથી અને તેનો ઉપયોગ પણ કર્યો નથી. = Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના વર્તમાનમાં પ્રચલિત સમવાયાંગસૂત્રની પાઠપરંપરામાં કેટલાક પાઠો કેવા તદન અશુદ્ધ છે એનો અમે મૂળમાત્ર સ્થાનાંગ-સમવાયાંગ સૂત્રની પ્રસ્તાવનામાં (પૃ.૨૩) કંઈક નિર્દેશ કરેલો છે. ૧૨મા સ્થાનમાં વિનયા રાધા યુવાન નો સદસાડું માયાવિવંમેf quત્તા આવો પાઠ છે. ત્યાં બધાં જ શ્વેતાંબરમૂર્તિપૂજક-સ્થાનક્વાસી-તેરાપંથી પ્રકાશનોમાં નોબતસહસ્સારું આવો પાઠ છપાયેલો છે. અમારી બધી હસ્તલિખિત પ્રતિઓમાં નોયસદસાડું પાઠ જ અમને મળ્યો હતો. આ વર્ષે શંખેશ્વરજી તીર્થથી વિહાર કરી પાલિતાણા આવતાં ચૈત્ર માસમાં અમે લીંબડી આવ્યા હતા. લીંબડીનો પ્રાચીન હસ્તલિખિત જ્ઞાનભંડાર સુપ્રસિદ્ધ છે. તેમાં તાડપત્ર ઉપર લખેલી છે જ પ્રતિ છે. બાકી બધી કાગળ ઉપર લખેલી પ્રતિઓ છે. મને વિચાર આવ્યો કે લીંબડીની પ્રતિમાં કેવો પાઠ છે. લીંબડીમાં સમવાયાંગમૂળની કાગળ ઉપર લખેલી આઠ પ્રતિઓ છે. તેમાં છ પ્રતિઓમાં નોયસદસાડું પાઠ જ નીકળ્યો. માત્ર બે પ્રતિઓમાં નોયસયસદસાડું પાઠ હતો. આમાં કયો પાઠ સાચો ? આ પ્રશ્ન સ્વાભાવિક રીતે જ ઉદ્ભવે. પણ મારા પૂ.ગુરૂદેવે કહેલું કે વિજયા રાજધાનીનું વર્ણન જીવાભિગમમાં વિસ્તારથી છે. જીવાભિગમમાં નોયસદસાડું પાઠ જ છે. એટલે અમે જીવાભિગમનો પાઠ તથા તેની મલયગિરિવિરચિત વૃત્તિ પરિશિષ્ટમાં આપી દીધા છે. સૂટ ૮૪ (પૃ૦૧૫૮)માં પંકબહુલ કાંડના ઉપરના તથા નીચેના તલ વચ્ચેનું અંતર ઘ૩રાતીર્તિ નોય સદરૂપું ૮૪૦૦૦ હજાર યોજન જણાવ્યું છે, છતાં આજ સુધી છપાયેલાં બધા જ ક્ષેત્ર મૂર્તિપૂજક, સ્થાનકવાસી, તેરાપંથી સંસ્થાઓથી છપાયેલાં સમવાયાંગસૂત્રના સંસ્કરણોમાં વપરાતીતિ નોયસ સહસ્સારૂં એવો પાઠ છપાયેલો છે. "વસ્તુતઃ રત્નપ્રભાપૃથ્વીનું બાહલ્ય (જાડાઈ) ૧૮૦૦૦ એક લાખ એંશી હજાર છે, તેમાં પ્રારંભનો ખર કાંડ સોળ હજાર ૧૬000 યોજન છે, બીજો અંક કાંડ ચોરાશી હજાર ૮૪000 યોજન છે, ત્રીજો અખાંડ એંશી હજાર ૮૦૦00 યોજન છે, આ રીતે બધું થઈને રત્નપ્રભાનું બાહલ્ય એક લાખ એંસી હજાર ૧૮૦000 યોજન છે. તેમાં પંક કાંડનું બાહલ્ય ચોરાશી હજાર ૮૪000 યોજન જ હોવાથી પંક કાંડના ઉપર-નીચેના તલ વચ્ચે ચોરાશી હજાર ૮૪000 યોજનનું જ અંતર હોય. છતાં લગભગ અત્યાર સુધીના બધા જ મુદ્રિત સંસ્કરણોમાં વપરાતીતિ નોય સદસ્સારું એવો ખોટો પાઠ છપાયો છે. હસ્તલિખિત પ્રતિઓમાં તો વરસહિં નોયસહસ્સારું જ પાઠ છે. આના ઉપરથી ખ્યાલ આવશે કે હસ્તલિખિત મૂળ આદર્શો જોવા કેટલા બધા જરૂરી છે. . ૧. “પ્રથમ િરત્નપ્રભાથિવ્યા: મારિયોનનસદણાધિજો યોગનનો વીહમિતિ . .... .... રત્નપ્રમાાં ૨ पृथिव्यामशीतियोजनसहस्राधिको लक्ष एवम्- षोडशसहस्रप्रमाणं प्रथमं खरकाण्डम्, द्वितीयं पङ्कबहुलं काण्ड चतुरशीतियोजनसहनमानम्, तृतीयमशीतियोजनप्रमाणं जलबहुलं काण्डमिति ।" इति बृहत्संग्रहण्या २४१ तमगाथाया मलयगिरिविरचितायां वृत्तौ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના એક અત્યંત વિચિત્ર-વિકૃત પાઠ પ્રચારમાં છે. તીર્થકરોની વાણીના પાંત્રીસ અતિશયો છે. એમાં વીસમો, તથા એકવીસમો અતિશય મુત તથા સનતિવિશ્વિત છે. વર્ષોથી આ પાઠ સર્વત્ર સ્વીકૃત થઈ ગયેલો છે. પરંતુ હસ્તલિખિતમાં ગદુત પાઠ જ છે. લિપિ ન સમજવાથી જ આ સ્મત પાઠ પ્રચારમાં આવી ગયો છે. અને આ પાઠની ખોટી પરંપરા શરૂ થઈ ગઈ છે. ડુત અને તિવિશ્વત આ પરસ્પર વિરોધી શબ્દો છે. તીર્થંકર પરમાત્માની વાણી ડુત પણ નથી તેમજ ગતિવિત્નશ્વિત પણ નથી. આ જણાવતા મત અને મતવિશ્વિત આ બે અતિશયો છે. માટે સંશોધન કરનારે પ્રાચીન લિપિનું પણ સૂક્ષ્મતાથી અધ્યયન કરવું જ જોઈએ. મુદ્રિત-અમુદ્રિત ગ્રંથો ઉપરથી નવા ગ્રંથો લખાવવાનો જોરદાર પ્રવાહ હમણાં શરૂ થયો છે. લખાવવાનો પ્રચાર કરનારાઓએ ખાસ ખ્યાલ રાખવાનો છે કે ખોટી પાઠ પરંપરાઓ ઉભી ન થઈ જાય. આંખો મીંચીને લખાવે રાખવામાં આવે અને નિષ્ણાત વિદ્વાનો સિવાય જે તે માણસો એને તપાસશે તો ભવિષ્યમાં ઘણી ખોટી પાઠપરંપરાઓ ઉભી થશે. એટલે લખાવવાની ધૂન કરતાં તે તે ગ્રંથોનું સ્વયંવાચન કરવાની- સ્વયં ગંભીર અધ્યયન કરવાની અને સ્વયં જ સુધારવાની ધૂન ઉભી થવી જોઈએ. તો જ શુદ્ધ પાઠો અને શુદ્ધ અર્થો ટકી રહેશે. - હવે આગમોના સ્વરૂપ વિષે કંઈક વિચારીએ. “આગમોનો ઉચ્છેદ જ થયો છે. એમ વર્તમાન દિગંબર પરંપરા માને છે. શ્વેતાંબરોમાં તિત્વોત્તી પન્નામાં આગમના વિચ્છેદની વાત આવે છે. તિત્યો ની માં આ સંબંધમાં જે વિસ્તૃત પાઠ છે. તે અમે પરિશિષ્ટમાં આપ્યો છે. તેમાં ૮૦૯-૮૨૦ તથા ૮૨૬-૮૨૭ ગાથાઓમાં વિવિધ સૂત્રોના વિચ્છેદની વાત આવે છે. નિત્યોની શ્વેતાંબર પરંપરાનો ગ્રંથ છે. વ્યવહારભાષ્યમાં નીચે પ્રમાણે એક ગાથા છે. तित्थोगाली एत्थं वत्तव्वा होति आणुपुब्बीए । जो जस्स उ अंगस्सा वुच्छेदो जहि विणिहिट्ठो ।।४५३२ ।। આ સંબંધમાં આ પ્ર.પુણ્યવિજયજી મહારાજનું મંતવ્ય આવું છે. श्वेतांबर मूर्तिपूजक वर्ग तित्थोगालि पइण्णय को प्रकीर्णकों की गिनती में शामिल करता है, किन्तु ईस प्रकीर्णक में ऐसी बहुतसी बाते हैं जो श्वेतांबरों को स्वप्न में भी मान्य नहीं है और अनुभव से देखा जाय तो उसमें आगमों के नष्ट होने का जो क्रम दिया है वह संगत भी नहीं है । પરંતુ બીજા વિદ્વાનો વિચ્છેદનું અર્થઘટન બીજી રીતે કરે છે. પ્રો. સાગરમલજી મધ્યપ્રદેશમાં શાજાપુરના વતની છે. અત્યારે શાજાપુરમાં રહે છે. પણ વારાણસીના પાર્શ્વનાથ વિદ્યાશ્રમનું Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના સંચાલન કરે છે. જન્મ સ્થાનકવાસી છે, છતાં વિશાળ વિચારના છે. આગમોના સારા અભ્યાસી ગણાય છે. તેમનો અર્ધનાથી આમ સાહિત્ય : U વિમ પાર્શ્વનાથવિદ્યાશ્રમથી પ્રકાશિત થયેલા Aspects of Jainology Vol.7 માંથી ઉદ્ધત કરીને અહીં અમે સ્વતંત્ર રીતે જ આપ્યો છે. જો કે એમના બધા વિચારો સાથે અમે સંમત છીએ એવું નથી જ, પણ બીજાઓ શું વિચારે છે એ પણ જાણવું જોઈએ. એ દૃષ્ટિથી જ આ વિમર્શ અમે અહીં આપ્યો છે. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય-મુંબઈ તરફથી વિક્રમ સં. ૨૦૨૪ (ઈ.સં.૧૯૬૮)માં પ્રકાશિત થયેલા નંલીસુતં કયો ધારાડું 1 ની પ્રસ્તાવનામાં આગમો કેટલા એ શીર્ષક નીચે (પૃ૦૧૪૧૯) વિસ્તારથી તેના સંપાદક પૂ.આ.પ્ર.મુનિરાજ શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે જણાવ્યું છે. જિજ્ઞાસુઓએ તે ત્યાં જોઈ લેવું. એક સમયે ૮૪ આગમો ગણાતાં હતાં. વર્તમાનમાં શ્વેત મૂઠ પરંપરામાં ૪૫ આગમો ગણાવાય છે. આ અંગે પૂ.આ.પ્ર.પુણ્યવિજયજી મહારાજ સાથે વર્ષો સુધી રહીને જેમણે કાર્ય કર્યું હતું તે સ્વ. પંત અમૃતલાલ મોહનલાલ ભોજકે પરૂપાયસુત્તારું મા. ૨ ની પ્રસ્તાવનામાં જે લખ્યું છે તે નીચે આપવામાં આવે છે. “શ્વેતાંબર મૂર્તિપૂજક પરંપરાને માન્ય છે ૪૫ આગમસૂત્રો છે તેમાં અંગ-ઉપાંગાદિ પાંત્રીસ અને દસ પ્રકીર્ણકસૂત્રો મળીને પીસ્તાલીસની સંખ્યા થાય છે. અહીં પહેલાં જણાવ્યા મુજબ દસ પ્રકીર્ણકસૂત્રોનાં નિશ્ચિત નામની કોઈ પરંપરા નથી મળતી. આમ છતાં પીસ્તાલીસ આગમોની સંખ્યાની સંગતિ માટે, સમગ્ર આગમોના તેમના સમયના અદ્વિતીય અભ્યાસી આગમોદ્ધારકજી પૂજ્યપાદ આચાર્યભગવંત શ્રી સાગરાનંદસૂરીશ્વરજી મહારાજે દસ પ્રકીર્ણકસૂત્રોની સંખ્યા નિશ્ચિત કરીને, તે આગમોદયસમિતિ-સુરત-દ્વારા સન ૧૯૨૭માં પ્રકાશિત કર્યા છે. આ સંખ્યામેળ માટે અનિવાર્ય હોવાથી જરૂરી હતું. બાકી ઉપર જણાવ્યા પ્રમાણે દસ પ્રકીર્ણકોનાં નામનો કોઈ નિશ્ચિત આધાર આજ સુધી મળ્યો નથી એ એક હકીકત છે. આ સંબંધમાં ૧. વિક્રમના ચૌદમાં શતકમાં થયેલા આચાર્ય શ્રી પ્રદ્યુમ્નસૂરીશ્વરજીએ રચેલા વિવારસારવારમાં આગમોનાં પિસ્તાલીસ નામ જણાવ્યાં છે, તેમાં પણ દસ પ્રકીર્ણકસૂત્રોનો સ્પષ્ટ ઉલ્લેખ નથી. મુનિશ્રી માણિજ્યસાગરજીએ સંપાદિત કરેલ અને સન ૧૯૨૩માં આગમોદય સમિતિ દ્વારા પ્રકાશિત વિવારસારપ્રજરજમાં પિસ્તાલીસ આગમોનો ઉલ્લેખ આ પ્રમાણે छ- आयारो १ सूयगडे २ ठाणं ३ समवाय ४ भगवईअंगं ५ । नायाधम्मकहाओ ६ उवासगदसाओ ७ सत्तमयं ।।३४४ ।। अंतगडाणं च दसा ८ अणुत्तरुववाइया दसा ९ तत्तो। पण्हावागरणं तह १० इक्कारसमं विवागसुयं ११ ।।३४५।। अट्ठारसहस्साई पयाण इह होइ पढममंगं तु । सेसाई अंगाई हवंति इह दुगुणदुगुणाई ।।३४६ ।। ओवइ १२ रायपसेणिय १३ जीवाभिगमो १४ तहेव पन्नवणा १५। चंदस्स १६ य सूरस्स १७ य जंबुद्दीवस्स १८ पन्नत्ती ।।३४७।। निरयावलिया १९ कप्पिय २० पुफिय २१ तह पुप्फचूलिओवंगं २२ । वण्हिदसा २३ दीवसागरपण्णत्ती २४ मयविसेसेणं ।।३४८ ।। कप्प २५ निसीह २६ दसासुय २७ ववहारो २८ उत्तरज्झयणसुत्तं २९ । रिसिभासिय ३० दसयालिय ३१ आवस्सय ३२ मंगवज्जाई ।।३४९ ।। तंदुलवेयालियया ३३ चंदाविज्झय ३४ तहेव गणिविज्जा ३५ । निरयविभत्ती ३६ आउरपच्चक्खाणा ३७ इय पयत्रा ।।३५०।। गणहरवलयं ३८ देविंदनरिंदा ३९ मरण ४० झाण ४१ भत्तीओ। पक्खिय ४२ नंदी ४३ अणुओगदार ४४ देविंदसंथवणं ४५ ।।३५१।। इय पणयाली सुत्ता, उद्धारा पंचकप्प १ जियकप्पा २ । पिंडे-ओहनिजुत्ती, निज्जुत्ती भास-चुण्णीओ ।।३५२ ।। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w પ્રસ્તાવના જ નહીં પણ સમગ્ર આગમોના સંબંધમાં સ્વર્ગસ્થ પૂજ્યપાદ આગમપ્રભાકરજી મુનિભગવત શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજને તેમના દીર્ઘકાલીન સંશોધન કાર્યમાં કેટલીક બાબતોમાં શંકા અને વિમાસણ પણ થયેલી અને તે સંબંધમાં જૈન આગમોના ગંભીર અભ્યાસી અને અધિકારી વિર આચાર્યભગવંત પૂજ્યપાદ આગમોદ્ધારકજી મહારાજને અનુકૂળતાએ પ્રત્યક્ષ મળવા વિચારેલું. દરમિયાનમાં સુરતમાં બિરાજમાન પૂજ્યપાદ આગમોદ્ધારકજીને અંતિમ બિમારી આવી. આથી પૂજ્યપાદ આગમપ્રભાકરજી વડોદરાથી સુરત ગયા અને ત્યાં પ્રાયઃ પંદર દિવસ રહ્યા. ત્યાં તેમણે આગમ ગ્રંથોનાં વિચારણીય સ્થાનોની સંપૂર્ણ ચર્ચા-વિચારણા કરી. પૂજ્યપાદ આગમપ્રભાકરજી સુરતમાં રહ્યા તે દિવસોમાં રાત્રે સુવાની વ્યવસ્થા પણ સાથે જ રહી, જેથી નિદ્રા પહેલાના સમયનો પણ ઉપયોગ થતો. આ પ્રસંગે પણ અન્ય વિચારણીય બાબતોની સાથે, દસ પ્રકીર્ણકોની સંખ્યાની સંગતિ માટે વિચારણા થયેલી તેમાં પણ આધારભૂત માહિતી મળી ન હતી. જૈન સાહિત્યના અન્વેષણ માટે આજીવન અથક પરિશ્રમ કરી જેમણે મહત્ત્વની માહિતીસભર વિપુલ સામગ્રી પ્રકાશિત કરી છે તે સ્વનામધન્ય દિવંગત શ્રી મોહનલાલ દલીચંદ દેસાઈએ સંકલિત કરેલ અને જૈન કૉન્ફરન્સ દ્વારા પ્રકાશિત થયેલ “જૈન ગ્રંથાવલી' ગ્રંથમાં પ્રકીર્ણકસૂત્રોની દસની સંખ્યા ત્રણ પ્રકારે જણાવી છે. ટૂંકમાં શ્રી દેસાઈ જેવા ખંતીલા અન્વેષકને પણ દસ પ્રકીર્ણકોનાં નિશ્ચિત નામ મળ્યાં ન હતાં.” આગમોનું પ્રાચીન તથા વર્તમાનકાલીન સ્વરૂ૫ - પ્રારંભમાં આગમોના પઠન-પાઠનની પરંપરા મૌખિક જ હતી. શ્રી વીરનિર્વાણ પછી ઘણાં ઘણાં વર્ષો સુધી આ પરંપરા ચાલી. પરંતુ દુર્મિક્ષ આદિ અનેક અનેક કારણે સાધુ સમુદાયો જુદા જુદા પ્રદેશમાં જવાના કારણે વેરવિખેર થઈ જવાથી પઠન-પાઠનનું સાતત્ય રહ્યું નહિ. એટલે વિસ્મરણ પણ થવા લાગ્યું. છેવટે દુર્મિક્ષ પૂર્ણ થાય એટલે સાધુઓ ભેગા મળે અને જેને જેટલું યાદ રહે તેનું સંકલન કરવામાં આવતું હતું. આવી પાંચ વાંચનાઓ ભિન્ન ભિન્ન સ્થાને, ભિન્ન ભિન્ન કાળે થઈ છે. આમાં કેટલાય પાઠભેદો થઈ જતા, કેટલાય અંશો લુપ્ત પણ થઈ જતા. છેવટે મેધા આદિ ક્ષીણ થવાને કારણે શાસ્ત્રોને પુસ્તકારૂઢ કરવાનો નિર્ણય કરાયો, અને આ.ભ. દેવર્ધિગણિ ક્ષમાશ્રમણના અધ્યક્ષપણામાં વલભીપુરમાં શાસ્ત્રો લખાયાં. આ દીર્ઘકાળ દરમ્યાન કેટલાયે ઘસારા લાગતા ગયા અને અનેક અનેક સંસ્કારો થતા રહ્યા. આ.ભ. દેવર્ધિગણિ ક્ષમાશ્રમણના સમયની કોઈ પણ પ્રતિ મળતી નથી. તેમના સમય પછી પણ અનેક કારણોથી પાઠભેદો થતા રહ્યા. ટીકાકારો ટીકા રચવા બેઠા ત્યારે એમની સામે વિવિધ પાઠોવાળા હસ્તલિખિત આદર્શો આવ્યા. તેમાંથી પસંદ કરીને કોઈ એક વાચના સામે રાખીને ટીકાકારો ટીકા રચતા અને Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના યોગ્ય લાગે ત્યારે બીજી વાચનાના પાઠભેદો પણ જણાવતા. આ વાત ટીકાકારોએ પોતે જ જણાવી છે.' આગમો વલભીપુરમાં લખાયા તે સમયે કે તે પૂર્વે કયા ક્યા સંસ્કારો ક્યારે કરવામાં આવ્યા તે કંઈ કહી શકાય તેમ નથી. જે વાતો એક આગમમાં આવતી હોય તે જ વાતો બીજા આગમમાં પણ આવતી હોય તો તે તે વાતો તે તે આગમમાં જોઈ લેવા અતિદેશ કરવામાં આવ્યો. સમવાયાંગમાં નંદીસૂત્રનો અને પ્રજ્ઞાપના સૂત્રનો અતિદેશ કરવામાં આવ્યો છે. એ તો સ્પષ્ટ હકીકત છે કે ભગવાનું સુધર્માસ્વામી પોતે નંદીસૂત્રના પાઠને જોવાની કે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પાઠને જોવાની ભલામણ કરે જ નહિ, કારણ કે ભગવાન્ સુધર્માસ્વામીના સમયમાં નંદીસૂત્ર કે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રનું અસ્તિત્વ જ નહોતું. એટલે કોઈક સંકલન કરનારે આ રીતે કેટલુંક સંકલન કરેલું છે. કેટલીયે ગાથાઓ જુદા જુદા આગમોમાં, નિર્યુક્તિઓમાં, ભાષ્યમાં, પ્રક્ષેપ ગાથાઓમાં, સંગ્રહણીઓમાં, અક્ષરશઃ અથવા ન્યૂનાધિકપાઠભેદથી જોવા મળે છે. આવી ગાથાઓ પહેલેથી જ તે તે આગમોમાં હતી કે પાછળથી કોઈક નિર્યુક્તિ આદિમાંથી લઈને આગમમાં સંકલિત કરી છે તે નક્કી કરવું કઠીન છે. એટલે આમાં કઈ કઈ ગાથાઓનું મૂળ સ્થાન કર્યું છે અને બીજા ગ્રંથોમાંથી બીજા ગ્રંથોમાં શું શું સંગૃહીત કરવામાં આવ્યું છે એનો નિર્ણય કસ્વો અત્યંત દુષ્કર છે. એટલે વર્તમાન સમયમાં મળતા અંગ આગમોમાં ભગવાન્ સુધર્માસ્વામીની રચના સાથે મિશ્રિત થયેલાં તથા સંસ્કારિત થયેલાં કેટલાંક બીજા સૂત્રો પણ છે. છતાં ભગવાનશ્રી સુધર્માસ્વામીની પરંપરામાં ઘણા જ પ્રાચીન સમયથી સૂત્રોની આ પાઠપરંપરા ચાલી આવે છે, એટલું નિશ્ચિત છે. પાઠોનો પ્રશ્ન કેવો વિકટ છે? આ વાત આપણે ટીકાકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિમહારાજના શબ્દોમાં જ જોઈએ. सत्सम्प्रदायहीनत्वात् सदूहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥ वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगांभीर्यान्मतभेदाच्च कुत्रचित् ।। झूणानि संभवन्तीह केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धान्तानुगतो योऽर्थः सोऽस्माद् ग्राह्यो न चेतरः ॥ - ચાનાક્રવૃત્તિ પૃ૧૦૬ . “સાચો અર્થ સમજવા માટે જે ખરેખર ગુરૂ પરંપરાથી અધ્યયનપ્રણાલી જોઈએ તેનો ૧. જ્યોતિષ્કરંડકની ટીકામાં બીજા પ્રાભૃતમાં આ.ભ.શ્રી મલયગિરિએ પણ આજથી લગભગ સાડા આઠસો વર્ષ પૂર્વે આ વાત આ રીતે જણાવી છે- “ તિલ્લાવાર્યપ્રવૃત્ત તુક્કમનુમાવતો કુર્મિકવૃત્ય સાધૂનાં पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत्, ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः सङ्घमेलापकोऽभवत्, तद्यथा- एको वा(व)लभ्यामेको मथुरायाम्, तत्र च सूत्रार्थसङ्घटनेन परस्परं वाचनाभेदो जातः, विस्मृतयोहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा सङ्घटने भवत्यवश्यं वाचनाभेदः, न काचिदनुपपत्तिः, तत्रानुयोगद्वारादिकमिदानीं वर्तमानं माथुरवाचनानुगतम्, ज्योतिष्करण्डकसूत्रकर्ता चाचार्यो वालभ्यः, तत इदं सङ्ख्यास्थानप्रतिपादनं वालभ्यवाचनानुगतमिति नास्यानुयोगद्वारप्रतिपादितसङ्ख्यास्थानैः सह विसदृशत्वमुपलभ्य विचिकित्सितव्यमिति ।" - मलयगिरिसूरिविरचिता ज्योतिष्करण्डक गा० ७३ टीका. ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના અભાવ છે, સાચો ઉહાપોહ-તર્ક કરવાની શક્તિનો અભાવ છે, સર્વે સ્વ-પર સંપ્રદાયનાં જે શાસ્ત્રો છે તે મેં જોયાં નથી. જે જોયાં છે તે બધાં યાદ પણ નથી, વાચનાઓ-પાઠપરંપરાઓ પણ અનેક પ્રકારની મળે છે, જે પુસ્તકો મળે છે તે પણ અશુદ્ધ છે, સૂત્રો અતિગંભીર હોવાથી વાસ્તવિક અર્થ સમજવો પણ અતિ કઠિન છે, કેટલેક સ્થળે મત-મતાંતર પણ છે. તેથી આ ગ્રંથની વ્યાખ્યામાં ભૂલો થવા સંભવ છે, માટે વિવેકી પુરૂષોએ આમાં જે સિદ્ધાંતાનુસારી અર્થ હોય તે ગ્રહણ કરવો. બીજો નહિ.” સમવાયાંગવૃત્તિના અંતમાં (પૃ.૩૦૮) તેઓ જણાવે છે કેयस्य ग्रन्थवरस्य वाक्यजलधेर्लक्षं सहस्राणि च, चत्वारिंशदहो चतुर्भिरधिका मानं पदानामभूत् । तस्योच्चैश्चलुकाकृतिं निदधतः कालादिदोषात् तथा दुर्लेखात् खिलतां गतस्य कुधियः कुर्वन्तु किं मादृशाः। સમુદ્ર જેવા જે સમવાયાંગસૂત્રનું ૧૪૪૦૦૦ પદ પરિમાણ હતું તે અત્યારે તદ્દન નાનો ચુલુક = ચાંગળા જેવો ગ્રંથ બની ગયો છે. કાળ આદિના દોષથી, તથા હસ્તલિખિત ગ્રંથોમાં અશુદ્ધ લખાણને લીધે, અશુદ્ધ પાઠોને લીધે, અણખેડાયેલી ભૂમિ જેવા થઈ ગયેલા આ ગ્રંથમાં મારા જેવા અલ્પબુદ્ધિમાન શું કરે ? શું કરી શકે ? इह वचसि विरोधो नास्ति सर्वज्ञवाक्त्वात् क्वचन तदवभासो यः स मान्द्यान्नृबुद्धेः । वरगुरुविरहाद्वाऽतीतकाले मुनीशैर्गणधरवचनानां सस्तसंघातनाद्वा ।। વસ્તુતઃ સર્વજ્ઞની વાણી હોવાથી તેમાં વિરોધ હોઈ શકે જ નહિ, છતાં જે વિસંવાદ દેખાય છે તે ભૂતકાળમાં થઈ ગયેલા મુનિવરો દ્વારા ધરવવનાનાં ત્રસ્તસંધાતની ખંડિત થયેલાં ગણધરનાં વચનોમાં પાઠ જોડવા જતાં વિસંવાદો ઉભા થયા છે' એમ પણ તેમણે સમવાયાંગવૃત્તિના અંતમાં (પૃ. ૩૦૯માં) જણાવ્યું છે. દીર્ઘકાળમાં થયેલા વાચનાભેદો તથા પાઠભેદોના પરિણામે આગમોમાં કેટલીકવાર વિસંવાદો પણ જોવામાં આવે છે. જેમકે સમવાયાંગમાં ભગવતીસૂત્રનું પદ પરિમાણ ૮૪૦૦૦ કહ્યું છે, જ્યારે નંદીસૂત્રમાં ભગવતીસૂત્રનું પદપરિમાણ ૨૮૮૦૦૦ જણાવ્યું છે. સમવાયાંગમાં એક જ ગ્રંથમાં પણ સૂત્રમાં પરસ્પર વિસંવાદ જોવામાં આવે છે. ૩૧ માં સ્થાનકમાં વિજય-વૈજયન્ત-જયંત- અપરાજિતમાં જઘન્યથી ૩૧ સાગરોપમ સ્થિતિ કહી છે, જ્યારે ૧૫૧ માં સ્થાનકમાં જઘન્યથી ૩૨ સાગરોપમ કહી છે. આ.ભ. દેવર્ધિગણિ ક્ષમાશ્રમણની અધ્યક્ષતામાં લખાયેલા એક જ ગ્રંથમાં પરસ્પર વિસંવાદ કેમ? આ.ભ. દેવગિણિ ક્ષમાશ્રમણને આગમોમાં આવતા પરસ્પર વિસંવાદો પણ ખ્યાલમાં હોય જ. પરંતુ એમ લાગે છે કે જેને જેવું યાદ હતું તેવું લખી લેવામાં આવ્યું. એટલે આ વિસંવાદો છે. અથવા તો તેમના સમય પછી જે પાઠભેદો કે વાચનાભેદો થયા તેને કારણે આ વિસંવાદો જોવામાં આવે છે. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના કેટલીક વાતો પ્રાચીનકાળથી જ દુરવબોધ રહેલી છે. આ વાતનો ઉલ્લેખ અભયદેવસૂરિજી મહારાજે અનેક વાર કરેલો છે. નંદીચૂર્ણિમાં જ્ઞાતાધર્મકથામાં સાડા ત્રણ ક્રોડ આખ્યાયિકા જણાવેલી છે. આ સાડા ત્રણ ક્રોડની સંખ્યા નંદીચૂર્ણિમાં જુદી રીતે જણાવી છે. જ્યારે હરિભદ્રસૂરિ મહારાજે નંદીવૃત્તિમાં જુદી રીતે જણાવી છે. અભયદેવસૂરિમહારાજ પણ નંદાવૃત્તિને જ અનુસર્યા છે. અને નંદીવૃત્તિમાં જણાવ્યું છે કે “બીજાઓ બીજી રીતે આ વાતને જણાવે છે. પણ અતિગંભીર હોવાથી બીજાઓના અભિપ્રાયને અમે સમજી શક્તા નથી.' હરિભદ્રસૂરિજી મહારાજ જેવા મહાજ્ઞાની પુરુષો પણ સમજી ન શકે ત્યાં આપણી મતિ ક્યાંથી ચાલે ? એટલે આગમવાંચન કરતાં ઉદ્ભવતા કેટલાયે પ્રશ્નો અનુત્તર રહે છે– અનુત્તર રહેવાના છે. આગમ ગ્રંથો જૈન પ્રવચનના આધારભૂત ગ્રંથો છે. પ્રભુની મંગલવાણી છે. તેનું વાંચન, અધ્યયન, વાચના, ચિંતન, અનુપ્રેક્ષા જૈન શ્રમણ સંઘમાં થાય એ જરૂરી છે. સમવાયાંગનું વર્તમાન સ્વરૂપ :- સમવાયાંગમાં ચાર વિભાગો છે. પ્રથમ વિભાગમાં ૧ થી ૧૦૦ સુધીના પદાર્થો, પછી ૧૫૦, ૨૦૦, ૨૫૦, ૩૦૦, ૩૫૦, ૪૦૦, ૪૫૦, ૫૦૦, ૬૦૦, ૭૦૦, ૮૦૦, ૯૦૦, ૧૦૦૦, ૧૧૦૦, ૨૦૦૦, ૩૦૦૦, ૪૦૦૦, ૫૦૦૦, ૬૦૦૦, ૭૦૦૦, ૮૦૦૦, ૯૦૦૦, ૧૦૦૦૦, ૧૦૦૦૦૦૦, ૧૦૦૦૦૦૦૦, ૧૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦ આટલા પદાર્થોનું વર્ણન છે. | દ્વિતીય વિભાગમાં દ્વાદશાંગીનું વર્ણન છે. તૃતીય વિભાગમાં અજીવરાશિ તથા જીવરાશિનું અને જીવરાશિમાં જીવોના આવાસો, શરીર ઈત્યાદિ ઈત્યાદિ અનેક વિષયોનું વર્ણન છે. પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રના અનેક પદોનો આમાં નિર્દેશ છે- અતિદેશ છે. ચતુર્થ વિભાગમાં તીર્થંકરો-ગણધરો-કુલકરો-ચક્રવર્તીઓ-વાસુદેવો-પ્રતિવાસુદેવો આદિના માતા-પિતા-નગરો આદિનું વર્ણન છે. તિત્વોગાલીમાં પણ આવું વર્ણન આવે છે. નંદીસૂત્રમાં સમવાયાંગનું જે વર્ણન છે તેમાં પ્રથમના બે વિભાગ પુરતી જ વાત છે. સ્થાનાંગ તથા સમવાયાંગ સૂત્રમાં આવતા અપાર વિવિધ વિષયોનું વિવેચન જોતાં, આ.ભ.અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જ્ઞાન કેટલું બધું ગંભીર અને વ્યાપક હતું તે સ્પષ્ટ જણાઈ આવે છે. પોતે સંવેગી પક્ષના હતા. પાટણમાં તે સમયે ચૈત્યવાસીઓનું પ્રભુત્વ હતું. બંને વચ્ચે કટ્ટર વિરોધ હતો. છતાં ચૈત્યવાસીઓના અગ્રેસર મહાવિદ્વાન્ દ્રોણાચાર્ય આદિનો સહકાર સાધીને, તેમના પાસે પણ આ ગ્રંથ શુદ્ધ કરાવીને, આ ગ્રંથને તેમણે સર્વ સંઘમાં પ્રમાણભૂત બનાવ્યો છે. આ તેમના ઉદારતા-સરળતા-અત્યંતઋતભક્તિ આદિ ગુણો પણ ખૂબ ખૂબ ખૂબ १. “एवं गुरवो व्याचक्षते। अन्ये पुनरन्यथा, तदभिप्रायं पुनर्वयमतिगंभीरत्वान्नावगच्छामः। परमार्थं त्वत्र विशिष्ट श्रुतविदो विदन्ति ।" - नन्दीवृत्ति हारिभद्री। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના પ્રશંસા માગી લે છે. તેમનું અદ્ભુત જીવન ચરિત્ર સ્વતંત્રરૂપે આ પ્રસ્તાવના પછી આપેલું છે. આ દ્રોણાચાર્યે જ ઓઘનિર્યુક્તિ ઉપર વિસ્તૃત વૃત્તિ લખેલી છે. આ સટીક ગ્રંથનું ઘણા પરિશ્રમે સંશોધન પૂ.આ.પ્ર.મુનિરાજશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજે કર્યું હોવાથી આના આદ્યસંશોધક તરીકે પુણ્યવિજયજી મ.નો અમે નિર્દેશ કર્યો છે. જો કે તેમના સ્વર્ગવાસ પછી ચોત્રીસ વર્ષે આ ગ્રંથ પ્રકાશિત થાય છે, તો પણ એમનો પરિશ્રમ ઘણાં ઘણાં વર્ષ પછી પણ સફળ થયો છે, એ અમારે મન ઘણી આનંદની વાત છે. અમારી સંશોધન-સંપાદિત શૈલી વિષે પહેલાંના ગ્રંથોમાં અમે અનેક વાર જણાવેલું જ છે. આમાં અનેક પરિશિષ્ટો આપેલાં છે. પ્રથમ પરિશિષ્ટમાં સમવાયાંગ સૂત્રમાં આવતા વિશિષ્ટશબ્દોની સૂચિ, બીજા પરિશિષ્ટમાં સમવાયાંગસૂત્રમાં આવતી ગાથાઓના અર્ધભાગનો અકારાદિક્રમ, સટીક સમવાયાંગસૂત્રના જે પાઠો વિષે કંઈક વિશિષ્ટ જણાવવાનું હોય ત્યાં અમે તે પાઠ ઉપર જ આવું ચિહ્ન કરેલું છે એટલે આવા પાઠો ઉપરનાં તુલના તથા વિવરણાદિરૂપ વિશિષ્ટ ટિપ્પણો ત્રીજા પરિશિષ્ટમાં, ચોથા પરિશિષ્ટમાં સમવાયાંગટીકામાં આવતા સાક્ષિપાઠોની અકારાદિક્રમથી સૂચિ, પાંચમા પરિશિષ્ટમાં સમવાયાંગટીકામાં આવતા વિશેષ નામોની સૂચિ, છઠ્ઠા પરિશિષ્ટમાં તિત્વોગાલી પ્રકીર્ણકનો ઉપયોગી અંશ, સાતમા પરિશિષ્ટમાં સંપૂર્ણ હિમવંત થેરાવલી. હિમવંતPરાવલીમાં ઘણી મહત્ત્વની આગમ આદિ સંબંધી વાતો આવે છે. ઘણાં જ વર્ષો પહેલાં આ.પ્ર.મુનિરાજશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજ તથા પં. લાલચંદભાઈ ભગવાન ગાંધીએ મળીને એ છપાવી હતી. પણ આજે એ ગ્રંથ ક્યાંયે જોવા જ મળતો નથી. અમારી જાણમાં આવ્યું કે એની એક કોપી આ.મ. હેમચંદ્રસૂરિ મ.ના શિષ્ય મહાબોધિવિજયજી મ. પાસે છે. અમે તેમને વિનંતિ કરી. તેમણે અત્યંત સૌજન્યથી હિમવંતભેરાવલિની નકલ મોકલી આપી. બધાને સુલભ થાય એ દૃષ્ટિથી સાતમા પરિશિષ્ટમાં હિમવંતર્થરાવલી આપી છે. આઠમા પરિશિષ્ટમાં સંપાદનમાં ઉપયોગમાં લીધેલા ગ્રંથોની સંકેતસૂચિ આપી છે. આ સટીક ગ્રંથો એક પછી એક શૃંખલારૂપે પ્રકાશિત થઈ રહ્યા છે એટલે પૂર્વપ્રકાશિત સ્થાનાંગસૂત્ર સટીકના ત્રણ વિભાગોમાં અમારા અનવધાન આદિથી જે અશુદ્ધિઓ-ત્રુટિઓ-અપૂર્ણતા આદિ રહી ગયાં છે, તેનું પરિમાર્જન કરવા માટે નવમા પરિશિષ્ટમાં શુદ્ધિ-વૃદ્ધિપત્ર આપ્યું છે. તે પછી, સમવાયાંગસૂત્રમાં જંબૂદ્વીપ આદિ ક્ષેત્ર આદિ સાથે સંબંધ ધરાવતાં જે સૂત્રો આવે છે તે બરાબર સમજાય તે માટે તે તે ક્ષેત્ર આદિના નકશાઓ-ચિત્રો આપવામાં આવ્યા છે. આ નકશાઓ આ.શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિસંકલિત ચિત્રસંપુટને આધારે તથા આ.શ્રી યશોદેવસૂરિ મહારાજે સંપાદિત કરેલા સંગ્રહણીરત્ન પુસ્તકને આધારે આપ્યા છે. એક વિજ્ઞતિઃ અમે અત્યંત કાળજીપૂર્વક બધાં મુફો ત્રણ-ચાર વાર વાંચીએ છીએ. છતાં આ બધા ગ્રંથો વિશાળ અને બૃહત્કાય હોવાને લીધે પ્રફો વાંચતાં વાંચતાં દષ્ટિ થાકી જવાથી, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના દૃષ્ટિ દોષથી, અસાવધાનીથી, અનુપયોગથી ભૂલો રહી જાય એ ખૂબ સંભવિત છે. વળી અમારો દીર્ઘકાલીન અનુભવ છે કે કોમ્યુટરથી તૈયાર થતા પ્રફોમાં કેટલીકવાર નવી નવી ભૂલો આવ્યા કરતી હોય છે. એટલે વારંવાર બધાં મુફો આદિથી અંત સુધી જોવામાં કંટાળો આવે છે. તેથી છેલ્લે જે મુફ આવ્યું હોય તે છાપવાની સૂચના આપી દેવી પડે છે. આથી પણ ભૂલો રહી જવાનો ખૂબ સંભવ રહે છે. વાચકો આવા અશુદ્ધ કે શંકિત પાઠો જણાવશે તો અમે તેમનો ઉપકાર માનીશું. અને અમારા સંશોધિત-સંપાદિત ગ્રંથોની શૃંખલા ચાલી રહી છે, તેથી આગળના ગ્રંથોમાં તે તે પાઠોને શુદ્ધિપત્રકમાં સુધારી લેવા જરૂર પ્રયત્ન કરીશું. હમણાં જ એક અનુભવ થયો. અમારા સહવર્તી મુનિરાજ શ્રી રાજરત્નવિજયજીને સટીક સ્થાનાંગ વાંચતાં પૃ.૧૬ ૫. ૨૦ માં “પ્રસર્વ ૨ રૂતિ એવો પાઠ જોવા મળ્યો. મને તેમણે બતાવ્યો. આ તદન ખોટો વં ૨ પાઠ ક્યાંથી આવી ગયો એનું અમને પણ ઘણું આશ્ચર્ય થયું. પૃ.૪૫ ૫.૬ પછી [૪] મું સૂત્ર જ છાપવાનું રહી ગયું છે. આ તથા આવા બીજા પણ એમણે બતાવેલા સટીક સ્થાનાંગ સૂત્રના અશુદ્ધ પાઠો અમે આ સટીક સમવાયાંગમાં નવમા પરિશિષ્ટમાં શુદ્ધિ-વૃદ્ધિપત્ર માં સુધારી લીધા છે. જેમની પાસે સટીક સ્થાનાંગના ભાગો આવ્યા હોય તેમણે તે પ્રમાણે સુધારી લેવું આ અમારી વિજ્ઞપ્તિ છે. આ સમવાયાંગસૂત્ર સટીક તથા મૂલમાત્ર ક્યાં ક્યાંથી ક્યારે પ્રકાશિત થયું છે તેની સંક્ષિપ્તસૂચિ નીચે પ્રમાણે છે. જે.મૂ.સંઘમાં થયેલાં પ્રકાશનો - સટીક સમવાયાંગ રાયબહાદુર ધનપતસિંહજી તરફથી ઈ.સ.૧૮૮૦ માં કલકત્તાથી પ્રકાશિત થયું છે. તે પછી આગમોદયસમિતિ સુરત તરફથી ઈ.સ. ૧૯૧૮ માં આનું સુંદર ટાઈપો તથા સુંદર કાગળો ઉપર પ્રકાશન થયું છે. આના સંપાદક આગમોદ્ધારક સ્વ.પૂ. સાગરાનંદસૂરીશ્વરજી મહારાજ છે. પંડિત મફતલાલ ઝવેરચંદ ગાંધી તરફથી ઈ.સ. ૧૯૩૮ માં તથા જિનશાસન આરાધક ટ્રસ્ટ તરફથી વિ.સં. ૨૦૫૧ માં પ્રકાશિત થયું છે. પરંતુ આગમોદયસમિતિ તરફથી પ્રકાશિત થયેલા સંસ્કરણનાં જ આ પુનર્મુદ્રણ છે. વિક્રમ સં. ૧૯૯૫ માં આનું ગુજરાતી ભાષાંતર જૈનધર્મપ્રસારક સભા-ભાવનગરથી થયેલું છે. સમગ્ર વિશ્વમાં આગમોદયસમિતિના સંસ્કરણનો જ આજ સુધી પ્રચાર રહ્યો છે. મોતીલાલ બનારસીદાસ (દિલ્હી ૧૧૦૦૦૭) તરફથી સટીક સ્થાનાંગ તથા સમવાયાંગ આગમોદયસમિતિના સંસ્કરણનાં જ પુનર્મુદ્રણ રૂપ હોવા છતાં અનેક પરિશિષ્ટો તથા શુદ્ધિપત્રક સાથે ઈ.સ. ૧૯૮૫ માં પ્રકાશિત થયાં છે. સામફ્યુતપ્રવાશન દ્વારા આગમોદયસમિતિના પ્રકાશનના જ પુનર્મુદ્રણ રૂપે ઈ.સ. ૨૦૦૦ માં કામસુત્તા પ્રકાશિત થયું છે. આનું આયોજન મુનિરાજશ્રી દીપરત્નસાગરજીએ કર્યું છે. મૂળમાત્ર સમવાયાંગનું પ્રકાશન શ્રી હર્ષપુષ્યામૃત જૈન ગ્રંથમાલા, લાખાબાવળ-શાંતિપુરી, વાયા-જામનગર, સૌરાષ્ટ્ર (સંપાદક - આ. શ્રી જિનેન્દ્રસૂરિજી મહારાજ) તરફથી ઈ.સ. ૧૯૭૫ માં થયું છે. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના પૂ. સાગરાનંદસૂરીશ્વરજી મહારાજે સંપાદિત કરેલી આગમ મંજૂષામાં, તથા હમણાં અંચલગચ્છ તરફથી પણ આ મૂલમાત્ર ગ્રંથનું પ્રકાશન થયું છે. સ્થાનકવાસી સંઘમાં અમોલક ઋષિએ કરેલા હિન્દી અનુવાદ સાથે ઈ.સ. ૧૯૧૬ માં સિકંદરાબાદ (આંધ્રમાં) જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર મુદ્રાલય તરફથી, સુdીને (સંપાદક પુસુ) માં સુત્તામાં પ્રાશનતિ, ગુડગાંવ છાવળી, પૂર્વ પંનાવ તરફથી ઈ.સ. ૧૯૫૩ માં, તેમનુયોપ્રાશન (सम्पादक तथा हिन्दी अनुवादक मुनि कन्हैयालाल जी कमल) दिल्ही ७, पो.बोक्स नं.११४१ તરફથી ઈ.સ. ૧૯૬૬ માં, કાપવા માં નૈન સંસ્કૃતિ સંરક્ષ સંઘ, શૈનાના (વાયારતનામ), મધ્યપ્રદ તરફથી, સમવાયાંગસૂત્ર (ધાન સંપાવ- મધુર મુનિ, હિન્દી અનુવાવविवेचक पं. हीरालालजी शास्त्री) आगमप्रकाशन समिति - ब्यावर प्रशित निगमग्रंथमालामा ગ્રંથાંક ૮ રૂપે ઈ.સ. ૨૦૦૦ માં આનું તૃતીયસંછરા પ્રકાશિત થયું છે. તેરાપંથી સંઘમાં યંગસુત્તાિ માં (સંપાદુ- મુનિશ્રી નમિત્તની) નૈન વિશ્વમારતી, ઉર્દૂ, રાનસ્થાન તરફથી ઈ.સ. ૧૯૭૪ માં, સમવાળો (સંપાદ્રવિ-વિવેવ યુવાવાર્ય મહાપ્રજ્ઞ) પ્રવેશનૈવિશ્વમારતી, નાડ, રાનસ્થાન તરફથી ઈ.સ. ૧૯૮૪ માં આનું પ્રકાશન થયું છે. તેરાપંથીઓનાં પ્રકાશનો વિશેષ અભ્યાસપૂર્ણ હોય છે. આ ઉપરાંત સ્થાનાંગ-સમવાયાંગનું ગુજરાતી રૂપાંતર અનેક ટિપ્પણો સહિત, સંપાદક પં. દલસુખભાઈ માલવણિયા, ગુજરાત વિદ્યાપીઠ, ઈ.સ. ૧૯૫૫, અમદાવાદ, પુંજાભાઈ જૈન ગ્રંથમાલા નં.૨૩ આદિ પ્રકાશનો પણ છે. ધન્યવાદ:- શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની આગમ જૈનગ્રંથમાળાના પ્રણેતા પુણ્યનામધેય આ.પૂ.મુશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજને અનેકશઃ વંદન પૂર્વક હૃદયથી શ્રદ્ધાંજલી અર્પણ કરું છું. દ્વાદશારનયચક્રના સંશોધન-સંપાદન દ્વારા આ સંશોધન-સંપાદન ક્ષેત્રમાં અને તેઓ જ લાવ્યા હતા. - સ્વ. પૂ. આગમોદ્ધારક સાગરાનંદસૂરીશ્વરજી મહારાજ કે જેમના ભગીરથ પ્રયાસથી આગમ આદિ વિશાળ જૈન સાહિત્ય પ્રકાશમાં આવ્યું છે, તેઓશ્રીને પણ આ પ્રસંગે ભાવપૂર્વક વંદન કરૂં . શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયના મુંબઈના કાર્યવાહકોએ આના અત્યંત દ્રવ્યવ્યયસાધ્ય મુદ્રણની જવાબદારી ઉપાડી છે, અને અમને સદા પ્રોત્સાહન આપ્યું છે. શ્રી સિદ્ધક્ષેત્ર પાલિતાણા નગરમાં, વિસાનીમાની ધર્મશાળામાં, વિક્રમ સંવત્ ૨૦૫૧, પોષ સુદિ દસમ બુધવારે ૧૦૧ મા વર્ષે તારીખ ૧૧-૧-૧૯૯૫ની રાત્રે ૮-૫૪ મીનીટે સ્વર્ગસ્થ થયેલાં મારાં પરમ ઉપકારી પરમપૂજ્ય માતૃશ્રી સંઘમાતા સાધ્વીજીશ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજ કે જેઓ સ્વ૦ સાધ્વીજીશ્રી લાભશ્રીજી મહારાજ (સરકારી ઉપાશ્રયવાળા)નાં બહેન તથા શિષ્યા છે, તેમના સતત આશીર્વાદ, એ મારું અંતરંગ બળ તથા મહાનમાં મહાનું સદ્ભાગ્ય છે. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના મારા વયોવૃદ્ધ અત્યંત વિનીત પ્રથમ શિષ્ય દેવતુલ્ય સ્વ. મુનિરાજશ્રી દેવભદ્રવિજયજી કે જેમનો લોલાડા (શંખેશ્વરજી તીર્થ પાસે) ગામમાં વિક્રમ સંવત્ ૨૦૪૦માં કાર્તિક સુદ બીજે, રવિવારે (તા.૬-૧૧-૮૩) સાંજે છ વાગે સ્વર્ગવાસ થયો હતો, તેમનું પણ આ પ્રસંગે ખૂબજ સદ્ભાવથી સ્મરણ કરૂં છું. મારા અતિવિનીત શિષ્ય મુનિશ્રી ધર્મચંદ્રવિજયજી તથા તેમના શિષ્ય સેવાભાવી મુનિરાજશ્રી પુંડરીકરત્નવિજયજી, તપસ્વી મુનિરાજશ્રી ધર્મઘોષવિજયજી તથા મુનિરાજશ્રી મહાવિદેહવિજયજી આ કાર્યમાં રાત-દિવસ અતિસહાયક રહ્યા છે. આ ગ્રંથના મુદ્રણ આદિમાં, હમણાં અમદાવાદમાં રહેતા પણ મૂળ આદરિયાણાના વતની જીતેન્દ્રભાઈ મણીલાલ સંઘવી તથા માંડલના વતની અશોકભાઈ ભાઈચંદભાઈ સંઘવીએ ઘણો ઘણો જ સહકાર આપ્યો છે, તે માટે તેઓને ખૂબ ખૂબ ધન્યવાદ ઘટે છે. અમે અમારા સંશોધનોમાં પાટણના સંઘવીપાડાના મહાનું તાડપત્રીય ભંડારનો ઉપયોગ કરતા આવ્યા છીએ. આ ભંડારની વ્યવસ્થા અનેક પેઢીઓથી ચારસો-પાંચસો વર્ષોથી પટવા સેવંતિલાલ છોટાલાલના પૂર્વજો કરતા આવ્યા હતા. પટવા સેવંતિલાલ છોટાલાલના સ્વર્ગવાસ પછી તેમના ભાણેજ સુમનભાઈ ચોકસીની સૂચનાથી આ ભંડાર મને સોંપવામાં આવ્યો અને તેમાં અમદાવાદ ઘાંચીની પોળના વતની મારા બાલમિત્ર શ્રાદ્ધવર્ય શાહ બાબુલાલ કેશવલાલ છગનલાલ અત્યંત મહત્ત્વની કડી રૂપ બન્યા હતા અને અમારી જ પ્રેરણાથી પટવા સેવંતિભાઈના સુપુત્રો નરેન્દ્રકુમાર, બિપિનચંદ્ર તથા દીપકકુમારે આ સંપૂર્ણ ભંડાર પાટણના સંઘના શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય જૈન જ્ઞાનમંદિરમાં અર્પણ કર્યો છે. આ કાર્યમાં ભિન્ન ભિન્ન રીતે સહભાગી થયેલા આ બધા મહાનુભાવોને અપાર અપાર ધન્યવાદ ઘટે છે. જેસલમેર, પાટણ તથા ખંભાતના હસ્તલિખિત પ્રાચીનમાં પ્રાચીન તાડપત્રીય પ્રતિઓના ફોટા તથા ઝેરોક્ષ લેવા માટે તે તે સ્થાનના ટ્રસ્ટના કાર્યવાહકોએ અમને સંમતિ આપી અને અનુકૂળતા કરી આપી છે, તે માટે તેમને ઘણા ઘણા ધન્યવાદ ઘટે છે. આ ગ્રંથના સંશોધન-સંપાદનમાં મારા શિષ્યવર્ગે ખૂબ જ ખૂબ સહકાર આપ્યો છે. તેમજ મારાં સંસારી માતૃશ્રી સંઘમાતા શતવર્ષાધિકાયુ સાધ્વીજીશ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજના પરમસેવિકા શિષ્યા સાધ્વીજીશ્રી સૂર્યપ્રભાશ્રીજીના શિષ્યા સાધ્વીજીશ્રી જિનેન્દ્રપ્રભાશ્રીજીએ આમાં ઘણો ઘણો સહકાર આપ્યો છે. અમે જે અનેક અનેક તાડપત્રી પ્રતિઓનો ઉપયોગ કર્યો છે, તે બધી મોટા ભાગે ફોટા રૂપે છે, અથવા ઝેરોક્ષ રૂપે છે. ફોટાના ઝીણા ઝીણા અક્ષરો વાંચવા, ફોટા તથા ઝેરોક્ષ કોપીમાંથી તે તે સ્થળોના પાઠો શોધી કાઢવા, એ સામાન્ય રીતે કોઈની કલ્પનામાં પણ ન આવી શકે એવું અતિ કષ્ટદાયક કામ છે. આ સાધ્વીજીએ શ્રુતભક્તિથી આવું ઘણું ઘણું કામ અત્યંત હર્ષપૂર્વક કર્યું છે. મુફોને વાંચવાં એ પણ ખૂબ શ્રમ અને ઝીણવટભરી નજર માંગી Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ પ્રસ્તાવના લે છે. એ કામ આ સાધ્વીજીએ કર્યું છે તથા તેમના પરિવારે પણ ઘણો જ ઘણો સહકાર વિવિધ કાર્યોમાં આપ્યો છે, તે માટે તે ઘણા ધન્યવાદને પાત્ર છે. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની સંમતિથી જ પૂ. સાધુ-સાધ્વીજી મહારાજ તથા જ્ઞાનભંડાર આદિને યથાયોગ્ય ભેટ આપવા માટે આ જ ગ્રંથની કેટલીક કોપીઓ શ્રી સિદ્ધિ-ભુવન-મનોહર જૈન ટ્રસ્ટ, અમદાવાદ તથા શ્રી જૈન આત્માનંદ સભા, ભાવનગર- વતી વધારે કઢાવેલી છે. આ સંમતિ આપવા માટે શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયના કાર્યવાહકોને અનેકશઃ અભિનંદન તથા ધન્યવાદ ઘટે છે. આ ગ્રંથનું કમ્પોઝીંગનું જટિલ કામ અજયભાઈ સી. શાહ સંચાલિત શ્રી પાર્થ કોમ્યુટર્સ (અમદાવાદ)ના વિમલકુમાર બિપિનચંદ્ર પટેલે દૂર દૂરના સ્થળોએ આવીને ખંતપૂર્વક અમારી સમક્ષ કર્યું છે, તે માટે તે પણ ધન્યવાદને પાત્ર છે. આ પુણ્ય કાર્યમાં દેવ-ગુરૂકૃપાએ આમ વિવિધ રીતે સહાયક સર્વેને મારા હજારો હાર્દિક ધન્યવાદ અને અભિનંદન છે. પૂજ્યપાદ અનંત ઉપકારી પિતાશ્રી ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજના કરકમળમાં આ ગ્રંથ રૂપી પુષ્પ મૂકીને તેમના દ્વારા જિનવાણીરૂપી પુષ્પથી જિનેશ્વર પરમાત્માની પૂજા કરીને આજે ધન્યતા અનુભવું છું. કુંભણ, વાયા-મહુવાબંદર, જિલ્લો-ભાવનગર, ગુજરાત રાજ્ય (સૌરાષ્ટ્ર), પિન-૩૬૪૨૯૦ પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરપટ્ટાલંકાર પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરશિષ્યપૂજ્યપાદ સદ્ગુરુદેવ મુનિરાજશ્રીભુવનવિજયાન્તવાસી મુનિ જંબૂવિજય વિક્રમસં.૨૦૬૦, ઢિ. શ્રાવણ સુદિ ૧૦ બુધવાર, તા.૨૪-૮-૨૦૦૪ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री सिद्धाचलमण्डन-श्रीऋषभदेवस्वामिने नमः ॥ ॥ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ ॥ श्री अजाहरापार्श्वनाथाय नमः ॥ ॥ श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः ॥ || श्री सद्गुरुदेवेभ्यो नमः ॥ किञ्चिद् वक्तव्यम् श्रमण भगवान् महावीर परमात्मा के शिष्य पंचम गणधर भगवान् सुधर्मस्वामिविरचित श्री समवायांगसूत्र का परम्परा से वर्तमान में जो स्वरूप हमें प्राप्त है उसका अतिप्राचीन तालपत्र एवं कागज पर लिखित आदर्शों के आधार से संशोधन एवं संपादन कर के हमने अनेक अनेक परिशिष्टों के साथ मुंबई स्थित श्री महावीर जैन विद्यालय द्वारा विक्रमसं० २०४१ (ई.स.१९८५) में प्रकाशित किया था. इसी समवायांगसूत्रको विक्रमसं.११२० में आ.भ.श्री अभयदेवसूरि विरचित उपलभ्यमान अतिप्राचीन टीका के साथ प्राचीन-प्राचीनतर-प्राचीनतम तालपत्र एवं कागज पर लिखित आदर्शों के आधार से संशोधन एवं संपादन करके अनेक अनेक उपयोगि परिशिष्टों के साथ हम प्रकाशित कर रहे हैं इसका हमें अत्यंत आनंद है. जिन प्राचीन हस्तलिखित आदर्शों का हमने उपयोग किया है इनका किंचित् स्वरूप इस सटीक समवायांगसूत्र के प्रथम पृष्ठ एवं अन्तिम पृष्ठ के पादटिप्पन में हमने सूचित कर दिया है. श्री स्थानांगसूत्र में १ से १० पदार्थों का वर्णन है. श्री समवायांगसूत्रमें १ से १०००, तथा कुछ अधिक संख्यावाले पदार्थों का, एवं अन्य अनेक बातों का भी निर्देश है. विशेष जानने के लिये विषयानुक्रम देखें. इस में नव परिशिष्ट हैं. किस परिशिष्ट में क्या है इसका वर्णन भी विषयानुक्रम में देखें. ___ अनेक बातों की विचारणा गुजराती प्रस्तावना में एवं संस्कृत आमुख में है. विशेष जिज्ञासु वह पढ लेवें. इस ग्रन्थ को तैयार करने में जिन जिन महानुभावों ने भिन्न भिन्न रूप से सहयोग दिया है उन सभी को हमारा हार्दिक धन्यवाद. अजाहरा पार्श्वनाथ तीर्थ, पूज्यपादाचार्यश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालङ्कारअजारा (ता.उना),(जिल्ला-जुनागढ) पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्य(गुजरातराज्य) पीन-362530 पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी मार्गशीर्षशुक्लचतुर्थी मुनि जम्बूविजय ता.15-12-2004 बुधवासरः Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धाचलमण्डन-श्रीऋषभदेवस्वामिने नमः । श्रीशान्तिनाथस्वामिने नमः । श्री शळेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजीपादपद्येभ्यो नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरजीपादपद्मेभ्यो नमः । पूज्यपाद सद्गुरुदेवमुनिराजश्री भुवनविजयजीपादपद्मभ्यो नमः । आमुखम् । अनन्तोपकारिणां परमकृपालूनां जिनेश्वराणां परमकृपया परमोपकारिणां पितृचरणानां सद्गुरुदेवानां पूज्यपादमुनिराजश्री भुवनविजयजीमहाराजानां च परमकृपया साहाय्येन च सम्पन्नं पू.आ.भ.श्रीअभयदेवसूरिविरचितया वृत्त्या विभूषितं पञ्चमगणधरदेवश्रीसुधर्मस्वामिपरम्परयाऽऽयातं श्री समवायाङ्गसूत्रं प्राचीन-प्राचीनतर-प्राचीनतमविविधहस्तलिखितादर्शानुसारेण संशोधन विधाय विविधैः परिशिष्टैश्च समलङ्कृत्य जिनागमरसिकानां पुरत उपन्यस्यन्तो वयमद्यामन्दमानन्दमनुभवामः । आ.प्र.पू.मुनिराजश्री पुण्यविजयजीमहाभागैः [प्रायः] चत्वारिंशतो वर्षेभ्यः प्राक् समवायाङ्गसूत्रस्य समवायाङ्गवृत्तेश्च संशोधनं विहितमासीत् । आगमोदयसमित्या विक्रमसं.१९७४ तमे वर्षे प्रकाशिते वृत्तिसहिते समवायाङ्गसूत्रे, सूत्रस्य वृत्तेश्च प्राचीनान् हस्तलिखितानादर्शानवलम्ब्य परःशताः शुद्धपाठाः तैः स्वयमेव लिखिताः । तमिमम् आ.प्र.पू.मु.श्री पुण्यविजयजीम. संशोधितमादर्शमवलम्ब्य अन्यांश्च प्राचीनान् हस्तलिखितादर्शान् उपयुज्य, संशोध्य, विविधैः परिशिष्टैश्चालङ्कृत्य सम्पादितोऽयं ग्रन्थोऽस्माभिः। यदस्मिन् विषये किञ्चिद् वक्तव्यं तद् गूर्जरभाषायां निबद्धायां प्रस्तावनायां लिखितमस्माभिरतस्तत्रैव द्रष्टव्यं जिज्ञासुभिः । किञ्चान्यत्, श्रीमहावीरजैनविद्यालयेन विक्रमसंवत् २०४१ तमे [ई.स.१९८५] वर्षे जैनआगम-ग्रन्थमालायां ग्रन्थाङ्क ३ रूपेण प्रकाशितस्य मूलमात्रस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य समवायाङ्गसूत्रस्य च गूर्जरभाषानिबद्धायां प्रस्तावनायाम्, संस्कृतभाषानिबद्धे आमुखे, टिप्पणेषु, विविधेषु परिशिष्टेषु च यथायोगं विस्तरेण बहुतरं लिखितमस्माभिः । अतः सटीकस्य समवायाङ्गसूत्रस्य वैशद्येन Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् अध्येतृभिः श्रीमहावीरजैनविद्यालयेन विक्रमसं. २०४१ तमे [ई.स.१९८५] वर्षे प्रकाशित स्थानाङ्गसूत्रं समवायाङ्गसूत्रं च अवश्यमेव उपयोज्यम् । एतदनुसारेणैव मूलरूपं समवायाङ्गसूत्रमस्मिन् सटीके समवायाङ्गसूत्रे मुद्रितम्, तथापि क्वचित् क्वचित् यथायोग्यं परिवर्तनमपि अत्र विहितमिति सुधीभिरवश्यं ध्येयम् । सटीकस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य प्रथम-द्वितीय-तृतीयविभागेषु प्रस्तावनायाम् आमुखादौ परिशिष्टेषु च यल्लिखितमस्माभिः तदपि विशेषजिज्ञासुभिर्निरीक्षणीयम् ।। ___ वृत्तिसहितस्य समवायाङ्गसूत्रस्य संशोधने येषां हस्तलिखितानामादर्शानामुपयोगोऽस्माभिर्विहितः तेषां किञ्चित् स्वरूपम् अस्य ग्रन्थस्य प्रथमपत्रेऽन्तिमपत्रे चाधस्तात् टिप्पने प्रदर्शितम् । ___ अस्माभिः संशोधिता ग्रन्थाः शृङ्खलारूपेण प्रकाश्यन्ते । अतो ये ग्रन्थाः पूर्वं प्रकाशिताः तेषु याः अशुद्धयो दृष्टिपथमवतीर्णाः तासामपि परिमार्जनं संस्करणं च अस्माभिः ग्रन्थान्तरेषु विधीयते- विधास्यते च । अतः सटीकस्य स्थानाङ्गस्य प्रथम-द्वितीय-तृतीयविभागानां शुद्धिवृद्धिपत्रकमस्मिन् समवायाङ्गे नवमे परिशिष्टे द्रष्टव्यम् । तदनुसारेण स्थानाङ्गेऽपि शुद्धिर्वृद्धिश्च सुधीभिः स्वयमेव करणीया । __ यत्र पाठे किञ्चिद् विशेषतो वक्तव्यं तत्र * एतादृशं चिह्न विहितम्, तत्र विशेषजिज्ञासुभिः तृतीये परिशिष्टे टिप्पनेषु द्रष्टव्यम् । अस्माकं या सम्पादने संशोधने च शैली सा पूर्वतनेषु ग्रन्थेषु प्रस्तावनादौ निवेदिता एव इति तत एवावधार्या । धन्यवादः- अस्य ग्रन्थस्य संशोधने सम्पादने च यतो यतः किमपि साहायकं लब्धं तेभ्यः सर्वेभ्यो भूयो भूयो धन्यवादान् वितरामि । विशेषतस्तु इमे स्मर्तव्याः- सटीकस्य समवायाङ्गसूत्रस्य प्राचीनान् हस्तलिखितानादर्शानवलम्ब्य आगमप्रभाकरपूज्यमुनिराजश्री पुण्यविजयजी महाभागैः संशोधनं विहितमासीत् । तं मु.श्री पुण्यविजयजीम. संशोधितमादर्श मुख्यतया अवलम्ब्य अस्य ग्रन्थस्य संशोधनं सम्पादनं चास्माभिर्विहितम् । किञ्च, श्रीमहावीरजैनविद्यालयेन प्रारब्धाया जैनागमग्रन्थमालायाः प्रकाशने बीजभूताः प्रेरकाश्च आ.प्र.मु.श्रीपुण्यविजयजीमहाभागा एव । तैरेव च संशोधन-सम्पादनक्षेत्रेऽहं योजितः । अतः कृतज्ञभावेन तेषां चरणयोर्वन्दनं विदधामि । अनेकेभ्यो वर्षेभ्यः प्राक् आगमोद्धारकैराचार्यश्रीसागरानन्दसूरिभिः महान् ग्रन्थराशिः महता महता परिश्रमेण जैनसंघस्य पुरस्ताद् मुद्रयित्वा उपन्यस्तः । समग्रोऽपि जैनसंघः तैरुपकृतः । अतस्तेषामपि चरणयोः वन्दनं विदधामि । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् परमोपकारिणी परमपूज्या विक्रमसंवत् २०५१ तमे वर्षे श्री सिद्धक्षेत्रे पालिताणानगरे पौषशुक्लदशम्यां दिवंगता शताधिकवर्षायुष्का मम माता साध्वीजीश्री मनोहरश्रीरिहलोकपरलोककल्याणकारिभिराशीर्वचनैर्निरन्तरं मम परमं साहायकं सर्वप्रकारैर्विधत्ते । ___ लोलाडाग्रामे विक्रमसंवत् २०४० कार्तिकशुक्लद्वितीयादिने दिवंगतो ममान्तेवासी वयोवृद्धो देवतुल्यो मुनिदेवभद्रविजयः सदा मे मानसिकं बलं पुष्णाति । ममातिविनीतोऽन्तेवासी मुनिधर्मचन्द्रविजयः तच्छिष्यः मुनिपुण्डरीकरत्नविजयः मुनिधर्मघोषविजयः मुनिमहाविदेहविजयश्च अनेकविधेषु कार्येषु महद् महत् साहायकमनुष्ठितवन्तः। एवमेव मम मातुः साध्वीश्रीमनोहरश्रियः शिष्यायाः साध्वीश्रीसूर्यप्रभाश्रियः शिष्यया साध्वीश्रीजिनेन्द्रप्रभाश्रिया एतद्ग्रन्थसंशोधनसम्बन्धिषु सर्वकार्येषु प्रभूतं प्रभूतं साहायकमनुष्ठितम् । श्रीमहावीरजैनविद्यालयस्य कार्यवाहकैः महता द्रव्यव्ययेन साध्यस्य एतन्मुद्रणादिकस्य व्यवस्था स्वीकृता । अतस्तेभ्योऽपि भूयो भूयो धन्यवादान् वितरामि ।। एतेभ्यः सर्वेभ्यो भूयो भूयो धन्यवादा वितीर्यन्ते । देव-गुरुप्रणिपातपूर्वकं प्रभुपूजनम् परमकृपालूनां परमेश्वराणां देवाधिदेवश्री शर्खेश्वरपार्श्वनाथप्रभूणां परमोपकारिणां पूज्यपादानां पितृचरणानां सद्गुरुदेवानां मुनिराजश्री भुवनविजयजीमहाराजानां च कृपया साहाय्याच्चैव संपन्नं कार्यमिदमिति तेषां चरणेषु अनन्तशः प्रणिपातं विधाय अस्मिन् कुंभणग्रामे मूलनायकरूपेण विराजमानस्य श्रीशान्तिनाथस्य भगवतः करकमलेऽद्य भक्तिभरनिभरण हृदयेन भगवद्वचनात्मकमेव पुष्परूपमेतं ग्रन्थं निधाय अनन्तशः प्रणिपातपूर्वकं भगवन्तं श्री शान्तिनाथं महयाम्येतेन कुसुमेन। कुंभण [जिल्ला-भावनगर] [तालुका- महुवा बंदर] पीन-३६४२९० गुजरातराज्य [सौराष्ट्र] - इत्यावेदयति पूज्यपादाचार्यश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालङ्कारपूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यपूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्री भुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजयः विक्रम सं.२०६१, कार्तिकशुक्लपञ्चमी, ज्ञानपञ्चमी, भौमवासरः, ता.१६-११-२००४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 TWO WORDS I am extremely happy to put the critical edition of the Samavāyangasūtra with the available oldest commentary written by Sri Abhayadeva Sūri in 1120 of Vikrama era with nine appendices in the hands of scholars and students of the Jaina canons. The description of the old mss. on which this edition is based is done in the foot-note of this work on p.1 and 309. I am really indebted to all who have been helpfull to me in one way or other way in preparing and publising this work. I congratulate them heartily. Muni Jambūvijay disciple of His Holiness Munirā ja Sri Bhuvanavijayaji Mahārāja AJĀRĀ PĀRSHVANATHA TIRTHA AJĀRĀ (Taluka-UNĀ) (Dist. Junagadha) (Gujarat Rajya) Pin-362530. Dt.15-12-2004 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DO PUTI IS Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं.बेचरदास-जीवराजदोशीविरचितः मुनिराजश्री पुण्यविजयजीमहाराजगुणानुवादः । । नमो नमः श्रीसन्मतिमहावीराय भगवते । । नमो नमः श्रीप्रवर्तककान्तिविजयमहामुनये शान्तिसागराय । । नमः श्रीपुण्यविजयाय पुण्यपूर्णाय । अस्मदीयसमग्रपरिवारसमादृतानां गुणगणसारङ्गाणां [= समुद्राणां] पूर्णीकृतपञ्चसप्ततिवर्षाणां कल्याणमित्राणां श्री पुण्यविजयमुनिमतल्लिकानां गुणस्मरणरूपाणि कियन्ति स्तुतिवचनानि । यन्नामस्मरणात् स्मर्तुः पुण्यं स्याद् विजयोऽपि च । पुण्येन विजयोऽवश्यम् इति यन्नाम सूचकम् ॥१॥ योऽन्वभूत् पुण्य-विजयौ शुचिनि मुनिजीविते । सोऽयं मुनीशः प्रत्यक्षं प्रभाति पुण्यविजयः ॥२॥ मम कल्याणमित्रं स समता-शमतायुतः । जातानि तस्य वर्षाणि पूर्णानि पञ्चसप्ततिः ॥३॥ तेजस्विनोऽपि सुशीताः प्रतापिनोऽपि शान्तिदाः । जन्मतोऽपि द्विश्रुतिका बहुश्रुताः प्रभास्वराः ॥४॥ एतानद्य महाभागान् श्रुतप्रभाकरान् मुनीन् । सारङ्गशब्देनैकेन संस्तोतुं ममोपक्रमः ॥५॥ अत्र निम्नोल्लिखितेषु सर्वेषु वाक्येषु 'वन्दे पुण्यं महामुनिम्' इति सर्वत्र ध्रुवपदम् भविककुमुदवनसारङ्गम् [-चन्द्रम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥१|| कोविदलोकसंघसारङ्गम् [-सूर्यम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥२॥ सत्कृत्यसरसीसारङ्गम् [-हंसम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥३।। अज्ञानतरून्मूलनसारङ्गम् [-हस्तिनम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥४॥ कुविचारधूलिहरणसारङ्गम् [=पवनम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥५॥ ૧. પં.બેચરદાસ જીવરાજ દોશીએ લખેલો આ ગુણાનુવાદનો પત્ર પૂ.આ.પ્ર.મુનિરાજશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજનાં સંસારી માસીના દીકરીનાં દીકરી સાધ્વીજીશ્રી ઓકારશ્રીજી મહારાજનાં શિષ્યા સાધ્વીજીશ્રી યશોદાશ્રીજી મ. તથા જયંતપ્રભાશ્રીજી મ.ના સૌજન્યથી અમને પ્રાપ્ત થયો છે. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं.बेचरदास-जीवराजदोशीविरचितः मुनिराजश्री पुण्यविजयजीमहाराजगुणानुवादः । दुराग्रहिदन्तिपराजयसारङ्गम् [-सिंहम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥६॥ स्थिरताविजितमहासारङ्गम् [-पर्वतम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥७॥ कषायज्वालाशमनसारङ्गम् [-मेघम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥८॥ जैनागमसारङ्गवादकम् [=वीणाम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥९॥ निर्लेपताभिभूतसारङ्गम् [=कम्बुम्-शङ्खम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥१०॥ सहिष्णुताधरीकृतसारङ्गम् [=पृथ्वीम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥११॥ जिनशासनारामसारङ्गम् [-कुसुमम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥१२॥ अशान्तितमोनिरसनसारङ्गम् [=दीपम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥१३॥ दान्तेन्द्रियमनःसारङ्गम् [अश्वम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥१४॥ दुरितमलावलीक्षालनसारङ्गम् [-जलम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥१५॥ शुचिजलगङ्गासारङ्गम् [=नदीम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥१६।। जैनभवनसुभगसारङ्गम् [-दीपम्] वन्दे पुण्यं महामुनिम् ॥१७॥ इत्येवं विनयभक्तिश्रद्धापूर्वकं समुपदीकृतानि गुणगणस्तुतिवचनानि स्वीकरोतु श्री पुण्यविजयो महामुनिः कृपां विधाय शुभाशीर्वादयतु च । भवदीया नम्राः सेवका बेचरदास-अजवाली-ललिताप्रभृतिपरीवारजनाः । ता.२८।१०।७०। बुधवासरे । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श - लेखक. प्रो. सागरमल जैन भारतीय संस्कृति में अति प्राचीनकाल से ही दो समानान्तर धाराओं की उपस्थिति पाई जाती है- श्रमणधारा और वैदिकधारा । जैन धर्म और संस्कृति इसी श्रमणधारा का एक अंग है । जहाँ श्रमणधारा निवृत्तिपरक रही, वहाँ वैदिकधारा प्रवृत्तिपरक । जहाँ श्रमणधारा में संन्यास व बना, वहाँ वैदिकधारा में गृहस्थजीवन । श्रमणधारा ने सांसारिक जीवन की दु:खमयता को अधिक अभिव्यक्ति दी और यह माना कि शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दु:खों का सागर, अत: उसने शरीर और संसार दोनों से ही मुक्ति को अपनी साधना का लक्ष्य माना । उसकी दृष्टी में जैविक एवं सामाजिक मूल्य गौण रहे और अनासक्ति, वैराग्य और आत्मानुभूति के रुप में मोक्ष या निर्वाण को ही सर्वोच्च मूल्य माना गया । इसके विपरीत वैदिकधारा ने सांसारिक जीवन को वरेण्य मानकर जैविक एवं सामाजिक मूल्यों अर्थात् जीवन के रक्षण एवं पोषण के प्रयत्नों के साथसाथ पारस्परिक सहयोग या सामाजिकता को प्रधानता दी । फलत: वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं पारस्परिक सहयोग हेतु प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मुखर हुए हैं, यथा- हम सौ वर्ष जीयें, हमारी सन्तान बलिष्ठ हो, हमारी गायें अधिक दूध दें, वनस्पति एवं अन्न प्रचुर मात्रा में उत्पन्न हों, हममें परस्पर सहयोग हो आदि । ज्ञातव्य हैं कि वेदों में वैराग्य एवं मोक्ष की अवधारणा अनुपस्थित हैं, जबकि वह श्रमणधारा का केन्द्रीय तत्त्व है । इस प्रकार ये दोनों धारायें दो भिन्न जीवन-दृष्टियों को लेकर प्रवाहित हुई हैं। परिणामस्वरूप इनके साहित्य में भी इन्ही भिन्न-भिन्न जीवन-दृष्टियों का प्रतिपादन पाया जाता हैं । श्रमण परम्परा के साहित्य में संसार की दु:खमयता को प्रदर्शित कर त्याग और वैराग्यमय जीवन शैली का विकास किया गया, जबकि वैदिक साहित्य में ऐहिक जीवन को अधिक सुखी और समृद्ध बनाने हेतु प्रार्थनाओं की और सामाजिक-व्यवस्था (वर्ण-व्यवस्था) और भौतिक उपलब्धियों के हेतु विविध कर्मकाण्डों की सृजना हुई । प्रारम्भिक वैदिक साहित्य, जिसमें मुख्यत: वेद और ब्राह्मण ग्रन्थ समाहित हैं, में लौकिक जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने वाली प्रार्थनाओं और कर्मकाण्डों का ही प्राधान्य हैं, इसके विपरीत श्रमण परम्परा के प्रारम्भिक साहित्य में संसार की दुःखमयता और क्षणभंगुरता को प्रदर्शित कर उससे वैराग्य और विमुक्ति को ही प्रधानता दी गई हैं । संक्षेप में श्रमण परम्परा का साहित्य वैराग्य प्रधान हैं। श्रमणधारा और उसकी ध्यान और योग साधना की परम्परा के अस्तित्व के संकेत हमें मोएंजोदरो और हड़प्पा की संस्कृति के काल से ही मिलने लगते हैं । यह माना जाता है कि हड़प्पा संस्कृति वैदिक संस्कृति से भी पूर्ववर्ती ही रही है । ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ में भी व्रात्यों और वातरशना मुनियों के उल्लेख भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं कि उस युग में श्रमणधारा का अस्तित्व था। जहाँ तक इस प्राचीन श्रमण परम्परा के साहित्य का प्रश्न है दर्भाग्य से वह आज १. पार्श्वनाथ विद्याश्रम-वाराणसी से प्रकाशित Aspects of Jainology Vol.7 से उद्धृत ।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श हमें उपलब्ध नहीं है, किन्तु वेदों में उस प्रकार की जीवन दृष्टि की उपस्थिति के संकेत यह अवश्य सूचित करते हैं कि उनका अपना कोई साहित्य भी रहा होगा, जो कालक्रम में लुप्त हो गया । आज आत्मसाधना प्रधान निवृत्तिमूलक श्रमणधारा के साहित्य का सबसे प्राचीन अंश यदि कहीं उपलब्ध है, तो वह औपनिषदिक साहित्य में है। प्राचीन उपनिषदों में न केवल वैदिक कर्म- काण्डों और भौतिकवादी जीवन-दृष्टि की आलोचना की गई है, अपितु आध्यात्मिक मूल्यों के अधिष्ठान आत्मतत्त्व की सर्वोपरिता भी प्रतिष्ठित की गयी है । आज यह सबसे बड़ी भ्रान्ति है कि हम उपनिषदों को वैदिकधारा के प्रतिनिधि ग्रन्थ मानते हैं, किन्तु उनमें वैदिक कर्मकाण्डों की स्पष्ट आलोचना के जो स्वर मुखरित हुए हैं और तप-त्याग प्रधान आध्यात्मिक मूल्यों की जो प्रतिष्ठा हुई है, वह स्पष्टतया इस तथ्य का प्रमाण है कि वे मूलत: श्रमण जीवन-दृष्टि के प्रस्तोता है । यह सत्य है कि उपनिषदों में वैदिकधारा के भी कुछ संकेत उपलब्ध हैं किन्तु यह नहीं भूलना चाहिये कि उपनिषदों की मूलभूत जीवन दृष्टि वैदिक नहीं, श्रमण है । वे उस युग की रचना हैं, जब वैदिकों द्वारा श्रमण संस्कृति के जीवन मूल्यों को स्वीकृत किया जा रहा था । वे वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति के समन्वय की कहानी कहते हैं। ईशावास्योपनिषद् में समन्वय का यह प्रयत्न स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है । उसमें त्याग और भोग, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, कर्म और कर्म-संन्यास, व्यक्ति और समष्टि, अविद्या (भौतिक ज्ञान) और विद्या (आध्यात्मिक ज्ञान) के मध्य एक सुन्दर समन्वय स्थापित किया गया है । उपनिषदों का पूर्ववर्ती एवं समसामयिक श्रमण परम्परा का जो अधिकांश साहित्य था, वह श्रमण परम्परा की अन्य धाराओं के जीवित न रह पाने या उनके बृहद् हिन्दू परम्परा में समाहित हो जाने के कारण या तो विलुप्त हो गया था या फिर दूसरी जीवित श्रमण परम्पराओं के द्वारा अथवा बृहद् हिन्दू परम्परा के द्वारा आत्मसात् कर लिया गया । किन्तु उसके अस्तित्व के संकेत एवं अवशेष आज भी औपनिषदिक साहित्य, पालित्रिपिटक और जैनागमों में सुरक्षित हैं । प्राचीन आरण्यकों, उपनिषदों, आचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, इसिभासियाई, थेरगाथा, सुत्तनिपात और महाभारत में इन विलुप्त या समाहित श्रमण परम्पराओं के अनेक ऋषियों के उपदेश आज भी पाये जाते हैं । इसिभासियाई, सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन में उल्लिखित याज्ञवल्क्य, नारद, असितदेवल, कपिल, पाराशर, आरुणि, उद्दालक, नमि, बाहुक, रामपुत्त आदि ऋषि वे ही हैं, जिनमें से अनेक के उपदेश एवं आख्यान उपनिषदों एवं महाभारत में भी सुरक्षित हैं । जैन परम्परा में ऋषिभाषित में इन्हें अर्हत् ऋषि एवं सूत्रकृतांग में सिद्धि को प्राप्त तपोधन महापुरुष कहा गया हैं और उन्हें अपनी पूर्व परम्परा से सम्बद्ध बताया गया है । पालित्रिपिटक के दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में भी बुद्ध के समकालीन छह तीर्थंकरों- अजितकेशकम्बल, प्रकुधकात्यायन, पूर्णकश्यप, संजयवेलटिठपुत्त, मंखलिगोशालक एवं निग्गंठनातपुत्त की मान्यताओं का निर्देश हुआ है, फिर चाहे उन्हें विकृत रूप में ही प्रस्तुत क्यों न किया गया हो । इसी प्रकार के थेरगाथा, सुत्तनिपात आदि के अनेक थेर (स्थविर) भी प्राचीन श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित रहे हैं । इस सबसे भारत में Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श श्रमणधारा के प्राचीनकाल में अस्तित्व की सूचना मिल जाती है । पद्मभूषण पं.दलसुखभाई मालवणिया ने पालित्रिपिटक में अजित, अरक और अरनेमि नामक तीर्थंकरों के उल्लेख को भी खोज निकाला है । ज्ञातव्य है कि उसमें इन्हें “तित्थकरो कामेसु वीतरागो" कहा गया है- चाहे हम यह मानें या न मानें कि इनकी संगति जैन परम्परा के अजित, अरह और अरिष्टनेमि नामक तीर्थकरों से हो सकती है- किन्तु इतना तो मानना ही होगा कि या सभी उल्लेख श्रमणधारा के अतिप्राचीन अस्तित्व को ही सूचित करते हैं । वैदिक साहित्य और जैनागम वैदिक साहित्य में वेद प्राचीनतम है । वेदों के सन्दर्भ में भारतीय दर्शनों में दो प्रकार की मान्यताएँ उल्लिखित हैं । मीमांसकदर्शन के अनुसार वेद अपौरुषेय है अर्थात् किसी व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित नहीं है। उनके अनुसार वेद अनादि-निधन है, शाश्वत है, न तो उनका कोई रचयिता है और नहीं रचनाकाल । नैयायिकों की मान्यता इससे भिन्न है, वे वेद-वचनों को ईश्वर-सृष्ट मानते हैं । उनके अनुसार वेद अपौरुषेय नहीं, अपितु ईश्वरकृत हैं । ईश्वरकृत होते हुए भी ईश्वर के अनादि-निधन होने से वेद भी अनादि-निधन माने जा सकते हैं, किन्तु जब उन्हें ईश्वरसृष्ट मान लिया गया है, तो फिर अनादि कहना उचित नहीं है, क्योंकि ईश्वर की अपेक्षा से तो वे सादि ही होंगे। जहाँ तक जैनागमों का प्रश्न है उन्हें अर्थ-रूप में अर्थात् कथ्य-विषय-वस्तु की अपेक्षा से तीर्थंकरों के द्वारा उपदिष्ट माना जाता है । इस दृष्टि से वे अपौरुषेय नहीं हैं । वे अर्थ-रूप में तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट और शब्द-रूप में गणधरों द्वारा रचित माने जाते हैं, किन्तु यह बात भी केवल अंग आगमों के सन्दर्भ में है । अंगबाह्य आगम ग्रन्थ तो विभिन्न स्थविरों और पूर्वधरआचार्यों की कृति माने ही जाते हैं । इस प्रकार जैन आगम पौरुषेय (पुरुषकृत) हैं और काल विशेष में निर्मित हैं । किन्तु जैन आचार्यों ने एक अन्य अपेक्षा से विचार करते हुए अंग आगमों को शाश्वत भी कहा है। उनके इस कथन का आधार यह है कि तीर्थंकरों की परम्परा तो अनादिकाल से चली आ रही है और अनन्तकाल तक चलेगी, कोई भी काल ऐसा नहीं, जिसमें तीर्थंकर नहीं होते हैं । अत: इस दृष्टि से जैन आगम भी अनादि-अनन्त सिद्ध होते हैं । जैन मान्यता के अनुसार तीर्थंकर भिन्न-भिन्न आत्माएँ होती हैं किन्तु उनके उपदेशों में समानता होती है और उनके समान उपदेशों के आधार पर रचित ग्रन्थ भी समान ही होते हैं । इसी अपेक्षा से नन्दीसूत्र में आगमों को अनादि-निधन भी कहा गया है। तीर्थंकरों के कथन में चाहे शब्द-रूप में भिन्नता हो, किन्तु अर्थ-रूप में भिन्नता नहीं होती है । अत: अर्थ या कथ्य की दृष्टि से यह एकरूपता ही जैनागामों को प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त सिद्ध करती है । नन्दीसूत्र (सूत्र ५८) में कहा गया है कि “यह जो द्वादश-अंग या गणिपिटक है- वह ऐसा नहीं है कि यह कभी नहीं था, कभी नहीं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श रहेगा और न कभी होगा । यह सदैव था, सदैव है और सदैव रहेगा । यह ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है ।" इस प्रकार जैन चिन्तक एक ओर प्रत्येक तीर्थंकर के उपदेश के आधार पर उनके प्रमुख शिष्यों के द्वारा शब्द-रूप में आगमों की रचना होने की अवधारणा को स्वीकार करते हैं तो दूसरी ओर अर्थ या कथ्य की दृष्टि से समरूपता के आधार पर यह भी स्वीकार करते हैं कि अर्थ रूप से जिन-वाणी सदैव थी और सदैव रहेगी । वह कभी भी नष्ट नहीं होती है । विचार की अपेक्षा से आगमों की शाश्वतता और नित्यता मान्य करते हुए भी जैन परम्परा उन्हें शब्द रूप से सृष्ट और विच्छिन्न होने वाला भी मानती है । अनेकान्त भाषा में कहें तो तीर्थंकर की अनवरत परम्परा की दृष्टि से आगम शाश्वत और नित्य है, जबकि तीर्थंकर विशेष की शासन की अपेक्षा से वे सृष्ट एवं अनित्य हैं । ४ वैदिक साहित्य में वेदों के पश्चात् क्रमशः ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों का क्रम आता है । इनमें ब्राह्मण ग्रन्थ मुख्यतः यज्ञ-याग सम्बन्धी कर्मकाण्डों का विवरण प्रस्तुत करते है। अतः उनकी शैली और विषय वस्तु दोनों ही अर्धमागधी आगम साहित्य से भिन्न है । आरण्यकों के सम्बन्ध में अभी तक सम्यक् अध्ययन नहीं कर पाया हूँ अतः उनसे अर्धमागधी आगम साहित्य की तुलना कर पाना मेरे लिये सम्भव नहीं है । किन्तु आरण्यकों में वैराग्य, निवृत्ति एवं वानप्रस्थ जीवन के अनेक तथ्यों के उल्लेख होने से विशेष तुलनात्मक अध्ययन द्वारा उनमें और जैन आगमों में समरूपता को खोजा जा सकता है । जहाँ तक उपनिषदों का प्रश्न है उपनिषदों के अनेक अंश आचारांग, इसिभासियाइं आदि प्राचीन अर्धमागधी आगम साहित्य में भी यथावत् उपलब्ध होते हैं । याज्ञवल्क्य, नारद, कपिल, असितदेवल, अरुण, उद्दालक, पाराशर आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख एवं उपदेश इसिभासियाई, आचारांग, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में उपलब्ध हैं । इसिभासियाइं में याज्ञवल्क्य का उपदेश उसी रूप में वर्णित है, जैसा वह उपनिषदों में मिलता है । उत्तराध्ययन के अनेक आख्यान, उपदेश एवं कथाएँ मात्र नाम-भेद के साथ महाभारत में भी उपलब्ध है । प्रस्तुत प्रसंग में विस्तारभय से वह सब तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है । इनके तुलनात्मक अध्ययन हेतु इच्छुक पाठकों को इसिभासियाई की मेरी भूमिका एवं जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन खण्ड १ एवं २ देखने की अनुशंसा करके इस चर्चा को यहीं विराम देता हूँ । पालित्रिपिटक और जैनागम पालित्रिपिटक और जैनागम अपने उद्भव स्रोत की अपेक्षा से समकालिक कहे जा सकते है, क्योंकि पालित्रिपिटक के प्रवक्ता भगवान बुद्ध और जैनागमों के प्रवक्ता भगवान महावीर समकालिक ही है । इसलिए दोनों के प्रारम्भिक ग्रन्थों का रचनाकाल भी समसामयिक है । दूसरे जैन परम्परा और बौद्ध परम्परा दोनों ही भारतीय संस्कृति की श्रमणधारा के अंग है अतः दोनों की मूलभूत जीवन-दृष्टि एक ही है । इस तथ्य की पुष्टि जैनागमों और पालित्रिपिटक के तुलनात्मक अध्ययन Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श से हो जाती है । दोनों परम्पराओं में समान रूप से निवृत्तिपरक जीवन-दृष्टि को अपनाया गया है और सदाचार एवं नैतिकता की प्रस्थापना के प्रयत्न किये गये हैं, अतः विषय-वस्तु की दृष्टि से भी दोनों ही परम्पराओं के साहित्य में समानता है । उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं कुछ प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ, सुत्तनिपात, धम्मपद आदि में मिल जाती हैं। किन्तु जहाँ तक दोनों के दर्शन एवं आचार नियमों का प्रश्न है, वहाँ स्पष्ट अन्तर भी देखा जाता है । क्योंकि जहाँ भगवान बुद्ध आचार के क्षेत्र में मध्यममार्गीय थे, वहाँ महावीर तप, त्याग और तितिक्षा पर अधिक बल दे रहे थे । इस प्रकार आचार के क्षेत्र में दोनों की दृष्टियाँ भिन्न थीं । यद्यपि विचार के क्षेत्र में महावीर और बुद्ध दोनों ही एकान्तवाद के समालोचक थे, किन्तु जहाँ बुद्ध ने एकान्तवादों को केवल नकारा, वहाँ महावीर ने उन एकान्तवादों में समन्वय किया । अत: दर्शन के क्षेत्र में बुद्ध की दृष्टि नकारात्मक रही हैं, जबकि महावीर की सकारात्मक । इस प्रकार दर्शन और आचार के क्षेत्र में दोनों में भिन्नता थी, वह उनके साहित्य में भी अभिव्यक्त हुई है। फिर भी सामान्य पाठक की अपेक्षा से दोनो परम्परा के ग्रन्थों में क्षणिकवाद, अनात्मवाद आदि दार्शनिक प्रस्थानों को छोड़कर एकता ही अधिक परिलक्षित होती हैं । आगमों का महत्त्व एवं प्रामाणिकता प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ या शास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, क्योंकि उस धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त और आचार व्यवस्था दोनों के लिए “शास्त्र" ही एक मात्र प्रमाण होता है । हिन्दूधर्म में वेद का, बौद्धधर्म में त्रिपिटक का, पारसीधर्म में अवेस्ता का, ईसाईधर्म में बाइबिल का और इस्लाम में कुरान का, जो स्थान है, वही स्थान जैनधर्म में आगम साहित्य का है । फिर भी आगम साहित्य को न तो वेद के समान अपौरुषेय माना गया है और न बाइबिल या कुरान के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देश ही, अपितु वह उन अर्हतों व ऋषियों की वाणी का संकलन है, जिन्होंने अपनी तपस्या और साधना द्वारा सत्य का प्रकाश प्राप्त किया था । जैनों के लिए आगम जिनवाणी है, आप्तवचन है, उनके धर्म-दर्शन और साधना का आधार है । यद्यपि वर्तमान में जैनधर्म का दिगम्बर सम्प्रदाय उपलब्ध अर्धमागधी आगमों को प्रमाणभूत नहीं मानता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में इन आगमों में कुछ ऐसा प्रक्षिप्त अंश है, जो उनकी मान्यताओं के विपरीत है । मेरी दृष्टि में चाहे वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी आगमों में कुछ प्रक्षिप्त अंश हो या उनमें कुछ परिवर्तन-परिवर्धन भी हुआ हो, फिर भी वे जैनधर्म के प्रामाणिक दस्तावेज हैं। उनमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध हैं। उनकी पूर्णत: अस्वीकृति का अर्थ अपनी प्रामाणिकता को ही नकारना है । श्वेताम्बर मान्य इन अर्धमागधी आगमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये ई.पू.पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पाँचवी शती अर्थात् लगभग एक हजार वर्ष में जैन संघ के चढ़ाव-उतार की एक प्रामाणिक कहानी कह देते हैं । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श अर्धमागधी आगमों का वर्गीकरण वर्तमान जो आगम ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न रूप में वर्गीकृत किया जाता हैं - ११ अंग : १.आयार (आचारांग), २.सूयगड (सूत्रकृतांग), ३.ठाण (स्थानांग), ४.समवाय (समवायांग), ५.वियाहपन्नत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवती), ६. नायाधम्मकहाओं (ज्ञात-धर्मकथा:), ७.उवासगदसाओं (उपासकदशा:), ८.अंतगडदासाओं (अन्तकृद्दशाः), ९.अनुत्तरोववाइदसाओ (अनुत्तरौपपातिकदशा:), १०.पण्हावागरणाई (प्रश्नव्याकरणानि), ११.विवागसुयं (विपाकश्रुतम्), १२.दृष्टिवाद (दिठिवाय), जो विच्छिन्न हुआ है । १२ उपांग : १.उपवाइयं (औपपातिकं), २.रायपसेणइजं (राजप्रसेनजित्कं) अथवा रायपसेणियं (राजप्रश्नीयं), ३.जीवाजीवाभिगम, ४.पण्णवणा (प्रज्ञापना), ५.सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्ति), ६.जम्बुद्दीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति), ७.चंदपण्णत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्ति), ८-१२.निरयावलियासुयक्खंध (निरयावलिकाश्रुतस्कन्ध), ८.निरयावलियाओ (निरयावलिका:), ९.कप्पवडिसियाओ (कल्पावतंसिकाः), १०.पुप्फियाओ (पुष्पिकाः), ११.पुप्फचूलाओ (पुष्पचूला:), १२.वण्हिदसाओ (वृष्णिदशाः) । जहाँ तक उपर्युक्त अंग और उपांग ग्रन्थों का प्रश्न है । श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदाय इन्हें मान्य करते हैं । जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय इन्हीं ग्यारह अंगसूत्रों को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि ये अंगसूत्र वर्तमान में विलुप्त हो गये हैं । उपांगसूत्रों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों में एक रूपता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में बारह उपांगों की न तो कोई मान्यता रही और न वे वर्तमान में इन ग्रन्थों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं । यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, दीपसागरप्रज्ञप्ति आदि नामों से उनके यहाँ कुछ ग्रन्थ अवश्य पाये जाते हैं । साथ ही सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी उनके द्वारा दृष्टिवाद के परिकर्म विभाग के अन्तर्गत स्वीकार किया गया था । ४. मूलसूत्र ___सामान्यतया (१) उत्तराध्ययन, (२) दशवैकालिक, (३) आवश्यक और (४) पिण्डनियुक्ति ये चार मूलसूत्र माने गये हैं। फिर भी मूलसूत्रों की संख्या और नामों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एकरूपता नहीं है। जहाँ तक उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का प्रश्न है इन्हें सभी श्वेताम्बर सम्प्रदायों एवं आचार्यों ने एक मत से मूलसूत्र माना हैं । समयसुन्दर, भावप्रभसूरि तथा पाश्चात्य विद्वानों में प्रो.वेबर, प्रो.वूल्हर, प्रो.सारपेन्टियर, प्रो.विन्टरनित्ज, प्रो.शूबिंग आदि ने एक स्वर से आवश्यक को मूलसूत्र माना है, किन्तु स्थानकवासी एवं तेरापन्थी सम्प्रदाय आवश्यक को मूलसूत्र के अन्तर्गत नहीं मानते हैं। ये दोनो सम्प्रदाय आवश्यक एवं पिण्डनियुक्ति के स्थान पर नन्दी और अनुयोगद्वार को मूलसूत्र मानते हैं । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ आचार्यों ने पिण्डनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र में माना है। इस प्रकार मूलसूत्रों के वर्गीकरण और उनके नामों में एक रूपता का अभाव है । दिगम्बर परम्परा में इन मूलसूत्रों में से दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और आवश्यक मान्य रहे हैं। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श तत्त्वार्थ की दिगम्बर टीकाओं में, धवला में तथा अंगपण्णत्ति में इनका उल्लेख है । ज्ञातव्य है कि अंगपण्णत्ति में नन्दीसूत्र की भाँति ही आवश्यक के छह विभाग किये गये हैं। यापनीय परम्परा में भी न केवल आवश्यक, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक मान्य रहे हैं, अपितु यापनीय आचार्य अपराजिय (नवीं शती) ने तो दशवैकालिक की टीका भी लिखी थी । ६. छेदसूत्र ___छेदसूत्रों के अन्तर्गत वर्तमान में - १.आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध), २.कप्प (कल्प), ३.ववहार (व्यवहार), ४.निसीह (निशीथ), ५.महानिसीह (महानिशीथ) और ६.जीयकप्प (जीतकल्प) ये छह ग्रन्थ माने जाते हैं । इनमें से महानिशीथ और जीतकल्प को श्वेताम्बरों की तेरापन्थी और स्थानकवासी सम्प्रदायें मान्य नहीं करती हैं। वे दोनों मात्र चार ही छेदसूत्र मानते हैं। जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय उपर्युक्त ६ छेदसूत्रों को मानता है ।जहाँ तक दिगम्बर और यापनीय परम्परा का प्रश्न है उनमें अंगबाह्य ग्रन्थों में कल्प, व्यवहार और निशीथ का उल्लेख मिलता है । यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में न केवल इनका उल्लेख मिलता है, अपितु इनके अवतरण भी दिये गये हैं। आश्चर्य यह है कि वर्तमान में दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मूलत:यापनीय परम्परा के प्रायश्चित सम्बन्धी ग्रन्थ "छेदपिण्डशास्त्र" में कल्प और व्यवहार के प्रमाण्य के साथ-साथ जीतकल्प का भी प्रमाण्य स्वीकार किया गया है। इस प्रकार दिगम्बर एवं यापनीय परम्पराओं में कल्प, व्यवहार, निशीथ और जीतकल्प की मान्यता रही है, यद्यपि वर्तमान में दिगम्बर आचार्य इन्हें मान्य नहीं करते हैं। १० प्रकीर्णक इसके अन्तर्गत निम्न दस ग्रन्थ माने जाते हैं १.चउसरण (चतुःशरण), २.आउरपच्चाक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान), ३.भत्तपरिन्ना (भक्तपरिज्ञा), ४.संथारय (संस्तारक), ५.तंडुलवेयालिय (तंदुलवैचारिक), ६.चंदवेज्झय (चन्द्रवेध्यक), ७.देविंदत्थय (देवेन्द्रस्तव), ८.गणिविज्जा (गणिविद्या), ९.महापच्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान) और १०.वीरत्थव (वीरस्तव)। श्वेताम्बर सम्प्रदायों में स्थानकवासी और तेरापंथी इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करते हैं। यद्यपि मेरी दृष्टि में इनमें उनकी परम्परा के विरुद्ध ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे इन्हें अमान्य किया जाये। इनमें से ९ प्रकीर्णकों का उल्लेख तो नन्दीसूत्र में मिल जाता है । अत: इन्हें अमान्य करने का कोई औचित्य नहीं है । हमने इसकी विस्तृत चर्चा आगम संस्थान, उदयपुर से प्रकाशित महापच्चक्खाण की भूमिका में की है। जहाँ तक दस प्रकीर्णकों के नाम आदि का प्रश्न है, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के आचार्यों में भी किंचित् मतभेद पाया जाता है । लगभग ९ नामों में तो एक रूपता है किन्तु भत्तपरित्रा, मरणविधि और वीरस्तव ये तीन नाम ऐसे हैं जो भिन्न-भिन्न आचार्यों के वर्गीकरण में भिन्न-भिन्न रूप से आये हैं। किसी ने भक्तपरिज्ञा को छोड़कर मरणविधि का उल्लेख किया है तो किसी ने उसके स्थान पर वीरस्तव का उल्लेख किया है । मुनि श्री पुण्यविजयजी ने पइण्णयसुत्ताई, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श प्रयम भाग की भूमिका में प्रकीर्णक नाम से अभिहित लगभग निम्न २२ ग्रन्थों का उल्लेख किया हैं इनमें से अधिकांश महावीर विद्यालय से पइण्णयसुत्ताई नाम से २ भागों में प्रकाशित हैं । अंगविद्या का प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी की ओर से हुआ हैं । ये बाईस प्रकीर्णक निम्न हैं १.चतुःशरण, २.आतुरप्रत्याख्यान, ३.भक्तपरिज्ञा, ४.संस्तारक, ५.तंदुलवैचारिक, ६.चन्द्रवेध्यक, ७.देवेन्द्रस्तव, ८.गणिविज्जा, ९.महाप्रत्याख्यान, १०.वीरस्तव, ११. ऋषिभाषित, १२.अजीवकल्प, १३.गच्छाचार, १४.मरणसमाधि, १५.तित्थोगालिय, १६.आराधनापताका, १७. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, १८.ज्योतिष्करण्डक, १९.अंगविद्या, २०.सिद्धप्राभृत, २१.सारावली और २२.जीवविभक्ति । इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं यथा- 'आउरपच्चक्खाण' के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। उनमें से एक तो दसवीं शती के आचार्य वीरभद्र की कृति है। ___इनमें से नन्दी और पाक्षिकसूत्र के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान ये सात नाम पाये जाते हैं और कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो नाम पाये जाते हैं । इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है । ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के कुछ आचार्य जो ८४ आगम मानते हैं, वे प्रकीर्णकों की संख्या १० के स्थान पर ३० मानते हैं । इसमें पूर्वोक्त २२ नामों के अतिरिक्त निम्न ८ प्रकीर्णक और माने गये हैं--पिण्डविशुद्धि, पर्यन्तआराधना, योनिप्राभृत, अंगचूलिया, वंगचूलिया, वृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना और कल्पसूत्र । जहाँ तक दिगम्बर परम्परा एवं यापनीय परम्परा की प्रश्न है, वह स्पष्टत: इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करती हैं, फिर भी मूलाचार में आतुरत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान से अनेक गाथायें उसके संक्षिप्त प्रत्याख्यान और बृहत्-प्रत्याख्यान नामक अध्यायों में अवतरित की गई है। इसी प्रकार भगवतीआराधना में भी मरणविभक्ति, आराधनापताका आदि अनेक प्रकीर्णकों की गाथायें अवतरित हैं । ज्ञातव्य है कि इनमें अंगबाह्यों को प्रकीर्णक कहा गया है। २.चूलिकासूत्र चूलिकासूत्र के अन्तर्गत नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार ये दो ग्रन्थ माने जाते हैं। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि स्थानकवासी परम्परा इन्हें चूलिकासूत्र न कहकर मूलसूत्र में वर्गीकृत करती है। फिर भी इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों को मान्य रहे हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ६ छेद, १० प्रकीर्णक, २ चूलिकासूत्र- ये ४५ आगम श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में मान्य है । स्थानकवासी व तेरापन्थी इसमें से १० प्रकीर्णक, जीतकल्प, महानिशीथ और पिण्डनियुक्ति- इन १३ ग्रन्थों को कम करके ३२ आगम मान्य करते है । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श जो लोग चौरासी आगम मान्य करते हैं वे दस प्रकीर्णकों के स्थान पर पूर्वोक्त तीस प्रकीर्णक मानते है । इसके साथ दस नियुक्तियों तथा यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प, पाक्षिकसूत्र, क्षमापनासूत्र, वन्दित्तु, तिथि-प्रकरण, कवचप्रकरण, संसक्तनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य को भी आगमों में सम्मिलित करते हैं। ___ इस प्रकार वर्तमानकाल में अर्धमागधी आगम साहित्य को अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, किन्तु यह वर्गीकरण पर्याप्त परवर्ती है । १२ वीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में इस प्रकार के वर्गीकरण का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है । वर्गीकरण की यह शैली सर्वप्रथम हमें आचार्य श्रीचन्द की "सुखबोधासमाचारी' (ई.सन्.१११२) १. "नाणं पंचविहं पन्नत्तं तंजहा-आभिणिबोहियनाणं सुयनाणं ओहिनाणं मणपजवनाणं केवलनाणं......। जइ सुयनाणस्स उद्देसो......किं अंगपविट्ठस्स...... अंगबाहिरस्स....... आवस्सगस्स...... आवस्सगवइरित्तस्स....... कालियस्स....... उक्कालियस्स...... किं दसवेयालियस्स कप्पियाकप्पियस्स चुल्लकप्पसुयस्स महाकप्पसुयस्स पमायापमायस्स उववाइयस्स रायपसेणइयस्स जीवाभिगमस्स पन्नवणाए महापन्नवणाए नंदीए अणुओगदाराणं देविंदत्थयस्स तंदुलवेयालियस्स चंदावेज्झयस्स गणिविज्जाए पोरिसिमंडलस्स मंडलपवेसस्स विज्जाचरणविणिच्छयस्स झाणविभत्तीए मरणविभत्तीए आयविसोहीए मरणविसोहीए संलेहणासुयस्स वीयरागसुयस्स विहारकप्पस्स चरणविहीए आउरपच्चक्खाणस्स महापच्चक्खाणस्स, सव्वेसिं पि एएसिं उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाऽणुओगो पवत्तइ, जइ कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुनाऽणुओगो पवत्तइ किं उत्तरज्झयणाणं दसाणं कप्पस्स ववहारस्स इसिभासियाणं निसीहस्स महानिसीहस्स जंबुद्दीवपन्नत्तीए चंदपन्नत्तीए सूरपन्नत्तीए दीवसागरपन्नत्तीए खुड्डियाविमाणपविभत्तीए महल्लियाविमाणपविभत्तीए अंगचूलियाए वग्गचूलियाए विवाहचूलियाए अरुणोंववायस्स गरुलोववायस्स धरणोववायस्स वेसमणोववायस्स वेलंधरोववायस्स देविंदोववायस्स उट्ठाणसुयस्स समुट्ठाणसुयस्स नागपारियावलियाणं निरयावलियाणं कप्पियाणं कप्पवडिसयाणं पुप्फियाणं पुप्फचूलियाणं वन्हिदसाणं आसीविसभावणाणं दिट्ठीविसभावणाणं चारणभावणाणं महासमणभावणाणं तेयगनिसग्गाणं?. सव्वेसिपि एएसिं उद्देसो समद्देसो अणन्नाऽणुओगो पवत्तइ, जइ अंगपविट्ठस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाऽणुओगो पवत्तइ किं आयारस्स सूयगडस्स ठाणस्स समवायस्स विवाहपन्नत्तीए नायाधम्मकहाणं उवासगदसाणं अंतगडदसाणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पण्हावागरणाणं विवागसुयस्स दिट्टिवायस्स.?, सव्वेसि पि एएसिं उद्देसो समुद्देसो अणुनाऽणुओगो पवत्तइ, इमं पुण पठ्ठवणं पडुच्च इमस्स साहुस्स इमाए साहुणीए वा अमुगअंगस्स अमुगसुयखंधस्स वा उद्देसनंदी अणुन्नानंदी वा पवत्तइ ॥ ॥ नंदी सम्मत्ता ॥ इयाणिं उवंगा- आयारे उवाइयं उवंगं १ सूयगडे रायपसेणइयं २ ठाणे जीवाभिगमो ३ समवाए पन्नवणा ४ भगवईए सूरपन्नत्ती ५ नायाणं जंबुद्दीवपन्नत्ती ६ उवासगदसाणं चंदपन्नत्ती ७ तिहिं तिहिं आयंबिलेहिं एक्केवं उवंगं वच्चइ, नवरं तओ पन्नत्तीओ कालियाओ संघट्ट च कीरइ, सेसाण पंचण्हमंगाणं मयंतरेण निरावलियासुयखंधो उवंगं, तत्थ पंच वग्गा निरयावलियाउ कप्पवडिंसियाउ पुप्फियाउ पुप्फचूलियाउ वण्हीदसाउ, नंदिं कडित्तु निरयावलियासुयखधं उद्दिसिय पढमो वग्गो उद्दिस्सइ, तत्थ दस अज्झयणा, एवं बीय-तइय-चउत्थवग्गेसु वि दस २ अज्झयणा, पंचमवग्गे बारस अज्झयणा, आइल्ला अंतिल्ला भणिऊण सव्ववग्गेसु नव २ काउस्सग्गा कीरंति, पंचसु वग्गेसु पंच दिणा ५, दो सुयखंधे २, सव्वे सत्त दिणा ७ ॥ निरयावलियासुयखंधो सम्मत्तो ॥ इयाणि पइन्नगा अणुओगदाराई देविंदत्थओ तंदुलवेयालियं चंदावेज्झयं आउरपच्चक्खाणं गणिविज्जा एवमाइया, जोगाणं मज्झे निव्वीयदिणे एक्कदिणेण उद्दिसंति समुद्दिसंति अणुन्नवंति य ॥ बाहिरजोगविही ॥" - सुखबोधासामाचारी ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श में आंशिक रूप से उपलब्ध होती है । इसमें आगम साहित्य के अध्ययन का जो क्रम दिया गया है उससे केवल इतना ही प्रतिफलित होता है कि अंग, उपांग आदि की अवधारणा उस युग में बन चुकी थी । किन्तु वर्तमानकाल में जिस प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है, वैसा वर्गीकरण उस समय तक भी पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं हुआ था । उसमें मात्र अंग, उपांग, प्रकीर्णक इतने ही नाम मिलते हैं । विशेषता यह कि उसमें नन्दीसूत्र व अनुयोगद्वारसूत्र को भी प्रकीर्णकों में सम्मिलित किया गया है । सुखबोधासमाचारी का यह विवरण मुख्य रूप से तो आगम ग्रन्थों के अध्ययनक्रम को ही सूचित करता है । इसमें मुनि जीवनं सम्बन्धी आचार नियमों के प्रतिपादक आगम ग्रन्थों के अध्ययन को प्राथमिकता दी गयी है और सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन बौद्धिक परिपक्वता के पश्चात् हो ऐसी व्यवस्था की गई है । इस दृष्टि से एक अन्य विवरण जिनप्रभ ने अपने ग्रन्थ विधिमार्गप्रपा में दिया है। इसमें वर्तमान में उल्लिखित आगमों के नाम तो मिल जाते हैं, किन्तु कौन आगम किस वर्ग का है यह उल्लेख नहीं है । मात्र प्रत्येक वर्ग के आगमों के नाम एक साथ आने के कारण यह विश्वास किया जा सकता है कि उस समय तक चाहे अंग, उपांग आदि का वर्तमान वर्गीकरण पूर्णतः स्थिर न हुआ हो, किन्तु जैसा पद्मभूषण पं. दलसुखभाई का कथन है कि कौन ग्रन्थ किसके साथ उल्लिखित होना चाहिए ऐसा एक क्रम बन गया था, क्योंकि उसमें 'अंग, उपांग, छेद, मूल, प्रकीर्णक एवं चूलिकासूत्रों के नाम एक ही साथ मिलते हैं । विधिमार्गप्रपा में अंग, उपांग ग्रन्थों का पारस्परिक सम्बन्ध भी निश्चित किया गया था । मात्र यही नहीं एक मतान्तर का उल्लेख करते हुए उसमें यह भी बताया गया है कि कुछ आचार्य चन्द्रप्रज्ञप्ति एवं सूर्यप्रज्ञप्ति को भगवती का उपांग मानते हैं । जिनप्रभ ने इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम वाचनाविधि के प्रारम्भ में अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद और मूल इन वर्गों का उल्लेख किया है । उन्होंने विधिमार्गप्रपा को ई. सन् १३०६ में पूर्ण किया था, अतः यह माना जा सकता है कि इसके आस-पास ही आगमों का वर्तमान वर्गीकरण प्रचलन में आया होगा । आगमों के वर्गीकरण की प्राचीन शैली अर्धमागधी आगम साहित्य के वर्गीकरण की प्राचीन शैली इससे भिन्न रही है । इस प्राचीन शैली का सर्वप्रथम निर्देश हमें नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र ( ईस्वी सन् पाँचवी शती) में मिलता है। उस युग में आगमों को अंगप्रविष्ट व अंगबाय- इन भागों में विभक्त किया जाता था । अंगप्रविष्ट के अन्तर्गत आचारांग आदि १२ अंग ग्रन्थ आते थे । शेष ग्रन्थ अंगबाह्य कहे जाते थे । उसमें १. २. " एवं कप्पतिप्पाइविहिपुरस्सरं साहू समाणियसयलजोगविही मूलग्गंथ- नंदि - अणुओगदार- उत्तरज्झयणइसिभासिय- अंग- उपांग-पइन्नय-छेयग्गंथ-आगमे वाइज्जा" - विधिमार्गप्रपा ॥ “अण्णे पुण चंदपण्णत्तिं सूरपण्णत्तिं च भगवईउवंगे भणति । तेसिं मएण उवासगदसाईण पंचण्हमंगाणंमुवंगं निरयावलियासुयवरवंधो ।” ओ.रा.जी.पण्णवणा.सू.जं.चं.नि.क.क.पुप्फ. वहिदसा । आयाराइउवंगा नायव्वा आणुपुव्वीए ॥ उवंगविही।”विधिमार्गप्रपा ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श अंगबाह्यों की एक संज्ञा प्रकीर्णक भी थी। अंगप्रज्ञप्ति नामक दिगम्बर ग्रन्थ में भी अंगबाह्यों को प्रकीर्णक कहा गया है । अंगबाह्य को पुन:दो भागों में बाँटा जाता था १.आवश्यक और २.आवश्यक-व्यतिरिक्त । आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक आदि छ:ग्रन्थ थे । ज्ञातव्य हैं कि वर्तमान वर्गीकरण में आवश्यक को एक ही ग्रन्थ माना जाता है और सामायिक आदि ६ आवश्यक अंगों को उसके एक-एक अध्याय रूप में जाता हैं, किन्तु प्राचीनकाल में इन्हें छह स्वतन्त्र ग्रन्थ माना जाता था । इसकी पुष्टि अंगपण्णत्ति आदि दिगम्बर ग्रन्थों से भी हो जाती हैं। उनमें भी सामायिक आदि को छह स्वतन्त्र ग्रन्थ माना गया है । यद्यपि उसमें कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान के स्थानपर वैनयिक एवं कृतिकर्म नाम मिलते हैं। आवश्यक-व्यतिरिक्त के भी दो भाग किये जाते थे- १.कालिक और २.उत्कालिक । जिनका स्वाध्याय विकाल को छोड़कर किया जाता था, वे कालिक कहलाते थे, जबकि उत्कालिक ग्रन्थों के अध्ययन या स्वाध्याय में काल एवं विकाल का विचार नहीं किया जाता था । नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र की आगमों के वर्गीकरण की यह सूची निम्नानुसार है श्रुत (आगम) (क) अंगप्रविष्ट (ख) अंगबाह्य १.आचारांग २.सूत्रकृतांग (क) आवश्यक (ख) आवश्यकव्यतिरिक्त ३.स्थानांग १.सामायिक ४.समवायांग . २.चतुर्विंशतिस्तव ५.व्याख्याप्रज्ञप्ति ३.वन्दना ६.ज्ञाताधर्मकथा ४.प्रतिक्रमण ७.उपासकदशांग ५.कायोत्सर्ग ८.अन्तकृत्दशांग ६.प्रत्याख्यान ९.अनुत्तरौपपातिकदशांग १०.प्रश्नव्याकरण ११.विपाकसूत्र १२.दृष्टिवाद (क) कालिक १.उत्तराध्ययन ३.कल्प ५.निशीथ २.दशाश्रुतस्कन्ध ४.व्यवहार ६.महानिशीथ (ख) उत्कालिक १.दशवैकालिक २.कल्पिकाकल्पिक ३.चुल्लकल्पश्रुत ४.महाकल्पश्रुत ५.औपपातिक ६.राजप्रश्नीय Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श ७.ऋषिभाषित ८.जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ७.जीवाभिगम ८.प्रज्ञापना ९.द्वीपसागरप्रज्ञप्ति १०.चन्द्रप्रज्ञप्ति ९.महाप्रज्ञापना १०.प्रमादाप्रमाद ११.क्षुल्लिकाविमान- १२.महल्लिकाविमान- ११.नन्दी १२.अनुयोगद्वार प्रविभक्ति प्रविभक्ति १३.देवेन्द्रस्तव १४.तन्दुलवैचारिक १३.अंगचूलिका १४.वग्गचूलिका १५.चन्द्रवेध्यक १६.सूर्यप्रज्ञप्ति १५.विवाहचूलिका १६.अरुणोपपात १७.पौरुषीमंडल १८.मण्डलप्रवेश १७.वरुणोपपात १८.गरुडोपपात १९.विद्याचरणविनिश्चय २०.गणिविद्या १९.धरणोपपात २०.वैश्रमणोपपात २१.ध्यानविभक्ति २२.मरणविभक्ति २१.वेलन्धरोपपात २२.देवेन्द्रोपपात २३.आत्मविशोधि २४.वीतरागश्रुत २३.उत्थानश्रुत २४.समुत्थानश्रुत २५.संलेखणाश्रुत २६.विहारकल्प २५.नागपरिज्ञापनिका २६.निरयावलिका २७.चरणविधि २८.आतुरप्रत्याख्यान २७.कल्पिका २८.कल्पावतंसिका २९.महाप्रत्याख्यान २९.पुष्पिता ३०.पुष्पचूलिका ३१.वृष्णिदशा इस प्रकार नन्दीसूत्र में १२ अंग, ६ आवश्यक, ३१ कालिक एवं २९ उत्कालिक सहित ७८ आगमों का उल्लेख मिलता है । ज्ञातव्य है कि आज इनमें से अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। यापनीय और दिगम्बर परम्परा में आगमों का वर्गीकरण : यापनीय और दिगम्बर परम्पराओं में जैन आगम साहित्य के वर्गीकरण की जो शैली मान्य रही है, वह भी बहुत कुछ नन्दीसूत्र की शैली के ही अनुरूप है । उन्होनें उसे उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र से ग्रहण किया है। उसमें आगमों को अंग और अंगबाह्य ऐसे दो वर्गों में विभाजित किया गया है। इनमें अंगो की बारह संख्या का स्पष्ट उल्लेख तो मिलता हैं, किन्तु अंगबाह्य की संख्या का स्पष्ट निर्देश नहीं हैं । मात्र यह कहा गया है अंगबाह्य अनेक प्रकार के हैं। किन्तु अपने तत्त्वार्थभाष्य (१/२०) में आचार्य उमास्वाति ने अंग-बाह्य के अन्तर्गत सर्वप्रथम सामायिक आदि छह आवश्यकों का उल्लेख किया हैं उसके बाद दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा, कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित के नाम देकर अन्त में आदि शब्द से अन्य ग्रन्थों का ग्रहण किया हैं। किन्तु अंगबाह्य में स्पष्ट नाम तो उन्होंने केवल बारह ही दिये हैं। इसमें कल्प-व्यवहार का एकीकरण किया गया है । एक अन्य सूचना से यह भी ज्ञात होता हैं कि तत्त्वार्थभाष्य में उपांग संज्ञा का निर्देश है। हो सकता है कि पहले १२ अंगो के समान यही १२ उपांग माने जाते हों । तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्दी आदि दिगम्बर आचार्यों ने अंगबाह्य में न केवल उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है, अपितु कालिक एवं उत्कालिक ऐसे वर्गों का भी नाम निर्देश (१/२०) किया हैं । हरिवंशपुराण एवं धवलाटीका में आगमों का जो वर्गीकरण उपलब्ध Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श होता है उसमें १२ अंगों एवं १४ अंगबाह्यों का उल्लेख है। उसमें भी अंगबाह्यों में सर्वप्रथम छह आवश्यकों का उल्लेख है, तत्पश्चात् दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प-व्यवहार, कप्पाकप्पीय, महाकप्पीय, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निशीथ का उल्लेख हैं। इस प्रकार धवला में १२ अंग और १४ अंगबाह्यों की गणना की गयी । इसमें भी कल्प और व्यवहार को एक ही ग्रन्थ माना गया है । ज्ञातव्य है कि तत्त्वार्थभाष्य की अपेक्षा इसमें कप्पाकप्पीय (कल्पिकाकल्पिक), महाकप्पीय (महाकल्प), पुण्डरीक और महापुण्डरीक- ये चार नाम अधिक हैं। किन्तु भाष्य में उल्लिखित दशा और ऋषिभाषित को छोड़ दिया गया है । इसमें जो चार नाम अधिक है- उनमें कप्पाकप्पीय और महाकप्पीय का उल्लेख नन्दीसूत्र में भी है, मात्र पुण्डरीक और महापुण्डरीक ये दो नाम विशेष हैं। . दिगम्बर परम्परा में आचार्य शुभचन्द्र कृत अंगप्रज्ञप्ति (अंगपण्णत्ति) नामक एक ग्रन्थ मिलता है। यह ग्रन्थ धवलाटीका के पश्चात् का प्रतीत होता है। इसमें धवलाटीका में वर्णित १२ अंगप्रविष्ट व १४ अंगबाह्य ग्रन्थों की विषय-वस्तु का विवरण दिया गया है । यद्यपि इसमें अंगबाह्य ग्रन्थों की विषय-वस्तु का विवरण संक्षिप्त ही है । इस ग्रन्थ में और दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थों में अंग बाह्यों को प्रकीर्णक भी कहा गया है (३.१०) । इसमें कहा गया है कि सामायिक प्रमुख १४ प्रकीर्णक अंगबाह्य हैं। इसमें दिये गये विषय-वस्तु के विवरण से लगता है कि यह विवरण मात्र अनुश्रुति के आधार पर लिखा गया है, मूल ग्रन्थों को लेखक ने नहीं देखा है, इसमें भी पुण्डरीक और महापुण्डरीक का उल्लेख है। इन दोनों ग्रन्थों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में मुझे कहीं नही मिला । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा के सूत्रकृतांग में एक अध्ययन का नाम पुण्डरीक अवश्य मिलता है । प्रकीर्णकों में एक सारावली प्रकीर्णक है । इसमें पुण्डरीक महातीर्थ (शत्रुजय) की महत्ता का विस्तृत विवरण है । सम्भव है कि पुण्डरीक सारावली प्रकीर्णक का ही यह दूसरा नाम हो। फिर भी स्पष्ट प्रमाण के अभाव में इस सम्बन्ध में अधिक कुछ कहना उचित नहीं होगा । इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रथम शती से लेकर दसवीं शती तक आगमों को नन्दीसूत्र की शैली में अंग और अंगबाह्य- पुन: अंग बायों को आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त ऐसे दो विभागों में बाँटा जाता था । आवश्यक-व्यतिरिक्त में भी कालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभाग सर्वमान्य थे । लगभग ग्यारहवीं -बारहवीं शती के बाद से अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र यह वर्तमान वर्गीकरण अस्तित्व में आया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में सभी अंगबाह्य आगमों के लिए प्रकीर्णक (पइण्णय) नाम भी प्रचलित रहा है। अर्धमागधी आगम साहित्य की प्राचीनता एवं उनका रचनाकाल : __ भारत जैसे विशाल देश में अतिप्राचीनकाल से ही अनेक बोलियों का अस्तित्व रहा है, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से भारत में तीन प्राचीन भाषाएँ प्रचलित रही हैं- संस्कृत, प्राकृत और पालि। इनमें संस्कृत के दो रूप पाये जाते हैं- छान्दस और साहित्यिक संस्कृत । वेद छान्दस संस्कृत में है, जो पालि और प्राकृत के निकट है । उपनिषदों की भाषा छान्दस की अपेक्षा साहित्यिक संस्कृत Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श के अधिक निकट है । प्राकृत भाषा में निबद्ध जो साहित्य उपलब्ध है, उसमें अर्धमागधी आगम साहित्य प्राचीनतम है। यहाँ तक कि आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध और ऋषिभाषित तो अशोककालीन प्राकृत अभिलेखों से भी प्राचीन है । ये दोनों ग्रन्थ लगभग ई.पू.पाँचवीं-चौथी शताब्दी की रचनाएँ हैं । आचारांग की सूत्रात्मक औपनिषदिक शैली उसे उपनिषदों का निकटवर्ती और स्वयं भगवान महावीर की वाणी सिद्ध करती है । भाव, भाषा और शैली तीनों के आधार पर यह सम्पूर्ण पालि और प्राकत साहित्य में प्राचीनतम है। आत्मा के स्वरूप एवं अस्तित्व सम्बन्धी इसके विवरण औपनिषदिक विवरणों के अनुरूप हैं। इसमें प्रतिपादित महावीर का जीवनवृत्त भी अलौकिकता और अतिशयता रहित है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह विवरण भी उसी व्यक्ति द्वारा कहा गया है, जिसने स्वयं उनकी जीवनचर्या को निकटता से देखा और जाना होगा । अर्धमागधी आगम साहित्य में ही सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के छठे अध्याय, आचारांगचूला और कल्पसूत्र में भी महावीर की जीवनचर्या का उल्लेख है, किन्तु वे भी अपेक्षाकृत रूप में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा परवर्ती हैं, क्योंकि उनमें क्रमश: अलौकिकता, अतिशयता और अतिरंजना का प्रवेश होता गया है। इसी प्रकार ऋषिभाषित की साम्प्रदायिक अभिनिवेश से रहित उदारदृष्टि तथा भाव और भाषागत अनेक तथ्य उसे आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर सम्पूर्ण प्राकृत एवं पालिसाहित्य में प्राचीनतम सिद्ध करते हैं । पालिसाहित्य में प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात माना जाता है, किन्तु अनेक तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध हो चूका है कि ऋषिभाषित, सुत्तनिपात से भी प्राचीन है। अर्धमागधी आगमों की प्रथम वाचना स्थूलिभद्र के समय अर्थात् ईसा पूर्व तीसरी शती में हुई थी, . इतना निश्चित है कि उस समय तक अर्धमागधी आगम साहित्य अस्तित्व में आ चुका था। इस प्रकार अर्धमागधी आगम साहित्य के कुछ ग्रन्थों के रचनाकाल की उत्तर सीमा ई.पू.पाँचवीचौथी शताब्दी सिद्ध होती है, जो कि इस साहित्य की प्राचीनता को प्रमाणित करती है । फिर भी हमें यह स्मरण रखना होगा कि सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम साहित्य न तो एक व्यक्ति की रचना है और न एक काल की । यह सत्य है कि इस साहित्य को अन्तिम रूप वीरनिर्वाण सम्वत् ९८० में वल्लभी में सम्पन्न हुई वाचना में प्राप्त हुआ ।किन्तु इस आधार पर हमारे कुछ विद्वान मित्र यह गलत निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि अर्धमागधी आगम साहित्य ईस्वी सन् की पाँचवी शताब्दी की रचना है । यदि अर्धमागधी आगम ईसा की पाँचवी शती की रचना है, तो वल्लभी की इस अन्तिम वाचना के पूर्व भी वल्लभी, मथुरा, खण्डगिरि और पाटलीपुत्र में जो वाचनायें हुई थीं उनमें संकलित साहित्य कौन सा था ? उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि वलभी में आगमों को संकलित, सुव्यवस्थित और सम्पादित करके लिपिबद्ध (पुस्तकारुढ़) किया गया था, अत: यह किसी भी स्थिति में उनका रचना काल नहीं माना जा सकता है । संकलन और सम्पादन का अर्थ रचना नहीं है । पुन: आगमों में विषय-वस्तु भाषा और शैली की जो विविधता और भिन्नता परिलक्षित होती है, वह स्पष्टतया इस तथ्य की प्रमाण है कि संकलन और सम्पादन के समय उनकी मौलिकता को यथावत् रखने का प्रयत्न किया गया है, अन्यथा आज उनका प्राचीन स्वरूप समाप्त Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श ही हो जाता और आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा और शैली भी परिवर्तित हो जाती तथा उसके उपधानश्रुत नामक नवें अध्ययन में वर्णित महावीर का जीवनवृत्त अलौकिकता एवं अतिशयों से युक्त बन जाता । यद्यपि यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु में कुछ प्रक्षिप्त अंश है, किन्तु प्रथम तो ऐसे प्रक्षेप बहुत ही कम हैं और दूसरे उन्हें स्पष्ट रूप से पहचाना भी जा सकता है । अत: इस आधार पर सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम साहित्य को परवर्ती मान लेना सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी। ___ अर्धमागधी आगम साहित्य पर कभी-कभी महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर भी उसकी प्राचीनता पर संदेह किया जाता है । किन्तु प्राचीन हस्तप्रतों के आधार पर पाठों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनेक प्राचीन हस्तप्रतों में आज भी उनका 'त' श्रुतिप्रधान अर्धमागधी स्वरूप सुरक्षित है । आचारांग के प्रकाशित संस्करणों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि परवर्तीकाल में उसमें कितने पाठान्तर हो गये है। इस साहित्य पर जो महाराष्ट्री प्रभाव आ गया है वह लिपिकारों और टीकाकारों की अपनी भाषा के प्रभाव के कारण है। उदाहरण के रूप में सूत्रकृतांग का 'रामपुत्ते' पाठ चूर्णि में 'रामउत्ते' और शीलांक की टीका में 'रामगुत्ते' हो गया । अत: अर्धमागधी आगमों में, महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर उनकी प्राचीनता पर संदेह नहीं करना चाहिये । अपितु उन ग्रन्थों की विभिन्न प्रतों एवं नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं के आधार पर पाठों के प्राचीन स्वरूपों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करना चाहिये । वस्तुत: अर्धमागधी आगम साहित्य में विभिन्न काल की सामग्री सुरक्षित है । इसकी उत्तर सीमा ई.पू. पाँचवी-चौथी शताब्दी और निम्न सीमा ई.सन् की पाँचवी शताब्दी है । वस्तुत: अर्धमागधी आगम साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों का या उनके किसी अंश विशेष का काल निर्धारित करते समय उनमें उपलब्ध सांस्कृतिक सामग्री, दार्शनिक चिन्तन की स्पष्टता एवं गहनता तथा भाषा-शैली आदि सभी पक्षों पर प्रामाणिकता के साथ विचार करना चाहिए । इस दृष्टि से अध्ययन करने पर ही यह स्पष्ट बोध हो सकेगा कि अर्धमागधी आगम साहित्य का कौन सा ग्रन्थ अथवा उसका कौन सा अंश विशेष किस काल की रचना है । अर्धमागधी आगमों की विषय-वस्तु सम्बन्धी निर्देश श्वेताम्बर परम्परा में हमें स्थानांग, समवायांग, नन्दीसूत्र, नन्दीचूर्णी एवं तत्त्वार्थभाष्य में तथा दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ की टीकाओं के साथ-साथ धवला और जयधवला में मिलते है । तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर परम्परा की टीकाओं और धवलादि में उनकी विषय-वस्तु सम्बन्धी निर्देश मात्र अनुश्रुतिपरक है, वे ग्रन्थों के वास्तविक अध्ययन पर आधारित नहीं हैं। उनमें दिया गया विवरण तत्त्वार्थभाष्य एवं परम्परा से प्राप्त सूचनाओं पर आधारित है । जबकि श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांग, समवायांग, नन्दी आदि अर्धमागधी आगमों और उनकी व्याख्याओं एवं टीकाओं में उनकी विषय-वस्तु का जो विवरण है वह उन ग्रन्थों के अवलोकन पर आधारित है क्योंकि प्रथम तो इस परम्परा में आगमों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा आज तक जीवित चली आ रही है। दूसरे आगम ग्रन्थों की विषय-वस्तु में कालक्रम में क्या परिवर्तन हुआ है, इसकी सूचना श्वेताम्बर Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श परम्परा के उपर्युक्त आगम ग्रन्थों से ही प्राप्त हो जाती है। इनके अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किस काल में किस आगम ग्रन्थ में कौन सी सामग्री जुड़ी और अलग हुई है । आचारांग में आचारचूला और निशीथ के जुड़ने और पुन: निशीथ के अलग होने की घटना, समवायांग और स्थानांग में समय-समय पर हुए प्रक्षेप, ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय वर्ग में जुड़े हुए अध्याय, प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु में हुआ सम्पूर्ण परिवर्तन, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक एवं विपाक के अध्ययनों में हुए आंशिक परिवर्तन-इन सबकी प्रामाणिक जानकारी हमें उन विवरणों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन करने से मिल जाती है । इनमें प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु का परिवर्तन ही ऐसा है, जिसके वर्तमान स्वरूप की सूचना केवल नन्दीचूर्णि (ईस्वी सन् सातवीं शती) में मिलती है । वर्तमान प्रश्नव्याकरण लगभग ईस्वी सन् की पाँचवी-छठी शताब्दी में अस्तित्व में आया है । इस प्रकार अर्धमागधी आगम साहित्य लगभग एक सहस्र वर्ष की सुदीर्घ अवधि में किस प्रकार निर्मित, परिवर्धित, परिवर्तित एवं सम्पादित होता रहा है इसकी सूचना भी स्वयं अर्धमागधी आगम साहित्य और उसकी टीकाओं से मिल जाती है। वस्तुत: अर्धमागधी आगम विशेष या उसके अंश विशेष के रचनाकाल का निर्धारण एक जटिल समस्या है, इस सम्बन्ध में विषय-वस्तु सम्बन्धी विवरण, विचारों का विकासक्रम, भाषाशैली आदि अनेक दृष्टियों से निर्णय करना होता है । उदाहरण के रूप में स्थानांग में सात निह्नवों और नौ गणों का उल्लेख मिलता है जो कि वीरनिर्वाण सं.५८४ तक अस्तित्व में आ चुके थे। किन्तु उसमें बोटिकों एवं उन परवर्ती गणों, कुलों और शाखाओं के उल्लेख नहीं है, जो वीरनिर्वाण सं.६०९ अथवा उसके बाद अस्तित्व में आये, अत: विषय-वस्तु की दृष्टि से स्थानांग के रचनाकाल की अन्तिम सीमा वीरनिर्वाण सम्वत् ६०९ के पूर्व अर्थात् ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध या द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होती है । इसी प्रकार आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की विषयवस्तु एवं भाषा-शैली आचारांग के रचनाकाल को अर्धमागधी आगम साहित्य में सबसे प्राचीन सिद्ध करती है । अर्धमागधी आगम के काल-निर्धारण में इन सभी पक्षों पर विचार अपेक्षित है। इस प्रकार न तो हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों की यह दृष्टि समुचित है कि अर्धमागधी आगम देवर्द्धिगणि की वाचना के समय अर्थात् ईसा की पाँचवीं शताब्दी में अस्तित्व में आये और न कुछ श्वेताम्बर आचार्यों का यह कहना ही समुचित है कि सभी अंग आगम अपने वर्तमान स्वरूप में गणधरों की रचना है और उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन, परिवर्धन, प्रक्षेप या विलोप नहीं हुआ है। किन्तु इतना निश्चित है कि कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर अर्धमागधी आगम साहित्य शौरसेनी आगम साहित्य से प्राचीन है । शौरसेनी आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ कसायपाहुडसुत्त भी ईस्वी सन् की तीसरी-चौथी शताब्दी से प्राचीन नहीं है । उसके पश्चात् षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवतीआराधना, तिलोयपण्णत्ति, पिण्डछेदशास्त्र, आवश्यक (प्रतिकमणसूत्र) आदि का क्रम आता है, किन्तु ये सभी ग्रन्थ पाँचवी शती के पश्चात् के हैं। दिगम्बर आवश्यक (प्रतिक्रमण) एवं पिण्डछेदशास्त्र का आधार भी क्रमश: श्वेताम्बर मान्य आवश्यक और कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि छेदसूत्र ही Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श रहे है। उनके प्रतिक्रमण सूत्र में भी वर्तमान सूत्रकृतांग के तेईस एवं ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययनों का विवरण है तथा पिण्डछेदशास्त्र में जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त देने का निर्देश है ये यही सिद्ध करते हैं कि प्राकृत आगम साहित्य में अर्धमागधी आगम ही प्राचीनतम है, चाहे उनकी अन्तिम वाचना पाँचवीं शती के उत्तरार्ध (ई.सन् ४५३) में ही सम्पन्न क्यों न हुई हो ? इस प्रकार जहाँ तक आगमों के रचनाकाल का प्रश्न है उसे ई.पू.पाँचवीं शताब्दी से ईसा की पाँचवी शताब्दी तक लगभग एक हजार की सुदीर्घ अवधि में व्यापक माना जा सकता है, क्योंकि उपलब्ध आगमों में सभी एक काल की रचना नहीं है । आगमों के सन्दर्भ में और विशेष रूप से आगमों के सम्बन्ध में परम्परागत मान्यता तो यही है कि वे गणधरों द्वारा रचित होने के कारण ई.पू.पाँचवी शताब्दी की रचना है । किन्तु दूसरी ओर कुछ विद्वान उन्हे वल्लभी में संकलित एवं सम्पादित किये जाने के कारण ईसा की पाँचवी शती की रचना मान लेते हैं । मेरी दृष्टि में ये दोनों ही मत समीचीन नहीं हैं। देवर्धि के संकलन, सम्पादन एवं ताडपत्रों पर लेखन काल को उनका रचना काल नहीं माना जा सकता । अंग आगम तो प्राचीन ही है । ईसा पूर्व चौथी शती में पाटलीपुत्र की वाचना में जिन द्वादश अंगो की वाचना हुई थी, वे निश्चित रूप से उसके पूर्व ही बने होंगे । यह सत्य है कि आगमों में देवर्धि की वाचना के समय अथवा उसके बाद भी कुछ प्रक्षेप हुए हों, किन्तु उन प्रक्षेपों के आधार पर सभी अंग आगमों का रचनाकाल ई.सन् की पाँचवी शताब्दी नहीं माना जा सकता। डॉ.हर्मन याकोबी ने यह निश्चित किया है कि आगमों का प्राचीन अंश ई.पू.चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर ई.पू. तीसरी शतीब्दी के पूर्वार्द्ध के बीच का है। न केवल अंग आगम अपितु दशाश्रुतरकन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार भी, जिन्हें आचार्य भद्रबाहु की रचना माना जाता है याकोबी और शुब्रिग के अनुसार ई.पू.चतुर्थ शती के उत्तरार्द्ध से ई.पू. तीसरी शती के पूर्वार्द्ध में निर्मित हैं । आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध अपनी भाषा-शैली, विषय-वस्तु, छंदयोजना आदि की दृष्टि से महावीर की वाणी के सर्वाधिक निकट प्रतीत होता है । उसकी औपनिषदिक शैली भी यही बताती है कि वह एक प्राचीन ग्रन्थ है । उसका काल किसी भी स्थिति में ई.पू. चतुर्थ शती के बाद का नहीं हो सकता । उसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रूप में जो “आयारचूला" जोड़ी गयी है, वह भी ई.पू.दूसरी या प्रथम शती से परवर्ती नहीं है । सूत्रकृतांग भी एक प्राचीन आगम है उसकी भाषा, छन्दयोजना एवं उसमें विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं के तथा ऋषियों के जो उल्लेख मिले हैं उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि वह भी ई.पू. चौथी-तीसरी शती से बाद का नहीं हो सकता, क्योंकि उसके बाद विकसित दार्शनिक मान्यताओं का उसमें कहीं कोई उल्लेख नहीं है। उसमें उपलब्ध वीरस्तुति में भी अतिरंजनाओं का प्राय: अभाव ही है । अंग आगमों में तीसरा क्रम स्थानांग का आता है । स्थानांग, बौद्ध आगम अंगुत्तरनिकाय की शैली का ग्रन्थ है । ग्रन्थ लेखन की यह शैली भी प्राचीन रही है। स्थानांग में नौ गणों और सात निह्नवों के उल्लेख को छोड़कर अन्य ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे उसे परवर्ती कहा जा सके । हो सकता है कि जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श से महत्त्वपूर्ण होने के कारण ये उल्लेख उसमें अन्तिम वाचना के समय प्रक्षिप्त किये गये हों । उसमें जो दस दशाओं और उनमें प्रत्येक के अध्यायों के नामों का उल्लेख है, वह भी उन आगमों की प्राचीन विषय-वस्तु का निर्देश करता है। यदि वह वल्लभी के वाचनाकाल में निर्मित हुआ होता तो उसमें दस दशाओं की जो विषय-वस्तु वर्णित है वह भिन्न होती । अत: उसकी प्राचीनता में सन्देह नहीं किया जा सकता | समवायांग, स्थानांग की अपेक्षा एक परवर्ती ग्रन्थ है । इसके प्रारम्भ में द्वादश अंगों का स्पष्ट उल्लेख है । साथ ही इसमें उत्तराध्ययन के ३६, ऋषिभाषित के ४४, सूत्रकृतांग के २३, सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६, आचारांग के चूलिका सहित २५ अध्ययन, दशा, कल्प और व्यवहार के २६ अध्ययन आदि का उल्लेख होने से इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ इसमें निर्दिष्ट आगमों के स्वरूप के निर्धारित होने के पश्चात् ही बना होगा । पुनः इसमें चतुर्दश गुणस्थानों का जीवस्थान के रूप में स्पष्ट उल्लेख मिलता है । यह निश्चित है कि गुणस्थान का यह सिद्धान्त उमास्वाति के पश्चात् अर्थात् ईसा की चतुर्थ शती के बाद ही अस्तित्व में आया है। यदि इसमें जीवठाण के रूप में चौदह गुणस्थानों के उल्लेख को बाद में प्रक्षिप्त भी मान लिया जाय तो भी अपनी भाषा-शैली और विषय-वस्तु की दृष्टि से इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की ३-४ शती से पहले का नहीं है । हो सकता है उसके कुछ अंश प्राचीन हों, लेकिन आज उन्हें खोज पाना अति कठिन कार्य है । जहाँ तक भगवतीसूत्र का प्रश्न है, विद्वानों के अनुसार इसके अनेक स्तर हैं । इसमें कुछ स्तर अवश्य ही ई.पू. के हैं, किन्तु समवायांग की भाँति भगवती में भी पर्याप्त प्रक्षेप हुआ है । भगवतीसूत्र में अनेक स्थलों पर जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, नन्दी आदि परवर्ती आगमों का निर्देश हुआ है। इनके उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि इसके सम्पादन के समय इसमें ये और इसी प्रकार की अन्य सूचनायें दे दी गयी हैं। इससे यह प्रतिफलित होता है कि वल्लभी वाचना में इसमें पर्याप्त रूप से परिवर्धन और संशोधन अवश्य हुआ है, फिर भी इसके कुछ शतकों की प्राचीनता निर्विवाद है । कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान इसके प्राचीन एवं परवर्ती स्तरों के पृथक्करण का कार्य कर रहे हैं। उनके निष्कर्ष प्राप्त होने पर ही इसका रचनाकाल निश्चित किया जा सकता है। उपासकदशा आगम साहित्य में श्रावकाचार का वर्णन करने वाला प्रथम ग्रन्थ है । स्थानांगसूत्र में उल्लिखित इसके दस अध्ययनों और उनकी विषय-वस्तु में किसी प्रकार के परिवर्तन होने के संकेत नहीं मिलते हैं। अत: मै समझता हूँ कि यह ग्रन्थ भी अपने वर्तमान स्वरूप में ई.पू.की ही रचना है और इसके किसी भी अध्ययन का विलोप नहीं हुआ है । श्रावकव्रतों के अणुव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में वर्गीकृत करने के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्टतः इसका अनुसरण देखा जाता है अत: यह तत्त्वार्थ से अर्थात् ईसा की तीसरी शती से परवर्ती नहीं हो सकता हैं। ज्ञातव्य है कि अनुत्तरौपपातिक में उपलब्ध वर्गीकरण परवर्ती है, क्योकि उसमें गुणव्रत की अवधारणा आ गयी है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श अंग आगम साहित्य में अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु का उल्लेख हमें स्थानांगसूत्र में मिलता है। उसमें इसके निम्न दस अध्याय उल्लिखित हैं- नमि, मातंग, सोमिल, रामपुत्त, सुदर्शन, जमालि, भगालि, किंकिम, पल्लतेतिय, फाल अम्बडपुत्र । इनमें से सुदर्शन सम्बन्धी कुछ अंश को छोड़कर वर्तमान अन्तकृद्दशासूत्र में ये कोई भी अध्ययन नहीं मिलते हैं। किन्तु समवायांग और नन्दीसूत्र में क्रमश: इसके सात और आठ वर्गों के उल्लेख मिलते हैं । इससे यह प्रतिफलित होता है कि स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा का प्राचीन अंश विलुप्त हो गया है। यद्यपि समवायांग और नन्दी में क्रमश: इसके सात एवं आठ वर्गों का उल्लेख होने से इतना तय है कि वर्तमान अन्तकृद्दशा समवायांग और नन्दी की रचना के समय अस्तित्व में आ गया था । अत: इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की चौथी-पाँचवी शती का है । उसके प्राचीन दस अध्यायों के जो उल्लेख हमें स्थानांग में मिलते हैं उन्हीं दस अध्ययनों के उल्लेख दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा के ग्रन्थों यथा अकलंक के राजवार्तिक, धवला, अंगप्रज्ञप्ति आदि में भी मिलते हैं । इससे यह फलित होता है कि इस अंग आगम के प्राचीन स्वरूप के विलुप्त हो जाने के पश्चात् भी माथुरी वाचना की अनुश्रुति से स्थानांग में उल्लिखित इसके दस अध्यायों की चर्चा होती रही है । हो सकता है कि इसकी माथुरी वाचना में ये दस अध्ययन रहे होंगे । ____ बहुत कुछ यही स्थिति अनुत्तरौपपातिकदशा की है । स्थानांगसूत्र की सूचना के अनुसार इसमें निम्न दस अध्ययन कहे गये हैं- १.ऋषिदास, २.धन्य, ३.सुनक्षत्र, ४.कार्तिक, ५.संस्थान, ६.शालिभद्र, ७.आनन्द, ८.तेतली, ९.दशार्णभद्र, १०.अतिमुक्त । उपलब्ध अनुत्तरौपपातिकदशा में तीन वर्ग हैं उसमें द्वितीय वर्ग में ऋषिदास, धन्य और सुनक्षत्र ऐसे तीन अध्ययन मिलते हैं इनमें भी धन्य का अध्ययन ही विस्तृत है । सुनक्षत्र और ऋषिदास के विवरण अत्यन्त संक्षेप में ही है । स्थानांग में उल्लिखित शेष सात अध्याय वर्तमान अनुत्तरौपपातिसूत्र में उपलब्ध नहीं होते । इससे यह प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ वल्लभी वाचना के समय ही अपने वर्तमान स्वरूप में आया होगा । ___ जहाँ तक प्रश्नव्याकरणदशा का प्रश्न है इतना निश्चित है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु न केवल स्थानांग में उल्लिखित उसकी विषय-वस्तु से भिन्न है, अपितु नन्दी और समवायांग की उल्लिखित विषय-वस्तु से भी भिन्न है । प्रश्नव्याकरण की वर्तमान आस्रव और संवर द्वार वाली विषय-वस्तु का सर्वप्रथम निर्देश नन्दीचूर्णि में मिलता है। इससे यह फलित होता है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरणसूत्र नन्दी के पश्चात् ई.सन्. की पाँचवी-छठवीं शती के मध्य ही कभी निर्मित हुआ है । इतना तो निश्चित है कि नन्दी के रचयिता देववाचक के सामने यह ग्रन्थ अपने वर्तमान स्वरूप में नहीं था । किन्तु ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृद्दशा और अनुत्तरौपपातिकदशा में जो परिवर्तन हुए थे, वे नन्दीसूत्रकार के पूर्व हो चुके थे क्योंकि वे उनके इस परिवर्तित स्वरूप का विवरण देते हैं । इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैने अपने एक स्वतन्त्र लेख में की है जो 'जैन आगम साहित्य', सम्पादक डॉ.के.आर. चन्द्रा, अहमदाबाद, में प्रकाशित है। इसी प्रकार जब हम उपांग साहित्य की ओर आते हैं तो उसमें रायपसेणियसुत्त में राजा पसेणीय Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श द्वारा आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में जो प्रश्न उठाये गये हैं उनका विवरण हमें पालित्रिपिटक में भी उपलब्ध होता है । इससे यह फलित होता है कि औपपातिक का यह अंश कम से कम पालित्रिपिटक जितना प्राचीन तो है ही । जीवाजीवाभिगम के रचनाकाल को निश्चित रूप से बता पाना तो कठिन है, किन्तु इसकी विषय-वस्तु के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वह ग्रन्थ ई.पू. की रचना होनी चाहिये । उपांग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को तो स्पष्टत: आर्य श्याम की रचना माना जाता है । आर्य श्याम का आचार्यकाल वी.नि.सं. ३३५-३७६ के मध्य माना जाता है । अत: इसका रचनाकाल ई.पू. द्वितीय शताब्दी के लगभग निश्चित होता है । इसी प्रकार उपांग वर्ग के अन्तर्गत वर्णित चन्दप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति- ये तीन प्रज्ञप्तियाँ भी प्राचीन ही है । वर्तमान में चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दिखाई देता है । किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति में ज्योतिष सम्बन्धी जो चर्चा है वह वेदांग ज्योतिष के समान है, इससे इसकी प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है । यह ग्रन्थ किसी भी स्थिति में ई.पू.प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। इन तीनों प्रज्ञप्तियों का दिगम्बर परम्परा में भी दष्टिवाद के एक अंश--परिकर्म के अन्तर्गत माना है । अत: यह ग्रन्थ भी दृष्टिवाद के पूर्ण विच्छेद एवं सम्प्रदाय-भेद के पूर्व का ही होना चाहिये । छेदसूत्रों में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार को स्पष्टत: भद्रबाहु प्रथम की रचना माना गया है अत: इसका काल ई.पू. चतुर्थ-तृतीय शताब्दी के बाद का नहीं हो सकता है । ये सभी ग्रन्थ अचेल परम्परा में भी मान्य रहे हैं, इसी प्रकार निशीय भी अपने मूल रूप में तो आचारांग की ही एक चूला रहा हैं, बाद में उसे पृथक् किया गया है । अत: इसकी प्राचीनता में भी सन्देह नहीं किया जा सकता । याकोबी, शूबिंग आदि पाश्चात्य विद्वानों ने एकमत से छेदसूत्रों की प्राचीनता स्वीकार की है। इस वर्ग में मात्र जीतकल्प ही ऐसा ग्रन्थ हैं जो निश्चित ही परवर्ती है । पं.दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार यह आचार्य जिनभद्र की कृति है । ये जिनभद्र विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता हैं । इनका काल अनेक प्रमाणों से ई.सन्.की सातवीं शती है । अत: जीतकल्प का भी काल वही होना चाहिये । मेरी दृष्टि में पं.दलसुखभाई की यह मान्यता निरापद नहीं हैं, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में इन्द्रनन्दि के छेदपिण्डशास्त्र में जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित्त देने का विधान किया गया है, इससे फलित होता है कि यह ग्रन्थ स्पष्ट रूप से सम्प्रदाय भेद से पूर्व की रचना होनी चाहिये। हो सकता है इसके कर्ता जिनभद्र विशेषावश्यक के कर्ता जिनभद्र से भिन्न हों और उनके पूर्ववर्ती भी हों । किन्तु इतना निश्चित है कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में जो आगमों की सूची मिलती है उसमें जीतकल्प का नाम नहीं है । अत: यह उसके बाद ही रचना होगी । इसका काल भी ई.सन् की पाँचवी शती का उत्तरार्द्ध होना चाहिये । इसकी दिगम्बर और यापनीय परम्परा में मान्यता तभी संभव हो सकती है जब यह स्पष्ट रूप से संघभेद के पूर्व निर्मित हुआ हो । स्पष्ट संघभेद पाँचवी शती के उत्तरार्ध में अस्तित्व में आया है । छेद वर्ग में महानिशीथ का उद्धार आचार्य हरिभद्र ने किया था, यह सुनिश्चित है । आचार्य हरिभद्र का काल ई.सन्. की आठवीं शती माना Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श २१ जाता है । अत: यह ग्रन्थ उसके पूर्व ही निर्मित हुआ होगा । हरिभद्र इसके उद्धारक अवश्य है किन्तु रचयिता नहीं । मात्र इतना माना जा सकता है कि उन्होंने इसके त्रुटित भाग की रचना की हो । इस प्रकार इसका काल भी आठवीं शती से पूर्व का ही है। मूलसूत्रों के वर्ग में दशवैकालिक को आर्य शय्यंभव की कृति माना जाता है। इनका काल महावीर के निर्वाण के ७५ वर्ष बाद है । अत: यह ग्रन्थ ई.पू.पाँचवी-चौथी शताब्दी की रचना है। उत्तराध्ययन यद्यपि एक संकलन है किन्तु इसकी प्राचीनता में कोई शंका नहीं है । इसकी भाषा-शैली तथा विषय-वस्तु के आधार पर विद्वानों ने इसे ई.पू. चौथी-तीसरी शती का ग्रन्थ माना है। मेरी दृष्टि में यह पूर्व प्रश्नव्याकरण का ही एक विभाग था । इसकी अनेक गाथायें तथा कथानक पालित्रिपिटक साहित्य तथा महाभारत आदि में यथावत् मिलते हैं । दशवैकालिक और उत्तराध्ययन यापनीय और दिगम्बर परम्परा में मान्य रहे हैं अत: ये भी संघ भेद या सम्प्रदाय भेद के पूर्व की रचना है । अत: इनकी प्राचीनता में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता । आवश्यक श्रमणों दैनन्दिन क्रियाओं का ग्रन्थ था अत: इसके कुछ प्राचीन पाठ तो भगवान महावीर के समकालिक ही माने जा सकते हैं । चूँकि दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और आवश्यक के सामायिक आदि विभाग दिगम्बर और यापनीय परम्परा में भी मान्य रहे हैं, अत: इनकी प्राचीनता असंदिग्ध है। ___प्रकीर्णक साहित्य में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में है अत: ये सभी नन्दीसूत्र से तो प्राचीन हैं ही, इसमें सन्देह नहीं किया जा सकता । पुन: आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि आदि प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएँ यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवतीआरीधना में पायी जाती हैं, मूलाचार एवं भगवतीआराधना भी छठवीं शती से परवर्ती नहीं है । अत: इन नौ प्रकीर्णकों को तो ई.सन् की चौथी-पाँचवी शती से परवर्ती नहीं माने जा सकता । यद्यपि वीरभद्र द्वारा रचित कुछ प्रकीर्णक नवीं-दसवीं शती की रचनाएँ हैं । इसी प्रकार चूलिकासूत्रों के अन्तर्गत नन्दी और अनुयोगद्वार सूत्रों में भी अनुयोगद्वार को कुछ विद्वानों ने आर्यरक्षित के समय का माना है । अत: वह ई.सन् की प्रथम शती का ग्रन्थ होना चाहिए । नन्दीसूत्र के कर्ता देववाचक देवर्धि से पूर्ववर्ती हैं अत: उनका काल भी पाँचवी शतीब्दी से परवर्ती नहीं हो सकता । इस प्रकार हम देखते हैं कि उपलब्ध आगमों में प्रक्षेपों को छोड़कर अधिकांश ग्रन्थ तो ई.पू. के हैं । यह तो एक सामान्य चर्चा हुई, अभी इन ग्रन्थों में से प्रत्येक के काल-निर्धारण के लिए स्वतन्त्र और सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि से अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई है। आशा है जैन विद्वानों की भावी पीढी इस दिशा में कार्य करेगी। आगमों की वाचनाएँ यह सत्य है कि वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बर मान्य अर्धमागधी आगमों के अन्तिम स्वरूप का निर्धारण वल्लभी वाचना में वि.नि.संवत् ९८० या ९९३ में हुआ किन्तु उसके पूर्व भी आगमों Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श की वाचनाएँ तो होती रही हैं । जो ऐतिहासिक साक्ष्य हमें उपलब्ध हैं उनके अनुसार अर्धमागधी आगमों की पाँच वाचनाएँ होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं । प्रथम वाचना- प्रथम वाचना महावीर के निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् हुई । परम्परागत मान्यता तो यह है कि मध्यदेश में द्वादशवर्षीय भीषण अकाल के कारण कुछ मुनि काल-कवलित हो गये और कुछ समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों की ओर चले गये । अकाल की समाप्ति पर वे मनिगण वापस लौटे तो उन्होंने यह पाया कि उनका आगम-ज्ञान अंशत: विस्मृत एवं विशृंखलित हो गया है और कहीं-कहीं पाठभेद हो गया है । अत: उस युग के प्रमुख आचार्यों ने पाटलीपुत्र में एकत्रित होकर आगमज्ञान को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया । दृष्टिवाद और पूर्व साहित्य का कोई विशिष्ट ज्ञाता वहाँ उपस्थित नहीं था । अत: ग्यारह अंग तो व्यवस्थित किये गये हैं किन्तु दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्निहित साहित्य को व्यवस्थित नहीं किया जा सका, क्योंकि उसके विशिष्ट ज्ञाता भद्रबाहु उस समय नेपाल में थे । संघ की विशेष प्रार्थना पर उन्होंने स्थूलिभद्र आदि कुछ मुनियों को पूर्व साहित्य की वाचना देना स्वीकार किया । स्थूलिभद्र भी उनसे दस पूर्वो तक का ही अध्ययन अर्थ सहित कर सके और शेष चार पूर्वो का मात्र शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर पाये । इस प्रकार पाटलीपुत्र की वाचना में द्वादश अंगों को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया किन्तु उनमें एकादश अंग ही सुव्यवस्थित किये जा सके । दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्गत पूर्व साहित्य को पूर्णत: सुरक्षित नहीं किया जा सका और उसका क्रमश: विलोप होना प्रारम्भ हो गया । फलत: उसकी विषय-वस्तु को लेकर अंगबाह्य ग्रन्थ निर्मित किये जाने लगे । द्वितीय वाचना- आगमों की द्वितीय वाचना ई.पू.द्वितीय में महावीर के निर्वाण के लगभग ३०० वर्ष पश्चात् उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर सम्राट खारवेल के काल में हुई थी । इस वाचना के सन्दर्भ में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है- मात्र यही ज्ञात होता है कि इसमे श्रुत के संरक्षण का प्रयत्न हुआ था । वस्तुत: उस युग में आगमों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा गुरु-शिष्य के माध्यम से मौखिक रूप से ही चलती थी । अत: देशकालगत प्रभावों तथा विस्मृति-दोष के कारण उनमें स्वाभाविक रूप से भिन्नता आ जाती थी । अत: वाचनाओं के माध्यम से उनके भाषायी स्वरूप तथा पाठभेद को सुव्यवस्थित किया जाता था । कालक्रम में जो स्थविरों के द्वारा नवीन ग्रन्थों की रचना होती थी, उस पर भी विचार करके उन्हें इन्हीं वाचनाओं में मान्यता प्रदान की जाती थी । इसी प्रकार परिस्थितिवश आचार-नियमों में एवं उनके आगमिक सन्दर्भो की व्याख्या में जो अन्तर आ जाता था, उसका निराकरण भी इन्हीं वाचनाओं में किया जाता था । खण्डगिरि पर हुई इस द्वितीय वाचना में ऐसे किन विवादों का समाधान खोजा गया था- इनकी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं हैं । तृतीय वाचना आगमों की तृतीय वाचना वि.नि. ८२७ अर्थात् ई.सन् की तीसरी शताब्दी में मथुरा में आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में हुई । इसलिए इसे माथुरी वाचना या स्कन्दिली वाचना के नाम से भी जाना Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श २३ जाता है । माथुरी वाचना के सन्दर्भ में दो प्रकार की मान्यताएँ नन्दीचूर्णि में हैं । प्रथम मान्यता के अनुसार सुकाल होने के पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में शेष रहे मुनियों की स्मृति के आधार पर कालिकसूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया । अन्य कुछ का मन्तव्य यह है कि इस काल सूत्र नष्ट नहीं हुआ था किन्तु अनुयोगधर स्वर्गवासी हो गये थे । अत: एक मात्र जीवित स्कन्दिल ने अनुयोगों का पुन: प्रवर्तन किया । चतर्थ वाचना- चतुर्थ वाचना तृतीय वाचना के समकालीन ही है। जिस समय उत्तर, पूर्व और मध्य क्षेत्र में विचरण करने वाला मुनि मथुरा में एकत्रित हुआ, उसी समय दक्षिण-पश्चिम में विचरण करने वाला मुनि संघ वल्लभी (सौराष्ट्र) में आर्य नागार्जुन के नेतृत्व में एकत्रित हुआ। इसे नागार्जुनीय वाचना भी कहते हैं। ____ आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी वाचना समकालिक हैं । नन्दीसूत्र स्थविरावली में आर्य स्कंदिल और नागार्जुन के मध्य आर्य हिमवंत का उल्लेख है । इससे यह फलित होता है कि आर्य स्कंदिल और नागार्जुन समकालिक ही रहे होंगे । नन्दीसूत्र स्थविरावली में आर्य स्कंदिल के सन्दर्भ में यह कहा गया कि उनका अनुयोग आज भी दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में प्रचलित है । इसका एक तात्पर्य यह भी हो सकता है कि उनके द्वारा सम्पादित आगम दक्षिण भारत में प्रचलित थे । ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि उत्तर भारत के निग्रन्थ संघ के विभाजन के फलस्वरूप जिस यापनीय सम्प्रदाय का विकास हुआ था उसमें आर्य स्कंदिल के द्वारा सम्पादित आगम ही मान्य किये जाते थे और इस यपनीय सम्प्रदाय का प्रभाव क्षेत्र मध्य और दक्षिण भारत था। आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने तो स्त्री-निर्वाण प्रकरण में स्पष्ट रूप से मथुरागम का उल्लेख किया है । अत: यह स्पष्ट है कि यापनीय सम्प्रदाय जिन आगमों को मान्य करता था, वे माथुरी वाचना के आगम थे। मूलाचार, भगवतीआराधना आदि यापनीय आगमों में वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, संग्रहणीसूत्रों एवं नियुक्तियों आदि की सैकड़ों गाथाएँ आज भी उपलब्ध हो रही हैं। इससे यही फलित होता है कि यापनीयों के पास माथुरी वाचना के आगम थे । हम यह भी पाते हैं कि यापनीय ग्रन्थों में जो आगमों की गाथाएँ मिलती हैं वे न तो अर्धमागधी में हैं, न महाराष्ट्री प्राकृत में, अपितु वे शौरसेनी में हैं । मात्र यही नहीं अपराजित की भगवतीआराधना की टीका में आचारांग, उत्तराध्ययन, कल्पसूत्र, निशीथ आदि से जो अनेक अवतरण दिये हैं वे सभी अर्धमागधी में न होकर शौरसेनी में हैं। इससे यह फलित होता हैं कि स्कंदिल की अध्यक्षता वाली माथुरी वाचना में आगमों की अर्धमागधी भाषा पर शौरसेनी का प्रभाव आ गया था । दूसरे माथुरी वाचना के आगमों के जो भी पाठ भगवतीआराधना की टीका आदि में उपलब्ध होते हैं, उनमें वल्लभी वाचना के वर्तमान . आगमों से पाठभेद भी देखा जाता है । साथ ही अचेलकत्व की समर्थक कुछ गाथाएँ और गद्यांश भी पाये जाते हैं । कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में अनुयोगद्वारसूत्र, प्रकीर्णकों एवं नियुक्ति आदि की कुछ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श गाथाएँ क्वचित् पाठभेद के साथ मिलती हैं- सम्भवत: उन्होंने ये गाथायें यापनीयों के माथुरी वाचना के आगमों से ही ली होगी । ___एक ही समय में आर्य स्कंदिल द्वारा मथुरा में और नागार्जुन द्वारा वल्लभी में वाचना किये जाने की एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि दोनों में किन्हीं. बातों को लेकर मतभेद थे। सम्भव है कि इन मतभेदों में वस्त्र-पात्र आदि सम्बन्धी प्रश्न भी रहे हों । पं.कैलाशचन्द्रजी ने जैन साहित्य का इतिहास- पूर्व पीठिका (पृ.५००) में माथुरी वाचना की समकालीन वल्लभी वाचना के प्रमुख के रूप में देवर्धिगणि का उल्लेख किया हैं, यह उनकी भ्रान्ति है । वास्तविकता तो यह है कि माथुरी वाचना का नेतृत्व आर्य स्कंदिल और वल्लभी की प्रथम वाचना का नेतृत्व आर्य नागार्जुन कर रहे थे और ये दोनों समकालिक थे, यह बात हम नन्दीसूत्र के प्रमाण से पूर्व में ही कह चुके हैं। यह स्पष्ट है कि आर्य स्कंदिल और नागार्जुन की वाचना में मतभेद था । पं.कैलाशचन्द्रजी ने यह प्रश्न उठाया हैं कि यदि वल्लभी वाचना नागार्जुन की थी तो देवर्धि ने वल्लभी में क्या किया ? साथ ही उन्होंने यह भी कल्पना कर ली कि वादिवेतालशान्तिसूरि वल्लभी की वाचना में नागार्जुनीयों का पक्ष उपस्थित करने वाले आचार्य थे । हमारा यह दुर्भाग्य है कि दिगम्बर विद्वानों ने श्वेताम्बर साहित्य का समय एवं निष्पक्ष अध्ययन किये बिना मात्र यत्र-तत्र उद्धृत या अंशत: पठित अंशों के आधार पर अनेक भ्रान्तियाँ खड़ी कर दी। इसके प्रमाण के रूप में उनके द्वारा उद्धृत मूल गाथा में ऐसा कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है, कि शान्तिसूरि वल्लभी वाचना के समकालिक थे । यदि हम आगमिक व्याख्याओं को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि अनेक वर्षों तक नागार्जुनीय और देवर्धि की वाचनायें साथ-साथ चलती रहीं हैं, क्योंकि इनके पाठान्तरों का उल्लेख मूल ग्रन्थों में कम और टीकाओं में अधिक हुआ है। पंचम वाचना- वी.नि. के ९८० वर्ष पश्चात् ई.सन्. की पाँचवी शती के उत्तरार्द्ध में आर्य स्कंदिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी वाचना के लगभग १५० वर्ष पश्चात् देवर्धिगणिक्षमाश्रमण की अध्यक्षता में पुन: वल्लभी में एक वाचना हुई । इस वाचना में मुख्यत: आगमों को पुस्तकारूढ़ करने का कार्य किया गया । ऐसा लगता है कि इस वाचना में माथुरी और नागार्जुनीय दोनों वाचनाओं को समन्वित किया गया है और जहाँ मतभेद परिलक्षित हुआ वहाँ “नागार्जुनीयास्तु पठन्ति" ऐसा लिखकर नागार्जुनीय पाठ को भी सम्मिलित किया गया । प्रत्येक वाचना के सन्दर्भ में प्राय: यह कहा जाता है कि मध्यदेश में द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण श्रमणसंघ समुद्रतटीय प्रदेशों की ओर चला गया और वृद्ध मुनि, जो इस अकाल में लम्बी यात्रा न कर सके कालगत हो गये । सुकाल होने पर जब मुनिसंघ लौटकर आया तो उसने यह पाया कि इनके श्रुतज्ञान में विस्मृति और विसंगति आ गयी है। प्रत्येक वाचना से पूर्व अकाल की यह कहानी मुझे बुद्धिगम्य नहीं लगती है। मेरी दृष्टि में प्रथम वाचना में श्रमण संघ के विशृंखलित होने का प्रमुख कारण अकाल की अपेक्षा मगध राज्य में युद्ध से उत्पन्न अशांति और अराजकता Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श ही थी क्योंकि उस समय नन्दों के अत्याचारों एवं चन्द्रगुप्त मौर्य के आक्रमण के कारण मगध में अशांति थी । उसी के फलस्वरूप श्रमण संघ सुदूर समुद्रीतट की ओर या नेपाल आदि पर्वतीय क्षेत्र की ओर चला गया था । भद्रबाहु की नेपाल यात्रा का भी सम्भवत: यही कारण रहा होगा। जो भी उपलब्ध साक्ष्य है उससे यह फलित होता है कि पाटलिपुत्र की वाचना के समय द्वादश अंगों को ही व्यवस्थित करने का प्रयत्न हुआ था । उसमें एकादश अंग सुव्यवस्थित हुए और बारहवें दृष्टिवाद, जिसमें अन्य दर्शन एवं महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ की परम्परा का साहित्य समाहित था, इसका संकलन नहीं किया जा सका । इसी सन्दर्भ में स्थूलिभद्र के द्वारा भद्रबाहु के सान्निध्य में नेपाल जाकर चतुर्दश पूर्वो के अध्ययन की बात कही जाती है। किन्तु स्थूलिभद्र भी मात्र दस पूर्वो का ही ज्ञान अर्थ सहित ग्रहण कर सके, शेष चार पूर्वो का केवल शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर सके । इसका फलितार्थ यही है कि पाटलीपुत्र की वाचना में एकादश अंगों का ही संकलन और संपादन हुआ था । किसी भी चतुर्दश पूर्वविद् की उपस्थिति नहीं होने से दृष्टिवाद के संकलन एवं संपादन का कार्य नहीं किया जा सका ।। उपांग साहित्य के अनेक ग्रन्थ जैसे प्रज्ञापना आदि, छेदसूत्रों में आचारदशा, कल्प, व्यवहार आदि तथा चूलिकासूत्रों में नन्दी, अनुयोगद्वार आदि- ये सभी परवर्ती कृति होने से इस वाचना में सम्मिलित नहीं किये गये होंगे । यद्यपि आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थ पाटलीपुत्र की वाचना के पूर्व के हैं किन्तु इस वाचना में इनका क्या किया गया, यह जानकारी प्राप्त नहीं है। हो सकता है कि सभी साध-साध्वियों के लिये इनका स्वाध्याय आवश्यक होने के कारण इनके विस्मृत होने का प्रश्न ही न उठा हो । पाटलीपुत्र वाचना के बाद उड़ीसा के कुमारी पर्वत (खण्डगिरि) पर खारवेल के राज्य काल में हुई थी । इस वाचना के सम्बन्ध में मात्र इतना ही ज्ञात है कि इसमें भी श्रुत को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न किया गया था । संभव है कि इस वाचना में ई.पू.प्रथम शती से पूर्व रचित ग्रन्थों के संकलन और सम्पादन का कोई प्रयत्न किया गया हो । जहाँ तक माथुरी वाचना का प्रश्न है इतना तो निश्चित है कि उसमें ई.सन् की चौथी शती तक के रचित सभी ग्रन्थों के संकलन एवं सम्पादन का प्रयत्न किया गया होगा । इस वाचना के कार्य के सन्दर्भ में जो सूचना मिलती है, उसमें इस वाचना में कालिकसूत्रों को व्यवस्थित करने का निर्देश है । नन्दीसूत्र में कालिकसूत्र को अंग-बाह्य, आवश्यकव्यतिरिक्त श्रुतों का ही एक भाग बताया गया है। कालिकसूत्रों के अन्तर्गत उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार, निशीथ तथा वर्तमान में उपांग के नाम से अभिहित अनेक ग्रन्थ आते हैं। हो सकता है कि अंग सूत्रों की जो पाटलीपुत्र की वाचना चली आ रही थी वह मथुरा में मान्य रही हो, किन्तु उपांगों में से कुछ को तथा कल्प आदि छेद सूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया हो । किन्तु यापनीय ग्रन्थों की टीकाओं में जो माथुरी वाचना के आगमों के उद्धरण मिलते हैं, उन पर जो शौरसेनी का प्रभाव दिखता है, उससे Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श ऐसा लगता है कि माथुरी वाचना में न केवल कालिक सूत्रों का अपितु उस काल तक रचित सभी ग्रन्थों के संकलन का काम किया गया था । ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना अचेलता की पोषक यापनीय परम्परा में भी मान्य रही है । यापनीय ग्रन्थों की व्याख्याओं एवं टीकाओं में इस वाचना के आगमों के अवतरण तथा इन आगमों के प्रामाण्य के उल्लेख मिलते हैं। आर्य शाकटायन ने अपने स्त्री-निर्वाण प्रकारण एवं अपने व्याकरण की स्वोपज्ञटीका में न केवल मथुरा आगम का उल्लेख किया है, अपितु उनकी अनेक मान्यताओं का निर्देश भी किया है तथा अनेक अवतरण भी दिये हैं । इसी प्रकार भगवतीआराधना की अपराजित की टीका में भी आचारांग, उत्तराध्ययन, निशीथ आदि के अवतरण पाये जाते हैं, यह हम पूर्व में कह चुके हैं। आर्य स्कंदिल की माथुरी वाचना वस्तुत: उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के सचेल-अचेल दोनों के लिये मान्य थी और उसमें दोनों ही पक्षों के सम्पोषक साक्ष्य उपस्थित थे । यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता हैं कि यदि माथुरी याचना उभय पक्षों को मान्य थी तो फिर उसी समय नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में वाचना करने की क्या आवश्यकता थी । मेरी मान्यता हैं कि अनेक प्रश्नों पर स्कंदिल और नागार्जुन में मतभेद रहा होगा । इसी कारण से नागार्जुन को स्वतन्त्र वाचना करने की आवश्यकता पड़ी । इस समस्त चर्चा से पं.कैलाशचन्द्रजी के इस प्रश्न का उत्तर भी मिल जाता है कि वल्लभी की दूसरी वाचना में क्या किया गया ? एक ओर मुनि श्री कल्याणविजयजी की मान्यता यह है कि वल्लभी में आगमों को मात्र पुस्तकारूढ़ किया गया तो दूसरी ओर पं.कैलाशचन्द्रजी यह मानते हैं कि वल्लभी में आगमों को नये सिरे से लिखा गया, किन्तु ये दोनों ही मत मुझे एकांगी प्रतीत होते हैं । यह सत्य है कि वल्लभी में न केवल आगमों को पुस्तकारूढ़ किया गया, अपितु उन्हें संकलित एवं सम्पादित भी किया किन्तु यह संकलन एवं सम्पादन निराधार नहीं था । न तो दिगम्बर परम्परा का यह कहना उचित है कि वल्लभी में श्वेताम्बरों ने अपनी मान्यता के अनुरूप आगमों को नये सिरे से रच डाला और न यह कहना ही समुचित होगा कि वल्लभी में जो आगम संकलित किये गये वे अक्षुण्ण रूप से वैसे ही थे जैसे- पाटलीपुत्र आदि की पूर्व वाचनाओं में उन्हें संकलित किया गया था । यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु के साथ-साथ अनेक आगम ग्रन्थ भी कालक्रम में विलुप्त हुए हैं। वर्तमान आगमों का यदि सम्यक् प्रकार से विश्लेषण किया जाय तो इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। आज आचारांग का सातवाँ अध्ययन विलुप्त है । इसी प्रकार अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक व विपाकदशा के भी अनेक अध्याय आज अनुपलब्ध हैं । नन्दिसूत्र की सूची के अनेक आगम ग्रन्थ आज अनुपलब्ध हैं । इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हमने आगमों के विच्छेद की चर्चा के प्रसंग में की है । ज्ञातव्य है कि देवर्धि की वल्लभी वाचना में न केवल आगमों को पुस्तकारूढ़ किया गया है, अपितु उन्हें सम्पादित भी किया गया हैं। इस सम्पादन के कार्य में उन्होंने आगमों की अवशिष्ट उपलब्ध विषय-वस्तु को अपने ढंग से पुन: वर्गीकृत भी किया था और परम्परा या अनुश्रुति से प्राप्त आगमों के वे अंश जो उनके पूर्व की वाचनाओं Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ' अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श में समाहित नहीं थे उन्हें समाहित भी किया । उदाहरण के रूप में ज्ञाताधर्मकथा में सम्पूर्ण द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्ग और अध्ययन इसी वाचना में समाहित किये गये हैं, क्योंकि श्वेताम्बर, यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा के प्रतिक्रमणसूत्र एवं अन्यत्र उसके उन्नीस अध्ययनों का ही उल्लेख मिलता है । प्राचीन ग्रन्थों में द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों का कहीं कोई निर्देश नहीं हैं । ___ इसी प्रकार अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा और विपाकदशा के सन्दर्भ में स्थानांग में जो दस-दस अध्ययन होने का सूचना है उसके स्थान पर इनमें भी जो वर्गो की व्यवस्था की गई वह देवर्धि की ही देन है । उन्होंने इनके विलुप्त अध्यायों के स्थान पर अनुश्रुति से प्राप्त सामग्री जोड़कर इन ग्रन्थों को नये सिरे से व्यवस्थित किया था । यह एक सुनिश्चित सत्य है कि आज प्रश्नव्याकरण की आम्रव-संवर द्वार सम्बन्धी जो विषयवस्तु उपलब्ध है वह किसके द्वारा संकलित व संपादित है यह निर्णय करना कठिन कार्य है किन्तु यदि हम यह मानते हैं कि नन्दीसूत्र के रचयिता देवर्धि न होकर देववाचक हैं, जो देवर्धि से पूर्व के हैं तो यह कल्पना भी की जा सकती है कि देवर्धि ने आम्रव व संवर द्वार सम्बन्धी विषयवस्तु को लेकर प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषय-वस्तु का जो विच्छेद हो गया था, उसकी पूर्ति की होगी । इस प्रकार ज्ञाताधर्म से लेकर विपाकसूत्र तक के छ: अंग आगमों में जो आंशिक या सम्पूर्ण परिवर्तन हुए हैं, वे देवर्धि के द्वारा ही किये हुए माने जा सकते हैं । यद्यपि यह परिवर्तन उन्होंने किसी पूर्व परम्परा या अनुश्रुति के आधार पर ही किया होगा यह विश्वास किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त देवर्धि ने एक यह महत्त्वपूर्ण कार्य भी किया कि जहाँ अनेक आगमों में एक ही विषय-वस्तु का विस्तृत विवरण था वहाँ उन्होंने एक स्थल पर विस्तृत विवरण रखकर अन्यत्र थ का निर्देश कर दिया। हम देखते हैं कि भगवती आदि कछ प्राचीन स्तरों के आगमों में भी, उन्होंने प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार जैसे परवर्ती आगमों का निर्देश करके आगमों में विषयवस्तु के पुनरावर्तन को कम किया । इसी प्रकार जब एक ही आगम में कोई विवरण बार-बार आ रहा था तो उस विवरण के प्रथम शब्द के बाद 'जाव' शब्द रखकर अन्तिम शब्द का उल्लेख कर उसे संक्षिप्त बना दिया । इसके साथ ही उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ जो यद्यपि परवर्तीकाल की थी, उन्हें भी आगमों में दे दिया जैसे स्थानांगसूत्र में सात निह्नवों और सात गणों का उल्लेख। इस प्रकार वल्लभी की वाचना में न केवल आगमों को पुस्तकारूढ़ किया गया अपितु उनकी विषयवस्तु को सुव्यवस्थित और संपादित भी किया गया । सम्भव है कि इस सन्दर्भ में प्रक्षेप और विलोपन भी हुआ होगा किन्तु यह सब भी अनुश्रुति या परम्परा के आधार पर ही किया गया था अन्यथा आगमों को मान्यता न मिलती । सामान्यतया यह माना जाता है कि वाचनाओं में केवल अनुश्रुति से प्राप्त आगमों को ही संकलित किया जाता था किन्तु मेरी दृष्टि में वाचनाओं में न केवल आगम पाठों को सम्पादित एवं संकलित किया जाता अपितु उनमें नवनिर्मित ग्रन्थों को मान्यता भी प्रदान की जाती और जो Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श आचार और विचार सम्बन्धी मतभेद होते थे उन्हें समन्वित या निराकृत भी किया जा॥ था । इसके अतिरिक्त इन वाचनाओं में वाचना स्थलों की अपेक्षा से आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ हैं। ___ उदाहरण के रूप में जो आगम पटना अथवा उड़ीसा के कुमारी पर्वत (खण्डगिरि) में सुव्यवस्थित किये गये थे, उनकी भाषा अर्धमागधी ही रही, किन्तु जब वे आगम मथुरा और वल्लभी में पुन: सम्पादित किये गये तो उनमें भाषिक परिवर्तन आ गये । माथुरी वाचना में जो आगमों का स्वरूप तय हुआ था, उस पर व्यापक रूप से शौरसेनी का प्रभाव आ गया था । दुर्भाग्य से आज हमें माथुरी वाचना के आगम उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु इन आगमों के जो उद्धत अंश उत्तर भारत की अचेल धारा यापनीय संघ के ग्रन्थों में और उनकी टीकाओं में उद्धत मिलते हैं. उनमें हम यह पाते हैं कि भावगत समानता के होते हुए भी शब्द-रूपों और भाषिक स्वरूप में भिन्नता है। उत्तराध्ययन, आचारांग, निशीथ, कल्प, व्यवहार आदि से जो अंश भगवतीआराधना की टीका में उद्धृत हैं वे अपने भाषिक स्वरूप और पाठभेद की अपेक्षा से वल्लभी के आगमों से किंचित् अत: इन वाचनाओं के कारण आगमों में न केवल भाषिक परिवर्तन हुए अपितु पाठान्तर भी अस्तित्व में आये हैं । वल्लभी की अन्तिम वाचना में वल्लभी की ही नागार्जुनीय वाचना के पाठान्तर तो लिये गये, किन्तु माथुरी वाचना के पाठान्तर समाहित नहीं है । यद्यपि कुछ विद्वानों की मान्यता है कि वल्लभी की देवर्धि की वाचना का आधार माथुरी वाचना के आगम थे और यही कारण था कि उन्होंने नागार्जुनीय वाचना के पाठान्तर दिये हैं। किन्तु मेरा मन्तव्य इससे भिन्न है । मेरी दृष्टि में उनकी वाचना का आधार भी परम्परा से प्राप्त नागार्जुनीय वाचना के पूर्व के आगाम रहे होंगे, किन्तु जहाँ उन्हें अपनी परम्परागत वाचना का नागार्जुनीय वाचना से मतभेद दिखायी दिया, वहाँ उन्होंने नागार्जुनीय वाचना का उल्लेख कर दिया, क्योंकि माथुरी वाचना स्पष्टत: शौरसेनी से प्रभावित थी, दूसरे उस वाचना के जो आगमों के जो आवतरण आज मिलते हैं उनमें कुछ वर्तमान आगमों की वाचना से मेल नहीं खाते है । उनसे यही फलित होता है कि देवर्धि की वाचना का आधार स्कंदिल की वाचना तो नहीं रही हैं । तीसरे माथुरी वाचना के जो अवतरण आज यापनीय ग्रन्थों में मिलते हैं, उनमें इतना तो फलित होता है कि माथुरी वाचना के आगमों में भी वस्त्र-पात्र सम्बन्धी एवं स्त्री की तद्भव मुक्ति के उल्लेख तो थे, किन्तु उनमें अचेलता को उत्सर्ग मार्ग माना गया था । यापनीय ग्रन्थों में उद्धृत, अचेलपक्ष के सम्पोषक कुछ अवतरण तो वर्तमान वल्लभी वाचना के आगमों यथा आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध आदि में मिलते हैं किन्तु कुछ अवतरण वर्तमान वाचना में नहीं मिलते हैं । अत: माथुरी वाचना के पाठान्तर वल्लभी की देवर्धि की वाचना में समाहित नहीं हुए हैं, इसकी पुष्टि होती है । मुझे ऐसा लगता है कि वल्लभी की देवर्धि की वाचना का आधार माथुरी वाचना के आगम न होकर उनकी अपनी ही गुरु-परम्परा से प्राप्त आगम रहे होंगे । मेरी दृष्टि में उन्होंने नागार्जुनीय वाचना के ही पाठान्तर अपनी वाचना Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श २९ में समाहित किये- क्योंकि दोनों में भाषा एवं विषय-वस्तु दोनों ही दृष्टि से कम ही अन्तर था। माथुरी वाचना के आगम या तो उन्हें उपलब्ध ही नहीं थे अथवा भाषा एवं विषय-वस्तु दोनों की अपेक्षा भिन्नता अधिक होने से उन्होंने उसे आधार न बनाया हो । फिर भी देवर्धि को परम्परा से प्राप्त जो आगम थे. इनका और माथरी वाचना के आगमों का मलस्रोत तो एक ही था । हो सकता है कि दोनों में कालक्रम में भाषा एवं विषय-वस्तु की अपेक्षा क्वचित् अन्तर आ गये हों । अत: यह दृष्टिकोण भी समुचित नहीं होगा कि देवर्धि की वल्लभी वाचना के आगम माथुरी वाचना के आगमों से नितान्त भिन्न थे । यापनीयों के आगम यापनीय संघ के आचार्य आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प,निशीथ, व्यवहार, आवश्यक आदि आगमों को मान्य करते थे । इस प्रकार आगमों के विच्छेद होने की जो दिगम्बर मान्यता है, वह उन्हें स्वीकार्य नहीं थी । यापनीय आचार्यों द्वारा निर्मित किसी भी ग्रन्थ में कहीं भी यह उल्लेख नही हैं कि अंगादि-आगम विच्छिन्न हो गये हैं। वे आचारांग, सुत्रकृतांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन. निशीथ. बहत्कल्प, व्यवहार, कल्प आदि को अपनी परम्परा के ग्रन्थों के रूप में उद्धरित करते थे । इस सम्बन्ध में आदरणीय पं.नाथूराम प्रेमी (जैन साहित्य और इतिहास, प्र.९१) का यह कथन द्रष्टव्य है-"अक्सर ग्रन्थकार किसी मत का खण्डन करने के लिए उसी मत के ग्रन्थों का हवाला दिया करते हैं और अपने सिद्धान्त को पुष्ट करते हैं परन्तु इस टीका (अर्थात् भगवती-आराधना की विजयोदया टीका) में ऐसा नहीं हैं, इसमें तो टीकाकार ने अपने ही आगमों का हवाला देकर अचेलता सिद्ध की है।" आगमों के अस्तित्व को स्वीकार कर उनके अध्ययन और स्वाध्याय सम्बन्धी निर्देश भी यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में स्पष्ट रूप से उपलब्ध होते हैं । मूलाचार (५/८०-८२) में चार प्रकार के आगम ग्रन्थों का उल्लेख हैं- १.गणधर कथित, २.प्रत्येकबुद्ध कथित, ३.श्रुतकेवलि कथित और ४.अभिन्न दशपूर्वी कथित । . इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि संयमी पुरुषों एवं स्त्रियों अर्थात् मुनियों एवं आर्यिकाओं के लिए अस्वाध्यायकाल में इनका स्वाध्याय करना वर्जित है किन्तु इनके अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका अस्वाध्यायकाल में पाठ किया जा सकता हैं, जैसे- आराधना (भगवतीआराधना या आराधनापताका), नियुक्ति, मरणविभक्ति, संग्रह (पंचसंग्रह या संग्रहणीसूत्र), स्तुति (देविंदत्थुय), प्रत्याख्यानं (आउरपच्चक्खाण एवं महापच्चक्खाण), धर्मकथा (ज्ञाताधर्मकथा) तथा ऐसे ही अन्य ग्रन्थ। यहाँ पर चार प्रकार के आगम ग्रन्थों का जो उल्लेख हुआ है, उस पर थोड़ी विस्तृत चर्चा अपेक्षित है, क्योंकि मूलाचार की मूलगाथा में मात्र इन चार प्रकार के सूत्रों का उल्लेख हुआ है। उसमें इन ग्रन्थों का नाम निर्देश नहीं है । मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दि न तो यापनीय परम्परा से सम्बद्ध थे और न उनके सम्मुख ये ग्रन्थ ही थे । अत: इस प्रसंग में उनकी प्रत्येक-बुद्धकथित Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श की व्याख्या पूर्णत: भ्रान्त ही है । मात्र यही नही, अगली गाथा की टीका में उन्होंने 'थुदि', 'पच्चक्खाण' एवं 'धम्मकहा' को जिन ग्रन्थों से समीकृत किया है वह तो और भी अधिक भ्रामक है । आश्चर्य है कि वे 'थुदि' से देवागमस्तोत्र और परमेष्ठिस्तोत्र को समीकृत करते हैं, जबकि मूलाचार का मन्तव्य अन्य ही हैं । जहाँ तक गणधरथित ग्रन्थों का प्रश्न है वहाँ लेखक का तात्पर्य आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अंग ग्रन्थों से है, प्रत्येकबुद्धकथित ग्रन्थों से तात्पर्य प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित आदि से है, क्योंकि ये ग्रन्थ प्रत्येकबुद्धकथित माने जाते हैं । ये ग्रन्थ प्रत्येकबुद्धकथित हैं, ऐसा स्पष्ट उल्लेख भी समवायांग, उत्तराध्ययन नियुक्ति आदि में है । श्रुतकेवलिकथित ग्रन्थों से तात्पर्य आचार्य शय्यम्भवरचित दशवैकालिक, आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) रचित बृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कन्ध (आयारदसा), व्यवहार आदि से है तथा अभिन्न दशपूर्वीकथित ग्रन्थों से उनका तात्पर्य कम्मपयाडी आदि ‘पूर्व साहित्य के ग्रन्थों से है । यहाँ स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि यदि यापनीय परम्परा में ये ग्रन्थ विच्छिन्न माने जाते, तो फिर इनके स्वाध्याय का निर्देश लगभग ईसा की छठी शताब्दी के ग्रन्थ मूलाचार में कैसे हो पाता । दिगम्बर परम्परा के अनुसार तो वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् अर्थात ईसा की दूसरी शती में आचारांग धारियों की परम्परा भी समाप्त हो गई थी फिर वीरनिर्वाण के एक हजार वर्ष पश्चात् भी आचारांग आदि के स्वाध्याय करने का निर्देश देने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है । ज्ञातव्य है कि मूलाचार की यही गाथा कुन्दकुन्द के सुत्तपाहुड में भी मिलती है, किन्तु कुन्दकुन्द आगमों के उपर्युक्त प्रकारों का उल्लेख करने के पश्चात् उनकी स्वाध्याय विधि के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहते हैं। जबकि मूलाचार स्पष्ट रूप से उनके स्वाध्याय का निर्देश करता है । मात्र यही नहीं मलाचार में आगमों के अध्ययन की उपधान विधि अथ तप पूर्वक आगमों के अध्ययन करने की विधि का भी उल्लेख है । आगमों के अध्ययन की यह उपधान विधि श्वेताम्बरों में आज भी प्रचलित है । विधिमार्गप्रपा (पृ.४९-५१) में इसका विस्तृत उल्लेख है। इससे यह भी स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो जाता है कि मूलाचार आगमों को विच्छिन्न नहीं मानता था । यापनीय परम्परा में ये अंग आगम और अंगबाह्य आगम प्रचलन में थे, इसका एक प्रमाण यह भी है कि नवीं शताब्दी में यापनीय आचार्य अपराजित भगवतीआराधना की टीकामें न केवल इन आगमों से अनेक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं, अपितु स्वयं दशवैकालिक पर टीका भी लिख रहे हैं । मात्र यही नहीं, यापनीय पर्युषण के अवसर पर कल्पसूत्र का वाचन भी करते थे, ऐसा निर्देश स्वयं दिगम्बराचार्य कर रहे हैं । क्या यापनीय आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों से भिन्न थे ? इस प्रसंग में यह विचारणीय है कि यापनीयों के ये आगम कौन से थे ? क्या वे इन नामों से उपलब्ध श्वेताम्बर परम्परा के आगमों से भिन्न थे या यही थे ? हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों ने यह कहने का अतिसाहस भी किया है कि ये आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों से सर्वथा भिन्न थे । पं.कैलाशचन्द्रजी (जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका, पृ.५२५) ने ऐसा ही अनुमान किया है, वे लिखते हैं “जैन परम्परा में दिगम्बर और श्वेताम्बर के समान एक यापनीय संघ भी था। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श यह संघ यद्यपि नग्नता का पक्षधर था, तथापि श्वेताम्बर आगमों को मानता था । इस संघ के आचार्य अपराजितसूरि की संस्कृत टीका भगवतीआराधना नामक प्राचीन ग्रन्थ पर है । जो मुद्रित भी हो चुकी है। उसमें नग्नता के समर्थन में अपराजितसूरि ने आगम ग्रन्थों से अनेक उद्धरण दिये हैं, जिनमें से अनेक उद्धरण वर्तमान आगमों में नहीं मिलते ।" आदरणीय पंडितजी ने यहाँ जो 'अनेक' शब्द का प्रयोग किया है वह भ्रान्ति उत्पन्न करता है । मैंने अपराजितसूरि की टीका में उद्धृत आगमिक सन्दर्भो की श्वेताम्बर आगमों से तुलना करने पर स्पष्ट रूप से यह पाया है कि लगभग ९० प्रतिशत सन्दर्भो में आगमों की अर्धमागधी प्राकत पर शौरसेनी प्राकत के प्रभाव के फलस्वरूप हुए आंशिक पाठभेद को छोड़कर कोई अन्तर नहीं है । जहाँ किंचित् पाठभेद है वहाँ भी अर्थ-भेद नहीं है । आदरणीय पंडितजी ने इस ग्रन्थ में भगवतीआराधना की विजयोदया टीका १. विजयोदयाटीका की आचाराङ्गसूत्र के साथ तुलना [यह टिप्पन संपादक जंबूवि.की ओर से यहां जोडा गया है] विजयोदया टीका श्वेतांबरपरंपरा में सम्प्रति उपलभ्यमान आचाराङ्ग तथा चोक्तमाचाराङ्गे-सुदं मे आउस्संतो भगवदा एवमक्खादं-इह खलु संयमाभिमुखा दुविहा इत्थीपुरिसा(स)जादा भवंति, तंजहा-सव्वसमण्णागदे, xxx णोसव्वसमा(मण्णा)गदे चेव । तत्थ जे सव्वसमण्णागदे थिरांग-हत्थ-पाणि-पादे सव्विंदिय-समण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थं धारिउं, एवं परिहिउं, एवं अण्मत्थ एगेण पडिलेहगेण । अह पुण एवं जाणिज्जा- उपातिकते हेमंते, प्रिंसु पडिवण्णे, | अह पुण एवं जाणेज्जा ‘उवातिकंते खलु हेमंते, गिम्हे से अथ परिजुण्णमुवधिं पदिट्ठावेज्ज । पडिवण्णे' अहापरिजुण्णाई वत्थाई परिठ्ठवेज्जा । (सू०२१४) -४।४२१ टीका, पृ.६१२ पडिलेहणं पादपुंछणं उग्गहं कडासणं अण्णदरं उवधिं | वत्थं पडिग्गाहं कंबलं पादपुंछणं उग्गहं च कडासणं एतेसु पावेज्ज । चेव जाणेजा । (सू.८९) - ४।४२१ टीका, पृ०६११ तथा वत्थेसणाए वुत्तं- “तत्थ ये से हिरिमणे सेगं वत्थं वा | जे णिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे से एगं धारेज्जपडिलेहणगं बिदियं । तत्थ ये से जुग्गिदे दे से दुवे | वत्थं धारेज्जा, णो बितियं । (सू०५५३) वत्थाणि धारिज्ज, पडिलेहणगं तदियं । तत्थ ये से परिसा(सहा)ई अणधिहास(से) स्स(से) तओ वत्थाणि धारेज, पडिलेहणं चउत्थं ।" -४|४२१ टीका, पृ०६११ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श (पृ.३२०-३२७) से एक उद्धरण दिया है, जो वर्तमान आचारांग में नहीं मिलता हैं । उनके द्वारा प्रस्तुत वह उद्धरण निम्न हैतथा पायेसणाए कथितं- हिरिमणे वा जुगिदे वा विअण्णगे | से भिक्खू वा २ अभिकंखेजा पायं एसित्ताए । से जं पुण वा तस्स णं कप्पदि वत्थादिकं पाद(दं) चा(धा)रित्तए । | पायं जाणेज्जा, तंजहा- लाउयपायं वा दारुपायं वा पुनश्चोक्तं तत्रैव- अलाबुपत्तं वा दारुगपत्तं वा मट्टिगपत्तं वा | मट्टियापायं वा तहप्पगारं पायं जे णिग्गंथे तरुणे जाव अप्पपाणं अप्पबीजं अप्पस(ह)रिदं तथाप्पकारं पात्रं लाभे | थिरसंघयणे से एवं पायं धरेज्जा, णो बितियं । (सू० ५५८) सति पडिग्गहिस्सामि ।" -४/४२१ टीका, पृ०६११ भावनायां चोक्तम- "वरिसं चीवरधारी तेण परमचेलके तु xxx जिणे ।" --४।४२१ टीका, पृ०६११ | विजयोदयाटीकामें संपूर्णपाठ निम्न लिखितानुसार है___ “अथैवं मन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम् । तथाहि आचारप्रणिधौ भणितम्- 'प्रतिलिखेत् पात्रकम्बलं ध्रुवम्' (धुंव च पडिलेहेजा जोगसा पायकम्बलं । दशवै० ८।१७) इति । असत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्रुवं क्रियते ? आचारस्यापि द्वितीयोऽध्यायो लोकविच(ज?)यो नाम, तस्य पञ्चमे उद्देशे एवमुक्तम्- 'पडिलेहणं पादपुंछणं उग्गहं कडासणं अण्णदरं उवधिं पावेज' इति तथा वत्थेसणाए वुत्तं- 'तत्थ ए(ये)से हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज पडिलेहणगं बिदियं ॥ तत्थ ए से जुग्गिदे दे(?) से दुवे वत्थाणि धारिज, पडिलेहणगं तदियं । तत्थ ए से परिस्सहं अणधिहासस्स तओ वत्थाणि धारेज पडिलेहणं चउत्थं ।' तथा पायेसणाए कथितं- 'हिरिमणे वा जुम्गिदे वा विअण्णगे वा तस्स णं कप्पदि वत्थादिकं पादं चारित्तए' इति । पुनश्चोक्तं तत्रैव- 'अलाबुपत्तं वा दारुगपत्तं वा मट्टिगपत्तं वा अप्पपाणं अप्पस(ह)रिदं तथाप्पकारं पात्रं लाभे सति पडिग्गहिस्सामि' इति । वस्त्र-पात्रे यदि न ग्राह्ये, कथमेतानि सूत्राणि नीयन्ते ? भावनायां चोक्तम्- 'वरिसं चीवरधारी तेण परमचेलके तु जिणे' इति । तथा सूत्रकृतस्य पुण्डरीकेऽध्याये कथितम्- ‘ण कहेज्जा धम्मकहं वत्थपत्तादिहेतुं' इति । निषेधे (निशीथे)ऽप्युक्तम्- ‘कसिणाई वत्थ-कंबलाई जो भिक्खू पडिग्गहिदि पज्जदि मासिगं लहुगं ।' एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कथम् ? इत्यत्रोच्यते- आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रम्, कारणापेक्षया भिक्षूणाम्, हीमान् अयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माऽभिलम्बमानबीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति । तथा चोक्तमाचाराने 'सुदं मे आउसत्तो(न्तो) ! भगवदा एवमक्खादं- इह खलु संयमाभिमुखा दुविहा इत्थी-पुरिसजादा भवंति, तं जहा- सव्वसमण्णागदे णोसव्वसमागदे चेव । तत्थ जे सव्वसमण्णागदे थिरांगहत्थपाणिपादे सव्विंदियसमण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थं धारिलं, एवं परिहिउं, एवं अण्णत्थ एगेण पडिलेह(ण)गेण । तथा चोक्तं कल्पेहिरिहेतुकं व होइ देहदुगुंछंति देहे जुग्गिदगे । धारेज सियं वत्थं परिस्सहाणं चऽणधिहासी ॥ ति । द्वितीयमपि सूत्रं कारणमपेक्ष्य वस्त्रग्रहणमित्यस्य प्रसाधकम् आचारे विद्यते- 'अह पुण एवं जाणेज उपातिकते हेमंते हिं(पिं)सु पडिवण्णे से अथ परिजुण्णमुवधिं पदिट्ठावेज' इति । हिमसमये शीतबाधाऽसहः परिगृह्य चेलं तस्मिन्निष्क्रान्ते ग्रीष्मे समायाते प्रतिष्ठापयेदिति कारणापेक्षं ग्रहणमाख्यातम् । परिजीर्णविशेषोपादानाद् दृढानामपरित्याग इति चेत्, अचेलतावचनेन विरोधः । प्रक्षालनादिकसंस्कारविरहात् परिजीर्णता वस्त्रस्य कथिता न तु दृढस्य(स्या)त्यागकथनार्थम् । पात्रप्रतिष्ठापना Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श तथा चोक्तमाचाराङ्गे- सुदं मे आउस्सत्तो (तो) भगवदा एवमक्खादं इह खलु संयमाभिमुखा दुविहा इत्थी - पुरिसा ( स ) जादा हवंति । तंजहा - सव्वसमण्णगदे णो सव्वसमण्णागदे चेव । तत्थ जे सव्वसमण्णागदे थिरांगहत्थपाणीपादे सव्विंदियसमण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थ धारिउं एवं परिहिउं एवं अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण इति । निश्चय ही उपर्युक्त सन्दर्भ आचारांग में इसी रूप में शब्दशः नहीं है किन्तु " सव्वसमन्नागय” नामक पद और उक्त कथन का भाव आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में आज भी सुरक्षित है । अत: इस आधार पर यह कल्पना करना अनुचित होगा कि यापनीय परम्परा का आचारांग, वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध आचारांग से भिन्न था। क्योंकि अपराजितसूरि द्वारा उद्धृत आचारांग के अन्य सन्दर्भ आज भी श्वेताम्बर परम्परा के इसी आचारांग में उपलब्ध है | अपराजित ने आचारांग के “लोकविचय" नामक द्वितीय अध्ययन के पंचम उद्देशक का उल्लेखपूर्वक जो उद्धरण दिया है, वह आज भी उसी अध्याय के उसी उद्देशक में उपलब्ध है । इसी प्रकार उसमें “अह पुण एवं जाणेज्ज उपातिकंते हेमंते-ठविज्ज" जो यह पाठ आचारांग से उद्धृत है-वह भी वर्तमान आचारांग के अष्टम अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में है । उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग, कल्प आदि के सन्दर्भों की भी लगभग यही स्थिति है । अब हम उत्तराध्ययन के सन्दर्भों पर विचार करेंगे । आदरणीय पंडितजी ने जैन साहित्य की पूर्वपीठिका में अपराजित की भगवती आराधना की टीका की निम्न दो गाथाएँ उद्धृत की हैं परिचत्तेसु वत्थेसु ण पुणो चेलमादिए । अचेलपवरे भिक्खू जिणरूपधरे सदा ॥ सचेलगो सुखी भवदि असुखी वा वि अचेलगो । अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खु न चिंतए || ३३ पंडितजी ने इन्हें उत्तराध्ययन की गाथा कहा है और उन्हें वर्तमान उत्तराध्ययन अनुपलब्ध भी बताया है । किन्तु जब हमने स्वयं पंडितजी द्वारा ही सम्पादित एवं अनुवादित भगवती आराधना की टीका देखी तो उसमें इन्हें स्पष्ट रूप से उत्तराध्ययन की गाथायें नहीं कहा गया है । उसमें मात्र “इमानि च सूत्राणि अचेलतां दर्शयन्ति” कहकर इन्हें उद्धृत किया गया है । आदरणीय पंडितजी को यह भ्रान्ति कैसे हो गई, हम नहीं जानते । पुनः ये गाथाएँ भी चाहे शब्दश: उत्तराध्ययन में न हों, किन्तु भावरूप से तो दोनों ही गाथाएँ और शब्द रूप से इनके आठ चरणों में से चार चरण तो उपलब्ध ही है । उपरोक्त उद्धृत गाथाओं से तुलना के लिए उत्तराध्ययन की ये गाथाएँ सूत्रे णो (नो ) तेति संयमार्थं पात्रग्रहणं सिध्यति इति मन्यसे नैव, अचेलता नाम परिग्रहत्यागः, पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्यागः सिद्ध एवेति । तस्मात् कारणापेक्षं वस्त्रपात्रग्रहणम् । यदु ( ) पकरणं गृह्यते कारणमपेक्ष्य ग्रहणविधिः गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यमेव । तस्माद् वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारमपेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत् कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् ।" पृ० ६११-१२ । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श प्रस्तुत हैं “परिजुण्णेहिं वत्थेहिं होक्खामि त्ति अचेलए ।। अदुवा “सचेलए होक्खं" इदं भिक्खू न चिन्तए ॥ “एगया अचेलए होइ सचेले यावि एगया ।" एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए ॥ (उत्तराध्ययन, २/१२-१३) जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में ही चूर्णि में आगत पाठों और शीलांक या अभयदेव की टीका में आगत पाठों में अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत की दृष्टि से पाठभेद रहा है, उसी प्रकार यापनीय परम्परा के आगम के पाठ माथुरी वाचना के होने के कारण शौरसेनी प्राकृत से युक्त रहे होंगे । किन्तु यहाँ यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि प्राचीन स्तर के सभी आगम ग्रन्थ मूलत: अर्धमागधी के रहे है । उनमें जो महाराष्ट्री या शौरसेनी के शब्द-रूप उपलब्ध होते हैं, वे परवर्ती हैं । विजयोदया में आचारांग आदि के सभी आगमिक सन्दर्भो को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे पूर्णत: शौरसेनी प्रभाव से युक्त हैं । मूलत: आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगम तो निश्चित ही अर्धमागधी में रहे हैं । यहाँ दो सम्भावनाएँ हो सकती हैं, प्रथम यही है कि माथुरी वाचना के समय उन पर शौरसेनी का प्रभाव आया हो और यापनीयों ने उसे मान्य रखा हो । दूसरे यह है कि यापनीयों द्वारा उन आगमों का शौरसेनीकरण करते समय श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचारांग आदि से उनमें पाठभेद हो गया हो, किन्तु इस आधार पर भी यह कहना उचित नहीं होगा कि यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा के आगम भिन्न थे । ऐसा पाठभेद तो एक ही परम्परा के आगमों में भी उपलब्ध है । स्वयं पं.कैलाशचन्द्रजी ने अपने ग्रन्थ जैन साहित्य का इतिहास-पूर्वपीठिका में अपराजितसूरि की भगवतीआराधना की टीका से आचारांग का जो उपर्युक्त पाठ दिया है, उसमें और स्वयं उनके द्वारा सम्पादित भगवतीआराधना की अपराजितसूरि की टीका में उद्धृत पाठ में ही अन्तर है- एक में “थीण' पाठ है - दूसरे में “थीरांग" पाठ है, जिससे अर्थ-भेद भी होता है । एक ही लेखक और सम्पादक की कृति में भी पाठभेद हो तो भिन्न परम्पराओं में किंचित् पाठभेद होना स्वाभाविक है, किन्तु उससे उनकी पूर्ण भिन्नता की कल्पना नहीं की जा सकती है। पुन: यापनीय परम्परा द्वारा उद्धृत आचारांग, उत्तराध्ययन आदि के उपर्युक्त पाठों की अचेलकत्व की अवधारणा का प्रश्न है, वह श्वेताम्बर परम्परा के आगमों में आज भी उपलब्ध है ।। __ इसी प्रसंग में उत्तराध्ययन की जो अन्य गाथायें उद्धृत की गई हैं, वे आज भी उत्तराध्ययन के २३वें अध्ययन में कुछ पाठभेद के साथ उपलब्ध हैं । आराधना की टीका में उद्धृत इन गाथाओं पर भी शौरसेनी का स्पष्ट प्रभाव है। यह भी स्पष्ट है कि मूल उत्तराध्ययन अर्धमागधी की रचना है। इससे ऐसा लगता है कि यापनीयों ने अपने समय के अविभक्त परम्परा के आगमों को मान्य करते हुए भी उन्हें शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करने का प्रयास किया था, अन्यथा अपराजित की टीका में मूल आगमों के उद्धरणों का शौरसेनी रूप न मिलकर अर्धमागधी रूप ही मिलता। इस सम्बन्ध में पं. नाथूरामजी प्रेमी (जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ६०) का निम्न वक्तव्य विचारणीय है Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श । 'श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य जो आगम ग्रन्थ हैं, यापनीय संघ शायद उन सभी को मानता था, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि दोनों के आगमों में कुछ पाठभेद था और उसका कारण यह हो कि उपलब्ध वल्लभी वाचना के पहले की कोई वाचना (संभवत: माथुरी वाचना ) यापनीय संघ के पास थी, क्योंकि विजयोदयाटीका में आगमों के जो उद्धरण हैं वे श्वेताम्बर आगमों में बिल्कुल ज्यों के त्यों नहीं बल्कि कुछ पाठभेद के साथ मिलते हैं । यापनीयों के पास स्कंदिल की माथुरी वाचना के आगम थे यह मानने में एक बाधा आती है, वह यह कि स्कंदिल की वाचना का काल वीरनिर्वाण ८२७- ८४० अर्थात् ईसा की तृतीय शती का अन्त और चतुर्थ शती का प्रारम्भ है, जबकि संघभेद उसके लगभग २०० वर्ष पहले ही घटित हो चुका था । किन्तु पं. नाथुरामजी यह शंका इस आधार पर निरस्त हो जाती हैं कि वास्तविक सम्प्रदाय भेद ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी न होकर पाँचवी शती में हुआ यद्यपि यह माना जाता है कि फल्गुमित्र की परम्परा की कोई वाचना थी, किन्तु इस वाचना के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश कहीं भी उपलब्ध नहीं है । निष्कर्ष यह है कि यापनीय आगम वही थे, जो उन नामों से आज श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध है । मात्र उनमें किंचित् पाठभेद था तथा भाषा की दृष्टि से शौरसेनी का प्रभाव अधिक था । यापनीय ग्रन्थों में आगमों के जो उद्धरण मिलते है उनमें कुछ तो वर्तमान श्वेताम्बर परम्परा के आगमो में अनुपलब्ध हैं, कुछ पाठान्तर के साथ उपलब्ध हैं। जो अनुपलब्ध हैं, उनके सम्बन्ध में दो विकल्प हैं- प्रथम यह कि मूलागमों के वे अंश बाद के श्वेताम्बर आचार्यो ने अगली वाचना में निकाल दिये और दूसरा यह कि वे अंश यापनीय मान्यता के प्रक्षिप्त अंश हो । किन्तु प्रथम विकल्प में इसलिए विश्वास नहीं होता कि यदि परवर्ती वाचनाओं में वे सब बातें, जो उस युग के आचार्यो को मान्य नहीं थी या उनकी परम्परा के विरुद्ध थी, निकाल दी गई होती तो वर्तमान श्वेताम्बर आगमों में अचेलता के समर्थक सभी अंश निकाल दिये जाने चाहिए थे । मुझे ऐसा लगता है कि आगमों की वाचनाओं (संकलन) के समय केवल वे ही अंश नहीं आ पाये थे जो विस्मृत हो गये थे अथवा पुनरावृत्ति से बचने के लिए "जाव" पाठ देकर वहाँ से हटा दिये गये थे। मान्यता भेद के कारण कुछ अंश जानबूझकर निकाले गये हो, ऐसा कोई भी विश्वसनीय प्रमाण हमें नहीं मिलता है । किन्तु यह हो सकता है कि वे अंश किसी अन्य गण की वाचना के रहे हो, जिनके प्रतिनिधि उस वाचना में सम्मिलित नहीं थे । कुछ ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं कि विभिन्न गणों में वाचना-भेद या पाठभेद होता था । विभिन्न गणों के निर्माण का एक कारण वाचना भेद भी माना गया है । यह कहा जाता है कि महावीर के ग्यारह गणधरों की नौ वाचनाएँ थी अर्थात् महावीर के काल में भी वाचना-भेद था । क्योंकि प्रत्येक वाचनाचार्य की अध्यापन शैली भिन्न होती थी । ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में शब्द के स्थान पर अर्थ पर बल दिया जाता था, तीर्थंकर को अर्थ का प्रवर्तक माना गया था जबकि वैदिक परम्परा शब्द प्रधान थी । यही कारण है कि जैनो ने यह माना कि चाहे शब्द भेद हो, पर अर्थ - भेद नहीं होना चाहिए । यही कारण है कि वाचना भेद बढ़ते गये । हमें यापनीय ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक उद्धरणों से वर्तमान आगमों के पाठों का जो पाठभेद मिलता है उनका कारण वाचना-भेद है, अर्थ 44 ३५ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श भेद नहीं, क्योंकि ऐसे अनुपलब्ध अंशों या पाठभेदों में विषय प्रतिपादन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं है । किन्तु इस सम्भावना से पूरी तरह इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्वयं यापनीयों ने भी अपनी मान्यता की पुष्टि के लिए कुछ अंश जोड़े हों अथवा परिवर्तित किये हों । श्वेताम्बर परम्परा में भी वल्लभी वाचना में या उसके पश्चात् भी आगमों में कुछ अंश जुड़ते रहे हैं- इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता । हम पण्डित कैलाशचन्द्रजी (जैन साहित्य का इतिहास पूर्वपीठिका, पृ.५२७) के इस कथन से सहमत हैं कि वल्लभी वाचना के समय और उसके बाद भी आगमों के स्वरूप में कुछ परिवर्तन हुए हैं। किन्तु उनके द्वारा प्रयुक्त “बहुत" शब्द आपत्तिजनक हैं। फिर भी ध्यान रखना होगा कि इनमें प्रक्षेप ही अधिक हुआ हैं, विस्मृति को छोड़कर जान-बूझकर निकाला कुछ नहीं गया है। किन्तु ऐसा प्रक्षेप मात्र श्वेताम्बरों ने किया है और दिगम्बरों तथा यापनीयों ने नहीं किया है- यह नहीं कहा जा सकता । सम्भव है कि यापनीय परम्परा ने भी आगमों में अपने अनुकूल कुछ अंश प्रक्षिप्त किये हों । मूलाचार, भगवतीआराधना आदि ग्रन्थों को देखने से ऐसा स्पष्ट लगता है कि उन्होंने अर्धमागधी आगम साहित्य की ही सैकड़ों गाथायें शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करके अपने इन ग्रन्थों को रचना की हैं, मूलाचार का लगभग आधा भाग प्रकीर्णकों, नियुक्तियों एवं आगमों की गाथाओं से निर्मित हैं । यह तो निश्चित है कि प्राचीन आगम साहित्य अर्धमागधी में था । यापनीय ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक सन्दर्भ के सदैव शौरसेनी रूप ही मिलते हैं, जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं कि उन्होंने अर्धमागधी आगम साहित्य को शौरसेनी में अपने ढंग से रूपान्तरित करने का प्रयत्न किया होगा और इस प्रयत्न में उन्होंने अपने मत की पुष्टि का भी प्रयास किया होगा । अत: इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यापनीय आचार्यों ने भी मूल आगमों के साथ छेड़छाड की थी और अपने मत की पुष्टि हेतु उन्होंने उनमें परिवर्तन और प्रक्षेप भी किये। मात्र श्वेताम्बर और यापनीय ही आगमों के साथ छेड़छाड़ करने के दोषी नहीं हैं, बल्कि दिगम्बर आचार्य और पण्डित भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहे हैं । यापनीय ग्रन्थों में दिगम्बर परम्परा के द्वारा जो प्रक्षेपण और परिवर्तन किये गये हैं वे तो और भी अधिक विचारणीय हैं, क्योंकि इनके कारण अनेक यापनीय ग्रन्थों का यापनीय स्वरूप ही विकत हो गया है। हमारे दिगम्बर विद्वान श्वेताम्बर ग्रन्थों में प्रक्षेपण की बात तो कहते है किन्तु वे इस बात को विस्मृत कर जाते हैं कि स्वयं उन्होंने यापनीय और अपने ग्रन्थों में भी किस प्रकार हेर-फेर किये हैं। इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर दिगम्बर विद्वानों का मत प्रस्तुत करना चाहूँगा । पं. कैलाशचन्द्रजी स्व-सम्पादित “भगवतीआराधना" की प्रस्तावना (पृ.९) में लिखते हैं“विजयोदया के अध्ययन से प्रकट होता हैं कि उनके सामने टीका लिखते समय जो मूलग्रन्थ उपस्थित था, उसमें और वर्तमान मूल (ग्रन्थ) में अन्तर है । अनेक गाथाओं में वे शब्द नहीं मिलते जो टीकाओं में हैं।" Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श ३७ इससे स्पष्ट होता है कि जब दिगम्बर आचार्यों ने इस यापनीय ग्रन्थ को अपने में समाहित किया होगा तो इसकी मूल गाथाओं के शब्दों में भी हेर-फेर कर दिया होगा । यदि पं.कैलाशचन्द्रजी ने उन सभी स्थलों का जहाँ उन्हें पाठभेद प्रतीत हुआ, निर्देश किया होता तो सम्भवत: हम अधिक प्रमाणिकता से कुछ बात कह सकते थे । टीका और मूल के सारे अन्तरों को हम भी अभी तक खोज नहीं पाये हैं । अत: अभी तो उनके मत को ही विश्वसनीय मानकर संतोष करेंगे । स्वयंभू के रिट्ठनेमिचरिउ (हरिवंशपुराण) में भी इसी प्रकार की छेड़-छाड हुई थी। इस सन्दर्भ में पं.नाथुरामजी प्रेमी (जैन साहित्य और इतिहास, पृ.२०२ ) लिखते हैं- “इनमें तो संदेह नहीं है कि इस अन्तिम अंश में मुनि जसकित्ति (यशकीर्ति) का भी हाथ है परन्तु यह कितना है यह निर्णय करना कठिन हैं । बहुत कुछ सोच-विचार के बाद हम इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि मुनि जसकित्ति को इस ग्रन्थ की कोई ऐसी जीर्ण-शीर्ण प्रति मिली थी जिसके अन्तिम पत्र नष्ट-भ्रष्ट थे और शायद अन्य प्रतियाँ दुर्लभ थीं, इसलिए उन्होंने गोपगिरि (ग्वालियर) के समीप कुमरनगरी के जैन मन्दिर में व्याख्यान करने के लिए इसे ठीक किया अर्थात् जहाँ-जहाँ जितना अंश पढ़ा नहीं गया था या नष्ट हो गया था, उसको स्वयं रचकर जोड़ दिया और जहाँ-जहाँ जोड़ा, वहाँवहाँ अपने परिश्रम के एवज में अपना नाम भी जोड़ दिया ।" इससे स्पष्ट है कि कुछ दिगम्बर आचार्यों ने दूसरों की रचनाओं को भी अपने नाम पर चढ़ा लिया । इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ति में भी पर्याप्त रूप से मिलावट हुई है । जहाँ “तिलोयपण्णत्ति" का ग्रन्थ-परिमाण ८००० श्लोक बताया गया है वहाँ वर्तमान तिलोयपण्णत्ति का श्लोक-परिमाण ९३४० है अर्थात् लगभग १३४० श्लोक अधिक हैं । पं.नाथुरामजी प्रेमी के शब्दों में- ये इस बात के संकेत देते हैं कि पीछे से इसमें मिलावट की गयी है । इस सन्दर्भ में पं.फूलचन्द्रशास्त्री के, जैन साहित्य भास्कर, भाग ११, अंक प्रथम में प्रकाशित “वर्तमान तिलोयपण्णत्ति और उसके रचनाकार का विचार" नामक लेख के आधार पर वे लिखते हैं-"उससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ अपने असल रूप में नहीं रहा है। उसमें न केवल बहुत सा लगभग एक अष्टमांश प्रक्षिप्त हैं, बल्कि बहुत-सा परिवर्तन और परिशोध भी किया गया हैं, जो मूल ग्रन्थ कर्ता के अनुकूल नहीं हैं।" इसी प्रकार कसायपाहुडसुत्त की मूल गाथाएँ १८० थी, किन्तु आज उसमें २३३ गाथाएँ मिलती हैं- अर्थात् उसमें ५३ गाथाएँ परवर्ती आचार्यों द्वारा प्रक्षिप्त हैं । यही स्थिति कुन्दकुन्द के समयसार, वट्टकेर के मूलाचार आदि की भी है। प्रकाशित संस्करणों में भी गाथाओं की संख्याओं में बहुत अधिक अन्तर हैं । समयसार के ज्ञानपीठ के संस्करण में ४१५ गाथायें हैं तो अजिताश्रम संस्करण में ४३७ गाथायें । मूलाचार के दिगम्बर जैनग्रन्थमाला के संस्करण मे १२४२ गाथाएँ हैं तो फलटण के संस्करण में १४१४ गाथाएँ है अर्थात् १६२ गाथाएँ अधिक हैं, यह सब इस बात का प्रमाण है कि दिगम्बर परम्परा के आचार्यों ने श्वेताम्बरों और यापनीयों की अपेक्षा बहुत अधिक प्रक्षेप एवं परिवर्तन किया है । इन उल्लेखों के अतिरिक्त वर्तमान में भी इस प्रकार के परिवर्तनों के प्रयास हुए हैं । जैसे “धवला" के सम्पादन के समय मूल ग्रन्थ षट्खण्डागम से "संजद" पद Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श को हटा देना, ताकि उस ग्रन्थ के यापनीय स्वरूप या स्त्री-मुक्ति के समर्थक होने का प्रमाण नष्ट किया जा सके । इस सन्दर्भ में दिगम्बर समाज में कितनी ऊहापोह मची थी और पक्ष-विपक्ष में कितने लेख लिखे गये थे, यह तथ्य किसी से छिपी नहीं है । यह भी सत्य है कि अन्त में मूलप्रति में “संजद" पद पाया गया । तथापि ताम्रपत्र वाली प्रति में वह पद नहीं लिखा गया, सम्भवत: भविष्य में वह एक नई समस्या उत्पन्न करेगा । इस सन्दर्भ में भी में अपनी ओर से कुछ न कहकर दिगम्बर परम्परा के मान्य विद्वान पं. कैलाशचन्द्रजी के शब्दों को ही उद्धृत कर रहा हूँ । पं. बालचन्द्रशास्त्री की कृति “षट्खण्डागम -परिशीलन” के अपने प्रधान सम्पादकीय में वे लिखते हैं- “समूचा ग्रन्थ प्रकाशित होने से पूर्व ही एक और विवाद उठ खड़ा हुआ । प्रथम भाग के सूत्र ९३ में जो पाठ हमें उपलब्ध था, उसमें अर्थ-संगति की दृष्टि से “संजदासंजद" के आगे “संजद" पद जोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हुई, किन्तु इससे फलित होने वाली सैद्धान्तिक व्यवस्थाओं से कुछ विद्वानों के मन आलोडित हुए और वे "संजद" पद को वहाँ जोड़ना एक अनधिकार चेष्टा कहने लगे । इस पर बहुत बार मौखिक शास्त्रार्थ भी हुए और उत्तर-प्रत्युत्तर रूप लेखों की श्रृंखलाएँ भी चल पड़ी, जिनका संग्रह कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थों में प्रकाशित भी हुआ। इसके मौखिक समाधान हेतु जब सम्पादकों ने ताड़पत्रीय प्रतियों के पाठ की सूक्ष्मता से जाँच करायी तब पता चला कि वहाँ की दोनों भिन्न प्रतियों में हमारा सुझाया गया संजद पद विद्यमान है । इससे दो बातें स्पष्ट हुई- एक तो यह कि सम्पादकों ने जो पाठ-संशोधन किया है, वह गम्भीर चिन्तन और समझदारी पर आधारित है और दूसरी यह कि मूल प्रतियों से पाठ मिलान की आवश्यकता अब भी बनी हुई है, क्योंकि जो पाठान्तर मूडबिद्री से प्राप्त हुए थे और तृतीय भाग के अन्त में समाविष्ट किये गये थे उनमें यह संशोधन नहीं मिला ।" मेरे उपर्युक्त लेखन का तात्पर्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है किन्तु मूलग्रन्थों के साथ ऐसी छेड़-छाड़ करने के लिए श्वेताम्बर, दिगम्बर, यापनीय- सभी समानरूप से दोषी हैं। जहाँ श्वेताम्बरों ने अपने ही पूर्व अविभक्त परम्परा के आगमों से ऐसी छेड़-छाड़ की, वहाँ यापनीयों ने श्वेताम्बर मान्य आगमों और आगमिक व्याख्याओं से और दिगम्बरों ने यापनीय परम्परा के ग्रन्थों से ऐसी ही छेड़-छाड़ की । निष्कर्ष यह है कि इस प्रकार की छेड़-छाड़ प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक होती रही है। कोई भी परम्परा इस सन्दर्भ में पूर्ण निर्दोष नहीं कहीं जा सकती । अत: किसी भी परम्परा का अध्ययन करते समय यह आवश्यक है कि हम उन प्रक्षिप्त अथवा परिवर्धित अंशों पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें, क्योंकि इस छेड़-छाड़ में कहीं कुछ ऐसा अवश्य रह जाता है, जिससे यथार्थता को समझा जा सकता हैं । परिवर्धनों और परिवर्तनों के बावजूद भी श्वेताम्बर आगमों की एक विशेषता है, वह यह कि वे सब बातें भी जिनका उनकी परम्परा से स्पष्ट विरोध है, उनमें यथावत् रूप से सुरक्षित हैं। यही Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श कारण है कि श्वेताम्बर आगम जैन धर्म के प्राचीन स्वरूप की जानकारी देने में आज भी पूर्णतया सक्षम हैं । आवश्यकता है निष्पक्ष भाव से उनके अध्ययन की । क्योंकि उनमें बहुत कुछ ऐसा मिल जाता है, जिसमें जैनधर्म के विकास और उसमें आये परिवर्तनों को समझा जा सकता है। यही बात किसी सीमा तक यापनीय और दिगम्बर ग्रन्थों के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है, यद्यपि श्वेताम्बर साहित्य की अपेक्षा वह अल्प ही है । प्रक्षेप और परिष्कार के बाद भी समग्र जैन साहित्य में बहुत कुछ ऐसा है, जो सत्य को प्रस्तुत करता है, किन्तु शर्त यही है कि उसका अध्ययन ऐतिहासिक और सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि से हो, तभी हम सत्य को समझ सकेंगे । आगमों के विच्छेद की अवधारणा . आगम के विच्छेद की यह अवधारणा जैनधर्म के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों ही में उल्लिखित हैं । दिगम्बर परम्परा में आगमों के विच्छेद की यह अवधारणा तिलोयपण्णत्ति, षट्खण्डागम की धवला टीका, हरिवंशपुराण, आदिपुराण आदि में मिलती है । इन सब ग्रन्थों में तिलोयपण्णत्ति अपेक्षाकृत प्राचीन है । तिलोयपण्णत्ति का रचनाकाल विद्वानों ने ईसा की छठीसातवीं शती के लगभग माना है । इसके पश्चात् षट्खण्डागम की धवला टीका, हरिवंशपुराण, आदिपुराण आदि ग्रन्थ आते हैं जो लगभग ई.की नवीं शती की रचनाएँ हैं । हरिवंशपुराण में आगमविच्छेद की चर्चा को कुछ विद्वानों ने प्रक्षिप्त माना है क्योंकि वह यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है और यापनीयों में नवमी-दसवीं शताब्दी तक आगमों के अध्ययन और उन पर टीका लिखने की परम्परा जीवित रही है । सम्भव यह भी है कि जिस प्रकार श्वेताम्बरों में आगमों के विच्छेद की चर्चा होते हुए भी आगमों की परम्परा जीवित रही उसी प्रकार यापनीयों में भी श्रुत विच्छेद की परम्परा का उल्लेख होते हए भी श्रत के अध्ययन एवं उन पर टीका आदि के लेखन की परम्परा जीवित रही है । पुन: हरिवंशपुराण में भी मात्र पूर्व एवं अंग ग्रन्थ के विच्छेद की चर्चा है शेष ग्रन्थ तो थे ही। इन ग्रन्थों के अनुसार भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् गौतम, सुधर्मा (लोहार्य) और जम्बू ये तीन आचार्य केवली हुए, इन तीनों का सम्मिलित काल ६२ वर्ष माना गया है । तत्पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच आचार्य चतुर्दश पूर्वो के धारक श्रुतकेवली हुए । इन पाँच आचार्यो का सम्मिलित काल १०० वर्ष है । इस प्रकार भद्रबाहु के काल तक अंग और पूर्व की परम्परा अविच्छिन्न बनी रही । उसके बाद प्रथम पूर्व साहित्य का विच्छेद प्रारम्भ हुआ । भद्रबाहु के पश्चात् विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल, धर्मसेन और गंगदेव- ये ग्यारह आचार्य दस पूर्वो के धारक हुए । इनका सम्मिलित काल १८३ वर्ष माना गया है । इस प्रकार वीरनिर्वाण के पश्चात् ३४५ वर्ष तक पूर्वधरों का अस्तित्व रहा। इसके बाद पूर्वधरों के विच्छेद के साथ ही पूर्व ज्ञान का विच्छेद हो गया । इनके पश्चात् नक्षत्र, यशपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस- ये पाँच आचार्य एकादश अंगों के ज्ञाता हुए । इनका सम्मिलित Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श काल २२० वर्ष माना गया । इस प्रकार भगवान् महावीर निर्वाण के ५६५ वर्ष पश्चात् आचारांग को छोड़कर शेष अंगों का भी विच्छेद हो गया। इनके बाद सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्यये चार आचार्य आचारांग के धारक हुए । इनका काल ११८ वर्ष रहा । इस प्रकार वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के पूर्णज्ञाता आचार्यो की परम्परा समाप्त हो गई । इनके बाद आचार्य धरसेन तक अंग और पूर्व के एकदेश ज्ञाता (आंशिकज्ञाता) आचार्यों की परम्परा चली । उसके बाद पूर्व और अंग साहित्य का विच्छेद हो गया । मात्र अंग और पूर्व के आधार पर उनके एकदेश ज्ञाता आचार्यों द्वारा निर्मित ग्रन्थ ही शेष रहे । अंग और पूर्वधरों की यह सूची हमने हरिवंशपुराण के आधार पर दी है । अन्य ग्रन्थों एवं श्रवण बेलगोला के कुछ अभिलेखों में भी यह सूची दी गयी है किन्तु इन सभी सूचियों में कही नामों में और कहीं क्रम में अन्तर है, जिससे इनकी प्रामाणिकता संदेहास्पद बन जाती है। किन्तु जो कुछ साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं उन्हें ही आधार बनाना होगा अन्य कोई विकल्प भी नहीं हैं। यद्यपि इन साक्ष्यों में भी एक भी साक्ष्य ऐसा नहीं है, जो सातवीं शती से पूर्व का हो । इन समस्त विवरणों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि दिगम्बर परम्परा में श्रुत विच्छेद की इस चर्चा का प्रारम्भ लगभग छठी-सातवीं शताब्दी में हुआ और उसमें अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की चर्चा हुई है । श्वेताम्बर परम्परा में पूर्व ज्ञान के विच्छेद की चर्चा तो नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में हुई है। किन्तु अंग-आगमों के विच्छेद की चर्चा मात्र 'तित्थोगालिय प्रकीर्णक के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है । तित्थोगालिय प्रकीर्णक को देखने से लगता है कि यह ग्रन्थ लगभग छठी-सातवीं शताब्दी में निर्मित हुआ है। इसका रचना काल और कुछ विषयवस्तु भी तिलोयपण्णत्ति से समरूप ही है । इस प्रकीर्णक का उल्लेख, नन्दीसूत्र की कालिक और उत्कालिक ग्रन्थों की सूची में नहीं है किन्तु व्यवहारभाष्य (१०/७०४) में इसका उल्लेख हुआ है। व्यवहारभाष्य स्पष्टत: सातवीं शताब्दी की रचना है। अन्तत: तित्थोगालिय पाँचवी शती के पश्चात् तथा सातवीं शती के पूर्व अर्थात् लगभग ईस्वी सन् की छठी शताब्दी में निर्मित हुआ होगा । यही काल तिलोयपण्णत्ति का भी है। इन दोनों ग्रन्थों में ही सर्वप्रथम श्रुत के विच्छेद की चर्चा है । तित्थोगालिय में तीर्थकरों की माताओं के चौदह स्वप्न, स्त्री-मुक्ति तथा दस आश्चर्यों का उल्लेख होने से एवं नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार तथा आवश्यकनियुक्ति से इसमें अनेक गाथाएँ अवतरित किये जाने से यही सिद्ध होता है कि यह श्वेताम्बर ग्रन्थ है । श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णक रूप में इसकी आज भी मान्यता है । इस ग्रन्थ की गाथा ८०७ से ८५७ तक में न केवल पूर्वो के विच्छेद की चर्चा है अपितु अंग साहित्य के विच्छेद की भी चर्चा है । तित्थोगालिय एवं अन्य ग्रन्थों के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु हुए । आर्य भद्रबाहु का स्वर्गवास के साथ ही चर्तुदश पूर्वधरों १.तित्थोगालिय में श्रुतविच्छेद की जो बात है उस के लिये देखिये इसी ग्रंथ का आठवा परिशिष्ट । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श ४१ की परम्परा समाप्त हो गयी । इनका स्वर्गवास काल वीरनिर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् माना जाता है। इसके पश्चात् स्थूलिभद्र दसपूर्वो के अर्थ सहित और शेष चार पूर्वो के मूल मात्र के ज्ञाता हुए। यथार्थ में तो वे दस पूर्वो के ही ज्ञाता थे । तित्थोगालिय में स्थूलिभद्र को दस पूर्वधरों में प्रथम कहा गया है । उसमें अन्तिम दसपूर्वी सत्यमित्र-पाठभेद से सर्वमित्र- को बताया गया है, किन्तु उनके काल का निर्देश नहीं किया गया है। उसके बाद उस ग्रन्थ में यह उल्लेखित है कि अनुक्रम से भगवान महावीर के निर्वाण के १००० वर्ष पश्चात् वाचक वृषभ के समय में पूर्वगत् श्रुत का विच्छेद हो जायेगा । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दस पूर्वधरों के पश्चात् भी पूर्वधरों की परम्परा चलती रही है, श्वेताम्बरों में अभिन्न-अक्षर दसपूर्वधर और भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर, ऐसे दो प्रकार के वर्गो का उल्लेख है, जो सम्पूर्ण दस पूर्वो के ज्ञाता होते, वे अभिन्न- अक्षर दसपूर्वधर कहे जाते थे और जो आंशिक रूप से दस पूर्वो के ज्ञाता होते थे, उन्हें भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर कहा जाता था । इस प्रकार हम देखते हैं कि चतुर्दश पूर्वधरों के विच्छेद की इस चर्चा में दोनों परम्परा में अन्तिम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु को ही माना गया है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् और दिगम्बर परम्परा के अनुसार १६२ वर्ष पश्चात् चतुर्दश पूर्वधरों का विच्छेद हुआ । यहाँ दोनों परम्पराओं में मात्र आठ वर्षों का अन्तर है । किन्तु दस पूर्वधरों के विच्छेद के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में कोई समरूपता नहीं देखी जाती है । श्वेताम्बर परम्परानुसार आर्य सर्वमित्र और दिगम्बर परम्परा के अनुसार आर्य धर्मसेन या आर्य सिद्धार्थ अन्तिम दस पूर्वी हुए हैं । श्वेताम्बर परम्परा में आर्य सर्वमित्र को अन्तिम दस पूर्वधर कहा गया है । दिगम्बर परम्परा में भगवतीआराधना के कर्ता शिवार्य के गुरूओं के नामों में सर्वगुप्तगणि और मित्रगणि नाम आते हैं किन्तु दोनों में कोई समरूपता हो यह निर्णय करना कठिन है। दिगम्बर परम्परा में दस पूर्वधरों के पश्चात् एकदेश पूर्वधरों का उल्लेख तो हुआ है किन्तु उनकी कोई सूची उपलब्ध नहीं होती। अत: इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की तुलना कर पाना सम्भव नहीं है । पूर्व साहित्य के विच्छेद की चर्चा के पश्चात् तित्थोगालिय में अंग साहित्य के विच्छेद की चर्चा हुई है, जो निम्नानुसार है उसमें उल्लिखित है कि वीरनिर्वाण के १२५० वर्ष पश्चात् विपाकसूत्र सहित छ: अंगों का विच्छेद हो जायेगा । इसके पश्चात् वीरनिर्वाण सं.१३०० में समवायांग का, वीरनिर्वाण सं. १३५० में स्थानांग का, वीरनिर्वाण सं.१४०० में कल्प-व्यवहार का, वीरनिर्वाण सं. १५०० में आयारदशा का, वीरनिर्वाण सं. १९०० में सूत्रकृतांग का और वीरनिर्वाण सं. २००० में निशीथसूत्र का विच्छेद होगा । ज्ञातव्य है कि इसके पश्चात् लगभग अठारह हजार वर्ष तक विच्छेद की कोई चर्चा नहीं है । फिर वीरनिर्वाण सं. २०,००० में आचारांग का, वीरनिर्वाण सं. २०५०० में उत्तराध्ययन का, वीरनिर्वाण सं. २०९०० में दशवैकालिक मूल का और वीरनिर्वाण सं. २१,००० में दशवैकालिक के अर्थ का विच्छेद होगा- यह कहा गया है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श इस प्रकार हम देखते हैं कि अंग आगमों के विच्छेद की चर्चा श्वेताम्बर परम्परा में भी चली है, किन्तु इसके बावजूद भी श्वेताम्बर परम्परा ने अंग साहित्य को, चाहे आंशिक रूप से ही क्यों न हो, सुरक्षित रखने का प्रयास किया है । प्रथम तो प्रश्न यह है कि क्या विच्छेद का अर्थ तत्-तत् ग्रन्थ का सम्पूर्ण रूप से विनाश है ? मेरी दृष्टी में विच्छेद का अर्थ यह नहीं कि उस ग्रन्थ का सम्पूर्ण लोप हो गया । मेरी दृष्टि में विच्छेद का तात्पर्य उसके कुछ अंशों का विच्छेद ही मानना होगा । यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर परम्परा में भी जो अंग साहित्य आज अवशिष्ट हैं वे उस रूप में तो नहीं हैं जिस रूप से उनकी विषय-वस्तु का उल्लेख स्थानांग, समवायांग, नन्दीसूत्र आदि में हुआ है । यह सत्य है कि न केवल पूर्व साहित्य का अपितु अंग साहित्य का भी बहुत कुछ अंश विच्छिन्न हुआ है । आज आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का सातवाँ महापरिज्ञा नामक अध्याय अनुपलब्ध है । भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृद्दशा, अनुतरौपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकदशा आदि ग्रन्थों की भी बहुत कुछ सामग्री विच्छिन्न हुई है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता । क्योंकि स्थानांग में दस दशाओं की जो विषय-वस्तु वर्णित है, वह उनकी वर्तमान विषयवस्तु से मेल नहीं खाती हैं । उनमें जहाँ कुछ प्राचीन अध्ययन विलुप्त हुए हैं, वहाँ कुछ नवीन सामग्री समाविष्ट भी हुई है । अन्तिम वाचनाकार देवर्धिगणि ने स्वयं भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मुझे जो भी त्रुटित सामग्री मिली है, उसको ही मैने संकलित किया है। अतः आगम ग्रन्थों के विच्छेद की जो चर्चा है. उसका अर्थ यही लेना चाहिये कि यह श्रत-संपदा यथावत रूप में सुरक्षित नहीं रह सकी । वह आंशिक रूप से विस्मृति के गर्भ में चली गई । क्योंकि भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग एक हजार वर्ष तक यह साहित्य मौखिक रहा और मौखिक परम्परा में विस्मृति स्वाभाविक है । विच्छेद का क्रम तभी रूका जब आगमों को लिखित रूप दे दिया गया । दिगम्बर परम्परा में श्रुत-विच्छेद सम्बन्धी यह जो चर्चा है उसके विषय में यह बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि उसमें श्रुतधरों के अर्थात् श्रुत के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की चर्चा हुई है न कि श्रुत ग्रंथों के विच्छेद चर्चा हुई है। दूसरे यह कि पूर्व और अंग के इस विच्छेद की चर्चा में भी पूर्व अंगो के एकदेश ज्ञाता आचार्यों का अस्तित्व तो स्वीकार किया ही गया है। धरसेन के सम्बन्ध में भी मात्र यह कहा गया है कि वे अंग और पूर्वो के एकदेश ज्ञाता थे । इनके बाद अंग एवं पूर्व के एकदेश ज्ञाता आचार्यों की परम्परा भी समाप्त हो गयी हो, ऐसा उल्लेख हमें किसी भी दिगम्बर ग्रन्थ में नहीं मिला । यही कारण है कि पं.दलसुखभाई मालवणिया (वही, पृ.६२) आदि कुछ विद्वान इन उल्लेखों को श्रुतधरों के विच्छेद का उल्लेख मानते हैं न कि श्रुत के विच्छेद का, पुन: इस चर्चा में मात्र पूर्व और अंग साहित्य के विच्छेद की ही चर्चा हुई है। कालिक और उत्कालिक सूत्रों के अथवा छेदसूत्रों के विच्छेद की कहीं कोई चर्चा दिगम्बर परम्परा में नहीं उठी है । दुर्भाग्य यह है कि दिगम्बर विद्वानों ने श्रुतधरों के विच्छेद को ही श्रुत का विच्छेद Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श मान लिया और कालिक, उत्कालिक आदि आगमों के विच्छेद की कोई चर्चा न होने पर भी उनका विच्छेद स्वीकार कर लिया । यह सत्य है कि जब श्रुत के अध्ययन की परम्परा मौखिक हो तो श्रुतधर के विच्छेद से श्रुत का विच्छेद मानना होगा किन्तु जब श्रुत लिखित रूप में भी हो, तो श्रुतधर के विच्छेद से श्रुत का विच्छेद नहीं माना जा सकता । दूसरे मौखिक परम्परा से चले आ रहे श्रुत में विस्मृति आदि के कारण किसी अंश-विशेष के विच्छेद को पूर्ण विच्छेद मानना भी समीचीन नहीं है । विच्छेद की इस चर्चा का तात्पर्य मात्र यही है कि महावीर की यह श्रुत-सम्पदा अक्षुण्ण नहीं रह सकी और उसके कुछ अंश विलुप्त हो गये । अंत: आंशिक रूप में जिनवाणी आज भी है, इसे स्वीकार करने में किसी को कोई विप्रतिपत्ति नहीं होना चाहिये। अर्धमागधी आगमों की विषय-वस्तु सरल है अर्धमागधी आगम साहित्य की विषय-वस्तु मुख्यत: उपदेशपरक, आचारपरक एवं कथापरक है । भगवती के कुछ अंश, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, जो कि अपेक्षाकृत परवर्ती है, को छोड़कर उनमें प्राय: गहन दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चाओं का अभाव है । विषय-प्रतिपादन सरल, सहज और सामान्य व्यक्ति के लिए भी बोधगम्य है । वह मुख्यत: विवरणात्मक एवं उपदेशात्मक है । इसके विपरीत शौरसेनी आगमों में आराधना और मूलाचार को छोड़कर लगभग सभी ग्रन्थ दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चा से युक्त है। वे परिपक्व दार्शनिक विचारों के परिचायक है । गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त की वे गहराईयाँ, जो शौरसेनी आगमों में उपलब्ध है, अर्धमागधी आगमों में उनका प्राय: अभाव ही है । कुन्दकुन्द के समयसार के समान उनमें सैद्धान्तिक दृष्टि से अध्यात्मवाद के प्रतिस्थापन का भी कोई प्रयास परिलक्षित नहीं होता । यद्यपि ये सब उनकी कमी भी कही जा सकती है, किन्तु चिन्तन के विकास क्रम की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट रूप से यह फलित होता है कि अर्धमागधी आगम साहित्य प्राथमिक स्तर का होने से प्राचीन भी है और साथ ही विकसित शौरसेनी आगमों के लिए आधार भूत भी । समवायांग में जीवस्थानों के नाम से १४ गुणस्थानों का मात्र निर्देश है, जबकि षट्खण्डागम जैसा प्राचीन शौरसेनी आगम भी उनकी गम्भीरता से चर्चा करता है । मूलाचार, भगवतीआराधना, कुन्दकुन्द के ग्रन्थ और गोम्मटसार आदि सभी में गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा है । चूँकि तत्त्वार्थ में गुणस्थानों की चर्चा का एवं स्वाद्वाद-सप्तभंगी का अभाव है, अत: ये सभी रचनाएँ तत्त्वार्थ के बाद की कृतियाँ मानी जा सकती है। इसी प्रकार कषायपाहुड, षट्खण्डागम, गोम्मट्टसार आदि शौरसेनी आगम ग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त की जो गहन चर्चा है, वह भी अर्धमागधी आगम साहित्य में अनुपलब्ध है । अत: शौरसेनी आगमों की अपेक्षा अर्धमागधी आगमों की सरल, बोधगम्य एवं प्राथमिक स्तर की विवरणात्मक शैली उनकी प्राचीनता की सचक है । तथ्यों का सहज संकलन __ अर्धमागधी आगमों में तथ्यों का सहज संकलन किया गया है अत: अनेक स्थानों पर सैद्धान्तिक दृष्टि से उनमें भिन्नताएँ भी पायी जाती है । वस्तुत: ये ग्रन्थ अकृत्रिम भाव से रचे गये हैं और उन्हें उनके सम्पादन काल में भी संगतियुक्त बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। एक ओर उत्सर्ग Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श की दृष्टि से उनमें अहिंसा के सूक्ष्मता के साथ पालन करने के निर्देश है तो दूसरी ओर अपवाद की अपेक्षा से ऐसे अनेक विवरण भी है जो इस सूक्ष्म अहिंसक जीवनशैली के अनुकूल नहीं है। इसी प्रकार एक ओर उनमें मुनि की अचेलता का प्रतिपादन समर्थन किया गया है, तो दूसरी ओर वस्त्र, पात्र के साथ-साथ मुनि के उपकरणों की लम्बी सूची भी मिल जाती है । एक ओर केशलोच का विधान है तो दूसरी क्षुर-मुण्डन की अनुज्ञा भी है। उत्तराध्ययन में वेदनीय के भेदों में क्रोध वेदनीय आदि का उल्लेख है, जो कि कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थों में यहाँ तक कि स्वयं उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति नामक अध्ययन में भी अनुपलब्ध है, उक्त साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्धमागधी आगम साहित्य जैन संघ का, निष्पक्ष इतिहास प्रस्तुत करता है। तथ्यों का यथार्थ रूप में प्रस्तुतीकरण उसकी अपनी विशेषता है । वस्तुत: तथ्यात्मक विविधताओं एवं अन्तर्विरोधों के कारण अर्धमागधी आगम साहित्य के ग्रन्थों के काल क्रम का निर्धारण भी सहज हो जाता है। अर्धमागधी आगमों में जैनसंघ के इतिहास का प्रामाणिक रूप यदि हम अर्धमागधी आगमों का समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन करें, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा के आचार एवं विचार में देशकालगत परिस्थितियों के कारण कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुए इसको जानने का आधार अर्धमागधी आगम ही है, क्योंकि इन परिवर्तनों को समझने के लिए उनमें उन तथ्यों के विकास क्रम को खोजा जा सकता है । उदाहरण के रूप में जैनधर्म में साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढ़-मूल होता गया, इसकी जानकारी ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल, असितदेवल, नारायण, याज्ञवल्क्य, बाहुक आदि ऋषियों को अर्हत् ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है । उत्तराध्ययन में भी कपिल, नमि, करकण्डु, नग्गति, गर्दभाली, संजय आदि का सम्मानपूर्वक स्मरण किया गया और सूत्रकृतांग में इनमें से कुछ को आचारभेद के बावजूद भी परम्परा-सम्मत माना गया । किन्तु ज्ञाताधर्मकथा में नारद की और भगवती के पन्द्रहवें शतक में मंखली गोशाल की समालोचना भी की गई है । इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं के प्रति उदारता का भाव कैसे परिवर्तित होता गया और साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढमूल होते गये, इसका यथार्थ चित्रण उनमें उपलब्ध हो जाता है । इसी प्रकार आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, आचारचूला, दशवैकालिक, निशीथ आदि छेदसूत्र तथा उनके भाष्य और चूर्णियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार में कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुआ हैं । इसी प्रकार ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा आदि के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पार्खापत्यों का महावीर के संघ पर क्या प्रभाव पड़ा और दोनों के बीच सम्बन्धों में कैसे परिवर्तन होता गया । इसी प्रकार के अनेक प्रश्न, जिनके कारण आजका जैन समाज साम्प्रदायिक कठघरों में बन्द हैं, अर्धमागधी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन के माध्यम से सुलझाये जा सकते हैं । शौरसेनी आगमों में मात्र मूलाचार और भगवतीआराधना को, जो अपनी विषय-वस्तु के लिये अर्धमागधी आगम साहित्य के ऋणी हैं, इस कोटि में रखा जा सकता है, किन्तु शेष आगमतुल्य शौरसेनी ग्रन्थ जैनधर्म को सीमित घेरों में आबद्ध ही करते हैं । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श अर्धमागधी-आगम शौरसेनी-आगम और परवर्ती महाराष्ट्री व्याख्या साहित्य के आधार ____ अर्धमागधी-आगम और शौरसेनी आगम महाराष्ट्री आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार रहे हैं । अर्धमागधी आगमों की व्याख्या के रूप में क्रमश: नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टब्बा आदि लिखे गये हैं, ये सभी जैनधर्म एवं दर्शन के प्राचीनतम स्रोत है । यद्यपि शौरसेनी आगम और व्याख्या साहित्य में चिन्तन के विकास के साथ-साथ देश, काल और सहगामी परम्पराओं के प्रभाव से बहुत कुछ ऐसी सामग्री भी है, जो उनकी अपनी मौलिक कही जा सकती है फिर भी अर्धमागधी आगमों को उनके अनेक ग्रन्थों के मूलस्रोत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। मात्र मूलाचार में ही तीन सौ से अधिक गाथाएँ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यकनियुक्ति, जीवसमास, आतुरप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक (चन्दावेज्झय) आदि में उपलब्ध होती है । इसी प्रकार भगवतीआराधना में भी अनेक गाथायें अर्धमागधी आगम और विशेष रूप से प्रकीर्णकों (पइन्ना) से मिलती है । षट्खण्डागम और प्रज्ञापना में भी जो समानताएँ परिलक्षित होती है, उनकी विस्तृत चर्चा पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने (प्रो.ए.एन.उपाध्ये व्याख्यानमाला में ) की है। नियमसार की कुछ गाथाएँ अनुयोगद्वार एवं इतर आगमों में भी पाई जाती है, जबकि समयसार आदि कुछ ऐसे शौरसेनी आगम ग्रन्थ भी है, जिनकी मौलिक रचना का श्रेय उनके कर्ताओं को ही है । तिलोयपन्नति का प्राथमिक रूप विशेष रूप से आवश्यकनियुक्ति तथा कुछ प्रकीर्णकों के आधार पर तैयार हुआ था, यद्यपि बाद में उसमें पर्याप्त रूप से परिवर्तन और परिवर्धन किया गया है । इस प्रकार शौरसेनी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनका मूल आधार अर्धमागधी आगम साहित्य ही रहा है तथापि उनमें जो सैद्धान्तिक गहराईयाँ और विकास परिलक्षित होते हैं, वे उनके रचनाकारों की मौलिक देन हैं । अर्धमागधी आगमों का कृतत्व अज्ञात अर्धमागधी आगमों में प्रज्ञापना, दशवैकालिक और छेदसूत्रों के कृतत्व छोड़कर शेष के रचनाकारों के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं होती है । यद्यपि दशवैकालिक आर्य शयम्भवसूरि की, तीन छेदसूत्र आर्यभद्रबाहु की और प्रज्ञापना श्यामाचार्य की कृति मानी जाती है, महानिशीथ का उसकी दीमकों से भक्षित प्रति के आधार पर आचार्य हरिभद्र ने समुद्धार किया था, यह स्वयं उसी में उल्लेखित है, तथापि अन्य आगमों के कर्ताओं के बारे में हम अन्धकार में ही हैं । सम्भवत: उसका मूल कारण यह रहा होगा कि सामान्यजन में इस बात का पूर्ण विश्वास बना रहे कि अर्धमागधी आगम गणधरों अथवा पूर्वधरों की कृति है, इसलिये कर्ताओं ने अपने नाम का उल्लेख नहीं किया। यह वैसे ही स्थिति है जैसी हिन्दू पुराणों के कर्ता के रूप में केवल वेद व्यास को जाना जाता है । यद्यपि वे अनेक आचार्यो की और पर्याप्त परवर्तीकाल की रचनाएँ हैं। इसके विपरीत शौरसेनी आगमों की मुख्य विशेषता यह हैं कि उनमें सभी ग्रन्थों का कृतत्व सुनिश्चित है । यद्यपि उनमें भी कुछ परिवर्तन और प्रक्षेप परवर्ती आचार्यों ने किये हैं। फिर भी इस सम्बन्ध में उनकी स्थिति अर्धमागधी आगम की अपेक्षा काफी स्पष्ट है । अर्धमागधी आगमों में तो Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श यहाँ तक भी हुआ है कि कुछ विलुप्त कृतियों के स्थान पर पर्याप्त परवर्ती काल में दूसरी कृति ही रख दी गई । इस सम्बन्ध में प्रश्नव्याकरण की सम्पूर्ण विषय-वस्तु के परिवर्तन की चर्चा पूर्व में ही की जा चुकी है । अभी-अभी अंगचूलिया और बंगचूलिया नामक दो विलुप्त आगमों का पता चला, ये भोगीलाल लेहरचन्द भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर में उपलब्ध हैं, जब इनका अध्ययन किया गया तो पता चला कि वे लोकशाह के पश्चात् अर्थात् सोलहवीं या सत्रहवीं शताब्दी में किसी अज्ञात आचार्य ने बनाकर रख दिये हैं । यद्यपि इससे यह निष्कर्ष भी नहीं निकाल लेना चाहिए कि यह स्थिति सभी अर्धमागधी आगमों की है। सत्य तो यह है कि उनके प्रक्षेपों और परिवर्तनों को आसानी से पहचाना जा सकता हैं, जबकि शौरसेनी आगमों में हुए प्रक्षेपों को जानना जटिल है ।। आगमों की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में जिस अतिशयता की चर्चा परवर्ती आचार्यों ने की है, वह उनके कथन की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह उपस्थित करती है। हमारी श्रद्धा और विश्वास चाहे कुछ भी हो किन्तु तर्क, बुद्धि और गवेषणात्मक दृष्टि से तो ऐसा प्रतीत होता है कि आगम साहित्य की विषय-वस्तु को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया । यह कहना कि आचारांग के आगे प्रत्येक अंग ग्रन्थ की श्लोक संख्या एक दूसरे से क्रमश: द्विगुणित रही थी अथवा १४ वें पूर्व की विषयवस्तु इतनी थी कि उसे चौदह हाथियों के बराबर स्याही से लिखा जा सकता था, विश्वास की वस्तु हो सकती हैं, किन्तु बुद्धिगम्य नहीं है। अन्त में विद्वानों से मेरी यह अपेक्षा है कि वे आगमों और विशेष रूप से अर्धमागधी आगमों का अध्ययन श्वेताम्बर, दिगम्बर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी या तेरापंथी दृष्टि से न करें अपितु इन साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से ऊपर उठकर करें, तभी हम उनके माध्यम से जैनधर्म के प्राचीन स्वरूप का यथार्थ दर्शन कर सकेगें और प्रामाणिक रूप से यह भी समझ सकेगें कि कालक्रम में उनमें कैसे और क्या परिवर्तन हुए हैं । आज आवश्यकता है पं.बेचरदासजी जैसी निष्पक्ष एवं तटस्थ बुद्धि से उनके अध्ययन की । अन्यथा दिगम्बर को उसमें वस्त्रसम्बन्धी उल्लेख प्रक्षेप लगेंगे, तो श्वेताम्बर सारे वस्त्रपात्र के उल्लेखों को महावीरकालीन मानने लगेगा और दोनों ही यह नहीं समझ सकेंगे कि वस्त्र-पात्र का क्रमिक विकास किन परिस्थितियों और कैसे हुआ है ? इस सम्बन्ध में नियुक्ति भाष्य, चूर्णि और टीका का अध्ययन आवश्यक है क्योंकि ये इनके अध्ययन की कुंजिया हैं । शौरसेनी और अर्धमागधी आगमों का तुलनात्मक अध्ययन भी उनमें निहित सत्य को यथार्थ रूप से आलोकित कर सकेगा । आशा है युवा-विद्वान् मेरी इस प्रार्थना पर ध्यान देगें । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર આ.ભ.શ્રીઅભયદેવસૂરિજી મ.ના જીવનચરિત્રની વાત આવે ત્યારે તેમના ગુરૂ જિનેશ્વરસૂરિ તથા બુદ્ધિસાગરસૂરિની વાત પણ આવે જ. અને તેમના ગુરૂ વર્ધમાનસૂરિની વાત પણ આવે જ. આ. જિનેશ્વરસૂરિવિરચિત કથાકોષપ્રકરણની પ્રસ્તાવનામાં તેના સંપાદક શ્રી જિનવિજયજીએ હિંદી ભાષામાં શ્રી જિનેશ્વરસૂરિના સંબંધમાં (પૃ.૧ થી ૧૨૪) ઘણા જ ઘણા વિસ્તારથી વર્ણન કરેલું છે. જિજ્ઞાસુઓએ ત્યાં જ જોઈ લેવું. બીજું પ્રાચીન વર્ણન વિક્રમસંવત્ ૧૩૩૪ માં રચિત પ્રભાવક ચરિતમાં પ્રભાચંદ્રસૂરિએ કરેલું છે. આ ઉપરાંત પુરાતનપ્રબંધમાં પણ વર્ણન આવે છે. અહીં અમે પ્રભાવક ચરિત્રનો પાઠ સંપૂર્ણ આપીએ છીએ. પ્રભાવકચરિત્રનું સર્વપ્રથમ પ્રકાશન ઈ.સ.૧૯૦૯ (વિ.સં.૧૯૬૫)માં નિર્ણયસાગર પ્રેસમુંબઈથી થયું હતું. પરંતુ તેમાં અશુદ્ધપાઠો અનેક-અનેક હતા. તેના ઉપરથી જૈન આત્માનંદ સભા- ભાવનગર તરફથી વિ.સં.૧૯૮૭માં આનો ગુજરાતી અનુવાદ પ્રકાશિત થયો હતો. આ અનુવાદ સાથે પ.કલ્યાણવિજયજી મહારાજે લખેલું પ્રબંધ પર્યાલોચન પણ પ્રકાશિત થયું હતું. તે પછી ઈ.સ.૧૯૪૦માં શ્રી જિનવિજયજીએ સંશોધિત કરેલું પ્રભાવક ચરિત્ર સિંઘી જૈન ગ્રંથમાલામાં ભારતીય વિદ્યાભવન મુંબઈ તરફથી પ્રકાશિત થયું છે. આના આધારે આ.મ.શ્રી મુનિચંદ્રસૂરિજી આદિએ શુદ્ધ કરેલો અનુવાદ પણ અહીં આપ્યો છે. અને તે પછી પ્રસિદ્ધ ઈતિહાસવેત્તા પં. કલ્યાણવિજયજી મહારાજે લખેલું પ્રબંધ પર્યાલોચન પણ અહીં આપ્યું છે. १९. अभयदेवसूरिचरितम् । "श्रीजैनतीर्थधम्मिलोऽभयदेवः प्रभुः श्रिये । भूयात् सौमनसोद्भेदभास्वरः सर्वमौलिभूः ॥१॥ आदृत्याष्टाङ्गयोगं यः स्वाङ्गमुद्धृत्य च प्रभुः । श्रुतस्य च नवाङ्गानां प्रकाशी स श्रिये द्विधा ।।२।। वदन् बालो यथा व्यक्तं मातापित्रोः प्रमोदकृत् । तद्वृत्तमिह वक्ष्यामि गुरुहर्षकृते यथा ॥३॥ अस्ति श्रीमालवो देशः सद्वृत्तरसशालितः । जम्बूद्वीपाख्यमाकन्दफलं सद्वर्णवृत्तसूः ॥४॥ तत्रास्ति नगरी धारा मण्डलामोदितस्थितिः । मूलं नृपश्रियो दुष्टविग्रहद्रोहशालिनी ॥५॥ श्रीभोजराजस्तत्रासीद्भूपालः पालितावनिः । शेषस्येवापरे मूर्ती विश्वोद्धाराय यद्भुजौ ॥६॥ ૧. આ ગ્રંથ મુંબઈના ભારતીય વિદ્યાભવન- સિંઘી જૈન શાસ્ત્ર વિદ્યાપીઠ તરફથી સિઘી જૈન ગ્રંથમાલામાં ઈ.સ.૧૯૪૯ માં પ્રકાશિત થયો છે. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર तत्र लक्ष्मीपति म व्यवहारी महाधनः । यस्य श्रिया जितः श्रीदः कैलासाद्रिमशिश्रयत् ॥७॥ अन्यदा मध्यदेशीयकृष्णब्राह्मणनन्दनौ । प्रह्वप्रज्ञाबलाक्रान्तवेदविद्याविशारदौ ॥८॥ अधीतपूर्विणौ सर्वान् विद्यास्थानांश्चतुर्दश । स्मृत्यैतिह्यपुराणानां कुलकेतनतां गतौ ॥९॥ श्रीधरः श्रीपतिश्चेतिनामानौ यौवनोद्यमात् । देशान्तरदिदृक्षायै निर्गतौ तत्र चागतौ॥१०॥ त्रिभिर्विशेषकम्। तौ पवित्रयतः स्मात्र लक्ष्मीधरगृहाङ्गणम् । सोऽपि भिक्षां ददौ भक्त्या तदाकृतिवशीकृतः ॥११॥ गेहाभिमुखभित्तौ च लिख्यते स्मास्य लेखकम् । टंकविंशतिलक्षाणां नित्यं ददृशतुश्च तौ ॥१२॥ सदा दर्शनतः प्रज्ञाबलादप्यतिसंकुलम् । तत् परिस्फुरितं सम्यक् सदाभ्यस्तमिवानयोः ॥१३॥ जनो मत्पार्श्वतः सूपकारवत्सूपकारवान् । वर्त्तते निष्ठुरः किंतु मम किंचिन्न यच्छति ॥१४॥ ब्राह्मणा अपि गीर्वाणान् मन्मुखादाहुतिप्रदाः । तर्पयन्तु फलं तु स्यात्तत्कर्मकरतैव मे ॥१५॥ इतीव कुपितो वह्निरहैकेनापि भस्मसात् । विदधे तां पुरीमूरीकृतप्रतिकृतक्रियः ॥१६॥ त्रिभिर्विशेषकम्। लक्ष्मीपतिर्द्वितीयेऽह्नि न्यस्तहस्तः कपोलयोः । सर्वस्वनाशतः खिन्नो लेख्यदाहाद्विशेषतः ॥१७|| प्राप्ते काले गतौ भिक्षाकृते तस्य गृहाङ्गणे । प्राप्तौ प्लुष्टं च तद् दृष्ट्वा विषण्णाविदमूचतुः ॥१८॥ यजमान तवोनिद्रकष्टेनाऽऽवां सुदुःखितौ । किं कुर्वहे क्षुधा किंतु सर्वदुःखातिशायिनी ॥१९॥ पुनरीदृक्शुचाक्रान्तसत्त्ववृत्तिर्भवान् किमु । धीराः सत्त्वं न मुञ्चन्ति व्यसनेषु भवादृशाः ॥२०॥ इत्याकर्ण्य तयोर्वाक्यमाह श्रेष्ठी निशम्यताम् । न मे धनान्नवस्त्रादिदाहाद् दुःखं हि तादृशम् ॥२१॥ यादृग्लेख्यकनाशेन निर्धर्मेण जनेन यत् । कलहः संभवी धर्महानिकृत् क्रियते हि किम् ॥२२॥ युग्मम्। जजल्पतुश्च तानावां भिक्षावृत्ती तवापरम् । शक्नुवो नोपकर्तुं हि व्याख्यावो लेख्यकं पुनः ॥२३।। श्रुत्वातिहर्षभूः श्रेष्ठी स्वपुरस्तौ वरासने । न्यवेशयज्जनः स्वार्थपूरकं ध्रुवमर्हति ॥२४॥ तौ चादितः समारभ्यतिथिवारर्भसंगतम् । व्यक्तवत्सरमासाङ्कसहितं खटिनीदलैः ॥२५।। वर्णजात्यभिधामूलद्रव्यसंख्यानवृद्धिभृत् । आख्यातं लेख्यकं स्वाख्याख्यानवद्धिषणाबलात् ॥२६॥ पत्रकेषु लिखित्वा तत् श्रेष्ठी दध्यावहो इमौ । मम गोत्रसुरौ कौचित् प्राप्तौ मदनुकम्पया ॥२७|| यद्विशोपकमात्रेण वदन्तौ तावविस्मृतम् । दस्तरी-संपुटी-पत्रनिरपेक्षं हि लेख्यकम् ॥२८॥ युग्मम्। ततः सन्मान्य सद्भोज्यवस्त्राद्यैर्बहुमानतः । स्वगेहचिन्तकौ तेन विहितौ हितवेदिना ॥२९।। जितेन्द्रियौ स तौ शान्तौ दृष्ट्वेति व्यमृशद्धनी। शिष्यौ मद्गुरुपाद्येऽमू स्तां चेत् तत्संघभूषणौ ॥३०॥ इतः सपादलक्षेऽस्ति नाम्ना कूर्चपुरं पुरम् । मषीकूर्चकमाधातुं यदलं शात्रवानने ॥३१॥ अल्लभूपालपौत्रोऽस्ति प्राक्पोत्रीवधराधरः । श्रीमान् भुवनपालाख्यो विख्यातः सान्वयाभिधः ॥३२॥ तत्रासीत् प्रशमश्रीभिर्वर्द्धमानगुणोदधिः । श्रीवर्धमान इत्याख्यः सूरिः संसारपारभूः ॥३३।। चतुर्भिरधिकाशीतिश्चैत्यानां येन तत्यजे । सिद्धान्ताभ्यासतः सत्यतत्त्वं विज्ञाय संसृतेः ॥३४।। अन्यदा विहरन् धारापुर्यां धाराधरोपमः । आगाद्वाग्ब्रह्मधाराभिर्जनमुज्जीवयन्नयम् ॥३५।। लक्ष्मीपतिस्तदाकर्ण्य श्रद्धालक्ष्मीपतिस्ततः । ययौ प्रद्युम्नशाम्बाभ्यामिव ताभ्यां गुरोर्नतौ ॥३६।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર सर्वाभिगमपूर्वं स प्रणम्योपाविशत् प्रभुम् । तौ विधाय निविष्टौ च करसंपुटयोजनम् ॥३७॥ वर्यलक्षणवर्यां च दध्यौ वीक्ष्य तनुं तयोः । गुरुराहाऽनयोर्मूर्तिः सम्यक् स्वपरजित्वरी ॥३८॥ तौ च प्राग्भवसंबद्धाविवानिमिषलोचनौ । वीक्षमाणौ गुरोरास्यं व्रतयोग्यौ च तैर्मतौ ॥३९॥ देशनाभांशुभिर्ध्वस्ततामसौ बोधरङ्गिणौ । लक्ष्मीपत्यनुमत्या च दीक्षितौ शिक्षितौ तथा॥४०॥ महाव्रतभरोद्धारधुरीणौ तपसां निधी । अध्यापितौ च सिद्धान्तं योगोद्वहनपूर्वकम् ॥४१॥ ज्ञात्वौचित्यं च सूरित्वे स्थापितौ गुरुभिश्च तौ । शुद्धवासो हि सौरभ्यवासं समनुगच्छति ॥४२॥ जिनेश्वरस्ततः सूरिरपरो बुद्धिसागरः । नामभ्यां विश्रुतौ पूज्यैर्विहारेऽनुमतौ तदा ॥४३॥ ददे शिक्षेति तैः श्रीमत्पत्तने चैत्यसूरिभिः । विघ्नं सुविहितानां स्यात्तत्रावस्थानवारणात् ॥४४॥ युवाभ्यामपनेतव्यं शक्त्या बुद्ध्या च तत् किल । यदिदानींतने काले नास्ति प्राज्ञो भवत्समः।।४५।।युग्मम्। अनुशास्तिं प्रतीच्छाव इत्युक्त्वा गुर्जरावनौ । विहरन्तौ शनैः श्रीमत्पत्तनं प्रापतुर्मुदा ॥४६॥ सद्गीतार्थपरीवारौ तत्र भ्रान्तौ गृहे गृहे । विशुद्धोपाश्रयालाभाद् वाचां सस्मरतुर्गुरोः ॥४७।। श्रीमान् दुर्लभराजाख्यस्तत्र चासीद्विशांपतिः । गी:पतेरप्युपाध्यायो नीतिविक्रमशिक्षणे ॥४८।। श्रीसोमेश्वरदेवाख्यस्तत्र चासीत् पुरोहितः । तद्गेहे जग्मतुर्युग्मरूपौ सूर्यसुताविव ॥४९।। तद्द्वारे चक्रतुर्वेदोच्चारं संकेतसंयुतम् । तीर्थं सत्यापयन्तौ च ब्राह्यं पित्र्यं च दैवतम् ॥५०॥ चतुर्वेदीरहस्यानि सारणीशुद्धिपूर्वकम् । व्याकुर्वन्तौ स शुश्राव देवतावसरे ततः ॥५१।। तद्ध्वानध्याननिर्मग्नचेताः स्तम्भितवत्तदा । समग्रेन्द्रियचैतन्यं श्रुत्योरेव स नीतवान् ॥५२॥ ततो भक्त्या निजं बन्धुमाप्याय वचनामृतैः । आह्वानाय तयोः प्रेषीत् प्रेक्षापेक्षी द्विजेश्वरः ॥५३॥ तौ च दृष्ट्वान्तरायातौ दध्यावम्भोजभूः किमु । द्विधाभूयाऽद आदत्त दर्शनं शस्यदर्शनम् ॥५५॥ हित्वा भद्रासनादीनि तद्दत्तान्यासनानि तौ । समुपाविशतां शुद्धस्वकम्बलनिषद्ययोः ॥५५।। वेदोपनिषदां जैनतत्त्वश्रुतगिरां तथा । वाग्भिः साम्यं प्रकाश्यैतावभ्यधत्तां तदाशिषम् ॥५६।। तथाहि- अपाणिपादो ह्यमनो (जवनो) ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः । स वेत्ति विश्वं नहि तस्यास्ति वेत्ता शिवो ह्यरूपी स जिनोऽवताद् वः ॥५७।। ऊचतुश्चानयोः सम्यगवगम्यार्थसंग्रहम् । दययाभ्यधिकं जैनं तत्राऽऽवामाद्रियावहि ॥५८।। युवामवस्थितौ कुत्रेत्युक्ते तेनोचतुश्च तौ । न कुत्रापि स्थितिश्चैत्यवासिभ्यो लभ्यते यतः ॥५९।। चन्द्रशालां निजां चन्द्रज्योत्स्नानिर्मलमानसः । स तयोरार्पयत्तत्र तस्थतुः सपरिच्छदौ ॥६०॥ द्विचत्वारिंशता भिक्षादोषैर्मुक्तमलोलुपौ । नवकोटिविशुद्धं चायातं भैक्षमभुञ्जताम् ॥६१।। मध्याह्ने याज्ञिकस्मार्त्तदीक्षितानग्निहोत्रिणः । आहूय दर्शितौ तत्र नियूंढौ तत्परीक्षया ॥६२।। यावद्विद्याविनोदोऽयं विरिञ्चेरिव पर्षदि । वर्तते तावदाजग्मुर्नियुक्ताश्चैत्यमानुषाः ॥६३।। ऊचुश्च ते झटित्येव गम्यतां नगराद् बहिः । अस्मिन्न लभ्यते स्थातुं चैत्यबाह्यसिताम्बरैः ।६४।। पुरोधाः प्राह निर्णेयमिदं भूपसभान्तरे । इति गत्वा निजेशानामाख्यातमिह भाषितम् ॥६५।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર इत्याख्याते च तैः सर्वैः समुदायेन भूपतिः । वीक्षितः प्रातरायासीत्तत्र सौवस्तिकोऽपि सः ॥६६॥ व्याजहाराथ देवास्मद्गृहे जैनमुनी उभौ । स्वपक्षे स्थानमप्राप्नुवन्तौ संप्रापतुस्ततः ॥६७॥ मया च गुणगृह्यत्वात् स्थापितावाश्रये निजे । भट्टपुत्रा अमीभिर्मे प्रहिताश्चैत्यपक्षिभिः ॥६८॥ अत्रादिशत मे क्षणं दण्डं चात्र यथार्हतम । श्रुत्वेत्याह स्मितं कृत्वा भूपालः समदर्शनः ॥६९॥ मत्पुरे गुणिनः कस्माद् देशान्तरत आगताः । वसन्तः केन वार्यते को दोषस्तत्र दृश्यते ॥७०॥ अनुयुक्ताश्च ते चैवं प्राहुः शृणु महीपते । पुरा श्रीवनराजोऽभूच्चापोत्कटवरान्वयः ॥७१॥ स बाल्ये वर्द्धितः श्रीमद्देवचन्द्रेण सूरिणा । नागेन्द्रगच्छभूद्धारप्राग्वराहोपमास्पृशा ॥७२॥ पंचाश्रयाभिधस्थानस्थितचैत्यनिवासिना । पुरं स च निवेश्येदमत्र राज्यं ददौ नवम् ॥७३॥ वनराजविहारं च तत्रास्थापयत प्रभुः । कृतज्ञत्वादसौ तेषां गुरूणामर्हणं व्यधात् ॥७४।। व्यवस्था तत्र चाकारि संघेन नृपसाक्षिकम् । संप्रदायविभेदेन लाघवं न यथा भवेत् ॥७५॥ चैत्यगच्छयतिव्रातसंमतो वसतान्मुनिः । नगरे मुनिभिर्नात्र वस्तव्यं तदसंमतैः ॥७६।। राज्ञां व्यवस्था पूर्वेषां पाल्या पाश्चात्त्यभूमिपैः । यदादिशसि तत् कार्यं राजन्नेवं स्थिते सति ॥७७॥ राजा प्राह समाचारं प्राग्भूपानां वयं दृढम् । पालयामो गुणवतां पूजां तूल्लङ्घयेम न ॥७॥ भवादृशां सदाचारनिष्ठानामाशिषा नृपाः । एधन्ते युष्मदीयं तद्राज्यं नात्रास्ति संशयः ॥७९॥ उपरोधेन नो यूयममीषां वसनं पुरे । अनुमन्यध्वमेवं च श्रुत्वा तेऽत्र तदा दधुः ॥८॥ सौवस्तिकस्ततः प्राह स्वामिन्नेषामवस्थितौ । भूमिः काप्याश्रयस्यार्थे श्रीमुखेन प्रदीयताम् ।।८१।। तदा समाययौ तत्र शैवदर्शनवासवः । ज्ञानदेवाभिधः कूरसमुद्रबिरुदाई (र्हि)तः ॥८२।। अभ्युत्थाय समभ्यर्च्य निविष्टं निज आसने । राजा व्यजिज्ञपत् किंचिदद्य विज्ञप्यते प्रभो ॥८३।। प्राप्ता जैनर्षयस्तेषामर्पयध्वमुपाश्रयम् । इत्याकर्ण्य तपस्वीन्द्रः प्राह प्रहसिताननः ॥८४|| गुणिनामर्चनां यूयं कुरुध्वे विधुतैनसाम् । सोऽस्माकमुपदेशानां फलपाकः श्रियां निधिः ॥८५|| शिव एव जिनो बाह्यत्यागात् परपदस्थितः । दर्शनेषु विभेदो हि चिह्न मिथ्यामतेरिदम् ॥८६॥ निस्तुषव्रीहिहट्टानां मध्ये त्रिपुरुषाश्रिता । भूमिः पुरोधसा ग्राह्योपाश्रयाय यथारुचि ॥८७|| विघ्नः स्वपरपक्षेभ्यो निषेध्यः सकलो मया । द्विजस्तच्च प्रतिश्रुत्य तदाश्रयमकारयत् ॥८८॥ ततः प्रभृति संजज्ञे वसतीनां परंपरा । महद्भिः स्थापितं वृद्धिमश्नुते नात्र संशयः ॥८९॥ श्रीबुद्धिसागरः सूरिश्चक्रे व्याकरणं नवम् । सहस्राष्टकमानं तत् श्रीबुद्धिसागराभिधम् ॥९०॥ अन्यदा विहरन्तश्च श्रीजिनेश्वरसूरयः । पुनर्धारापुरीं प्रापुः सपुण्यप्राप्यदर्शनाः ॥९१।। श्रेष्ठी महीधरस्तत्र पुरुषार्थत्रयोन्नतः । मुक्त्वैकां स्वधने संख्यां यः सर्वत्र विचक्षणः ॥१२॥ तस्याभयकुमाराख्यो धनदेव्यङ्गभूरभूत् । पुत्रः सहस्रजिह्वोऽपि यद्गुणोक्तौ नहि प्रभुः ॥९३।। सपुत्रः सोऽन्यदा सूरि प्रणन्तुं सुकृती ययौ । संसारासारतामूलः श्रुतो धर्मश्चतुर्विधः ॥९४।। अथाभयकुमारोऽसौ वैराग्येण तरङ्गितः । आपप्रच्छ निजं तातं तपःश्रीसंगमोत्सुकः ॥९५।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર अनुमत्या ततस्तस्य गुरुभिः स च दीक्षितः । ग्रहणासेवनारूपशिक्षाद्वितयमग्रहीत् ॥९६।। स चावगाढसिद्धान्तः तत्त्वप्रेक्षानुमानतः । बभौ महाक्रियानिष्ठः श्रीसंघाम्भोजभास्करः ॥९७|| श्रीवर्द्धमानसूरीणामादेशात् सूरितां ददौ । श्रीजिनेश्वरसूरिश्च ततस्तस्य गुणोदधेः ॥९८।। श्रीमानभयदेवाख्यः सूरिः पूरितविष्टपः । यशोभिर्विहरन्प्राप पल्य(त्य?)पद्रपुरं शनैः ॥९९।। आयु:प्रान्ते च संन्यासमवलम्ब्य दिवः पुरीम् । अलंचक्रुर्वर्द्धमानसूरयो भूरयः क्रमात् ॥१००॥ समये तत्र दुर्भिक्षोपद्रवैर्देशदौस्थ्यतः । सिद्धान्तत्रुटिमायासीदुच्छिन्ना वृत्तयोऽस्य च ॥१०१।। ईषत्स्थितं च यत् सूत्रं प्रेक्षासुनिपुणैरपि । दुर्बोधदेश्यशब्दार्थं खिलं जज्ञे ततश्च तत् ॥१०२॥ निशीथेऽत्र प्रभुं धर्मस्थानस्थं शासनामरी । नत्वा निस्तन्द्रमाह स्माऽभयदेवं मुनीश्वरम् ॥१०३।। श्रीशीलांकः पुरा कोट्याचार्यनाम्ना प्रसिद्धिभूः । वृत्तिमेकादशाङ्ग्याः स विदधे धूतकल्मषः।।१०४।। अङ्गद्वयं विनान्येषां कालादुच्छेदमाययुः । वृत्तयस्तत्र संघानुग्रहायाऽद्य कुरूद्यमम् ॥१०५।। सूरिः प्राह ततो मातः कोऽहमल्पमतिर्जडः । श्रीसुधर्मकृतग्रन्थदर्शनेऽप्यसमर्थधीः ॥१०६।। अज्ञत्वात् क्वचिदुत्सूत्रे विवृते कल्मषार्जनम् । प्राच्यैरनन्तसंसारभ्रमिभृद्दर्शितं महत् ॥१०७॥ • अनुल्लंघ्या च ते वाणी तदादिश करोमि किम् । इतिकर्तव्यतामूढो लेभे न किञ्चिदुत्तरम् ॥१०८।। देवी प्राह मनीषीश सिद्धान्तार्थविचारणे । योग्यतां तव मत्वाऽहं कथयामि विचिन्तय ॥१०९|| यत्र संदिह्यते चेतः प्रष्टव्योऽत्र मया सदा । श्रीमान् सीमंधरस्वामी तत्र गत्वा धृतिं कुरु ॥११०॥ आरभस्व ततो ह्येतन्माऽत्र संशय्यतां त्वया । स्मृतमात्रा समायास्ये इहार्थे त्वत्पदोः शपे ॥१११।। श्रुत्वेत्यङ्गीचकाराथ कार्यं दुःकरमप्यदः । आचामाम्लानि चारब्ध ग्रन्थसंपूर्णतावधि ॥११२।। अक्लेशेनैव संपूर्णा नवाझ्या वृत्तयस्ततः । निरवाह्यत देव्या च प्रतिज्ञा या कृता पुरा ॥११३॥ महाश्रुतधरैः शोधितासु तासु चिरन्तनैः । ऊरीचक्रे तदा श्राद्धैः पुस्तकानां च लेखनम् ॥११४।। ततः शासनदेवी च विजने तान् व्यजिज्ञपत् । प्रभो मदीयद्रव्येण विधाप्या प्रथमा प्रतिः ॥११५॥ इत्युक्त्वा सा च समवसरणोपरि हैमनीम् । उत्तरीयां निजज्योतिःक्षतदृष्टिरुचिं दधौ ॥११६॥ तिरोधत्त ततो देवी यतयो गोचरादथ । आगता ददृशुः सूर्यबिम्बवत्तद् विभूषणम् ॥११७|| चित्रीयितास्ततश्चित्ते पप्रच्छुस्ते प्रभून्मुदा । ते चाचख्युरुदन्तं तं श्राद्धानाह्वाययंस्तथा ॥११८॥ आयातानां ततस्तेषां गुरवः प्रेक्षयंश्च तत् । अजानन्तश्च तन्मूल्यं श्रावकाः पत्तनं ययुः ॥११९॥ अदर्शि तैश्च सा तत्र स्थितरत्नपरीक्षिणाम् । अज्ञास्तेऽपि च तन्मूल्ये मन्त्रं विदधुरीदृशम् ॥१२०॥ अत्र श्रीभीमभूपालपुरतो मुच्यतामियम् । तद्दत्तो निःक्रयो ग्राह्यो मूल्यं निर्णीयते तु न ॥१२१॥ समुदायेन ते सर्वे पुरो राज्ञस्तदद्भुतम् । मुमुचुः किल शक्रेण प्रणयात् प्राभृतं कृतम् ॥१२२।। तदुदन्ते च विज्ञप्ते तुष्टः प्रोवाच भूपतिः । तपस्विनां विना मूल्यं न गृह्णामि प्रतिग्रहम् ॥१२३।। ते प्रोचुः श्रीमुखेनास्य यमादिशति निःक्रयम् । स एवास्तु प्रमाणं नस्ततः श्रीभीमभूपतिः ॥१२४|| द्रम्मलक्षत्रयं कोशाध्यक्षाद्दापयति स्म सः । पुस्तकान् लेखयित्वा च सूरिभ्यो ददिरेऽथ तैः ॥१२५|| Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર पत्तने ताम्रलिप्यां चाशापल्यां धवलक्कके । चतुराश्चतुरशीतिः श्रीमन्तः श्रावकास्तथा ॥१२६।। पुस्तकान्यङ्गवृत्तीनां वासनाविशदाशयाः । प्रत्येकं लेखयित्वा ते सूरीणां प्रददुर्मुदा ॥१२७॥ युग्मम्।। प्रावर्तन्त नवाङ्गानामेवं तत्कृतवृत्तयः । श्रीसुधर्मोपदिष्टेष्टतत्त्वतालककुञ्चिकाः ॥१२८॥ पुरं धवलकं प्रापुरथ संयमयात्रया । स्थानेष्वप्रतिबन्धो हि सिद्धान्तोपास्तिलक्षणम् ॥१२९।। आचामाम्लतपःकष्टानिशायामतिजागरात् । अत्यायासात् प्रभोर्जज्ञे रक्तदोषो दुरायतिः ॥१३०॥ अमर्षणजनास्तत्र प्रोचुरुत्सूत्रदेशनात् । वृत्तिकारस्य कुष्ठोऽभूत् कुपितैः शासनामरैः ॥१३१।। निशम्येति शुचाक्रान्तः स्वान्तः प्रेयाभिलाषुकः । निशि प्रणिदधे पन्नगेन्द्रं श्रीधरणाभिधम् ॥१३२।। लेलिहानेश्वरं लेलिहानं देहमनेहसा । अचिरेणैक्षत श्रीमान् स्वप्ने सत्त्वकषोपलः ॥१३३॥ कालरूपेण कालेन व्यालेनालीढविग्रहः । क्षीणायुरिति संन्यास एव में सांप्रतं ततः ॥१३४॥ इति ध्यायन् द्वितीयाह्नो निशि स्वप्ने स औच्यत ।। धरणेन्द्रेण रोगोऽयं मयाऽऽलिह्य हृतस्ततः ॥१३५।। युग्मम् । निशम्येति गुरुः प्राह नातिमें मृत्युभीतितः । रोगाद्वा पिशुना यत्तु कद्वदास्तद्धि दुःसहम् ।।१३६।। नागः प्राहाधृतिर्नात्र कार्या जैनप्रभावनाम् । एकामद्य विधेहि त्वं हित्वा दैन्यं जिनोद्धृतेः ॥१३७।। श्रीकान्तीनगरीसत्कधनेशश्रावकेण यत् । वारिधेरन्तरा यानपात्रेण व्रजता सता ॥१३८॥ तदधिष्ठायकसुरस्तम्भिते वहने ततः । अर्चितव्यन्तरस्योपदेशेन व्यवहारिणा ॥१३९।। तस्या भुवः समाकृष्टा प्रतिमानां त्रयी शितिः । तेषामेका च चारूपग्रामे तीर्थे प्रतिष्ठिता ॥१४०।। अन्या श्रीपत्तने चिञ्चातरोर्मूले निवेशिता । अरिष्टनेमिप्रतिमा प्रासादान्तःप्रतिष्ठिता ॥१४१।। तृतीया स्तंभनग्रामे सेटिकाटिनीतटे । तरुजाल्यन्तरे भूमिमध्ये विनिहितास्ति च ॥१४२।। तां श्रीमत्पार्श्वनाथस्याऽप्रतिमां प्रतिमामिह । प्रकटीकुरु तत्रैतन्महातीर्थं भविष्यति ॥१४३।। __षभिः कुलकम् । पुरा नागार्जुनो विद्यारससिद्धो धियां निधिः । रसमस्तम्भयद्भूम्यन्तःस्थबिम्बप्रभावतः ॥१४४।। ततः स्तंभनकाभिख्यस्तेन ग्रामो निवेशितः। तदेषा तेऽपि कीर्तिः स्याच्छाश्वती पुण्यभूषणा ॥१४५।। युग्मम् ॥ अदृष्टान्यैः सुरी वृद्धारूपा ते मार्गदर्शिका । श्वेतश्वरूपतस्तत्र क्षेत्रपालो यथाग्रतः ॥१४६॥ उक्त्वेत्यन्तर्हिते तत्र सूरयः प्रमदोद्धुराः । व्याकुर्वन्ति स्म संघस्य निशावृत्तं तदद्भुतम् ॥१४७।। ततश्च संमदोत्तालैः प्रक्रान्ता धार्मिकैस्तदा । यात्रा नवशती तत्र शकटानां चचाल च ॥१४८।। अग्रे भूत्वा प्रभुर्वृद्धा-कौलेयकपदानुगः । श्रावकानुगतोऽचालीत्तृणकण्टकिना पथा ॥१४९।। शनैस्तत्र ययुः सेटीतीरे तत्र तिरोहितौ । वृद्धा-श्वानौ ततस्तस्थुस्तत्राभिज्ञानतोऽमुतः ॥१५०॥ पप्रच्छुरग्रे गोपालान् पूज्यं किमपि भो किमु । जाल्यामत्रास्ति तेष्वेकः प्रोवाच श्रूयतां प्रभो ॥१५१॥ ग्रामे महीणलाख्यस्य मुख्यपट्टकिलस्य गौः । कृष्णाऽऽगत्य क्षरेत् क्षीरमत्र सर्वैरपि स्तनैः ॥१५२।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર : ૭ गृहे रिक्तैव सा गच्छेद् दुह्यमानाऽतिकष्टतः । मनाग मुञ्चति दुग्धं न ज्ञायतेऽत्र न कारणम् ॥१५३॥ तत्र तैर्दर्शितं क्षीरमुपविश्यास्य संनिधौ । श्रीमत्पार्श्वप्रभोः स्तोत्रं प्रोचे प्राकृतवस्तुकैः ॥१५४॥ जयतिहुयणेत्यादिवृत्तं द्वात्रिंशतं तदा । अवदन् स्तवनं तत्र नासाग्रन्यस्तदृष्टयः ॥१५५॥ बभूव प्रकटं श्रीमत्पार्श्वनाथप्रभोस्ततः । शनैरुन्निद्रतेजस्वि बिम्बं तत्प्रतिवस्तुकम् ॥१५६॥ प्रणतं सूरिभिः संघसहितैरेतदञ्जसा । गतो रोगः समग्रोऽपि कायोऽभूत् कनकप्रभः ॥१५७॥ गन्धाम्भोभिः स संस्नप्य कर्पूरादिविलेपनैः । विलिप्य चार्चितः सौमनसैः सौमनसैस्तदा ॥१५८॥ चक्रे तस्योपरिच्छाया सच्छायाप्रतिसीरया । सत्रादवारितात्तत्र संघो ग्राम्यानभोजयत् ॥१५९।। प्रासादार्थं ततश्चक्रुः श्राद्धा द्रव्यस्य मीलनम् । अक्लेशेनामिलल्लक्षं ग्राम्यैरनुमता च भूः ॥१६०॥ श्रीमल्लवादिशिष्यश्च श्राद्धरामेश्वराभिधः । महिषाख्यपुरावासः समाह्वायि धियां निधिः ॥१६॥ अनुयुक्तः स संमान्य कान्तरविचक्षणः । अथ प्रासाद आरेभे सोऽचिरात्पर्यपूर्यत ॥१६२॥ कर्माध्यक्षस्य वृत्तौ यद् द्रम्म एको दिनं प्रति । विहितो घृतकर्षश्च भुक्तौ तंडुलमानकम् ॥१६३।। विहृत्य भोजनात्तेन तेन द्रव्येण कारिता । स्वा देवकुलिका चैत्ये सा तत्राद्यापि दृश्यते ॥१६४॥ शुभे मुहूर्ते बिम्बं च पूज्यास्तत्र न्यवेशयन् । तद्रात्रौ धरणाधीशस्तेषामेतदुपादिशत् ॥१६५॥ स्तवनादमुतो गोप्यं मद्वाचा वस्तुकद्वयम् । कियतां हि विपुण्यानां प्रत्यक्षीभूयते मया ॥१६६।। तदादेशादतोऽद्यापि त्रिंशवृत्तमिता स्तुतिः । सपुण्यैः पठ्यमानात्र क्षुद्रोपद्रवनाशनी ॥१६७॥ ततः प्रभृत्यदस्तीर्थं मनोवाञ्छितपूरणम् । प्रवृत्तं रोगशोकादिदुःखदावघनाघनः ॥१६८।। अद्यापि कलशो जन्मकल्याणकमहामहे । आद्यो धवलकश्राद्धः स च स्नपयति प्रभुम् ॥१६९॥ बिम्बासनस्य पाश्चात्त्यभागेऽक्षरपरंपरा । ऐतिह्यात् श्रूयते पूर्वकथितात् प्रथिता जने ॥१७०।। नमेस्तीर्थकृतस्तीर्थे वर्षे द्विकचतुष्टये २२२२। आषाढः श्रावको गौडोऽकारयत्प्रतिमात्रयम् ॥१७१।। श्रीमान् जिनेश्वरः सूरिस्तथा श्रीबुद्धिसागरः । चिरमायुः प्रपाल्यैतौ संन्यासाद्दिवमीयतुः ॥१७२।। श्रीमानभयदेवोऽपि शासनस्य प्रभावना[म्] । पत्तने श्रीकर्णराज्ये धरणोपास्तिशोभितः ॥१७३।। विधाय योगनीरोधधिक्कृतापरवासनः । परं लोकमलंचक्रे धर्मध्यानैकधीनिधिः ॥१७४।। युग्मम् ।। वृत्तान्तोऽभयदेवसूरिसुगुरोरीदृक् सतामर्चितः, कल्याणैकनिकेतनं कलिकलाशैलाग्रवज्रप्रभः । भूयाद् दुर्धरदुर्घटोदिततमःप्रध्वंससूर्योदयः, श्रेयःश्रीनिलयो लयं दिशतु वो ब्रह्मण्यनन्तोदये ॥१७५।। श्रीचन्द्रप्रभसूरिपट्टसरसीहंसप्रभः श्रीप्रभाचन्द्रः सूरिरनेन चेतसि कृते श्रीरामलक्ष्मीभुवा । श्रीपूर्वर्षिचरित्ररोहणगिरौ प्रद्युम्नसूरीक्षितो वृत्तान्तोऽभयदेवसूरिसुगुरोः शृङ्गो ग्रहेन्दुप्रभः ॥१७६।। वरकरुणबन्धुजीवकनृतिलकनालीकरूपविजयश्च । श्रीप्रद्युम्नसुजाते सुमनश्चित्रं नवकुलश्रीः ॥१७७॥" इति विक्रमसंवत् १३३४ वर्षे प्रभाचन्द्राचार्यविरचितः अभयदेवप्रबन्धः ।। १. पूर्वं कथैषा इति पुरातनप्रबन्धसंग्रहे पाठः ।। २. प्रभावकः... ... योगनीरोधं धिकृता' इति पुरातनप्रबन्ध संग्रहे पाठः ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર વિક્રમસંવત્ ૧૩૩૪માં આચાર્યશ્રી પ્રભાચંદ્રસૂરિમહારાજે રચેલો પ્રભાવકચરિત્ર નામનો ગ્રંથ થોડી દત્તકથાઓ-કર્ણોપકર્ણ ચાલતી આવતી માહિતીઓથી મિશ્ર હશે તો પણ ઐતિહાસિક ગ્રંથ તરીકે શ્વેત મૂળ જૈન સંઘમાં એનું મહત્ત્વ ઘણું ગણાય છે. એમાં જુદા જુદા ૨૨ પ્રબંધો છે. તેમાં પૂર્વકાલીન અનેક અનેક શાસનપ્રભાવક પૂર્વાચાર્યોના જીવન આદિનું વર્ણન છે. આનો ગુજરાતી અનુવાદ ઈતિહાસવેત્તા સ્વ. પૂd પં. શ્રી કલ્યાણવિજયજી મહારાજે કરેલી અનેક ચર્ચાઓથી સમૃદ્ધ પ્રબંધાર્યાલોચન સાથે વિ. સં. ૧૯૮૭માં ભાવનગરની શ્રી જૈન આત્માનંદ સભા તરફથી પ્રકાશિત થયો હતો. આનું પુનઃ પ્રકાશન આચાર્યશ્રી મુનિચંદ્રસૂરિએ કરેલાં ટિપ્પણોમાં થોડાં વિશિષ્ટ સૂચનો સાથે આચાર્યશ્રી ઓંકારસૂરિ જ્ઞાનમંદિર સુરતથી વિક્રમ સંવ ૨૦૫૬માં થયેલું છે. તેમાંથી આ ૧૯મા અભયદેવસૂરિ પ્રબંધનો ૫૦ શ્રી કલ્યાણવિજયજી મહારાજે લખેલો અનુવાદ આપવામાં આવે છે. શ્રી જિનશાસનના અલંકારરૂપ, વિદ્વાનોને ચમત્કાર પમાડનાર તથા સર્વના મુગટ સમાન એવા શ્રી અભયદેવસૂરિ તમારા કલ્યાણ નિમિત્તે થાઓ. અષ્ટાંગયોગને આદરતાં પોતાનાં અંગનો ઉદ્ધાર કરી શ્રુતના નવ અંગને પ્રકાશિત કરનાર એવા તે સૂરિ આત્મલક્ષ્મીના હેતુ રૂપ થાઓ. માતપિતાની આગળ પ્રગટપણે બોલતાં જેમ બાલક પ્રમોદ પમાડે છે, તેમ ભારે હર્ષ પ્રગટાવવા માટે હું તે આચાર્યના ચરિત્રને કહીશ. સારી આકૃતિ અને રસથી મનોહર એવો શ્રી માલવ નામે દેશ છે કે જે જંબૂદ્વીપરૂપ સહકારના ફળ સમાન અને શ્રેષ્ઠ વર્ષોથી વિરાજિત છે. ત્યાં તલવારના બળથી ઉન્નતિને પામનાર, રાજલક્ષ્મીના મૂલરૂપ તથા દુરુજનોના નિગ્રહથી શોભતી એવી ધારા નામે નગરી છે. ત્યાં પૃથ્વીનું પાલન કરનાર ભોજ નામે રાજા હતો કે જેની ભુજાઓ વિશ્વના ઉદ્ધારને માટે જાણે શેષનાગની બીજી બે મૂર્તિ હોય તેવી શોભતી હતી. તે નગરીમાં લક્ષ્મીપતિ નામે મહાધનિક એક વ્યવહારી હતો કે જેની લક્ષ્મીથી પરાભવ પામેલ કુબેર કૈલાસ પર્વતનો આશ્રય લઈને રહ્યો. એકદા મધ્યદેશના નિવાસી, વેદવિદ્યાના વિશારદોને પોતાના પ્રજ્ઞાબળથી પરાસ્ત કરનાર, ચૌદ વિદ્યાના અભ્યાસી, સ્મૃતિ, ઇતિહાસ અને પુરાણમાં પ્રવીણ તથા યૌવનના ઉદ્યમથી દેશાંતર જોવાને માટે નીકળેલા એવા શ્રીધર અને શ્રીપતિ નામે બ્રાહ્મણો ત્યાં આવી ચડ્યા અને ફરતાં ફરતાં તે લક્ષ્મીપતિના ઘરે આવ્યા, તેમની આકૃતિથી આકર્ષાઈને વ્યવહારીએ ભક્તિથી તેમને ભિક્ષા આપી. હવે તેના ગૃહની સન્મુખ ભીંત પર વિશ લાખ ટકાનો હિસાબ લખાયેલો હતો, તે પ્રતિદિન પેલા બ્રાહ્મણો જોતા હતા. એમ નિરંતર જોવાથી પ્રજ્ઞાના બળને લીધે જાણે અભ્યાસ કરેલ હોય તેમ તેમને કંઈક સારી રીતે તે યાદ રહી ગયું. એવામાં “રસોયાની જેમ મારી પાસેથી લોકો લાભ મેળવે છે અને નિષ્ફરની જેમ મને તો કંઈ આપતા નથી. વળી બ્રાહ્મણો પણ મારી મારફતે દેવતાઓને આહૂતિ આપીને તૃપ્ત Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર ૯ કરે છે, પરંતુ મને તો તેમનું દાસત્વ જ મળે છે.” એમ જાણે કોપાયમાન થયેલ હોય તેમ તેમના પ્રતીકારનો સ્વીકાર કરીને અગ્નિએ એક જ દિવસમાં તે નગરીને ભસ્મીભૂત કરી દીધી. એટલે બીજે દિવસે સર્વસ્વનો નાશ થવાથી ખેદ પામેલ લક્ષ્મીપતિ પેલા હિસાબના દાહથી વિશેષ ચિંતાતુર થઈ લમણે હાથ દઈને બેસી રહ્યો. એવામાં અવસર થતાં તે બ્રાહ્મણો તેના ઘરે ભિક્ષા માટે આવ્યા અને તે બધું બળી ગયેલ જોઈ, વિષાદ પામતાં તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા :- “હે યજમાન ! તારા પર આવી પડેલ કષ્ટથી અમને ભારે ખેદ થાય છે, પરંતુ સર્વ દુઃખ કરતાં અધિક એવી સુધાથી અમે વ્યાકુળ છીએ, તેથી શું કરીએ ? વળી તમે આવા શોકથી સત્વહીન જેવા કેમ બની ગયા છો ? કારણ કે તમારા જેવા ધીર પુરુષો સંકટમાં પણ સત્ત્વને મૂકતા નથી.' એ પ્રમાણે તેમનું વચન સાંભળતાં શ્રેષ્ઠી કહેવા લાગ્યો કે - “હે ભૂદેવો ! સાંભળોલેખના નાશથી જેવું મને દુઃખ થાય છે, તેવું દુઃખ ધન, અન્ન કે વસ્ત્રાદિના બળી જવાથી થતું નથી કારણ કે લેખ બળી જવાથી અધર્મી જનોમાં ધર્મને હાનિ પહોંચાડનાર કલહ થવાનો સંભવ છે, પણ શું કરીએ ?' આથી તે વિપ્રો બોલ્યા- “અમે ભિક્ષાચર અન્ય કંઈ ઉપકાર કરવાને સમર્થ નથી, પરંતુ તે લેખ અમે તને કહી બતાવીએ.” એટલે ભારે હર્ષ પામતાં શ્રેષ્ઠીએ તેમને પોતાની સામે એક સારા આસન પર બેસાડ્યા. કારણ કે લોકો સ્વાર્થ પૂરનારને અવશ્ય માન આપે છે. પછી તેમણે શરુઆતથી માંડીને તિથિ, વાર, નક્ષત્ર, વરસ, માસ અને અંક. (રકમ) સહિત વર્ણ જાતિના નામ અને મૂલ દ્રવ્યની સંખ્યા તથા વ્યાજ સહિત તે લેખ બુદ્ધિબળથી પોતાના નામની જેમ ખડીથી લખી બતાવ્યો, જે પત્રો પર લખી લઈને શ્રેષ્ઠી ચિંતવવા લાગ્યો કે – “અહો ! મારી દયા લાવીને આ મારા કોઈ ગોત્રદેવો આવ્યા છે કે શું ? કે જેમણે સ્કૂલના વિના બરાબર અનુક્રમથી પત્રની અપેક્ષા ન રાખતાં પોતાના બુદ્ધિબળથી સમસ્ત લેખ મને કહી સંભળાવ્યો.” પછી હિતને જાણનાર શ્રેષ્ઠીએ ભોજન વસ્ત્રાદિ અને બહુમાનથી તેમનો અત્યંત સત્કાર કરીને તેમને પોતાના ઘરના ચિંતા કરનાર બનાવ્યા. પછી ત્યાં રહેતાં તેમને શાંત અને જિતેંદ્રિય સમજીને તે વ્યવહારી વિચારવા લાગ્યો કે - “જો એ મારા ગુરુના શિષ્યો થાય, તો શ્રીસંઘના ભૂષણરૂપ બને.” હવે સપાદલક્ષ નામે દેશમાં કુચ્ચેપુર (કચેરા) નામે નગર છે કે જે શત્રુઓના મુખ ઉપર મસીનો કુચડો દેવાને સમર્થ છે. ત્યાં અલ્લ રાજાનો પુત્ર, અન્વયયુક્ત નામધારી ભુવનપાલ નામે રાજા રાજ્ય કરતો હતો. ત્યાં પ્રશમલક્ષ્મીથી ગુણોને વૃદ્ધિ પમાડનાર તથા સંસારથી પાર ઉતારનાર એવા શ્રી વર્ધ્વમાન નામે આચાર્ય હતા, કે જેમણે સિદ્ધાતના અભ્યાસથી સંસારનું સત્ય સ્વરૂપ સમજીને ચોરાશી ચૈત્યોનો ત્યાગ કર્યો હતો. એકદા વિહાર કરતા વચનરૂપ ધારાથી ભવ્યજનોને નવ જીવન આપતા મેઘ સમાન એવા તે આચાર્ય ધારાનગરીમાં પધાર્યા. તેમને Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર પધારેલ સાંભળતાં લક્ષ્મીના સ્વામી એવો લક્ષ્મીપતિશેઠ પ્રદ્યુમ્ન અને શાબની સાથે લક્ષ્મીપતિ (કૃષ્ણ) ની જેમ તે બંને બ્રાહ્મણોને લઈને ગુરુ મહારાજને વંદન કરવા ગયો. ત્યાં સર્વ અભિગમપૂર્વક આચાર્યને પ્રણામ કરી શ્રેષ્ઠી ઉચિત સ્થાને બેઠો અને તે બંને વિપ્રો પણ અંજલિ જોડીને ત્યાં બેઠા. એવામાં શ્રેષ્ઠ લક્ષણયુક્ત તેમની આકૃતિને જોઈને ગુરુ મહારાજ કહેવા લાગ્યા કે - “એમની અસાધારણ આકૃતિ સ્વ-પરને જીતનારી છે. ત્યાં જાણે પૂર્વભવના સંબંધી હોય તેમ અનિમેષ લોચનથી તે બંને ગુરુના મુખને જોઈ રહ્યા. આથી ગુરુ મહારાજે તેમને વ્રત યોગ્ય સમજી લીધા. પછી ઉપદેશના કિરણથી જેમનું અંદરનું અંધારું દૂર થયું છે અને પ્રતિબોધ પામેલા એવા તે બન્નેને લક્ષ્મીપતિ શેઠની અનુમતિથી ગુરુએ દીક્ષા આપી અને તપના નિધાન એવા તેમને યોગના વહનપૂર્વક સિદ્ધાંતનો અભ્યાસ કરાવ્યો. સિદ્ધાંતના અભ્યાસથી તેમને યોગ્ય જાણીને ગુરુએ તેમને સૂરિપદ પર સ્થાપન કર્યા. કારણ કે મધુકર સુગંધી કમળને જ અનુસરે છે. તેઓ જિનેશ્વરસૂરિ અને બુદ્ધિસાગરસૂરિ એવા નામથી પ્રસિદ્ધ થયા. એટલે ગુરુ મહારાજે તેમને વિહારને માટે અનુજ્ઞા આપી, અને શિક્ષા આપતાં જણાવ્યું કે “શ્રીપત્તન (પાટણ) માં ચૈત્યવાસી આચાર્યો સુવિહિત સાધુઓને ત્યાં રહેવા ન દેતાં વિઘ્ન કરે છે. શક્તિ અને બુદ્ધિથી તમારે તેનું નિવારણ કરવું. કારણ કે આ કાળમાં તમારા સમાન કોઈ પ્રાજ્ઞ નથી.” એટલે “આપની આજ્ઞા અમને પ્રમાણ છે.” એમ કહીને તેમણે ગુર્જરભૂમિ તરફ વિહાર કર્યો, અને હળવે હળવે આનંદપૂર્વક તેઓ પાટણમાં પહોંચ્યા. ત્યાં સારા ગીતાર્થના પરિવાર બો ઘરે ઘરે ભમવા લાગ્યા પણ શુદ્ધ ઉપાશ્રય ન મળ્યો, એવામાં પોતાના ગુરુનું વચન તેમને યાદ આવ્યું. હવે ત્યાં શ્રીમાન દુર્લભરાજ નામે રાજા હતો કે જે નીતિ અને પરાક્રમના શિક્ષણથી બૃહસ્પતિનો પણ ઉપાધ્યાય થાય તેવો હતો. ત્યાં સોમેશ્વર દેવ નામે પુરોહિત હતો. અશ્વિની કુમાર જેવા તે બંને આચાર્યો તેના ઘરે ગયા. ત્યાં તેના ઘરના દ્વાર પર પિતૃ-દેવતા સંબંધી બ્રાહ્મતીર્થને સત્યપણે જાણે સ્થાપન કરતા હોય તેમ તેમણે દ્વાર પર સંકેતપૂર્વક વેદનો ઉચ્ચાર કર્યો એટલે દેવતાના અવસરે સારણીની શુદ્ધિપૂર્વક ચતુર્વેદીના રહસ્યને પ્રગટ કરતા તેઓ પુરોહિતના સાંભળવામાં આવ્યા. આથી તેમના ધ્વનિના ધ્યાનમાં જાણે સ્તંભાઈ ગયેલ હોય તેમ એકાગ્ર મનથી તેણે સમગ્ર ઇંદ્રિયોના બળને પોતાના બંને કર્ણમાં સ્થાપન કરી દીધું. પછી તે વિચારશીલ પુરોહિતે અમૃત જેવા વચનથી સંતુષ્ટ કરીને ભક્તિપૂર્વક તેમને બોલાવવા માટે પોતાના બંધુને મોકલ્યો, કારણ કે તેમના વચનામૃતથી તે ભારે સંતુષ્ટ થયો હતો. એવામાં તે બંને આચાર્ય ઘરમાં આવ્યા. તેમને જોતાં પુરોહિતે વિચારવા લાગ્યો કે - “આ શું બ્રહ્મા પોતે પોતાનાં બે રૂપ કરીને મને દર્શન દેવા આવેલ છે?' એમ ધારી તેણે આપેલ ભદ્રાસનાદિકનો ત્યાગ કરીને તેઓ પોતાની શુદ્ધ કાંબળ પર બેઠા, અને વેદ ઉપનિષદ તેમજ જૈનાગમની ૧. આ સોમેશ્વર બન્ને આચાર્યનો મામો થતો હતો એવું “શાસનપ્રભાવક શ્રમણ ભગવંતો' ભા. ૨ પૃ.૨૨૭માં જણાવ્યું છે. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર ૧૧ વાણીથી સમાનતા પ્રકાશીને આશિષ આપતાં બોલ્યા કે- “હાથ, પગ અને મન વિના જે બધું ગ્રહણ કરે છે, ચક્ષુ વિના જે જુએ છે, કર્ણ વિના જે સાંભળે છે, વિશ્વને જે જાણે છે, પણ તેને કોઈ જાણી શકતું નથી એવા અરૂપી શિવ તે જ જિનેશ્વર તમારું રક્ષણ કરો.” - પછી તેમણે પુનઃ જણાવ્યું કે- “વેદ અને જૈનાગમનો અર્થ સમ્યફ પ્રકારે જાણીને અમે દયામાં અધિક એવા જૈનધર્મનો સ્વીકાર કર્યો છે. ત્યારે પુરોહિતે તેમને પ્રશ્ન કર્યો કે - “તમે નિવાસ ક્યાં કર્યો છે ?' એટલે તેમણે કહ્યું કે- “અહીં ચૈત્યવાસીઓને લીધે ક્યાંય પણ સ્થાન મળી શકતું નથી.” આથી ચાંદની સમાન નિર્મળ મનવાળા તે પુરોહિતે તેમને રહેવા માટે પોતાના મકાનનો ઉપલો ભાગ કાઢી આપ્યો. ત્યાં તેઓ પોતાના પરિવાર સહિત રહ્યા અને ભિક્ષાના બેંતાલીશ દોષ તથા ગૃદ્ધિરહિત, તેમજ નવકોટિએ શુદ્ધ લાવેલ આહારનો તેમણે ઉપયોગ કર્યો. પછી બપોરે પુરોહિતે યાજ્ઞિક, સ્માર્ટ અને દીક્ષિત અગ્નિહોત્રીઓને તેમની પાસે બોલાવ્યા, ત્યાં તેમની પરીક્ષાથી તેઓ સંતુષ્ટ થયા. એમ બ્રહ્માની સભાની જેમ વિદ્યાવિનોદ ચાલી રહ્યો છે, એવામાં ચૈત્યવાસીઓના પુરુષો ત્યાં આવી ચડ્યા. તેમણે આવીને જણાવ્યું કે - “તમે સત્વર નગરની બહાર ચાલ્યા જાઓ. કારણ કે ચૈત્યબાહ્ય શ્વેતાંબરોને અહીં સ્થાન મળતું નથી.” એમ સાંભળતાં પુરોહિત કહેવા લાગ્યો કે- “રાજસભામાં એ વાતનો નિર્ણય કરવાનો છે.” એટલે તેમણે આવીને પુરોહિતનું કથન પોતાના ઉપરીઓને નિવેદન કર્યું. આથી પ્રભાતે તેઓ બધા સાથે મળીને રાજા પાસે ગયા, તે વખતે પુરોહિત પણ ત્યાં આવ્યો, અને તેણે રાજાને જણાવ્યું કે- “હે દેવ ! બે જૈન મુનિ પોતાના પક્ષમાં સ્થાન ન પામતાં મારા ઘરે આવ્યા, એટલે ગુણગ્રાહકપણાથી મેં તેમને મારા ઘરે આશ્રય આપ્યો. એવામાં આ ચૈત્યવાસીઓએ ભટ્ટપુત્રોને મારી પાસે મોકલ્યા. માટે આ બાબતમાં મારી કંઈ ગફલત કે અનુચિતતા થઈ હોય, તો આપ મને ઉચિત દંડ કરો.' એ પ્રમાણે સાંભળી સર્વ દર્શનોમાં સમાન દૃષ્ટિ રાખનાર રાજા હસીને કહેવા લાગ્યો કે “કોઈ પણ દેશથી આવેલા ગુણીજનો મારા નગરમાં રહે, તેનો તમે શા માટે અટકાવ કરો છો ? તેમાં દોષ શો દેખાય છે ?’ એમ રાજાએ પૂછવાથી તે ચૈત્યવાસીઓ બોલ્યા કે- “હે રાજેંદ્ર ! સાંભળો પૂર્વે ધનુષ્ય સમાન ઉત્કટ અને શ્રેષ્ઠ (ચાવડા) વંશમાં વનરાજ નામે રાજા થયો. તેને બાલ્યાવસ્થામાં નાગૅદ્ર ગચ્છરૂપ પૃથ્વીનો ઉદ્ધાર કરવામાં વરાહ સમાન એવા શ્રી દેવચંદ્રસૂરિએ ઉછેરીને મોટો કર્યો. વળી પંચાશ્રય નામના સ્થાનમાં રહેલ ચૈત્યમાં વસતાં તેમણે અહીં નવું નગર વસાવીને તેને રાજ્ય આપ્યું, તેમજ વનરાજવિહાર નામે ત્યાં ચૈત્ય સ્થાપન કર્યું. વનરાજે કૃતજ્ઞપણાથી ગુરુનો ભારે આદર સત્કાર કર્યો. તે વખતે શ્રી સંઘે રાજા સમક્ષ એવી વ્યવસ્થા કરી કે- “સંપ્રદાયના ભેદથી લઘુતા ન થાય તે માટે ચૈત્યગચ્છવાસી યતિઓને Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર સંમત હોય, તે મુનિ અહીં રહી શકે. પણ તેમને સંમત ન હોય તેવા મુનિઓ આ નગરમાં આવીને રહી ન શકે. તો હે રાજન્ ! પૂર્વજ રાજાઓની વ્યવસ્થા પાશિમાત્ય રાજાઓએ માન્ય રાખવી જોઈએ. આવી સ્થિતિ છે, માટે હવે તમે આદેશ કરો તે પ્રમાણે કરીએ.” ત્યારે રાજાએ જણાવ્યું કે - “પૂર્વ રાજાઓના નિયમને અમે દૃઢતાથી પાળીએ છીએ, પરંતુ ગુણી જનોની પૂજાનું ઉલ્લંઘન અમે કરવાના નથી. તમારા જેવા સદાચારનિષ્ઠ પુરુષોની આશિષથી રાજાઓ પોતાના રાજ્યને આબાદ બનાવે છે, તેમાં કોઈ જાતનો સંશય નથી. તો અમારા ઉપરોધથી એમને નગરમાં રહેવાનું તમે કબૂલ રાખો.” એમ સાંભળતાં તેમણે રાજાનું વચન માન્ય રાખ્યું. એવામાં પુરોહિત કહેવા લાગ્યો કે – “હે સ્વામિન્ ! એમના આશ્રય માટે આપ પોતે નિવાસભૂમિ આપો.” આ વખતે જ્ઞાનદેવ નામે શૈવ દર્શનનો પૂજ્ય પુરુષ ત્યાં આવ્યો કે જે મોટા અક્ષરે ફૂરસમુદ્ર બિરૂદને ધારણ કરતો હતો. એટલે રાજાએ અભ્યત્યાનપૂર્વક સત્કાર કરીને તેને પોતાના આસન પર બેસાર્યા પછી જણાવ્યું કે - “હે પ્રભો ! આજે તમને કંઈક નિવેદન કરવાનું છે, તે એ કે જૈન મુનિઓ અહીં આવેલા છે, તેમને ઉપાશ્રય આપો. ત્યારે તે શૈવદર્શની હસતા મુખે કહેવા લાગ્યો કે – “નિષ્પાપ ગુણી જનોની તમે અવશ્ય પૂજા કરો. અમારા ઉપદેશનું એ જ ફળ છે. બાલભાવનો ત્યાગ કરી પરમ પદમાં સ્થિર થનાર શિવ એ જ જિન છે. દર્શનોમાં ભેદ રાખવો એ મિથ્યામતિનું લક્ષણ છે. નિસ્તુષ ડાંગરની દુકાનોના મધ્ય ભાગમાં રહેલ અને ત્રિપુરુષના દેવાલય પાસે આવેલી એવી ભૂમિ પુરોહિત ઈચ્છાનુસાર ઉપાશ્રયને માટે લઈ લે. તેમાં સ્વ-પર પક્ષથી થતા સમસ્ત વિપ્નનું હું નિવારણ કરીશ.” એટલે પુરોહિતે તે વાતનો સ્વીકાર કરીને ત્યાં ઉપાશ્રય કરાવ્યો. ત્યારથી વસતિ (ઉપાશ્રય) ની પરંપરા ચાલુ થઈ, કારણ કે મહાપુરુષોએ જે સ્થાપન કરેલ હોય, તે વૃદ્ધિ પામે છે, તેમાં કંઈ સંશય નથી. ત્યાં શ્રી બુદ્ધિસાગરસૂરિએ “આઠ હજાર શ્લોક પ્રમાણ બુદ્ધિસાગર નામનું નવું વ્યાકરણ રચ્યું. હવે એકદા વિહાર કરતા શ્રી જિનેશ્વરસૂરિ પુનઃ ધારા નગરીમાં પધાર્યા, કારણ કે તેવા પુરુષરત્નોનું દર્શન પુણ્યવંત જનો જ પામી શકે. ત્યાં ત્રણ પુરુષાર્થથી આબાદ એવો મહીધર નામે શ્રેષ્ઠી હતો કે જે પોતાના ધનની સંખ્યા સિવાય સર્વત્ર વિચક્ષણ હતો. ધનદેવીથી ઉત્પન્ન થયેલ અભયકુમાર નામે તે શેઠનો પુત્ર હતો કે જેના ગુણગાન કરવામાં શેષનાગ પણ સમર્થ ન હતો. તે પુણ્યવાન શ્રેષ્ઠી પોતાના પુત્ર સહિત, આચાર્ય મહારાજને વંદન કરવા ગયો. ૧. આ વ્યાકરણ અત્યારે પૂર્ણ રૂપે મળતું નથી. પરંતુ, એની પ્રશસ્તિમાં (પત્ર ૧૬૮) ગ્રંથપ્રમાણ સાત હજાર શ્લોક પ્રમાણ અને વિ.સં.૧૦૮૦માં રચના થયાનું જણાવ્યું છે. श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्रकालात् साशीतिके याति समासहस्रे । શ્રીનાવાતિપુરે તાદ્ય દૃષ્ય મા સરસદાવ૫૬ શા (‘કથાકોષ' પ્રસ્તાવના પૃ.૯) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર ત્યાં સંસારની અસારતાને જણાવનાર ચતુર્વિધ ધર્મ તેણે ગુરુના મુખથી સાંભળ્યો. ગુરુના ઉપદેશથી અભયકુમારને વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થવાથી સંયમ લેવાને ઉત્સુક થતાં તેણે પોતાના પિતાની અનુમતિ માગી. શ્રેષ્ઠીએ અનુજ્ઞા આપતાં ગુરુ મહારાજે અભયકુમારને દીક્ષા આપી. પછી તેણે ગ્રહણ અને આસેવનારૂપ બંને શિક્ષા ગ્રહણ કરી, અને સિદ્ધાંતનો અભ્યાસ તથા તેનું ચિંતવન કરતાં મહાક્રિયાનિષ્ઠ એવા તે મુનિ શ્રી સંઘરૂપ કમળને વિકાસ પમાડવામાં ભાસ્કર સમાન શોભવા લાગ્યા. એટલે શ્રી વર્ધમાનસૂરિના આદેશથી જિનેશ્વરસૂરિએ ગુણના નિધાન એવા તે મુનિને આચાર્ય પદવી આપી અને શ્રીમાન અભયદેવસૂરિ એવું તેમનું નામ રાખ્યું. પછી યશની સાથે હળવે હળવે વિહાર કરતા શ્રી અભયદેવસૂરિ પલ્યપદ્ર નગરમાં આવ્યા. ત્યાં વર્ધમાનસૂરિ આયુષ્ય સમાપ્ત થતાં અનશન લઈને સ્વર્ગે ગયા. એવામાં તે વખતે દુભિક્ષનો ઉપદ્રવ થતાં દેશની દુર્દશાને લઈને સિદ્ધાંત તથા તેની વૃત્તિનો ઉચ્છેદ થવા લાગ્યો, તેમાં જે કંઈ સૂત્ર રહ્યા, તેમાં પ્રેક્ષાનિપુણ મુનિઓને પણ શબ્દાર્થ દુર્બોધ થઈ પડ્યો. આ બધી સ્થિતિ ઉપસ્થિતિ થઈ, તેવામાં એકદા અર્ધરાત્રે ધર્મધ્યાનમાં સાવધાન અને મગ્ન રહેલા શ્રી અભયદેવ મુનીશ્વરને નમસ્કાર કરીને શાસનદેવી કહેવા લાગી કે - પૂર્વે કોટ્યાચાર્ય એવા નામથી પ્રસિદ્ધ શ્રીશીલાંક નામના નિષ્પા૫ આચાર્યે અગીયાર અંગની વૃત્તિ બનાવી છે. તેમાં કાલને લઈને બે અંગ વિના બધા વિચ્છેદ ગયા છે. માટે સંઘના અનુગ્રહથી હવે તેની વૃત્તિ રચવાનો ઉદ્યમ કરો.' ત્યારે આચાર્ય બોલ્યા - “હે માતા ! હું અલ્પમતિ જડ માત્ર છું. શ્રી સુધર્માસ્વામીએ બનાવેલ ગ્રંથો જોવાની પણ મારામાં બુદ્ધિ નથી. એવા અજ્ઞપણાથી ક્યાંય ઉત્સુત્ર કહેવાઈ જાય, તો મહાપાપ લાગે. પ્રાચીન આચાર્યોએ તેવા પાપનું ફળ અનંત સંસારનું ભ્રમણ બતાવેલ છે. વળી તમારી વાણી પણ અલંઘનીય છે. માટે આદેશ કરો, હું શું કરું ?” એમ મનની વ્યામૂઢતાથી કંઈક ઉત્તર સાંભળવાની ઈચ્છાથી તે મૌન રહ્યા. એવામાં દેવી કહેવા લાગી કે “હે સુજ્ઞ શિરોમણિ ! સિદ્ધાંતના અર્થ વિચારમાં, હું વિના ચિંતાએ કહું છું કે તારામાં યોગ્યતા છે, એમ હું માનું છું. તેમ કરતાં કદાચ સંદેહ પડે તો મને પૂછજો, હું સીમંધર સ્વામી ભ. પાસે જઈને તે પૂછી આવીશ. માટે ધીરજ ધરીને તેનો પ્રારંભ કરો. મારા વચનમાં શંકા લાવીશ નહીં. સ્મરણ માત્રથી હું અહીં આવીને હાજર થઈશ. આ સંબંધમાં હું તમારા ચરણના શપથ લઉં છું.” એ પ્રમાણે સાંભળતાં અભયદેવસૂરિએ તે દુષ્કર કાર્યનો પણ સ્વીકાર કર્યો, અને ગ્રંથ સંપૂર્ણ ન થાય, ત્યાં સુધી આયંબિલ કરવાની પ્રતિજ્ઞા લીધી. પછી નવે અંગની વૃત્તિઓ તેમણે વિના ક્લેશે સંપૂર્ણ કરી અને દેવીએ પણ જે પૂર્વે પ્રતિજ્ઞા કરી હતી, તે પ્રમાણે તેનો નિર્વાહ કર્યો.. તે વૃત્તિઓને યુદ્ધ મહાશ્રુતધરોએ શુદ્ધ કરી, એટલે શ્રાવકોએ તે પુસ્તકોનું લેખન શરુ કરાવ્યું. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર એવામાં એક વખતે શાસનદેવીએ એકાંતમાં અભયદેવસૂરિને વિનંતિ કરી કે - “હે પ્રભો! પ્રથમ પ્રતિ મારા દ્રવ્યથી કરાવજો.” એમ કહી પોતાની જ્યોતિથી દષ્ટિ આંજી નાંખતું, ત્યાં એક સુવર્ણનું ભૂષણ સમવસરણ ઉપર મૂકીને દેવી અદશ્ય થઈ ગઈ. પછી મુનિઓ ગોચરીથી આવ્યા, એટલે સૂર્યના બિંબ સમાન તે આભૂષણ તેમના જોવામાં આવ્યું. તે જોતાં મંત્રમુગ્ધ બનેલા તેમણે આચાર્ય ભ.ને પૂછ્યું. ત્યારે હર્ષ પામતાં ગુરુમહારાજે તે બધો વૃત્તાંત તેમને કહી સંભળાવ્યો. પછી ત્યાં શ્રાવકોને બોલાવ્યા અને ગુરુએ તેમને તે ભૂષણ બતાવ્યું. પરંતુ તેનું મૂલ્ય ન જાણતાં તે શ્રાવકો પત્તન (પાટણ) માં ગયા. ત્યાં રત્નપરીક્ષકને તેમણે તે ભૂષણ બતાવ્યું. એટલે તેનું મૂલ્ય ન કરી શકવાથી તેમણે પણ એવો અભિપ્રાય આપ્યો કે - “અહીં ભીમરાજાની આગળ આ આભૂષણ મૂકો તે આપે એટલું એનું મૂલ્ય સમજવું. અમે એની કિંમત આંકી શકતા નથી.” આથી જાણે સ્નેહથી ઇંદ્ર ભેટ મોકલાવેલ હોય તેમ તે ભૂષણ શ્રાવકોએ રાજા આગળ ધર્યું અને તેનો વૃત્તાંત કહી સંભળાવ્યો. જેથી રાજા સંતુષ્ટ થઈને કહેવા લાગ્યો કે “તે તપસ્વીની વસ્તુ મૂલ્ય વિના હું લઈ શકું તેમ નથી.” ત્યારે શ્રાવકોએ જણાવ્યું કે - “હે સ્વામિન્ ! એનું મૂલ્ય આપના મુખે જ થશે અને જે આપ આપો, તે અમને પ્રમાણ છે.” એટલે રાજાએ ભંડારી પાસેથી તેમને ત્રણ લાખ દ્રમ્મ (ટકા) અપાવ્યા. પછી તેમણે તેના પુસ્તકો લખાવીને આચાર્ય મહારાજને અર્પણ કર્યા. તેમજ પાટણ, તામ્રલિમી, આશાપલ્લી અને ધવલક્ક નામના નગરમાં ચોરાશી ચતુર અને શ્રીમંત શ્રાવકો હતા કે જે ધર્મવાસનાથી નિર્મળ આશયવાળા હતા, તેમણે પ્રત્યેક અંગવૃત્તિના પુસ્તક લખાવીને આનંદપૂર્વક આચાર્યને આપ્યાં. એટલે સુધર્માસ્વામીએ બતાવેલ ઈષ્ટ તત્ત્વરૂપ તાળાની કુંચી સમાન તેમણે બનાવેલ નવે અંગની વૃત્તિઓ એ પ્રમાણે પ્રવર્તમાન થઈ. પછી સંયમયાત્રા નિમિત્તે આચાર્યશ્રી ધવલક્ક નગરમાં પધાર્યા. કારણ કે સ્થાનોમાં અપ્રતિબંધ એ જ સિદ્ધાંત-ઉપાસનાનું લક્ષણ છે. એવામાં આંબિલનું તપ કરતાં, રાત્રે નિરંતર જાગરણ કરતાં અને અતિપરિશ્રમ આદિકારણથી આચાર્ય મહારાજને દુષ્ટ રક્તદોષ લાગુ પડ્યો.' તે વખતે ઈર્ષાળુ લોકો કહેવા લાગ્યા કે- “ઉસૂત્રના કથનથી કુપિત થયેલા શાસનદેવોએ વૃત્તિકારને કોઢ ઉત્પન્ન કર્યો છે. એ પ્રમાણે સાંભળતા શોકથી વ્યાકુળ થયેલા અને પોતાના અંતરમાં પરલોકને ઈચ્છતા એવા તેમણે રાત્રે ધરણેન્દ્રનું ધ્યાન કર્યું. ત્યાં સત્ત્વકસોટીના પાષાણતુલ્ય એવા તેમણે તરત સ્વપ્રમાં પોતાના દેહને ચાટતા નાગેન્દ્રને જોયો. આથી તેમણે વિચાર કર્યો કે – “કાલરૂપ આ વિકરાલ સર્ષે મારા શરીરને ચાટેલ છે, તેથી મારું આયુષ્ય ક્ષીણ થયું લાગે છે, તો હવે અનશન આદરવું એ જ મને યોગ્ય છે. એ પ્રમાણે ચિંતવતાં બીજે દિવસે સ્વપ્રમાં ધરણેઢે આવીને તેમને કહ્યું કે - “મેં તમારા દેહને ચાટીને રોગને દૂર કર્યો છે.” ૧. વિધિ તીર્થકલ્પ (કલ્પ ૫૯), ગણધરસાર્ધશતક (પૃ.૧૩-૧૪) અને ઉપદેશસતતિકા (૨-૧૧) પ્રમાણે તીર્થસ્થાપના દ્વારા રોગનિવારણ થયા પછી ટીકાઓ લખી. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર ૧૫ એમ સાંભળતાં ગુરુ બોલ્યા કે –“મૃત્યુના ભયથી કે રોગને લીધે મને ખેદ થતો નથી, પરંતુ પિશુના લોકો જે અપવાદ બોલે છે, તે મારાથી સહન થઈ શકતું નથી.” ત્યારે ધરણેદ્ર કહેવા લાગ્યો કે - “એ બાબતમાં તમારે અધીરાઈ-ખેદ ન કરવો. હવે આજે દીનતા તજીને જિનબિંબના ઉદ્ધારથી તમે જૈનશાસનની પ્રભાવના કરો. શ્રીકાંતાનગરીના ધનેશ શ્રાવક, વહાણ લઈને સમુદ્રમાર્ગે જતાં તેના વહાણને ત્યાંના અધિષ્ઠાયક દેવતાએ સ્તંભાવેલ હતું. આથી શ્રેષ્ઠીએ તેની પૂજા કરતાં તે વ્યંતરે વ્યવહારીને આપેલ ઉપદેશથી તે સમુદ્રની ભૂમિમાંથી ભગવંતની ત્રણ પ્રતિમા તેણે બહાર કાઢી. તેમાંની એક પ્રતિમા તેણે ચારૂપ ગામમાં સ્થાપન કરી, જેથી ત્યાં તીર્થ થયું. બીજી ભ. અરિષ્ટનેમિની પ્રતિમા પાટણમાં આમલીવૃક્ષના મૂળમાં પ્રાસાદમાં સ્થાપન કરી. ત્રીજી પ્રતિમા સ્તંભન ગામમાં સેટિકા નદીના તટપર વૃક્ષઘટાની અંદર ભૂમિમાં સ્થાપન કરેલ છે. તે શ્રી પાર્શ્વનાથ ભ.ની પ્રતિમાને પ્રગટ કરો. કારણ કે ત્યાં એ મહાતીર્થ થવાનું છે. વળી પૂર્વે વિદ્યા અને રસસિદ્ધિમાં ભારે પ્રવીણ એવા નાગાર્જુને ભૂમિમાં રહેલ બિંબના પ્રભાવથી રસનું સ્તંભન કર્યું અને તેથી તેણે ત્યાં સ્તંભનક નામનું ગામ સ્થાપન કર્યું, તેથી તમારી પણ પવિત્ર કીર્તિ અચળ થશે. અન્ય જનોના જોવામાં ન આવે તેમ વૃદ્ધાના રૂપે એક દેવી તથા એક શ્વેત શ્વાન ત્યાં માર્ગ બતાવનાર રહેશે.” એ પ્રમાણે કહીને ધરણંદ્ર અંતર્ધાન થઈ ગયા. પછી સંતુષ્ટ થયેલ આચાર્યે રાત્રિનો બધો અભુત વૃત્તાંત શ્રીસંઘને કહી સંભળાવ્યો. જે સાંભળતાં ભારે હર્ષિત થયેલા ધાર્મિક જનો તે વખતે યાત્રાએ જવાને તૈયાર થયા અને નવસે ગાડાઓ ત્યાં ચાલતા થયાં. શ્રાવકોથી અનુસરાતા આચાર્ય દેવ વૃદ્ધા અને શ્વાનની પાછળ તૃણ અને કાંટાથી છવાયેલા માર્ગે ધીરે ધીરે ચાલ્યા. એમ આગળ ચાલતાં સંઘ જ્યારે સેટિકા નદીના કિનારે આવ્યો, ત્યારે વૃદ્ધા અને શ્વાન અદૃશ્ય થઈ ગયા. એટલે એ નિશાનીથી સંઘ ત્યાં રહ્યો અને આચાર્ય મહારાજે આગળ જઈને ગોવાળોને પૂછયું કે- “અહીં તમારે કંઈ પૂજનીય છે ?' ત્યારે તેમાંનો એક ગોવાળ કહેવા લાગ્યો કે - “હે પ્રભો ! સાંભળો - આ પાસેના ગામમાં મહીસલ નામે મુખ્ય પટેલ છે. તેની કાળી ગાય અહીં આવીને પોતાના સર્વ આંચળથી દૂધ ઝરે છે. એટલે અહીં ખાલી થઈને જ તે ઘરે જાય છે અને ત્યાં દોહવામાં આવતાં મહાકષ્ટથી અલ્પ દૂધ પણ તે આપતી નથી, તેનું કારણ કંઈ સમજાતું નથી.' એમ કહીને તેમણે ત્યાં આચાર્યને ક્ષીર બતાવ્યું. એટલે પાસે બેસીને તેઓ પ્રાકૃત ગાથાઓથી શ્રી પાર્શ્વનાથનું સ્તોત્ર કહેવા લાગ્યા. ત્યાં નાસિકાના અગ્રભાગે દૃષ્ટિ સ્થાપન કરીને નિયતિય ઈત્યાદિ બત્રીશ ગાથાઓનું તેઓ સ્તવન બોલ્યા. ત્યાં હળવે જાણે પ્રભુનું પ્રતિબિંબ હોય તેવું શ્રી પાર્શ્વનાથ ભગવંતનું તેજસ્વી બિંબ પ્રગટ થયું. એટલે સંઘ સહિત આચાર્ય મહારાજે તરત તેને વંદન કર્યું, જેથી સમસ્ત રોગ તરત દૂર થયો અને તેમનો દેહ કનક સમાન તેજસ્વી ભાસવા લાગ્યો. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર તે વખતે ચતુર અને ભાવિક શ્રાવકોએ ગંધોદકથી પ્રભુબિંબને હવરાવીને કર્પરાદિકના વિલેપનથી તેની પૂજા કરી. પછી તેમણે ઉજ્જવળ પડદાથી તે બિંબપર છાયા કરી અને ત્યાં શ્રીસંઘે અનિવારિત દાનશાળામાં બધા ગ્રામ્યજનોને ભોજન કરાવ્યું. વળી પ્રાસાદ કરાવવા માટે શ્રાવકોએ ત્યાં દ્રવ્ય એકઠું કર્યું. તેમાં ક્લેશ વિના એક લક્ષ દ્રવ્ય તરત થઈ ગયું, તેમજ ગ્રામ્યજનોએ ભૂમિની અનુમતિ આપી. પછી શ્રી આમેશ્વર નામના શ્રીમલવાદિ આચાર્યના શિષ્ય જે અતિ બુદ્ધિમાન હતા તેમને મહિષપુરથી શ્રાવકોએ બોલાવ્યા. મંદિરના કાર્ય માટે વિચક્ષણ એવા તેમને નિયુક્ત કર્યા. એમણે ચૈત્યનું કામ શરૂ કર્યું અને અલ્પ કાળમાં તેમણે તે કામ સંપૂર્ણ કર્યું. તે કામના મુકાદમ તરીકે તેમનો નિત્ય એક દ્રમ્મ તેમજ ભોજન માટે એક કર્ષ ઘી તથા એક માણું ચોખા પગાર નક્કી કર્યો. તેણે ગોચરી વહોરી ભોજન કરીને બચાવેલ દ્રવ્ય વડે ચૈત્યમાં પોતાના નામની એક દેવકુલિકા કરાવી કે જે અદ્યાપિ ત્યાં વિદ્યમાન દેખાય છે. પછી શુભ મુહૂર્ત આચાર્ય મહારાજે ત્યાં બિંબની પ્રતિષ્ઠા કરી. તે દિવસે રાત્રે ધરણેઢે આવીને તેમને જણાવ્યું કે - “મારા વચનથી તમે એ સ્તવનમાંથી બે ગાથા ગોપવી દ્યો, કારણ કે તેના પાઠથી કેટલાક પુણ્યહીન જનોને મારે પ્રત્યક્ષ થવું પડશે.” આ તેના આદેશથી અદ્યાપિ તે સ્તુતિ ત્રીશ ગાથાની છે અને તે ભણતાં ગણતાં પુણ્યશાળી જનોના અત્યારે ક્ષુદ્ર ઉપદ્રવોનો નાશ કરે છે. ત્યારથી એ તીર્થ મનોવાંછિત પૂરનાર અને રોગ, શોકાદિ દુઃખરૂપ દાવાનળને શાંત કરવામાં મેઘ સમાન પ્રવર્તમાન થયું. વળી જન્મકલ્યાણકના મહામહોત્સવમાં આજે પણ પ્રથમ ધવલક્કના મુખ્ય શ્રાવક જળકળશ લઈને ભગવંતને સ્નાન કરાવે છે. ત્યાં બિંબના આસનના પાછળના ભાગમાં આવી અક્ષરપંક્તિ પૂર્વે લખવામાં આવેલ છે, એમ લોકોમાં સંભળાય છે કે - શ્રીનમિનાથના તીર્થમાં ૨૨૨૨ વર્ષ ગયા પછી ગૌડદેશના આષાડ નામના શ્રાવકે ત્રણ પ્રતિમા કરાવી હતી. શ્રીમાન જિનેશ્વરસૂરિ તથા શ્રીબુદ્ધિસાગરસૂરિ ચિરકાળ આયુષ્ય પાળી પ્રાંતે અનશન કરીને સ્વર્ગે ગયા. વળી શ્રીમાન અભયદેવસૂરિ શાસનની પ્રભાવના કરતા અને ધરણેન્દ્રની ઉપાસનાથી શોભતા તે કર્ણ રાજાની રાજધાની પાટણમાં યોગનિરોધથી વાસનાને પરાસ્ત કરી, ધર્મધ્યાનમાં એકતાન લગાવીને દેવલોક ગયા. એ પ્રમાણે સજ્જનોને માનનીય, કલ્યાણના એકસ્થાનરૂપ, કલિકાલરૂપી, પર્વતને ભેદવામાં વજ સમાન, દુર્ધર અજ્ઞાનરૂપ અંધકારનો નાશ કરવામાં સૂર્યોદય સમાન એવું શ્રીઅભયદેવસૂરિનું ચરિત્ર તમારા કલ્યાણ અને લક્ષ્મીને વૃદ્ધિ પમાડનાર થાઓ, તથા અનંત ઉદયરૂપ પરમ બ્રહ્મઆત્મજ્ઞાનમાં લીન બનાવો. શ્રીચંદ્રપ્રભસૂરિના પટ્ટરૂપ સરોવરને વિષે રાજહંસ સમાન તથા શ્રીરામ અને લક્ષ્મીના પુત્ર એવા શ્રીપ્રભાચંદ્રસૂરિએ પોતાના મનપર લેતાં શ્રી પ્રદ્યુમ્નાચાર્યે સંશોધન કરેલ પૂર્વર્ષિઓના ચરિત્રરૂપ રોહણાચલને વિષે શ્રીઅભયદેવસૂરિના ચરિત્રરૂપ આ ઓગણીશમું શિખર થયું. ઈતિ શ્રી અભયદેવસૂરિ પ્રબંધ.” Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર ૧૭. પ્રબંધ પર્યાલોચન (લેખક - પં.શ્રી કલ્યાણવિજયજી મહારાજ) : આ અભયદેવની કથાનો પ્રારંભ ભોજરાજાના સમયથી થાય છે. ભોજના રાજત્વ કાલમાં ધારામાં એક શ્રીમન્ત શેઠ વસતો હતો, કે જેનું નામ “લક્ષ્મીપતિ’ હતું. એ જ લક્ષ્મીપતિને ત્યાં રહેલ મધ્યદેશના કૃત બ્રાહ્મણના પુત્ર શ્રીધર અને શ્રીપતિ નામના બે વિદ્વાન જુવાન બ્રાહ્મણોએ આચાર્ય વર્ધમાનસૂરિ પાસે દીક્ષા લીધી અને મુનિ જિનેશ્વર અને મુનિ બુદ્ધિસાગર નામથી પ્રસિદ્ધ થયા હતા. વર્ધમાનસૂરિ પૂર્વે કૂર્ચપર (કૂચેરા)ના ચૈત્યવાસી આચાર્ય હતા. ૮૪ જિન મંદિરો એમની નિશ્રામાં હતાં, પણ તેમણે ચૈત્યવાસનો ત્યાગ કરી સુવિહિત માર્ગનો સ્વીકાર કર્યો હતો. આ વખતે પાટણમાં ચૈત્યવાસીઓનું પ્રાબલ્ય હતું, તે એટલા સુધી કે તેમની સંમતિ સિવાય સુવિહિત સાધુ પાટણમાં રહી શકતા નહોતા, આચાર્ય વર્ધમાનસૂરિએ પોતાના શિષ્ય જિનશ્વરસૂરિ અને બુદ્ધિસાગરને ત્યાં મોકલીને પાટણમાં સુવિહિત સાધુઓનો વિહાર અને નિવાસ ચાલુ કરાવવાનો વિચાર કર્યો અને પોતાના ઉક્ત બંને શિષ્યોને પાટણ તરફ વિહાર કરાવ્યો. આ જિનેશ્વર અને શ્રી બુદ્ધિસાગર પાટણમાં ગયા. પણ ત્યાં તેમને ઉતરવા માટે ઉપાશ્રય મળ્યો નહિ,બધે ફરીને તેઓ ત્યાંના સોમેશ્વર નામના પુરોહિતને ત્યાં ગયા અને પોતાની વિદ્વત્તાનો પરિચય આપી પુરોહિતના મકાનમાં રહ્યા. જ્યારે ચૈત્યવાસીઓને એ સમાચાર મળ્યા તો પોતાના નિયુક્ત પુરુષો દ્વારા તેમને પાટણ છોડી જવા જણાવ્યું, પણ પુરોહિતે કહ્યું કે આ બાબતનો ન્યાય રાજસભામાં થશે, આથી ચૈત્યવાસીઓએ રાજાની મુલાકાત લીધી તે વનરાજના સમયથી પાટણમાં સ્થપાયેલ ચૈત્યવાસીઓની સાર્વભૌમ સત્તાનો ઈતિહાસ સમજાવ્યો. જે ઉપરથી પાટણનો નૃપતિ દુર્લભરાજ પણ લાચાર થયો અને પોતાના ઉપરોધથી એ સાધુઓને અહીં રહેવા દેવા માટે આગ્રહ કર્યો જે વાત ચૈત્યવાસીઓએ માન્ય કરી. એ પછી પુરોહિતે સુવિહિત સાધુઓના ઉપાશ્રય માટે રાજાને પ્રાર્થના કરી, રાજાએ એ કામની ભલામણ પોતાના ગુરુ શૈવાચાર્ય જ્ઞાનદેવને કરી જે ઉપરથી ભાતબજારમાં યોગ્ય જમીન પ્રાપ્ત કરીને પુરોહિતે ત્યાં ઉપાશ્રય કરાવ્યો, ત્યાર પછી સુવિહિત સાધુઓને માટે વસતિઓ થવા માંડી. બુદ્ધિસાગરસૂરિએ જાલોર-મારવાડમાં રહીને સં.૧૦૮૦માં બુદ્ધિસાગર' નામનું નવું વ્યાકરણ બનાવ્યું કે જેનું શ્લોક પ્રમાણ ૭000 જેટલું છે. કાળાન્તરે જિનેશ્વરસૂરિએ ધારાનગરી ૧. ખરતરગચ્છની બહ૬ ગુર્નાવલીમાં અને દાનસાગર જ્ઞાનભંડાર (બિકાનેર)ની હસ્તલિખિત ગુર્નાવલીમાં આ પ્રબંધની ઘટનાઓમાં કેટલોક તફાવત છે. જુઓ, જૈન ધર્મકા મૌલિક ઈતિહાસ ભા.૪ પૃ.૧૪૧થી. ૨. અહીં પ્રબંધમાં આઠ હજાર શ્લોક પ્રમાણ જણાવ્યું છે. પરંતુ ગ્રંથકારે વ્યા.ની પ્રશસ્તિમાં ૭૦૦૦ જણાવ્યું છે. અત્યારે અપૂર્ણ મળતાં આ વ્યાકરણના “શબ્દલક્ષ્યલક્ષ્મ' “પંચગ્રંથી' નામો પણ છે. આ જિનેશ્વરસૂરિએ પણ લીલાવઈકહા, કથાનકકોશ, પંચલિંગી પ્ર., ષટ્રસ્થાન પ્ર.વ. રચ્યા છે. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર તરફ વિહાર કર્યો અને ત્યાંના રહેવાસી ધનદેવ શેઠના પુત્ર અભયકુમારને દીક્ષા આપીને અભયદેવ નામે પોતાના શિષ્ય કર્યા, અને યોગ્યતા પ્રાપ્ત થતાં વર્ધમાનસૂરિના આદેશથી આચાર્ય પદ આપીને તેમને સં.૧૦૮૮માં આ અભયદેવસૂરિ બનાવ્યા. વર્ધમાનસૂરિના સ્વર્ગવાસ પછી અભયદેવસૂરિ પત્યપદ્રપુર (પચપદરા) તરફ ગયા, તે સમયે દુર્ભિક્ષના કારણે સિદ્ધાન્ત છિન્નભિન્ન થવા ઉપરાન્ત તેની ટીકાઓ કે જે પૂર્વે શીલાચાર્ય નામના આચાર્યો બનાવી હતી તેમાંથી પણ પહેલા બે અંગસૂત્રોની ટીકાઓને છોડીને બાકીની બધી નાશ પામી હતી, આથી બધાં સૂત્રો કઠિન કૂટ જેવાં થઈ પડ્યાં હતાં, આ વિષયમાં અભયદેવસૂરિને શેષ નવ અંગોની ટીકાઓ બનાવવાનો શાસનદેવીનો આદેશ થયો અને તેમણે તે પ્રમાણે ઠાણાંગઆદિ નવ સૂત્રોની ટીકાઓ બનાવી, જે શ્રુતધરોએ શુદ્ધ કરી પ્રમાણ કરી. તે પછી શ્રાવકોએ તે ટીકાઓની પ્રત લખાવી. પાટણ, ખંભાત, આશાવલ, ધવલકા આદિ નગરોમાં ૮૪ શ્રાવકોએ ૮૪ નકલો કરાવીને આચાર્યોને ભેટ કરી. કહે છે કે આ નવીન ટીકાઓની પહેલી પ્રત પોતાના તરફથી લખવા માટે શાસનદેવીએ ખર્ચ માટે પોતાનું એક ભૂષણ આપ્યું હતું, જે પાટણ જઈ ભીમરાજાને ભેટ કરતાં રાજાએ તેના બદલામાં ૩ લાખ દ્રમ્મ આપ્યા હતા. આ ટીકાઓ બનાવ્યા પછી આ. અભયદેવ ધોળકા ગયા હતા, જ્યાં તેમને લોહીવિકારની બીમારી થઈ હતી, પણ ધરણેન્દ્રના પસાયથી તે પાછળથી મટી ગઈ હતી. થાંભણા ગામ પાસે સેઢી નદીને કાંઠે શ્રી પાર્શ્વનાથ ભ.ની પ્રતિમા પ્રગટ કરીને આ. અભયદેવે સ્તંભનતીર્થની (જિ.ખેડા તા.આણંદ) સ્થાપના કરી હતી. પાટણમાં કર્ણ રાજાના રાજ્યકાળમાં આ. અભયદેવસૂરિ સ્વર્ગવાસ પામ્યા. આ. અભયદેવ એક પ્રાવનિક પુરુષ હતા. એમણે નવાંગવૃત્તિ ઉપરાન્ત પંચાશકઆદિ અનેક પ્રકરણ ગ્રન્થો ઉપર વિવરણો લખ્યાં છે. અને આગમઅષ્ટોત્તરી આદિ પ્રકરણોની રચના કરી છે.' એમના ગુરુ આ. જિનેશ્વરસૂરિ જ્યારે પહેલીવાર પાટણમાં ગયા ત્યારે પાટણમાં દુર્લભરાજનું રાજ્ય હોવાનું પ્રબન્ધકાર લખે છે. આ. જિનદત્તસૂરિ આદિ ખરતરગચ્છીય આચાર્યો પણ ગણધર સાર્ધશતક આદિમાં તે વખતે પાટણમાં દુર્લભરાજનું રાજ્ય બતાવે છે પણ ખરતર ગચ્છવાળાઓ એ પ્રસંગ સં.૧૦૮૪માં બન્યાનું લખે છે તે બરાબર જણાતું નથી, કારણ કે સં.૧૦૮૪માં પાટણમાં દુર્લભરાજનું નહિ પણ ભીમદેવનું રાજ્ય હતું. ૧. ઔપપાતિક ઉપાંગ પર ટીકા, પ્રજ્ઞાપના તૃતીયપદ સંગ્રહણી, પંચનિગ્રંથી, છઠ્ઠો કર્મગ્રંથ મહાવીરWવો વગેરે મળી કુલ ૬૦૦૦૦ શ્લોકપ્રમાણ સર્જન તેઓએ કર્યું છે. “શ્રતરત્નરત્નાકર'માં “મહાવીરત્થવો, પ્રસિદ્ધ થયેલ છે.' ૨. “પિછી પટ્ટાવતીયાઁ વાદ્ર-વિવા કે સંવત તો તરત દુગા મિતતા હૈ ? વિ.સં.૨૦૨૪ ગૌર Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર ૧૯ આ પ્રબન્ધમાં ચાવડા વનરાજને બાલ્યાવસ્થામાં આશ્રય આપનાર પંચાસરના ચૈત્યવાસી આચાર્ય દેવચન્દ્રસૂરિ બતાવ્યા છે, જ્યારે બીજા ઘણા પ્રબન્ધોમાં વનરાજના આશ્રયદાતા આ. શીલગુણસૂરિ લખેલ છે, આ એક વિરોધ જણાશે પણ વાસ્તવમાં વિરોધ જેવું જણાતું નથી, કેમકે આ. દેવચંદ્ર એ શીલગુણસૂરિના પટ્ટધર શિષ્ય હતા તેથી વનરાજને ઉછેરવાના કામમાં એમણે આ વિશેષ લક્ષ્ય રાખ્યું હશે અને આ કારણે એ પણ વનરાજના પાલક જ ગણાય. પ્રબન્ધના લેખ પ્રમાણે આ અભયદેવના સમયમાં નવ અંગસૂત્રો ઉપર કોઈ ટીકા નહોતી રહી તેથી આ અભયદેવે નવી ટીકાઓ બનાવી, પણ આ અભયદેવસૂરિના પોતાના જ લેખ પ્રમાણે તે વખતે સૂત્રો ઉપર પ્રાચીન ટીકાઓ વિદ્યમાન હતી. દાખલા તરીકે આ.અભયદેવસૂરિ ભગવતીની ટીકામાં ભગવતી ઉપર તે વખતે બે પ્રાચીન ટીકાઓ હોવાનું લખે છે. એ જ પ્રમાણે બીજા સૂત્રો ઉપર પણ તે સમયે ટીકાઓ વિદ્યમાન હોવાના તેમના ઉલ્લેખો છે, આ પરિસ્થિતિમાં કાલવશાત ટીકાઓના નાશથી આ અભયદેવે શાસનદેવીના આદેશથી નવી ટીકાઓ બનાવી એ હકીકત દંતકથા માત્ર ઠરે છે. પ્રબન્ધના લેખનો ભાવ વિચારતાં આ અભયદેવે પત્યપદ્રનગર (પચપદરા-મારવાડ) માં ગયા પછી એ ટીકાઓ બનાવી હતી, પ્રબન્ધના બીજા ઉલ્લેખોથી પણ એ ટીકાઓ પાટણની બહાર બનેલી સિદ્ધ થાય છે પણ આ. અભયદેવના પોતાના લેખથી એ હકીકત વિરુદ્ધ કરે છે, કારણ કે તેમણે અનેક સ્થળે એ ટીકા પાટણમાં બનાવ્યાનો ઉલ્લેખ કર્યો છે અને પાટણના સંઘના અગ્રેસર દ્રોણાચાર્ય પ્રમુખ વિદ્વાનોએ એ ટીકાઓનું સંશોધન કર્યાનું તે લખે છે. દેવીએ આપેલ આભૂષણ ભીમરાજાને ભેટ કરવા અને તેણે ત્રણ લાખ દ્રમ્મ આપવા સંબંધી હકીક્ત પણ કેવળ દંતકથા જણાય છે. કારણ કે ભીમદેવ સં.૧૧૨૦ અથવા ૧૧૨૧માં પરલોકવાસી થઈ ગયો હતો, જ્યારે બધી ટીકાઓ સં.૧૧૨૦ થી ૧૧૨૮ સુધીમાં બની હતી એમ ટીકાઓના અન્તમાં આપેલ સંવતો ઉપરથી સિદ્ધ છે. दूसरा है सं.१०८० । इसमें १०२४ का उल्लेख तो सर्वथा भ्रान्त है क्यों कि उस समय पाटणमें तो दुर्लभराजके प्रपिता मलराजका राज्य था । शायद दर्लभराजका तो उस समय जन्म भी नहीं हआ था । दसरा, जो १०८० का संवतका उल्लेख है वह भी ठीक नहीं है । क्योंकि निश्चित ऐतिहासिक प्रमाणोंके आधार पर यह स्थिर हुआ है कि दुर्लभराजकी मृत्यु सं.१०७८ में हो चुकी थी । १०८० में तो उसके पुत्र भीमदेवका राज्य प्रवर्तमान था । इसके विरुद्धमें एक और प्रमाण जिनेश्वरसूरिका स्वयंकृत उल्लेख भी विद्यमान है । सं.१०८० में तो जिनेश्वरसूरि, जैसा कि ऊपर बताया जा रहा है, मारवाड के जावालिपुर (जालोर) में थे जब उन्होने अपनी हारिभद्रीय-अष्टकग्रंथकी टीका रचकर समाप्त की थी । अतः उस वाद-विवाद का दुर्लभराजके समयमें अर्थात् १०७८ के पहले और सं.१०६६ के बीचके किसी समयमें होना ही मानना યુ િસંત સત રે !” શ્રી જિનવિજયજી “કથાકોષ પ્રકરણ'ના પ્રારંભમાં પૃ.૮ ટિપ્પણ. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર પ્રબન્ધકાર શીલાચાર્યનું જ બીજાનું નામ કોટ્યાચાર્ય જણાવે છે, પણ આમાં કોઈ ઐતિહાસિક પ્રમાણ જણાતું નથી, વિદ્વાન શોધકોએ એ સંબંધમાં અનુસન્ધાન કરવાની જરૂર છે. આ અભયદેવ સેઢી નદીને કાંઠે પ્રતિમા પ્રગટાવવા ગયા તે વખતે સાથે ૯૦૦ ગાડાં હતાં, પ્રતિમા સ્થાપન યોગ્ય દહેરાસર માટે ત્યાં ટીપ કરીને ૧00000 એક લાખ દ્રમ્મ એકઠા કર્યા હતા અને ચૈત્યનું કામ શરૂ કરાવીને તે કામકાજના અધ્યક્ષ તરીકે મહેસાણાવાસી મલવાદિના શિષ્ય આપ્રેશ્વરને ભોજન અને રોજનો ૧ દ્રમ ઠરાવીને કામ કર્યા હતા. આગ્રેશ્વરે આહાર ભિક્ષાવૃત્તિથી ચલાવી દ્રવ્ય બચાવ્યું અને તે વડે પોતાના નામની એક દહેરી બનાવી હતી. આ ઉપરથી જણાય છે કે પગારથી નોકરી કરવાની હદ સુધી ચૈત્યવાસીઓ પહોંચી ગયા હતા. પ્રબન્ધમાં આ અભયદેવસૂરિના સ્વર્ગવાસનો સંવત આપ્યો નથી માત્ર એટલું જ લખ્યું છે કે “તેઓ પાટણમાં કર્ણરાજાના રાજ્યમાં પરલોકવાસી થયા.આ વાક્યનો બે પ્રકારે અર્થ થઈ શકે, પહેલો એ કે- “કર્ણના રાજ્યકાલમાં તેઓ પાટણમાં સ્વર્ગવાસ પામ્યા' બીજો અર્થ એ થાય કે “જે સમયે કર્ણરાજ પાટણમાં રાજ્ય કરતો હતો તે વખતે તેઓ સ્વર્ગવાસ પામ્યા” પણ ખરતરગચ્છની પટ્ટાવલીઓમાં આ. અભયદેવસૂરિનો સ્વર્ગવાસ કપડવંજ ગામમાં હોવાનો લખે છે એથી આપણે અહીં બીજા પ્રકારનો અર્થ ગ્રહણ કરવો યોગ્ય લાગે છે. પટ્ટાવલીઓમાં આ અભયદેવસૂરિનો સ્વર્ગવાસ સં.૧૧૩૫માં અને બીજા મત પ્રમાણે સં.૧૧૩૯માં હોવાનો લેખ છે. [એક મહત્ત્વની નોંધ : હમણાં ઈસ્વીસન ૨૦૦૪માં જયપુર (રાજસ્થાન)ની પ્રાકૃત ભારતી અકાદમી તરફથી પ્રાકૃત ભારતી પુષ્પ ૧૬૧ રૂપે પ્રકાશિત થયેલા રવરતરરાછ વા વૃદન્ તિદાસ માં પૃ૦ ૧૫માં નીચેની મહત્ત્વની ટિપ્પણી છપાયેલી છે જે ખાસ ધ્યાનમાં લેવા જેવી છે. ___ वर्तमान में स्तंभनकपुर खंभात को मानते हैं पर वहां तो समुद्र में मही नदी सम्मिलित होती है। अतः खेडा के निकट सेढी नदी के तीर पर बसा हुआ मौजुद थांभण नामक ग्राम ही स्तंभनकपुर समझना चाहिये जहां भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट हुई थी.] ૧. વિશેષ માટે જુઓ “ચઉપન્ન મહાપુરુચરિય' હિન્દી પ્રસ્તાવના પૃ.૫૩ થી. ૨. પં.બેચરદાસ એમની પુસ્તિકા “નવાંગી વૃત્તિકાર શ્રી અભયદેવસૂરિ' પૃ.૧૦-૧૧માં વિ.સં.૧૧૫૫માં સ્વર્ગવાસનું અનુમાન કરે છે. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्तिसहितस्य समवायाङ्गसूत्रस्य विषयानुक्रमः सूत्राङ्काः विषयः पृष्ठाकाः १-१६० वृत्तिसहितं समवायाङ्गसूत्रम् १-३१० भगवदाख्याता आत्मादय एकपदार्थाः १-१३ दण्ड-राशि-बन्धन-नक्षत्र-स्थिति-श्वासोच्छ्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः १३-१५ दण्ड-गुप्ति-शल्य-गौरव-विराधना-नक्षत्र-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः १५-१७ कषाय-ध्यान-विकथा-संज्ञा-बन्ध-योजन-नक्षत्र-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः १७-१९ क्रिया-महाव्रत-कामगुणा-ऽऽस्रवसंवरद्वार-निर्जरास्थान-समित्यस्तिकायनक्षत्र-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः १९-२२ लेश्या-जीवनिकाय-तपः-समुद्घाता-ऽर्थावग्रह-नक्षत्र-स्थितिश्वासा-5ऽहार-सिद्धयः २२-२४ भयस्थान-समुद्घात-भगवन्महावीरोच्चत्व-वर्षधर-वर्ष-नक्षत्र-स्थिति-श्वासाऽऽहार-सिद्धयः २४-२६ मदस्थान-प्रवचनमातृ-चैत्यवृक्ष-जम्बू-कूटशाल्मली-जगती-केवलिसमुद्घात-प्रभुपार्श्वगणधर-नक्षत्र-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः २६-२९ ब्रह्मगुप्ति-अगुप्ति-ब्रह्मचर्याध्ययन-प्रभुपार्बोच्चत्व-नक्षत्र-तारा-मत्स्य-विजयद्वारसभा-कर्मप्रकृति-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः २९-३२ श्रमणधर्म-समाधिस्थान-मन्दरविष्कम्भ-अरिष्टनेम्यहंदाधुच्चत्व-ज्ञानवृद्धिकरनक्षत्रकल्पवृक्ष-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ३३-३७ उपासकप्रतिमा-ज्योतिश्चक्रान्त-ज्योतिश्चार-गणधर-नक्षत्र-विमान-मन्दरोच्चत्वस्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ३७-४२ भिक्षुप्रतिमा-सम्भोग-कृतिकर्म-विजयाराजधानी-बलदेवायु:-दिनरात्रिमानईषत्प्राग्भारा-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ४२-४९ क्रियास्थान-विमानप्रस्तट-आयामविष्कम्भ-जातिकुलकोटी-पूर्ववस्तु-प्रयोगसूर्यमण्डल-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ।। ४९-५२ भूतग्राम-पूर्व-पूर्ववस्तु-श्रमणसंख्या-जीवस्थान-जीवा-रत्न-महानदी-स्थितिश्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ५२-५६ परमाधार्मिक-नमिनाथोच्चत्व-ध्रुवराहु-नक्षत्र-दिनरात्रिमान-पूर्ववस्तु-प्रयोग-स्थितिश्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ५६-६१ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः गाथाषोडशक-कषाय-श्रमणसंख्या-पूर्ववस्तु-आयामविष्कम्भ-लवणसमुद्र-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ६२-६४ असंयम-संयम-मानुषोत्तरा-ऽऽवासपर्वत-लवणसमुद्रचारणगति-उत्पातपर्वत-मरण-कर्मप्रकृति-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ६४-६९ ब्रह्मचर्य-श्रमणसंख्या-श्रमणस्थान-पदाग्र-ब्राह्मीलिपिपूर्ववस्तु-दिनरात्रिमान-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ६९-७२ ज्ञाताध्ययन-सूर्य-शुक्र-जम्बूद्वीपकला-तीर्थकर-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ७२-७४ असमाधिस्थान-मुनिसुव्रतार्हदुच्चत्व-घनोदधिबाहल्यसामानिकसाहस्री-कर्मबन्धस्थिति-पूर्ववस्तु-काल-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ७४-७७ शबल-कर्म-काल-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ७७-८० परीषह-दृष्टिवादसूत्र-पूद्गलपरिणाम-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ८०-८३ सूत्रकृदध्ययन-तीर्थकरज्ञानादि-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ८३-८४ देवाधिदेव-जीवा-इन्द्र-पौरुषीयच्छाया-नदीविस्तार-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ८५-८७ भावना-मल्लिजिनाधुच्चत्व-निरयावासा-ऽध्ययन-कर्मप्रकृतिप्रपात-पूर्ववस्तु-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः । ८७-९० दशाकल्पव्यवहारोद्देशनकाल-कर्म-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ९०-९१ अनगारगुण-नक्षत्र-विमानपृथिवी-कर्म-सूर्यचार-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ९१-९४ आचारप्रकल्प-मोहनीयकर्मा-ऽऽभिनिबोधिकज्ञान-विमानावास-नामकर्मस्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ९४-९७ पापश्रुतप्रसङ्ग-आषाढमासादिदिवस-चन्द्रदिनमान-नामकर्मस्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ९७-१०० मोहनीयस्थान-मण्डिकपुत्रायुः-अहोरात्रमुहूर्तनाम-अरजिनोच्चत्वसहस्रारेन्द्र-सामानिकसंख्या-पार्श्ववीरजिनागारवासमान-निरयावासस्थिति-श्वासा-ऽऽहार- सिद्धयः १००-११३ सिद्धगुण-मन्दरपर्वतपरिक्षेप-सूर्यचार-अभिवर्धितादित्यमासदिवस-स्थिति-श्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ११३-११५ योगसंग्रह-देवेन्द्र-कुन्थुनाथकेवलि-नक्षत्र-नाट्य-स्थितिश्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ११५-११८ आशातना-भौम-महाविदेहवर्षविष्कम्भ-सूर्यचार-स्थितिश्वासा-ऽऽहार-सिद्धयः ११८-१२२ बुद्धातिशेष-चक्रवर्तिविजय-दीर्घविजयार्ध-तीर्थकर-भवननिरयावासाः १२२-१२६ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -w १२६-१२९ १२९-१३० १३० १३१ १३१-१३२ १३२-१३३ १३३ १३३-१३६ विषयानुक्रमः सत्यवचनातिशेष-कुन्थुजिनाधुच्चत्व-जिनसक्थि-निरयावासाः उत्तराध्ययन-सभा-वीरजिनार्यासंख्या-पौरुषीच्छायाः कुन्थुजिनगणधर-जीवा-प्राकार-उद्देशनकाल-पौरुषीच्छायाः पार्श्वजिनार्यासंख्या-जीवा-मेरु-उद्देशनकालाः नमिजिनावधिज्ञानि-कुलपर्वत-निरयावास-कर्मप्रकृतयः नेमिजिनार्या-मेरुचूलिका-शान्तिजिनोच्चत्व-भवनउद्देशनकाल-पौरुषीच्छाया-विमानानि नमिजिनार्यिका-निरयावास-उद्देशनकालाः वीरजिनश्रामण्यपर्याया-ऽऽवासपर्वत-कालोदचन्द्रसूर्य-स्थितिनामकर्म-लवण-उद्देशनकाल-कालाः कर्मविपाकाध्ययन-निरयावासा-ऽऽवासपर्वत-उद्देशनकालाः ऋषिभाषित-विमलजिनपुरुषयुगसिद्ध-भवन-उद्देशनकालाः समयक्षेत्रादिसाम्य-धर्मजिनोच्चत्व-मन्दर-नक्षत्र-उद्देशनकालाः दृष्टिवादपद-ब्राम्यक्षर-भवनानि सूर्यचारा-ऽग्निभूतिगृहवासौ चक्रवर्तिपत्तन-धर्मजिनगणधर-सूर्यमण्डलानि भिक्षुप्रतिमा-कुरुमनुष्य-स्थितयः मुनिसुव्रतजिनार्यिका-अनन्तजिदुच्चत्व-वासुदेवोच्चत्वदीर्घवैताढ्य-विष्कम्भ-विमान-गुफा-कञ्चनपर्वताः आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धोद्देशनकाल-सभा-बलदेवायु:-कर्माणि मोहनीयनामा-ऽऽवासपर्वत-कर्म-विमानानि जीवा-अनुत्तरौपपातिकवीरजिनशिष्य-स्थितयः उत्तमपुरुष-नेमिजिनछद्मस्थकाल-वीरजिनव्याकरण-अनन्तजिज्जिनगणधराः मल्लिजिनायु:-मन्दर-वीरजिनव्याकरण-निरयावास-विमानानि नक्षत्र-विमलजिनगणधराः अङ्गत्रयाध्ययना-ऽऽवासपर्वत-मल्लिजिनमनःपर्यायज्ञानि-जीवाः निरयावास-कर्मा-ऽऽवासपर्वताः चान्द्रवर्षऋतुदिन-सम्भवजिनगृहवास-मल्लिजिनावधिज्ञानिनः सूर्यमण्डल-लवणसमुद्र-विमलजिनोच्चत्व-सामानिक-विमानानि ऋतुमास-मन्दर-चन्द्रसूर्यमण्डलानि युगपूर्णिमामावास्या-वासुपूज्यजिनगणधर-शुक्ल-कृष्णपक्षविमान-विमानप्रस्तटाः १३६-१३७ १३७-१३८ १३८-१३९ १३९-१४० १४० १४०-१४१ १४१-१४२ १४२ १४२-१४४ १४४-१४५ १४५ १४५-१४७ १४७ १४७-१४८ १४८-१४९ १४९ १४९-१५० १५०-१५१ १५१-१५३ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३-१५४ १५४-१५५ १५५-१५६ १५६-१५७ १५७-१५९ १५९-१६० १६०-१६१ १६१-१६२ १६२-१६४ ७३-७४ ७५-७६ ওও विषयानुक्रमः ऋषभजिनराज्यकाल-हरिवर्षादिमनुष्य-निषधादिसूर्योदयाः भिक्षुप्रतिमा-असुरकुमारावास-सामानिक-दधिमुख-विमान-हाराः सूर्यमण्डल-मौर्यपुत्रगृहवास-भौमाः । मनुष्यक्षेत्रचन्द्रसूर्य-श्रेयांसजिनगणधर-आभिनिबोधिकस्थितियः नक्षत्रमास-बाहा-मन्दर-नक्षत्रसीमाविष्कम्भाः धातकीखण्ड-पुष्करार्धविजय-तीर्थकरादि-विमलजिनश्रमणाः समयक्षेत्रवर्ष-वर्षधर-मन्दर-कर्माणि वीरजिनपर्युषणाकाल-पार्श्वजिनश्रामण्यकाल-वासुपूज्यजिनोच्चत्वकर्मस्थिति-सामानिकाः सूर्यावृत्ति-वीर्यपूर्वप्राभृत-अजितजिनसगरचक्रिगृहवासः आवास-लवणसमुद्र-वीरजिनायु:-अचलभ्रात्रायु:-चन्द्र-सूर्यचक्रवर्तिपुर-कला-स्थितयः जीवा-बलदेवायु:-अग्निभूत्यायुः-सीतोदा-निरयावासाः सुविधिजिनकेवलि-शीतलजिनशान्तिजिनगृहवास-भवनपत्यावासाः भरतचक्रिकुमारवास-अङ्गवंशप्रव्रजितनृप-लौकान्तिकपरिवार-मुहूर्तलवाग्राणि शक्राधिपत्य-अकम्पितगणधरायुः-सूर्यचाराः अन्तराणि श्रेयांसजिनाधुच्चत्व-राज्यकाल-काण्डबाहल्य-सामानिक-सूर्योदयाः भिक्षुप्रतिमा-कुन्थुजिनमनःपर्यायज्ञानि-व्याख्याप्रज्ञप्तिमहायुग्मानि सूर्यचार-वीरगर्भापहारा-ऽन्तराणि वीरजिनगर्भापहार-शीतलजिनगणधर-मण्डितपुत्रायुः-ऋषभजिनभरतचक्रिग्रहवासाः निरयावास-ऋषभजिन-श्रेयांसजिनाद्यायु:-सामानिक-मन्दारधुच्चत्वधनुःपृष्ठ-पङ्कबहुलकाण्ड-व्याख्याप्रज्ञप्तिपद-नागकुमारावास-प्रकीर्णकयोनि-गुणकार-ऋषभजिनगणधर-श्रमण-विमानानि आचाराङ्गोद्देशनकाल-मन्दर-रुचक-नन्दनानि सुविधिजिनगणधर-सुपार्श्वजिनवादि-घनोदध्यन्तराणि अन्तर-कर्म-अन्तर-महाग्रह-दृष्टिवादसूत्र-अन्तर-सूर्यचाराः ऋषभजिन-वीरजिननिर्वाणगमन-हरिषेणराज्य-शान्तिजिनार्याः शीतलजिनोच्चत्व-अजितजिनगणधर-स्वयम्भूविजय-अन्तराणि परवैयावृत्यप्रतिमा-कालोदपरिक्षेप-कुन्थुजिनावधिज्ञानि-कर्माणि प्रतिमा-गौतमस्वाम्यायु:-अन्तराणि १६४-१६६ १६६-१६८ १६८-१६९ १६९-१७० १७०-१७२ १७२-१७४ १७४ १७४-१७५ १७५-१७६ ८० १७६-१७७ ८६ ८७-८८ ८९ १७७-१८१ १८१-१८२ १८२ १८३-१८५ १८५-१८६ १८६ १८६-१८८ १८८-१९० ९२ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M १९० १९०-१९१ १९१-१९२ १९२-१९३ १९३-१९५ १९५-१९६ ९६ १९६-१९७ १९७ १९७-१९८ १९८-२०० विषयानुक्रमः चन्द्रप्रभजिनगणधर-शान्तिजिनचतुर्दशपूर्वि-सूर्यमण्डलानि जीवा-अवधिज्ञानिनः सुपार्श्वजिनगणधर-महापाताल-लवणसमुद्र-कुन्थुजिनायु:-मौर्यपुत्रायूंषि चक्रवर्तिग्रामकोटी-भवन-दण्ड-आदिमुहूर्ताः ९७-९८ अन्तर-कर्म-हरिषेणगृहवासाः, अन्तर-धनुःपृष्ठ-सूर्यचारतारा: मन्दर-अन्तर-सूर्यमण्डल-अन्तराणि १०० भिक्षुप्रतिमा-नक्षत्रतारा-सुविधिजिनोच्चत्व-पार्श्वजिनायुः-सुधर्मगण धरायु-दीर्घवैताढ्याधुच्चत्वादि १०१-१०३ चन्द्रप्रभजिनोच्चत्व-विमानानि, सुपार्श्वजिनोच्चत्व-पर्वत-पद्मप्रभजिनोच्चत्व-प्रासादोच्चत्वानि १०४-१०५ सुमतिजिनोच्चत्व-नेमिजिनकुमारवास-विमानप्राकार-वीरजिनचतुर्दशपूर्वि सिद्धावगाहनाः, पार्श्वजिनचतुर्दशपूर्वि-अभिनन्दनजिनोच्चत्वानि १०६-१०८ सम्भवजिनोच्चत्व-पर्वतोच्चत्वादि-विमान-वीरजिनवादिनः, अजितजिन-सगरचक्रयुच्चत्वम्, पर्वताधुच्चत्वादि ऋषभजिनभरतचक्रयुच्चत्व-पर्वताद्युच्चत्वादि-विमानोच्चत्वानि १०९ विमानोच्चत्व-अन्तर-पार्श्वजिनवादि-अभिचन्द्रकुलकरोच्चत्व वासुपूज्यजिनसहप्रव्रजिताः विमान-वीरजिनकेवलि-वैकुर्विक-नेमिजिनकेवलपर्याय-अन्तराणि १११ विमान-भौमेयविहार-वीरजिनानुत्तरौपपातिक-सूर्यचार-नेमिजिनवादिनः ११२ विमान-अन्तर-विमलवाहनकुलकरोच्चत्व-तारा-अन्तराणि ११३-११४ विमान-पर्वत-नेमिजिनायु:-पार्श्वजिनकेवलि-सिद्ध-द्रहाः, विमान-पार्श्वजिनवैकुर्विकाः ११५-११७ द्रह-अन्तर-द्रहाः ११८-११९ अन्तर-विमानावासाः १२०-१३१ अन्तर-वर्ष-जीवा-मन्दर-जम्बूद्वीप-लवण-पार्श्वजिनश्राविका धातकीखण्ड-लवण-भरतचक्रिराज्यकाल-अन्तर-विमानावासाः १३२-१३५ अजितजिनावधिज्ञानि-वासुदेवायूंषि, भगवतो महावीरस्य तीर्थकरभवात् षष्ठो भवः, ऋषभ-वीरजिनयोरन्तरम् १३६ द्वादशाङ्गीनामानि तथा आचारागसूत्रस्वरूपम् १३७ सूत्रकृताङ्गसूत्रस्वरूपम् १३८ स्थानाङ्गसूत्रस्वरूपम् १३९ समवायाङ्गसूत्रस्वरूपम् ११० २००-२०१ २०१ २०१-२०२ २०२-२०३ २०३-२०४ २०४-२०५ २०५ २०५-२०७ २०७-२०८ २०८-२१३ २१३-२१८ २१८-२१९ २१९-२२२ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः १४० व्याख्याप्रज्ञप्ति(भगवती)सत्रस्वरूपम् १४१ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रस्वरूपम् १४२ उपासकदशाङ्गसूत्रस्वरूपम् १४३ अन्तकृतदशाङ्गसूत्रस्वरूपम् १४४ अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गसूत्रस्वरूपम् १४५ प्रश्नव्याकरणसूत्रस्वरूपम् १४६ विपाकश्रुतस्वरूपम् १४७ दृष्टिवादवर्णनम् १४८ द्वादशाङ्गगणिपिटकस्वरूपम् १४९ जीवाजीवराशिस्वरूपम् १५० असुरकुमाराद्यावासाः १५१ नारकादिजीवानां स्थितिः १५२ औदारिकशरीरादिवर्णनम् १५३ अवधि-वेदना-आहारवर्णनम् १५४ आयुर्बन्ध-उपपातोद्वर्तना-आकर्षस्वरूपम् १५५-१५६ संहनन-संस्थान-वेदाः १५७-१५९ कुलकर-तीर्थकर-बलदेव-वासुदेवादिवक्तव्यता नव परिशिष्टानि प्रथमं परिशिष्टम् समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः द्वितीयं परिशिष्टम् समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतानां गाथार्धानामकारादिक्रमः . तृतीयं परिशिष्टम् कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि चतुर्थं परिशिष्टम् समवायाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानामकारादिक्रमः पञ्चमं परिशिष्टम् समवायाङ्गसूत्रटीकायां निर्दिष्टानां विशेषनाम्नामक्रारादिक्रमेण सूचिः षष्ठं परिशिष्टम् तित्थोगालियप्रकीर्णके विद्यमानाः आगमवाचनादि विच्छेदसम्बन्धिनः अंशाः ॥ सप्तमं परिशिष्टम् हिमवदाचार्यविरचिता स्थविरावली (हिमवंतर्थरावली) अष्टमं परिशिष्टम् समवायाङ्गसूत्रसम्पादनोपयुक्तग्रन्थसंकेतादिसूचिः नवमं परिशिष्टम् आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहितस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य शुद्धि-वृद्धिपत्रकम् २२२-२२५ २२५-२३० २३०-२३२ २३३-२३४ २३४-२३७ २३७-२४० २४०-२४६ २४६-२५३ २५३-२५६ २५६-२६१ २६१-२६७ २६७-२६९ २६९-२७५ २७५-२७९ २७९-२८३ २८३-२८५ २८५-३१० १-४५ ४६-४९ ५०-७२ ७३-७६ ७७-७८. ७९-८५ ८६-९४ ९५-९६ ९७-१०५ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः १-२५ चित्राणि १. मेरुपर्वतस्य स्वरूपम् २. जम्बूद्वीपस्य सामान्येन स्वरूपम् ३. जम्बूद्वीपस्य विशेषतः स्वरूपम् ४. अर्धतृतीयद्वीप-समुद्राणां स्वरूपम् ५. जम्बूद्वीपत आरभ्य नन्दीश्वरपर्यन्तानां द्वीप-समुद्राणां स्वरूपम् ६. चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्य स्वरूपम् ७. अर्धतृतीयद्वीप-समुद्रेषु चन्द्र-सूर्यस्वरूपम् ८. घनोदधि-घनवात-तनुवातसमेतायाः त्रिकाण्डमय्या रत्नप्रभापृथिव्याः स्वरूपम् ९. छत्रातिच्छत्राकारेणावस्थितानां सप्तानां नारकपृथ्वीनां स्वरूपम् १०. अष्टौ कृष्णराजयः ११. लवणसमुद्रे एकस्यां दंष्ट्रायां विद्यमानानां सप्तानाम् अन्तरद्वीपानां स्वरूपम् १२. लवणसमुद्रे विद्यमानानां षट्पञ्चाशत __ अन्तरद्वीपानां स्वरूपम् १३. उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपस्य एकस्य कालचक्रस्य मानम् १४. उत्सेध-आत्म-प्रमाणभेदेन अङ्गलादीनां मानानां स्वरूपम् १५. शास्त्रीयाणि व्यावहारिकाणि च विविधानि मानानि १६. वैमानिकप्रस्तराणां स्वरूपम् १७. समभूतलापृथ्वीस्थानं व्यन्तर-वानव्यन्तरनिकायस्थानानि च १८. लवणसमुद्रे जलवृद्धिः १९. लवणसमुद्रे जलवृद्धिः २०. चन्द्रविमानस्य राहुणा आवरणेन प्रतिभासमाने हानि-वृद्धी २१. लवणसमुद्रे जलवेलावृद्धिकारणस्य पातालकलशस्य स्वरूपम् २२. सूर्ययोर्मण्डलानां स्वरूपम् २३. जम्बूद्वीपे लवणसमुद्रे च चन्द्रमण्डलानि २४. अरुणवरसमुद्रादुत्तिष्ठतः तमस्कायस्य स्वरूपम् २५. समचतुरस्रसंस्थानस्य संहननानां च स्वरूपम् Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ नवाङ्गीटीकाकारश्रीमदभयदेवसूरिविरचितटीकाविभूषितं पञ्चमगणधरदेवश्री सुधर्मस्वामिपरम्पराऽऽयातं श्री समवायाङ्गसूत्रम् । [सूत्रम् १] [१] सुयं मे आउसं ! तेणं भगवता एवमक्खातं- 5 [टीका] श्रीवर्द्धमानमानम्य समवायाङ्गवृत्तिका ।। विधीयतेऽन्यशास्त्राणां प्रायः समुपजीवनात् ॥१॥ दुःसम्प्रदायादसदूहनाद्वा भणिष्यते यद् वितथं मयेह । तद् धीधनैर्मामनुकम्पयद्भिः शोध्यं मतार्थक्षतिरस्तु मैवम् ॥२॥ इह स्थानाख्यतृतीयाङ्गानुयोगानन्तरं क्रमप्राप्त एव समवायाभिधानचतुर्थाङ्गानुयोगो 10 भवतीति सोऽधुना समारभ्यते । तत्र च फलादिद्वारचिन्ता स्थानाङ्गानुयोगवदवसेया, नवरं समुदायार्थोऽयमस्य- समिति सम्यक् अवेत्याधिक्येन अयनम् अयः परिच्छेदो १. श्री महावीर जैन विद्यालयेन विक्रमसंवत् २०४१ [ईशवीयसन १९८५] वर्षे प्रकाशिते जैनागमग्रन्थमालायाः तृतीये ग्रन्थाङ्के प्राचीनान् हस्तलिखितादर्शानवलम्ब्य अस्माभिः संशोधितं सम्पादितं च यत् समवायाङ्गसूत्रं वर्तते प्रायः तदेवात्र मुद्रितम् । ये तु तत्र पाठभेदाः ते जिज्ञासुभिः तत्रैव विलोकनीयाः ॥ २. अत्रेदमवधेयम्- अस्याः समवायाङ्गवृत्तेः संशोधनं जे१,२, खं० इति प्राचीनांस्तालपत्रोपरिलिखितानादर्शानवलम्ब्य विहितम् । जे१ = जेसलमेरुदुर्गस्थे खरतरगच्छीयाचार्यश्री जिनभद्रसूरिभिः विक्रमसंवत् १४०१ वर्षे संस्थापिते तालपत्रीयजैनग्रन्थभाण्डागारे विद्यमान आदर्शः, New Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts JESALMER COLLECTION अनुसारेण अस्य'८'अष्टमः क्रमाङ्कः, अत्र १-४५ पत्रेषु मूलमात्रं समवायाङ्गसूत्रं वर्तते, पञ्चदशं पत्रमत्र नास्ति, ४६-१३४ पत्रेषु समवायाङ्गवृत्तिर्वर्तते, “समवायाङ्गवृत्तिः सम्पूर्णा ॥ संवत् १४८७ वर्षे पोस सुदि १० रवौ” इति अस्यान्ते उल्लेखः॥ जे२ = अयमपि जेसलमेरुदुर्गस्थ एवादर्शः, अस्य '९' नवमः क्रमाङ्कः, अत्र १-६४ पत्रेषु मूलमात्रं समवायाङ्गसूत्रं वर्तते, चतुर्विंशतितमं पत्रमत्र नास्ति, ६५-२१५ पत्रेषु समवायावृत्तिर्वर्तते, “संवत् १४०१ वर्षे माघ-शुक्ल एकादश्यां श्री समवायाङ्गसूत्रवृत्तिपुस्तकं सा. रउलासुश्रावकेण मूल्येन गृहीत्वा श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनपद्मसूरिपट्टालङ्कार श्रीजिनचन्द्रसूरिसुगुरोः प्रादायि । आचन्द्रार्क नन्दतात्" इति अस्यान्ते उल्लेखः । खं० = खम्भातनगरे श्री शान्तिनाथतालपत्रीयजैनग्रन्थभाण्डागारे विद्यमान आदर्शः Catalogue of Palm-leaf Manuscripts in the Santinatha Jain Bhandara, Cambay अनुसारेण अस्य क्रमाङ्कः ३७, अत्र १-९७ पत्रेषु मूलमात्रं समवायाङ्गसूत्रं वर्तते, ३४, ३५, ६७ तमानि पत्राणि न सन्ति, ९८-३३० पत्रेषु समवायाङ्गवृत्तिवर्तते, १८३, २७३ तः २७८, ३१८, ३२० तः ३२२ पत्राणि न सन्ति, "संवत् १३४९ वर्षे माघ सुदि १३ अद्येह दयावटे श्रे० होना श्रे० कुमरसीह श्रे० सोमप्रभृतिसंघसमवायसमारब्धपुस्तकभाण्डागारे ले० सीहाकेन श्रीसमवायवृत्तिपुस्तकं लिखितम्' इत्येवमस्यान्ते उल्लेखः । अत्रोपयुक्तानां हे१,२ इति कागजपत्रोपरिलिखितानामादर्शानां तु स्वरूपमस्य ग्रन्थस्य प्रान्ते टिप्पणे विलोकनीयम् ॥ ३. स्था० टी० पृ०२।। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे जीवाजीवादिविविधपदार्थसार्थस्य यस्मिन्नसौ समवायः । समवयन्ति वा समवतरन्ति सम्मिलन्ति नानाविधा आत्मादयो भावा अभिधेयतया यस्मिन्नसौ समवाय इति । स च प्रवचनपुरुषस्याङ्गमिवाङ्गमिति समवायाङ्गम् । ___ तत्र किल श्री श्रमणमहावीरवर्द्धमानस्वामिसम्बन्धी पञ्चमो गणधर 5 आर्यसुधर्मस्वामी स्वशिष्यं जम्बूनामानमभि समवायाङ्गार्थमभिधित्सुः भगवति धर्माचार्ये बहुमानमाविर्भावयन् स्वकीयवचने च ‘समस्तवस्तुविस्तारस्वभावावभासिकेवलालोककलितमहावीरवचननिश्रिततयाऽविगानेन प्रमाणमिदम्' इति शिष्यस्य मतिमारोपयन्निदमादावेव सम्बन्धसूत्रमाह- सुयं मे इत्यादि । श्रुतम् आकर्णितं मे मया हे आयुष्मन् चिरजीवित ! जम्बूनामन् ! तेणं ति योऽसौ निर्मूलोन्मूलितराग... 10 -द्वेषादिविषमभावरिपुसैन्यतया भुवनभावावभासनसहसंवेदनपुरस्सराविसंवादिवचनतया च त्रिभुवनभवनप्राङ्गणप्रसर्पत्सुधाधवलयशोराशिस्तेन महावीरेण भगवता समग्रैश्वर्यादियुक्तेन एवमिति वक्ष्यमाणेन प्रकारेण आख्यातम् अभिहितम् 'आत्मादिवस्तुतत्त्वम्' इति गम्यते । अथवा आउसंतेणं ति भगवता इत्यस्य विशेषणम्, आयुष्मता चिरजीवितवता भगवतेति। अथवा पाठान्तरेण ‘मया' इत्यस्य विशेषणमिदम्, 15 आवसता मयाः गुरुकुले, आमृशता वा संस्पृशता मया विनयनिमित्तं करतलाभ्यां गुरोः क्रमकमलयुगलमिति । यद्वा आउसंतेणं ति आजुषमाणेन प्रीतिप्रवणमनसेति । यदाख्यातं तदधुनोच्यते- एगे आया इत्यादि । [सू०१] [२] इह खलु समणेणं भगवता महावीरेणं आदिकरेणं तित्थकरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसोत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपुंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा 20 लोगोत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहितेणं लोगपईवेणं लोगपज्जोयगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मणायगेणं धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंतचक्कवहिणा अप्पडिहतवरणाण१. मिह स जे२ ॥ २. शिष्यमतिं चारोप खं० जे१ ॥ ३. चिरजीविना भगवतेति अथवा मयेत्यस्य हे२ ॥ ४. 'आवसंतेणं' इति पाठान्तरमत्राभिप्रेतम् ॥ ५. 'आमुसंतेणं' इति पाठान्तरमत्राभिप्रेतम् ।। • Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १] सम्बन्धसूत्रम् । दसणधरेणं विअट्टच्छउमेणं जिणेणं जाणएणं तिनेणं तारएणं बुद्धणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं सव्वण्णुणा सव्वदरिसिणा सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तयं सिद्धिगतिणामधेयं ठाणं संपाविउकामेणं इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णत्ते, तंजहा- आयारे १, सूयगडे २, ठाणे ३, समवाए ४, विवाहपण्णत्ती ५, णायाधम्मकहाओ ६, उवासगदसातो ७, अंतगडदसातो 5 ८, अणुत्तरोववातियदसातो ९, पण्हावागरणाइं १०, विवागसुते ११, दिट्टिवाए १२ । तत्थ णं जे से चउत्थे अंगे समवाए त्ति आहिते तस्स णं अयमढे, तंजहा [टी०] कस्यांचिद् वाचनायामपरमपि सम्बन्धसूत्रमुपलभ्यते, यथा- इह खलु समणेणं भगवयेत्यादि, तामेव चे वाचनां बृहत्तरत्वाद् व्याख्यास्यामः । इदं च 10 द्वितीयसूत्रं सङ्ग्रहरूपप्रथमसूत्रस्यैव प्रपञ्चरूपमवसेयम् ।। अस्य चैवं गमनिका- इह अस्मिल्लोके निर्ग्रन्थतीर्थे वा, खलुक्यालङ्कारे अवधारणे वा, तथा च इहैव, न शाक्यादिप्रवचनेषु, श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः, तेन, इदं चान्तिमजिनस्य सेहसन्मतिसम्पन्नं नामान्तरमेव, यदाहसहसंमुईयाए समणे [आचा० सू० ७४३] त्ति । भगवतेति पूर्ववत् । महांश्चासौ वीरश्चेति 15 महावीरः, तेन, इदं च महासात्त्विकतया प्राणप्रहाणप्रवणपरीषहोपसर्गनिपातेऽ१. च जेर हे१ नास्ति ॥२. सहजसन्मति खं० विना। सहजसम्मति हे१॥३. सहसंमुइयाए हे१,२। सहसमुयाए जे२ । “समणे भगवं महावीरे कासवगुत्ते णं, तस्स णं तओ नामधिज्जा एवमाहिजंति, तंजहा- अम्मापिउसंतिए वद्धमाणे १, सहसमुइयाए समणे २, अयले भयभेरवाणं, परीसहोवसग्गाणं खंतिखमे, पडिमाणं पालए, धीमं, अरतिरतिसहे, दविए, वीरियसंपन्ने, देवेहिं से नाम कयं 'समणे भगवं महावीरे' ३।" इति पर्युषणाकल्पसूत्रे सू० १०८ । “श्रमणो भगवान् महावीरः काश्यप इतिनामकं गोत्रं यस्य स तथा, तस्य भगवतः त्रीणि अभिधानानि एवमाख्यायन्ते, तद्यथामातापितृसत्कं मातापितृदत्तं वर्धमान इति प्रथमं नाम १, सहसमुदिता सहभाविनी तपःकरणादिशक्तिः, तया श्रमण: इति द्वितीयं नाम २, भयभैरवयोर्विषये अचलो निप्रकम्पः, तत्र भयम् अकस्माद्भयं विद्युदादिजातम्, भैरवं तु सिंहादिकम्। तथा परिषहाः क्षुत्पिपासादयो द्वाविंशतिः, उपसर्गाश्च दिव्यादयश्चत्वारः, सप्रभेदास्तु षोडश, तेषां क्षान्त्या क्षमया क्षमते, न त्वसमर्थतया, य: स क्षान्तिक्षमः । प्रतिमानां भद्रादीनाम् एकरात्रिक्यादीनां वा अभिग्रहविशेषाणां पालकः । धीमान् ज्ञानत्रयाभिरामत्वात् । अरति-रती सहते, न तु तत्र हर्ष-विषादौ कुरुते इति भावः । द्रव्यं तत्तद्गुणानां भाजनम्, रागद्वेषरहित इति वृद्धाः । वीर्यं पराक्रमः, तेन सम्पन्नः । यतो भगवानेवंविधस्ततो देवै: से इति तस्य भगवतो नाम कृतं श्रमणो भगवान् महावीर इति तृतीयम् ३।" इति पर्युषणाकल्पसूत्रस्य टीकायां सुबोधिकायाम् ॥ ४. वते त्ति जे१,२ खं० ॥ ५. षहोपनिपातेऽप्यप्रकम्पत्वेन जे२, हे१,२ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे प्यप्रकम्पत्वेन पीयूषपानप्रभुभिराविर्भावितम्, आह च- अयले भयभेरवाणं खंतिक्खमे परीसहोवसग्गाणं पडिमाणं पारए देवेहिं कए महावीरे [पर्युषणा० ] त्ति। कथम्भूतेनेत्याहआदौ प्राथम्येन श्रुतधर्ममाचारादिग्रन्थात्मकं करोति तदर्थप्रणायकत्वेन प्रणयतीत्येवंशील आदिकरः, तेन । तथा तरन्ति तेन संसारसागरमिति तीर्थं प्रवचनम्, तदव्यतिरेकादिह 5 सङ्घस्तीर्थम्, तस्य करणशीलत्वात् तीर्थकरः, तेन । तीर्थकरत्वं च तस्य नान्योपदेशबुद्धत्वपूर्वकमित्यत आह- स्वयम् आत्मनैव नान्योपदेशतः सम्यग् बुद्धो हेयोपादेयवस्तुतत्त्वं विदितवानिति स्वयंसम्बुद्धः, तेन ।। स्वयंसम्बुद्धत्वं चास्य न प्राकृतस्येवासंभाव्यं पुरुषोत्तमत्वादस्येत्यत आह- पुरुषाणां मध्ये तेन तेनातिशयेन रूपादिनोद्गतत्वाद् ऊर्ध्ववर्त्तित्वादुत्तमः पुरुषोत्तमः, तेन । अथ 10 पुरुषोत्तमत्वमेव सिंहाद्युपमानत्रयेणास्य समर्थयन्नाह- सिंह इव सिंहः, पुरुषश्चासौ सिंहश्चेति पुरुषसिंहः, लोकेन हि सिंहे शौर्यमतिप्रकृष्टमभ्युपगतमतः शौर्ये स उपमानं कृतः, शौर्यं तु भगवतो बाल्ये प्रत्यनीकदेवेन भाप्यमानस्याप्यभीतत्वात् कुलिशकठिनमुष्टिप्रहारप्रहतिप्रवर्द्धमानामरशरीरकुब्जताकरणाच्च इति, अतस्तेन । तथा वरं च तत् पुण्डरीकं च वरपुण्डरीकं धवलं सहस्रपत्रम्, पुरुष एव वरपुण्डरीकं 15 पुरुषवरपुण्डरीकम्, धवलता चास्य भगवतः सर्वाशुभमलीमसरहितत्वात् सर्वेश्च शुभैरनुभावैः शुद्धत्वादिति, अतस्तेन । तथा वरश्चासौ गन्धहस्ती चे वरगन्धहस्ती, पुरुष एव वरगन्धहस्ती पुरुषवरगन्धहस्ती, यथा गन्धहस्तिनो गन्धेनैव सर्वगजा भज्यन्ते तथा भगवतस्तद्देशविहरणेन ईति-परचक्र-दुर्भिक्ष- जनमरकादीनि दुरितानि नश्यन्तीति, अतस्तेन पुरुषवरगन्धहस्तिना । 20 न भगवान् पुरुषाणामेवोत्तमः, किन्तु सकलजीवलोकस्यापीत्यत आह- लोकस्य तिर्यग्-नर-नरकि-नांकिलक्षणजीवलोकस्य उत्तमः चतु स्त्रिंशद्बद्धातिशयाद्यसाधारणगुणगणोपेततया सकलसुरा-ऽसुर-खचर-नरनिकरनमस्यतया च प्रधानो १. पीयूषपाना देवाः, तेषां प्रभव इन्द्रा इत्यर्थः ॥ २. दृश्यतां पृ.३ टि० ३ ॥ ३. प्राणा' जे१.खं० ॥ ४. तथा नास्ति जे१ खं० ॥ ५. चास्य प्राकृ खं० ॥ ६. °धुपमात्रयेणास्य जे२ ॥ ७. प्रहतवर्ध जे२ ॥ ८. शुभत्वा' जे२ ॥ ९. च नास्ति जे२ खं० ।। १०. जनडमरका जे१ ॥ ११. दुरितानि नश्यंतीति [सपाद- खंसं०] शतयोजनमध्ये अतस्तेन जे१ खं० । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धसूत्रम् । [सू० १] लोकोत्तमः, तेन । लोकोत्तमत्वमेवास्य पुरस्कुर्वन्नाह- लोकस्य सञ्जिभव्यलोकस्य नाथः प्रभुर्लोकनाथः, तेन । नाथत्वं चास्य योग-क्षेमकृन्नाथः [ ] इति वचनाद् अप्राप्तस्य सम्यग्दर्शनादेर्योगकरणेन लब्धस्य तस्यैव पालनेन चेति । लोकनाथत्वं च तात्त्विकं तद्धितत्वे सति सम्भवतीत्याह- लोकस्य एकेन्द्रियादिप्राणिगणस्य हित: आत्यन्तिकतद्रक्षाप्रकर्षप्ररूपणेनानुकूलवृत्तिर्लोकहितः, तेन । यदेतन्नाथत्वं हितत्वं वा 5 तद्रव्यानां यथावस्थितसमस्तवस्तुस्तोमप्रदीपनेन नान्यथेत्याह- लोकस्य विशिष्टतिर्यग्नरा-ऽमररूपस्याऽऽन्तरतिमिरनिकरनिराकरणेन प्रकृष्टपदार्थप्रकाशकारित्वात् प्रदीप इव प्रदीपो लोकप्रदीपः, तेन । इद च विशेषणं द्रष्टलोकमाश्रित्योक्तम्, अथ दृश्यं लोकमाश्रित्याह- लोकस्य लोक्यते इति लोक इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपस्य समस्तवस्तुस्तोमस्वभावस्याखण्डमार्तण्डमण्डलमिव निखिलभावस्वभावावभासनसमर्थ- 10 केवलालोकपूर्वकप्रवचनप्रभापटलप्रवर्तनेन प्रद्योतं प्रकाशं करोतीत्येवंशीलो लोकप्रद्योतकरः, तेन । । ननु लोकनाथत्वादिविशेषणयोगी हरि-हर-हिरण्यगर्भादिरपि तत्तीर्थिकमतेन सम्भवतीति कोऽस्य विशेष इत्याशङ्कायां तद्विशेषाभिधानायाह- न भयं दयते प्राणापहरणरसिकोपसर्गकारिण्यपि प्राणिनि ददातीत्यभयदयः, अभया वा 15 सर्वप्राणिभयपरिहारवती दया घृणा यस्य सोऽभयदयः, हरि-हरादिस्तु नैवमिति, तेनाऽभयदयेन । न केवलमसावपकारकारिणामप्यनर्थपरिहारमात्रं करोति, अपि त्वर्थप्राप्ति करोतीति दर्शयन्नाह- चक्षुरिव चक्षुः श्रुतज्ञानं शुभाशुभार्थविभागकारित्वात्, तद्दयते इति चक्षुर्दयः, तेन । यथा हि लोके चक्षुर्दत्त्वा वाञ्छितस्थानमार्ग दर्शयन् महोपकारी भवतीत्येवमिहापीति दर्शयन्नाह-मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मकं परमपदपथं दयत 20 इति मार्गदयः, तेन । यथा हि लोके चक्षुरुद्घाटनं मार्गदर्शनं च कृत्वा चौरादिविलुप्तान् निरुपद्रवं स्थान प्रापयन् परमोपकारी भवति एवमिहापीति दर्शयन्नाह- शरणं त्राणं नानोपद्रवोपद्रुतानां तद्रक्षास्थानम्, तच्च परमार्थतो निर्वाणम्, तद्दयत इति शरणदयः, १. “तथा लोकनाथेभ्य इति योगक्षेमकृदयमिति विद्वत्प्रवादः" इति ललितविस्तरायाम् ।। २. 'त्यत आह खं०॥ ३. भवतीति जे२ हे१,२ ।। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तेन । यथा हि लोके चक्षु-र्मार्ग-शरणदानात् दुःस्थानां जीवितव्यं ददाति एवमिहापीति दर्शयन्नाह- जीवनं जीवो भावप्राणधारणममरणधर्मत्वमित्यर्थः, तं दयत इति जीवदयः जीवेषु वा दया यस्य स जीवदयोऽतस्तेन । ... इदं चानन्तरोक्तं विशेषणकदम्बकं भगवतो धर्ममयमूर्तित्वात् सम्पन्नमिति 5 धर्मात्मकतामस्य विशेषणपञ्चकेनाह-धर्मं श्रुत-चारित्रात्मकं दुर्गतिप्रपतज्जन्तुधरणस्वभावं दयते ददातीति धर्मदयः, तेन । तद्दानं चास्य तद्देशनादेवेत्यत आह-धर्मम् उक्तलक्षणं देशयति कथयतीति धर्मदेशकः, तेन । धर्मदेशकत्वं चास्य धर्मस्वामित्वे सति, न पुनर्यथा नटस्येति दर्शयन्नाह- धर्मस्य क्षायिकज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मकस्य नायकः स्वामी यथावत् पालनाद् धर्मनायकः, तेन । तथा धर्मस्य सारथिर्धर्मसारथिः, यथा 10 रथस्य सारथी रथं रथिकमश्वांश्च रक्षति एवं भगवांश्चारित्रधर्माङ्गानां संयमा-ऽऽत्मप्रवचनाख्यानां रक्षणोपदेशाद्धर्मसारथिर्भवतीति तेन धर्मसारथिना । तथा त्रयः समुद्राश्चतुर्थो हिमवान् एते चत्वारः अन्ताः पृथिव्याः पर्यन्तास्तेषु स्वामितया भवतीति चातुरन्तः, स चासौ चक्रवर्ती च चातुरन्तचक्रवर्ती, वरश्चासौ चातुरन्तचक्रवर्ती चेति वरचातुरन्तचक्रवर्ती राजातिशयः, धर्मविषये वरचातुरन्तचक्रवर्ती धर्मवरचातुरन्त15 चक्रवर्ती, यथा हि पृथिव्यां शेषराजातिशायी वरचातुरन्तचक्रवर्ती भवति तथा भगवान् धर्मविषये शेषप्रणेतृणां मध्ये सातिशयत्वात् तथोच्यत इति तेन धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिना । एतच्च धर्मदायकत्वादिविशेषणपञ्चकं प्रकृष्टज्ञानादियोगे सति भवतीत्यत आहअप्रतिहते कट-कुड्य-पर्वतादिभिरस्खलिते अविसंवादके वा, अत एव क्षायिकत्वाद्वा 20 वरे प्रधाने ज्ञान-दर्शने केवललक्षणे धारयतीति अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरः, तेन । एवंविधसंवेदनसंपदुपेतोऽपि छद्मवान् मिथ्योपदेशित्वान्नोपकारीति निश्छद्मताप्रतिपादनायाऽस्याऽऽह, अथवा कथमस्याप्रतिहतसंवेदनत्वं सम्पन्नम्, अत्रोच्यते, आवरणाभावात्, एतदेवाह- व्यावृत्तं निवृत्तमपगतं छद्म शठत्वमावरणं वा यस्य स तथा, तेन व्यावृत्तछद्मना । माया-ऽऽवरणयोश्चाभावोऽस्य रागादिजयाज्जात 25 इत्यत आह- जयति निराकरोति राग-द्वेषादिरूपानरातीनिति जिनः, तेन । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धसूत्रम् । [सू० १] रागादिजयश्चास्य रागादिस्वरूप-तजयोपायज्ञानपूर्वक एव भवतीत्येतदस्याह- जानाति छाद्यस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञायकः, तेन । __ अनन्तरमस्य स्वार्थसम्पत्त्युपाय उक्तः, अधुना स्वार्थसम्पत्तिपूर्वकं परार्थसम्पादकत्वं विशेषणषट्केनाह- तीर्ण इव तीर्णः, संसारसागरमिति गम्यते, तेन । तथा तारयति परानप्युपदेशवर्तिन इति तारकः, तेन । तथा बुद्धेन जीवादितत्त्वम्, तथा बोधकेन 5 जीवादितत्त्वमेव परेषाम् । तथा मुक्तेन बाह्याभ्यन्तरग्रन्थबन्धनात्, मोचकेन तत एव परेषाम् । तथा मुक्तत्वेऽपि सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना, न तु मुक्तावस्थायां दर्शनान्तराभिमतपुरुषेणेव भाविजडत्वेन । तथा शिवं सर्वाबाधारहितत्वात्, अचलं स्वाभाविकप्रायोगिकचलनहेत्वभावात्, अरुजम् अविद्यमानरोगं शरीर-मनसोरभावात्, 10 अनन्तमनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वात्, अक्षयम् अनाशं साद्यपर्यवसितस्थितिकत्वात्, अक्षतं वा परिपूर्णत्वात् पूर्णिमाचन्द्रमण्डलवत्, अव्याबाधमपीडाकारित्वात्, अपुनरावर्तकम् अविद्यमानपुनर्भवावतारं तद्बीजभूतकर्माभावात्, सिद्धिगतिरिति नामधेयं यस्य तत् सिद्धिगतिनामधेयम्, तिष्ठति यस्मिन् कर्मकृतविकारविरहितत्वेन सदाऽवस्थितो भवति तत् स्थानं क्षीणकर्मणो जीवस्य स्वरूपं लोकाग्रं वा, जीवस्वरूपविशेषणानि 15 तु लोकाग्रस्याधेयधर्माणामाधारेऽध्यारोपादवसेयानि, तदेवंभूतं स्थानं सम्प्राप्तुकामेन यातुमनसा, न तु तत्प्राप्तेन, तत्प्राप्तस्याऽकरणत्वेन प्रज्ञापनाऽभावात्, प्राप्तुकामेनेति च । यदुच्यते तदुपचाराद्, अन्यथा हि निरभिलाषा एव भगवन्तः केवलिनो भवन्ति, मोक्षे भवे च सर्वत्र, निःस्पृहो मुनिसत्तमः [ ] इति वचनादिति । तदेवमगणितगुणगणसम्पदुपेतेन भगवता इमे त्ति इदं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षमासनं 20 च, द्वादशाङ्गानि यस्मिंस्तद् द्वादशाङ्गम्, गणिन: आचार्यस्य पिटकमिव पिटकं गणिपिटकम्, यथा हि वालञ्जुकवाणिजकस्य पिटकं सर्वस्वाधारभूतं भवति एवमाचार्यस्य द्वादशाङ्गं ज्ञानादिगुणरत्नसर्वस्वाधारकल्पं भवतीति भावः, प्रज्ञप्तं तीर्थकरनामकर्मोदयवर्तितया प्रायः कृतार्थेनापि परोपकाराय प्रकाशितम् । तद्यथे१. इदं च व जे२ खं० ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे त्युदाहरणोपदर्शने, आचार इत्यादि द्वादश पदानि वक्ष्यमाणनिर्वचनानीति कण्ठ्यानि। तत्थ णं ति तत्र द्वादशाङ्गे णमित्यलङ्कारे यत्तच्चतुर्थमङ्गं समवाय इत्याख्यातं तस्यायमर्थः आत्मादिः अभिधेयो ‘भवतीति गम्यते, तद्यथेति वाचनान्तरद्वितीयसम्बन्धसूत्रव्याख्येति । 5 [सू०१] [३] एके आता १, एके अणाया २। एगे दंडे ३, एगे अदंडे ४। एगा किरिया ५, एगा अकिरिया ६। एगे लोए ७, एगे अलोए । एगे धम्मे ९, एगे अधम्मे १०। एगे पुण्णे ११, एगे पावे १२। एगे बंधे १३, एगे मोक्खे १४।। __ एगे आसवे १५, एगे संवरे १६। एगा वेयणा १७, एगा णिजरा १८। 10 [टी०] इह च विदुषा पदार्थसार्थमभिदधता सक्रम एवासावभिधातव्य इति न्यायः, तत्राचार्य एकत्वादिसङ्ख्याक्रमसम्बद्धानर्थान् वक्तुकाम आदावेकत्वविशिष्टानात्मनश्च सर्वपदार्थभोजकत्वेन प्रधानत्वादात्मादीन् सर्वस्य वस्तुनः सप्रतिपक्षत्वेन सप्रतिपक्षान् एगे आया इत्यादिभिरष्टादशभिः सूत्रैराह । स्थानाङ्गोक्तार्थानि चैतानि प्रायस्तथापि किञ्चिदुच्यते- एक आत्मा, कथञ्चिदिति गम्यते, इदं च सर्वसूत्रेष्वनुगमनीयम् । तत्र 15 प्रदेशार्थतया असङ्ख्यातप्रदेशोऽपि जीवो द्रव्यार्थतया एकः, अथवा प्रतिक्षणं पूर्वस्वभावक्षया-ऽपरस्वरूपोत्पादयोगेनाऽनन्तभेदोऽपि कालत्रयानुगामिचैतन्यमात्रापेक्षया एक आत्मा, अथवा प्रतिसन्तानं चैतन्यभेदेनाऽनन्तत्वेऽप्यात्मनां सङ्ग्रहनयाश्रितसामान्यरूपापेक्षयैकत्वमात्मन इति । तथा न आत्मा अनात्मा घटादिपदार्थः, सोऽपि प्रदेशार्थतया सङ्ख्येया-ऽसङ्ख्येया-ऽनन्तप्रदेशोऽपि तथाविधैकपरिणामरूप20 द्रव्यार्थापेक्षया एक एव, एवं संतानापेक्षयाऽपि, तुल्यरूपापेक्षया तु अनुपयोग लक्षणैकस्वभावयुक्तत्वात् कथञ्चिद्भिन्नस्वरूपाणामपि धर्मास्तिकायादीनामनात्मनामेकत्वमवसेयमिति । __ तथा एको दण्डो दुष्प्रयुक्तमनोवाक्कायलक्षणो हिंसामानं वा, एकत्वं चास्य सामान्यनयादेशाद्, एवं सर्वत्रैकत्वमवसेयम् । तथैकोऽदण्डः प्रशस्तयोगत्रयमहिंसामानं वा। १. एव नास्ति खं० जे१ ।। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १] एकस्थानकम् । ___ तथैका क्रिया कायिक्यादिका आस्तिक्यमानं वा। तथैका अक्रिया योगनिरोधलक्षणा नास्तिकत्वं वा । तथैको लोकः, त्रिविधोऽप्यसङ्ख्येयप्रदेशोऽपि वा द्रव्यार्थतया । तथा एकोऽलोकः, अनन्तप्रदेशोऽपि द्रव्यार्थतया, अथवैते लोकालोकयोर्बहुत्वव्यवच्छेदनपरे सूत्रे, अभ्युपगम्यन्ते च कैश्चिद् बहवो लोकाः, अतस्तद्विलक्षणा अलोका अपि तावन्त एवेति, एवं सर्वत्र गमनिका कार्या । ___ नवरं धर्मो धर्मास्तिकायः, अधर्मः अधर्मास्तिकायः, पुण्यं शुभं कर्म, पापम् अशुभं कर्म । बन्धो जीवस्य कर्मपुद्गलसंश्लेषः, स चैकः सामान्यतः, सर्वकर्मबन्धव्यवच्छेदावसरे वा पुनर्बन्धाभावाद्, अनेनोद्देशेन मोक्षा-ऽऽसव-संवरवेदना-निर्जराणामप्येकत्वमवसेयमिति । इह चानात्मग्रहणेन सर्वेषामनुपयोगवतामेकत्वं प्रज्ञाप्य पुनर्लोकादितया यदेकत्वप्ररूपणं तत् सामान्यविशेषापेक्षमवगन्तव्यमिति । 10 [सू० १] [४] जंबुद्दीवे दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते १२ अपइट्ठाणे णरते एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते २॥ पालए जाणविमाणे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते ३॥ सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते ४। 15 [५] अद्दाणक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते ५। चित्ताणक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते ६। सातिणक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते ७। [६] इमीसे [णं] रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं णेरइयाणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता १॥ इमीसे [णं] रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं उक्कोसेणं एगं सागरोवमं ठिती 20 पण्णत्ता २॥ दोच्चाए णं पुढवीए णेरतियाणं जहण्णेणं एगं सागरोवमं ठिती पण्णत्ता ३। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता ४। असुरकुमाराणं देवाणं उक्कोसेणं एगं साहियं सागरोवमं ठिती पण्णत्ता ५। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे असुरकुमारिंदवजियाणं भोमेजाणं देवाणं अत्थेगतियाणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता ६। .. ... ... असंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अत्थेगतियाणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता ७। 5 असंखेजवासाउयगब्भवक्वंतियसन्निमणुयाणं अत्थेगतियाणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता ८॥ वाणमंतराणं देवाणं उक्कोसेणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता ९। जोइसियाणं देवाणं उक्कोसेणं एगं पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिती पण्णत्ता १०॥ 10 सोहम्मे कप्पे देवाणं जहण्णेणं एगं पलितोवमं ठिती पण्णत्ता ११॥ सोहम्मे कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं एगं सागरोवमं ठिती पण्णत्ता १२। ईसाणे कप्पे देवाणं जहण्णेणं सातिरेगं [एगं] पलितोवमं ठिती पण्णत्ता १३॥ ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेगतियाणं एगं सागरोवमं ठिती पण्णत्ता १४॥ जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंतं भवं मणुं माणुसुत्तरं लोगहियं विमाणं 15 देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगं सागरोवमं ठिती पण्णत्ता १५॥ [७] ते णं देवा एगस्स अद्धमासस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा णीससंति वा १६। तेसि णं देवाणं एगस्स वाससहस्सस्स आहारट्टे समुप्पजति १७। 20 संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे एगेणं भवग्गहणेणं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिणिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति १८॥ [टी०] एवं चात्मादीनां सकलशास्त्रप्रपञ्च्यानामर्थानां प्रत्येकमेकत्वमभिधाय अधुनात्मानात्मपरिणामरूपाणामर्थानां तदेवाह, जंबू इत्यादि सूत्रसप्तकमाश्रयविशेषाणां १. प्रपंच्यमानामर्थानां जेमू२ । प्रपंच्यामानामर्थानां जेसं२ । प्रवंध्यानामर्थानां खं० ।। २. अधुनात्मपरि जे१॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १] एकस्थानकम् । तथा इमीसे णमित्यादि सूत्राष्टादशकमाश्रयिणां स्थित्यादिधर्माणां प्रतिपादनपरं सुबोधम् । नवरं जंबुद्दीवे दीवे इह सूत्रे आयामविक्खंभेणं ति क्वचित् पाठो दृश्यते, क्वचित्तु चक्कवालविक्खंभेणं ति, तत्र प्रथमः सम्भवति, अन्यत्रापि तथा श्रवणात्, सुगमश्च। द्वितीयस्त्वेवं व्याख्येयः- चक्रवालविष्कम्भेण वृत्तव्यासेन, इदं च । प्रमाणयोजनमवसेयम्, यदाह 5 आयंगुलेण वत्थु उस्सेहपमाणओ मिणसु देहं । नग-पुढवि-विमाणाइं मिणसु पमाणंगुलेणं तु ॥ [बृहत्सं० गा० ३४९] तथा पालकं यानविमानं सौधर्मेन्द्रसम्बन्ध्याभियोगिकपालकाभिधानदेवकृतं वैक्रि यम्, यानं गमनम्, तदर्थं विमानम्, यायते वाऽनेनेति यानं तदेव विमानं यानविमानं पारियानिकमिति यदुच्यते । 10 __ अत्थीत्यादि, अस्ति विद्यते एकेषां केषाञ्चिन्नैरयिकाणामेकं पल्योपमं स्थितिरिति कृत्वा प्रज्ञप्ता प्रवेदिता मया अन्यैश्च जिनैः, सा च चतुर्थे प्रस्तटे मध्यमाऽवसेयेति, एवमेकं सागरोपमं त्रयोदशे प्रस्तटे उत्कृष्टा स्थितिरिति । असुरिंदवजियाणं ति चमर-बलिवर्जितानां भोमेजाणं ति भवनवासिनाम्, भूमौ पृथिव्यां रत्नप्रभाभिधानायां भवत्वात्तेषामिति, तेषां चैकं पल्योपमं मध्यमा स्थितिर्यत 15 उत्कृष्टा देशोने द्वे पल्योपमे सा, आह च दाहिण दिवट्ट पलियं दो देसूणुत्तरिल्लाणं ॥ [बृहत्सं० गा० ५] ति ।। असंखेज्जेत्यादि, असङ्ख्येयानि वर्षाण्यायुर्येषां ते तथा, ते च ते सज्ञिनश्च समनस्काः, ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेति असङ्ख्येयवर्षायुःसज्ञि१. “आत्माङ्गुलेन मिमीष्व वास्तु । तच्च त्रिविधम्, तद्यथा-खातमुच्छ्रितमुभयं च । तत्र खातं कूप-तडाग-भूमिगृहादि, उच्छ्रितं धवलगृहादि, उभयं भूमिगृहयुक्तधवलगृहादि । उत्सेधप्रमाणेनाङ्गुलेन मिमीष्व देहं सुरादीनां शरीरम् । प्रमाणाङ्गुलेन पुनर्मिमीष्व नग-पृथिवी-विमानानि। तत्र नगाः पर्वता मेर्वादयः, पृथिव्यो धर्मादयः, विमानानि सौधर्मावतंसकादीनि। विमानग्रहणं भवन-नरकावासाद्यपलक्षणम्, तेन तान्यपि प्रमाणागलेन मिमीष्व" । इति बहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां टीकायाम्॥ २. परि खं० ॥ ३. तदुच्यते जे२ हे२ ॥ ४. "दाहिणेत्यादि, दाक्षिणात्यानां नागकुमाराधधिपतीनां धरणप्रमुखानां नवानामिन्द्राणामुत्कृष्टमायुर्व्य) पल्योपमं सार्धं पल्योपममित्यर्थः । उत्तरिल्लाणं ति औत्तराहानामुत्तरदिग्भाविनां नागकुमारादीन्द्राणां भूतानन्दप्रभृतीनां नवानां देशोने किञ्चिदूने द्वे पल्योपमे” इति बृहत्संग्रहणीटीकायाम् ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तेषां केषाञ्चिद् ये हैमवतैरण्यवतवर्षयोरुत्पन्नास्तेषामेकं पल्योपमं स्थितिः । एवं मनुष्यसूत्रमपि, नवरं गर्भे गर्भाशये व्युत्क्रान्ति: उत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिका न समूर्च्छनजा इत्यर्थः ।। वाणमन्तराणं देवाणं ति, देवानामेव न तु देवीनाम्, तासामर्द्धपल्योपमस्य 5 प्रतिपादितत्वात् । जोइसियाणं देवाणं ति चन्द्रविमानदेवानाम्, न सूर्यादिदेवानां नापि चन्द्रादिदेवीनाम्, पलियं च सयसहस्सं चंदाण वि आउयं जाण ॥ [बृहत्सं० गा० ७] इति वचनात्। सोहम्मे कप्पे देवाणं ति, इह देवशब्देन देवा देव्यश्च गृहीताः, सौधर्मे हि पल्योपमाद्धीनतरा स्थितिर्जघन्यतोऽपि नास्ति, इयं च प्रथमप्रस्तटेऽवसेया। सोहम्मे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं एगं सागरोवममिति, अत्र देवानामेव ग्रहणं 10 न देवीनाम्, उत्कृष्टतोऽपि तत्र तासां पञ्चाशत्पल्योपमस्थितिकत्वात्, तथा एकं सागरोपममिति मध्यमस्थित्यपेक्षया, उत्कर्षतस्तत्र सागरोपमद्वयसद्भावात्, प्रस्तटापेक्षया त्वेषां सप्तमप्रस्तटे मध्यमाऽवसेया। ईसाणे कप्पे देवाणमित्यत्र देवग्रहणेन देवा देव्यश्च गृह्यन्ते, यतस्तत्र सातिरेकपल्योपमादन्या जघन्यतः स्थितिरेव नास्ति । ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणमित्यत्र देवानामेव ग्रहणं न देवीनाम्, तत्र तासामुत्कर्षतोऽपि 15 पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमस्थितिकत्वादिति । तथा ये देवाः सागरं सागराभिधानमेवं सुसागरं सागरकान्तं भवं मनुं मानुषोत्तरं लोकहितमिह चकारो द्रष्टव्यः, समुच्चयस्य द्योतनीयत्वाद्, विमानं देवनिवासविशेषमासाद्येति शेषः, देवत्वेन न तु देवीत्वेन, तासां सागरोपमस्थितेरसम्भवात्, उत्पन्ना जातास्तेषां देवानामेकं सागरोपमं स्थितिरिति । एतानि च विमानानि सप्तमप्रस्तटेऽवसेयानि । 20 स्थित्यनुसारेण च देवानामुच्छ्वासादयो भवन्तीति तान् दर्शयन्नाह- ते णमित्यादि, येषां देवानामेकं सागरोपमं स्थितिस्ते देवाः, णमित्यलङ्कारे, अर्द्धमासस्य ‘अन्ते' इति शेष: आनन्ति प्राणन्ति, एतदेव क्रमेण व्याख्यानयन्नाह- उच्छ्वंसन्ति निःश्वसन्ति, १. “चन्द्राणामपि सर्वेषां प्रत्येकमुत्कृष्टमायुर्विजानीयात् एकं पल्योपमं वर्षशतसहस्रम्” इति बृहत्संग्रहणीटीकायाम्। २. °स्तेषां देवानामेव ग्रहणं न देवीनाम् । तत्र तासां सागरोपमं स्थितिरिति जे२ ।। ३. च नास्ति जे२॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २] द्विस्थानकम् । वाशब्दाः विकल्पार्थाः, तथा तेषामेव वर्षसहस्रस्य 'अन्ते' इति शेषः, आहारार्थः आहारप्रयोजनमाहारपुद्गलानां ग्रहणमाभोगतो भवति, अनाभोगतस्तु प्रतिसमयमेव विग्रहादन्यत्र भवतीति । गाथेह जस्स जइ सागरोवम ठिई तस्स तत्तिएहिं पक्खेहिं । ऊसासो देवाणं वाससहस्सेहिं आहारो ॥ [बृहत्सं० गा० २१४] त्ति ।। सन्ति विद्यन्ते एगइया एके केचन भवसिद्धिय त्ति भवा भाविनी सिद्धिः मुक्तिर्येषां ते भवसिद्धिकाः भव्याः । भवग्गहणेणं ति भवस्य मनुष्यजन्मनो ग्रहणम् उपादानं भवग्रहणं तेन सेत्स्यन्ति अष्टविधमहर्द्धिप्राप्त्या, भोत्स्यन्ते केवलज्ञानेन तत्त्वम्, मोक्ष्यन्ते कर्मांशैः, परिनिर्वास्यन्ति कर्मकृतविकारविरहाच्छीतीभविष्यन्ति, किमुक्तं भवति ? सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्तीति ॥१॥ [सू० २] [१] दो दंडा पण्णत्ता, तंजहा- अट्ठादंडे चेव अणट्ठादंडे चेव । दुवे रासी पण्णत्ता, तंजहा- जीवरासी चेव अजीवरासी चेव । दुविहे बंधणे पण्णत्ते, तंजहा- रागबंधणे चेव दोसबंधणे चेव ३॥ [२] पुव्वाफग्गुणीणक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते १। उत्तराफग्गुणीणक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते २। पुव्वाभद्दवताणक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते ३। उत्तराभद्दवताणक्खत्ते दुतारे 15 पण्णत्ते ४॥ [३] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं रतियाणं दो पलितोवमाइं ठिती पण्णत्ता १॥ दोच्चाए पुढवीए णं अत्थेगतियाणं णेरतियाणं दो सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता २॥ 20 असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं दो पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ३। १. सागरोवमा ठिई जे२ खंमू० हे१ । सागराई ठिई खंसं० । सागरोवमाई ठिई हेर । "जस्स जइ सागराई ठिई तस्स तत्तिएहिं पक्खेहिं । ऊसासो देवाणं वाससहस्सेहिं आहारो॥" बृहत्सं० गा० २१४ । “देवानां मध्ये यस्य देवस्य यावन्ति सागरोपमाणि स्थितिस्तस्य तावद्भिः पक्षरुच्छासः, तावद्भिर्वर्षसहस्रैराहारः।" इति बृहत्संग्रहणीटीकायाम् ॥ २. स्सेण आहारो जे१ ॥ For Private & Personal use only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे __ असुरिंदवजियाणं भोमेजाणं देवाणं उक्कोसेणं देसूणातिं दो पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ४। असंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अत्थेगतियाणं दो पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ५। ____असंखेजवासाउयसण्णिमणुस्साणं अत्थेगतियाणं दो पलितोवमातिं ठिती 5 पण्णत्ता ६॥ सोहम्मे कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं दो पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ७। ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेगतियाणं दो पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ८॥ सोहम्मे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ९॥ ईसाणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं साहियातिं दो सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता १०। ___ 10 सणंकुमारे कप्पे देवाणं जहण्णेणं दो सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ११॥ माहिंदे कप्पे देवाणं जहण्णेणं साहियातिं दो सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता १२॥ जे देवा सुभं सुभकंतं सुभवण्णं सुभगंधं सुभलेसं सुभफासं सोहम्मवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमातिं ठिती 15 पण्णत्ता १३॥ [४] ते णं देवा दोण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं दोहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति । ___अत्थेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे दोहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति 20 बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ३। [टी०] सामान्यनयाश्रयणादेकतया वस्तून्यभिधायाधुना विशेषनयाश्रयणाद् द्वित्वेनाहदो दंडेत्यादि सुगममा द्विस्थानकसमाप्तेः, नवरमिह दण्ड-राशि-बन्धनार्थं सूत्राणां त्रयम्, नक्षत्रार्थं चतुष्टयम्, स्थित्यर्थं त्रयोदशकम्, उच्छ्वासाद्यर्थं त्रयमिति । तत्र अर्थेन स्वपरोपकारलक्षणेन प्रयोजनेन दण्डो हिंसा अर्थदण्डः, एतद्विपरीतोऽनर्थदण्ड इति । तथा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३] त्रिस्थानकम् । रत्नप्रभायां द्विपल्योपमा स्थितिश्चतुर्थप्रस्तटे मध्यमा, द्वितीयायां द्वे सागरोपमे स्थितिः षष्ठप्रस्तटे मध्यमा । तथा असुरेन्द्रवर्जितभवनवासिनां द्वे देशोनपल्योपमे स्थितिरौदीच्यनागकुमारादीनाश्रित्यावसेया, यत आह- दो देसूणुत्तरिल्लाणं [बृहत्सं० ५] ति । तथा असङ्ख्येयवर्षायुषां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च हरिवर्ष-रम्यकवर्षजन्मनां द्विपल्योपमा स्थितिरिति ॥२॥ [सू० ३] [१] तओ दंडा पण्णत्ता, तंजहा- मणदंडे वयदंडे कायदंडे । तओ गुत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा- मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती २॥ तओ सल्ला पण्णत्ता, तंजहा- मायासल्ले णं, नियाणसल्ले णं, मिच्छादसणसल्ले णं । तओ गारवा पण्णत्ता, तंजहा- इड्डीगारवे रसगारवे सायागारवे ।। 10 तओ विराहणाओ पण्णत्ताओ, तंजहा- नाणविराहणा दंसणविराहणा चरित्तविराहणा ५। [२] मिगसिरणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते १। पुस्सणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते २। जेठाणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते ३॥ अभीइणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते ४॥ सवणणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते ५। अस्सिणिणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते ६। 15 भरणिणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते ७। [३] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं रतियाणं तिण्णि पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता १। दोच्चाए णं पुढवीए रतियाणं उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता २॥ 20 तच्चाए णं पुढवीए रतियाणं जहण्णेणं तिण्णि सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ३॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं तिण्णि पलितोवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ असंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं तिण्णि पलितोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। 25 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ___ असंखेजवासाउयसण्णिगब्भवक्कंतियमणुस्साणं उक्कोसेणं तिण्णि पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ६। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं तिण्णि पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ७। 5 सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं तिण्णि सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ८॥ जे देवा आभंकरं पभंकरं आभंकरपभंकरं चंदं चंदावत्तं चंदप्पभं चंदकंतं चंदवण्णं चंदलेसं चंदज्झयं चंदरूवं चंदसिंगं चंदसिहॅ चंदकूडं चंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमातिं 10 ठिती पण्णत्ता ९॥ ___ [४] ते णं देवा तिण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ११ तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जति २। __ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे तिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव 15 सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ३॥ [टी०] अथ त्रिस्थानकम्- तओ इत्यादि सर्वं सुगमम् । नवरमिह दण्ड-गुप्तिशल्य-गौरव-विराधनार्थं सूत्राणां पञ्चकम्, नक्षत्रार्थं सप्तकम्, स्थित्यर्थं नवकम्, उच्छ्वासाद्यर्थं त्रयमिति । तत्र दण्ड्यते चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डाः दुष्प्रयुक्तमनःप्रभृतयः । मन एव दण्डो मनोदण्डो मनसा वा दुष्प्रयुक्तेनात्मनो 20 दण्डो दण्डनं मनोदण्डः, एवमितरावपि । तथा गोपनानि गुप्तयः मनःप्रभृतीनामशुभप्रवृत्तिनिरोधनानि शुभप्रवृत्तिकरणानि चेति । तथा तोमरादिशल्यानीव शल्यानि दुःखदायकत्वात् मायादीनि, तत्र माया निकृतिः, सैव शल्यं मायाशल्यम्, णंकारो वाक्यालङ्कारे, एवमितरे अपि। नवरं निदानं देवादिऋद्धीनां दर्शन-श्रवणाभ्याम् 'इतो ब्रह्मचर्यादेरनुष्ठानात् ममैता भूयासुः' इत्यध्यवसायः, मिथ्यादर्शनम् १. चंदरूवं जे१ खं० विना नास्ति । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुःस्थानकम् ।। [सू० ४] अतत्त्वार्थश्रद्धानमिति । तथा गौरवाणि अभिमान-लोभाभ्यामात्मनोऽशुभभावगुरुत्वानि, तानि च संसारचक्रवालपरिभ्रमणहेतुकर्म निदानानि । तत्र ऋद्धया नरेन्द्रादिपूज्याचार्यत्वादिलक्षणया गौरवम् ऋद्धिगौरवम्, ऋद्धिप्राप्त्यभिमानतदप्राप्तिप्रार्थनद्वारेणात्मनोऽशुभभावगौरवमित्यर्थः, एवं रसेन गौरवं रसगौरवम्, सातेन गौरवं सातगौरवं चेति । तथा विराधनाः खण्डनाः, तत्र ज्ञानस्य विराधना ज्ञानविराधना 5 ज्ञानप्रत्यनीकता-निह्नवादिरूपा, एवमितरे अपि, नवरं दर्शनं सम्यग्दर्शनं क्षायिकादि, चारित्रं सामायिकादीति । तथा असङ्ख्यातवर्षायुषां पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां देवकुरूत्तरकुरुजन्मनां त्रीणि पल्योपमानीति । तथा आभङ्करं प्रभङ्करं आभङ्करप्रभङ्करं चन्द्रं चन्द्रावर्त चन्द्रप्रभं चन्द्रकान्तं चन्द्रवर्णं चन्द्रलेश्यं चन्द्रध्वजं चन्द्रशृङ्गं । चन्द्रशिष्टं चन्द्रकूटं चन्द्रोत्तरावतंसकं विमानमिति ॥३॥ 10 [सू० ४] [१] चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तंजहा- कोहकसाए, माणकसाए, मायाकसाए, लोभकसाए । __ चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तंजहा- अट्टे झाणे, रुद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे २॥ चत्तारि विगहातो पण्णत्तातो, तंजहा- इत्थिकहा, भत्तकहा, रायकहा, 15 देसकहा ३। चत्तारि सण्णा पण्णत्ता, तंजहा- आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा ४ चउन्विहे बंधे पण्णत्ते, तंजहा- पगडिबंधे, ठितिबंधे, अणुभावबंधे, पदेसबंधे५। चउगाउए जोयणे पण्णत्ते ६। [२] अणुराहाणक्खत्ते चउतारे पण्णत्ते १। पुव्वासाढणक्खत्ते चउतारे पण्णत्ते २। उत्तरासाढनक्खत्ते चतारे पण्णत्ते३॥ [३] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं चत्तारि पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता १॥ 25 20 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे । तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं चत्तारि सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं चत्तारि पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलितोवमाइं ठिती 5 पण्णत्ता ४। सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा किटिं सुकिहिँ किट्ठियावत्तं किट्ठिप्पभं किट्ठिजुत्तं किट्ठिवण्णं किट्ठिलेसं किट्ठिज्झयं किट्ठिसिंगं किट्ठिसिर्ट किट्टिकूडं किटुत्तरवडेंसगं विमाणं 10 देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ६। [४] ते णं देवा चउण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १॥ तेसि णं देवाणं चउहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २। अत्थेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे चउहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव 15 सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३॥ [टी०] चतुःस्थानकमपि सुगममेव, नवरं कषाय-ध्यान-विकथा-सञ्ज्ञा-बन्धयोजनार्थं सूत्राणां षट्कम्, नक्षत्रार्थं त्रयम्, स्थित्यर्थं षट्कम्, शेषं तथैव । अन्तर्मुहूर्त यावच्चित्तस्यैकाग्रता योगनिरोधश्च ध्यानम्, तत्राऽऽर्त मनोज्ञा-ऽमनोज्ञवस्तुवियोग संयोगादिनिबन्धनचित्तविक्लवलक्षणम्, रौद्रं हिंसा-ऽनृत-चौर्य-धनसंरक्षणाभि20 सन्धानलक्षणम्, धर्नामाज्ञादिपदार्थस्वरूपपर्यालोचनैकाग्रता, शुक्लं पूर्वगतश्रुतालम्बनेन मनसोऽत्यन्तस्थिरता योगनिरोधश्चेति । तथा विरुद्धाश्चारित्रं प्रति स्त्र्यादिविषयाः कथा विकथाः । तथा सञ्ज्ञाः असातवेदनीय-मोहनीयकर्मोदयसम्पाद्या आहाराभिलाषादिरूपाश्चेतनाविशेषाः । तथा सकषायत्वाज्जीवस्य कर्मणो योग्यानां १. तथैव च । अन्त' खं० ॥ २. भिधान जे१ हे१ ॥ ३. "तावलम्ब जे२ ।। ४. “सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः" इति तत्त्वार्थसूत्रे ८०२ ॥ . Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चस्थानकम् । [सू० ५] पुद्गलानां बन्धनम् आदानं बन्धः, तत्र प्रकृतयः कर्मणोंऽशा भेदाः ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ, तासां बन्धः प्रकृतिबन्धः, तथा स्थितिः तासामेवावस्थानं जघन्यादिभेदभिन्नम्, तस्या बन्धो निर्वर्तनं स्थितिबन्धः, तथा अनुभावो विपाकस्तीवादिभेदो रसः, तस्य बन्धोऽनुभावबन्धः, तथा जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामनन्तानन्तानां प्रतिप्रकृति प्रतिनियतपरिमाणानां बन्धः सम्बन्धनं प्रदेशबन्ध इति । तथा कृष्टि-सुकृष्ट्यादीनि 5 द्वादश विमानानि पूर्वोक्तविमाननामानुसारवन्तीति ॥४॥ [सू० ५] [१] पंच किरियातो पण्णत्तातो, तंजहा- काइया अहिगरणिया पाओसिया पारितावणिया पाणातिवातकिरिया १। पंच महव्वया पण्णत्ता, तंजहा- सव्वातो पाणातिवातातो वेरमणं, सव्वातो मुसावायातो वेरमणं, सव्वातो जाव परिग्गहाओ वेरमणं २॥ 10 पंच कामगुणा पण्णत्ता, तंजहा- सद्दा रूवा रसा गंधा फासा ३। - पंच आसवदारा पण्णत्ता, तंजहा- मिच्छत्तं अविरति पमाए कसाए जोगा। पंच संवरदारा पण्णत्ता, तंजहा- सम्मत्तं विरती अप्पमादो अकसायया अजोगया ५। 15 पंच निज्जरट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- पाणातिवातातो वेरमणं, मुसावायातो वेरमणं, अदिण्णादाणातो वेरमणं, मेहणातो वेरमणं, परिग्गहातो वेरमणं ६। ___पंच समितीतो पण्णत्ताओ, तंजहा- इरियासमिती, भासासमिती, एसणासमिती, आयाणभंडनिक्खेवणासमिती, उच्चार-पासवण-खेलसिंघाण-जल्लपारिट्ठावणिया समिती ७।। 20 पंच अत्थिकाया पण्णत्ता, तंजहा- धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए ८॥ [२] रोहिणीनक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते १। पुणव्वसू नक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते २। हत्थे नक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते ३॥ विसाहानक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते ४। धणिट्ठानक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते ५। 25. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे _[३] इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं पंच पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता १। तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं पंच सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता २॥ 5 असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं पंच पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं पंच पलितोवमातिं ठिती पण्णत्ता ४॥ सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं पंच सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ५। 10 जे देवा वायं सुवायं वातावत्तं वातप्पभं वातकंतं वातवण्णं वातलेसं वातज्झयं वातसिंगं वातसिटुं वातकूडं वाउत्तरवडेंसगं सूरं सुसूरं सूरावत्तं सूरप्पभं सूरकंतं सूरवण्णं सूरलेसं सूरज्झयं सूरसिंगं सूरसिटुं सूरकूडं सूरुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पंच सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता ६। 15 [४] ते णं देवा पंचण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १॥ तेसि णं देवाणं पंचहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २॥ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा [जे] पंचहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करेस्संति ३॥ 20 [टी०] पञ्चस्थानकमपि सुगमम्, नवरं क्रिया-महाव्रत-कामगुणा-ऽऽश्रव-संवर निर्जरास्थान-समित्यस्तिकायार्थं सूत्राणामष्टकम्, नक्षत्रार्थं पञ्चकम्, स्थित्यर्थं षट्कम्, उच्छ्वासाद्यर्थं त्रयमेवेति । क्रिया: व्यापारविशेषाः । तत्र कायेन निर्वृत्ता कायिकी, कायचेष्टेत्यर्थः । अधिक्रियते आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणम्, तेन निर्वृत्ता आधिकरणिकी खड्गादिनिर्वर्तनादिलक्षणेति । प्रद्वेषो मत्सरः, तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी। १. तथा क्रियाः हे२ ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चस्थानकम् । [सू० ५] परितापनं ताडनादिदुःखविशेषलक्षणम्, तेन निर्वृत्ता पारितापनिकी । प्राणातिपातक्रिया प्रतीतेति । तथा काम्यन्ते अभिलष्यन्ते इति कामाः, ते च ते गुणाश्च पुद्गलधर्माः शब्दादय इति कामगुणाः, कामस्य वा मदनस्योद्दीपका गुणाः । कामगुणा: शब्दादय इति । तथा आश्रवद्वाराणि कर्मोपादानोपाया मिथ्यात्वादीनि। संवरस्य कर्मानुपादानस्य द्वाराणि उपायाः संवरद्वाराणि मिथ्यात्वाद्याश्रवद्वारविपरीतानि 5 सम्यक्त्वादीनि । तथा निर्जरा देशतः कर्मक्षपणा, तस्याः स्थानानि आश्रयाः कारणानीति यावत् निर्जरास्थानानि प्राणातिपातविरमणादीनि, एतान्येव च सर्वशब्दविशेषितानि महाव्रतानि भवन्ति, तानि च पूर्वसूत्रेऽभिहितानि, स्थूलशब्दविशेषितानि त्वणुव्रतानि भवन्ति, निर्जरास्थानत्वं पुनरेषां साधारणमिति तदिहैषामभिहितम् । तथा समितयः सङ्गताः प्रवृत्तयः, तत्रेर्यासमिति: गमने सम्यक् सत्त्वपरिहारतः 10 प्रवृत्तिः, भाषासमितिः निरवद्यवचनप्रवृत्तिः, एषणासमितिः द्विचत्वारिंशद्दोषवर्जनेन भक्तादिग्रहणे प्रवृत्तिः, आदाने ग्रहणे भाण्डमात्राया उपकरणपरिच्छदस्य निक्षेपणे अवस्थापने समिति: सुप्रत्युपेक्षितादिसाङ्गत्येन प्रवृत्तिश्चतुर्थी, तथोच्चारस्य पुरीषस्य प्रश्रवणस्य मूत्रस्य खेलस्य निष्ठीवनस्य सिंघानस्य नासिकाश्लेष्मणो जल्लस्य च मलस्य परिष्ठापनायां परित्यागे समितिः स्थण्डिलादिदोषपरिहारतः प्रवृत्तिरिति पञ्चमी। 15 अस्तिकायाः प्रदेशराशयः, धर्मास्तिकायादयो गतिस्थित्यवगाहोपयोगस्पर्शादिलक्षणाः। स्थितिसूत्रेषु स्थितेरुत्कृष्टादिविभाग एवमनुगन्तव्यः, यदुत सागरमेगं १ तिय २ सत्त ३ दस य ४ सत्तरस ५ तह य बावीसा ६ । तेत्तीसं जाव ठिई सत्तसु वि कमेण पुढवीसु ॥१॥ १. यल्लस्य जे१,२ खं० ॥ २. “सप्तसु पृथिवीष्वियं यथासङ्ख्यमुत्कृष्टा स्थितिः । तद्यथा-रत्नप्रभायां पृथिव्यामेकं सागरोपममुत्कृष्टा स्थितिः । शर्कराप्रभायां त्रीणि सागरोपमाणि । वालुकाप्रभायां सप्त । पङ्कप्रभायां दश । धूमप्रभायां सप्तदश । तमः-प्रभायां द्वाविंशतिः । तमस्तमःप्रभायां त्रयस्त्रिंशदिति ॥२३३॥ सम्प्रति सप्तस्वपि पृथिवीषु जघन्यां स्थितिमाह-या प्रथमायां रत्नप्रभाभिधायां पृथिव्यां ज्येष्ठा उत्कृष्टा स्थितिः सागरोपमलक्षणा सा द्वितीयस्यां पृथिव्यां शर्कराप्रभायां कनिष्ठा जघन्या भणिता । एष तरतमयोगो जघन्योत्कृष्टस्थितियोगः सर्वास्वपि पृथिवी भावनीयः । ......२३४॥” इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां टीकायाम् ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे जा पढमाए जेट्ठा सा बीयाए कणिट्ठिया भणिया । तरतमजोगो एसो दस वाससहस्स रयणाए ॥२॥ [बृहत्सं० गा० २३३-२३४] तथादो १ साहि २ सत्त ३ साही ४ दस ५ चोद्दस ६ सत्तरेव अयराइं। सोहम्मा जा सुक्को तदुवरि एक्केकमारोवे ॥ [बृहत्सं० गा० १२] पलियं १ अहियं २ दो सार ३ साहिया ४ सत्त ५ दस य ६ चोद्दस य ७ । सत्तरस ८ सहस्सारे तदुवरि एक्केकमारोवे ॥ [बृहत्सं० गा० १४] त्ति । तथा वातं सुवातमित्यादीनि द्वादश वाताभिलापेन विमाननामानि, तावन्त्येव सूराभिलापेनेति ॥५॥ [सू० ६] [१] छल्लेसातो पण्णत्तातो, तंजहा- कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा 10 तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा १। छज्जीवनिकाया पण्णत्ता, तंजहा- पुढवीकाए आउकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सतिकाए तसकाए । छविहे बाहिरे तवोकम्मे पण्णत्ते, तंजहा- अणसणे ओमोदरिया वित्तीसंखेवो रसपरिच्चातो कायकिलेसे संलीणया ३॥ 15 छव्विहे अभंतरए तवोकम्मे पण्णत्ते, तंजहा- पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं सज्झाओ झाणं उस्सग्गो ४। छ छाउमत्थिया समुग्घाया पण्णत्ता, तंजहा- वेयणासमुग्धाते १. “सौधर्मात् सौधर्मकल्पात् यावत् शुक्रो महाशुक्राभिधः कल्पस्तावदनेन क्रमेण उत्कृष्टा स्थितिः प्रतिपत्तव्या, तद्यथा-सौधर्मे कल्पे देवानामुत्कृष्टा स्थितिट्टै अतरे इति सम्बध्यते, तरीतुमशक्यं प्रभूतकालतरणीयत्वात् अतरं सागरोपमम्, द्वे सागरोपमे इत्यर्थः । ईशाने कल्पे ते एव द्वे सागरोपमे साधिके किञ्चित् समधिके उत्कृष्टा स्थितिः। सनत्कुमारे कल्पे उत्कृष्टा स्थितिः सप्त सागरोपमाणि । माहेन्द्रकल्पे तान्येव सप्त सागरोपमाणि साधिकानि । ब्रह्मलोके कल्पे दश सागरोपमाणि । लान्तके कल्पे चतुर्दश । महाशुक्रे कल्पे सप्तदश । तदुवरि इक्किक्कमारोवे इति तस्य महाशुक्रस्य कल्पस्योपरि प्रतिकल्पं प्रतिग्रैवेयकं च पूर्वस्मात् पूर्वस्मादधिकमेकैकं सागरोपममुत्कृष्टायुश्चिन्तायामारोपयेत् ।.... ॥१२॥ सौधर्मे कल्पे जघन्या स्थितिः पलियं ति एकं पल्योपमम् । ईशाने कल्पे अहियं ति तदेव पल्योपमं किञ्चित् समधिकं जघन्या स्थितिः । सनत्कुमारे कल्पे द्वे सागरोपमे जघन्या स्थितिः । साहिय त्ति ते एव द्वे सागरोपमे किञ्चित्समधिके माहेन्द्रकल्पे जघन्या स्थितिः । सप्त सागरोपमाणि ब्रह्मलोके । दश लान्तके । चतुर्दश महाशुक्रे । सप्तदश सहस्रारे। ततस्तस्य सहस्रारकल्पस्योपरि प्रतिकल्पं प्रतिवेयकं विजयादिचतुष्टये चैकैकं सागरोपममधिकं जघन्यस्थितिचिन्तायामारोपयेत् । ॥१४॥” इति बृहत्संग्रहणीटीकायाम् ।। २. य नास्ति जे२ खं० ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ६] षट्स्थानकम् । . २३ कसायसमुग्घाते मारणंतियसमुग्घाते वेउव्वियसमुग्घाते तेयससमुग्घाते आहारसमुग्धाते ५। छविहे अत्थोग्गहे पण्णत्ते, तंजहा- सोदियअत्थोग्गहे चक्खुइंदियअत्थोग्गह घाणिंदियअत्थोग्गहे जिभिंदियअत्थोग्गहे फासिंदियअत्थोग्गहे नोइंदियअत्थोग्गहे ६॥ [२] कत्तियानक्खत्ते छतारे पण्णत्ते १। असिलेसानक्खत्ते छतारे पण्णत्ते २॥ [३] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरतियाणं छ पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १।। तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरतियाणं छ सागरोवमाइं ठिती । पण्णत्ता २। .. 10 असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं छ पलितोवमाई ठिती पण्णत्ता ३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं छ पलितोवमाइं ठिती पण्णत्ता ४। सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं छ सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। 15 जे देवा सयं| सयंभुरमणं घोसं सुघोसं महाघोसं किट्ठियोसं वीरं सुवीरं वीरगतं वीरसेणियं वीरावत्तं वीरप्पभं वीरकंतं वीरवण्णं वीरलेसं वीरज्झयं वीरसिंगं वीरसिहॅ वीरकूडं वीरुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं छ सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [४] ते णं देवा छण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा 2c नीससंति वा १॥ तेसि णं देवाणं छहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जति २॥ . संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे छहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करेस्संति ३॥ [टी०] षट्स्थानकमथ, तच्च सुबोधम्, नवरमिह लेश्या-जीवनिकाय१. 'कमेतच्च सुबोधम् जे२ ॥ . Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे बाह्याभ्यन्तरतपः-समुद्घाता-ऽवग्रहार्थानि सूत्राणि षट्, नक्षत्रार्थे द्वे, स्थित्यर्थानि षट्, उच्छ्वासाद्यर्थं त्रयमेवेति । तत्र लेश्यानां स्वरूपमिदम् कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रयुज्यते । [ ] इति । 5 तथा बाह्यं तपः बाह्यशरीरस्य परिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति, आभ्यन्तरं चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति । तथा छद्मस्थ: अकेवली, तत्र भवा छाद्यस्थिकाः, सम् एकीभावेन उत् प्राबल्येन च घाता निर्जरणानि समुद्घाताः, वेदनादिपरिणतो हि जीवो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणा करणेनाकृष्योदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशैः संश्लिष्टान् शातयतीत्यर्थः, 10 ते चेह वेदनादिभेदेन षडुक्ताः । तत्र वेदनासमुद्घातोऽसद्वेद्यकर्माश्रयः, कषाय समुद्घातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः, मारणान्तिकसमुद्घातोऽन्तर्मुहूर्तशेषायुष्ककर्माश्रयः, वैकुर्विक-तैजसा-ऽऽहारकसमुद्घाताः शरीरनामकर्माश्रयाः । तत्र वेदनासमुद्घातसमुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलशातं करोति, कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायपुद्गलशातम्, मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धत 15 आयुःकर्मपुद्गलघातम्, वैकुर्विकसमुद्घातसमुद्धतस्तु जीवप्रदेशान् शरीराद् बहिर्निष्काश्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमात्रमायामतश्च सङ्ख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजति, निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्रारबद्धान् शातयति, एवं तैजसाऽऽहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयाविति । तथा अर्थस्य सामान्यानिर्देश्यस्वरूपस्य शब्दादेः अवेति प्रथमं व्यञ्जनावग्रहानन्तरं ग्रहणं परिच्छेदनमर्थावग्रहः, स चैकसामयिको 20 नैश्चयिकः, व्यावहारिकस्त्वसङ्ख्येयसामयिकः, स च षोढा श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैर्नोइन्द्रियेण च मनसा जन्यमानत्वादिति । स्थितिसूत्रे स्वयम्भवादीनि विंशतिर्विमानानीति ॥६॥ [सू० ७] [१] सत्त भयट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- इहलोगभए परलोगभए आदाणभए अकम्हाभए आजीवभए मरणभए असिलोगभए । १. 'मानानि खं० ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ [सू० ७] सप्तस्थानकम् । सत्त समुग्धाता पण्णत्ता, तंजहा- वेयणासमुग्याते कसायसमुग्धाते मारणंतियसमुग्धाते वेउब्वियसमुग्धाते तेयससमुग्घाते आहारसमुग्धाते केवलिसमुग्घाते । समणे भगवं महावीरे सत्त रयणीतो उटुंउच्चत्तेणं होत्था ३॥ सत्त वासहरपव्वया पण्णत्ता, तंजहा- चुल्लहिमवंते महाहिमवंते निसढे 5 नीलवंते रुप्पी सिहरी मंदरे ४। सत्त वासा पण्णत्ता, तंजहा- भरहे हेमवते हरिवासे महाविदेहे रम्मए हेरण्णवते एरावते ५। खीणमोहे णं भगवं मोहणिज्जवजातो सत्त कम्मपगतीओ वेदेति ।। [२] महानक्खत्ते सत्ततारे [पण्णत्ते ११] कत्तियादीया सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता २॥ महादीया सत्त नक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता ३॥ अणुराहाइया सत्त नक्खत्ता अवरदारिया पण्णत्ता ४। धणिट्ठाइया सत्त नक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता ५। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं सत्त पलिओवमाइं 15 ठिती पण्णत्ता १॥ तच्चाए णं पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता। चउत्थीए णं पुढवीए नेरइयाणं जहण्णेणं सत्त सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ३॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं सत्त पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता४। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं सत्त पलिओवमाई ठिती 20 पण्णत्ता ५। सणंकुमारे कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। माहिदे कप्पे देवाणं उक्नोसेणं सातिरेगाइं सत्त सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता७। १. सत्ततारे । पाठांतरेण अभियाईया सत्त नक्खत्ता पं० २० । कित्तियातीया सत्त जे१ खंमू०। सत्ततारे। अभियाईया सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पं० तं० । पाठांतरेण कित्तियातीया खंसं० ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे बंभलोए कप्पे देवाणं जहण्णेणं सत्त सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ८। जे देवा समं समप्पभं महापभं पभासं भासरं विमलं कंचणकूडं सणंकुमारवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ९। 5 [३] ते णं देवा सत्तण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । तेसि णं देवाणं सत्तहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २॥ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति जाव अंतं करेस्संति ३।। 10 [टी०] अथ सप्तस्थानकं विव्रियते, तच्च कण्ठ्यम्, नवरमिह भय-समुद्घात महावीर-वर्षधर-वर्ष-क्षीणमोहार्थानि सूत्राणि षट्, नक्षत्रार्थानि पञ्च, स्थित्यर्थानि नव, उच्छवासाद्यर्थानि त्रीण्येवेति । तत्रेहलोकभयं यत् सजातीयात, परलोकभयं यद् विजातीयात्, आदानभयं यद् द्रव्यमाश्रित्य जायते, अकस्माद्भयं बाह्यनिमित्तनिरपेक्ष स्वविकल्पाज्जातम्, शेषाणि प्रतीतानि, नवरमश्लोकः अकीर्तिरिति । समुद्घाता: 15 प्राग्वत्, नवरं केवलिसमुद्घातो वेदनीय-नाम-गोत्राश्रय इति । तथा रत्निः वितताङ्गुलिर्हस्त इति, ऊर्बोच्चत्वेन न तिर्यगुच्चत्वेनेति, होत्था बभूवेति । तथा अभिजिदादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारिकाणि, पूर्वदिशि येषु गच्छतः शुभं भवति, एवमश्विन्यादीनि दक्षिणद्वारिकाणि, पुष्यादीन्यपरद्वारिकाणि, स्वात्यादीन्युत्तरद्वारिकाणीति सिद्धान्तमतम्, इह तु मतान्तरमाश्रित्य कृत्तिकादीनि सप्त सप्त पूर्वद्वारिकादीनि 20 भणितानि, चन्द्रप्रज्ञप्तौ तु बहुतराणि मतानि दर्शितानीहार्थ इति । स्थितिसूत्रे .. समादीन्यष्टौ विमाननामानीति ॥७॥ [सू० ८] अट्ठ मयट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- जातिमए कुलमए बलमए रूवमए तवमए सुतमए लाभमए इस्सरियमए १॥ अट्ठ पवयणमाताओ पण्णत्ताओ, तंजहा- इरियासमिई भासासमिई *. एतादृशचिह्नाङ्कितेषु स्थलेषु विशेषजिज्ञासुभिः परिशिष्टे टिप्पणेषु द्रष्टव्यम् ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ८] अष्टस्थानकम् । एसणासमिई आयाणभंडनिक्खेवणासमिई उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणजल्लपरिट्ठावणियासमिई मणगुत्ती वतिगुत्ती कायगुत्ती २। वाणमंतराणं देवाणं चेतियरुक्खा अट्ट जोयणाई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता ३॥ जंबू णं सुदंसणा अट्ट जोयणाई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता ४। कूडसामली णं गरुलावासे अट्ट जोयणाई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ते ५। 5 जंबुद्दीविया णं जगती अट्ठ जोयणाई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता ६। अट्ठसमइए केवलिसमुग्धाते पण्णत्ते, तंजहा- पढमे समए दंडं करेति, बीए समए कवाडं करेति, ततिए समए मंथं करेति, चउत्थे समए मंथंतराइं पूरेति, पंचमे समए मंथंतराइं पडिसाहरति, छटे समए मंथं पडिसाहरति, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरति, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरति, ततो पच्छा सरीरत्थे 10 भवति । पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स अट्ठ गणा अट्ठ गणहरा होत्था, तंजहा सुभे य सुभघोसे य वसिढे बंभयारि य । सोमे सिरिधरे चेव, वीरभद्दे जसे इ य ॥१॥ ८।। [२] अट्ठ नक्खत्ता चंदेणं सद्धिं पमई जोगं जोएंति, तंजहा- कत्तिया १, रोहिणी २, पुणव्वसू ३, महा ४, चित्ता ५, विसाहा ६, अणुराहा ७, जेट्ठा ८ । ९ [३] इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं अट्ठ पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। 20 चउत्थीए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं अट्ठ सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं अट्ठ पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं अट्ठ पलिओवमाइं ठिती . पण्णत्ता ४। . बंभलोए कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं अट्ठ सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। 25 15 | Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे __ जे देवा अच्चिं अच्चिमालिं वइरोयणं पभंकर चंदाभं सुराभं सुपतिट्ठाभं अग्गिच्चाभं रिट्ठाभं अरुणाभं अरुणुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठ सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६।। [४] ते णं देवा अट्ठण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा 5 ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं अट्ठहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जति २। संतेगतिया भवसिद्धिया जाव अट्ठहिं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथाष्टस्थानकं व्याख्यायते, सुगमं चैतत्, नवरमिह मदस्थान-प्रवचनमातृ चैत्यवृक्ष-जम्बू-शाल्मली-जगती-केवलिसमुद्घात-गणधर-नक्षत्रार्थानि सूत्राणि नव, 10 स्थित्यर्थानि षट्, उच्छ्वासाद्यर्थानि त्रीणीति । तत्र मदस्य अभिमानस्य स्थानानि आश्रयाः मदस्थानानि जात्यादीनि । तान्येव मदप्रधानतया दर्शयन्नाह- जाईमए इत्यादि। जात्या मदो जातिमदः, एवमन्यान्यपि । अथवा मदस्य स्थानानि भेदाः मदस्थानानि, तान्येवाह-जाईमए इत्यादि, शेषं तथैव । तथा प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य तदाधारस्य वा सङ्घस्य मातर इव जनन्य इव प्रवचनमातरः ईर्यासमित्यादयः, द्वादशाङ्गं 15 हि ता आश्रित्य साक्षात् प्रसङ्गतो वा प्रवर्त्तते, भवति च यतो यत् प्रवर्तते तस्य तदाश्रित्य मातृकल्पतेति । सङ्घपक्षे तु यथा शिशुर्मातरममुञ्चन्नात्मलाभं लभते एवं सङ्घस्ता अमुञ्चन् सङ्घत्वं लभते नान्यथेतीर्यासमित्यादीनां प्रवचनमातृतेति। तथा व्यन्तरदेवानां चैत्यवृक्षाः तनगरेषु सुधर्मादिसभानामग्रतो मणिपीठिकानामुपरि सर्वरत्नमयाः छत्र-ध्वजादिभिरलङ्कृता भवन्ति, ते चैवं श्लोकाभ्यामवगन्तव्याः__20 कलंबो उ पिसायाणं वडो जक्खाण चेइयं । तुलसी भूयाण भवे रक्खसाणं तु कंडओ ॥१॥ असोगो किन्नराणं च किंपुरिसाण य चंपओ । नागरुक्खो भुयंगाणं गंधव्वाण य तुंबुरु ॥२॥ [स्थानाङ्गसू० ६५४] त्ति । तथा जम्बु त्ति उत्तरकुरुषु जम्बूवृक्षः पृथिवीपरिणामः, सुदर्शनेति तन्नाम । एवं १. तुंबरु जे१ हे२ । तेंदुओ इति स्थानाङ्गे पाठः ।। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टस्थानकम् । २९ [सू० ९] कूटशाल्मली वृक्षविशेष एव, देवकुरुषु गरुडजातीयस्य वेणुदेवाभिधानस्य देवस्यावास इति । जगती जम्बूद्वीपनगरस्य प्राकारकल्पा पालीति । तथा पार्श्वस्याहतः त्रयोविंशतितमतीर्थकरस्य पुरिसादाणीयस्स त्ति पुरुषाणां मध्ये आदानीयः आदेयः पुरुषादानीयस्तस्य अष्टौ गणाः समानवाचना-क्रियाः साधुसमुदायाः, अष्टौ गणधराः तन्नायकाः सूरयः, इदं चैतत् प्रमाणं स्थानाङ्गे पर्युषणाकल्पे च श्रूयते, केवलमावश्यके 5 अन्यथा, तत्र युक्तम् दस नवगं गणाण माणं जिणिंदाणं [आव० नि०२६८] ति । कोऽर्थः ? पार्श्वस्य दश गणाः गणधराश्च । तदिह द्वयोरल्पायुष्कत्वादिना कारणेनाविवक्षाऽनुमातव्येति । सुभे इत्यादि श्लोकः । तथा अष्टौ नक्षत्राणि चन्द्रेण सार्धं प्रमई ‘चन्द्रो मध्येन तेषां गच्छति' इत्येवंलक्षणं 10 योगं सम्बन्धं योजयन्ति कुर्वन्ति, अत्रार्थेऽभिहितं लोकश्रियाम् पुणव्वसु रोहिणी चित्ता मह जेट्टणुराह कित्तिय विसाहा । चंदस्स उभयजोग [लोकश्री] त्ति । यानि च दक्षिणोत्तरयोगीनि तानि प्रमईयोगीन्यपि कदाचिद् भवन्ति, यतो लोकश्रीटीकाकृतोक्तम्- एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिणेन च युज्यन्ते, कदाचिच्चन्द्रेण भेदमप्युपयान्ति [लोकश्रीटीका] इति । तथा अति॒िरादीन्येकादश 15 विमाननामानि ॥८॥ [सू० ९] [१] नव बंभचेरगुत्तीओ पण्णत्तातो, तंजहा- नो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणि सेज्जासणाणि सेवित्ता भवति १, नो इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ २, नो इत्थीणं ठाणाइं सेवित्ता भवति ३, नो इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाई आलोएत्ता निज्झाएत्ता [भवति] ४, नो पणीयरसभोई [भवति] 20 १. सू०६१८ ॥ २. “पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अट्ठ गणहरा हुत्था, तंजहा- सुभे य १ अजघोसे य २, वसिढे ३ बंभयारि य ४ । सोमे ५ सिरिहरे ६ चेव, वीरभद्रे ७ जसे वि य ८ ॥१६०॥" - इति पर्युषणाकल्पसूत्रे पार्श्वनाथचरित्रे ॥ ३. “तित्तीस अट्ठवीसा अट्ठारस चेव तहय सत्तरस । इक्कारस दस नवगं गणाण माणं जिणिंदाणं ॥” इति सम्पूर्णा गाथा आवश्यकनिर्युक्तौ ॥ ४. दृश्यतां स्था० टी० पृ०७६२ ।। ५. दृश्यतां स्था० सू० ६६३, स्था० टी० पृ० ७६६ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ५, नो पाण-भोयणस्स अइमायं आहारइत्ता [भवति] ६, नो इत्थीणं पुव्वरयाई पुव्वकीलिआई सुमरइत्ता भवइ ७, नो सद्दाणुवाती नो रूवाणुवाती नो गंधाणुवाती नो रसाणुवाती नो फासाणुवाती नो सिलोगाणुवाती ८, नो सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवति ९ । १।। 5 नव बंभचेरअगुत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा- इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताणं सेज्जासणाणं सेवणया जाव सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवति २॥ नव बंभचेरा पण्णत्ता, तंजहासत्थपरिण्णा लोगविजओ सीओसणिजं सम्मत्तं ।। आवंती धुतं विमोहायणं उवहाणसुतं महपरिण्णा ॥२॥ ३॥ ___10 पासे णं अरहा [पुरिसादाणीए] नव रयणीओ उहूंउच्चत्तेणं होत्था ४। [२] अभीजिणक्खत्ते साइरेगे णव मुहुत्ते चंदेणं सद्धिं जोगं जोएति १। अभीजियाइया णं णव णक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, तंजहाअभीजि, सवणो जाव भरणी २॥ इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो नव 15 जोयणसते उड़े अबाहाते उवरिल्ले तारारूवे चारं चरति ३॥ जंबुद्दीवे णं दीवे णवजोयणिया मच्छा पविसिंसु वा पविसंति वा पविसिस्संति वा । विजयस्स णं दारस्स एगमेगाए बाहाए णव णव भोमा पण्णत्ता २॥ वाणमंतराणं देवाणं सभाओ सुधम्माओ णव जोयणाई उटुंउच्चत्तेणं 20 पण्णत्ताओ ३॥ दसणावरणिजस्स णं कम्मस्स णव उत्तरपगडीओ पण्णत्ताओ, तंजहाणिद्दा पयला णिहाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदंसणावरणे ओहिदसणावरणे केवलदसणावरणे ४। _ [३] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं नव 25 पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ११ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९] नवस्थानकम् । चउत्थीए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं नव सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं नव पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं नव पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ बंभलोए कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं नव सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। 5 जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावत्तं पम्हप्पभं पम्हकंतं पम्हवण्णं पम्हलेसं जाव पम्हुत्तरवडेंसगं सुजं सुसुजं सुजावत्तं सुजप्पभं सुजकंतं जाव सुजुत्तरवडेंसगं रुतिल्लं रुतिल्लावत्तं रुतिल्लप्पभं जाव रुतिल्लुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं [उक्कोसेणं] नव सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। _[४] ते णं देवा नवण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति 10 वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं नवहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति श ___ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे नवहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेस्संति ॥ [टी०] अथ नवस्थानकं सुबोधं च, नवरमिह ब्रह्मगुप्ति-तदगुप्ति-ब्रह्मचर्याध्ययन- 15 पार्थिं सूत्राणां चतुष्टयम्, ज्योतिष्कार्थं त्रयम्, मत्स्य-भौम-सभा-दर्शनावरणार्थं चतुष्टयम्, स्थित्याद्यर्थानि तथैव । तत्र ब्रह्मचर्यगुप्तयो मैथुनविरतिपरिरक्षणोपायाः । नो स्त्री-पशु-पण्डकैः संसक्तानि सङ्कीर्णानि शय्यासनानि शयनीय-विष्टराणि वसत्यासनानि वा सेवयिता भवतीत्येका १, नो स्त्रीणां कथां कथयिता भवतीति द्वितीया २, नो स्त्रीगणान् स्त्रीसमुदायान् सेवयिता उपासयिता भवतीति तृतीया ३, 20 नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि नयन-नासावंशादीनि मनोहराणि आक्षेपकत्वात् मनोरमाणि रम्यतयाऽऽलोकयिता द्रष्टा, निाता तदेकाग्रचित्ततया द्रष्टैव भवतीति चतुर्थी ४, १. कथिता खं० ॥ २. दृश्यतां स्था०सू० ६६३, स्था०टी० पृ० ७६६ ॥ ३. हे२ विना- द्रष्टा निध्याता तदेक जे१, हे१ । द्रष्टा निध्यक्षति । तदे' खं०। द्रष्ट ध्यानिता तदेक' जे२ । ४. 'निर्ध्याता' इति स्थानाङ्ग[६६३ तम] सूत्रटीकायाम् ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे नो प्रणीतरसभोजी गलत्स्नेहरसबिन्दुकस्य भोजनस्य भोजको भवतीति पञ्चमी ५, नो पानभोजनस्यातिमात्रम् अप्रमाणं यथा भवत्येवमाहारकः सदा भवतीति षष्ठी ६, नो पूर्वरत-पूर्वक्रीडितमनुस्मर्ता भवति, रतं मैथुनम्, क्रीडितं स्त्रीभिः सह तदन्या क्रीडेति सप्तमी ७, नो शब्दानुपाती, नो रूपानुपाती, नो गन्धानुपाती, 5 नो रसानुपाती, नो स्पर्शानुपाती, नो श्लोकानुपाती, कामोद्दीपकान् शब्दादीनात्मनो वर्णवादं च नानुपतति नानुसरतीत्यर्थः इत्यष्टमी ८, नो सातसौख्यप्रतिबद्धश्चापि भवति, सातात् सातवेदनीयादुदयप्राप्ताद् यत् सौख्यं तत्तथा, अनेन च प्रशमसुखस्य व्युदास इति नवमी ९ । इदं च व्याख्यानं वाचनाद्वयानुसारेण कृतम्, प्रत्येकवाचनयोरेवंविधसूत्राभावादिति। 10 तथा कुशलानुष्ठानं ब्रह्मचर्यम्, तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ब्रह्मचर्याणि, तानि चाऽऽचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानीति । तथा अभिजिन्नक्षत्रं साधिकानव मुहूर्तांश्चन्द्रेण सार्द्ध योगं सम्बन्धं योजयति करोति, सातिरेकत्वं च तेषां चतुर्विंशत्या मुहूर्तस्य द्विषष्टिभागैः षट्षष्ट्या च द्विषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागानामिति । तथा अभिजिदादीनि नव नक्षत्राणि चन्द्रस्योत्तरेण योगं 15 योजयन्ति, उत्तरस्यां दिशि स्थितानि दक्षिणाशास्थितचन्द्रेण सह योगमनुभवन्तीति भावः। बहुसमरमणिजाओ इत्यादि, अत्यन्तसमो बहुसमोऽत एव रमणीयो रम्यस्तस्माद् भूमिभागात्, न पर्वतापेक्षया नापि श्वभ्रापेक्षयेति भावः, रुचकापेक्षयेति तात्पर्यम्, अबाहाए त्ति अन्तरे ‘कृत्वे ति शेषः, उवरिल्ले त्ति उपरितनं तारारूपं तारकजातीयं चारं भ्रमणं चरति करोति । नवजोयणिय त्ति नवयोजनायामा एव 20 प्रविशन्ति, लवणसमुद्रे यद्यपि पञ्चयोजनशतिका मत्स्याः सम्भवन्ति तथापि नदीमुखेषु जगतीरन्ध्रौचित्येनैतावतामेव प्रवेश इति, लोकानुभावो वाऽयमिति । विजयस्य द्वारस्य जम्बूद्वीपसम्बन्धिनः पूर्वदिग्व्यवस्थितस्य एगमेगाए त्ति एकैकस्मिन् बाहाए त्ति बाहौ पार्श्वे भौमानि नगराणीत्येके, विशिष्टस्थानानीत्यन्ये । तथा पक्ष्मादीनि द्वादश सूर्यादीन्यपि द्वादशैव रुचिरादीन्येकादश च विमाननामानीति ॥९॥ १. अव जे२ हे२ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशस्थानकम् । ३३ [सू० १०] [सू० १०] [१] दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते, तंजहा– खंती १, मुत्ती २, अजवे ३, मद्दवे ४, लाघवे ५, सच्चे ६, संजमे ७, तवे ८, चियाते ९, बंभचेरवासे १० । १। दस चित्तसमाहिट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- धम्मचिंता वा से असमुप्पण्णपुव्वा समुप्पज्जेजा सव्वं धम्मं जाणित्तए १, सुमिणदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे 5 समुप्पज्जेज्जा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए २, सण्णिनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजेजा पुव्वभवे सुमरित्तए ३, देवदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजेजा दिव्वं देविढेि दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभावं पासित्तए ४, ओहिनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेजा ओहिणा लोगं जाणित्तए ५, ओहिदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेजा ओहिणा लोगं पासित्तए 10 ६, मणपजवनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेज्जा मणोगए भावे जाणित्तए ७, केवलनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेज्जा केवलं लोगं जाणित्तए ८, केवलदसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजेजा केवलं लोयं पासित्तए ९, केवलिमरणं वा मरेजा सव्वदुक्खप्पहाणाए १० । २ । मंदरे णं पव्वते मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ते ३॥ 15 अरहा णं अरिट्ठनेमी दस धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था ४। कण्हे णं वासुदेवे दस धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था ५। रामे णं बलदेवे दस धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था ६॥ [२] दस नक्खत्ता नाणविद्धिकरा पण्णत्ता, तंजहामिगसिर अद्दा पूसो, तिण्णि य पुव्वाइं मूलमस्सेसा । हत्थो चित्ता य तहा, दस विद्धिकराई नाणस्स ॥३॥ १॥ अकम्मभूमियाणं मणुयाणं दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताते उवत्थिया, तंजहा १. दशाश्रुतस्कन्धे चतुर्थेऽध्ययने [चतुर्थ्यां दशायां] तस्य निर्युक्तौ चूर्णौ च विस्तरेण दशानां चित्तसमाधिस्थानानां वर्णनमस्ति । विस्तरेण जिज्ञासुभिः तत्रैव द्रष्टव्यम् ॥ २. भूमयाणं जे२ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे मत्तंगया य भिंगा, तुडियंगा दीव जोइ चित्तंगा । चित्तरसा मणियंगा, गेहागारा अनियणा य ॥४॥ २॥ [३] इमीसे [णं] रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता ११ 5 इपीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं दस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता । चउत्थीए पुढवीए दस निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता ३। चउत्थीए पुढवीए नेरइयाणं] उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ४। पंचमाए पुढवीए [नेरइयाणं] जहण्णेणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता५। 10 असुरकुमाराणं देवाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता ६। असुरिंदवजाणं भोमेजाणं देवाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता ७। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं दस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ८। बादरवणप्फतिकाइयाणं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता ९। 15 वाणमंतराणं देवाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता १०॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं दस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ११॥ बंभलोए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता १२॥ लंतए कप्पे देवाणं जहण्णेणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता १३॥ 20 जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसं नंदिघोसं सुस्सरं मणोरमं रम्मं रम्मगं रमणिजं मंगलावतिं बंभलोगवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता १४। [४] ते णं देवा दसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं दसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति 25 २। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १०] दशस्थानकम् । अत्थेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे दसहिं भवग्गहणेहिं जाव करेस्संति३। [टी०] दशस्थानकं सुबोधमेव, तथापि किञ्चिल्लिख्यते । इह पञ्चविंशतिः सूत्राणि। तत्र लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधिता, भावतो गौरवत्यागः । त्यागः सर्वसङ्गानाम्, संविग्नमनोज्ञसाधुदानं वा । ब्रह्मचर्येण वसनम् अवस्थानं ब्रह्मचर्यवास इति । तथा चित्तस्य मनसः समाधिः समाधानं प्रशान्तता, तस्य स्थानानि आश्रया भेदा वा 5 चित्तसमाधिस्थानानि । तत्र धर्मा जीवादिद्रव्याणामुपयोगोत्पादादयः स्वभावाः, तेषां चिन्ता अनुप्रेक्षा, धर्मस्य वा श्रुत-चारित्रात्मकस्य सर्वज्ञभाषितस्य ‘हरिहरादिनिगदितधर्मेभ्यः प्रधानोऽयम्' इत्येवं चिन्ता धर्मचिन्ता, वाशब्दो वक्ष्यमाणसमाधिस्थानान्तरापेक्षया विकल्पार्थः, से इति यः कल्याणभागी तस्य साधोरसमुत्पन्नपूर्वा पूर्वस्मिन्ननादौ अतीते कालेऽनुपजाता, तदुत्पादे 10 ह्युपार्द्धपुद्गलपरावर्तान्ते कल्याणस्यावश्यंभावात्, समुत्पद्येत जायेत, किंप्रयोजना चेयमत आह- सर्वं निरवशेषं धर्मं जीवादिद्रव्यस्वभावमुपयोगोत्पादादिकं श्रुतादिरूपं वा जाणित्तए ज्ञपरिज्ञया ज्ञातुं ज्ञात्वा च प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरणीयधर्म परिहर्तुम्, इदमुक्तं भवति- धर्मचिन्ता धर्मज्ञानकारणभूता जायत इति, इयं चं समाधेरुक्तलक्षणस्य स्थानमुक्तलक्षणमेव भवतीति प्रथमम् । 15 तथा स्वप्नस्य निद्रावशविकल्पज्ञानस्य दर्शनं संवेदनं स्वप्नदर्शनं तद्वा कल्याणप्राप्तिसूचकमसमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्येत, यथा भगवतो महावीरस्याऽस्थिकग्रामे शूलपाणियक्षकृतोपसर्गावसाने, किंप्रयोजनं चेदम् ? इत्याह- अहातच्चं सुमिणं पासित्तए त्ति, यथा येन प्रकारेण तथ्यः सत्यो यथातथ्यः, सर्वथा निर्व्यभिचार इत्यर्थः, तम्, स्वप्न: स्वप्नफलमुपचारात्, तं द्रष्टुं ज्ञातुम्, अवश्यंभाविनो मुक्त्यादेः 20 शुभस्वप्नफलस्य दर्शनाय साधोः स्वप्नदर्शनमुपजायत इति भावः । क्वचित् सुजाणं ति पाठः, तत्रावितथमवश्यंभावि सुयानं सुगतिं द्रष्टुं ज्ञातुं सुज्ञानं वा भाविशुभार्थपरिच्छेदं संवेदितु मिति, कल्याणसूचकावितथस्वप्नदर्शनाच्च भवति चित्तसमाधिरिति चित्तसमाधिस्थानमिदं द्वितीयम् । १. च नास्ति खं० ॥ २. 'त्पद्यते खं० ॥ ३. आहा जे२ हे१,२ । आह खं० ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ___ तथा सज्ञानं सञ्ज्ञा, सा च यद्यपि हेतुवाद-दृष्टिवाद-दीर्घकालिकोपदेशभेदेन क्रमेण विकलेन्द्रिय-सम्यग्दृष्टि-समनस्कसम्बन्धित्वात् त्रिधा भवति तथापीह दीर्घकालिकोपदेशसञ्ज्ञा ग्राह्येति, सा यस्यास्ति स सञी समनस्कः, तस्य ज्ञानं सज्ञिज्ञानम्, तच्चेहाधिकृतसूत्रान्यथानुपपत्तेर्जातिस्मरणमेव, तद्वा से तस्याऽसमुत्पन्नपूर्व 5 समुत्पद्येत, कस्मै प्रयोजनाय ? इत्याह- पुव्वभवे सुमरित्तए त्ति पूर्वभवान् स्मर्तुम्, स्मृतपूर्वभवस्य च संवेगात् समाधिरुत्पद्यते इति समाधिस्थानमेतत् तृतीयमिति । तथा देवदर्शनं वा से तस्याऽसमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्येत, देवा हि तस्य गुणित्वाद् दर्शनं ददति, किम्फलम् ? इत्याह- दिव्यां देवर्द्वि प्रधानपरिवारादिरूपां दिव्यां देवद्युतिं विशिष्टां शरीरा-ऽऽभरणादिदीप्तिं दिव्यं देवानुभावम् उत्तम 10 वैक्रियकरणादिप्रभावं द्रष्टुम्, एतद्दर्शनायेत्यर्थः, देवदर्शनाच्चागमार्थेषु श्रद्धानदाढ्य धर्मे बहुमानश्च भवति, ततश्चित्तसमाधिरिति भवति देवदर्शनं चित्तसमाधिस्थानमिति चतुर्थम्। __ तथा अवधिज्ञानं वा से तस्याऽसमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्येत, किमर्थम् ? इत्याह अवधिना मर्यादया नियतद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपेण लोकं ज्ञातुम्, लोकज्ञानायेत्यर्थः, 15 भवति च विशिष्टज्ञानाच्चित्तसमाधिरिति पञ्चमं तदिति। एवमवधिदर्शनसूत्रमपीति षष्ठम् । तथा मनःपर्यवज्ञानं वा से तस्याऽसमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्येत, किमर्थम् ? अत आह–मणोगते भावे जाणित्तए अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रेषु सज्ञिनां पञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तकानां मनोगतान् भावान् ज्ञातुम्, एतज्ज्ञानायेत्यर्थ इति सप्तमम् ।। 20 तथा केवलज्ञानं वा से तस्याऽसमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्येत, केवलं परिपूर्णम्, लोक्यते दृश्यते केवलालोकेनेति लोको लोकालोकरूपं वस्तु, तं ज्ञातुम्, केवलज्ञानस्य च समाधिभेदत्वाच्चित्तसमाधिस्थानता, इह चामनस्कतया केवलिनश्चित्तं चैतन्यमवसेयमित्यष्टमम् । एवं केवलदर्शनसूत्रम्, नवरं द्रष्टुमिति विशेष इति नवमम्। तथा केवलिमरणं वा म्रियेत कुर्यात् इत्यर्थः, किमर्थम् ? अत आह १. सज्ञानं खं० ॥ २. तस्यानुत्पन्न हे२ विना ॥ ३. च नास्ति खं० जे१ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ११] एकादशस्थानकम् । ३७ सर्वदुःखप्रहाणायेति, इदं तु केवलिमरणं सर्वोत्तमसमाधिस्थानमेवेति दशममिति । ___तथा अकर्मभूमिकानां भोगभूमिजन्मनां मनुष्याणां दशविधा रुक्ख त्ति कल्पवृक्षाः उवभोगत्ताए त्ति उपभोग्यत्वाय उवत्थिय त्ति उपस्थिता उपनता इत्यर्थः । तत्र मत्ताङ्गका: मद्यकारणभूताः। भिंग त्ति भाजनदायिनः । तुडियंग त्ति तूर्याङ्गसम्पादकाः। दीव त्ति दीपशिखाः प्रदीपकार्यकारिणः । जोइ त्ति ज्योतिः अग्निः, तत्कार्यकारिण 5 इति । चित्तंग त्ति चित्राङ्गाः पुष्पदायिनः । चित्ररसा भोजनदायिनः। मण्यङ्गाः आभरणदायिनः । गेहाकारा: भवनत्वेनोपकारिणः । अणियण त्ति, अनग्नत्वं सवस्त्रत्वम्, तद्धेतुत्वादनना इति । घोषादीन्येकादश विमाननामानीति ॥१०॥ [सू० ११] [१] एक्कारस उवासगपडिमातो पण्णत्तातो, तंजहा- दसणसावए १, कतव्वयकम्मे २, सामातियकडे ३, पोसहोववासणिरते ४, दिया बंभयारी, 10 रत्तिं परिमाणकडे ५, दिआ वि राओ वि बंभयारी, असिणाती, विअडभोती, मोलिकडे ६, सचित्तपरिण्णाते ७, आरंभपरिण्णाते ८, पेसपरिण्णाते ९, उद्दिट्ठभत्तपरिणाते १०, समणभूते यावि भवति समणाउसो ११ । १॥ [२] लोगंताओ णं एक्कारसहिं एक्कारेहिं जोयणसतेहिं अबाहाए जोतिसंते पण्णत्ते । 15 जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वतस्स एक्कारसहिं एकवीसेहिं जोयणसतेहिं [अबाहाए] जोतिसे चारं चरति ३। समणस्स णं भगवतो महावीरस्स एक्कारस गणहरा होत्था, तंजहा- इंदभूती अग्गिभूती वायुभूती वियत्ते सुहम्मे मंडिते मोरियपुत्ते अकंपिते अयलभाया मेतजे पभासे ४। 20 मूलनक्खत्ते एक्कारसतारे पण्णत्ते ५। हेट्टिमगेवेजगाणं देवाणं एक्कारसुत्तरं गेवेजविमाणसतं भवति त्ति मक्खायं ६। मंदरे णं पव्वते धरणितलाओ सिहरतले एक्कारसभागपरिहीणे उच्चत्तेणं पण्णत्ते । १. भूमकानां जे२ हे१,२ ।। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे __ [३] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एक्कारस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। पंचमाए पुढवीए [अत्थेगतियाणं नेरइयाणं] एक्कारस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । 5 असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं एक्कारस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु [अत्थेगतियाणं देवाणं] एक्कारस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ __ लंतए कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं एक्कारस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता५। 10 जे देवा बंभं सुबंभं बंभावत्तं बंभप्पभं बंभकंतं बंभवण्णं बंभलेसं बंभज्झयं बंभसिंगं बंभसिटुं बंभकूडं बंभुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं [उक्कोसेणं ] एक्कारस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [४] ते णं देवा एकारसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं एक्कारसण्हं वाससहस्साणं 15 आहारट्टे समुप्पजति २। संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति । [टी०] अथैकादशस्थानम्, तदपि गतार्थम्, नवरमिह प्रतिमाद्यर्थानि सूत्राणि सप्त, स्थित्याद्यर्थानि तु नवेति, तत्रोपासते सेवन्ते श्रमणान् ये ते उपासकाः श्रावकाः, तेषां 20 प्रतिमाः प्रतिज्ञाः अभिग्रहाः उपासकप्रतिमाः । तत्र दर्शनं सम्यक्त्वम्, तत् प्रतिपन्नः श्रावको दर्शनश्रावकः, इह च प्रतिमानां प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमा-प्रतिमावतोरभेदोपचारात् प्रतिमावतो निर्देशः कृतः, एवमुत्तरपदेष्वपि, अयमत्र भावार्थ:- सम्यग्दर्शनस्य शङ्कादिशल्यरहितस्याणुव्रतादिगुणविकलस्य योऽभ्युपगमः सा प्रतिमा प्रथमेति । तथा कृतम् अनुष्ठितं व्रतानाम् अणुव्रतादीनां कर्म तच्छ्रवण-ज्ञान-वाञ्छा-प्रतिपत्तिलक्षणं 25 येन प्रतिपन्नदर्शनेन स कृतव्रतकर्मा प्रतिपन्नाणुव्रतादिरिति भावः, इयं द्वितीया । तथा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ११] एकादशस्थानकम् । सामायिकं सावद्ययोगपरिवर्जन-निरवद्ययोगासेवनस्वभावं कृतं विहितं देशतो येन स सामायिककृतः, आहिताग्न्यादिदर्शनात् क्तान्तस्योत्तरपदत्वम्, तदेवमप्रतिपन्नपौषधस्य दर्शनव्रतोपेतस्य प्रतिदिनमुभयसन्ध्यं सामायिककरणं मासत्रयं यावदिति तृतीया प्रतिमेति । तथा पोषं पुष्टिं कुशलधर्माणां धत्ते यदाहारत्यागादिकमनुष्ठानं तत् पौषधम्, तेनोपवसनम् अवस्थानमहोरात्रं यावदिति पौषधोपवास इति, अथवा पौषधं पर्वदिनमष्टम्यादि 5 तत्रोपवासः अभक्तार्थः पौषधोपवास इति, इयं व्युत्पत्तिरेव, प्रवृत्तिस्त्वस्य शब्दस्याहार-शरीरसत्कारा-ऽब्रह्मचर्य-व्यापारपरिवर्जनेष्विति, तत्र पौषधोपवासे निरतः आसक्तः पौषधोपवासनिरतः स एवंविधश्रावकश्चतुर्थी प्रतिमेति प्रक्रमः, अयमत्र भावः - पूर्वप्रतिमात्रयोपेत : (पेतस्य) अष्टमी-चतुर्दश्यमावास्या-पौर्णमासीष्वाहारपौषधादिचतुर्विधं पौषधं प्रतिपद्यमानस्य चतुरो मासान् यावच्चतुर्थप्रतिमा भवतीति । तथा 10 पञ्चमप्रतिमायामष्टम्यादिषु पर्वस्वेकरात्रिकप्रतिमाकारी भवतीति, एतदर्थं च सूत्रमधिकृतसूत्रपुस्तकेषु न दृश्यते, दशादिषु पुनरुपलभ्यते इति तदर्थ उपदर्शितः, तथा शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारी, रत्तिं ति रात्रौ, किम् ? अत आह- परिमाणं स्त्रीणां तद्भोगानां वा प्रमाणं कृतं येन स परिमाणकृत इति, अयमत्र भावः- दर्शन-व्रतसामायिका-ऽष्टम्यादिपौषधोपेतस्य पर्वस्वेकरात्रिकप्रतिमाकारिणः शेषदिनेषु दिवा 15 ब्रह्मचारिणो रात्रावब्रह्मपरिमाणकृतोऽस्नानस्याऽरात्रिभोजिनः अबद्धकच्छस्य पञ्च मासान् यावत् पञ्चमी प्रतिमा भवतीति, उक्तं च अट्ठमिचउद्दसीसुं पडिमं ठाएगराईयं ॥ पश्चार्द्धम् । असिणाणवियडभोई मउलियडो दिवसबंभयारी य । रत्तिं परिमाणकडो पडिमावज्जेसु दियहेसु ॥ [पञ्चाशक० १०११७-१८] त्ति ॥ 20 तथा दिवापि रात्रावपि ब्रह्मचारी, असिणाइ त्ति अस्नायी स्नानपरिवर्जकः, क्वचित् पठ्यते- अनिसाइ त्ति न निशायामत्तीत्यनिशादी, वियडभोइ त्ति विकटे प्रकटे १. “८९९ निष्ठा ।२।२।३६। निष्ठान्तं बहुव्रीहौ पूर्वं स्यात् । ....... ९०० वाऽऽहिताग्न्यादिषु ।२।२।३७। आहिताग्निः। अग्न्याहितः । आकृतिगणोऽयम् ।" इति पाणिनीयव्याकरणस्य व्याख्यायां सिद्धान्तकौमुद्याम् ।। २. °मान चतुरो जे२ । जे२ अनुसारेण तु ‘पूर्वप्रतिमात्रयोपेतः अष्टमी-चतुर्दश्यमावास्या-पौर्णमासीष्वाहारपौषधादिचतुर्विधं पौषधं प्रतिपद्यमानाः] चतुरो मासान् यावत् चतुर्थप्रतिमा भवतीति' इति पाठः संभवेदत्र ।। ३. भवत्येतदर्थं खं० ॥ * Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे प्रकाशे दिवा न रात्रावित्यर्थः, दिवापि चाप्रकाशदेशे न भुङ्क्ते अशनाद्यभ्यवहरतीति विकटभोजी, मोलिकडे त्ति अबद्धपरिधानकच्छ इत्यर्थः, षष्ठप्रतिमेति प्रकृतम्, अयमत्र भाव:- प्रतिमापञ्चकोक्तानुष्ठानयुक्तस्य ब्रह्मचारिणः षण्मासान् यावत् षष्ठी प्रतिमा भवतीति । तथा सचित्त इति सचेतनाहारः परिज्ञातः तत्स्वरूपादिपरिज्ञानात् 5 प्रत्याख्यातो येन स सचित्ताहारपरिज्ञातः श्रावकः सप्तमी प्रतिमेति प्रकृतम्, इयमत्र भावना- पूर्वोक्तप्रतिमाषट्कानुष्ठानयुक्तस्य प्रासुकाहारस्य सप्त मासान् यावत् सप्तमी प्रतिमा भवतीति । तथा आरम्भः पृथिव्याधुपमईनलक्षण: परिज्ञातः तथैव प्रत्याख्यातो येनासावारम्भपरिज्ञातः श्राद्धोऽष्टमी प्रतिमे ति, इह भावना समस्तपूर्वोक्तानुष्ठानयुक्तस्यारम्भवर्जनमष्टौ मासान् यावदष्टमी प्रतिमेति । तथा प्रेष्याः 10 आरम्भेषु व्यापारणीयाः परिज्ञाताः तथैव प्रत्याख्याता येन स प्रेष्यपरिज्ञात: श्रावको नवमीति, भावार्थश्चेह पूर्वोक्तानुष्ठायिनः आरम्भं परैरप्यकारयतो नव मासान् यावन्नवमी प्रतिमेति । तथा उद्दिष्टं तमेव श्रावकमुद्दिश्य कृतं भक्तम् ओदनादि उद्दिष्टभक्तम्, तत् परिज्ञातं येनासावुद्दिष्टभक्तपरिज्ञातः प्रतिमेति प्रकृतम्, इहायं भावार्थ: पूर्वोदितगुणयुक्तस्याधाकर्मिकभोजनपरिहारवतः क्षुरमुण्डितशिरसः शिखावतो वा केनापि 15 किञ्चिद् गृहव्यतिकरे पृष्टस्य तज्ज्ञाने सति जानामीति अज्ञाने च सति न जानामीति ब्रुवाणस्य दश मासान् यावदेवंविधविहारस्य दशमी प्रतिमेति । तथा श्रमणो निर्ग्रन्थस्तद्वद्यस्तदनुष्ठानकरणात् स श्रमणभूतः साधुकल्प इत्यर्थः, चकारः समुच्चये, अपिः सम्भावने, भवति श्रावक इति प्रकृतम्, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति सुधर्मस्वामिना जम्बूस्वामिनमामन्त्रयतोक्तम् इत्येकादशीति । इह चेयं भावना20 पूर्वोक्तसमग्रगुणोपेतस्य क्षुरमुण्डस्य कृतलोचस्य वा गृहीतसाधुनेपथ्यस्य ईर्यासमित्यादिकं साधुधर्ममनुपालयतो भिक्षार्थं गृहिकुलप्रवेशे सति श्रमणोपासकाय प्रतिमाप्रतिपन्नाय भिक्षां दत्तेति भाषमाणस्य कस्त्वमिति कस्मिंश्चित् पृच्छति प्रतिमाप्रतिपन्नः श्रमणोपासकोऽहमिति ब्रुवाणस्यैकादश मासान् यावदेकादशी प्रतिमा भवतीति । पुस्तकान्तरे त्वेवं वाचना- दंसणसावए प्रथमा, कयवयकम्मे द्वितीया, १. ज्ञातः स्वरूपा' खं० ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशस्थानकम् । ४१ [सू० ११] कयसामाइए तृतीया, पोसहोववासनिरए चतुर्थी, राइभत्तपरिणाए पञ्चमी, सचित्तपरिणाए षष्ठी, दिया बंभयारी राओ परिमाणकडे सप्तमी, दिया वि राओ वि बंभयारी असिणाणए यावि भवति वोसट्ठकेस-रोम-नहे अष्टमी, आरंभपरिणाए पेसपरिणाए नवमी, उदिट्ठभत्तवज्जए दशमी, समणभूए यावि भवइ त्ति समणाउसो एकादशीति, क्वचित्तु आरम्भपरिज्ञात इति नवमी, 5 प्रेष्यारम्भपरिज्ञात इति दशमी, उद्दिष्टभक्तवर्जकः श्रमणभूतश्चैकादशीति । __ तथा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य एकादश एगविंसे त्ति एकविंशतियोजनाधिकानि योजनशतानि अबाहाए त्ति अबाधया व्यवधानेन ‘कृत्वे'ति शेषः, ज्योतिष ज्योतिश्चक्रं चारं परिभ्रमणं चरति आचरति, तथा लोकान्तात् णमित्यलङ्कारे एकादश एक्कारे त्ति एकादशयोजनाधिकानि एकादश योजनशतानि अबाधया 10 व्यवहिततया कृत्वे ति शेषः, जोतिसंते त्ति ज्योतिश्चक्रपर्यन्तः प्रज्ञप्त इति, इदं च वाचनान्तरं व्याख्यातम्, उक्तं च एक्कारसेक्कवीसा सय एक्काराहिया य एक्कारा । मेरुअलोगाबाहं जोइसचक्कं चरइ ठाइ ॥ [बृहत्सं० १०५] इति । अधिकृतवाचनायां पुनरिदमनन्तरं व्याख्यातमालापकद्वयं व्यत्ययेनापि दृश्यते । 15 विमाणसयं भवति त्ति मक्खायं ति इह मकारस्यागमिकत्वादयमर्थः विमानशतं भवतीति कृत्वा आख्यातं प्ररूपितं भगवता अन्यैश्च केवलिभिरिति सुधर्मस्वामिवचनम् । तथा मंदरे णं पव्वए णं धरणितलाओ सिहरतले एक्कारसभागपरिहीणे उच्चत्तेणं पण्णत्ते, अस्यायमर्थः- मेरुभूतलादारभ्य शिखरतलमुपरिभागं यावद्विष्कम्भापेक्षयाऽ- 20 १. निरये जे१,२ खंमू० ॥ २. पेसपरिण्णाए खं० जे१ हे१ मध्ये नास्ति ॥ ३. द्वीपे नास्ति हे२ विना ॥ ४. "विंशे हे२ विना ॥ ५. "कानि एकादश योजनशतानि जे२ खंसं० ॥ ६. एकादश योजनशतानि इति पाठः कुत्रापि नास्ति, केवलं खसं० मध्ये पश्चात् पूरितः ।। ७. “इह यथासङ्ख्येन पदानां योजना, सा चैवम्एकादश योजनशतान्येकविंशत्यधिकानि मेरोरबाधामपान्तरालरूपां कृत्वा मनुष्यलोकवर्ति चरं ज्योतिश्चक्रं चरति । तथैकादश योजनशतान्येकादशाधिकान्यलोकाकाशस्याबाधामपान्तरालरूपां कृत्वा एतावद्भिर्योजनशतैरलोकाकाशादर्वाक स्थित्वेत्यर्थः, स्थिरं ज्योतिश्चक्रं तिष्ठति" ॥१०५॥ इति जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितबृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां टीकायाम् ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे गुलादेरेकादशभागेन परिहीणो हानिमुपगतः उच्चत्वेन उपर्युपरि प्रज्ञप्तः, इयमत्र भावना- मन्दरो भूतले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भतः, ततश्चोच्चत्वेनागुले गतेऽङ्गुलस्यैकादशभागो विष्कम्भतो हीयते, एवमेकादशस्वॉलेष्वगुलं हीयते, एतेनैव न्यायेनैकादशसु योजनेषु योजनम् एवं सहस्रेषु सहस्रं ततो नवनवत्यां योजनसहस्रेषु 5 नव सहस्राणि हीयन्ते, ततो भवति सहस्रं विष्कम्भः शिखरे इति, अथवा धरणीतलात् धरणीतलविष्कम्भात् सकाशाच्छिखरतलं शिखरविष्कम्भमाश्रित्य मेरुरेकादशभागेन परिहीणो भवति, कस्यैकादशभागेन ? इत्याह- उच्चत्तेणं ति उच्चत्वस्य, तथाहिमेरोरुच्चत्वं नवनवतिः सहस्राणि, तदेकादशभागो नव, तैीनो मूलविष्कम्भापेक्षया शिखरतले, शिखरस्य साहसिकत्वात्, दशसाहसिकत्वाच्च मूलविष्कम्भस्येति । 10 ब्रह्मादीनि द्वादश विमाननामानि ॥११॥ [सू० १२] [१] बारस भिक्खुपडिमातो पण्णत्तातो, तंजहा- मासिया भिक्खुपडिमा, दोमासिया [भिक्खुपडिमा], तेमासिया [भिक्खुपडिमा], चाउम्मासिया [भिक्खुपडिमा], पंचमासिया [भिक्खुपडिमा], छम्मासिया [भिक्खुपडिमा], सत्तमासिया [भिक्खुपडिमा], पढमा सत्तरातिंदिया 15 भिक्खुपडिमा, दोच्चा सत्तरातिदिया भिक्खुपडिमा, तच्चा सत्तरातिंदिया भिक्खुपडिमा, अहोरातिया भिक्खुपडिमा, एक्करातिया भिक्खुपडिमा १। दुवालसविहे संभोगे पण्णत्ते, तंजहा १. संभोगासंभोगविषये विस्तृता विचारणा निशीथस्य भाष्ये चूर्णी च [गा० २०६९-२१५८] विद्यते । विस्तरार्थिभिस्तत्र द्रष्टव्यम् । अत्र किञ्चिदुपन्यस्यते- “एस संभोगो सप्पभेओ वण्णिओ। एस य पुव्वं सव्वसंविग्गाणं अड्डभरहे एक्कसंभोगो आसी । पच्छा जाया- इमे संभोइया इमे असंभोइया ।.... ... सीसो पुच्छति- कति पुरिसजुगे एक्को संभोगो आसीत् ? कम्मि वा पुरिसे असंभोगो पवट्टो, केण वा कारणेण ? ततो भणतिसंपतिरण्णुप्पत्ती... ... ॥ [निशीथभा० २१५५] । वद्धमाणसामिस्स सीसो सोहम्मो । तस्स जंबुणामा । तस्स वि पभवो । तस्स सेजंभवो । तस्स वि सीसो जसभद्दो । जसभइसीसो संभूतो । संभूयस्स थूलभद्दो। थूलभदं जाव सव्वेसिं एक्कसंभोगो आसी । थूलभद्दस्स जुगप्पहाणा दो सीसा-अज्जमहागिरी अज्जसुहत्थी य । अजमहागिरी जेट्ठो, अजसुहत्थी तस्स सट्ठि(हो?)यरो । थूलभद्दसामिणा अजसुहत्थिस्स गणो दिनो । तहावि अज्जमहागिरी अज्जसुहत्थी य प्रीतिवसेण एक्कओ विहरति । अण्णया ते दोवि विहरंता कोसंबाहारं गता, त य दब्भिक्खं... ... । तं अजमहागिरी जाणित्ता अजसुहत्थिं भणाति- अज्जो कीस रायपिंडं पडिसेवह ? Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १२] द्वादशस्थानकम् । उवहि सुय भत्तपाणे अंजलीपग्गहे ति य । दायणे य निकाए य, अब्भुट्ठाणे तिं यावरे ॥५॥ कितिकम्मस्स य करणे, वेयावच्चकरणे ति य । समोसरण सन्निसेजा य, कहाते य पबंधणे ॥६॥ २॥ दुवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते, तंजहादुओणयं जहाजायं, कितिकम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं, दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥७॥ ३॥ विजया णं रायधाणी दुवालस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता ४॥ रामे णं बलदेवे दुवालस वाससताई सव्वाउयं पालइत्ता देवत्ति गए ५। 10 मंदरस्स णं पव्वतस्स चूलिया मूले दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता ६। जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स वेतिया मूले दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता ७। सव्वजहण्णिया राती दुवालसमुहुत्तिया पण्णत्ता ८॥ एवं दिवसो वि 15 णायव्वो ९। सव्वट्ठसिद्धस्स णं महाविमाणस्स उवरिल्लातो थूभियग्गातो दुवालस जोयणाई उद्धं उप्पतित्ता ईसिंपन्भारा नाम पुढवी पण्णत्ता १०।। ईसिंपन्भाराए णं पुढवीए दुवालस नामधेजा पण्णत्ता, तंजहा- ईसि त्ति वा, ईसिपब्भार त्ति वा, तणू ति वा, तणुयतरि त्ति वा, सिद्धी ति 20 तओ अजसुहत्थिणा भणियं- जहा राया तहा पया, ण एस रायपिंडो । तेल्लिया तेल्लं, घयगोलिया घयं, दोसिया वत्थाई, पूइया भक्खभोजे देंति, एवं साहूणं सुभविहारे । अजमहागिरी माति त्ति काउं अजसुहत्थिस्स कसातितो। एस सिस्साणुरागेण ण पडिसेहेति । ततो अजमहागिरी अजसुहत्थिं भणाति- अज्जपभिति तुम मम असंभोतिओ।" इति निशीथचूर्णी गा० २१५०-२१५४ ॥ १. दातणे जे१ खं० । दातणा जे२ ॥ २. ति जे२ ।। ३. सण्णिसे जे१ खं० ॥ ४. तिहि गुत्तं अटी०। गाथेयमावश्यकनिर्युक्तावपि [गा० १२१६] वर्तते । तत्र तिगुत्तं च इति पाठः ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे वा, सिद्धालए ति वा, मुत्ती ति वा, मुत्तालए ति वा, बंभे ति वा, बंभवडेंसगे त्ति वा, लोकपडिपूरणे त्ति वा, लोगग्गचूलिआ ति वा ११॥ _[२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतिआणं नेरइआणं बारस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १। 5 पंचमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं बारस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं बारस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं बारस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ 10 लंतए कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं बारस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा महिंदं महिंदज्झयं कंबुं कंबुग्गीवं पुंखं सुपुंखं महापुंखं पुंडं सुपुंडं महापुंडं नरिंदं नरिंदोकंतं नरिंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसिं णं देवाणं उक्कोसेणं बारस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। __[३] ते णं देवा बारसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति 15 वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं बारसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जति २॥ __ अत्थेगतिया भवसिद्धिआ जीवा जे बारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करेस्संति ३॥ [टी०] द्वादशस्थानमथ, तच्च सुगमम्, नवरं स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वागेकादश सूत्राणीह, 20 तत्र भिक्षणां विशिष्टसंहनन-श्रुतवतां प्रतिमाः अभिग्रहा भिक्षुप्रतिमाः, तत्र मासिक्यादयः सप्तमासिक्यन्ताः सप्त मासेन मासेनोत्तरोत्तरं वृद्धा एकादिभिर्भक्तपानदत्तिभिश्चेति, तथा सप्त रात्रिंदिवानि अहोरात्राणि यासु ताः सप्तरात्रिंदिवास्ताश्च तिम्रो भवन्तीति, सप्तानामुपर्यष्टमी प्रथमा सप्तरात्रिंदिवा, एवं नवमी द्वितीया, दशमी तृतीया, आसां च तिसृणामप्यनुष्ठानकृतो विशेषः, तथाहि- अष्टम्यां चतुर्थभक्तं Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १२] द्वादशस्थानकम् । तपः ग्रामादेर्बहिरवस्थानमुत्तानादिकं च स्थानमिति, नवम्यां तु उत्कुटुकाद्यासनेन विशेषः, दशम्यां वीरासनादिना, तथा अहोरात्रप्रमाणाऽहोरात्रिकी एकादशी, सा च षष्ठभक्तेन भवतीति विशेषः, एकरात्रिकी रात्रिप्रमाणा, सा चाष्टमभक्तेन रात्रौ प्रलम्बभुजस्य संहतपादस्येषदवनतकायस्यानिमेषनयनस्येति । तथा सम् एकीभूय समानसमाचाराणां साधूनां भोजनं सम्भोगः, स 5 चोपध्यादिलक्षणविषयभेदात् द्वादशधा, तत्र उवहीत्यादि रूपकद्वयम्, तत्रोपधिर्वस्त्रपात्रादिस्तं सम्भोगिकः सम्भोगिकेन सार्द्धमुद्गमोत्पादनैषणादोषैर्विशुद्धं गृह्णन् शुद्धः, अशुद्धं गृह्णन् प्रेरितः प्रतिपन्नप्रायश्चित्तो वारात्रयं यावत् सम्भोगार्हश्चतुर्थवेलायां प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानोऽपि विसम्भोगार्ह इति, विसम्भोगिकेन वा पार्श्वस्थादिना वा संयत्या वा सार्द्धमुपधिं शुद्धमशुद्धं वा निष्कारणं गृह्णन् प्रेरितः प्रतिपन्नप्रायश्चित्तोऽपि वेलात्रयस्योपरि 10 न सम्भोग्यः, एवमुपधेः परिकर्म परिभोगं वा कुर्वन् सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति, उक्तं चएगं व दो व तिण्णि व आउटुंतस्स होइ पच्छित्तं आलोचयत इत्यर्थः । आउटुंते वि तओ परेण तिण्हं विसंभोगो ॥ निशीथभा० २०७५] त्ति । तथा सुय त्ति सम्भोगिकः सम्भोगिकस्य विसम्भोगिकस्य वोपसम्पन्नस्य श्रुतस्य 15 वाचना-प्रच्छनादिकं विधिना कुर्वन् शुद्धः, तस्यैवाविधिनोपसम्पन्नस्यानुपसम्पन्नस्य वा पार्श्वस्थादेर्वा स्त्रिया वा वाचनादि कुर्वंस्तथैव वेलात्रयोपरि विसम्भोग्यः । तथा भत्त-पाणे त्ति उपधिद्वारवदवसेयम्, नवरमिह भोजनं दानं च परिकर्म-परिभोगयोः स्थाने वाच्यमिति। ___ तथा अंजलीपग्गहे इ य त्ति, इह इतिशब्दा उपदर्शनार्थाः, चकारा: 20 समुच्चयार्थाः, तत्रोपलक्षणत्वादञ्जलिप्रग्रहस्य वन्दनादिकमपीह द्रष्टव्यम्, तथाहिसम्भोगिकानामन्यसम्भोगिकानां वा संविग्नानां वन्दनकं प्रणाममञ्जलिप्रग्रहं 'नमः क्षमाश्रमणेभ्यः' इति भणनम्, आलोचना-सूत्रार्थनिमित्तं निषद्याकरणं च कुर्वन् शुद्धः, १. उत्कुटका जे१ ॥ २. भक्तपर्यन्तरात्रौ हे२ ॥ ३. सामनसमा खमू० । समभावेन समा खसं० ॥ ४. पग्गहे इत्ति इह खं० ॥ ५. 'त्तनिष जे१.२ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पार्श्वस्थादेरेतानि कुर्वंस्तथैव सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति । तथा दायणा य त्ति दानम्, तत्र, सम्भोगिकः सम्भोगिकाय वस्त्रादिभिः शिष्यगणोपग्रहासमर्थे सम्भोगिकेऽन्यसम्भोगिकाय वा शिष्यगणं यच्छन् शुद्धः, निष्कारणं विसम्भोगिकस्य पार्श्वस्थादेर्वा संयत्या वा तं यच्छंस्तथैव सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति । 5 तथा निकाये यत्ति निकाचनं छन्दनं निमन्त्रणमित्यनर्थान्तरम्, तत्र शय्योपध्याहारैः शिष्यगणप्रदानेन स्वाध्यायेन च सम्भोगिकः सम्भोगिकं निमन्त्रयन् शुद्धः, शेषं तथैव। तथा अब्भुट्ठाणे त्ति यावरे त्ति अभ्युत्थानमासनत्यागरूपमित्यपरं सम्भोगाऽसम्भोगस्थानमित्यर्थः, तत्राभ्युत्थानं पार्श्वस्थादेः कुर्वंस्तथैवासम्भोग्यः, उपलक्षणत्वाच्चाभ्युत्थानस्य किङ्करतां च प्राघूर्णक-ग्लानाद्यवस्थायां 'किं विश्रामणादि 10 करोमि' इत्येवंप्रश्नलक्षणां तथाऽभ्यासकरणं पार्श्वस्थादिधर्माच्च्युतस्य पुनस्तत्रैव संस्थापनलक्षणम्, तथा अविभक्तिं च अपृथग्भावलक्षणां कुर्वनशुद्धोऽसम्भोग्यश्च, एतान्येव यथाऽऽगमं कुर्वन् शुद्धः सम्भोग्यश्चेति । तथा किइकम्मस्स य करणे त्ति कृतिकर्म वन्दनकं तस्य करणं विधानम्, तद् विधिना कुर्वन् शुद्धः, इतरथा तथैवासम्भोग्यः, तत्र चायं विधिः - यः साधुर्वातेन 15 स्तब्धदेह उत्थानादि कर्तुमशक्तः स सूत्रमेवास्खलितादिगुणोपेतमुच्चारयति, एवमावर्त्त शिरोनमनादि यच्छक्नोति तत् करोत्येवं चाशठप्रवृत्तिर्वन्दनकविधिरिति भावः । ___ तथा वेयावच्चकरणे इ य त्ति वैयावृत्यम् आहारोपधिदानादिना प्रश्रवणादिमात्रकार्पणादिनाऽधिकरणोपशमनेन सहायदानेन वोपष्टम्भकरणं तस्मिंश्च विषये सम्भोगासम्भोगौ भवत इति । 20 तथा समोसरणं ति जिनस्नपन-रथानुयान-पटयात्रादि यत्र बहवः साधवो मिलन्ति तत् समवसरणम्, इह च क्षेत्रमाश्रित्य साधूनां साधारणोऽवग्रहो भवति, वसतिमाश्रित्य साधारणोऽसाधारणो वेति, अनेन चान्येऽप्यवग्रहा उपलक्षिताः, ते चानेके, तद्यथावर्षावग्रह ऋतुबद्धावग्रहो वृद्धवासावग्रहश्चेति, एकैकश्चायं साधारणावग्रहः १. दायण जे२ ॥ २. नि:काये यत्ति नि:काचनं जे१ ॥ ३. संभोगिकः जेसं२ हे२ मध्ये एव वर्तते ।। ४. पार्श्वस्थत्वादिधर्माच्युतस्य जे२ । पार्श्वस्थादिधर्माच्युतस्य हे१,२ ॥ ५. संस्थानलक्षणम् खं० जे१,२ हे१ ॥ ६. सहायदानेन नास्ति खं० । ७. 'त्रादिषु यत्र हे२ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १२] द्वादशस्थानकम् । प्रत्येकावग्रहश्चेति द्विधा, तत्र यत् क्षेत्रं वर्षाकल्पाद्यर्थं युगपद् व्यादिभिः साधुभिर्भिन्नगच्छस्थैरनुज्ञाप्यते स साधारणो यत्तु क्षेत्रमेके साधवोऽनुज्ञाप्याश्रिताः स प्रत्येकावग्रह इति, एवं चैतेष्ववग्रहेषु आकुट्ट्या अनाभाव्यं सचित्तं शिष्यमचित्तं वा वस्त्रादि गृह्णन्तोऽनाभोगेन च गृहीतं तदनर्पयन्तः समनोज्ञा अमनोज्ञाश्च प्रायश्चित्तिनो भवन्त्यसंभोग्याश्च, पार्श्वस्थादीनां चावग्रह एव नास्ति तथापि यदि तत् क्षेत्रं क्षुल्लकमन्यत्रैव 5 च संविग्ना निर्वहन्ति ततस्तत् क्षेत्रं परिहरन्त्येव, अथ पार्श्वस्थादिक्षेत्रं विस्तीर्णं संविग्नाश्चान्यत्र न निर्वहन्ति ततस्तत्रापि प्रविशन्ति सचित्तादि च गृह्णन्ति प्रायश्चित्तिनोऽपि न भवन्तीति, आह च समणुन्नमणुन्ने वा अदिंत अणाभव्व गिण्हमाणे वा । संभोग वीसुकरणं पृथक्करणमित्यर्थः इयरे य अलंभि पेल्लिंति ॥ [निशीथभा० २१२४] 10 इतरान् पार्श्वस्थादीनित्यर्थः । तथा सन्निसिज्जा य त्ति सन्निषद्या आसनविशेषः, सा च सम्भोगासम्भोगकारणं भवति, तथाहि-संनिषद्यागत आचार्यो निषद्यागतेन सम्भोगिकाचार्येण सह श्रुतपरिवर्तनां करोति शुद्धः, अथामनोज्ञ-पार्श्वस्थादि-साध्वी-गृहस्थैः सह तदा प्रायश्चित्ती भवति, तथा अक्षनिषद्यां विनाऽनुयोगं कुर्वतः शृण्वतश्च प्रायश्चित्तम्, तथा निषद्यायामुपविष्टः 15 सूत्रार्थों पृच्छति अतीचारान् वाऽऽलोचयति यदि तदा तथैवेति । तथा कहाए य पबंधणे त्ति कथा वादादिका पञ्चधा तस्याः प्रबन्धनं प्रबन्धेन करणं कथाप्रबन्धनम्, तत्र सम्भोगा-ऽसम्भोगौ भवतः, तत्र मतमभ्युपगम्य पञ्चावयवेन त्र्यवयवेन वा वाक्येन यत्तत्समर्थनं स छल-जातिविरहितो भूतार्थान्वेषणपरो वादः, स एव छल-जाति-निग्रहस्थानपरो जल्पः, यत्रैकस्य पक्षपरिग्रहोऽस्ति नापरस्य सा 20 दूषणमात्रप्रवृत्ता वितण्डा, तथा प्रकीर्णकथा चतुर्थी, सा चोत्सर्गकथा द्रव्यास्तिकनयकथा १. “समणुण्णमणुण्णे वा, अदितऽणाभव्वगेण्हमाणे वा । संभोग वीसु करणं, इतरे य अलंभे पेल्लंति ॥२१२४॥ संभोतितो जो अणाभव्वं गेण्हति गहियं वा ण देति सो संभोगा तो वीसुं पृथक् क्रियते । असंभोइओ वि अणाहव्वं गेण्हति, गहियं वा ण देति, जेसिं सो संभोइओ ते तं विसंभोगं करेंति । इयरे त्ति पासत्थाती तेसिं णत्थि उग्गहो, अणुग्गहे वि पासत्थाइयाण जाति खुड्डगं खेत्तं अण्णओ य संविग्गा संथरंता पेल्लंति तत्थ सचित्ताचित्तणिप्फण्णं । अह पासत्थादियाण बित्थिण्णं खेतं, ते य ण देंति, अण्णतो य असंथरता, ताहे संविग्गा पेल्लंति, सचित्ताइयं च गेण्हता सुद्धा ॥२१२४॥" - इति निशीथ चूर्णी ॥ २. अलंभे रोल्लिंति जे२ ॥ ३-४. संनि जे२ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे वा, तथा निश्चयकथा पञ्चमी, सा चापवादकथा पर्यायास्तिकनयकथा वेति, तत्राद्यास्तिस्रः कथाः श्रमणीवजैः सह करोति, श्रमणीभिस्तु सह कुर्वन् प्रायश्चित्ती, चतुर्थवेलायां चालोचयन्नपि विसम्भोगार्ह इति रूपकद्वयस्य संक्षेपार्थः, विस्तरार्थस्तु निशीथपञ्चमोद्देशकभाष्यादवसेय इति । 5 तथा दुवालसायते किइकम्मे त्ति द्वादशावर्त कृतिकर्म वन्दनकं प्रज्ञप्तम् । द्वादशावर्त्ततामेवास्यानुवदन् शेषांश्च तद्धर्मानभिधित्सुः रूपकमाह- दुओणएत्यादि । अवनतिरवनतम् उत्तमाङ्गप्रधानं प्रणमनमित्यर्थः, द्वे अवनते यस्मिंस्तद् व्यवनतम्, तत्रैकं यदा प्रथममेव ‘इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए' त्ति अभिधायावग्रहानुज्ञापनायावनमति, द्वितीयं पुनर्यदाऽवग्रहानुज्ञापनायैवावनमतीति । 10 यथाजातं श्रमणत्वभवनलक्षणं जन्माश्रित्य योनिनिष्क्रमणलक्षणं च, तत्र रजोहरणमुखवस्त्रिका-चोलपट्टमात्रया श्रमणो जातो रचितकरपुटस्तु योन्या निर्गतः, एवंभूत एव वन्दते, तदव्यतिरेकाच्च यथाजातं भण्यते कृतिकर्म वन्दनकम्, बारसावयं ति द्वादशाऽऽवर्ताः सूत्राभिधानगर्भाः कायव्यापारविशेषाः यतिजनप्रसिद्धा यस्मिंस्तद् द्वादशावर्त्तम् । तथा चउसिरं ति चत्वारि शिरांसि यस्मिंस्तच्चतुःशिरः, प्रथमप्रविष्टस्य 15 क्षामणाकाले शिष्याचार्यशिरोद्वयं पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य द्वयमेवेति भावना । तथा तिहि गुत्तं ति तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तम्, पाठान्तरेऽपि तिसृभिः शुद्धं गुप्तिभिरेवेति । तथा १. संभोगविषये निशीथभाष्ये पञ्चमे उद्देशके २०६९ तः २१५८ पर्यन्तासु गाथासु विस्तरेण वर्णनमस्ति ॥ २. 'सावते खं० ॥ ३. साययं जे२ हे१,२ ॥ ४. 'न्तरे तु जे२ हे१,२ । “दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य। चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजदे ॥६०३॥ दोणदं०- द्वे अवनती पञ्चनमस्कारादावेकावनतिर्भूमिसंस्पर्शस्तथा चतुर्विंशतिस्तवादौ द्वितीयाऽवनतिः शरीरनमनम्, द्वे अवनती, जहाजादं- यथाजातं जातरूपसदृशं क्रोधमानमायासंगादिरहितम् । बारसावत्तमेव य द्वादशावर्ता एवं च पञ्चनमस्कारोच्चारणादौ मनोवचनकायानां संयमनानि शुभयोगवृत्तयत्रय आवर्तास्तथा पञ्चनस्कारसमाप्तौ मनोवचनकायानां शुभवृत्तयस्त्रीण्यन्यान्यावर्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवादौ मनोवचनकायाः शुभवृत्तयस्त्रीण्यपराण्यावर्त्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवसमाप्तौ शुभमनोवचनकायवृत्तयस्त्रीण्यावर्त्तनान्येवं द्वादशधा मनोवचनकायवृत्तयो द्वादशावर्ता भवति, अथवा चतसृषु दिक्षु चत्वारः प्रणामा एकस्मिन् भ्रमणे एवं त्रिषु भ्रमणेषु द्वादश भवन्ति, चदुस्सिरं चत्वारि शिरांसि पञ्चनमस्कारस्यादावन्ते च करमुकुलाङ्कितशिरःकरणं तथा चतुर्विंशतिस्तवस्यादावन्ते च करमुकुलाङ्कितशिरःकरणमेवं चत्वारि शिरांसि भवन्ति, त्रिशुद्धं मनोवचनकायशुद्धं क्रियाकर्म प्रयुङ्क्ते करोति । द्वे अवनती यस्मिंस्तत् व्यवनति क्रियाकर्म, द्वादशावर्ताः यस्मिंस्तत् द्वादशावतम्, मनोवचनकायशुद्ध्या चत्वारि शिरांसि यस्मिन् तत् चतुःशिरः क्रियाकर्मवं विशिष्टं यथाजातं क्रियाकर्म प्रयुञ्जीतेति ॥६०३॥" - इति मूलाचारस्य वसुनन्दिटीकायाम् ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशस्थानकम् । [सू० १३] दुपवेसं ति द्वौ प्रवेशौ यस्मिंस्तद् द्विप्रवेशम्, तत्र प्रथमोऽवग्रहमनुज्ञाप्य प्रविशतो द्वितीयः पुनर्निर्गत्य प्रविशत इति । एगनिक्खमणं ति एकनिष्क्रमणमवग्रहादावश्यिक्या निर्गच्छतः, द्वितीयवेलायां ह्यवग्रहान्न निर्गच्छति, पादपतित एव सूत्रं समापयतीति । __ तथा विजया राजधानी असङ्ख्याततमे जम्बूद्वीपे आद्यजम्बूद्वीपविजयाभिधानपूर्वद्वाराधिपस्य विजयाभिधानस्य पल्योपमस्थितिकस्य देवस्य सम्बन्धिनीति । तथा 5 रामो नवमो बलदेवः देवत्तिं गए त्ति देवत्वं पञ्चमदेवलोकदेवत्वं गतः। तथा सर्वजघन्या रात्रिरुत्तरायणपर्यन्ताहोरात्रस्य रात्रिः, सा च द्वादशमौहूर्तिका चतुर्विंशतिघटिकाप्रमाणा, एवं दिवसो वि त्ति सर्वजघन्यो द्वादशमौहूर्तिक एवेत्यर्थः, स च दक्षिणायनपर्यन्तदिवस इति । महेन्द्र-महेन्द्रध्वज-कम्बु-कम्बुग्रीवादीनि त्रयोदश विमानानीति ॥१२॥ - 10 [सू० १३] [१] तेरस किरियट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- अट्टादंडे, अणट्ठादंडे, हिंसादंडे, अकम्हादंडे, दिट्ठिविपरियासियादंडे, मुसावायवत्तिए, अदिनादाणवत्तिए, अज्झथिए, माणवत्तिए, मित्तदोसवत्तिए, मायावत्तिए, लोभवत्तिए, इरिआवहिए णामं तेरसमे १। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु तेरस विमाणपत्थडा पण्णत्ता २॥ 15 सोहम्मवडेंसगे णं विमाणे णं अद्धतेरस जोयणसतसहस्साइं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते ३॥ एवं ईसाणवडेंसगे वि ४।। जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं अद्धतेरस जातिकुलकोडीजोणिपमुहसतसहस्सा पण्णत्ता ५। पाणाउस्स णं पुव्वस्स तेरस वत्थू पण्णत्ता ६। गन्भवक्कंतिअपंचेंदिअतिरिक्खजोणिआणं तेरसविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहासच्चमणपओगे मोसमणपओगे सच्चामोसमणपओगे असच्चामोसमणपओगे सच्चवतिपओगे मोसवतिपओगे सच्चामोसवतिपओगे असच्चामोसवतिपओगे १. देवत्तिगय त्ति जे१,२ ॥ २. इतः परं लोकप्रसिद्ध्या सातिरेक इति खमू० मध्येऽधिकः पाठः । जे२ मध्ये तु 'लोकप्रसिद्धा सातिरेका साऽन्या' इति पत्रस्य अन्तराले [=Margin मध्ये] पूरितः पाठः ॥ 20 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ओरालियसरीरकायपओगे ओरालियमीससरीरकायपओगे वेउब्वियसरीरकायपओगे वेउव्वियमीससरीरकायपओगे कम्मसरीरकायपओगे । सूरमंडले जोयणेणं तेरसहिं एक्कसट्ठिभागेहिं जोयणस्स ऊणे पण्णत्ते ८। _[२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तेरस 5 पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ११ पंचमाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तेरस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं तेरस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं तेरस पलिओवमाइं ठिती 10 पण्णत्ता ४। लंतए कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं तेरस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा वजं सुवज्जं वज्जावत्तं वज्जप्पभं वज्जकंतं वज्जवण्णं वजलेसं वजज्झयं वज्जसिंगं वज्जसिटुं वजकूडं वजुत्तरवडेंसगं वइरं वइरावत्तं जाव वइरुत्तरवडेंसगं लोगं लोगावत्तं लोगप्पभं जाव लोगुत्तरवडेंसगं विमाणं 15 देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तेरस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा तेरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । तेसि णं देवाणं तेरसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जति २॥ 20 अत्थेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे तेरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३॥ [टी०] अथ त्रयोदशस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, इह स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वागष्ट सूत्राणि, तत्र करणं क्रिया कर्मबन्धनिबन्धनचेष्टा, तस्याः स्थानानि भेदाः पर्यायाः क्रियास्थानानि । तत्राऽर्थाय शरीर-स्वजन-धर्मादिप्रयोजनाय दण्डः त्रस-स्थावरहिंसा 25 अर्थदण्डः क्रियास्थानमिति प्रक्रमः १, तद्विलक्षणोऽनर्थदण्डः २ । तथा हिंसामाश्रित्य Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३] त्रयोदशस्थानकम् । 'हिंसितवान् हिनस्ति हिसिष्यति वा अयं वैरिकादिर्माम्' इत्येवं प्रणिधानेन दण्डो विनाशनं हिंसादण्डः ३ । तथाऽकस्माद् अनभिसंधिनाऽन्यवधार्थप्रवृत्त्या दण्डः अन्यस्य विनाशोऽकस्माद्दण्डः ४ । तथा दृष्टेः बुद्धेर्विपर्यासिका विपर्यासिता वा दृष्टिविपर्यासिका दृष्टिविपर्यासिता वा मतिभ्रम इत्यर्थः, तया दण्डः प्राणिवधो दृष्टिविपर्यासिकादण्डो दृष्टिविपर्यासितादण्डो वा, मित्रादेरमित्रादिबुद्ध्या हननमिति भावः ५। तथा मृषावादः 5 आत्मपरोभयार्थमलीकवचनम्, तदेव प्रत्ययः कारणं यस्य दण्डस्य स मृषावादप्रत्ययः ६ । एवमदत्तादानप्रत्ययोऽपि ७ तथा अध्यात्मनि मनसि भव आध्यात्मिको बाह्यनिमित्तानपेक्षः शोकाभिभव इति भावः ८ । तथा मानप्रत्ययो जात्यादिमदहेतुक ९ । तथा मित्रद्वेषप्रत्ययः माता-पित्रादीनामल्पेऽप्यपराधे महादण्डनिवर्त्तनमिति भावः १० । मायाप्रत्ययो मायानिबन्धनः ११ । एवं लोभप्रत्ययोऽपि १२ । ऐर्यापथिकः 10 केवलयोगप्रत्ययः कर्मबन्धः उपशान्तमोहादीनां सातवेदनीयबन्धः १३। ___ तथा विमाणपत्थड त्ति विमानप्रस्तटा औत्तराधर्यव्यवस्थिताः । तथा सोहम्मवडेंसए त्ति सौधर्मस्य देवलोकस्यार्द्धचन्द्राकारस्य पूर्वापरायतस्य दक्षिणोत्तरविस्तीर्णस्य मध्यभागे त्रयोदशप्रस्तटे शक्रावासभूतं विमानं सौधर्मावतंसकं सौधर्मदेवलोकस्यावतंसकः शेखरकः स इव प्रधानत्वात् इत्येवं यथार्थनामकमिति, णंकारौ वाक्यालङ्कारे, अर्द्धं 15 त्रयोदशं येषु तान्यर्द्धत्रयोदशानि तानि च तानि योजनशतसहस्राणि चेति विग्रहः, सार्द्धानि द्वादशेत्यर्थः । तथाऽर्द्धत्रयोदशानि जातौ जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्जातौ कुलकोटीनां योनिप्रमुखानि उत्पत्तिस्थानप्रभवानि यानि शतसहस्राणि तानि तथोच्यन्त इति । तथा पाणाउस्स त्ति, यत्र प्राणिनामायुर्विधान सभेदमभिधीयते तत् प्राणायुादशं पूर्वम्, तस्य त्रयोदश वस्तूनि अध्ययनवद्विभागविशेषाः । 20 ___ तथा गर्भे गर्भाशये व्युत्क्रान्ति: उत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेति विग्रहः । प्रयोजनं मनोवाक्कायानां व्यापारणं प्रयोगः, स त्रयोदशविधः, पञ्चदशानां प्रयोगाणां मध्ये आहारका-ऽऽहारकमिश्रलक्षणकायप्रयोगद्वयस्य तिरश्चामभावात्, तौ हि संयमिनामेव स्तः, संयमश्च संयतमनुष्याणामेव १. भावः नास्ति जे२ ।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे न तिरश्चामिति, तत्र सत्यासत्योभयानुभयस्वभावाश्चत्वारो मनःप्रयोगाः वाक्प्रयोगाश्चेति अष्टौ, पञ्च पुनरौदारिकादयः कायप्रयोगाः, एवं त्रयोदशेति । तथा सूरमण्डलस्य आदित्यविमानवृत्तस्य योजनं सूरमण्डलयोजनं तत् णमित्यलङ्कारे त्रयोदशभिरेकषष्टिभागैर्येषां भागानामेकषष्टया योजनं भवति तैर्भागैर्योजनस्य 5 सम्बन्धिभिरूनं न्यूनं प्रज्ञप्तम्, अष्टचत्वारिंशद् योजनभागा इत्यर्थः । वज्राभिलापेन द्वादश वइराभिलापेन लोकाभिलापेन चैकादश विमानानीति ॥१३॥ [सू० १४] [१] चोद्दस भूयग्गामा पण्णत्ता, तंजहा- सुहुमा अपजत्तया, सुहमा पज्जत्तया, बादरा अपज्जत्तया, बादरा पज्जत्तया, बेइंदिया अपज्जत्तया, बेइंदिया पजत्तया, तेइंदिया अपजत्तया, तेइंदिया पजत्तया, चउरिंदिया 10 अपजत्तया, चउरिंदिया पजत्तया, पंचिंदिया असन्निअपजत्तया, पंचिंदिया असन्निपज्जत्तया, पंचिंदिया सनिअपज्जत्तया, पंचिंदिया सन्निपजत्तया १। चोद्दस पुव्वा पण्णत्ता, तंजहाउप्पायपुव्वमग्गेणियं च ततियं च वीरियं पुव्वं । अत्थीणत्थिपवायं तत्तो नाणप्पवायं च ॥८॥ 15 सच्चप्पवायपुव्वं तत्तो आयप्पवायपुव्वं च । कम्मप्पवायपुव्वं पच्चक्खाणं भवे नवमं ॥९॥ विजाअणुप्पवायं अवंझ पाणाउ बारसं पुव्वं । तत्तो किरियविसालं पुव्वं तह बिंदुसारं च ॥१०॥ २॥ अग्गेणीयस्स णं पुव्वस्स चोद्दस वत्थू पण्णत्ता ३॥ 20 समणस्स णं भगवतो महावीरस्स चोद्दस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपदा होत्था ४। कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चोद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- मिच्छदिट्ठी, सासायणसम्मदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी, अविरतसम्मदिट्ठी, विरताविरतसम्मदिट्ठी, पमत्तसंजते, अप्पमत्तसंजते, नियट्टि-अनियट्टिबायरे, सुहुमसंपराए उवसामए Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ [सू० १४] चतुर्दशस्थानकम् । वा खमए वा, उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगी केवली, अजोगी केवली५। भरहेरवयाओ णं जीवाओ चोद्दस चोद्दस जोयणसहस्साइं चत्तारि य एक्कुत्तरे जोयणसते छच्च एकूणवीसइभागे जोयणस्स आयामेणं पण्णत्ते ६। एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवहिस्स चोद्दस रयणा पण्णत्ता, तंजहाइत्थीरयणे, सेणावतिरयणे, गाहावतिरयणे, पुरोहितरयणे, वड्डइरयणे, 5 आसरयणे, हत्थिरयणे, असिरयणे, दंडरयणे, चक्करयणे, छत्तरयणे, चम्मरयणे, मणिरयणे, कागणिरयणे । __ जंबुद्दीवे णं दीवे चोद्दस महानदीओ पुव्वावरेणं लवणं समुदं समप्पेंति, तंजहा- गंगा, सिंधू, रोहिया, रोहियंसा, हरी, हरिकंता, सीता, सीतोदा, णरकंता, णारिकंता, सुवण्णकूला, रुप्पकूला, रत्ता, रत्तवती । 10 [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं चोद्दस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १। पंचमाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं चोद्दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं चोद्दस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता३। 15 सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं चोद्दस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ लंतए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं चोद्दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। महासुक्के कप्पे देवाणं जहण्णेणं चोद्दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। जे देवा सिरिकंतं सिरिमहिअं सिरिसोमणसं लंतयं काविट्ठ महिंद महिंदोकंतं 20 महिंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चोद्दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ७। [३] ते णं देवा चोद्दसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणंमति वा ऊससंति वा नीससंति वा १॥ तेसि णं देवाणं चोद्दसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जति २॥ 25 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे चोद्दसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथ चतुर्दशस्थानकं सुबोधं च, नवरमिहाष्टौ सूत्राण्याक् स्थितिसूत्रादिति, तत्र चतुर्दश भूतग्रामाः, भूतानि जीवाः, तेषां ग्रामाः समूहाः भूतग्रामाः, तत्र 5 सूक्ष्माः सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तित्वात् पृथिव्यादय एकेन्द्रियाः, किंभूताः ? अपर्याप्तकाः तत्कर्मोदयादपरिपूर्णस्वकीयपर्याप्तय इत्येको ग्रामः, एवमेते एव पर्याप्तकाः तथैव परिपूर्णस्वकीयपर्याप्तय इति द्वितीयः, एवं बादरा बादरनामोदयात् पृथिव्यादय एव, तेऽपि पर्याप्तेतरभेदाद् द्विधा, एवं द्वीन्द्रियादयोऽपि, नवरं पञ्चेन्द्रियाः सज्ञिनो मनःपर्याप्त्युपेताः, इतरे त्वसचिन इति । 10 तथा उप्पायपुवेत्यादि गाथात्रयम्, तत्र उप्पायपुव्वमग्गेणियं च त्ति यत्रोत्पादमाश्रित्य द्रव्य-पर्यायाणां प्ररूपणा कृता तदुत्पादपूर्वम्, यत्र तु तेषामेवाऽग्रं परिमाणमाश्रित्य तदग्रेणीयम्, तइयं च वीरियं पुव्वं ति यत्र जीवादीनां वीर्यं प्रोद्यते प्ररूप्यते तद्वीर्यप्रवादम्, अत्थीनत्थिपवायं ति यद्यथा लोके अस्ति नास्ति च तद्यत्र प्रोद्यते तदस्तिनास्तिप्रवादम्, तत्तो नाणप्पवायं च त्ति यत्र ज्ञानं मत्यादिकं स्वरूप15 भेदादिभिः प्रोद्यते तज्ज्ञानप्रवादमिति, सच्चप्पवायपुव्वं ति यत्र सत्यः संयमः सत्यवचनं वा सभेदं सप्रतिपक्षं प्रोद्यते तत् सत्यप्रवादपूर्वम्, तत्तो आयप्पवायपुव्वं च त्ति यत्रात्मा जीवोऽनेकनयैः प्रोद्यते तदात्मप्रवादमिति, कम्मप्पवायपुव्वं ति यत्र ज्ञानावरणादि कर्म प्रोद्यते तत् कर्मप्रवादमिति, पच्चक्खाणं भवे नवमं ति यत्र प्रत्याख्यानस्वरूपं वर्ण्यते तत् प्रत्याख्यानमिति । विज्जाअणुप्पवायं ति यत्रानेकविधा 20 विद्यातिशया वर्ण्यन्ते तद्विद्यानुप्रवादम्, अवंझपाणाउ बारसं पुव्वं ति यत्र सम्यग्ज्ञानादयोऽवन्ध्याः सफला वर्ण्यन्ते तदवन्ध्यमेकादशम्, यत्र प्राणा जीवा आयुश्चानेकधा वर्ण्यन्ते तत् प्राणायुरिति द्वादशं पूर्वम्, तत्तो किरियविसालं ति यत्र क्रियाः कायिक्यादिकाः विशाला विस्तीर्णाः सभेदत्वादभिधीयन्ते तत् क्रियाविशालम्, पुव्वं तह बिंदुसारं च त्ति लोकशब्दोऽत्र लुप्तो द्रष्टव्यः, ततश्च लोकस्य बिन्दुरिवाक्षरस्य १. वर्ण्यते खं० जे२ हे२ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४] चतुर्दशस्थानकम् । सारं सर्वोत्तमं यत्तल्लोकबिन्दुसारमिति । तथा चोद्दस वत्थूणि त्ति द्वितीयपूर्वस्य वस्तूनि विभागविशेषाः, तानि च चतुर्दश मूलवस्तूनि, चूलावस्तूनि तु द्वादशेति, तथा साहस्सिओ त्ति सहस्राण्येव साहय्यः । तथा कम्मविसोहीत्यादि, कर्मविशोधिमार्गणां प्रतीत्य ज्ञानावरणादिकर्मविशुद्धिगवेषणामाश्रित्य चतुर्दश जीवस्थानानि जीवभेदाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- मिथ्या विपरीता 5 दृष्टिर्यस्यासौ मिथ्यादृष्टिः उदितमिथ्यात्वमोहनीयविशेषः, तथा सासायणसम्मदिट्टि त्ति सह ईषत्तत्त्वश्रद्धानरसाऽऽस्वादेन वर्त्तते इति सास्वादनः, घण्टालालान्यायेन प्रायः परित्यक्तसम्यक्त्वः तदुत्तरकालं षडावलिकः, तथा चोक्तम् उवसमसंमत्ताओ चयओ मिच्छं अपावमाणस्स । सासायणसंमत्तं तदंतरालम्मि छावलियं ॥ [विशेषाव० भा० ५३१] ति, सास्वादनश्चासौ 10 सम्यग्दृष्टिश्चेति विग्रहः, सम्मामिच्छदिट्टि त्ति सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिरस्येति सम्यग्मिथ्यादृष्टिः उदितदर्शनमोहनीयविशेषः, तथाऽविरतसम्यग्दृष्टिर्देशविरतिरहितः, विरताविरतो देशविरतः श्रावक इत्यर्थः, प्रमत्तसंयतः किञ्चित्प्रमादवान् सर्वत्र विरतः, अप्रमत्तसंयत: सर्वप्रमादरहितः स एव, नियहि त्ति इह क्षपकश्रेणिमुपशमश्रेणिं वा प्रतिपन्नो जीवः क्षीणदर्शनसप्तक उपशान्तदर्शनसप्तको वा निवृत्तिबादर उच्यते, तत्र 15 निवृत्तिः तद् गुणस्थानकं समकालं प्रतिपन्नानां जीवानामध्यवसायभेदः, तत्प्रधानो बादरो बादरसम्परायो निवृत्तिबादरः, अणियट्टिबायरे त्ति अनिवृत्तिबादरः, स च कषायाष्टकक्षपणारम्भान्नपुंसकवेदोपशमनारम्भाच्चारभ्य बादरलोभखण्डक्षपणोपशमने यावद् भवतीति, सुहुमसंपराए त्ति सूक्ष्मः सज्वलनलोभासङ्ख्येयखण्डरूपः सम्परायः कषायो यस्य स सूक्ष्मसंपरायः, लोभाणुवेदक इत्यर्थः, अयं च द्विविध इत्याह- 20 उपशमको वा उपशमश्रेणीप्रतिपन्नः क्षपको वा क्षपकश्रेणीप्रतिपन्न इति दशमं जीवस्थानमिति, तथा उपशान्तः सर्वथानुदयावस्थो मोहो मोहनीयं कर्म यस्य स १. का: जे२ ।। २. “इहान्तरकरणे औपशमिकसम्यक्त्वाद्धायां जघन्यतः समयशेषायाम्, उत्कृष्टतस्तु षडावलिकावशेषायां वर्तमानस्य कस्यचिदनन्तानुबन्धिकषायोदयेनौपशमिकसम्यक्त्वाच्च्यवमानस्य मिथ्यात्वमद्याप्यप्राप्नुवतोऽत्रान्तरे जघन्यतः समयम्, उत्कृष्टतस्तु षडावलिकाः सास्वादनसम्यक्त्वं पूर्वोक्तशब्दार्थं भवतीति ॥५३१॥" - इति विशेषावश्यकभाष्यस्य मलधारिहेमचन्द्रसूरिविरचितायां टीकायाम् ॥ ३. सर्ववरितः हे२ ॥ ४. नियहि त्ति नास्ति खं० ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे उपशान्तमोहः, उपशमवीतराग इत्यर्थः, अयं चोपशमश्रेणिसमाप्तावन्तर्मुहूर्तं भवति, ततः प्रच्यवत एवेति, तथा क्षीणो निःसत्ताकीभूतो मोहो यस्य स तथा, क्षयवीतराग इत्यर्थः, अयमप्यन्तर्मुहर्तमेवेति, तथा सयोगी केवली मनःप्रभृतिव्यापारवान् केवलज्ञानीति, तथाऽयोगी केवली निरुद्धमनःप्रभृतियोगः शैलेशीगतो 5 ह्रस्वपञ्चाक्षरोद्गिरणमात्रं कालं यावदिति चतुर्दशं जीवस्थानमिति । भरहेत्यादि, भारतैरवत्यौ जीवे, इह भरतमैरवतं चारोपितगुणकोदण्डाकारमतस्तयोर्जीवे भवतः, तत्र भरतस्य हिमवतोऽर्वागनन्तरा प्रदेशश्रेणी जीवा ऐरवतस्य च शिखरिण: परतोऽनन्तरप्रदेशश्रेणीति । ___ चातुरंतचक्कवट्टिस्स त्ति चत्वारोऽन्ता विभागा यस्यां सा चतुरन्ता भूमिः, तत्र भवः 10 वामितयेति चातुरन्तः, स चासौ चक्रवर्ती चेति विग्रहः। रत्नानि स्वजातीयमध्ये समुत्कर्षवन्ति वस्तूनीति, यदाह- रत्नं निगद्यते तजातौ जातौ यदुत्कृष्टम् [ ] इति । __ गाहावइ त्ति गृहपतिः कोष्ठागारिकः, पुरोहिय त्ति पुरोहितः शान्तिकर्मादिकारी, वड्डइ त्ति वर्द्धकिः रथादिनिर्मापयिता, मणिः पृथिवीपरिणामः, काकणी सुवर्णमयी अधिकरणीसंस्थानेति, इह सप्ताद्यानि पञ्चेन्द्रियाणि शेषाण्येकेन्द्रियाणीति । 15 श्रीकान्तमित्यादीन्यष्टौ विमानानीति ॥१४॥ [सू० १५] [१] पण्णरस परमाहम्मिया पण्णत्ता, तंजहाअंबे अंबरिसी चेव, सामे सबले त्ति यावरे । रुद्दोवरुद्द काले य, महाकाले त्ति यावरे ॥११॥ असिपत्ते धणु कुम्भे वालुए वेयरणी ति य । 20 खरस्सरे महाघोसे एते पण्णरसाहिया ॥१२॥ १। णमी णं अरहा पण्णरस धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था २ धुवराहू णं बहुलपक्खस्स पाडिवयं पन्नरसतिभागं पन्नरसतिभागेणं चंदस्स लेसं आवरेत्ता णं चिट्ठति, तंजहा– पढमाए पढमं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं १. 'क्षवीत खंमू०, क्षपकवी खसं० ।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ 5 [सू० १५] पञ्चदशस्थानकम् । भागं । तं चेव सुक्कपक्खस्स उवदसेमाणे उवदंसेमाणे चिट्ठति, तंजहा- पढमाए पढमं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भागं ३। [२] छण्णक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजुत्ता पण्णत्ता, तंजहासतभिसय भरणि अद्दा, असिलेसा साइ तह य जेट्ठा य । एते छण्णक्खत्ता, पण्णरसमुत्तसंजुत्ता ॥१३॥ ४॥ चेत्तासोएसु मासेसु पन्नरसमुहुत्तो दिवसो भवति, सइ पण्णरसमुहुत्ता राती भवति ५। अणुप्पवायस्स णं पुव्वस्स पन्नरस वत्थू पण्णत्ता ६। मणूसाणं पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा- सच्चमणपओगे, एवं मोसमणपओगे, सच्चामोसमणपओगे, असच्चामोसमणपओगे, एवं 10 सच्चवतीपओगे, मोसवतीपओगे, सच्चामोसवतीपओगे, असच्चामोसवतीपओगे, ओरालियसरीरकायपओगे, ओरालियमीससरीरकायपओगे, वेउब्वियसरीरकायपओगे, वेउब्वियमीससरीरकायपओगे, आहारयसरीरकायपओगे, आहारयमीससरीरकायपओगे कम्मयसरीरकायपओगे ७। [३] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए [अत्थेगतियाणं नेरइआणं] पण्णरस 15 पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १॥ पंचमाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं पण्णरस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं पण्णरस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं पण्णरस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ महासुक्के कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं पण्णरस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा गंदं सुणंदं गंदावत्तं गंदप्पभं णंदकंतं गंदवण्णं णंदलेसं जाव णंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पण्णरस 25 20 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। ४] ते णं देवा पण्णरसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १॥ तेसि णं देवाणं पण्णरसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २॥ 5 अत्थेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे पन्नरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करिस्संति ३॥ [टी०] अथ पञ्चदशस्थानके सुगमेऽपि किञ्चिल्लिख्यते, इह स्थितेरर्वाक् सप्त सूत्राणि, तत्र परमाश्च तेऽधार्मिकाश्च संक्लिष्टपरिणामत्वात् परमाधार्मिकाः असुरविशेषाः, ये तिसृषु पृथिवीषु नारकान् कदर्थयन्तीति, तत्र अंबेत्यादि श्लोकद्वयम्, एते च व्यापारभेदेन 10 पञ्चदश भवन्ति, तत्र अंबे त्ति यः परमाधार्मिकदेवो नारकान् हन्ति पातयति बध्नाति नीत्वा चाम्बरतले विमुञ्चति सोऽम्ब इत्यभिधीयते १, अंबरिसी चेव त्ति यस्तु नारकान् निहत्य कल्पनिकाभिः खण्डशः कल्पयित्वा भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोति सोऽम्बरिषीति २, सामे त्ति यस्तु रज्जु-हस्तप्रहारादिना शातन-पातनादि करोति वर्णतश्च श्यामः स श्याम इति ३, सबले त्ति यावरे त्ति शबल इति चापरः परमाधार्मिक इति प्रक्रमः, 15 स चान्त्र-वसा-हृदय-कालेज्जकादीन्युत्पाटयति वर्णतश्च शबलः कर्बुर इत्यर्थः ४, रुद्दोवरुद्दे त्ति यः शक्ति-कुन्तादिषु नारकान् प्रोतयति स रौद्रत्वाद्रौद्र इति ५, यस्तु तेषामङ्गोपाङ्गानि भनक्ति सोऽत्यन्तरौद्रत्वादुपरौद्र इति ६, काले त्ति यः कण्ड्वादिषु पचति वर्णतः कालश्च स कालः ७, महाकाले त्ति यावरे त्ति महाकाल इति चापरः परमाधार्मिक इति प्रक्रमः, स च श्लक्ष्णमांसानि खण्डयित्वा खादयति वर्णतश्च महाकाल 20 इति ८, असिपत्ते त्ति असिः खड्गस्तदाकारपत्रवद्वनं विकुळ यस्तत्समाश्रित्य नारकानसिपत्रपातनेन तिलशश्छि नत्ति सोऽसिपत्रः ९, धणु त्ति यो धनुर्विमुक्तार्द्धचन्द्रादिबाणैः कर्णादीनां छेदन-भेदनादि करोति स धनुरिति १०, कुंभे त्ति यः कुम्भादिषु तान् पचति स कुम्भः ११, वालु त्ति यः कदम्बपुष्पाकारासु १. निहतान् क जे१ हे२ । निहितान् क हे१ । निहतान्व क जे२ ।। २. कर्त्तयित्वा जे२ ॥ ३. °म्बऋषी' खं० जे१ । 'म्बरीषी जे२ हे१ ॥ ४. कालेयका खंसं० ॥ ५. 'श्रितान्नारका खं० जे१ विना ॥ x Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५] पञ्चदशस्थानकम् । वज्राकारासु वा वैक्रियवालुकासु तप्तासु चन(ण?)कानिव तान् पचति स वालुक इति १२, वेयरणी ति य त्ति वैतरणीति च परमाधार्मिकः, स च पूय-रुधिर-त्रपुताम्रादिभिरतितापात् कलकलायमानैर्भतां विरूपं तरणं प्रयोजनमस्या इति वैतरणीति यथार्थां नदी विकुळ तत्तारणेन कदर्थयति नारकानिति १३, खरस्सरे त्ति यो वज्रकण्टकाकुलं शाल्मलीवृक्षं नारकमारोप्य खरं स्वरं कुर्वन्तं कुर्वन् वा कर्षति स 5 खरस्वर इति १४, महाघोसे त्ति यो भीतान् पलायमानान् नारकान् पशूनिव वाटकेषु महाघोषं कुर्वनिरुणद्धि स महाघोष इति १५, एमए पन्नरसाहिय त्ति एवमित्यम्बादिक्रमेणैते परमाधार्मिकाः पञ्चदशाख्याताः कथिता जिनैरिति ।। धुवराहू णमित्यादि, द्विविधो राहुः भवति ध्रुवराहुः पर्वराहुश्च, तत्र यः पर्वणि पौर्णमास्याममावास्यायां वा चन्द्रा-ऽऽदित्ययोरुपरागं करोति स पर्वराहुः, यस्तु चन्द्रस्य 10 सदैव सन्निहितः सञ्चरति स ध्रुवराहुः, आह चकिण्हं राहुविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहिअं। चउरंगुलमप्पत्तं हेट्ठा चंदस्स तं चरइ ॥ [बृहत्सं० ११६] त्ति । ततोऽसौ ध्रुवराहुः णमित्यलङ्कारे बहुलपक्षस्य प्रतीतस्य पाडिवयं ति प्रतिपदं प्रथमतिथिमादौ कृत्वेति वाक्यशेष: पञ्चदशभागं पञ्चदशभागेनेति वीप्सायां द्विर्वचनादि 15 यथा पदं पदेन गच्छतीत्यादिषु, प्रतिदिनं पञ्चदशभागं पञ्चदशभागमिति भावः, चन्द्रस्य प्रतीतस्य लेश्यामिति लेश्या दीप्तिस्तत्कारणत्वात् मण्डलं लेश्या तामावृत्य आच्छाद्य तिष्ठति, एतदेव दर्शयन्नाह- तद्यथेत्यादि, पढमाए त्ति प्रथमायां तिथ्यां प्रथमं भागं पञ्चदशांशलक्षणं 'चन्द्रलेश्याया आवृत्य तिष्ठती'ति प्रक्रमः, अनेन क्रमेण यावत् १. वाटेषु जे२ ॥ २. एए जेसं२ ॥ ३. “इह द्विविधो राहुस्तद्यथा- पर्वराहुर्नित्यराहुश्च । तत्र पर्वराहुः स उच्यते यः कदाचिदकस्मात् समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं वाऽन्तरितं करोति । अन्तरिते च कृते लोके ग्रहणमिति प्रसिद्धिः । स च पर्वराहुर्जघन्यत उत्कर्षतो वा यावता कालेन चन्द्रसूर्याणामुपरागं करोति तदेतत् क्षेत्रसमास[३९५ तमगाथा] टीकायामभिहितमिति नेह भूयोऽभिधीयते । यस्तु नित्यराहुस्तस्य विमानं कृष्णम्, तच्च तथाजगत्स्वाभाव्याच्चन्द्रेण सह नित्यं सर्वकालमविरहितं तथा चतुरङ्गुलेन चतुर्भिरङ्गुलैप्राप्तं सच्चन्द्रस्य चन्द्रविमानस्याधस्ताच्चरति, तच्च कृष्णपक्षे प्रतिपद आरभ्य प्रतिदिवसमेकैकां कलामात्मीयेन पञ्चदशेन भागेनोपरितनभागादारभ्यावृणोति । शुक्लपक्षे तु प्रतिपद आरभ्य तेनैव क्रमेण प्रतिदिवसमेकैकां कलां प्रकटीकरोति, तेन जगति चन्द्रमण्डलस्य वृद्धिहानी प्रतिभासेते, यावता पुनः स्वरूपेणावस्थितमेव चन्द्रमण्डलमिति ॥११६॥" - इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां टीकायाम् ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पन्नरसेसु त्ति पञ्चदशसु दिनेषु पञ्चदशं भागमावृत्य तिष्ठति, तं चेव त्ति तमेव पञ्चदशभागं शुक्लपक्षस्य प्रतिपदादिषु चन्द्रलेश्याया उपदर्शयन् उपदर्शयन् पञ्चदशभागतः स्वयमपसरणतः प्रकटयन् प्रकटयन् तिष्ठति ध्रुवराहुरिति, इह चायं भावार्थ:- षोडशभागीकृतस्य चन्द्रस्य षोडशो भागोऽवस्थित एवास्ते, ये चान्ये भागास्तान् 5 राहुः प्रतितिथि एकैकं भागं कृष्णपक्षे आवृणोति शुक्ले तु विमुञ्चतीति, उक्तं चज्योतिष्करण्डके- सोलस भागे काऊण उडुवई हायएत्थ पन्नरसं । तत्तियमेत्ते भागे पुणो विपरिवहुई जोण्हं । ज्योतिष्क० १११] ति, ननु चन्द्रविमानस्य पञ्चैकषष्टिभागन्यूनयोजनप्रमाणत्वात् राहुविमानस्य च ग्रहविमानत्वेनार्द्धयोजनप्रमाणत्वात् कथं पञ्चदशे दिने चन्द्रविमानस्य महत्त्वेनेतरस्य च 10 लघुत्वेन सर्वावरणं स्यात् ? इति, अत्रोच्यते, यदिदं ग्रहविमानानामर्द्धयोजनमिति प्रमाणं तत् प्रायिकमिति राहोर्ग्रहस्य योजनप्रमाणमपि विमानं सम्भाव्यते, लघीयसोऽपि वा राहुविमानस्य महता तमिस्ररश्मिजालेन तस्यावरणान्न दोष इति । ___ तथा षड् नक्षत्राणि पञ्चदश मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह संयोगो येषां तानि पञ्चदशमुहूर्त्तसंयोगानि, तद्यथा15 सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य । एए छन्नक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजुत्ता ॥ [जम्बू० ७।१६०], संयुक्तं संयोग इति । १. पंचदशं पंचदशभागमावृत्य खं० विना ॥ २. “सोलसभागे काऊण उडुवई हायतेऽत्थ पनरस । तत्तियमेत्ते भागे पुणो वि परिवड्डई जुण्हे ॥१०३॥ कियत्संख्याकास्तास्तिथयः ?, इति तत्संख्यानिरूपणार्थमुपपत्तिमाह- इह यावता कालेनैकश्चन्द्रमण्डलस्य षोडशो भागो द्वाषष्टिभागसत्कचतुर्भागात्मकः परिहीयते वर्द्धते वा तावत्कालक्रमेण शुक्लपक्षे परिवर्द्धयति तावत्यः तावत्प्रमाणाः शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे च तिथयो भवन्ति । तत्र पञ्चदश भागान् कृष्णपक्षे हापयति पञ्चदशैव च भागान् शुक्लपक्षे परिवर्द्धयति, ततः पञ्चदश कृष्णपक्षे तिथयः पञ्चदश शुक्लपक्षे ॥१०३॥" - इति श्रीमलयगिरिसूरिविरचितायां ज्योतिष्करण्डकवृत्तौ । पुनरपि समवायाङ्गवृत्तौ पृ० १५२ मध्ये उद्धृतेयं गाथा। अत्रेदमवधेयम्- श्रीमहावीरजैनविद्यालयेन विक्रमसं० २०४५ [ईसवीये १९८९] वर्षे प्रकाशिते ज्योतिष्करण्डके 'परिवडते जोण्हें' इति पाठो मुद्रितः, किन्तु तत्रैव ‘परिवहई जुन्हा' इति ‘परिवहए जोण्हं' इति च पाठद्वयमपि पाठान्तररूपेण पादटिप्पने उपन्यस्तम् ॥ ३. जोण्हत्ति जे२ हे२ ॥ ४. दशैर्दिनैः खंसं० ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५] पञ्चदशस्थानकम् । तथा चेत्तासोएसु मासेसु त्ति स्थूलन्यायमाश्रित्य चैत्रेऽश्वयुजि च मासे पञ्चदशमुहूर्तो दिवसो भवति रात्रिश्च, निश्चयतस्तु मेषसङ्क्रान्तिदिने तुलासङ्क्रान्तिदिने चैवं दृश्यमिति । पओगे त्ति प्रयोजनं प्रयोग: परिस्पन्द आत्मनः क्रियापरिणामो व्यापार इत्यर्थः, अथवा प्रकर्षेण युज्यते सम्बध्यतेऽनेन क्रियापरिणामेन कर्मणा सहात्मेति प्रयोगः, तत्र 5 सत्यार्थालोचननिबन्धनं मनः सत्यमनस्तस्य प्रयोगो व्यापारः सत्यमनःप्रयोगः, एवं शेषेष्वपि, नवरमौदारिकशरीरकायप्रयोग औदारिकशरीरमेव पुद्गलस्कन्धसमुदायरूपत्वेनोपचीयमानत्वात् कायस्तस्य प्रयोग इति विग्रहः, अयं च पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यः, तथौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगः, अयं चापर्याप्तकस्येति, इह चोत्पत्तिमाश्रित्यौदारिकस्य प्रारब्धस्य प्रधानत्वादौदारिकः कार्मणेन मिश्रः, यदा तु 10 मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यबादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदौदारिकस्य प्रारम्भकत्वेन प्रधानत्वादौदारिको वैक्रियेण मिश्रो यावद्वैक्रियपर्याप्त्या न पर्याप्तिं गच्छति, एवमाहारकेणाप्यौदारिकस्य मिश्रताऽवसेयेति, तथा वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियपर्याप्तकस्य, तथा वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगस्तदपर्याप्तकस्य देवस्य नारकस्य वा कार्मणेनैव लब्धिवैक्रियपरित्यागे वा औदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकोपादानाय 15 प्रवृत्तेर्वैक्रियप्राधान्यादौदारिकेणापि मिश्रतेत्येके, तथा आहारकशरीरकायप्रयोगस्तदभिनिर्वृत्तौ सत्यां तस्यैव प्रधानत्वात्, तथा आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगः औदरिकेण सहाऽऽहारकपरित्यागेनेतरग्रहणायोद्यतस्य, एतदुक्तं भवति- यदाऽऽहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्वादौदारिकप्रवेशं प्रति व्यापारभावाद्यावत् सर्वथैव न परित्यजत्याहारकं 20 तावदौदारिकेण सह मिश्रतेति, आह– न तत्तेन सर्वथा मुक्तं पूर्वनिर्वर्त्तितं तिष्ठत्येव, तत् कथं गृह्णाति ?, सत्यम्, तथाप्यौदारिकशरीरोपादानार्थं प्रवृत्त इति गृह्णात्येव, तथा कार्मणशरीरकायप्रयोगो विग्रहे समुद्घातगतस्य च केवलिनस्तृतीय-चतुर्थपञ्चमसमयेषु भवतीति ॥१५॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे [सू० १६] [१] सोलस य गाहासोलसगा पण्णत्ता, तंजहा- समए १, वेयालिए २, उवसग्गपरिण्णा ३, इत्थिपरिण्णा ४, निरयविभत्ती ५, महावीरथुई ६, कुसीलपरिभासिए ७, वीरिए ८, धम्मे ९, समाही १०, मग्गे ११, समोसरणे १२, अहातहिए १३, गंथे १४, जमतीते १५, गाहा १६, ११ 5 सोलस कसाया पण्णत्ता, तंजहा- अणंताणुबंधी कोहे, एवं माणे, माया, लोभे। अपच्चक्खाणकसाए कोहे, एवं माणे, माया, लोभे। पच्चक्खाणावरणे कोहे, एवं माणे, माया, लोभे । संजलणे कोहे, एवं माणे, माया, लोभे । मंदरस्स णं पव्वतस्स सोलस नामधेजा पण्णत्ता, तंजहा मंदर १ मेरु २ मणोरम ३ सुदंसण ४ सयंपभे ५ य गिरिराया ६ । 10 रयणुच्चय ७ पियदंसण ८ मज्झे लोगस्स ९ नाभी १० य ॥१४॥ अत्थे य ११ सूरियावत्ते १२ सूरियावरणे १३ ति य । उत्तरे य १४ दिसाई य १५ वडेंसे १६ इ य सोलसे ॥१५॥ ३॥ [२] पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स सोलस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपदा होत्था ४। 15 आयप्पवायस्स णं पुव्वस्स सोलस वत्थू पण्णत्ता ५। चमर-बलीणं ओवारियालेणे सोलस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते ६। लवणे णं समुद्दे सोलस जोयणसहस्साइं उस्सेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं सोलस 20 पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १॥ - पंचमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं सोलस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता २॥ १. "मंदर १ मेरु २ मनोरम ३ सुदंसण ४ सयंपभे य ५ गिरिराया ६। रयणोच्चय ७ सिलोच्चए ८ मज्झे लोगस्स ९ नाभी य १० ॥ अच्छे य ११ सूरियावत्ते १२ सूरियावरणे ति या १३ । उत्तमे य १४ दिसादी य १५ वडेंसे १६ ति य सोलस ॥” इति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ चतुर्थे वक्षस्कारे सू० १०९ ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ 10 [सू० १६] षोडशस्थानकम् । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं सोलस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं सोलस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४। महासुक्के कप्पे अत्थेगतियाणं देवाणं सोलस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा आवत्तं वियावत्तं नंदियावत्तं महाणंदियावत्तं अंकुसं अंकुसपलंबं 5 भदं सुभदं महाभदं सव्वओभई भद्दुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सोलस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा सोलसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ११ तेसि णं देवाणं सोलसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २॥ ___ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे सोलसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करेस्संति ३।। [टी०] अथ षोडशस्थानकमुच्यते सुगमं चेदम्, नवरं गाथाषोडशकादीनि स्थितिसूत्रेभ्य आरात् सप्त सूत्राणि, तत्र सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमे श्रुतस्कन्धे षोडशाध्ययनानि तेषां च गाथाभिधानं षोडशमिति गाथाभिधानमध्ययनं षोडशं येषां तानि 15 गाथाषोडशकानि, तत्र समये ति नास्तिकादिसमयप्रतिपादनपरमध्ययनं समय एवोच्यते, वैतालीयच्छन्दोजातिबद्धं वैतालीयमेव, शेषाणां यथाभिधेयं नामानि, समोसरणे त्ति समवसरणं त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां प्रवादिशतानां मतपिण्डनरूपम्, अहातहिए त्ति यथा वस्तु तथा प्रतिपाद्यते यत्र तद्यथातथिकम्, ग्रन्थाभिधायकं ग्रन्थः, जमइए त्ति यमकीयं यमकनिबद्धसूत्रम्, गाहेति प्राक्तनपञ्चदशाध्ययनार्थस्य 20 गानाद्गाथा, गाधा वा तत्प्रतिष्ठाभूतत्वादिति । __ मेरुनामसूत्रे गाथा श्लोकश्च, मज्झे लोगस्स नाभी य त्ति लोकमध्ये लोकनाभिश्चेत्यर्थः । उत्तरे य त्ति भरतादीनामुत्तरदिग्वर्त्तित्वाद्, यदाह- सव्वेसिं उत्तरो मेरु [ ] त्ति, दिसाई यत्ति दिशामादिर्दिगादिरित्यर्थः, वडेंसे इ यत्ति अवतंसः शेखरः स इवावतंस इति चेति । पुरिसादाणीयस्स त्ति पुरुषाणां मध्ये 25 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे आदेयस्येत्यर्थः । तथा आत्मप्रवादपूर्वस्य सप्तमस्य । तथा चमर-बल्योर्दक्षिणोत्तरयोरसुरकुमारराजयोः । ओवारियालेणे त्ति चमरचञ्चा-बलिचञ्चाभिधानराजधान्योर्मध्यभागे तद्भवनयोर्मध्योन्नताऽवतरत्पार्श्वपीठरूपे अवतारिकलयने षोडश योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भाभ्यां वृत्तत्वात्तयोरिति । तथा लवणसमुद्रे मध्यमेषु 5 दशसु सहस्रेषु नगरप्राकार इव जलमूर्ध्वं गतम्, तस्य चोत्सेधवृद्धिः षोडश योजनसहस्राणि, अत उच्यते- लवणः समुद्रः षोडश योजनसहस्राण्युत्सेधपरिवृद्ध्या प्रज्ञप्त इति । आवर्तादीन्येकादश विमाननामानि ॥१६॥ [सू० १७] [१] सत्तरसविहे असंजमे पण्णत्ते, तंजहा- पुढविकाइयअसंजमे, आउकाइयअसंजमे, तेउकाइयअसंजमे, वाउकाइयअसंजमे, 10 वणस्सइकाइयअसंजमे, बेइंदियअसंजमे, तेइंदियअसंजमे, चउरिंदियअसंजमे, पंचिंदियअसंजमे, अजीवकायअसंजमे, पेहाअसंजमे, उपेहाअसंजमे, अवहट्टअसंजमे, अपमजणाअसंजमे, मणअसंजमे, वतिअसंजमे, कायअसंजमे १। सत्तरसविहे संजमे पण्णत्ते, तंजहा– पुढवीकायसंजमे एवं जाव कायसंजमे २॥ माणुसुत्तरे णं पव्वते सत्तरस एक्कवीसे जोयणसते उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ते ३। 15 सव्वेसि पि णं वेलंधर-अणुवेलंधरणागराईणं आवासपव्वया सत्तरस एक्कवीसाइं जोयणसयाई उहूंउच्चत्तेणं पण्णत्ता ४। लवणे णं समुद्दे सत्तरस जोयणसहस्साई सव्वग्गेणं पण्णत्ते ५। इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो सातिरेगाई सत्तरस जोयणसहस्साइं उर्दू उप्पतित्ता ततो पच्छा चारणाणं तिरियं गती 20 पवत्तती ६। चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो तिगिछिकूडे उप्पातपव्वते सत्तरस एक्कवीसाइं जोयणसयाई उडुंउच्चत्तेणं पण्णत्ते ७। १. आव जे२ हे१,२ ।। २. आवश्यकसूत्रे चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने 'सत्तरसविहे असंजमे' इति सूत्रस्य हारिभत्र्यां वृत्तौ सप्तदशविधस्य असंयमस्य विस्तरेण वर्णनमस्ति ।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशस्थानकम् । ६५ [सू० १७] __ बलिस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो रुयगिंदे उप्पातपव्वते सत्तरस जोयणसयाइं सातिरेगाई उद्धंउच्चत्तेणं पण्णत्ते ८॥ सत्तरसविहे मरणे पण्णत्ते, तंजहा- आवीइमरणे, ओहिमरणे, आयंतियमरणे, वलातमरणे, वसट्टमरणे, अंतोसल्लमरणे, तब्भवमरणे, बालमरणे, पंडितमरणे, बालपंडितमरणे, छउमत्थमरणे, केवलिमरणे, 5 वेहासमरणे, गद्धपट्टमरणे, भत्तपच्चक्खाणमरणे, इंगिणिमरणे, पाओवगमणमरणे ९। सुहुमसंपराए णं भगवं सुहुमसंपरायभावे वट्टमाणे सत्तरस कम्मपगडीओ णिबंधति, तंजहा- आभिणिबोहियणाणावरणे, एवं सुतोहि-मण-केवल [णाणावरणे] । चक्खुदंसणावरणं, एवं अचक्खु-ओही-केवलदंसणावरणं । 10 सायावेयणिजं, जसोकित्तिनाम, उच्चागोतं । दाणंतराइयं, एवं लाभ-भोगउवभोग-वीरियअंतराइयं १०॥ [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं सत्तरस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १॥ पंचमाए पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिती 15 पण्णत्ता २॥ छट्ठीए पुढवीए नेरइयाणं जहण्णेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ३। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं सत्तरस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता४। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं सत्तरस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ५। 20 महासुक्के कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। सहस्सारे कप्पे देवाणं जहण्णेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ७। जे देवा सामाणं सुसामाणं महासामाणं पउमं महापउमं कुमुदं महाकुमुदं नलिणं महाणलिणं पोंडरीयं महापोंडरीयं सुक्कं महासुक्कं सीहं सीहोकंतं १. तुलना- उत्तराध्ययने पञ्चमेऽध्ययने नियुक्तिगाथाः २११-२२४। भगवतीसूत्रे त्रयोदशे शतके सप्तमे उद्देशके॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सीहवियं भावियं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ८॥ [३] ते णं देवा सत्तरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ११ तेसि णं देवाणं सत्तरसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे 5 समुप्पज्जति २। संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथ सप्तदशस्थानकम्, तच्च व्यक्तम्, नवरमिह स्थितिसूत्रेभ्योऽन्यानि दश। तथा अजीवकायासंयमो विकटसुवर्णबहुमूल्यवस्त्र-पात्र-पुस्तकादिग्रहणम्, 10 प्रेक्षायामसंयमो यः स तथा, स च स्थानोपकरणादीनामप्रत्युपेक्षणमविधिप्रत्युपेक्षणं वा, उपेक्षाऽसंयमोऽसंयमयोगेषु व्यापारणं संयमयोगेष्वव्यापारणं वा, तथा अपहत्यासंयमः अविधिनोच्चारादीनां परिष्ठापनतो यः, तथा अप्रमार्जनाऽसंयमः पात्रादेरप्रमार्जनयाऽविधिप्रमार्जनया वेति, मनोवाक्कायानामसंयमास्तेषाम कुशलानामुदीरणानीति। असंयमविपरीतः संयमः । वेलन्धरानुवेलन्धरावासपर्वतस्वरूपं 15 क्षेत्रसमासगाथाभिरवगन्तव्यम्, एताश्चैता: दस जोयणसाहस्सा लवणसिहा चक्कवालओ रुंदा । सोलस सहस्स उच्चा सहस्समेगं तु ओगाढा ॥ देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि दगं तु कालदुगे । अतिरेगं अतिरेगं परिवड्डइ हायए वावि ॥ अब्भंतरियं वेलं धरंति लवणोदहिस्स नागाणं । बायालीस सहस्सा दुसत्तरि सहस्स बाहिरियं ।। सहिँ नागसहस्सा धरेंति अग्गोदगं समुद्दस्स । वेलंधर आवासा लवणे य चउद्दिसिं चउरो ॥ पुव्वादिअणुक्कमसो गोथुभ १ दगभास २ संख ३ दगसीमा ४ । गोथुभ १ सिवए २ संखे ३ मणोसिले ४ नागरायाणो । १. यः स तथा खंसं० ।। २. सहस्सा जे२ खंसं० विना ।। 25 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १७] सप्तदशस्थानकम् । अणुवेलंधरवासा लवणे विदिसासु संठिआ चउरो । कक्कोडे १ विजुप्पभे २ केलास ३ ऽरुणप्पभे ४ चेव ॥ कक्कोडय कद्दमए केलासऽरुणप्पभेऽत्थ रायाणो । बायालीस सहस्से गंतुं उयहिम्मि सव्वे वि ॥ चत्तारि जोयणसए तीसे कोसं च उवगया भूमिं । सत्तरस जोयणसए इगवीसे ऊसिया सव्वे ॥ [बृहत्क्षेत्र० ४१५-४२२] त्ति । चारणाणं ति जङ्घाचारणानां विद्याचारणानां च तिरियं ति तिर्यग् रुचकादिद्वीपगमनायेति, तिगिञ्छिकूट उत्पातपर्वतो यत्रागत्य मनुष्यक्षेत्रागमनायोत्पतति, स चेतोऽसङ्ख्याततमेऽरुणोदसमुद्रे दक्षिणतो द्विचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यतिक्रम्य भवति, रुचकेन्द्रोत्पातपर्वतस्त्वरुणोदसमुद्र एव उत्तरत एवमेव भवतीति। आवीइमरणे 10 त्ति आ समन्ताद्वीचय इव वीचयः आयुर्दलिकविच्युतिलक्षणावस्था यस्मिंस्तदावीचि, अथवा वीचिः विच्छेदस्तदभावादवीचि, दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात्, तदेवंभूतं मरणमावीचिमरणं प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणम्, तथाऽवधिः मर्यादा, तेन मरणमवधिमरणम्, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुःकर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तदवधिमरणमुच्यते, तद्रव्यापेक्षया 15 पुनस्तद्ग्रहणावधिं यावज्जीवस्य मृतत्वादिति, तथा आयंतियमरणे त्ति आत्यन्तिकमरणं यानि नारकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यतीति, एवं यन्मरणं तद् द्रव्यापेक्षया अत्यन्तभावित्वादात्यन्तिकमिति, वलायमरणे त्ति संयमयोगेभ्यो वलतां भग्नव्रतपरिणतीनां व्रतिनां मरणं वलन्मरणम्, तथा वशेन इन्द्रियविषयपारतन्त्र्येण ऋता बाधिता वशार्ताः स्निग्धदीपकलिकावलोकनाकुलशलभ- 20 वत्, तथाऽन्त: मध्ये मनसीत्यर्थः शल्यमिव शल्यमपराधपदं यस्य सोऽन्तःशल्यो लज्जा-ऽभिमानादिभिरनालोचितातिचारस्तस्य मरणम् अन्तःशल्यमरणम्, तथा यस्मिन् भवे तिर्यग्-मनुष्यभवलक्षणे वर्त्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुर्बद्ध्वा पुनः तत्क्षयेण म्रियमाणस्य यद्भवति तत् तद्भवमरणम्, एतच्च तिर्यग्मनुष्याणामेव न देव-नारकाणाम्, १. हे२ मध्ये बृहत्क्षेत्रसमासे चायं पाठः । उगया भूमी जे२ । उगया भूमी हे२ जे२ विना ॥ २. आवीमरणे जे२ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तेषां तेष्वेवोत्पादाभावादिति, तथा बाला इव बालाः अविरतास्तेषां मरणं बालमरणम्, तथा पण्डिताः सर्वविरतास्तेषां मरणं पण्डितमरणम्, बालपण्डिताः देशविरतास्तेषां मरणं बालपण्डितमरणम्, तथा छद्मस्थमरणम् अकेवलिमरणम्, केवलिमरणं तु प्रतीतम्, वेहासमरणं ति विहायसि व्योम्नि भवं वैहायसम्, विहायोभवत्वं च तस्य 5 वृक्षशाखाद्युद्बद्धत्वे सति भावात्, तथा गृधैः पक्षिविशेषैरुपलक्षणत्वाच्छकुनिकाशिवादिभिश्च स्पृष्टं स्पर्शनं यस्मिंस्तद् गृध्रस्पृष्टम्, अथवा गृध्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च यत्र तद् गृध्रपृष्ठम्, इदं च करि-करभादिशरीरमध्यपातादिना गृध्रादिभिरात्मानं भक्षयतो महासत्त्वस्य भवतीति, तथा भक्तस्य भोजनस्य यावज्जीवं प्रत्याख्यानं यस्मिंस्तत्तथा, इदं च त्रिविधाहारस्य चतुर्विधाहारस्य वा नियमरूपं 10 सप्रतिकर्म च भक्तपरिज्ञेति यद्रूढम्, तथा इङ्ग्यते प्रतिनियतदेश एव चेष्ट्यतेऽस्याम नशनक्रियायामितीङ्गिनी, तया मरणमिङ्गिनीमरणम्, तद्धि चतुर्विधाहारप्रत्याख्यातुनिष्प्रतिकर्मशरीरस्येङ्गितदेशाभ्यन्तरवर्त्तिन एवेति, तथा पादपस्येवोपगमनम् अवस्थानं यस्मिन् तत् पादपोपगमनम्, तदेव मरणमिति विग्रहः, इदं च यथा पादपः क्वचित् कथञ्चिद् निपतितः सममसममिति चाऽविभावयन्निश्चलमेवाऽऽस्ते तथा यो वर्तते तस्य 15 भवतीति । तथा सूक्ष्मसंपरायः उपशमकः क्षपको वा सूक्ष्मलोभकषायकिट्टिकावेदको भगवान् पूज्यत्वात् सूक्ष्मसंपरायभावे वर्तमानः तत्रैव गुणस्थानकेऽवस्थितः नातीतानागतसूक्ष्मसंपरायपरिणाम इत्यर्थः सप्तदश कर्मप्रकृतीर्निबध्नाति विंशत्युत्तरे बन्धप्रकृतिशतेऽन्या न बध्नातीत्यर्थः, पूर्वतरगुणस्थानकेषु बन्धं प्रतीत्य तासां 20 व्यवच्छिन्नत्वात्, तथोक्तानां सप्तदशानां मध्यादेका शातप्रकृतिरुपशान्तमोहादिषु बन्धमाश्रित्यानुयाति, शेषाः षोडशेहैव व्यवच्छिद्यन्ते, यदाह नाणं ५ तराय ५ दसगं देसण चत्तारि ४ उच्च १५ जसकित्ती १६ । एया सोलस पयडी सुहमकसायम्मि वोच्छिन्ना ॥ [कर्मस्तव० २।२३] १. सात खंसं० ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशस्थानकम् । [सू० १८] ६९ सूक्ष्मसम्परायात् परे न बध्नन्त्येता इत्यर्थः । सामानादीनि सप्तदश विमाननामानीति ॥१७॥ [सू० १८] [१] अट्ठारसविहे बंभे पण्णत्ते, तंजहा- ओरालिए कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवइ, नो वि अण्णं मणेणं सेवावेइ, मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणइ, ओरालिए कामभोगे णेव सयं वायाए सेवति, नो 5 वि अण्णं वायाए सेवावेइ, वायाए सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणइ, ओरालिए कामभोगे णेव सयं कायेणं सेवइ, णो वि अण्णं काणं सेवावेइ, काएणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणति, दिव्वे कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवति, तह चेव णव आलावगा १। ___ अरहतो णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठारस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपदा 10 होत्था । समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं सखुड्डय-वियत्ताणं अट्ठारस ठाणा पण्णत्ता, तंजहावयछक्क ६ कायछक्कं १२, अकप्पो १३ गिहिभायणं १४ । पलियंक १५ निसिज्जा य १६, सिणाणं १७ सोभवजणं १८ ॥१६॥ ३॥ 15 आयारस्स णं भगवतो सचूलियागस्स अट्ठारस पयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ताई ४। बंभीए णं लिवीए अट्ठारसविहे लेखविहाणे पण्णत्ते, तंजहा- बंभी, जवणालिया, दासऊरिया, खरोट्ठिया, पुक्खरसाविया, पहाराइया, उच्चत्तरिया, अक्खरपुट्टिया, भोगवयता, वेयणतिया, णिण्हइया, अंकलिवि, गणियलिवि, 20 गंधव्वलिवि, आदंसलिवी, माहेसरलिवि, दमिडलिवि, पोलिंदि[लिवि] ५। अत्थिणत्थिप्पवायस्स णं पुव्वस्स अट्ठारस वत्थू पण्णत्ता ६। धूमप्पभा णं पुढवी अट्ठारसुत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ता ७। १. दशवैकालिकनियुक्तौ षष्ठेऽध्ययनेऽपि गाथेयं वर्तते २६८ तमी ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे __ पोसासाढेसु णं मासेसु सइ उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, संइ उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ता राती [भवइ] ८। [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं अट्ठारस पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १॥ 5 छट्ठीए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं अट्ठारस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २॥ . असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं अट्ठारस पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं अट्ठारस पलिओवमाइं ठिती 10 पण्णत्ता ४। सहस्सारे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाइं ठिती पण्णता ५। आणए कप्पे देवाणं जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ६। जे देवा कालं सुकालं महाकालं अंजणं रिटं सालं समाणं दुमं महादुमं विसालं सुसालं पउमं पउमगुम्मं कुमुदं कुमुदगुम्मं नलिणं नलिणगुम्मं पुंडरीयं 15 पुंडरीयगुम्मं सहस्सारवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं [उक्कोसेणं ] अट्ठारस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ७। [३] ते णं देवा अट्ठारसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं अट्ठारसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जति । 20 संतेगतिया [भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति] जाव अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथाष्टादशस्थानकम्, इह चाष्टौ सूत्राणि स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वाक् सुगमानि च, नवरं बंभे त्ति ब्रह्मचर्यम्, तथौदारिककामभोगान् मनुष्य-तिर्यक्सम्बन्धिविषयान्, तथा दिव्यकामभोगान् देवसम्बन्धिन इत्यर्थः । तथा सखुड्डग-वियत्ताणं ति सह १. सई अटी० ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १८] अष्टादशस्थानकम् । ७१ क्षुद्रकैर्व्यक्तैश्च ये ते सक्षुद्रक-व्यक्ताः, तेषाम्, तत्र क्षुद्रका वयसा श्रुतेन चाऽव्यक्ताः, व्यक्तास्तु ये वयः-श्रुताभ्यां परिणताः, स्थानानि परिहारासेवाश्रयवस्तूनि । व्रतषट्कं महाव्रतानि रात्रिभोजनविरतिश्च, कायषट्कं पृथिवीकायादि, अकल्पः अकल्पनीयपिण्ड-शय्या-वस्त्र-पात्ररूपः पदार्थः, गृहिभाजनं स्थालादि, पर्यको मञ्चकादिः, निषद्या स्त्रिया सहाऽऽसनम्, स्नानं शरीरक्षालनम्, शोभावर्जनं प्रतीतम्। 5 तथा आचारस्य प्रथमाङ्गस्य सचूलिकाकस्य चूडासमन्वितस्य, तस्य हि पिण्डैषणाद्याः पञ्च चूलाः द्वितीयश्रुतस्कन्धात्मिकाः, स च नवब्रह्मचर्याभिधानाध्ययनात्मकप्रथमश्रुतस्कन्धरूपः, तस्यैव चेदं पदप्रमाणं न चूलानाम्, यदाह नवबंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ । हवइ य सपंचचूलो बहुबहुतरओ पयग्गेणं ॥ [आचाराङ्गनि० ११] ति। 10 यच्च सचूलिकाकस्येति विशेषणं तत्तस्य चूलिकासत्ताप्रतिपादनार्थम्, न तु पदप्रमाणाभिधानार्थम्, यतोऽवाचि नन्दीटीकाकृता- अट्ठारसपयसहस्साणि पुण पढमसुयखंधस्स नवबंभचेरमइयस्स पमाणं, विचित्तत्थाणि य सुत्ताणि गुरूवएसओ तेसिं अत्थो जाणियन्वो [नन्दीटी० ] त्ति, पदसहस्राणीह यत्रार्थोपलब्धिस्तत् पदम्, पदाग्रेणेति पदपरिमाणेनेति। तथा बंभि त्ति ब्राह्मी आदिदेवस्य भगवतो दुहिता, ब्राह्मी वा 15 संस्कृतादिभेदा वाणी, तामाश्रित्य तेनैव या दर्शिता अक्षरलेखनप्रक्रिया सा ब्राह्मीलिपिः अतस्तस्या ब्राह्मया लिपेः, णमित्यलङ्कारे, लेखो लेखनम्, तस्य विधानं भेदो लेखविधानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- बंभीत्यादि, एतत्स्वरूपं च न दृष्टमिति न दर्शितम्। १. “किं पुनरस्याध्ययनतः पदतश्च परिमाणमित्यत आह- नवबंभ.... ... ... ... .. .. वृ०- तत्राध्ययनतो नवब्रह्मचर्याभिधानाध्ययनात्मकोऽयं पदतोऽष्टादशपदसहस्रात्मकः, वेद इति विदन्त्यस्माद्धेयोपादेयपदार्थानिति वेदः क्षायोपशमिकभाववर्त्ययमाचार इति । सह पञ्चभिश्चूडाभिर्वर्त्तत इति सपञ्चचूडश्च भवति, उक्तशेषानुवादिनी चूडा, तत्र प्रथमा 'पिंडेसण सेज्जिरिया भासज्जाया य वत्थपाएसा उग्गहपडिम'त्ति सप्ताध्ययनात्मिका, द्वितीया सत्तसत्तिक्कया, तृतीया भावना, चतुर्थी विमुक्तिः, पञ्चमी निशीथाध्ययनम्, बहुबहुयरओ पदग्गेणं ति तत्र चतुश्चूलिकात्मकद्वितीयश्रुतस्कन्धप्रक्षेपाद् बहुः, निशीथाख्यपञ्चमचूलिकाप्रक्षेपाद् बहुतरोऽनन्तगमपर्यायात्मकतया बहुतमश्च, पदाग्रेण पदपरिमाणेन भवतीति ॥११॥" - इति शीलाचार्यविरचितायामाचाराङ्गटीकायां प्रथमेऽध्ययने प्रथमे उद्देशके । २. “से किं तं आयारे..." [सू० ८७] इति नन्दीसूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां टीकायामेतदस्ति । जिनदासगणिमहत्तरविरचितायां नन्दीसूत्रस्य चूर्णावपि एतादृशं वर्णनमस्ति । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ___ तथा यल्लोके यथास्ति यथा वा नास्ति अथवा स्याद्वादाभिप्रायतस्तदेवास्ति नास्ति चेत्येवं प्रवदतीत्यस्तिनास्तिप्रवादम्, तच्च चतुर्थं पूर्वम्, तस्य । तथा धूमप्रभा पञ्चमी, अष्टादशोत्तरं अष्टादशयोजनसहस्राधिकमित्यर्थः, बाहल्येन पिण्डेन । पोसासाढेत्यादेरेवं योजना आषाढे मासे सई ति सकृदेकदा कर्कसङ्क्रान्तावित्यर्थः 5 उत्कर्षेण उत्कर्षतोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, षट्त्रिंशद् घटिका इत्यर्थः, तथा पौषे मासे सकृदिति मकरसङ्क्रान्तौ रात्रिरेवंविधेति । काल-सुकालादीनि विंशतिर्विमाननामानि ॥१८॥ [सू० १९] [१] एकूणवीसं णायज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा उक्खित्तणाए १ संघाडे २, अंडे ३ कुम्मे य ४ सेलये ५ । 10- तुंबे य ६ रोहिणी ७ मल्ली ८, मागंदी ९ चंदिमा ति य १० ॥१७॥ दावद्दवे ११ उदगणाते १२ मंडुक्के १३ तेतली १४ इ य । नंदिफले १५ अवरकंका १६ आइण्णे १७ सुसमा ति य १८ ॥ १८॥ अवरे य पुंडरीए णाए एगूणवीसइमे १९॥ १॥ जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उक्कोसेणं एगूणवीसं जोयणसताई उडमहो 15 तवंति २॥ __ सुक्के णं महग्गहे अवरेणं उदिए समाणे एगूणवीसं णक्खत्ताइं समं चारं चरित्ता अवरेणं अत्थमणं उवागच्छति । जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स कलाओ एगूणवीसं छेयणाओ पण्णत्ताओ ४। एगूणवीसं तित्थयरा अगारमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराओ 20 अणगारियं पव्वइया ५। [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एगूणवीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। छट्ठीए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एगूणवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ [सू० १९] एकोनविंशतितमस्थानकम् । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं एगूणवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं एगूणवीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४। आणयकप्पे देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। 5 पाणए कप्पे देवाणं जहण्णेणं एगूणवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। जे देवा आणतं पाणतं णतं विणतं घणं सुसिरं इंदं इंदोकंतं इंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ७। [३] ते णं देवा एगूणवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा 10 ऊससंति वा नीससंति वा २॥ तेसि णं देवाणं एगूणवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जति २॥ ___ अत्थेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे एगूणवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अथैकानविंशतितमस्थानम्, तंत्रा स्थितिसूत्रेभ्यः पञ्च सूत्राणि सुगमानि च, 15 नवरं ज्ञातानि दृष्टान्ताः, तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ज्ञाताध्ययनानि षष्ठाङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धवर्तीनि, उक्खित्तेत्यादि सार्द्ध रूपकद्वयम्, इदं च षष्ठाङ्गाधिगमावसेयमिति। ___ तथा जंबुद्दीवेणं इत्यादौ भावना- सूर्यो स्वस्थानादुपरि योजनशतं तपतोऽधश्चाष्टादश शतानि, तत्र च समभूतलेऽष्टौ भवन्ति, दश चापरविदेह-जगतीप्रत्यासन्नदेशे, जम्बूद्वीपापरविदेहे हि निम्नीभवत् क्षेत्रमन्तिमविजयद्वयस्य देशे अधोलोकदेशमतिगतमिति, 20 द्वीपान्तरसूर्यास्तूचं शतमधोऽष्ट शतानि, क्षेत्रस्य समत्वादिति । तथा शुक्रसूत्रे नक्खत्ताई ति विभक्तिपरिणामानक्षत्रैः समं सह चारं चरणं चरित्वा विधायेति । १. 'तमं स्थानं खं० ॥ २. 'तत्र आ स्थितिसूत्रेभ्यः' इति पदच्छेदः ॥ ३. ज्ञाताध्ययनानि नास्ति जे२ विना ।। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तथा कलाओ त्ति पंच सए छव्वीसे छच्च कला वित्थडं भरहवासाबृहत्क्षेत्र० २९] इत्यादिषु जम्बूद्वीपगणितेषु याः कला उच्यन्ते ता योजनस्यैकोनविंशतिभागच्छेदनाः, एकोनविंशतिभागरूपा इति भावः । अगारमज्झावसित्त त्ति अगारं गेहम् अधि आधिक्येन चिरकालं राज्यपरिपालनतः आ मर्यादया नीत्या वसित्वा उषित्वा तत्र 5 वासं विधायेति, अध्योष्य प्रव्रजिताः, शेषास्तु पञ्च कुमारभाव एवेति, आह च वीरं अरिट्टनेमिं पासं मल्लिं च वासुपुजं च । एए मोत्तूण जिणे अवसेसा आसि रायाणो ॥ [आव० नि० २२१] त्ति ॥१९।। [सू० २०] [१] वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा- दवदवचारि यावि भवति १, अपमज्जितचारि यावि भवति २, दुप्पमजितचारि यावि भवति 10 ३, अतिरित्तसेजासणिए ४, रातिणियपरिभासी ५, थेरोवघातिए ६, भूओवघातिए ७, संजलणे ८, कोधणे ९, पिट्टिमंसिए १०, अभिक्खणं अभिक्खणं ओधारइत्ता भवति ११, णवाणं अधिकरणाणं अणुप्पण्णाणं उप्पाएत्ता भवति १२, पोराणाणं अधिकरणाणं खामितविओसवियाणं पुणो उदीरेत्ता भवति १३, ससरक्खपाणिपाए १४, अकालसज्झायकारए यावि 15 भवति १५, कलहकरे १६, सद्दकरे १७, झंझकरे १८, सूरप्पमाणभोई १९, एसणाऽसमिते यावि भवति २० । १। मुणिसुव्वते णं अरहा वीसं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था २। सव्वे वि णं घणोदही वीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ता ३॥ पाणयस्स णं देविंदस्स देवरणो वीसं सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्ताओ४। १. "पंच सए छव्वीसे, छच्च कला वित्थडं भरहवासं । दस सय बावन्नहिया, बारस य कलाउ हिमवंते ॥२९॥ व्या०- सुगमम् ॥ तथा जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भो योजनलक्षप्रमाणः क्षुल्लहिमवद्विष्कम्भानयनाय द्विकेन गुण्यते, जाते द्वे लक्षे, तयोर्नवत्यधिकेन शतेन भागो ह्रियते, लब्धानि दश योजनशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि कलाश्चैकोनविंशतिभागरूपा द्वादश १०५२ क० १२ । एतावान् हिमवद्वर्षधरपर्वतस्य विष्कम्भः ।....... ॥२९॥” इति बृहत्क्षेत्रसमासस्य मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ।। २. कालराज्य खं० ॥ ३. दशाश्रुतस्कन्धे प्रथमेऽध्ययने [-प्रथमायां दशायां] तस्य नियुक्तौ चूर्णौ च विस्तरेण विंशतः असमाधिस्थानानां वर्णनमस्ति । विस्तरार्थिभिस्तत्र द्रष्टव्यम् । आवश्यकसूत्रे चतुर्थेऽध्ययने 'वीसाए असमाहिट्ठाणेहि' इति सूत्रस्य हारिभत्र्यां वृत्तावपि द्रष्टव्यम् ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २०] विंशतितमस्थानकम् । णपुंसयवेयणिजस्स णं कम्मस्स वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बंधओ बंधट्टिती पण्णत्ता ५। पच्चक्खाणस्स णं पुव्वस्स वीसं वत्थू पण्णत्ता ६। उसप्पिणि-ओसप्पिणिमंडले वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ काले पण्णत्ते ७।। [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं वीसं 5 पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १॥ छट्ठीए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं वीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं वीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं वीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ 10 पाणते कप्पे देवाणं उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। आरणे कप्पे देवाणं जहण्णेणं वीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। जे देवा सातं विसातं सुविसायं सिद्धत्थं उप्पलं रुतिलं तिगिच्छं दिसासोवत्थियं वद्धमाणयं पलंबं पुप्फ पुप्फावत्तं पुप्फपभं पुप्फकंतं पुप्फवण्णं पुप्फलेसं पुप्फज्झयं पुप्फसिंगं पुप्फसिटुं पुप्फकूडं पुप्फुत्तरवडेंसगं 15 विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ७ [३] ते णं देवा वीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं वीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २। 20 __ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे वीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति [जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेस्संति] ३॥ [टी०] अथ विंशतितमस्थाने किञ्चिल्लिख्यते । तत्र स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वाक् सप्त सूत्राणि, तत्र समाधानं समाधिः चेतसः स्वास्थ्यम्, मोक्षमार्गेऽवस्थानमित्यर्थः, न Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७द आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे समाधिरसमाधिस्तस्याः स्थानानि आश्रया भेदा वा असमाधिस्थानानि । तत्र दवदवचारित्ति यो हि द्रुतं द्रुतं चरति गच्छति सोऽनुकरणशब्दतो दवदवचारीत्युच्यते, चापीत्युत्तरासमाधिस्थानापेक्षया समुच्चयार्थः, भवतीति प्रसिद्धम्, स च द्रुतं द्रुतं संयमा-ऽऽत्मनिरपेक्षो व्रजन्नात्मानं प्रपतनादिभिरसमाधौ योजयति अन्यांश्च सत्त्वान् 5 घ्नन्नसमाधौ योजयति, सत्त्ववधजनितेन च कर्मणा परलोकेऽप्यात्मानमसमाधौ योजयति, अतो द्रुतगन्तृत्वमसमाधिकारणत्वादसमाधिस्थानम्, एवमन्यत्रापि यथायोगमवसेयम् १, तथा अप्रमार्जितचारी २ दुष्प्रमार्जितचारी च ३ स्थाननिषीदन-त्वग्वर्तनादिष्वात्मादिविराधनां लभते, तथाऽतिरिक्ता अतिप्रमाणा शय्या वसतिरासनानि च पीठकादीनि यस्य सन्ति सोऽतिरिक्तशय्यासनिकः, स च 10 अतिरिक्तायां शय्यायां घङ्घशालादिरूपायामन्येऽपि कार्पटिकादय आवासयन्ति इति तैः सहाधिकरणसम्भवादात्म-परावसमाधौ योजयतीति, एवमासनाधिक्येऽपि वाच्यमिति ४, तथा रानिकपरिभाषी आचार्यादिपूज्यपुरुषपरिभवकारी, स चात्मानमन्यांश्चासमाधौ योजयत्येव ५, तथा स्थविरा आचार्यादिगुरवः, तानाचारदोषेण शीलदोषेण च ज्ञानादिभिर्वोपहन्तीत्येवंशीलः स एव चेति 15 स्थविरोपघातिकः ६, तथा भूतानि एकेन्द्रियास्ताननर्थत उपहन्तीति भूतोपघातिकः ७, तथा सवलतीति सज्वलनः प्रतिक्षणं रोषणः ८, तथा क्रोधनः सकृत् क्रुद्धोऽत्यन्तक्रुद्धो भवति ९, तथा पृष्ठिमांसिकः पराङ्मुखस्य परस्यावर्णवादकारी १०, अभिक्खणं अभिक्खणं ओहारयित्त त्ति अभीक्ष्णमभीक्ष्णमवधारयिता शङ्कितस्याप्यर्थस्य निःशङ्कितस्य ‘एवमेवायम्' इत्येवं वक्ता, अथवाऽवहारयिता 20 परगुणानामपहारकारी, यथा अदासादिकमपि परं भणति- दासस्त्वं चौरस्त्वमित्यादि ११, तथाऽधिकरणानां कलहानां यन्त्रादीनां वोत्पादयिता १२, पोराणाणं ति पुरातनानां कलहानां क्षमित-व्यवशमितानां मर्षितत्वेनोपशान्तानां पुनरुदीरयिता भवति १३, तथा सरजस्कपाणि-पादो यः सचेतनादिरजोगुण्डितेन हस्तेन दीयमानां भिक्षां गृह्णाति, तथा योऽस्थण्डिलादेः स्थण्डिलादौ सङ्क्रामन्न पादौ प्रमार्टि, अथवा १. भवतीति जे२ ॥ २. (निःशङ्कितस्येव ?) ॥ ३. 'मयन्न जे२ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ [सू० २१] एकविंशतितमस्थानकम् । यस्तथाविधे कारणे सचित्तादिपृथिव्यां कल्पादिनाऽनन्तरितायामासनादि करोति स सरजस्कपाणि-पाद इति १४, तथा अकालस्वाध्यायकारकः प्रतीतः १५, तथा कलहकरः कलहहेतुभूतकर्तव्यकारी १६, तथा शब्दकरः रात्रौ महता शब्देनोल्लापस्वाध्यायादिकारको गृहस्थभाषाभाषको वा १७, तथा झञ्झाकरो येन येन गणस्य भेदो भवति तत्तत्कारी, येन च गणस्य मनोदुःखमुत्पद्यते तद्भाषी १८, 5 तथा सूरप्रमाणभोजी सूर्योदयादस्तमयं यावदशन- पानाद्यभ्यवहारी १९, एषणाअसमितश्चापि भवति, अनेषणां न परिहरति, प्रेरितश्चासौ साधुभिः कलहायते, तथाऽनेषणीयमपरिहरन् जीवोपरोधे वर्तते, एवं चात्मपरयोरसमाधिकरणादसमाधिस्थानमिदं विंशतितममिति २० । तथा घनोदधयः सप्तपृथिवीप्रतिष्ठानभूताः । सामानिकाः इन्द्रसमानर्द्धयः । साहस्यः सहस्राणि । बन्धतो 10 बन्धसमयादारभ्य बन्धस्थितिः स्थितिबन्ध इत्यर्थः । प्रत्याख्याननामकं पूर्वं नवमम् । सातादीनि चैकविंशतिर्विमानानीति ॥२०॥ [सू० २१] [१] एक्कवीसं सबला पण्णत्ता, तंजहा- हत्थकम्मं करेमाणे सबले १, मेहुणं पडिसेवमाणे सबले २, रातीभोयणं भुंजमाणे [सबले] ३, आहाकम्मं भुंजमाणे [सबले] ४, सागारियं पिंडं भुंजमाणे [सबले] ५, उद्देसियं 15 १. दशाश्रुतस्कन्धे द्वितीयेऽध्ययने [-द्वितीयदशायां] तस्य निर्युक्तौ चूर्णौ च विस्तरेण एकविंशतेः शबलानां वर्णनमस्ति । विस्तरार्थिभिस्तत्रैव द्रष्टव्यम् ।। अत्र तु दशाश्रुतस्कन्धसूत्रमेव उपन्यस्यते- “थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कवीसं सबला पन्नत्ता, तंजहा- हत्थकम्मं करेमाणे सबले ॥१॥ मेहुणं पडिसेवमाणे सबले ॥२॥ रातीभोयणं भुंजमाणे सबले ॥४॥ रायपिंडं भुंजमाणे सबले ॥५॥ कीयं पामिच्चं अच्छेजं अणिसटुं आहटु दिजमाणं भुंजमाणे सबले ॥६|| अभिक्खणं पडियाइक्खित्ताणं भुंजमाणे सबले ॥७॥ अंतो छण्हं मासाणं गणातो गणं संकममाणे सबले ॥८॥ अंतो मासस्स तयो दगलेवे करेमाणे सबले ॥९॥ अंतो मासस्स ततो माइट्ठाणे करेमाणे सबले ॥१०॥ सागारियपिंडं भुंजमाणे सबले ॥११॥ आउट्टियाए पाणाइवायं करेमाणे सबले ॥१२॥ आउट्टियाए मुसावाए वदमाणे सबले ॥१३॥ आउट्टियाए अदिनादाणं गेण्हमाणे सबले ॥१४॥ आउट्टियाए अणंतरहियाए पुढवीए ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले ॥१५।। एवं ससणिद्धाए पुढवीए ससरक्खाए पुढवीए ॥१६॥ एवं आउट्टियाए मूलभोयणं वा फलभोयणं वा बीयभोयणं वा हरियभोयणं वा भुंजमाणे सबले ॥१८॥ अंतो संवच्छरस्स दस उदगलेवे करेमाणे सबले ॥१९॥ अंतो संवच्छरस्स दस माइट्ठाणाई करेमाणे सबले ॥२०॥ आउट्टियाए सीतोदगवग्घारिएण हत्थेण वा मत्तेण वा दव्विए भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गहित्ता भुंजमाणे सबले । एते खलु थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कवीसं सबला पन्नत्ता ॥२१॥" आवश्यकसूत्रेऽपि चतुर्थेऽध्ययने ‘एक्कवीसाए सबलेहि इति सूत्रस्य हारिभत्र्यां वृत्तौ विस्तरेण वर्णनमस्ति । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे कीतमाहट्ट जाव अभिक्खणं अभिक्खणं सीतोदयवियडवग्धारियपाणिणा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता भुंजमाणे सबले ११ . णियट्टिबादरस्स णं खवितसत्तयस्स मोहणिजस्स एक्कवीसं कम्मंसा संतकम्मं पण्णत्ता, तंजहा- अपच्चक्खाणकसाए कोहे, एवं माणे माया 5 लोभे । पच्चक्खाणकसाए कोहे, एवं माणे माया लोभे । संजलणे कोधे, एवं माणे माया लोभे । इत्थिवेदे, पुमवेदे, णपुंसयवेदे, हासे, अरति, रति, भय, सोके, दुगुंछा २। ___ एक्कमेक्काए णं ओसप्पिणीए पंचम-छट्ठीतो समातो एक्कवीसं एक्कवीसं वाससहस्साइं कालेणं पण्णत्तातो, तंजहा- दूसमा, दूसमदूसमा य ३॥ 10 एगमेगाए णं उस्सप्पिणीए पढम-बितियातो समातो एक्कवीसं एकवीसं वाससहस्साइं कालेणं पण्णत्तातो, तंजहा- दूसमदूसमा, दूसमा य ४। [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एक्कवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १। छट्ठीए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एकवीसं सागरोवमाई ठिती 15 पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं एक्कवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं एक्कवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ __ आरणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं एक्कवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। अच्चते कप्पे देवाणं जहण्णेणं एक्कवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। जे देवा सिरिवच्छं सिरिदामगंडं मल्लं किडिं चावोण्णतं आरणवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं एकवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ७॥ १. संतकम्मा पण्णत्ता खं०हे२ ॥ 20 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशतितमस्थानकम् । 5 [सू० २१] [३] ते णं देवा एक्कवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ११ तेसि णं देवाणं एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २॥ संतेगतिया भवसिद्धिया [जीवा जे एक्कवीसाए भवग्गहण्णेहि सिज्झिस्संति जाव [सव्वदुक्खाणमंतं करेस्संति ३॥२१॥ [टी०] अथैकविंशतितमस्थानकम्, तत्र चत्वारि सूत्राणि स्थितिसूत्रैर्विना सुगमानि च, नवरं शबलं कर्बुर चारित्रं यैः क्रियाविशेषैर्भवति ते शबलास्तद्योगात् साधवोऽपि ते एव, तत्र हस्तकर्म वेदविकारविशेषं कुर्वनुपलक्षणत्वात् कारयन् वा शबलो भवतीत्येकः १, एवं मैथुनं प्रतिसेवमानोऽतिक्रमादिभिस्त्रिभिः प्रकारैः २, तथा रात्रिभोजनं दिवागृहीतं दिवाभुक्तमित्यादिभिश्चतुर्भिर्भङ्गकैरतिक्रमादिभिश्च भुञ्जान: 10 ३, तथा आधाकर्म ४, सागारिकः स्थानदाता तत्पिण्डम् ५, औद्देशिकं क्रीतमाहृत्य दीयमानं भुञ्जानः, उपलक्षणत्वात् पामिच्चाऽऽच्छेद्याऽनिसृष्टग्रहणमपीह द्रष्टव्यमिति ६, यावत्करणोपात्तपदान्येवमर्थतोऽवगन्तव्यानि, [अभीक्ष्णम् ?] अभीक्ष्णं प्रत्याख्यायाऽशनादि भुञ्जानः ७, अन्तः षण्णां मासानामेकतो गणाद् गणमन्यं सङ्क्रामन् ८, अन्तर्मासस्य त्रीनुदकलेपान् कुर्वन्, उदकलेपश्च नाभिप्रमाणजलावगाहनमिति ९, 15 अन्तर्मासस्य त्रीणि मायास्थानानि, स्थानमिति भेदः १०, राजपिण्डं भुञ्जानः ११, आकुट्ट्या प्राणातिपातं कुर्वन्, उपेत्य पृथिव्यादिकं हिंसन्नित्यर्थः १२, आकुट्ट्या मृषावादं वदन् १३, अदत्तादानं गृह्णन् १४, आकुट्यैवानन्तर्हितायां पृथिव्यां स्थानं वा नैषेधिकी वा चेतयन्, कायोत्सर्ग स्वाध्यायभूमि वा कुर्वन्नित्यर्थः १५, एवमाकुट्ट्या सस्निग्धसरजस्कायां पृथिव्यां चित्तवत्यां शिलायां लेष्टौ च, कोलावासे दारुणि, कोला 20 घुणाः तेषामावासः १६, अन्यस्मिंश्च तथाप्रकारे सप्राणे सबीजादौ स्थानादि कुर्वन् १७, आकुट्ट्या मूलकन्दादि भुञ्जानः १८, अन्तः संवत्सरस्य दशोदकलेपान् कुर्वन् १९, तथाऽन्तः संवत्सरस्य दश मायास्थानानि च २०, तथा अभीक्ष्णं पौनःपुण्येन शीतोदकलक्षणं यद्विकटं जलं तेन व्याघारितो व्याप्तो यः पाणिः हस्तः स तथा, तेनाशनादि प्रगृह्य भुञ्जानः शबलः इत्येकविंशतितमः २१ । तथा निवृत्तिबादरस्य 25 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अपूर्वकरणस्याष्टमगुणस्थानकवर्त्तिन इत्यर्थः, णं वाक्यालङ्कारे, क्षीणं सप्तकम् अनन्तानुबन्धिचतुष्टय-दर्शनत्रयलक्षणं यस्य स तथा, तस्य मोहनीयस्य कर्मणः एकविंशतिः कर्मांशा अप्रत्याख्यानादिकषायद्वादशक-नोकषायनवकरूपा उत्तरप्रकृतयः सत्कर्म सत्तावस्थं कर्म प्रज्ञप्तमिति । तथा श्रीवत्सं श्रीदामकाण्डं माल्यं कृष्टिं 5 चापोन्नतम् आरणावतंसकं चेति षड् विमानानि ॥२१॥ [सू० २२] बावीसं परीसहा पण्णत्ता, तंजहा- दिगिंछापरीसहे १, पिवासापरीसहे २, सीतपरीसहे ३, उसिणपरीसहे ४, दंसमसगफासपरीसहे ५, अचेलपरीसहे ६, अरतिपरीसहे ७, इत्थिपरीसहे ८, चरियापरीसहे ९, णिसीहियापरीसहे १०, सेज्जापरीसहे ११, अक्कोसपरीसहे १२, वधपरीसहे 10 १३, जायणपरीसहे १४, अलाभपरीसहे १५, रोगपरीसहे १६, तणपरीसहे १७, जल्लपरीसहे १८, सक्कारपुरक्कारपरीसहे १९, अण्णाणपरीसहे २०, दंसणपरीसहे २१, पण्णापरीसहे २२ । १।। दिट्ठिवायस्स णं बावीसं सुत्ताइं छिन्नच्छेयणयियाइं ससमयसुत्तपरिवाडीए २, बावीसं सुत्ताई अच्छिन्नच्छेयणयियाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए ३, बावीसं 15 सुत्ताई तिकणइयाइं तेरासियसुत्तपरिवाडीए ४, बावीसं सुत्ताइं चउक्कणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए ५। बावीसतिविधे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तंजहा- कालयवण्णपरिणामे, नीलवण्णपरिणामे, लोहियवण्णपरिणामे, हालिद्दवण्णपरिणामे, सुक्किलवण्णपरिणामे । सुन्भिगंधपरिणामे, एवं दुन्भिगंधे वि। तित्तरसपरिणामे, 20 एवं पंच वि रसा। कक्खडफासपरिणामे, मउयफासपरिणामे, गुरुफासपरिणामे, लहुफासपरिणामे, सीतफासपरिणामे, उसिणफासपरिणामे, णिद्धफासपरिणामे, लुक्खफासपरिणामे, गरुयलहुयपरिणामे, अगरुयलहुयपरिणामे ६॥ [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं बावीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। १. विस्तरार्थिभिः उत्तराध्ययनसूत्रस्य द्वितीये परिषहाध्ययने द्रष्टव्यम् ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २२] द्वाविंशतितमस्थानकम् । छट्ठीए पुढवीए णेरइयाणं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २॥ अहेसत्तमाए णं पुढवीए नेरइयाणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ३ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं बावीसं पलिओवमाइं ठिती 5 पण्णत्ता ४। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। अच्चुते कप्पे देवाणं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। हेट्टिमहेट्ठिमगेवेजाणं देवाणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ७। 10 जे देवा महितं विस्सुतं विमलं पभासं वणमालं अच्चुतवडेंसगं विमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं [उक्कोसेणं ] बावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ८॥ [३] ते णं देवा बावीसं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ११ तेसि णं- देवाणं बावीसाए वाससहस्सेहिं आहारटे 15 समुप्पजति ॥ __ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे बावीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३॥ [टी०] द्वाविंशतितमं तु स्थानं प्रसिद्धार्थमेव, नवरं सूत्राणि षट् स्थितेराक्, तत्र मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिषह्यन्ते इति परीषहाः । दिगिंछ त्ति बुभुक्षा, सैव परीषहो 20 दिगिञ्छापरीषह इति, सहनं चास्य साधुमर्यादानुल्लङ्घनेन, एवमन्यत्रापि १, तथा पिपासा तृट् २, शीतोष्णे प्रतीते ३-४, तथा दंशाश्च मशकाश्च दंश-मशकाः, उभयेऽप्येते चतुरिन्द्रियाः, महत्त्वामहत्त्वकृतश्चैषां विशेषः, अथवा दंशो दशनं भक्षणमित्यर्थः, तत्प्रधाना मशका दंशमशकाः, एते च यूका-मत्कुण-मत्कोटक१. तुलना- “मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः" - तत्त्वार्थ० ९।८ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे मक्षिकादीनामुपलक्षणमिति ५, तथा चेलानां वस्त्राणां बहुधननवीनावदातसुप्रमाणानां सर्वेषां वाऽभावः अचेलम् अचेलत्वमित्यर्थः ६, अरति: मानसो विकारः ७, स्त्री प्रतीता ८, चर्या ग्रामादिष्वनियतविहारिता ९, नैषेधिकी सोपद्रवेतरा च स्वाध्यायभूमिः १०, शय्या मनोज्ञाऽमनोज्ञा वसतिः संस्तारको वा ११, आक्रोशो दुर्वचनम् १२, 5 वधो यष्ट्यादिताडनम् १३, याच्या भिक्षणं तथाविधे प्रयोजने मार्गणं वा १४, अलाभ-रोगौ प्रतीतौ १५-१६, तृणस्पर्शः संस्तारकाभावे तृणेषु शयानस्य १७, जल्लः शरीरवस्त्रादिमलः १८, सत्कारपुरस्कारौ वस्त्रादिपूजना-ऽभ्युत्थानादिसंपादने, सत्कारेण वा पुरस्करणं सन्माननं सत्कारपुरस्कारः १९, ज्ञानं सामान्येन मत्यादि, क्वचिदज्ञानमिति श्रूयते २०, दर्शनं सम्यग्दर्शनम्, सहनं चास्य क्रियादिवादिनां 10 विचित्रमतश्रवणेऽपि निश्चलचित्ततया धारणम् २१, प्रज्ञा स्वयं विमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदो मतिज्ञानविशेषभूत इति २२ । दृष्टिवादो द्वादशमङ्गम्, स च पञ्चधा - परिकर्म १ सूत्र २ पूर्वगत ३ प्रथमानुयोग ४ चूलिका ५ भेदात्, तत्र दृष्टिवादस्य द्वितीये प्रस्थाने द्वाविंशतिः सूत्राणि, तंत्र सर्वद्रव्य-पर्यायनयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणि, छिन्नच्छेयणइयाई ति इह यो नयः सूत्रं छिन्नं 15 छेदेनेच्छति स छिन्नच्छेदनयः, यथा धम्मो मंगलमुक्कट्ठे [दशवै० १।१] इत्यादिश्लोकः सूत्रार्थतः छेदेन स्थितो न द्वितीयादिश्लोकानपेक्षते, इत्येवं यानि सूत्राणि छिन्नच्छेदनयवन्ति तानि छिन्नच्छेदनयिकानि, तानि च स्वसमया जिनमताश्रिता या सूत्राणां परिपाटिः पद्धतिस्तस्यां स्वसमयसूत्रपरिपाट्यां भवन्ति तया वा भवन्तीति, तथा अच्छिन्नच्छेयणयियाई ति इह यो नय: मूत्रमच्छिन्नं छेदेनेच्छति सोऽच्छिन्नच्छेदनयो 20 यथा धम्मो मंगलमुक्[दशवै० १।१] इत्यादिश्लोकोऽर्थतो द्वितीयादिश्लोकमपेक्षमाण इत्येवं यान्यच्छिन्नच्छेदनयवन्ति तान्यच्छिन्नच्छेटनयिकानि तानि चाऽऽजीविकसूत्रपरिपाट्यां गोशालकमतप्रतिबद्धसूत्रपद्धत्यां तया वा भवन्ति, अक्षररचनाविभागस्थितान्यप्यर्थतोऽन्योन्यमपेक्षमाणानि भवन्तीति भावना, तथा १. यल्लं जे२ ॥ २. सत्कारे वा खं० ॥ ३. तत्र सर्वत्र सर्व जे२ ॥ ४. “धम्मो मंगलमुक्किटं, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥११॥ व्या० धर्मः मङ्गलम् उत्कृष्टम् अहिंसा संयमः तपः देवाः अपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः ॥” इति दशवैकालिकसूत्रे हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तौ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २३] त्रयोविंशतिस्थानकम् । तिकणयियाइं ति नयत्रिकाभिप्रायाच्चिन्त्यन्ते यानि तानि नयत्रिकवन्तीति त्रिकनयिकानीत्युच्यन्ते, त्रैराशिकसूत्रपरिपाट्याम्, इह त्रैराशिका गोशालकमतानुसारिणोऽभिधीयन्ते, यस्मात्ते सर्वं त्र्यात्मकमिच्छन्ति, तद्यथा-जीवोऽजीवो जीवाजीवश्चेति, तथा लोकोऽलोको लोकालोकश्चेत्यादि, नयचिन्तायामपि ते त्रिविधं नयमिच्छन्ति, तद्यथा-द्रव्यास्तिकः पर्यायास्तिकः उभयास्तिकश्चेति, एतदेव 5 नयत्रयमाश्रित्य त्रिकनयिकानीत्युक्तमिति, तथा चउक्कनयियाई ति नयचतुष्काभिप्रायतश्चिन्त्यन्ते यानि तानि चतुष्कनयिकानि, नयचतुष्कं चैवम्, नैगमनयो द्विविध: सामान्यग्राही विशेषग्राही च, तत्र यः सामान्यग्राही स सङ्ग्रहेऽन्तर्भूतो विशेषग्राही तु व्यवहारे, तदेवं सङ्ग्रह-व्यवहार-र्जुसूत्राः शब्दादित्रयं चैक एवेति चत्वारो नया इति, स्वसमयेत्यादि तथैवेति । 10 तथा पुद्गलानाम् अण्वादीनां परिणामो धर्मः पुदगलपरिणामः, स च वर्णपञ्चकगन्धद्वय-रसपञ्चक-स्पर्शाष्टकभेदाद्विंशतिधा, तथा गुरुलघु अगुरुलघु इति भेदद्वयक्षेपाद् द्वाविंशतिः, तत्र गुरुलघु द्रव्यं यत्तिर्यग्गामि वाय्वादि, अगुरुलघु यत् स्थिरं सिद्धिक्षेत्रं घण्टाकारव्यवस्थितज्योतिष्कविमानादीनि । तथा महितादीनि षड् विमानानि ॥२२॥ [सू० २३] [१] तेवीसं सूयगडज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा- समए १, वेतालिए 15 २, उवसग्गपरिण्णा ३, थीपरिण्णा ४, नरयविभत्ती ५, महावीरथुई ६, कुसीलपरिभासिते ७, वीरिए ८, धम्मे ९, समाही १०, मग्गे ११, समोसरणे १२, आहत्तहिए १३, गंथे १४, जमतीते १५, गाथा १६, पुंडरीए १७, किरियट्ठाणे १८, आहारपरिण्णा १९, पच्चक्खाणकिरिया २०, अणगारसुतं २१, अद्दइज २२, णालंदतिनं २३ । । 20 [२] जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसाए जिणाणं सूरुग्गमणमुहुत्तंसि केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे २। १. (दीति ?) ॥ २. "तए णं समणे भगवं महावीरे अणगारे जाए... । तस्स णं भगवंतस्स.. वइसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं पाईणगामिणीए छायाए पोरिसीए अभिनिवट्टाए पमाणपत्ताए... केवलवरनाणदंसणे समुप्पने" इति पर्युषणाकल्पसूत्रे महावीरचरित्रे । “अन्ने भणंति- बावीसाए पुव्वण्हे, मल्लि-वीराणं अवरण्हे" इति आवश्यकचूर्णी पृ० १५८ ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थकरा पुव्वभवे एक्कारसंगिणो होत्था, तंजहा- अजित संभव अभिणंदण जाव पासो वद्धमाणो य । उसभे णं अरहा कोसलिए चोद्दसपुव्वी होत्था ३॥ जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थकरा पुव्वभवे 5 मंडलियरायाणो होत्था, तंजहा- अजित संभव जाव वद्धमाणो य । उसभे णं अरहा कोसलिए चक्कवट्टी होत्था ४। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तेवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १॥ अहेसत्तमाए णं पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तेवीसं सागरोवमाइं ठिती 10 पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं तेवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं तेवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ हेट्ठिममज्झिमगेवेज्जाणं देवाणं जहण्णेणं तेवीसं सागरोवमाइं ठिती 15 पण्णत्ता ५। जे देवा हेट्ठिमहेट्ठिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तेवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा तेवीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १॥ तेसि णं देवाणं तेवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे 20 समुप्पज्जति २॥ संतेगतिया भवसिद्धिया [जीवा जे तेवीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति] जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३॥ [टी०] त्रयोविंशतिस्थानकं सुगममेव, नवरं चत्वारि सूत्राणि अर्वाक् स्थितिसूत्रेभ्यः, तत्र सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमे श्रुतस्कन्धे षोडशाऽध्ययनानि, द्वितीये सप्त, तेषां 25 चान्वर्थस्तदधिगमाधिगम्य इति ॥२३॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २४] चतुर्विंशतिस्थानकम् । [सू० २४] चउवीसं देवाहिदेवा पण्णत्ता, तंजहा- उसभ अजित जाव वद्धमाणे १। चुल्लहिमवंत-सिहरीणं वासहरपव्वयाणं जीवाओ चउवीसं चउवीसं जोयणसहस्साइं णव बत्तीसे जोयणसते एगं च अट्ठत्तीसभागं जोयणस्स किंचिविसेसाहिताओ आयामेणं पण्णत्ताओ ।। 5 चउवीसं देवट्ठाणा सइंदया पण्णत्ता । सेसा अहमिंदा अणिंदा अपुरोहिता ३। उत्तरायणगते णं सूरिए चउवीसंगुलियं पोरिसीयं छायं णिव्वत्तइत्ता णं णियति । गंगा-सिंधूओ णं महाणदीओ पवहे सातिरेगे चउवीसं कोसे वित्थारेणं पण्णत्तातो ५। 10 __ रत्त-रत्तवतीओ णं महाणदीओ पवहे सातिरेगे चउवीसं कोसे वित्थारेणं पण्णत्तातो ६॥ [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं णेरइयाणं चउवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं चउवीसं सागरोवमाइं ठिती 15 पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं चउवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं चउवीसं पलिओवमाइं ठिती । पण्णत्ता ४॥ 20 हेट्ठिमउवरिमगेवेजाणं देवाणं जहण्णेणं चउवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता५। जे देवा हेट्ठिममज्झिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा चउवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा 25 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ 10 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ऊससंति वा णीससंति वा । तेसि णं देवाणं चउवीसाए वाससहस्साणं आहारट्टे समुप्पजति २॥ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे चउवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति [जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति] ३॥ 5 [टी०] चतुर्विंशतिस्थानके षट् सूत्राणि स्थितेः प्राक्, सुगमानि च । नवरं देवानाम् इन्द्रादीनामधिका देवाः पूज्यत्वाद् देवाधिदेवा इति । तथा जीवाओ त्ति जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रस्य वर्षाणां वर्षधराणां च ऋज्वी सीमा जीवोच्यते, आरोपितज्यधनुर्जीवाकल्पत्वात्, तयोश्च लघुहिमवच्छिखरिसत्कयोः प्रमाणम् २४९३२ अष्टत्रिंशद्भागश्च योजनस्य किञ्चिद्विशेषाधिकः, अत्र गाथा चउवीस सहस्साई नव य सए जोयणाण बत्तीसे । ___ चुल्लहिमवंतजीवा आयामेणं कलद्धं च ॥ [बृहत्क्षेत्र० ५२] त्ति, कलार्द्धमिति एकोनविंशतिभागस्यार्द्धम्, तच्चाष्टत्रिंशद्भाग एव भवतीति । चतुर्विंशतिर्देवस्थानानि देवभेदाः, दश भवनपतीनाम्, अष्टौ व्यन्तराणाम्, पञ्च ज्योतिष्काणाम्, एकं कल्पोपपन्नवैमानिकानाम्, एवं चतुर्विंशतिः, सेन्द्राणि 15 चमरादीन्द्राधिष्ठितानि, शेषाणि ग्रैवेयका-ऽनुत्तरसुरलक्षणानि 'अहम् अहम्' इत्येवमिन्द्रा येषु तान्यहमिन्द्राणि, प्रत्यात्मेन्द्रकाणीत्यर्थः, अत एव अनिन्द्राणि अविद्यमाननायकानि अपुरोहितानि अविद्यमानशान्तिकर्मकारीणि, उपलक्षणपरत्वादस्याविद्यमानसेवकजनानीति । १. व्या०- “योजनानां चतुर्विंशतिसहस्राणि नव शतानि द्वात्रिंशानि द्वात्रिंशदधिकानि एकं च कलार्धमित्येतावत्परिमाणायामेन पूर्वापरतया दैर्येण क्षुल्लहिमवतो जीवा । तथाहि- जम्बूद्वीपविष्कम्भः कलारूप एकोनविंशतिलक्षप्रमाणोऽवगाहेन क्षुल्लहिमवतः संबन्धिना त्रिंशत्सहस्रपरिमाणेन ३०००० इषुणा हीनः क्रियते, ततो जातं शेषमिदम्- अष्टादश लक्षाः सप्ततिसहस्राणि १८७०००० । एतद्यथोक्तपरिमाणेन ३०००० अवगाहेन गुण्यते, जातः पञ्चकः षट्कः एककः अष्टौ शून्यानि ५६१०००००००० । एष राशिभूयश्चतुभिर्गुण्यते, जातो द्विकः द्विकः चतुष्कः चतुष्कः अष्टौ शून्यानि २२४४०००००००० । अस्य वर्गमूलानयने लब्धः चतुष्कः सप्तकः त्रिकः सप्तकः शून्यं अष्टकः ४७३७०८ । शेषस्तु राशिरुद्धरति सप्तकः त्रिकः शून्यं सप्तकः त्रिकः षट्कः ७३०७३६ । छेदराशिः नवकः चतुष्कः सप्तकः चतुष्कः एककः षट्कः ९४७४१६ । ततः कलार्धानयनार्थमुद्धरितो राशिर्द्विकेन गुण्यते छेदराशिना च भज्यते, ततो लब्धमेकं कलार्धं । वर्गमूललब्धस्य तु कलाराशेर्योजनानयनार्थमेकोनविंशत्या भागो ह्रियते, लब्धानि योजनानां चतुर्विंशतिसहस्राणि नव शतानि द्वात्रिंशदधिकानि २४९३२ एकं च कलार्धम् १॥९२॥" इति बृहत्क्षेत्रसमासस्य मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २५] पञ्चविंशतिस्थानकम् । ___ तथोत्तरायणगतः सर्वाभ्यन्तरमण्डलप्रविष्टः सूर्यः कर्कसङ्क्रान्तिदिन इत्यर्थः, चतुर्विंशत्यङ्गुलिकां पौरुष्यां प्रहरे भवा छाया पौरुषीया तां छायां हस्तप्रमाणशङ्कोरिति गम्यते, निर्वर्त्य कृत्वा णं वाक्यालङ्कारे निवर्तते सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् द्वितीयमण्डलमागच्छति, आह च- आसाढे मासे दुपया उत्तरा० २६।१३, ओघनि० २८३] इत्यादि । प्रवह इति यतः स्थानान्नदी प्रवहति वोढुं प्रवर्त्तते, 5 स च पद्मदात्तोरणेन निर्गम इह सम्भाव्यते, न पुनर्योऽन्यत्र प्रवहशब्देन मकरमुखप्रणालनिर्गमः प्रपातकुण्डनिर्गमो वा विवक्षितः, तत्र हि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यामिह च पञ्चविंशतिक्रोशप्रमाणा गङ्गादिनद्यो विस्तारतोऽभिहिता इति ॥२४॥ [सू० २५] [१] पुरिमपच्छिमताणं तित्थगराणं पंचजामस्स पणुवीसं भावणाओ पण्णत्ताओ, तंजहा- इरियासमिति, मणगुत्ती, वइगुत्ती, 10 आलोयभायणभोयणं, आदाणभंडनिक्खेवणासमिति ५, अणुवीतिभासणया, कोहविवेगे, लोभविवेगे, भयविवेगे, हासविवेगे १०, उग्गहअणुण्णवणता, उग्गहसीमजाणणता, सयमेव उग्गहं अणुगेण्हणता, साहम्मियउग्गहं अणुण्णविय परिभुंजणता, साहारणभत्तपाणं अणुण्णविय परिभुंजणता १५, इत्थी-पसुपंडगसंसत्तसयणासणवजणता, इत्थीकहविवजणया, इत्थीए इंदियाणमा- 15 लोयणवजणता, पुव्वरत-पुव्वकीलियाणं अणणुसरणता, पणीताहारविवजणता २०, सोइंदियरागोवरती, एवं पंच वि इंदिया २५। १। मल्ली णं अरहा पणुवीसं धणूति उहुंउच्चत्तेणं होत्था २॥ सव्वे वि णं दीहवेयड्डपव्वया पणुवीसं पणुवीसं जोयणाणि उटुंउच्चत्तेणं, पणुवीसं पणुवीसं गाउयाणि उव्वेधेणं पण्णत्ता ३॥ 20 दोच्चाए णं पुढवीए पणुवीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ४। आयारस्स णं भगवतो सचूलियायस्स पणुवीसं अज्झीणा पण्णत्ता ५। १. “अषाढे मासे दोपया पोसे मासे चउप्पया । चित्तासोएसु मासेसु तिपया हवइ पोरिसी ॥२८३॥ व्या०- आषाढे मासे पौर्णमास्यां द्विपदा पौरुषी भवति, पदं च द्वादशाङ्गुलं ग्राह्यम्, पौषे मासे पौर्णमास्यां चतुष्पदा पौरुषी भवति, तथा चैत्राश्वयुजपौर्णमास्यां त्रिपदा पौरुषी भवति ।।२८३॥” इति ओघनिर्युक्तेः द्रोणाचार्यविरचितायां वृत्तौ ॥ २. प्रवहयंति जे२ ॥ ३. दृश्यतां पृ०८८ पं० ११ ॥ ४. उग्गह अणु जे१,२ खं० । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे __ मिच्छादिट्ठिविगलिंदिए णं अपजत्तए संकिलिट्ठपरिणामे णामस्स कम्मस्स पणुवीसं उत्तरपगडीओ णिबंधति, तंजहा- तिरियगतिणाम, वियलिंदियजातिणामं, ओरालियसरीरणाम, तेयगसरीरणाम, कम्मगसरीरणाम, हुंडसंठाणणामं, ओरालियसरीरंगोवंगणामं, सेवदृसंघयणणामं, वण्णनामं, 5 गंधणामं, रसणाम, फासणाम, तिरियाणुपुग्विणामं, अगरुलहुनामं, उवघातणामं, तसणामं, बादरणामं, अपजत्तयणामं, पत्तेयसरीरणाम, अथिरणामं, असुभणामं, दुभगणामं, अणादेजणामं, अजसोकित्तीणाम, निम्माणणामं २५ । ६। ___ गंगा-सिंधूओ णं महाणदीओ पणुवीसं गाउयाणि पुहत्तेणं दुहतो 10 घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठितेणं पवातेणं पवडंति ७। रत्ता-रत्तवतीओ णं महाणदीओ पणुवीसं गाउयाणि पुहत्तेणं जाव पवातेणं पवडंति ८ लोगबिंदुसारस्स णं पुव्वस्स पणुवीसं वत्थू पण्णत्ता ९। [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं पणुवीसं 15 पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १॥ अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं पणुवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं पणुवीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। 20 सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं पणुवीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४। मज्झिमहेट्ठिमगेवेजाणं देवाणं जहण्णेणं पणुवीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा हेट्ठिमउवरिमगेवेजगविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं 25 [उक्कोसेणं ] पणुवीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २५] पञ्चविंशतिस्थानकम् । · [३] ते णं देवा पणुवीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं पणुवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २। संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे पणुवीसाए [भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति] जाव अंतं करेस्संति ३॥ 5 [टी०] पञ्चविंशतिस्थानकमपि सुबोधम्, नवरमिह स्थितेराग् नव सूत्राणि, तत्र पंचजामस्स त्ति पञ्चानां यामानां महाव्रतानां समाहारः पञ्चयामम्, तस्य भावणाओ त्ति प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणमहाव्रतसंरक्षणाय भाव्यन्ते इति भावनाः, ताश्च प्रतिमहाव्रतं पञ्च पञ्चेति, तत्रेर्यासमित्याद्याः पञ्च प्रथमस्य महाव्रतस्य, तत्रालोकभाजनभोजनम् आलोकनपूर्वं भाजने पात्रे भोजनं भक्तादेरभ्यवहरणम, अनालोक्य भोजने हि प्राणिहिंसा 10 सम्भवतीति, तथा अनुविचिन्त्यभाषणतादिका द्वितीयस्य, तत्र विवेकः परित्यागः, तथा अवग्रहानुज्ञापनादिकास्तृतीयस्य, तत्रावग्रहानुज्ञापना १ तत्र चानुज्ञाते सीमापरिज्ञानम् २, ज्ञातायां च सीमायां स्वयमेव उग्गहमिति अवग्रहस्यानुग्रहणता पश्चात्स्वीकरणमवस्थानमित्यर्थः ३, साधर्मिकाणां गीतार्थसमुदायविहारिणां संविग्नानामवग्रहो मासादिकालमानेन पञ्चक्रोशादिक्षेत्ररूपः साधर्मिकावग्रहः, तं 15 तानेवानुज्ञाप्य तस्यैव परिभोजनता अवस्थानम्, साधर्मिकाणां क्षेत्रे वसतौ वा तैरनुज्ञाते एव वस्तव्यमिति भावः ४, साधारणं सामान्यं यद्भक्तादि तद्नुज्ञाप्याचार्यादिकं तस्य परिभोजनतेति ५, तथा स्त्र्यादिसंसक्तशयनादिवर्जनादिकाश्चतुर्थस्य, प्रणीताहारः अतिस्नेहवानिति, तथा श्रोत्रेन्द्रियरागोपरत्यादिकाः पञ्चमस्य, अयमभिप्रायः- यो यत्र सजति तस्य तत् परिग्रहेऽवतरति, ततश्च शब्दादौ रागं कुर्वता ते परिगृहीता भवन्तीति 20 परिग्रहविरतिर्विराधिता भवति, अन्यथा त्वाराधितेति, वाचनान्तरे त्वेता आवश्यकानुसारेण दृश्यन्ते । तथा मिच्छादिट्ठीत्यादि, मिथ्यादृष्टिरेव तिर्यग्गत्यादिकाः कर्मप्रकृतीर्बध्नाति न सम्यग्दृष्टिः, तासां मिथ्यात्वप्रत्ययत्वादिति मिथ्यादृष्टिग्रहणम्, विकलेन्द्रियो द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणामन्यतमः, णमित्यलङ्कारे, पर्याप्तोऽन्या अपि 25 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे बध्नातीत्यपर्याप्तग्रहणम्, अपर्याप्तक एव ह्येता अप्रशस्तपरिवर्त्तमानतदद्वयेतररूपा बध्नाति, सोऽप्येताः सक्लिष्टपरिणामो बध्नातीति सक्लिष्टपरिणाम इत्युक्तम्, अयमपि द्वीन्द्रियाद्यपर्याप्तकप्रायोग्यं बध्नाति, तत्र विगलिंदियजाइनामं ति कदाचित् द्वीन्द्रियजात्या सह पञ्चविंशतिः कदाचिद् त्रीन्द्रियजात्या एवमितरथाऽपीति । गंगेत्यादि, 5 पञ्चविंशतिर्गव्यूतानि पृथुत्वेन यः प्रपातस्तेनेति शेषः, दुहयो त्ति द्वयोर्दिशोः पूर्वतो गङ्गा अपरतः सिन्धुरित्यर्थः, पद्महदाद्विनिर्गते पञ्च पञ्च योजनशतानि पर्वतोपरि गत्वा दक्षिणाभिमुखे प्रवृत्ते, घडमुहपवत्तिएणं ति घटमुखादिव पञ्चविंशतिक्रोशपृथुर्लजिह्वाकात् मकरमुखप्रणालात् प्रवृत्तेन मुक्तावलीनां मुक्तासरीणां यो हारस्तत्संस्थितेन प्रपातेन प्रपतज्जलसंतानेन योजनशतोच्छ्रितस्य हिमवतोऽधोवर्तिनोः स्वकीययोः प्रपातकुण्डयोः 10 प्रपततः, एवं रक्ता-रक्तवत्यौ, नवरं शिखरिवर्षधरोपरिप्रतिष्ठितपुण्डरीकह्रदात् प्रपतत इति । तथा लोकबिन्दुसारं चतुर्दशपूर्वमिति ॥२५॥ [सू० २६] [१] छव्वीसं दस-कप्प-ववहाराणं उद्देसणकाला पण्णत्ता, तंजहा- दस दसाणं, छ कप्पस्स, दस ववहारस्स १। अभवसिद्धियाणं जीवाणं मोहणिज्जस्स कम्मस्स छव्वीसं कम्मंसा संतकम्मा 15 पण्णत्ता, तंजहा- मिच्छत्तमोहणिजं, सोलस कसाया, इत्थीवेदे, पुरिसवेदे, नपुंसकवेदे, हासं, अरति, रति, भयं, सोगो, दुगुंछा २। [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं छव्वीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं छव्वीसं सागरोवमाइं ठिती 20 पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं छव्वीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं छव्वीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ १. जिह्विकात् जे२ हे१,२ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २६-२७] षड्विंशति-सप्तविंशतिस्थानके । मज्झिममज्झिमगेवेजयाणं देवाणं जहण्णेणं छव्वीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं छव्वीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा छव्वीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति 5 वा नीससंति वा १। [तेसि णं देवाणं छव्वीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २॥ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे छव्वीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करेस्संति ३॥ [टी०] षड्विंशतिस्थानकं व्यक्तमेव, नवरम् उद्देशनकाला यत्र श्रुतस्कन्धेऽध्ययने 10 च यावन्त्यध्ययनान्युद्देशका वा तत्र तावन्त एव उद्देशनकाला उद्देशावसराः श्रुतोपचाररूपा इति । तथा अभव्यानां त्रिपुञ्जीकरणाभावेन सम्यक्त्वमिश्ररूपं प्रकृतिद्वयं सत्तायां न भवतीति षड्विंशतिः सत्कर्मांशा भवन्तीति ॥२६॥ [सू० २७] [१] सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णत्ता, तंजहा- पाणातिवातवेरमणे, एवं पंच वि । सोतिंदियनिग्गहे जाव फासिंदियनिग्गहे। कोधविवेगे जाव 15 लोभविवेगे। भावसच्चे, करणसच्चे, जोगसच्चे । खमा, विरागता, मणसमाहरणता, वतिसमाहरणता, कायसमाहरणता, णाणसंपण्णया, सणसंपण्णया, चरित्तसंपण्णया, वेयणअधियासणता, मारणंतियअहियासणया १। जंबुद्दीवे दीवे अभिइवज्जेहिं सत्तावीसाए णक्खत्तेहिं संववहारे वट्टति २॥ एगमेगे णं णक्खत्तमासे सत्तावीसं रातिदियाइं रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते ३। 20 सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी सत्तावीसं जोयणसताई बाहल्लेणं पण्णत्ता ४॥ वेयगसम्मत्तबंधोवरयस्स णं मोहणिजस्स कम्मस्स सत्तावीसं उत्तरपगडीओ संतकम्मंसा पण्णत्ता ५। सावणसुद्धसत्तमीए णं सूरिए सत्तावीसंगुलियं पोरिसिच्छायं णिव्वत्तइत्ता 25 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे णं दिवसखेत्तं निवद्वेमाणे रयणिखेत्तं अभिणिवढेमाणे चारं चरति ६। [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं सत्तावीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १॥ अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं सत्तावीसं सागरोवमाइं ठिती 5 पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं सत्तावीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं सत्तावीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ४॥ 10 मज्झिमउवरिमगेवेजयाणं देवाणं जहण्णेणं सत्तावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा मज्झिममज्झिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा सत्तावीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा 15 ऊससंति वा नीससंति वा १॥ तेसि णं देवाणं सत्तावीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जति २।। संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तावीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करेस्संति ३ । [टी०] सप्तविंशतिस्थानकमपि व्यक्तमेव, केवलं षट् सूत्राणि स्थितेरर्वाक्, तत्र 20 अनगाराणां साधूनां गुणाः चरित्रविशेषा अनगारगुणाः, तत्र महाव्रतानि पञ्च, इन्द्रियनिग्रहाश्च पञ्च, क्रोधादिविवेकाश्चत्वारः, सत्यानि त्रीणि १७, तत्र भावसत्यं शुद्धान्तरात्मता, करणसत्यं यत् प्रतिलेखनादिक्रियां यथोक्तां सम्यगुपयुक्तः कुरुते, योगसत्यं योगानां मनःप्रभृतीनामवितथत्वम् १७। क्षमा अनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपस्य द्वेषसज्ञितस्याप्रीतिमात्रस्याभावः, अथवा क्रोधमानयोरुदयनिरोधः, क्रोध25 मानविवेकशब्दाभ्यां तूदयप्राप्तयोस्तयोर्निरोधः प्रागभिहित इति न पुनरुक्तताऽपीति १८ । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २७] सप्तविंशतिस्थानकम् । विरागता अभिष्वङ्गमात्रस्याभावः, अथवा मायालोभयोरनुदयः, मायालोभविवेकशब्दाभ्यां तूदयप्राप्तयोस्तयोनिरोधः प्रागभिहित इतीहापि न पुनरुक्ततेति १९ । मनोवाक्कायानां समाहरणता, पाठान्तरतः समन्वाहरणता अकुशलानां निरोधास्त्रयः २२ । ज्ञानादिसम्पन्नतास्तिस्रः २५ । वेदनातिसहनता शीताद्यतिसहनम् २६ । मारणान्तिकातिसहनता कल्याणमित्रबुद्ध्या मारणान्तिकोपसर्गसहनमिति २७। 5 ___ तथा जम्बूद्वीपे न धातकीखण्डादौ अभिजिद्वजैः सप्तविंशत्या नक्षत्रैर्व्यवहारः प्रवर्त्तते, अभिजिन्नक्षत्रस्योत्तराषाढचतुर्थपादानुप्रवेशनादिति । तथा मासो नक्षत्र-चन्द्राऽभिवर्द्धित-ऋत्वा-ऽऽदित्यमासभेदात् पञ्चविधोऽन्यत्रोक्तः, तत्र नक्षत्रमासः चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डलभोगकाललक्षणः सप्तविंशतिः रात्रिंदिवानि अहोरात्राणि रात्रिंदिवानेणेति अहोरात्रपरिमाणापेक्षयेदं परिमाणं न तु सर्वथा, तस्याधिकतरत्वाद्, आधिक्यं 10 चाहोरात्रसप्तषष्टिभागानामेकविंशत्येति। विमाणपुढवि त्ति विमानानां पृथिवी भूमिका। __तथा वेदकसम्यक्त्वबन्धः, क्षायोपशमिकसम्यक्त्वहेतुभूतशुद्धदलिकपुञ्जरूपा दर्शनमोहनीयप्रकृतिस्तस्य, उवरओ त्ति प्राकृतत्वादुद्वलको वियोजको यो जन्तुस्तस्य मोहनीयकर्मणोऽष्टाविंशतिविधस्य मध्ये सप्तविंशतिरुत्तरप्रकृतयः सत्कर्मांशाः सत्तायामित्यर्थः, एकस्योद्वलितत्वादिति । 15 __ तथा श्रावणमासस्य शुद्धसप्तम्यां सूर्यः सप्तविंशत्यङ्गुलिकां हस्तप्रमाणशङ्कोरिति गम्यते पौरुषीं छायां प्रहरच्छायां निर्वर्त्य दिवसक्षेत्रं रविकरप्रकाशमाकाशं निवर्द्धयन् प्रकाशहान्या हानि नयन् रजनीक्षेत्रम् अन्धकाराक्रान्तमाकाशमभिनिवर्द्धयन् प्रकाशहान्या वृद्धिं नयन् चारं चरति व्योममण्डले भ्रमणं करोति, अयमत्र भावार्थःइह किल स्थूलन्यायमाश्रित्य आषाढ्यां चतुर्विंशत्यगुलप्रमाणा पौरुषीच्छाया भवति, 20 दिनसप्तके च सातिरेके छायाऽगुलं वर्द्धते, ततश्च श्रावणशुद्धसप्तम्यामङ्गुलत्रयं वर्द्धते, सातिरेकैकविंशतितमदिनत्वात्तस्याः, तदेवमाषाढ्याः सत्कैरगुलैः सह सप्तविंशतिरङ्गुलानि भवन्ति, निश्चयतस्तु कर्कसङ्क्रान्तेरारभ्य यत् सातिरेकैकविंशतितमं दिनं तत्रोक्तरूपा पौरुषीच्छाया भवति ॥२७॥ १. धधिस जे२ हे१,२ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे [सू० २८] अट्ठावीसतिविहे आयारपकप्पे पण्णत्ते, तंजहा- मासिया आरोवणा, सपंचरायमासिया आरोवणा, सदसरातमासिया आरोवणा, सपण्णरसरातमासिया आरोवणा, सवीसतिरायमासिया आरोवणा, सपंचवीसरातमासिया आरोवणा, एवं चेव दोमासिया आरोवणा, 5 सपंचरातदोमासिया आरोवणा, एवं तेमासिया आरोवणा, चउमासिया आरोवणा, उग्घातिया आरोवणा, अणुग्घातिया आरोवणा, कसिणा आरोवणा, अकसिणा आरोवणा । इत्ताव ताव आयारपकप्पे, इत्ताव ताव आयरियव्वे १॥ भवसिद्धियाणं जीवाणं अत्थेगतियाणं मोहणिज्जस्स कम्मस्स अट्ठावीसं कम्मंसा संतकम्मं पण्णत्ता, तंजहा- सम्मत्तवेयणिजं, मिच्छत्तवेयणिजं 10 सम्ममिच्छत्तवेयणिज्जं, सोलस कसाया, णव णोकसाया । ___ आभिणिबोहियणाणे अट्ठावीसतिविहे पण्णत्ते, तंजहा- सोतिंदियत्थोग्गहे, चक्विंदियत्थोग्गहे, घाणिंदियत्थोग्गहे, जिभिंदियत्थोग्गहे, फासिंदियत्थोग्गहे, णोइंदियत्थोग्गहे, सोतिंदियवंजणोग्गहे, घाणिंदियवंजणोग्गहे, जिभिंदियवंजणोग्गहे, फासिंदियवंजणोग्गहे, सोतिंदियईहा जाव 15 फासिंदियईहा, णोइंदियईहा, सोतिंदियावाते जाव णोइंदियअवाते, सोइंदियधारणा जाव णोइंदियधारणा ३। ईसाणे णं कप्पे अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । जीवे णं देवगतिं निबंधमाणे नामस्स कम्मस्स अट्ठावीसं उत्तरपगडीओ णिबंधति, तंजहा- देवगतिनामं, पंचेंदियजातिनामं, वेउव्वियसरीरनाम, 20 तेययसरीरनाम, कम्मयसरीरनामं, समचउरंससंठाणणाम, वेउब्वियसरीरंगोवंगणामं, वण्णणामं, गंधणामं, रसणाम, फासणाम, १. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने 'अट्ठावीसविहे आयारकप्पे' इति सूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तौ त्वेवम्- “अष्टाविंशतिविध आचार एवाऽऽचारप्रकल्पः, क्रिया पूर्ववत्, अष्टाविंशतिभेदान् दर्शयति- “सत्थपरिण्णा १ लोगो विजओ य २ सीओसणिज्ज ३ संमत्तं ४ । आवंति ५ धुवविमोहो ६-७ उवहाणसुय ८ महापरिण्णा ९ य ॥१॥ पिंडेसणसिज्जिरिया भासज्जाया १०-१३ य वत्थपाएसा १४-१५ । उग्गहपडिमा १६ सत्तेक्कतयं २३ भावणविमुत्तीओ २४-२५ ॥२॥ उग्घायमणुग्घायं आरुवणा तिविहमो णिसीहं तु २६-२७-२८ । इय अट्ठावीसविहो आयारपकप्पणामोऽयं ॥३॥" Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २८] अष्टाविंशतिस्थानकम् । देवाणुपुवीणामं, अगुरुयलहुअनामं, उवघायनामं, पराघायनामं, ऊसासनामं, पसत्थविहायगइणामं, तसनामं, बायरणामं, पजत्तनाम, पत्तेयसरीरनामं, थिराथिराणं दोण्हं अण्णयरं एगनाम णिबंधति, सुभासुभाणं दोण्हमण्णयरं एगनामं निबंधइ, सुभगणामं, सुस्सरणामं, आएज-अणाएजनामाणं दोण्हमण्णयरं एगनामं निबंधइ, जसकित्तिनाम, निम्माणनामं । एवं चेव नेरइए 5 वि, णाणत्तं अपसत्थविहायगइणाम, हुंडसंठाणनामं, अथिरणामं, दुब्भगणाम, असुभनामं, दुस्सरनामं, अणादेजणामं, अजसोकित्तीणामं, निम्माणनामं ५। [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १।। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं सागरोवमाई ठिती 10 पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं अट्ठावीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्थेगतियाणं अट्ठावीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ उवरिमहेट्टिमगेवेजयाणं देवाणं जहण्णेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। जे देवा मज्झिमउवरिमगेवेजएसु विमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा अट्ठावीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। [तेसि णं देवाणं अट्ठावीसाए वाससहस्सेहिं 20 आहारट्टे समुप्पजति २॥ . संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठावीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति] जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] अष्टाविंशतिस्थानकमपि व्यक्तम्, नवरमिह पञ्च स्थितेः प्राक् सूत्राणि, तत्र आचारः प्रथमाझं तस्य प्रकल्पः अध्ययनविशेषो निशीथमित्यपराभिधान आचारस्य 25 15 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे वा साध्वाचारस्य ज्ञानादिविषयस्य प्रकल्पो व्यवस्थापनमित्याचारप्रकल्पः, तत्र क्वचिद् ज्ञानाद्याचारविषये अपराधमापन्नस्य किञ्चित् प्रायश्चित्तं दत्तम्, पुनरन्यमपराधविशेषमापनस्ततस्तत्रैव प्राक्तने प्रायश्चित्ते मासवहनयोग्यं मासिकं प्रायश्चित्तमारोपितमित्येवं मासिक्यारोपणा भवति, तथा पञ्चरात्रिकशुद्धियोग्यं 5 मासिकशुद्धियोग्यं चापराधद्वयमापन्नस्ततः पूर्वदत्तप्रायश्चित्ते सपञ्चरात्रमासिकप्रायश्चित्तारोपणात् सपञ्चरात्रमासिक्यारोपणा भवति, एवं मासिक्यारोपणाः षट् ६, एवं द्विमासिक्यः ६, त्रिमासिक्यः ६, चतुर्मासिक्योऽपीति ६ चतुर्विंशतिरारोपणाः, तथा सार्द्धदिनद्वयस्य पक्षस्य चोद्घातनेन लघूनां मासादीनां प्राचीनप्रायश्चित्ते आरोपणा औद्घातिक्यारोपणा, यदाह अद्धेण छिन्नसेसं पुव्वद्धणं तु संजुयं काउं। देजा य लहुयदाणं गुरुदाणं तत्तियं चेव ॥ [ ] त्ति । यथा मासाळ् १५ पञ्चविंशतिकार्द्धं च सार्द्धद्वादश, सर्वमीलने सार्द्धसप्तविंशतिरिति लघुमासः, तथा मासद्वयार्द्ध मासो मासिकस्यार्द्ध पक्ष उभयमीलने सार्दो मास इति लघुद्वैमासिकम् २५, तथा तेषामेव सार्द्धदिनद्वयाद्यनुद्घातनेन गुरूणामारोपणा 15 अनौद्घातिक्यारोपणा २६, तथा यावतोऽपराधानापन्नस्तावतीनां तच्छुद्धीनामारोपणा कृत्स्नारोपणा २७, तथा बहूनपराधानापन्नस्य षण्मासान्तं तप इति कृत्वा षण्मासाधिकं तपःकर्म तेष्वेवान्तर्भाव्य शेषमारोप्यते यत्र सा अकृत्स्नारोपणेत्यष्टाविंशतिः २८, एतच्च सम्यग् निशीथविंशतितमोद्देशकावगम्यम् । अत्रैव निगमनमाह एतावांस्तावदाचारप्रकल्पः, इह स्थानके आरोपणामाश्रित्य विवक्षितोऽन्यथा 20 तद्व्यतिरेकेणापि तस्योद्घातिकानुद्घातिकरूपस्य भावात्, अथवैतावानेवायं तावदाचारप्रकल्पः, शेषस्यात्रैवान्तर्भावात्, तथा एतावत्तावदाचरितव्यमित्यपि तथैव। देवगतिसूत्रे स्थिरास्थिरयोः शुभाशुभयोरादेयानादेययोश्च परस्परं विरोधित्वेनैकदा बन्धाभावादन्यतरद्वघ्नातीत्युक्तम्, तत्र चैकशब्दग्रहणं भाषामात्र एवावसेयमिति, १. रात्रिकमासिक जे२ ॥ २. स्थानाङ्गटीकायामुद्धृतमेतत् पृ० २७६, ५५८ ॥ ३. जे२ मध्ये 'षण्मासान्तं तप इति कृत्वा' इति पाठः पतितः ॥ ४. कृत्वा नास्ति खं० ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २९] एकोनत्रिंशत्स्थानकम् । ९७ नारकसूत्रे विंशतिस्ता एव प्रकृतयोऽष्टानां तु स्थाने अष्टावन्या बध्नाति, एतदेवाहएवं चेवेत्यादि, नानात्वं विशेषः ॥२८॥ _ [सू० २९] [१] एगूणतीसतिविहे पावसुतपसंगे पण्णत्ते, तंजहा- भोमे, उप्पाए, सुमिणे, अंतलिक्खे, अंगे, सरे, वंजणे, लक्खणे । भोमे तिविहे पण्णत्ते, तंजहा- सुत्तं, वित्ती, वत्तिए । एवं एक्केवं तिविहं । विकहाणुयोगे, 5 विजाणुजोगे, मंताणुजोगे, जोगाणुजोगे, अण्णतित्थियपवत्ताणुजोगे १। आसाढे णं मासे एगूणतीसं रातिदियाई रातिंदियाइं पण्णत्ते २। भद्दवते णं मासे [एगूणतीसं रातिंदियाइं रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते] ३। कत्तिए णं [मासे एगूणतीसं रातिंदियाई रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते] ४। पोसे णं मासे [एगूणतीसं रातिंदियाइं रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते] ५। 10 फग्गुणे णं [मासे एगूणतीसं रातिंदियाइं रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते] ६। वइसाहे णं मासे [एगूणतीसं रातिंदियाइं रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते] ७। चंददिणे णं एकूणतीसं मुहुत्ते सातिरेगे मुहत्तग्गेणं पण्णत्ते ८॥ जीवे णं पसत्थज्झवसाणजुत्ते भविए सम्मद्दिट्ठी तित्थकरनामसहिताओ णामस्स णियमा एगूणतीसं उत्तरपगडीओ निबंधित्ता वेमाणिएसु देवेसु देवत्ताए 15 उववज्जति ९॥ [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एगूणतीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एगूणतीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं एगूणतीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३॥ 20 १. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने ‘एगूणतीसाए पावसुयपसंगेहिं' इति सूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तावपि किञ्चिद्भेदेन पापश्रुतप्रसङ्गानां वर्णनं वर्तते ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं एगूणतीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ __ उवरिममज्झिमगेवेजयाणं देवाणं जहण्णेणं एगूणतीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। 5 जे देवा उवरिमहेट्ठिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगूणतीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा एगूणतीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १॥ तेसि णं देवाणं एगूणतीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २॥ 10 संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे एगूणतीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति [जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति] ३। [टी०] एकोनत्रिंशत्स्थानकमपि व्यक्तमेव, नवरं नवेह सूत्राणि स्थितेः प्राक्, तत्र पापोपादानानि श्रुतानि पापश्रुतानि, तेषां प्रसङ्गः तथाऽऽसेवनारूपः पापश्रुतप्रसङ्गः, स च पापश्रुतानामेकोनत्रिंशद्विधत्वात् तद्विध उक्तः, पापश्रुतविषयतया पापश्रुतान्येव 15 वोच्यन्ते, अत एवाह- भोमेत्यादि, तत्र भौमं भूमिविकारफलाभिधानप्रधानं निमित्तशास्त्रम्, तथा उत्पातं सहजरुधिरवृष्ट्यादिलक्षणोत्पातफलनिरूपकं निमित्तशास्त्रम्, एवं स्वप्नं स्वप्नफलाविर्भावकम्, अन्तरिक्षम् आकाशप्रभवग्रहयुद्धभेदादिभावफलनिवेदकम्, अङ्गं शरीरावयवप्रमाणस्पन्दितादिविकारफलोद्भावकम्, स्वरं जीवाजीवाश्रितस्वरस्वरूपफलाभिधायकम्, व्यञ्जनं मषादिव्यञ्जनफलोपदर्शकम्, 20 लक्षणं लाञ्छनाद्यनेकविधलक्षणव्युत्पादकमित्यष्टौ । एतान्येव सूत्र-वृत्तिवार्तिकभेदाच्चतुर्विंशतिः २४, तत्राङ्गवर्जितानामन्येषां सूत्रं सहस्रप्रमाणम्, वृत्तिर्लक्षप्रमाणा, वार्तिकं वृत्तिव्याख्यानरूपं कोटीप्रमाणम्, अङ्गस्य तु सूत्रं लक्षम्, वृत्तिः कोटी, वार्त्तिकमपरिमितमिति, तथा विकथानुयोगः अर्थ कामोपायप्रतिपादनपराणि कामन्दक-वात्स्यायनादीनि भारतादीनि वा शास्त्राणि २५, 25 तथा विद्यानुयोगो रोहिणीप्रभृतिविद्यासाधनाभिधायीनि शास्त्राणि २६, Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २९] एकोनत्रिंशत्स्थानकम् । मन्त्रानुयोगश्चेटकादिमन्त्रसाधनोपायशास्त्राणि २७, योगानुयोगो वशीकरणादियोगाभिधायिकानि हरमेखलादिशास्त्राणि २८, अन्यतीर्थिकेभ्यः कपिलादिभ्यः सकाशाद्यः प्रवृत्तः स्वकीयाचारवस्तुतत्त्वानामनुयोगो विचारः तत्पुरस्करणार्थं शास्त्रसन्दर्भ इत्यर्थः सोऽन्यतीर्थिकप्रवृत्तानुयोग इति २९ । तथाऽऽषाढादय एकान्तरिता षण्मासा एकोनत्रिंशद्रात्रिंदिवानि रात्रिंदिवपरिमाणेन भवन्ति स्थूलन्यायेन, कृष्णपक्षे प्रत्येकं 5 रात्रिंदिवस्यैकस्य क्षयात्, आह च आसाढबहुलपक्खे भद्दवए कत्तिए य पोसे य । फग्गुण-वइसाहेसु य बोधव्वा ओमरत्ताओ ॥ [उत्तरा० २६।१५] त्ति । इयमत्र भावना- चन्द्रमासो हि एकोनत्रिंशद् दिनानि दिनस्य च द्विषष्टिभागानां द्वात्रिंशत्, ऋतुमासश्च त्रिंशदेव दिनानि भवतीति चन्द्रमासापेक्षया 10 ऋतुमासोऽहोरात्रद्विषष्टिभागानां त्रिंशता समधिको भवति, ततश्च प्रत्यहोरात्रं चन्द्रदिनमेकै केन द्विषष्टिभागेन हीयते इत्यवसीयते, एवं द्विषष्ट्या चन्द्रदिवसानामेकषष्टिरहोरात्राणां भवतीत्येवं सातिरेके मासद्वये एकमवमरात्रं भवतीति, विशेषस्त्विह चन्द्रप्रज्ञप्तेरवसेय इति । तथा चंददिणे णं ति चन्द्रदिनं प्रतिपदादिका तिथिः, तच्चैकोनत्रिंशद् मुहूर्ताः 15 सातिरेका मुहूर्तपरिमाणेनेति, कथम् ? यतः किल चन्द्रमास एकोनत्रिंशद् दिनानि द्वात्रिंशच्च दिनद्विषष्टिभागा भवन्ति, ततश्चन्द्रदिनं चन्द्रमासस्य त्रिंशता गुणनेन मुहूर्तराशीकृतस्य त्रिंशता भागहारे एकोनत्रिंशन्मुहूर्ता द्वात्रिंशच्च मुहूर्तस्य द्विषष्टिभागा लभ्यन्त इति । १. °णार्थः हे२ ॥ २. रात्रिदिवसपरि' खं० । रात्रिंदिवप्रमाणेन हे२ ॥ ३. रात्रिंदिवसस्यै खं० ॥ ४. “आसाढे ति आषाढे बहुलपक्षे भाद्रपदादिषु च बहुलपक्षे ओम त्ति अवमा न्यूना एकेनेति शेषः, रत्त त्ति पदैकदेशेऽपि पदप्रयोगदर्शनादहोरात्राः, एवं चैकदिनापहारे दिनचतुर्दशकेनैव कृष्णपक्ष एतेष्विति भावः ॥२६॥१५॥" इति उत्तराध्ययनसूत्रस्य शान्तिसूरिविरचितायां पाईयटीकायाम् । तथा ओघनिर्युक्तौ गा० २८५।। ५. बोद्धव्वा जे२ ॥ ६. प्रतिषु पाठाः- रत्ताओ हे१,२ । 'रणाओ जे१ । राओ त्ति जे२ । “रवाओ त्ति खं० ॥ ७. भवंतीति हे१,२ ॥ ८. चन्द्रप्रज्ञप्तेः द्वादशे प्राभृते विशेषजिज्ञासुभिर्विलोकनीयम् ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे __तथा जीवः प्रशस्ताध्यवसानादिविशेषणो वैमानिकेषूत्पत्तुकामो नामकर्मण एकोनत्रिंशदुत्तरप्रकृतीर्बध्नाति, ताश्चेमाः- देवगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ वैक्रियद्वयं ४ तैजसकार्मणशरीरे ६ समचतुरलं संस्थानं ७ वर्णादिचतुष्कं ११ देवानुपूर्वी १२ अगुरुलघु १३ उपघातं १४ पराघातम् १५ उच्छ्वासं १६ प्रशस्तविहायोगतिः १७ वसं १८ बादरं 5 १९ पर्याप्तं २० प्रत्येकं २१ स्थिरास्थिरयोरन्यतरत् २२ शुभाशुभयोरन्यतरत् २३ सुभगं २४ सुस्वरम् २५ आदेयानादेययोरन्यतरत् २६ यशःकीर्त्ययशःकीोरेकतरं २७ निर्माणं २८ तीर्थकरं चेति २९ ।। [सू० ३०] [१] तीसं मोहणिजठाणा पण्णत्ता, तंजहा जे यावि तसे पाणे वारिमझे विगाहिया । 10 उदएणक्कम्म मारेति महामोहं पकुव्वति ॥१९॥ १॥ सीसावेढेण जे केई आवेढेति अभिक्खणं । तिव्वे असुभसमायारे महामोहं पकुव्वति ॥२०॥ २॥ पाणिणा संपिहित्ताणं सोयमावरिय पाणिणं । अंतो नदंतं मारेइ महामोहं पकुव्वइ ॥२१॥ ३॥ जायतेयं समारब्भ बहुं ओलंभिया जणं । अंतोधूमेण मारेइ महामोहं पकुव्वइ ॥२२॥ ४॥ सीसम्मि जे पहणइ उत्तमंगम्मि चेयसा । विभज मत्थयं फाले महामोहं पकुव्वति ॥२३॥ ५। पुणो पुणो पणिहीए हणित्ता उवहसे जणं । फलेणं अदुव दंडेणं महामोहं पकुव्वइ ॥२४॥ ६॥ गूढायारी निगृहेजा मायं मायाए छायए । असच्चवाई णिण्हाई महामोहं पकुव्वइ ॥२५॥ ७। १. यश:कीर्तिः २७ हे२ विना ॥ २. दशाश्रुतस्कन्धे नवम्यां दशायां सर्वा अप्येता गाथा वर्तन्ते ॥ ३. प्रथमोऽङ्कः 15 20 आदितो गाथाङ्कस्य सूचकः । द्वितीयस्तु मोहनीयस्थानक्रमाङ्कः।। ४. तिव्वासुभ' जे१ ।। ५. इत आरभ्य अटी०खं० जे१ मध्ये प्रायः सर्वत्र व्वई इति पाठः ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३०] त्रिंशत्स्थानकम् । धंसेइ जो अभूएणं अकम्मं अत्तकम्मणा । अदुवा तुममकासि त्ति महामोहं पकुव्वइ ॥२६॥ ८॥ जाणमाणो परिसओ सच्चामोसाणि भासति । अज्झीणझंझे पुरिसे महामोहं पकुव्वति ॥२७॥ ९॥ अणायगस्स नयवं दारे तस्सेव धंसिया । विउलं विक्खोभइत्ताणं किच्चा णं पडिबाहिरं ॥२८॥ उवगसंतं पि झंपिता पडिलोमाहिं वग्गूहिं । भोगभोगे वियारेति महामोहं पकुव्वति ॥२९॥ १०॥ अकुमारभूए जे केइ कुमारभूए त्ति हं वए । इत्थीहिं गिद्धे वसए महामोहं पकुव्वति ॥३०॥ ११॥ अबंभयारी जे केइ बंभयारि त्ति हं वए । गद्दभे व्व गवं मज्झे विस्सरं नदई नदं ॥३१॥ अप्पणो अहिए बाले मायामोसं बहुं भसे । इत्थीविसयगेहीए महामोहं पकुव्वइ ॥३२॥ १२॥ जं निस्सिए उव्वहती जससा अहिगमेण वा । तस्स लुब्भइ वित्तम्मि महामोहं पकुव्वइ ॥३३॥ १३॥ इस्सरेण अदुवा गामेणं अणिस्सरे इस्सरीकए । तस्स संपग्गहीयस्स सिरी अतुलमागया ॥३४॥ ईसादोसेण आइडे कलुसाविलचेयसे । जे अंतरायं चेएइ महामोहं पकुव्वति ॥३५॥ १४॥ सप्पी जहा अंडउडं भत्तारं जो विहिंसइ ।। सेणावई पसत्थारं महामोहं पकुव्वइ ॥३६॥ १५॥ जे नायगं व रट्ठस्स नेयारं निगमस्स वा ।। सेटिं बहुरवं हंता महामोहं पकुव्वति ॥३७॥ १६॥ १. भासई अटी० ॥ 15 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ 5 10 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे बहुजणस्स णेयारं दीवं ताणं च पाणिणं । एयारिसं नरं हंता महामोहं पकुव्वति ॥३८॥ १७॥ उवट्ठियं पडिविरयं संजयं सुतवस्सियं । वोकम्म धम्मओ भंसे महामोहं पकुव्वति ॥३९॥ १८॥ तहेवाणंतणाणीणं जिणाणं वरदंसिणं ।। तेसिं अवण्णिमं बाले महामोहं पकुव्वति ॥४०॥ १९॥ नेयाउयस्स मग्गस्स दुढे अवयरई बहुं । तं तिप्पयंतो भावेति महामोहं पकुव्वति ॥४१॥ २०॥ आयरियउवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए । ते चेव खिंसती बाले महामोहं पकुव्वति ॥४२॥ २१॥ आयरियउवज्झायाणं सम्मं नो पडितप्पड़ । अप्पडिपूयए थद्धे महामोहं पकुव्वति ॥४३॥ २२॥ अबहुस्सुए य जे केइ सुएण पविकंथई । सज्झायवायं वयति महामोहं पकुव्वति ॥४४॥ २३॥ अतवस्सिए य जे केइ तवेण पविकंथइ । सव्वलोयपरे तेणे महामोहं पकुव्वति ॥४५॥ २४।। साहारणट्ठा जे केइ गिलाणम्मि उवट्ठिए । पभू ण कुणई किच्वं मझं पि से न कुव्वति ॥४६॥ सढे नियडिपण्णाणे कलुसाउलचेयसे । अप्पणो य अबोहीए महामोहं पकुव्वति ॥४७॥ २५॥ जे कहाहिगरणाइं संपउंजे पुणो पुणो । सव्वतित्थाण भेयाय महामोहं पकुव्वति ॥४८॥ २६॥ जे य आहम्मिए जोए संपउंजे पुणो पुणो । साहाहेउं सहीहेडं महामोहं पकुव्वति ॥४९॥ २७॥ 15 20 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ [सू० ३०] त्रिंशत्स्थानकम् । जे य माणुस्सए भोए अदुवा पारलोइए । तेऽतिप्पयंतो आसयति महामोहं पकुव्वति ॥५०॥ २८॥ इट्ठी जुती जसो वण्णो देवाणं बलवीरियं । तेसिं अवण्णिम बाले महामोहं पकुव्वति ॥५१॥ २९। अपस्समाणो पस्सामि देवे जक्खे य गुज्झगे । अण्णाणी जिणपूयट्ठी महामोहं पकुव्वति ॥५२॥ ३०॥१॥ थेरे णं मंडियपुत्ते तीसं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे २। एगमेगे णं अहोरत्ते तीसं मुहुत्ता मुहुत्तग्गेणं पण्णत्ते । एतेसि णं तीसाए मुहुत्ताणं तीसं नामधेजा पण्णत्ता, तंजहा- रोदे, सेते, 10 मित्ते, वाऊ, सुपीए ५, अभियंदे, माहिंदे, बलवं, बंभे, सच्चे १०, आणंदे, विजए, वीससेणे, पायावच्चे, उवसमे १५, ईसाणे, तढे, भावियप्पा, वेसमणे, वरुणे २०, सतरिसभे, गंधव्वे, अग्गिवेसायणे, आतवं, आवत्तं २५, तट्ठवं, भूमहं, रिसभे, सव्वट्ठसिद्धे, रक्खसे ३० । ३। । अरे णं अरहा तीसं धणूइं उटुंउच्चत्तेणं होत्था ४। 15 सहस्सारस्स णं देविंदस्स देवरण्णो तीसं सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्ताओ५। पासे णं अरहा तीसं वासाई अगारमज्झावसित्ता अगारातो अणगारियं पव्वतिते ६। समणे भगवं महावीरे तीसं वासाई अगार जाव पव्वतिते । रयणप्पभाए णं पुढवीए तीसं निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता ८0 20 _ [२] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १॥ अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं तीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। 25 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे [सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं तीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ?] ४॥ उवरिम[उवरिम]गेवेजयाणं देवाणं जहण्णेणं तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। 5 जे देवा उवरिममज्झिमगेवेजएसु विमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६।। [३] ते णं देवा तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १, जाव तीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे [समुप्पजति] २। संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे तीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव 10 सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३॥ [टी०] त्रिंशत्स्थानकं सुगमम्, नवरं स्थितेरर्वागष्टौ सूत्राणि, तत्र मोहनीयं सामान्येनाष्टप्रकारं कर्म विशेषतश्चतुर्थी प्रकृतिः, तस्य स्थानानि निमित्तानि मोहनीयस्थानानि, तथा जे आवि तसे इत्यादिश्लोकः, यश्चापि त्रसान् प्राणान् स्त्र्यादीन् वारिमध्ये विगाह्य प्रविश्योदकेन शस्त्रभूतेन मारयति, कथम् ?, आक्रम्य पादादिना, 15 स इति गम्यते, मार्यमाणस्य महामोहोत्पादकत्वात् सक्लिष्टचित्तत्वाच्च भवशतदुःखवेदनीयमात्मनो महामोहं प्रकरोति जनयति, तदेवंभूतं त्रसमारणेनैकं मोहनीयस्थानमेवं सर्वत्रेति १।। सीसा श्लोकः, शीर्षावेष्टेन आर्द्रचर्मादिमयेन यः कश्चिद्वेष्टयति स्त्र्यादिवसानिति गम्यते अभीक्ष्णं भृशं तीव्रोऽशुभसमाचारः स इत्यस्य गम्यमानत्वात् स मार्यमाणस्य 20 महामोहोत्पादकत्वेन आत्मनो महामोहं प्रकुरुत इति २। यावत्करणात् केषुचित् सूत्रपुस्तकेषु शेषमोहनीयस्थानाभिधानपराः श्लोकाः सूचिताः, केषुचित् दृश्यन्त एवेति ते व्याख्यायन्तेपाणिणा संपिहित्ताणं सोयमावरिय पाणिणं । अंतो नदंतं मारेइ महामोहं पकुव्वइ ॥३॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [सू० ३०] त्रिंशत्स्थानकम् । १०५ पाणिना हस्तेन संपिधाय स्थगयित्वा, किं तत् ? श्रोतो रन्ध्र मुखमित्यर्थः, तथा आवृत्य अवरुध्य प्राणिनं ततः अन्तर्नदन्तं गलमध्ये रवं कुर्वन्तं घुरघुरायमाणमित्यर्थः, मारयति यः स इति गम्यते, महामोहं प्रकरोतीति तृतीयम् ३ । जायतेयं समारब्भ बहुं ओलंभिया जणं । अंतोधूमेण मारेति महामोहं पकुव्वइ ॥४॥ जाततेजसं वैश्वानरं समारभ्य प्रज्वाल्य बहुं प्रभूतम् अवरुध्य महामण्डपवाडादिषु प्रक्षिप्य जनं लोकम् अन्त: मध्ये मण्डपादेः धूमेन वह्निलिङ्गेन, अथवा अन्तधूमो यस्य सोऽन्तधूमस्तेन जाततेजसा विभक्तिपरिणामात् मारयति योऽसौ महामोहं प्रकरोतीति चतुर्थम् ४ । सीसम्मि जे पहणइ उत्तमंगम्मि चेयसा । विभज मत्थयं फाले महामोहं पकुव्वति ॥५॥ शीर्षे शिरसि यः प्रहन्ति खड्ग-मुद्रादिना प्रहरति 'प्राणिन'मिति गम्यते, किंभूते स्वभावतः ? शिरसि उत्तमाङ्गे सर्वावयवानां प्रधानावयवे तद्विघातेऽवश्यं मरणात् चेतसा सक्लिष्टेन मनसा, न यथाकथञ्चिदित्यर्थः, तथा विभाज्य मस्तकं प्रकृष्टप्रहारदानेन स्फाटयति विदारयति ग्रीवादिकं कायमपीति गम्यते, स इत्यस्य 15 गम्यमानत्वात् स महामोहं प्रकरोतीति पञ्चमम् ५ । पुणो पुणो पणिहीए हणित्ता उवहसे जणं । फलेणं अदुव दंडेणं महामोहं पकुव्वइ ॥६॥ पौन:पुण्येन प्रणिधिना मायया यथा वाणिजकादिवेषं विधाय गलकर्त्तकाः पथि गच्छता सह गत्वा विजने मारयन्ति, तथा हत्वा विनाश्य य इति गम्यते उपहसेत् 20 आनन्दातिरेकात् जनं मुग्धलोकं हन्यमानम्, केन हत्वा ? फलेन योगविभावितेन मातुलिङ्गादिना, अदुव तथा दण्डेन प्रसिद्धेन, स इति गम्यते, महामोहं प्रकरोतीति षष्ठम् ६ । १. वाहादिषु खं० ॥ २. यस्यासावन्त खं० जे२ ॥ ३. स नास्ति जे२ विना ॥ ४. गलाक' जे१,२, हे? ॥ ५. तथा नास्ति जे२ । जे१ मध्येऽत्र पाठः पतितः ॥ ६. योगभावितेन जे२ हे१,२ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे गूढायारी निगूहेजा मायं मायाए छायए । असच्चवाई णिण्हाई महामोहं पकुव्वइ ॥७॥ गूढाचारी प्रच्छन्नाचारवान् निगूहयते गोपयेत्, स्वकीयं प्रच्छन्नं दुष्टमाचारम्, तथा मायां परकीयां मायया स्वकीयया छादयेत् जयेत्, यथा शकुनिमारकाश्छदैरात्मानमावृत्य 5 शकुनीन् गृह्णन्तः स्वकीयमायया शकुनिमायां छादयन्ति, तथा असत्यवादी निह्नवी अपलापकः स्वकीयाया मूलगुणोत्तरगुणप्रतिसेवायाः सूत्रार्थयोर्वा महामोहं प्रकरोतीति सप्तमम् ७ । धंसेइ जो अभूएणं अकम्मं अत्तकम्मुणा । अदुवा तुममकासि त्ति महामोहं पकुव्वइ ॥८॥ 10 ध्वंसयति छायया भ्रंशयति यः पुरुषोऽभूतेन असद्भूतेन, कम् ? अकर्मकम् अविद्यमानदुश्चेष्टितम् आत्मकर्मणा आत्मकृतऋषिघातादिना दुष्टव्यापारेण अदुवा अथवा यदन्येन कृतं तदाश्रित्य परस्य समक्षमेव त्वमकार्षीरेतन्महापापमिति वदति, वदिक्रियायाः गम्यमानत्वात् स इत्यस्यापि गम्यमानत्वात् स महामोहं प्रकरोतीत्यष्टमम् ८ । जाणमाणो परिसओ सच्चामोसाणि भासति । 15 अक्खीणझंझे पुरिसे महामोहं पकुव्वति ॥९॥ जानानः यथा अनृतमेतत्, परिषदः सभाया बहुजनमध्ये इत्यर्थः, सत्यामृषाणि किञ्चित्सत्यानि बैह्वसत्यानि वस्तूनि वाक्यानि वा भाषते अक्षीणझञ्झः अनुपरतकलहः यः स इति गम्यते, महामोहं प्रकरोतीति नवमम् ९ । अणायगस्स नयवं दारे तस्सेव धंसिया । 20 विउलं विक्खोभइत्ताणं किच्चा णं पडिबाहिरं ॥ उवगसंतं पि झंपिता पडिलोमाहिं वग्गूहिं । भोगभोगे वियारेति महामोहं पकुव्वति ॥१०॥ अनायकः अविद्यमाननायको राजा, तस्य, नयवान् नीतिमानमात्यः, स तस्यैव १. स नास्ति खं० हे१ ॥ २. प्रतिषु पाठः- सत्यामृषाणि किंचित्स' हे२ । सत्यमृषा किंचित्स हे२ विना ॥ ३. बहून्यसत्यानि जे२ । बह्वसत्यानि नास्ति खं० ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ [सू० ३०] त्रिंशत्स्थानकम् । राज्ञो दारान् कलत्रं द्वारं वा अर्थागमस्योपायं ध्वंसयित्वा भोगभोगान् विदारयतीति सम्बन्धः, किं कृत्वा ? विपुलं प्रचुरमत्यर्थमित्यर्थः, विक्षोभ्य सामन्तादिपरिकरभेदेन संक्षोभ्य नायकम्, तस्य क्षोभं जनयित्वेत्यर्थः, कृत्वा विधाय णमित्यलङ्कारे प्रतिबाह्यम् अनधिकारिणं दारेभ्योऽर्थागमद्वारेभ्यो वा, दारान् राज्यं वा स्वयमधिष्ठायेत्यर्थः । तथा उपकसन्तमपि समीपमागच्छन्तमपि, सर्वस्वापहारे 5 कृते प्राभृतेनानुलोमैः करुणैश्च वचनैरनुकूलयितुमुपस्थितमित्यर्थः, झम्पयित्वा नष्टवचनावकाशं कृत्वा प्रतिलोमाभिः तस्य प्रतिकूलाभिर्वाग्भिः वचनैरेतादृशस्तादृशस्त्वमित्यादिभिरित्यर्थः, भोगभोगान् विशिष्टान् शब्दादीन् विदारयति हरति योऽसौ महामोहं प्रकरोतीति दशमम् १० । अकुमारभूए जे केइ कुमारभूए त्तऽहं वए । ___ 10 इत्थीहिं गिद्धे वसए महामोहं पकुव्वति ॥११॥ अकुमारभूतः अकुमारब्रह्मचारी सन् यः कश्चित् कुमारभूतोऽहं कुमारब्रह्मचारी अहमिति वदति, अथ च स्त्रीषु गृद्धो वशकश्च स्त्रीणामेवायत्त इत्यर्थः, अथवा वसति आस्ते स महामोहं प्रकरोतीत्येकादशम् ११ । अभयारी जे केइ बंभयारि तऽहं वए । गद्दभे व्व गवं मझे विस्सरं नदई नदं ॥ अप्पणो अहिए बाले मायामोसं बहुं भसे । इत्थीविसयगेहीए महामोहं पकुव्वइ ॥१२॥ अब्रह्मचारी मैथुनादनिवृत्तो यः कश्चित् तत्काल एवाऽऽसेव्याब्रह्मचर्यं ब्रह्मचारी साम्प्रतमहमित्यतिधूर्ततया परप्रवञ्चनाय वदति, तथा य एवमशोभावहं सतामनादेयं 20 भणन् गर्दभ इव गवां मध्ये विस्वरं न वृषभवन्मनोज्ञं नदति मुञ्चति नदं नादं शब्दमित्यर्थः, तथा य एवं भणन्नात्मनोऽहितो न हितकारी बालो मूढो मायामृषां १. विशिष्टशब्दादीन् जे२ हे१,२ ॥ २. परप्रपंचनाय हे२ विना ॥ ३. मायामृषा खं० जे१ हे१ । मायां मृषां जे२ ॥ 15 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे बहु शाठ्यानृतं प्रभूतं भषते, श्वेव निन्दितं भाषते, कया? स्त्रीविषयगृद्ध्या हेतुभूतया, स इत्थंभूतो महामोहं प्रकरोतीति द्वादशम् १२ । जं निस्सिए उव्वहती जससा अहिगमेण वा । तस्स लुब्भइ वित्तम्मि महामोहं पकुव्वइ ॥१३॥ 5 यं राजानं राजामात्यादिकं वा निश्रित आश्रित उद्वहते जीविकालाभेनात्मानं धारयति, कथम् ? यशसा तस्य राजादेः सत्कोऽयमिति प्रसिद्ध्या अभिगमनेन वा सेवया आश्रितराजादेस्तस्य निर्वाहकारणस्य राजादेर्लुभ्यति वित्ते द्रव्ये यः स महामोहं प्रकरोतीति त्रयोदशम् १३। इस्सरेण अदुवा गामेणं अणिस्सरे इस्सरीकए । ___10 तस्स संपग्गहीयस्स सिरी अतुलमागया । ईसादोसेण आइडे कलुसाविलचेयसे । जे अंतरायं चेएइ महामोहं पकुव्वति ॥१४॥ ईश्वरेण प्रभुणा अदुवा अथवा ग्रामेण जनसमूहेन अनीश्वर ईश्वरीकृतः तस्य पूर्वावस्थायामनीश्वरस्य सम्प्रगृहीतस्य पुरस्कृतस्य प्रभ्वादिना श्री: लक्ष्मीरतुला 15 असाधारणा आगता प्राप्ता, अतुलं वा यथा भवतीत्येवं श्री: समागता आगतश्रीकश्च प्रभ्वाद्युपकारकविषये ईर्ष्यादोषेणाविष्टो युक्तः कलुषेण द्वेषलोभादिलक्षणपापेनाऽऽविलं गडुलमाकुलं वा चेतो यस्य स तथा योऽन्तरायं व्यवच्छेदं जीवित-श्री-भोगानां चेतयते करोति प्रभ्वादेरसौ महामोहं प्रकरोतीति चतुर्दशम् १४ । सप्पी जहा अंडउडं भत्तारं जो विहिंसइ । सेणावई पसत्थारं महामोहं पकुव्वइ ॥१५॥ सप्पी नागी यथा अंडउडं अण्डककूटं स्वकीयमण्डकसमूहमित्यर्थः, अण्डस्य वा पुटं सम्बद्धदलद्वयरूपं हिनस्ति, एवं भर्तारं पोषयितारं यो विहिनस्ति सेनापति राजानं प्रशास्तारम् अमात्यं धर्मपाठकं वा स महामोहं प्रकरोतीति, तन्मरणे बहुजनदुःस्थता भवतीति पञ्चदशम् १५ । 20 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ [सू० ३०] त्रिंशत्स्थानकम् । जे नायगं व रट्ठस्स नेयारं निगमस्स वा । सेटिं बहरवं हंता महामोहं पकुव्वति ॥१६॥ यो नायकं वा प्रभुं राष्ट्रस्य राष्ट्रमहत्तरादिकमिति भावः, तथा नेतारं प्रवर्तयितारं प्रयोजनेषु निगमस्य वाणिजकसमूहस्य, कम् ? श्रेष्ठिनं श्रीदेवताकितपट्टबद्धम्, किंभूतम् ? बहुरवं भूरिशब्दं प्रचुरयशसमित्यर्थः हत्वा महामोहं प्रकुरुत इति षोडशम् 5 १६। बहजणस्स यारं दीवं ताणं च पाणिणं । एयारिसं नरं हंता महामोहं पकुव्वति ॥१७॥ बहुजनस्य पञ्चषादीनां लोकानां नेतारं नायकं द्वीप इव द्वीपः संसारसागरगतानामाश्वासस्थानम्, अथवा दीप इव दीपोऽज्ञानान्धकारावृत- 10 बुद्धिदृष्टिप्रसराणां शरीरिणां हेयोपादेयवस्तुस्तोमप्रकाशकत्वात्, तम्, अत एव त्राणम् आपद्रक्षणं प्राणिनामेतादृशं यादृशा गणधरादयो भवन्ति, नरं प्रावचनिकादिपुरुषं हत्वा महामोहं प्रकरोतीति सप्तदशम् १७ । उवट्ठियं पडिविरयं संजयं सुतवस्सियं । वोकम्म धम्मओ भंसे महामोहं पकुव्वति ॥१८॥ उपस्थितं प्रव्रज्यायाम्, प्रविव्रजिषुमित्यर्थः, प्रतिविरतं सावद्ययोगेभ्यो निवृत्तम्, प्रव्रजितमेवेत्यर्थः, संयतं साधुम्, सुतपस्विनं तपांसि कृतवन्तं शोभनं वा तपः श्रितम् आश्रितम्, क्वचित् जे भिक्खं जगजीवणं ति पाठः, तत्र जगन्ति जङ्गमानि अहिंसकत्वेन जीवयतीति जगजीवनस्तं विविधैः प्रकारैरुपक्रम्याक्रम्य व्युपक्रम्य, बलादित्यर्थः, धर्मात् श्रुत-चारित्रलक्षणाद् भ्रंशयति यः स महामोहं प्रकरोतीति 20 अष्टादशम् १८ । तहेवाणतणाणीणं जिणाणं वरदंसिणं । तेसिं अवण्णिमं बाले महामोहं पकुव्वति ॥१९॥ यथैव प्राक्तनं मोहनीयस्थानं तथैवेदमपि, अनन्तज्ञानिनां ज्ञानस्यानन्तविषयत्वेन १. व्युपाक्रम्य जे२ । व्युपक्रम्य नास्ति जे१ हे१,२ ॥ 15 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अक्षयत्वेन वा जिनानाम् अर्हतां वरदर्शिनां क्षायिकदर्शनित्वात् तेषां ये ज्ञानाद्यनेकातिशयसम्पदुपेतत्वेन भुवनत्रये प्रसिद्धाः अवर्णः अवर्णवादो वक्तव्यत्वेन यस्यास्ति सोऽवर्णवान्, यथा- नास्ति कश्चित् सर्वज्ञः, ज्ञेयस्यानन्तत्वात्, उक्तं च अज वि धावइ नाणं अज वि य अणंतओ अलोगो वि । अज वि न कोई विउहं पावति सव्वन्नुयं जीवो ॥ अह पावति तो संतो होइ अलोओ न चेयमिढे ति । [ ] त्ति । अदूषणं चैतद्, उत्पत्तिसमय एव केवलज्ञानं युगपल्लोकालोकौ प्रकाशयदुपजायते, यथाऽपवरकान्तर्वर्त्तिदीपकलिका अपवरकमध्यमित्यभ्युपगमादिति, बालः अज्ञो महामोहं प्रकरोतीति एकोनविंशतितमम् १९ । 10 नेयाउयस्स मग्गस्स दुट्टे अवयरई बहुं । तं तिप्पयंतो भावेति महामोहं पकुव्वति ॥२०॥ नैयायिकस्य न्यायमनतिक्रान्तस्य मार्गस्य सम्यग्दर्शनादेः मोक्षपथस्य दुष्टो द्विष्टो वा अपकरोति अपकारं करोतीति, बहु अत्यर्थम्, पाठान्तरेण अपहरति बहुजनं विपरिणमयतीति भावः, तं मागं तिप्पयंतो त्ति निन्दन् भावयति निन्दया द्वेषेण वा 15 वासयति आत्मानं परं च यः स महामोहं प्रकरोतीति विंशतितमम् २० । आयरियउवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए । ते चेव खिंसती बाले महामोहं पकुव्वति ॥२१॥ आचार्योपाध्यायैर्यैः श्रुतं स्वाध्यायं विनयं च चरित्रं ग्राहितः शिक्षितः तानेव खिंसति निन्दति अल्पश्रुता एते' इत्यादि ज्ञानतः, 'अन्यतीर्थिकसंसर्गकारिणः' इत्यादि 20 दर्शनतः, 'मन्दधर्माणः पार्श्वस्थादिस्थानवर्तिनः' इत्यादि चरित्रतः, यः स एवंभूतो बालो महामोहं प्रकरोतीत्येकविंशतितमम् २१ । आयरियउवज्झायाणं सम्मं नो पडितप्पड़ । अप्पडिपूयए थद्धे महामोहं पकुव्वति ॥२२॥ १. अलोगो त्ति । जे२ हे१,२ ॥ २. `णामयतीति खं० ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [सू० ३०] त्रिंशत्स्थानकम् । ___ आचार्यादीन् श्रुतदान-ग्लानावस्थाप्रतिचरणादिभिस्तर्पितवतः उपकृतवतः सम्यक् न प्रतितपयति विनयाहारोपध्यादिभिर्न प्रत्युपकरोति, तथा अप्रतिपूजको न पूजाकारी, तथा स्तब्धो मानवान् स महामोहं प्रकरोतीति द्वाविंशतितमम् २२ । अबहुस्सुए य जे केइ सुएण पविकंथई । सज्झायवायं वयति महामोहं पकुव्वति ॥२३॥ अबहुश्रुतश्च यः कश्चित् श्रुतेन प्रविकत्थते आत्मानं श्लाघते श्रुतवानहमनुयोगधरोऽहमित्येवम्, अथवा कस्मिंश्चित् ‘स त्वमनुयोगाचार्यो वाचको वा' इति पृच्छति प्रतिभणति- आमम्, स्वाध्यायवादं वदति विशुद्धपाठकोऽहमित्यादिकं यः स महामोहं श्रुतालाभहेतुं प्रकरोतीति त्रयोविंशतितमम् २३ । अतवस्सिए य जे केइ तवेण पविकंथइ । । सव्वलोयपरे तेणे महामोहं पकुव्वति ॥२४॥ सुगमम्, नवरं सर्वलोकात् सर्वजनात् सकाशात् परः प्रकृष्टः स्तेनः चौरो भावचौरत्वात् महामोहम् अतपस्विताहेतुं प्रकरोतीति चतुर्विंशतितमम् २४ । साहारणट्ठा जे केइ गिलाणम्मि उवट्ठिए ।। पभू ण कुव्वई किच्चं मज्झं पि से न कुव्वति ॥ सढे नियडिपण्णाणे कलुसाउलचेयसे । अप्पणो य अबोहीए महामोहं पकुव्वति ॥२५॥ साधारणार्थमुपकारार्थं यः कश्चिदाचार्यादिग्लाने रोगवति उपस्थिते प्रत्यासन्नीभूते प्रभुः समर्थ उपदेशेनौषधादिदानेन च स्वतोऽन्यतश्चोपकारे न करोति कृत्यमुपेक्षते 20 इत्यर्थः, केनाभिप्रायेणेत्याह- ममाप्येष न करोति किंचनापि कृत्यं समर्थोऽपि सन्निति द्वेषेण, असमर्थो वाऽयं बालत्वादिना, किं कृतेनास्य ? पुनरुपकर्तुमशक्तत्वादिति लोभेनेति, शठः कैतवयुक्तः शक्तिलोपनात्, निकृति: माया तद्विषये प्रज्ञानं यस्य स तथा, ग्लानः प्रतिचरणीयो मा भवत्विति ग्लानवेषमहं करोमीति विकल्पवानित्यर्थः, अत एव कलुषाकुलचेताः आत्मनश्चाबोधिको भवान्तराप्राप्तव्यजिनधर्मको 25 15 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ग्लानाप्रतिजागरणेनाऽऽज्ञाविराधनात्, चशब्दात् परेषां चाऽबोधिकः अविद्यमाना बोधिरस्मादिति व्युत्पादनात्, ये हि तदीयं ग्लानाप्रतिचरणमुपलभ्य जिनधर्मपराङ्मुखा भवन्ति तेषामबोधिस्तत्कृतेति स एवम्भूतो महामोहं प्रकरोतीति पञ्चविंशतितमम् २५। जो कहाहिगरणाई संपउंजे पुणो पुणो । 5 सव्वतित्थाण भेयाय महामोहं पकुव्वति ॥२६॥ यः कथा वाक्यप्रबन्धः, शास्त्रमित्यर्थः, तद्रूपाण्यधिकरणानि कथाधिकरणानि कौटिल्यशास्त्रादीनि प्राण्युपमर्दनप्रवर्तकत्वेन तेषामात्मनो दुर्गतावधिकारित्वकरणात्, कथया वा क्षेत्राणि कृषत, गा नस्तयत' इत्यादिकया अधिकरणानि तथाविधप्रवृत्तिरूपाणि, अथवा कथा राजकथादिका अधिकरणानि च यन्त्रादीनि 10 कलहा वा कथाधिकरणानि तानि सम्प्रयुङ्क्ते पुनः पुनः, एवं सर्वतीर्थानां भेदाय संसारसागरतरणकारणत्वात् तीर्थानि ज्ञानादीनि तेषां सर्वथा नाशाय प्रवर्त्तमानः स महामोहं प्रकरोतीति षड्विंशतितमम् २६ । जे य आहम्मिए जोए संपउंजे पुणो पुणो । साहाहेउं सहीहेडं महामोहं पकुव्वति ॥२७॥ 15 कण्ठ्यम्, नवरम् अधार्मिका योगा निमित्त-वशीकरणादिप्रयोगाः, किमर्थम् ? श्लाघाहेतोः, सखिहेतोः मित्रनिमित्तमित्यर्थः, इति सप्तविंशतितमम् २७ । जे य माणुस्सए भोए अदुवा पारलोइए । तेऽतिप्पयंतो आसयति महामोहं पकुव्वति ॥२८॥ यश्च मानुष्यकान् भोगान् अथवा पारलौकिकान् ते त्ति विभक्तिपरिणामात्तैस्तेषु 20 वा अतृप्यन् तृप्तिमगच्छन् आस्वदते अभिलषति आश्रयति वा स महामोहं प्रकरोतीति अष्टविंशतितमम् २८।। इड्डी जुती जसो वण्णो देवाणं बलवीरियं । तेसिं अवण्णिम बाले महामोहं पकुव्वति ॥२९॥ ऋद्धिः विमानादिसम्पत्, द्युतिः शरीराभरणदीप्तिः, यश: कीर्तिः, वर्णः शुक्लादिः 25 शरीरसम्बन्धी, देवानां वैमानिकादीनां बलं शारीरं वीर्यं जीवप्रभवम्, अस्तीत्यध्याहारः, Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३१] एकत्रिंशत्स्थानकम् । ११३ तेषामिह अपेर्गम्यमानत्वात् तेषामपि देवानामनेकातिशायिगुणवतामवर्णवान् अश्लाघाकारी, अथवा अवर्णवान्, केनोल्लापेन ? देवानामृद्धिर्देवानां द्युतिरित्यादि काक्वा व्याख्येयम्, न किञ्चिद् देवानामृद्ध्यादिकमस्तीत्यवर्णवादवाक्यभावार्थः, य एवम्भूतः स महामोहं प्रकरोतीति एकोनत्रिंशत्तमम् २९ । अपस्समाणो पस्सामि देवे जक्खे य गुज्झगे । अण्णाणी जिणपूयट्ठी महामोहं पकुव्वति ॥३०॥ अपश्यन्नपि यो ब्रूते पश्यामि देवानित्यादिस्वरूपेण, अज्ञानी, जिनस्येव पूजामर्थयते यः स जिनपूजार्थी, गोशालकवत्, स महामोहं प्रकरोतीति त्रिंशत्तमम् ३० । रौद्रादयो मुहूर्ता आदित्योदयादारभ्य क्रमेण भवन्ति, एतेषां च मध्ये मध्यमाः षट् कदाचिद् दिनेऽन्तर्भवन्ति कदाचिद्रात्राविति ॥३०॥ . 10 [सू० ३१] [१] एक्कतीसं सिद्धाइगुणा पण्णत्ता, तंजहा- खीणे आभिणिबोहियणाणावरणे, सुयणाणावरणे, ओहिणाणावरणे, मणपजवणाणावरणे, खीणे केवलणाणावरणे । खीणे चक्खुदंसणावरणे, एवं अचक्खुदंसणावरणे, ओहिदंसणावरणे, केवलदसणावरणे, निद्दा, णिद्दाणिद्दा, पयला, पयलापयला, खीणे थिणगिद्धी । खीणे सातावेयणिज्जे, 15 खीणे असायावेयणिजे । खीणे दंसणमोहे, खीणे चरित्तमोहणिजे । खीणे नेरइयाउए, तिरियाउए, माणुसाउए, देवाउए। खीणे उच्चागोए, खीणे निच्चागोए, एवं सुभणामे, असुभणामे । खीणे दाणंतराए, एवं लाभ-भोगउवभोग-वीरियंतराए ३१ ।। __ मंदरे णं पव्वते धरणितले एक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे जोयणसते 20 किंचिदेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते । जया सूरिए सव्वबाहिरयं मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरति तया णं इहगयस्स मणूसस्स एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहिं अट्ठहि य एक्कतीसेहिं जोयणसतेहिं तीसाए सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हव्वमागच्छति। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अभिवहिए णं मासे एकतीसं सातिरेगाणि रातिंदियाणि रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते । आइच्चे णं मासे एकतीसं रातिंदियाणि किंचिविसेसूणाणि रातिंदियग्गेणं पण्णत्ते । 5 [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एक्कतीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता १। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं एकतीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं एक्कतीसं पलिओवमाइं ठिती 10 पण्णत्ता ३॥ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं एक्कतीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिताणं देवाणं जहण्णेणं एक्कतीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। 15 जे देवा उवरिमउवरिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६। [३] ते णं देवा एक्कतीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १॥ तेसि णं देवाणं एकतीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जति २। 20 संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कतीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] एकत्रिंशत्स्थानकं सुगमम्, नवरं सिद्धानामादौ सिद्धत्वप्रथमसमय एव गुणाः सिद्धादिगुणाः, ते चाभिनिबोधिकावरणादिक्षयस्वरूपा इति । मन्दरो मेरुः, स च धरणीतले दशसहस्रविष्कम्भ इति कृत्वा यथोक्तपरिधिप्रमाणो 25 भवतीति । | Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३२] एकत्रिंशत्स्थानकम् । ११५ __ जया णं सूरिए इत्यादि, किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिकं मण्डलशतं भवति, मण्डलं च ज्योतिष्कमार्गोऽभिधीयते, तत्र जम्बूद्वीपस्यान्तः अशीत्यधिके योजनशते पञ्चषष्टिः सूर्यमण्डलानि भवन्ति, तथा लवणसमुद्रे त्रीणि त्रिंशदधिकानि योजनशतान्यवगाबैकोनविंशत्यधिकं सूर्यमण्डलशतं भवति, तत्र च सर्वबाह्यं समुद्रान्तर्गतमण्डलानां पर्यन्तिमम्, तस्य चायामविष्कम्भौ लक्षं षट् शतानि च योजनानां 5 षष्ट्यधिकानि, परिधिस्तु वृत्तक्षेत्रगणितन्यायेन त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ३१८३१५, एतावच्च क्षेत्रमादित्योऽहोरात्रद्वयेन गच्छति, तत्र च षष्टिर्मुहूर्ता भवन्तीति षष्ट्या भागापहारे यल्लब्धं तन्मुहूर्तगम्यक्षेत्रप्रमाणं भवति, तच्च पञ्च सहस्राणि त्रीणि च पञ्चोत्तराणि शतानि पञ्चदश च योजनषष्टिभागाः ५३०५ १५ , एतच्च दिवसार्द्धन गुण्यते, यदा च सर्वबाह्ये मण्डले सूर्यश्चरति तदा 10 दिनप्रमाणं द्वादश मुहूर्ताः, तदर्द्धं च षट्, अतः षड्भिर्मुहूतैर्गुणितं मुहूर्तगतिप्रमाणं चक्षुःस्पर्शप्रमाणं भवति, तत्र एकत्रिंशत् सहस्राणि अष्टौ च शतान्येकत्रिंशदधिकानि त्रिंशच्च योजनषष्टिभागाः ३१८३१३।। अभिवर्द्धितमासः अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य चतुश्चत्वारिंशदहोरात्रद्विषष्टिभागा- 15 धिकत्र्यशीत्यधिकशतत्रयरूपस्य ३८३ १३ द्वादशो भागः, अभिवर्द्धितसंवत्सरश्चासौ यत्राधिकमासको. भवति त्रयोदशचन्द्रमासात्मकत्वाच्चन्द्रमासश्च एकोनत्रिंशता दिनानां द्वात्रिंशता च दिनद्विषष्टिभागानां भवतीति। साइरेगाई ति अहोरात्रस्य चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानामेकविंशत्युत्तरशतेनाधिकानीति । आदित्यमासो येन कालेनादित्यो राशिं भुङ्क्ते, किंचिविसेसूणाई ति अहोरात्रार्द्धन 20 न्यूनानीति ॥३१॥ [सू० ३२] [१] बत्तीसं जोगसंगहा पण्णत्ता, तंजहा१. विष्कम्भो खं० हे१,२ ॥ २. यत्राधिमासको जे२ । यत्राधिकमासो हे१ ॥ ३. आवश्यकसूत्रे चतुर्थेऽध्ययने 'बत्तीसाए जोगसंगहेहिं' इति सूत्रस्य हारिभद्र्यां वृत्तौ विस्तरेण द्वात्रिंशतो योगसंग्रहानां वर्णनं वर्तते, विशेषजिज्ञासुभिस्तत्र द्रष्टव्यम् ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे आलोयणा १ निरवलावे २, आवतीसु दढधम्मया ३ । अणिस्सितोवहाणे य ४, सिक्खा ५ निप्पडिकम्मया ६ ॥५३॥ अण्णातता ७ अलोभे य ८, तितिक्खा ९ अजवे १० सुई ११ । सम्मद्दिट्ठी १२ समाही य १३, आयारे १४ विणओवए १५ ॥५४॥ 5 धितीमती य १६ संवेगे १७, पणिही १८ सुविहि १९ संवरे २० । अत्तदोसोवसंहारे २१, सव्वकामविरत्तया २२ ॥५५॥ पच्चक्खाणे २३-२४ विओसग्गे २५, अप्पमादे २६ लवालवे २७ । झाणसंवरजोगे य २८, उदए मारणंतिए २९ ॥५६॥ संगाणं च परिण्णा य ३०, पायच्छित्तकरणे ति य ३१ । 10 आराहणा य मरणंते ३२, बत्तीसं जोगसंगहा ॥५७॥ बत्तीसं देविंदा पण्णत्ता, तंजहा- चमरे, बलि, धरणे, भूयाणंदे जाव घोसे, महाघोसे, चंदे, सूरे, सक्के, ईसाणे, सणंकुमारे जाव पाणते, अच्चुते। कुंथुस्स णं अरहओ बत्तीसं जिणा बत्तीसं जिणसया होत्था । सोहम्मे कप्पे बत्तीसं विमाणावाससतसहस्सा पण्णत्ता । ____15 रेवतिणक्खत्ते बत्तीसतितारे पण्णत्ते । बत्तीसतिविहे गट्टे पण्णत्ते । [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं बत्तीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता १। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिती 20 पण्णत्ता २॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं बत्तीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं बत्तीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४॥ जे देवा विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजितविमाणेसु देवत्ताते उववण्णा Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३२] द्वात्रिंशत्स्थानकम् । - तेसि गं देवाणं अत्थेगतियाणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ५। __ [३] ते णं देवा बत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ११ तेसि णं देवाणं बत्तीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पजति २॥ __ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे बत्तीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति] 5 जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति ३। [टी०] द्वात्रिंशत्स्थानकमपि व्यक्तम्, नवरं युज्यन्ते इति योगा: मनोवाक्कायव्यापाराः ते चेह प्रशस्ता एव विवक्षितास्तेषां शिष्याचार्यगतानामालोचना-निरपलापादिना प्रकारेण सङ्ग्रहणानि सङ्ग्रहाः प्रशस्तयोगसङ्ग्रहाः प्रशस्तयोगसङ्ग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते, ते च द्वात्रिंशद्भवन्ति, तदुपदर्शकं श्लोकपञ्चकम् आलोयणेत्यादि, 10 अस्य गमनिका-तत्र आलोयण त्ति मोक्षसाधकयोगसङ्ग्रहाय शिष्येणाचार्यायाऽऽलोचना दातव्या १, निरवलावे त्ति आचार्योऽपि मोक्षसाधकयोगसङ्ग्रहायैव दत्तायामाऽऽलोचनायां निरपलाप: स्यात्, नान्यस्मै कथयेदित्यर्थः २, आवईसु दढधम्मय त्ति प्रशस्तयोगसङ्ग्रहाय साधुनाऽऽपत्सु द्रव्यादिभेदासु दृढधर्मता कार्या, सुतरां तासु दृढधर्मणा भाव्यमित्यर्थः ३, अणिस्सिओवहाणे य त्ति 15 शुभयोगसङ्ग्रहायैवाऽनिश्रितं च तदन्यनिरपेक्षमुपधानं च तपोऽनिश्रितोपधानं परसाहाय्यानपेक्षं तपो विधेयमित्यर्थः ४, सिक्ख त्ति योगसङ्ग्रहाय शिक्षाऽऽसेवितव्या, सा च सूत्रार्थग्रहणरूपा प्रत्युपेक्षाद्यासेवनात्मिका चेति द्विधा ५, निप्पडिकम्मय त्ति तथैव निष्प्रतिकर्मता शरीरस्य विधेया ६, अण्णायय त्ति तपसोऽज्ञातता कार्या, यश:- पूजाद्यर्थित्वेनाऽप्रकाशयद्भिस्तपः कार्यमित्यर्थः ७, अलोभे य त्ति अलोभता 20 विधेया ८, तितिक्ख त्ति तितिक्षा परीषहादिजयः ९, अज्जवे त्ति आर्जवम् ऋजुभावः १०, सुइ त्ति शुचिः सत्यं संयम इत्यर्थः ११, सम्मद्दिट्टि त्ति सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दर्शनशुद्धिः १२, समाही य त्ति समाधिश्च चेतःस्वास्थ्यम् १३, आयारे विणओवए त्ति द्वारद्वयं तत्राचारोपगतः स्यात्, न मायां कुर्यादित्यर्थः १४, विनयोपगतो भवेत्, न मानं कुर्यादित्यर्थः १५, धिईमई यत्ति धृतिप्रधाना मतिकृतिमति: अदैन्यम् 25 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे १६, संवेगे त्ति संवेगः संसारभयं मोक्षाभिलाषो वा १७, पणिहि त्ति प्रणिधिः माया, सा न कार्येत्यर्थः १८, सुविहि त्ति सुविधिः सदनुष्ठानम् १९, संवरः आश्रवनिरोधः २०, अत्तदोसोवसंहारे त्ति स्वकीयदोषस्य निरोधः २१, सव्वकामविरत्तय त्ति समस्तविषयवैमुख्यम् २२, पच्चक्खाणे त्ति प्रत्याख्यानं मूलगुणविषयम् २३ 5 उत्तरगुणविषयं च २४, विओसग्गे त्ति व्युत्सर्गो द्रव्य-भावभेदभिन्नः २५, अप्पमाये त्ति प्रमादवर्जनम् २६, लवालवे त्ति कालोपलक्षणम्, तेन क्षणे क्षणे सामाचार्य्यनुष्ठानं कार्यम् २७, झाणसंवरजोगे यत्ति ध्यानमेव संवरयोगो ध्यानसंवरयोगः २८, उदए मारणंतिए त्ति मारणान्तिकेऽपि वेदनोदये न क्षोभः कार्यः २९, संगाणं च परिण त्ति सङ्गानां ज्ञपरिज्ञा-प्रत्याख्यानपरिज्ञाभेदभिन्ना परिज्ञा कार्या ३०, पायच्छित्तकरणे 10 इ य त्ति प्रायश्चित्तकरणं च कार्यम् ३१, आराधना च मरणान्ते मरणरूपोऽन्तो मरणान्तस्तत्र इत्येते द्वात्रिंशद्योगसङ्ग्रहा इति ३२ । इन्द्रसूत्रे यावत्करणात् ‘वेणुदेवे वेणुदाली हरिक्ते हरिस्सहे अग्गिसीहे अग्गिमाणवे पुण्णे वसिढे जलकंते जलप्पहे अमियगई अमियवाहणे वेलंबे पहंजणे' इति दृश्यम्, पुनः यावत्करणात् ‘माहिंदे बंभे लंतए सुक्के सहस्सारे' त्ति द्रष्टव्यम्, 15 इह च षोडशानां व्यन्तरेन्द्राणां षोडशानामेव चाणपण्यिकादीन्द्राणामल्पर्द्धिकत्वेनाविवक्षितत्वादसङ्ख्यातानामपि च चन्द्र-सूर्याणां जातिग्रहणेन द्वयोरेव विवक्षितत्वाद् द्वात्रिंशदिन्द्रा उक्ता इति । कुन्थुनाथस्य द्वात्रिंशदधिकानि द्वात्रिंशत् केवलिशतान्यभूवन् । द्वात्रिंशद्विधं नाट्यमभिनयविषयवस्तुभेदाद्यथा राजप्रश्नकृताभिधानद्वितीयोपाङ्ग इति सम्भाव्यते, द्वात्रिंशत्पात्रप्रतिबद्धमिति केचित् ॥३२॥ 20 [सू० ३३] [१] तेत्तीसं आसायणातो पण्णत्तातो, तंजहा- सेहे रातिणियस्स आसन्नं गंता भवति, [आसायणा सेहस्स] १, सेहे राइणियस्स पुरतो गंता भवति, [आसायणा सेहस्स २, सेहे राइणियस्स [स]पक्खं गंता भवति, आसायणा सेहस्स ३, सेहे रातिणियस्स आसन्नं ठिच्चा भवति, आसायणा १. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थेऽध्ययने ‘तेत्तीसाए आसायणाहिं' इति सूत्रस्य हारिभत्र्यां वृत्तावपि विस्तरेण वर्णनमस्ति। | Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्स्थानकम् । [सू० ३३] ११९ सेहस्स ४, जाव रातिणियस्स आलवमाणस्स तत्थगते चिय पडिसुणेति, [आसायणा सेहस्स] ३३, इति खलु एतातो तेत्तीसं आसायणातो ।। चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए एक्कमेक्के बारे तेत्तीसं तेत्तीसं भोमा पण्णत्ता । महाविदेहे णं वासे तेत्तीसं जोयणसहस्साइं सातिरेगाइं विक्खंभेणं पण्णत्ताई। 5 जया णं सूरिए बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरति तया णं इहंगतस्स पुरिसस्स तेत्तीसाए जोयणसहस्सेहिं किंचिविसेसूणेहिं चक्खुफासं हव्वमागच्छति । [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगतियाणं नेरइयाणं तेत्तीसं पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ११ 10 __ अहेसत्तमाए पुढवीए काल-महाकाल-रोरुय-महारोरुएसु नेरइयाणं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता २१ अप्पतिट्ठाणे नरए नेरइयाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ३॥ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगतियाणं तेत्तीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ४। 15 सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगतियाणं देवाणं तेत्तीसं पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता ५। विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजितेसु विमाणेसु, तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ६॥ जे देवा सव्वट्ठसिद्धं महाविमाणं देवत्ताते उववण्णा तेसि णं देवाणं 20 अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ७। . [३] ते णं देवा तेत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १॥ तेसि णं देवाणं तेत्तीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजति २॥ संतेगतिया भवसिद्धिया जीवा जे तेत्तीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति 25 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० - आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे [जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्संति] ३। [टी०] अथ त्रयस्त्रिंशत्स्थानकम्, तत्र आय: सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणः, तस्य शातनाः खण्डनाः निरुक्तादाशातनाः, तत्र शैक्षः अल्पपर्यायो रात्निकस्य बहुपर्यायस्य आसन्नम् आसत्त्या यथा रजोऽञ्चलादि तस्य लगति तथा गन्ता भवतीत्येवमाशातना 5 शैक्षस्येत्येवं सर्वत्र १, पुरओ त्ति अग्रतो गन्ता भवति २, सपक्खे त्ति समानपक्षं समपार्वं यथा भवति, समश्रेण्या गच्छतीत्यर्थः ३, ठिच्च त्ति स्थाता आसिता भवति, यावत्करणाद् दशाश्रुतस्कन्धानुसारेणान्या इह द्रष्टव्याः, ताश्चैवमर्थतः- आसन्नं पुरः पार्श्वतः स्थानेन तिम्रो ३ निषदनेन च तिम्रः ३, तथा विचारभूमौ गतयोः पूर्वतरमाचमतः शैक्षस्याशातना १०, एवं पूर्वं गमनागमनमालोचयतः ११, तथा रात्रौ को जागर्तीति 10 पृष्टे रात्निकेन तद्वचनमप्रतिशृण्वतः १२, रात्निकस्य पूर्वमालपनीयं कंचन अवमस्य पूर्वतरमालपतः १३, अशनादि लब्धमपरस्य पूर्वमालोचयतः १४, एवमन्यस्योपदर्शयतः १५, एवं निमन्त्रयतः १६, रात्निकमनापृच्छ्यान्यस्मै भक्तादि ददतः १७, स्वयं प्रधानतरं भुञ्जानस्य १८, क्वचित् प्रयोजने व्याहरतो रात्निकस्य वचोऽप्रतिशृण्वतः १९, रात्निकं प्रति तत्समक्षं वा बृहता शब्देन बहुधा भाषमाणस्य २०, व्याहतेन ‘मस्तकेन वन्दे' 15 इति वक्तव्ये किं भणसीति ब्रुवाणस्य २१, प्रेरयति रात्निके कस्त्वं प्रेरणायामिति वदतः २२, आर्य ! ग्लानं किं न प्रतिचरसीत्याधुक्ते त्वं किं न तं प्रतिचरसीत्यादि भणतः २३, धर्मं कथयति गुरावन्यमनस्कतां भजतोऽननुमोदयत इत्यर्थः २४, कथयति गुरौ न स्मरसीति वदतः २५, धर्मकथामाच्छिन्दतः २६, भिक्षावेला वर्तते इत्यादिवचनतः पर्षदं भिन्दानस्य २७, गुरुपर्षदोऽनुत्थितायास्तथैव व्यवस्थिताया धर्मं कथयतः २८, 20 गुरोः संस्तारकं पादेन घट्टयतः २९, गुरोः संस्तारके निषीदतः ३०, उच्चासने निषीदतः १. स्यैव सर्वत्र जे२ ॥ २. द्रष्टव्या इह जे२ ॥ ३. आसन्नपुरः जे१,२, हे१,२ ॥ ४. च नास्ति जे२ हे१ ॥ ५. प्रवचनसारोद्धारेऽपि द्वितीये वन्दनकद्वारे १२९-१४९ गाथासु त्रयस्त्रिंशदाशातनास्वरूपं विस्तरेण वर्णितमस्ति। तत्र द्वादशी आशातना अप्रतिश्रवणम्, एकोनविंशतितम्याशातनापि अप्रतिश्रवणम्, अतः प्रवचनसारोद्धारटीकायां स्पष्टीकरणमित्थं विहितम्- “इदानीमेकोनविंशतितमीमाह- एवं अप्पडिसुणणे त्ति सूरेः शब्दं कुर्वतोऽप्रतिश्रवणे आशातना, नन्वियं अप्पडिसुणणे त्ति [१२] द्वारे पूर्वव्याख्यातैव किमर्थं पुनर्भण्यते ? इत्यत्राह- नवरमिणं दिवसविसयं ति इदमप्रतिश्रवणं दिवसे सामान्येनोक्तम्, पाश्चात्त्यं तु विलसदन्धकारायां रात्रौ न कोऽपि जाग्रतं सुप्तं वा मां ज्ञास्यतीत्यप्रतिश्रवणमिति द्वयोरनयोर्भेदः १९ ॥११४॥" Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३३] त्रयस्त्रिंशत्स्थानकम् । १२१ ३१, समासनेऽप्येवं ३२, त्रयस्त्रिंशत्तमा(मी?) सूत्रोक्तैव, रात्निकस्यालपतस्तत्रगत एव आसनादिस्थित एव प्रतिशृणोति, आगत्य हि प्रत्युत्तरं देयमिति शैक्षस्याशातनेति ३३। तेत्तीसं तेत्तीसं भोम त्ति भौमानि नगराकाराणि, विशिष्टस्थानानीत्यन्ये । तथा जया णं सूरिए इत्यादि, इह सूर्यस्य मण्डलयोरन्तरं द्वे द्वे 5 योजनेऽष्टचत्वारिंशच्चैकषष्टिभागाः, एतद्विगुणं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागाः, एतावता हीनं विष्कम्भतः सर्वबाह्यमण्डलाद् द्वितीयं मण्डलं भवति, ततश्च वृत्तक्षेत्रपरिधिगणितन्यायेन परिधितः सप्तदशभिर्योजनैरष्टत्रिंशता चैकषष्टिभागैयूंनं द्वितीयमण्डलं सर्वबाह्यमण्डलाद्भवति, एवं तृतीयमण्डले एतद्विगुणेन हीनं भवति, तथाहि- तद्विष्कम्भत एकादशभिर्योजनैर्नवभिश्चैकषष्टिभागैः पर्यन्तिमाद्धीनं भवति, 10 परिधितस्तु पञ्चत्रिंशता योजनैः पञ्चदशभिश्चैकषष्टिभागैयूंनं भवति, तच्च त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्युत्तरे षट्चत्वारिंशच्चैकषष्टिभागा इति, तथा अन्तिममण्डलान्मण्डले मण्डले द्वाभ्यां मुहूर्तस्यैकषष्टिभागाभ्यां दिनवृद्धिर्भवति, तथा च तृतीये मण्डले यदा सूर्यश्चरति तदा द्वादश मुहूर्ताश्चत्वारश्चैकषष्टिभागा मुहूर्तस्य दिनप्रमाणं भवति, तदढे चैकषष्टिभागीकृतेनाष्टषष्ट्यधिकशतत्रयलक्षणेन, स्थूलगणितस्य 15 विवक्षितत्वात् परित्यक्तांशे ३१८२७९ तृतीयमण्डलपरिधौ गुणिते सति एकषष्ट्या च षष्टिगुणितया भागे हृते यल्लभ्यते तत्तृतीयमण्डले चक्षुःस्पर्शप्रमाणं भवति, तच्च द्वात्रिंशत् सहस्राण्येकोत्तराणि ३२००१ अंशानामेकषष्ट्या भागलब्धाश्चैकोनपञ्चाशत् षष्टिभागा योजनस्य ४९ त्रयोविंशतिश्चैकषष्टिभागा योजनषष्टिभागस्य २३ , एतत्तृतीयमण्डले चक्षुःस्पर्शस्य प्रमाणं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यामुपलभ्यते, इह तु यदुक्तं त्रयस्त्रिंशत् किञ्चिन्न्यूना, 20 तत्र सातिरेकस्य योजनस्यापि न्यूनसहस्रता विवक्षितेति सम्भाव्यते, चतुर्दशे मण्डले १. “जया णं भंते सूरिए बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ ! गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साई तिण्णि य चउरुत्तरे जोयणसए इगुणालीसं च सद्विभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ तया णं इहगयस्स मणूसस्स एगाहिएहिं बतीसाए जोयणसहस्सेहिं एगूणपन्नाए य सट्ठिभाएहिं जोयणस्स सट्ठिभागं च एगसट्टिहा छेत्ता तेवीसाए चुण्णियाभाएहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ ।" इति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ सप्तमे वक्षस्कारे ॥ २. सातिरेकयोजनस्यापि जे२ ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पुनरिदं यथोक्तमेव प्रमाणं भवति, प्रतिमण्डलं योजनचतुरशीत्याः साधिकायाः प्रथममण्डलमाने प्रक्षेपणादिति ॥३३॥ [सू० ३४] चोत्तीसं बुद्धातिसेसा पण्णत्ता, तंजहा- अवट्टिते केस-मंसुरोम-णहे १, निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी २, गोखीरपंडुरे मंससोणिते ३, 5 पउमुप्पलगंधिए उस्सासनिस्सासे ४, पच्छन्ने आहारनीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा ५, आगासगयं चक्कं ६, आगासगं छत्तं ७, आगासियाओ सेयवरचामरातो ८, आगासफालियामयं सपायपीढं सीहासणं ९, आगासगतो कुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामो इंदज्झओ पुरतो गच्छति १०, जत्थ जत्थ वि य णं अरहंता भगवंतो चिटुंति वा निसीयंति वा तत्थ तत्थ वि य णं 10 तक्खणादेव संछन्नपत्त-पुप्फ-पल्लवसमाउलो सच्छत्तो सज्झओ सघंटो सपडातो असोगवरपायवो अभिसंजायति ११, ईसि पिट्ठओ मउंडट्ठाणम्मि तेयमंडलं अभिसंजायति, अंधकारे वि य णं दस दिसातो पभासेति १२, बहुसमरमणिजे भूमिभागे १३, अहोसिरा कंटया भवंति १४, उडु अविवरीया सुहफासा भवंति १५, सीतलेणं सुहफासेणं सुरभिणा मारुएणं जोयणपरिमंडलं सव्वओ समंता 15 संपमज्जिज्जइ त्ति १६, जुत्तफुसिएण य मेहेण निहयरयरेणुयं कज्जति १७, जलथलयभासुरपभूतेणं विट्ठाइणा दसद्धवण्णेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाणमेत्ते पुप्फोवयारे कज्जति १८, अमणुण्णाणं सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाणं अवकरिसो भवति १९, मणुण्णाणं सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाणं पाउन्भावो भवति २०, पच्चाहरतो वि य णं हिययगमणीओ जोयणनीहारी सरो २१, भगवं च णं 20 अद्धमागधाए भासाए धम्ममातिक्खति २२, सा वि य णं अद्धमागधा भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसुपक्खि-सिरीसिवाणं अप्पप्पणो हितसिवसुहदा भासत्ताए परिणमति २३, पुव्वबद्धवेरा वि य णं देवासुर-नाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किंनर-किंपुरिस गरुल-गंधव्व-महोरगा अरहतो पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामेंति 25 २४, अण्णतित्थियपावयणी वि य णं आगया वंदंति २५, आगया समाणा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३४] चतुस्त्रिंशत्स्थानकम् । १२३ अरहओ पायमूले निप्पडिवयणा भवंति २६, जतो जतो वि य णं अरहंता भगवंतो विहरंति ततो ततो वि य णं जोयणपणुवीसाएणं ईती न भवति २७, मारी न भवति २८, सचक्कं न भवति २९, परचक्कं न भवति ३०, अतिवुट्ठी न भवति ३१, अणावुट्ठी न भवति ३२, दुब्भिक्खं न भवति ३३, पुव्वुप्पण्णा वि य णं उप्पातिया वाही खिप्पामेव उवसमंति ३४ । 5 जंबुद्दीवे णं दीवे चउत्तीसं चक्कवट्टिविजया पण्णत्ता, तंजहा- बत्तीसं महाविदेहे, भरहे, एरवए । जंबुद्दीवे णं दीवे चोत्तीसं दीहवेयड्डा पण्णत्ता । जंबुद्दीवे णं दीवे उक्कोसपदे चोत्तीसं तित्थकरा समुप्पज्जति । चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चोत्तीसं भवणावाससतसहस्सा पण्णत्ता। 10 पढम-पंचम-छट्ठी-सत्तमासु चउसु पुढवीसु चोत्तीसं निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता । [टी०] अथ चतुस्त्रिंशत्स्थानके किमपि लिख्यते- बुद्धाइसेस त्ति बुद्धानां तीर्थकृतामतिशेषाः अतिशया बुद्धातिशेषाः, अवस्थितम् अवृद्धिस्वभावं केशाच शिरोजाः श्मश्रूणि च कूर्चरोमाणि रोमाणि च शेषशरीरलोमानि नखाश्च प्रतीता इति 15 द्वन्द्वैकत्वमित्येकः १, निरामया नीरोगा निरुपलेपा निर्मला गात्रयष्टिः तनुलतेति द्वितीयः २, गोक्षीरपाण्डुरं मांसशोणितमिति तृतीयः ३, तथा पद्मं च कमलं गन्धद्रव्यविशेषो वा यत् पद्मकमिति रूढम् उत्पलं च नीलोत्पलमुत्पलकुष्ठं वा गन्धद्रव्यविशेषस्तयोर्यो गन्धः स यत्रास्ति तत्तथोच्छ्वासनिःश्वासमिति चतुर्थः ४, प्रच्छन्नमाहारनिरिम् अभ्यवहरण-मूत्रपुरीषोत्सर्गी, प्रच्छन्नत्वमेव स्फुटतरमाह- अदृश्यं 20 मांसर्चक्षुषा न पुनरवध्यादिलोचनेन पुंसा इति पञ्चमः ५, एतच्च द्वितीयादिकमतिशयचतुष्कं जन्मप्रत्ययम् । तथा आगासगयं ति आकाशगतं व्योमवर्ति आकाशकं वा प्रकाशकमित्यर्थः, चक्रं धर्मचक्रमिति षष्ठः ६, एवमाकाशगं छत्रं १. चक्षुषां जे२ हे२ ॥ २. आगासयं ति जे१,२ ॥ ३. आगासगं वाकाशकं वा प्रकाशमित्यर्थः जे२ हे१,२ । आकाशकं वा प्रकाशमित्यर्थः जे१ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे छत्रत्रयमित्यर्थ इति सप्तमः ७, आकाशके प्रकाशे श्वेतवरचामरे प्रकीर्णके इत्यष्टमः ८, आगासफालियामयं ति आकाशमिव यदत्यन्तमच्छं स्फटिकं तन्मयं सिंहासनं सह पादपीठेन सपादपीठमिति नवमः ९, आयासगओ त्ति आकाशगतोऽत्यर्थं तुङ्ग इत्यर्थः, कुडभि त्ति लघुपताकाः संभाव्यन्ते, तत्सहस्रैः 5 परिमण्डितश्चासावभिरामश्च अभिरमणीय इति विग्रहः, इंदज्झओ त्ति शेषध्वजापेक्षयाऽतिमहत्त्वादिन्द्रश्चासौ ध्वजश्च इन्द्रध्वज इति विग्रहः, इन्द्रत्वसूचको ध्वज इति वा, पुरओ त्ति जिनस्याग्रतो गच्छतीति दशमः १०, चिटुंति वा निसीयंति व त्ति तिष्ठन्ति गतिनिवृत्त्या निषीदन्ति उपविशन्ति, तक्खणादेव त्ति तत्क्षणमेव अकालहीनमित्यर्थः, पत्रैः संछन्नः पत्रसंछन्न इति वक्तव्ये प्राकृतत्वात् संछन्नपत्र इत्युक्तं 10 स चासौ पुष्पपल्लवसमाकुलश्चेति विग्रहः, पल्लवा: अङ्कुराः, सच्छत्रः सध्वजः सघण्टः सपताकोऽशोकवरपादप इत्येकादशः ११, ईसि त्ति ईषद् अल्पं पिट्ठओ त्ति पृष्ठतः पश्चाद्भागे मउडट्ठाणम्मि त्ति मस्तकप्रदेशे तेजोमण्डलं प्रभापटलमिति द्वादशः १२, बहुसमरमणीयो भूमिभाग इति त्रयोदशः १३, अहोसिर त्ति अधोमुखाः कण्टका भवन्तीति चतुर्दशः १४, ऋतवोऽविपरीताः, कथमित्याह- सुखस्पर्शा 15 भवन्तीति पञ्चदशः १५, योजनं यावत् क्षेत्रशुद्धिः संवर्तकवातेनेति षोडशः १६, जुत्तफुसिएणं ति उचितबिन्दुपातेन निहयरय-रेणुयं ति वातोत्खातमाकाशवर्ति रजो भूवर्ती तु रेणुरिति गन्धोदकवर्षाभिधानः सप्तदशः १७, जलस्थलजं यद् भास्वरं प्रभूतं च कुसुमं तेन वृन्तस्थायिना उर्ध्वमुखेन दशार्द्धवर्णेन पञ्चवर्णेन, जानुनोरुत्सेधस्य उच्चत्वस्य यत् प्रमाणं तदेव प्रमाणं यस्य स जानूत्सेधप्रमाणमात्रः पुष्पोपचारः 20 पुष्पप्रकर इत्यष्टादशः १८, तथा कालागरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघेतगंधुदु याभिरामे भवइ त्ति कालागरुश्च गन्धद्रव्यविशेषः प्रवरकुन्दुरुक्कं च चीडाभिधानं गन्धद्रव्यं तुरुक्कं च शिल्हकाभिधानं गन्धद्रव्यमिति द्वन्द्वस्तत एतल्लक्षणो यो धूपस्तस्य मघमघायमानो बहलसौरभ्यो यो गन्ध उद्धत उद्भुतस्तेनाभिरामम अभिरमणीयं १. आयासओ त्ति जे१ हे१,२ । असओ त्ति जे२ ॥ २. कालागुरु जे१ हे१,२ ॥ ३. कालागुरु' __ जे१ हे१,२ ॥ ४. तुरुष्कं जे२ ॥ ५. हे१ विना- उद्वृत्त खं० जे१ । उधृत हेर ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३४] चतुस्त्रिंशत्स्थानकम् । १२५ यत्तत्तथा स्थानं निषदनस्थानमिति प्रक्रम इत्येकोनविंशतितमः १९, तथा उभयो पासिं च णं अरहंताणं भगवंताणं दुवे जक्खा कडयतुडियथंभियभुया चामरुक्खेवं करेंति त्ति कटकानि प्रकोष्ठाभरणविशेषाः त्रुटितानि बाह्वाभरणविशेषाः तैरतिबहत्वेन स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ ययोस्तौ तथा यक्षौ देवाविति विंशतितमः २०, बृहद्वाचनायामनन्तरोक्तमतिशयद्वयं नाधीयते, अतस्तस्यां पूर्वेऽष्टादशैव, अमनोज्ञानां 5 शब्दादीनामपकर्षः अभाव इत्येकोनविंशतितमः १९, मनोज्ञानां प्रादुर्भाव इति विंशतितमः २०, पच्चाहरओ त्ति प्रत्याहरतो व्याकुर्वतो भगवतः हिययगमणीओ त्ति हृदयङ्गमः जोयणनीहारि त्ति योजनातिकामी स्वर इत्येकविंशः २१, अद्धमागहाए त्ति प्राकृतादीनां षण्णां भाषाविशेषाणां मध्ये या मागधी नाम भाषा रसोर्लशौ मागध्याम् [ ] इत्यादिलक्षणवती सा असमाश्रितस्वकीयसमग्रलक्षणाऽर्द्धमागधीत्युच्यते, तया 10 धर्ममाख्याति, तस्या एवातिकोमलत्वादिति द्वाविंशः २२, भासिजमाणीति भगवताऽभिधीयमाना आरियमणारियाणं ति आर्यानार्यदेशोत्पन्नानां द्विपदा मनुष्याश्चतुष्पदा गवादयः मृगा आटव्याः पशवो ग्राम्याः पक्षिणः प्रतीताः सरीसृपा उर:परिसर्पा भुजपरिसपाश्चेति, तेषां किम् ? आत्मन आत्मनः आत्मीयया आत्मीययेत्यर्थः, भाषातया भाषाभावेन परिणमतीति सम्बन्धः, किम्भूताऽसौ 15 भाषा ? इत्याह- हितम् अभ्युदयं शिवं मोक्षं सुखं श्रवणकालोद्भवमानन्दं ददातीति हितशिवसुखदेति त्रयोविंशः २३, पुव्वबद्धवेरे त्ति पूर्वं भवान्तरेऽनादिकाले वा जातिप्रत्ययं बद्धं निकाचितं वैरम् अमित्रभावो यैस्ते तथा, तेऽपि च, आसतामन्ये, देवा वैमानिका असुरा नागाश्च भवनपतिविशेषाः सुवर्णाः शोभनवर्णोपेतत्वाज्ज्योतिष्का यक्ष-राक्षस-किन्नर-किंपुरुषाः व्यन्तरभेदाः गरुडा 20 गरुडलाञ्छनत्वात् सुपर्णकुमारा भवनपतिविशेषाः, गन्धर्वा महोरगाश्च व्यन्तरविशेषा एव, एतेषां द्वन्द्वः, पसंतचित्तमाणसा, प्रशान्तानि शमं गतानि चित्राणि राग-द्वेषाद्यनेकविधविकारयुक्ततया विविधानि मानसानि अन्तःकरणानि येषां ते १. “अत एत् सौ पुंसि मागध्याम् ॥४।२८७॥ रसोर्लशौ ।।४।२८८॥” इति हेमचन्द्रसूरिविरचिते प्राकृतव्याकरणे॥ २. "दयः हे१ विना ॥ ३. मोक्षः सुखं खं० हे१,२ । मोक्षसुखं जे१ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे प्रशान्तचित्रमानसा धर्म निशामयन्ति इति चतुर्विंशः २४, बृहद्वाचनायामिदमन्यदतिशयद्वयमधीयते, यदुत- अन्यतीर्थिकप्रावचनिका अपि च णं वन्दन्ते भगवन्तमिति गम्यते इति पञ्चविंशः २५, आगताः सन्तोऽर्हतः पादमूले निष्प्रतिवचना भवन्ति इति षड्विंशः २६, जओ जओ वि य णं ति यत्र यत्रापि 5 च देशे, तओ तओ त्ति तत्र तत्रापि च पञ्चविंशतौ योजनेषु, ईतिः धान्याधुपद्रवकारी प्रचुरमूषिकादिप्राणिगण इति सप्तविंशः २७, मारिः जनमरक इत्यष्टाविंशः २८, स्वचक्रं स्वकीयराजसैन्यम्, तदुपद्रवकारि न भवतीति एकोनत्रिंशः २९, एवं परचक्रं परराजसैन्यमिति त्रिंशः ३०, अतिवृष्टिः अधिकवर्ष इत्येकत्रिंशः ३१, अनावृष्टिः वर्षणाभाव इति द्वात्रिंशः ३२, दुर्भिक्षं दुष्काल इति त्रयस्त्रिंशः ३३, उप्पाइया वाहि 10 त्ति उत्पाताः अनिष्टसूचका रुधिरवृष्ट्यादयस्तद्धेतुका येऽनास्ते औत्पातिकास्तथा व्याधयो ज्वराद्यास्तदुपशमः अभाव इति चतुस्त्रिंशत्तमः ३४ । अत्र च पच्चाहरओ इत आरभ्य येऽभिहितास्ते प्रभामण्डलं च कर्मक्षयकृताः, शेषा भवप्रत्ययेभ्योऽन्ये देवकृता इति, एते च यदन्यथापि दृश्यन्ते तन्मतान्तरमवगन्तव्यमिति । चक्कवट्टिविजय त्ति चक्रवर्तिविजेतव्यानि क्षेत्रखण्डानि । उक्कोसपए चोत्तीसं 15 तित्थगरा समुप्पजंति त्ति समुत्पद्यन्ते सम्भवन्तीत्यर्थः, न त्वेकसमये जायन्ते, चतुर्णामेवैकदा जन्मसम्भवात्, तथाहि - मेरौ पूर्वापरशिलातलयोझै द्वे एव सिंहासने भवतोऽतो द्वावेव द्वावेवाभिषिच्येते अतो द्वयोर्द्वयोरेव जन्मेति, दक्षिणोत्तरयोस्तु क्षेत्रयोस्तदानी दिवससद्भावात् न भरतैरवतयोर्जिनोत्पत्तिरर्द्धरात्र एव जिनोत्पत्तेरिति । पढमेत्यादि प्रथमायां पृथिव्यां त्रिंशन्नरकावासानां लक्षाणि, पञ्चम्यां त्रीणि षष्ठ्यां पञ्चोनं 20 लक्षं सप्तम्यां पञ्च नरकाः, एवं सर्वमीलने चतुस्त्रिंशल्लक्षाणि भवन्तीति ॥३४॥ [सू० ३५] पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता । कुंथू णं अरहा पणतीसं धणूई उडुंउच्चत्तेणं होत्था । दत्ते णं वासुदेवे पणतीसं धणूइं उडंउच्चत्तेणं होत्था । नंदणे णं बलदेवे पणतीसं धणूइं उटुंउच्चत्तेणं होत्था । १. इति नास्ति जे१ खं० ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३५] पञ्चत्रिंशत्स्थानकम् । १२७ __ सोहम्मे कप्पे सभाए सोहम्माए माणवए चेतियक्खंभे हेट्ठा उवरिं च अद्धतेरस अद्धतेरस जोयणाणि वजेत्ता मज्झे पणतीसाए जोयणेसु वतिरामएसु गोलवदृसमुग्गतेसु जिणसकहातो पण्णत्तातो । बितिय-चउत्थीसु दोसु पुढवीसु पणतीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। [टी०] पञ्चत्रिंशत्स्थानकं सुगमम्, नवरं सत्यवचनातिशया आगमे न दृष्टाः, एते 5 तु ग्रन्थान्तरदृष्टाः सम्भाविताः, वचनं हि गुणवद्वक्तव्यम्, तद्यथा - संस्कारवत् १, उदात्तम् २, उपचारोपेतम् ३, गम्भीरशब्दम् ४, अनुनादि ५, दक्षिणम् ६, उपनीतरागम् ७, महार्थम् ८, अव्याहतपौर्वापर्यम् ९, शिष्टम् १०, असन्दिग्धम् ११, अपहृतान्योत्तरम् १२, हृदयग्राहि १३, देशकालाव्यतीतम् १४, तत्त्वानुरूपम् १५, अप्रकीर्णप्रसृतम् १६, अन्योन्यप्रगृहीतम् १७, अभिजातम् १८, अतिस्निग्धमधुरम् १९, अपरमर्मविद्धम् २०, 10 अर्थधर्माभ्यासानपेतम् २१, उदारम् २२, परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तम् २३, उपगतश्लाघम् २४, अनपनीतम् २५, उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलम् २६, अद्रुतम् २७, अनतिविलम्बितम् २८, विभ्रम-विक्षेप-किलिकिञ्चितादिवियुक्तम् २९, अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रम् ३०, आहितविशेषम् ३१, साकारम् ३२, सत्त्वपरिग्रहम् ३३, अपरिखेदितम् ३४, अव्युच्छेदम् ३५ चेति । तत्र संस्कारवत्त्वं संस्कृतादिलक्षणयुक्तत्वम् १, उदात्तत्वम् उच्चैर्वृत्तिता 15 २, उपचारोपेतत्वम् अग्राम्यता ३, गम्भीरशब्दत्वं मेघस्येव ४, अनुनादित्वं प्रतिरवोपेतता ५, दक्षिणत्वं सरलत्वम् ६, उपनीतरागत्वं मालवेशिकादिग्रामरागयुक्तता ७ एते सप्त शब्दापेक्षा अतिशयाः, अन्ये त्वर्थाश्रयाः, तत्र महार्थत्वं बृहदभिधेयता ८, अव्याहतपौर्वापर्यत्वं पूर्वापरवाक्याविरोधः ९, शिष्टत्वम् अभिमतसिद्धान्तोक्तार्थता वक्तुः शिष्टतासूचकत्वं वा १०, असन्दिग्धत्वम् असंशयकारिता ११, अपहृतान्योत्तरत्वं 20 परदूषणाविषयता १२, हृदयग्राहित्वं श्रोतृमनोहरता १३, देशकालाव्यतीतत्वं प्रस्तावोचितता १४, तत्त्वानुरूपत्वं विवक्षितवस्तुस्वरूपानुसारिता १५, अप्रकीर्णप्रसृतत्वं १. अप्रकीर्णे प्रसृतम् जे२ । अप्रकीर्ण प्रसृतम् जे१ हे२ ॥ २. च ३५ वचनं महानुभावैर्वक्तव्यमिति छ। तथा दत्तः सप्तमवासुदेव: हे२ ॥ ३. 'शब्दं जे२ ॥ ४. मालवकेशिकादि जेसं०१। मालवकैशिक्यादि हे१ ॥ ५. पेक्षया जे२ हे१ ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सुसम्बन्धस्य सतः प्रसरणम्, अथवाऽसम्बद्धाधिकारित्वा-ऽतिविस्तरयोरभावः १६, अन्योन्यप्रगृहीतत्वं परस्परेण पदानां वाक्यानां वा सापेक्षता १७, अभिजातत्वं वक्तुः प्रतिपाद्यस्य वा भूमिकानुसारिता १८, अतिस्निग्ध-मधुरत्वं घृत-गुडादिवत् सुखकारित्वम् १९, अपरमर्मवेधित्वं परमर्मानुद्घट्टनस्वरूपत्वम् २०, अर्थ-धर्माभ्यासानपेतत्वम् 5 अर्थ-धर्मप्रतिबद्धत्वम् २१, उदारत्वम् अभिधेयार्थस्यातुच्छत्वं गुम्फगुणविशेषो वा २२, परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वमिति प्रतीतमेव २३, उपगतश्लाघत्वम् उक्तगुणयोगात् प्राप्तश्लाघता २४, अनपनीतत्वं कारक-काल-वचन-लिङ्गादिव्यत्ययरूपवचनदोषापेतता २५, उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलत्वं स्वविषये श्रोतृणां जनितमविच्छिन्नं कौतुकं येन तत्तथा तद्भावस्तत्त्वम् २६, अद्रुतत्वम् अनतिविलम्बितत्वं च प्रतीतम् २७-२८, विभ्रम10 विक्षेप-किलिकिञ्चितादिवियुक्तत्वम्, विभ्रमो वक्तृमनसो भ्रान्तता, विक्षेपः तस्यैवाभिधेयार्थं प्रत्यनासक्तता, किलिकिञ्चितं रोषभयाभिलाषादिभावानां युगपदसकृत्करणमादिशब्दान्मनोदोषान्तरपरिग्रहस्तैर्विमुक्तं यत्तत्तथा, तद्भावस्तत्त्वम् २९, अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्वम्, इह जातयो वर्णनीयवस्तुस्वरूपवर्णनानि ३०, आहितविशेषत्वं वचनान्तरापेक्षया ढौकितविशेषता ३१, साकारत्वं विच्छिन्नवर्ण-पद15 वाक्यत्वेनाकारप्राप्तत्वम् ३२, सत्त्वपरिगृहीतत्वं साहसोपेतता ३३, अपरिखेदितत्वम् अनायाससम्भवः ३४, अव्युच्छेदित्वं विवक्षितार्थसम्यसिद्धिं यावदव्यवच्छिन्न वचनप्रमेयतेति ३५ । • तथा दत्तः सप्तमवासुदेवः, नन्दनः सप्तमबलदेवः, एतयोश्चावश्यकाभिप्रायेण षड्विंशतिर्धनुषामुच्चत्वं भवति, सुबोधं च तत्, यतोऽरनाथ-मल्लिस्वामिनोरन्तरे 20 तावभिहितौ, यतोऽवाचि- अर-मल्लिअंतरे दोण्णि केसवा पुरिसपुंडरीय-दत्त [आव० नि० ४२०] त्ति, अरनाथ-मल्लिनाथयोश्च क्रमेण त्रिंशत् पञ्चविंशतिश्च धनुषामुच्चत्वम्, १. "विलम्बित्वं हे१ विना ।। २. "वियुक्तं वि जे१ ॥ ३. वस्तुरूप' खं० ॥ ४. वण्णेण वासुदेवा सव्वे नीला बला य सुक्किलया । एएसिं देहमाणं वुच्छामि अहाणुपुवीए ॥४०२|| पढमो धणूणऽसीई सत्तरी सट्ठी य पन्न पणयाला । अउणतीसं च धणू छव्वीस सोलसा दसेव ॥४०३।। - इति आवश्यकहारिभद्र्यां वृत्तौ ॥ ५. “अरश्च मल्लिश्च अरमल्ली तयोरन्तरम् अपान्तरालं तस्मिन्, द्वौ केशवौ भविष्यतः, कौ द्वौ इत्याह- पुरुषपुण्डरीकदत्तौ ॥" - इति आवश्यकस्य हारिभत्र्यां वृत्तौ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३६] षट्त्रिंशत्स्थानकम् । एतदन्तरालवर्तिनोश्च वासुदेवयोः षष्ठ-सप्तमयोरेकोनत्रिंशत् षड्विंशतिश्च धनुषां युज्यत इति, इहोक्ता तु पञ्चत्रिंशत् स्यात् यदि दत्त-नन्दनौ कुन्थुनाथतीर्थकाले भवतो न चैतदेवं जिनान्तरेष्वधीयत इति दुरवबोधमिदमिति । सौधर्मे कल्पे सौधर्मावतंसकादिषु विमानेषु सर्वेषु पञ्च पञ्च सभा भवन्ति । सुधर्मसभा १, उपपातसभा २, अभिषेकसभा ३, अलङ्कारसभा ४, व्यवसायसभा 5 ५ च । तत्र सुधर्मसभामध्यभागे मणिपीठिकोपरि षष्टियोजनमानो माणवको नाम चैत्यस्तम्भोऽस्ति, तत्र वइरामएसु त्ति वज्रमयेषु तथा गोलवद्वत्ता वर्तुला ये समुद्का भाजनविशेषास्तेषु जिणसकहाओ ति जिनसक्थीनि तीर्थकराणां मनुजलोकनिर्वृत्ता(?ता)नां सक्थीनि अस्थीनि प्रज्ञप्तानीति । बीय-चउत्थीत्यादि द्वितीयपृथिव्यां पञ्चविंशतिर्नरकलक्षाणि चतुर्थ्यां तु दशेति पञ्चत्रिंशत्तानीति ॥३५॥ 10 [सू० ३६] छत्तीसं उत्तरज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा- विणयसुयं १, परीसहा २, चाउरंगिजं ३, असंखयं ४, अकाममरणिज्जं ५, पुरिसविज्जा ६, उरब्भिजं ७, काविलिजं ८, नमिपव्वजा ९, दुमपत्तयं १०, बहुसुतपुजा ११, हरितेसिजं १२, चित्तसंभूयं १३, उसुकारिजं १४, सभिक्खुगं १५, समाहिट्ठाणाई १६, पावसमणिज्जं १७, संजइजं १८, मियचारिता १९, अणाहपव्वज्जा २०, 15 समुद्दपालिजं २१, रहनेमिजं २२, गोतमकेसिज २३, समितीओ २४, जण्णतिजं २५, सामायारी २६, खलुंकिजं २७, मोक्खमग्गगती २८, अप्पमातो २९, तवोमग्गो ३०, चरणविही ३१, पमायट्ठाणाई ३२, कम्मपगडि ३३, लेसज्झयणं ३४, अणगारमग्गे ३५, जीवाजीवविभत्ती य ३६ ।। चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो सभा सुधम्मा छत्तीसं जोयणाई 20 उहुंउच्चत्तेणं होत्था । समणस्स णं भगवतो महावीरस्स छत्तीसं अजाणं साहस्सीतो होत्था । चेत्तासोएसु णं मासेसु सति छत्तीसंगुलियं सूरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तति। [टी०] षट्त्रिंशत्स्थानकं स्पष्टमेव, नवरं चैत्राश्वयुजोर्मासयोः सकृद् एकदा पूर्णिमायामिति व्यवहारो निश्चयतस्तु मेषसङ्क्रान्तिदिने तुलासङ्क्रान्तिदिने चेत्यर्थः । 25 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सप्तत्रिंशत्स्थानकम् । षट्त्रिंशदङ्गुलिकां पदत्रयमानाम्, आह च'चेत्तासोएसु मासेसु, तिपया होइ पोरुसी [उत्तरा० २६।१३] ति ॥३६|| [सू० ३७] कुंथुस्स णं अरहओ सत्तत्तीसं गणा सत्तत्तीसं गणहरा होत्था। हेमवय-हेरण्णवतियातो णं जीवातो सत्तत्तीसं सत्तत्तीसं जोयणसहस्साइं 5 छच्च चोवत्तरे जोयणसते सोलस य एकूणवीसइभाए जोयणस्स किंचिविसेसूणातो आयामेणं पण्णत्तातो । __ सव्वासु णं विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजितासु रायधाणीसु पागारा सत्तत्तीसं सत्तत्तीसं जोयणाइं उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । खुड्डियाए णं विमाणप्पविभत्तीए पढमे वग्गे सत्तत्तीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता। 10 कत्तियबहुलसत्तमीए णं सूरिए सत्तत्तीसंगुलियं पोरिसिच्छायं निव्वत्तइत्ता णं चारं चरति । [टी०] सप्तत्रिंशत्स्थानकमपि व्यक्तम्, नवरं कुन्थुनाथस्येह सप्तत्रिंशद् गणधरा उक्ताः, आवश्यके तु पञ्चत्रिंशत् श्रूयन्त इति मतान्तरम् । तथा हैमवतादिजीवयोरुक्तप्रमाणसंवादगाथा15 सत्तत्तीस सहस्सा छ च्च सया जोयणाण चउसयरा । हेमवयवासजीवा किंचूणा सोलस कला य ॥ [बृहत्क्षेत्र० ५४] त्ति । कला एकोनविंशतिभागो योजनस्येति। तथा विजयादीनि पूर्वादीनि जम्बूद्वीपद्वाराणि तन्नायकास्तन्नामानो देवास्तेषां राजधान्यस्तन्नामिका एव पूर्वादिदिक्षु इतोऽसङ्ख्येयतमे जम्बूद्वीप इति । क्षुद्रिकायां विमानप्रविभक्तौ कालिकश्रुतविशेषे, तत्र किल बहवो 20 वर्गा अध्ययनसमुदायात्मका भवन्ति । तत्र प्रथमे वर्गे प्रत्यध्ययनमुद्देशस्य ये कालास्त उद्देशनकाला इति । यदि अश्वयुजः पौर्णमास्यां षट्त्रिंशदगुलिका पौरुषीच्छाया भवति तदा कार्तिकस्य कृष्णसप्तम्यामगुलस्य वृद्धिं गतत्वात् सप्तत्रिंशदगुलिका भवतीति ॥३७॥ १. दृश्यतां पृ० ८७ टि०१ ॥ २. दृश्यतां पृ० १४२ टि०१ ॥ ३. यदि चैत्रस्य पौर्ण' हे२ ॥ ४. तदा वैशाखस्य कृष्ण' हे२ ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३८-३९] अष्टत्रिंशत्स्थानकम् । १३१ 5 [सू० ३८] पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स अट्ठत्तीसं अजिआसाहस्सीतो उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था । हेमवतेरण्णवतियाणं जीवाणं धणूवट्ठा अट्टत्तीसं अट्ठत्तीसं जोयणसहस्साई सत्त य चत्ताले जोयणसते दस एगूणवीसतिभागे जोयणस्स किंचिविसेसूणा परिक्खेवेणं पण्णत्ता । अत्थस्स णं पव्वयरण्णो बितिए कंडे अट्ठत्तीसं जोयणसहस्साई उर्ल्डउच्चत्तेणं पण्णत्ते । खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए बितिए वग्गे अट्ठत्तीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । [टी०] अष्टत्रिंशत्स्थानकं व्यक्तमेव, नवरं धणुपटुं ति जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रस्य 10 हैमवत-हैरण्यवताभ्यां द्वितीय-षष्ठवर्षाभ्यामवच्छिन्नस्यारोपितज्यधनुःपृष्ठाकारे परिधिखण्डे धनुःपृष्ठे इव धनुःपृष्ठे उच्येते, तत्पर्यन्तभूते ऋजुप्रदेशपङ्क्ती तु जीवे इव जीवे इति । एतत्सूत्रसंवादिगाथार्द्ध चत्ताला सत्त सया अडतीस सहस्स दस कला य धणु [बृहत्क्षेत्र० ५५] त्ति। तथा अत्थस्स त्ति अस्तो मेर्यतस्तेनान्तरितो रविरस्तं गत इति व्यपदिश्यते तस्य पर्वतराजस्य गिरिप्रधानस्य द्वितीयं काण्डं 15 विभागोऽष्टत्रिंशद्योजनसहस्राण्युच्चत्वेन भवतीति, मतान्तरेण तु त्रिषष्टिः सहस्राणि, यदाह मेरुस्स तिन्नि कंडा पुढवोवलवइरसक्करा पढमं । रयए य जायरूवे अंके फलिहे य बीयं तु ॥ एक्कागारं तइयं तं पुण जंबूणयामयं होइ । जोयणसहस्स पढमं बाहल्लेणं च बीयं तु ॥ तेवट्ठि सहस्साई तइयं छत्तीस जोयणसहस्सा । मेरुस्सुवरिं चूला उब्विद्धा जोयणदुवीसं ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३१२-१४] ति ॥३८॥ [सू० ३९] नमिस्स णं अरहतो एगूणचत्तालीसं आहोहियसया होत्था । 20 * १. बिइयं तु खं० । बितियं च हे२ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एकोनचत्वारिंशत्स्थानकम् । __ समयखेत्ते णं एकूणचत्तालीसं कुलपव्वया पण्णत्ता, तंजहा- तीसं वासहरा, पंच मंदरा, चत्तारि उसुकारा । दोच्च-चउत्थ-पंचम-छट्ठ-सत्तमासु णं पंचसु पुढवीसु एकूणचत्तालीसं निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता । 5 नाणावरणिजस्स मोहणिजस्स गोत्तस्स आउस्स वि एतासि णं चउण्हं कम्मपगडीणं एकूणचत्तालीसं उत्तरपगडीतो पण्णत्ताओ । [टी०] एकोनचत्वारिंशत्स्थानकं व्यक्तमेव, नवरम् आहोहिय त्ति नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानिनस्तेषां शतानीति । कुलपव्वय त्ति क्षेत्रमर्यादाकारित्वेन कुलकल्पाः पर्वताः कुलपर्वताः, कुलानि हि लोकानां मर्यादानिबन्धनानि भवन्तीतीह 10 तैरुपमा कृता, तत्र वर्षधरास्त्रिंशद् जम्बूद्वीपे धातकीखण्ड-पुष्करार्द्धपूर्वापराद्धेषु च प्रत्येकं हिमवदादीनां षण्णां षण्णां भावात्, मन्दराः पञ्च, इषुकारा धातकीखण्डपुष्करार्द्धयोः पूर्वेतरविभागकारिणश्चत्वारः, एवमेते एकोनचत्वारिंशदिति । दोच्चेत्यादि द्वितीयायां पञ्चविंशतिश्चतुर्थ्यां दश पञ्चम्यां त्रीणि षष्ठ्यां पञ्चोनं लक्षं सप्तम्यां पञ्चेति यथोक्तसंख्या नरकाणामिति । नाणावरणिज्जेत्यादि, ज्ञानावरणीयस्य पञ्च 15 मोहनीयस्याष्टाविंशतिः गोत्रस्य द्वे आयुषश्चतम्रः इत्येवमेकोनचत्वारिंशदिति ॥३९।। [सू० ४०] अरहतो णं अरिट्ठनेमिस्स चत्तालीसं अजियासाहस्सीतो होत्था। मंदरचूलिया णं चत्तालीसं जोयणाई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । संती अरहा चत्तालीसं धणूई उहुंउच्चत्तेणं होत्था । भूयाणंदस्स णं [णागिंदस्स ?] नागरण्णो चत्तालीसं भवणावाससयसहस्सा 20 पण्णत्ता । खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए ततिए वग्गे चत्तालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । फग्गुणपुण्णिमासिणीए णं सूरिए चत्तालीसंगुलियं पोरिसिच्छायं निव्वदृइत्ता १. पंचोनलक्षं खं० ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४०-४२] चत्वारिंशदेकचत्वारिंशद्-द्विचत्वारिंशत्स्थानकानि । १३३ णं चारं चरति । एवं कत्तियाए वि पुण्णिमाए । महासुक्के कप्पे चत्तालीसं विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता । [टी०] चत्वारिंशत्स्थानकं व्यक्तम्, नवरं वइसाहपुण्णिमासिणीए त्ति यत् केषुचित् पुस्तकेषु दृश्यते सोऽपपाठः, फग्गुणपुण्णिमासिणीए त्ति अत्राध्येयम्, कथम् ?, उच्यते, पोसे मासे चउप्पया [उत्तरा० २६।१३] इति वचनात् पौषपौर्णमास्यामष्ट- 5 चत्वारिंशदगुलिका सा भवति, ततो माघे चत्वारि फाल्गुने च चत्वारि अगुलानि पतितानीत्येवं फाल्गुनपौर्णमास्यां चत्वारिंशदङ्गुलिका पौरुषीच्छाया भवति, कार्त्तिक्यामप्येवमेव, यतः 'चेत्तासोएसु मासेसु तिपया होइ पोरुसी [उत्तरा० २६।१३] इत्युक्तम्, ततः पदत्रयस्य षट्त्रिंशदगुलप्रमाणस्य कार्तिकमासातिक्रमे चतुरगुलवृद्धौ चत्वारिंशदगुलिका सा भवतीति ॥४०॥ 10 [सू० ४१] नमिस्स णं अरहतो एक्कचत्तालीसं अजियासाहस्सीओ होत्था। चउसु पुढवीसु एक्कचत्तालीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, तंजहारयणप्पभाए पंकप्पभाए तमाए तमतमाए । महल्लियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे एक्कचत्तालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । [टी०] एकचत्वारिंशत्स्थानकं सुगमम्, नवरं चउसु इत्यादि क्रमेण सूत्रोक्तासु चतसृषु प्रथम-चतुर्थ-षष्ठ-सप्तमीषु पृथिवीषु त्रिंशतो दशानां च नरकलक्षाणां पञ्चोनस्य चैकस्य [लक्षस्य पञ्चानां च नरकाणां भावाद्यथोक्तसंख्यास्ते भवन्तीति ॥४१॥ [सू० ४२] समणे भगवं महावीरे बायालीसं वासाइं साहियाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । 20 जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ गोथुभस्स णं आवासपव्वतस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते एस णं बातालीसं जोयणसहस्साई अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । एवं चउद्दिसिं पि दोभासे संखे दयसीमे य । कालोए णं समुद्दे बायालीसं चंदा जोतिंसु वा जोइंति वा जोतिस्संति १. दृश्यतां पृ०८७ टी०१ ॥ - 15 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायानसूत्रे वा । बायालीसं सूरिया पभासिंसु वा पभासिंति वा पभासिस्संति वा । संमुच्छिमभुयपरिसप्पाणं उक्कोसेणं बायालीसं वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। नामे णं कम्मे बायालीसविहे पण्णत्ते, तंजहा- गतिणामे जातिणामे सरीरणामे सरीरंगोवंगणामे सरीरबंधणणामे सरीरसंघायणणामे संघयणणामे 5 संठाणणामे वण्णणामे गंधणामे रसनामे फासणामे अगरुलहुयणामे उवघायणामे पराघातणामे आणुपुत्वीणामे उस्सासणामे आतवणामे उज्जोयणामे विहगगतिणामे तसणामे थावरणामे सुहुमणामे बादरणामे पजत्तणामे अपजत्तणामे साधारणसरीरणामे पत्तेयसरीरणामे थिरणामे अथिरणामे सुभणामे असुभणामे सुभगणामे दुब्भगणामे सुसरणामे दुस्सरणामे आदेजणामे 10 अणादेजणामे जसोकित्तिणामे अजसोकित्तिणामे निम्माणणामे तित्थकरणामे। लवणे णं समुद्दे बायालीसं नागसाहस्सीओ अन्भिंतरियं वेलं धारेंति । महालियाए णं विमाणपविभत्तीए बितिए वग्गे बायालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । एगमेगाए णं ओसप्पिणीए पंचम-छट्ठीतो समातो बायालीसं वाससहस्साई 15 कालेणं पण्णत्तातो । एगमेगाए णं उस्सप्पिणीए पढम-बितियातो समातो बायालीसं वाससहस्साइं कालेणं पण्णत्तातो । [टी०] द्विचत्वारिंशत्स्थानकं व्यक्तमेव, नवरं बायालीसं ति छद्मस्थपर्याये द्वादश वर्षाणि षण्मासा अर्द्धमासश्चेति, केवलिपर्यायस्तु देशोनानि त्रिंशद्वर्षाणीति पर्युषणाकल्पे 20 द्विचत्वारिंशदेव वर्षाणि महावीरपर्यायोऽभिहितः, इह तु साधिक उक्तः, तत्र पर्युषणाकल्पे यदल्पमधिकं तन्न विवक्षितमिति सम्भाव्यत इति, जाव त्ति करणात् 'बुद्धे मुत्ते अंतकडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे' त्ति दृश्यम् । जंबुद्दीवस्सेत्यादि, १. “तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता, साइरेगाई दुवालस वासाई छउमत्थपरियागं पाउणित्ता, देसूणाई तीसं वासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता बायालीसं वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, बावत्तरि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता; ... .... .. सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे ॥१४७॥” इति पर्युषणाकल्पे ॥ २. हे२ विना- "निव्वुडे त्ति सव्वदुक्खप्पहीणे त्ति दृश्यं जे१,२ हे१ । 'निव्वुडे त्ति दृश्यं खं०॥ ३. जंबूदीव जे१ खं० ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ 5 [सू० ४२] द्विचत्वारिंशत्स्थानकम् । पुरिथिमिल्लचरिमंताओ त्ति जगतीबाह्यपरिधेरपसृत्य गोस्तुभस्याऽऽवासपर्वतस्य वेलंधरनागराजसम्बन्धिनः पाश्चात्त्यश्चरमान्तः चरमविभागो यावताऽन्तरेण भवति एस णं ति एतदन्तरं द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि प्रज्ञप्तम्, अन्तरशब्देन विशेषोऽप्यभिधीयते इत्यत आह- आबाहाए त्ति व्यवधानापेक्षया यदन्तरं तदित्यर्थः। कालायणे त्ति धातकीखण्डपरिवेष्टके कालोदाभिधाने समुद्रे । गइनामेत्यादि, गतिनाम यदुदयान्नारकादित्वेन जीवो व्यपदिश्यते, जातिनाम यदुदयादेकेन्द्रियादिर्भवति, शरीरनाम यदुदयादौदारिकादिशरीरं करोति, यदुदयादङ्गानां शिरःप्रभृतीनाम् उपाङ्गानां च अमुल्यादीनां विभागो भवति तच्छरीराङ्गोपाङ्गनाम, तथा औदारिकादिशरीरपुद्गलानां पूर्वबद्धानां बध्यमानानां च सम्बन्धकारणं शरीरबन्धननाम, तथा औदारिकादिशरीरपुद्गलानां गृहीतानां यदुदयाच्छरीररचना भवति 10 तच्छरीरसङ्घातनाम, तथाऽस्थ्नां यतस्तथाविधशक्तिनिमित्तभूतो रचनाविशेषो भवति तत् संहनननाम, संस्थानं समचतुरस्रादिलक्षणं यतो भवति तत् संस्थाननाम, तथा यदुदयाद्वर्णादिविशेषवन्ति शरीराणि भवन्ति तद् वर्णादिनाम, तथा यदुदयादगुरुलघु स्वं स्वं शरीरं जीवानां भवति तदगुरुलघुनाम, तथा यतोऽङ्गावयवः प्रतिजिह्विकादिरात्मोपघातको जायते तदुपघातनाम, तथा यतोऽगावयव एव विषात्मको 15 दंष्ट्रा-त्वगादिः परेषामुपघातको भवति तत् पराघातनाम, तथा यदुदयादन्तरालगतौ जीवो याति तदानुपूर्वीनाम, तथा यदुदयादुच्छ्वासनिःश्वासनिष्पत्तिर्भवति तदुच्छ्वासनाम, तथा यदुदयाज्जीवस्तापवच्छरीरो भवति तदातपनाम, यथाऽऽदित्यबिम्बपृथिवीकायिकानाम्, तथा यतोऽनुष्णोद्द्योतवच्छरीरो भवति तदुद्द्योतनाम, तथा यतः शुभेतरगमनयुक्तो भवति तद्विहायोगतिनाम, सनामादीन्यष्टौ 20 प्रतीतार्थानि, तथा यतः स्थिराणां दन्ताद्यवयवानां निष्पत्तिर्भवति तत् स्थिरनाम, यतश्च भू-जिह्वादीनामस्थिराणां निष्पत्तिर्भवति तदस्थिरनाम, एवं शिरःप्रभृतीनां शुभानां तच्छुभनाम, पादादीनामशुभानामशुभनाम इति, शेषाणि प्रतीतानि, नवरं यदुदयाज्जातौ १. पुरित्थमि हे२ विना ॥ २. पाश्चात्यचर' खं० हे२ ॥ ३. स्वं शरीरं जे२ ॥ ४. दयान्तराल' हे१,२ विना ॥ ५. तथा शिरःप्र हे२ ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे त्रिचत्वारिंशत्स्थानकम् । जातौ जीवदेहेषु स्त्र्यादिलिङ्गाकारनियमो भवति तत् सूत्रधारसमानं निर्माणनामेति, पञ्चम-छट्ठीओ समाओ त्ति दुःषमा एकान्तदुःषमा चेत्यर्थः, पढम-बीयाउ त्ति एकान्तदुःषमा दुःषमा चेति ॥४२॥ [सू० ४३] तेतालीसं कम्मविवागज्झयणा पण्णत्ता । 5 पढम-चउत्थ-पंचमासु तीसु पुढवीसु तेतालीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता । जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ गोथुभस्स णं आवासपव्वतस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते एस णं तेयालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं चउद्दिसिं पि दोभासे संखे दयसीमे । 10 महालियाए णं विमाणपविभत्तीए ततिए वग्गे तेतालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । [टी०] त्रिचत्वारिंशत्स्थानकेऽपि किञ्चिल्लिख्यते, कम्मविवागज्झयण त्ति कर्मणः पुण्य-पापात्मकस्य विपाकः फलं तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि कर्मविपाकाध्ययनानि, एतानि च एकादशाङ्ग-द्वितीयाङ्गयोः संभाव्यन्त इति । जंबुद्दीवस्स णमित्यादि, जम्बूद्वीपस्य पौरस्त्यान्ताद् गोस्तुभपर्वतो द्विचत्वारिंशद्योजनानां सहस्राणि तद्विष्कम्भश्च सहस्रं तदधिकाया द्वाविंशतेरल्पत्वेनाविवक्षणादेवं च त्रिचत्वारिंशत् सहस्राणि भवन्तीति, एवं चउद्दिसिं पि त्ति उक्तदिगन्तर्भावेन चतम्रो दिश उक्ताः, अन्यथा एवं तिदिसिं पि त्ति वाच्यं स्यात्, तत्र चैवमभिलापः 'जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स दाहिणिलाओ चरिमंताओ दओभासस्स णं आवासपव्वयस्स दाहिणिल्ले चरिमंते एस णं तेयालीसं 20 जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते', एवमन्यत् सूत्रद्वयम्, नवरं पश्चिमायां शङ्ख आवासपर्वत उत्तरस्यामुदकसीम इति ॥४३॥ - [सू० ४४] चोत्तालीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुताभासिया पण्णत्ता । १. स्यां तु दक' हे२ ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४४-४५] चतुश्चत्वारिंशत्-पञ्चचत्वारिंशत्स्थानके । १३७ विमलस्स णं अरहतो चोत्तालीसं पुरिसजुगाई अणुपट्टिसिद्धाइं जाव प्पहीणाई। धरणस्स णं नागिंदस्स नागरण्णो चोत्तालीसं भवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। महालियाए णं विमाणपविभत्तीए चउत्थे वग्गे चोत्तालीसं उद्देसणकाला 5 पण्णत्ता । [टी०] चतुश्चत्वारिंशत्स्थानकेऽपि किञ्चिल्लिख्यते, चतुश्चत्वारिंशत् इसिभासिय त्ति ऋषिभाषिताध्ययनानि कालिकश्रुतविशेषभूतानि दियलोयचुयाभासिय त्ति देवलोकाच्च्युतैः ऋषीभूतैराभाषितानि देवलोकच्युताभाषितानि, क्वचित्पाठः देवलोयचुयाणं इसीणं चोयालीसं इसिभासियज्झयणा पण्णत्ता। 10 पुरिसजुगाई ति पुरुषाः शिष्य-प्रशिष्यादिक्रमव्यवस्थिता युगानीव कालविशेषा इव क्रमसाधर्म्यात् पुरुषयुगानि, अणुपट्टि त्ति आनुपूर्व्या अणुबन्धं ति पाठान्तरे तृतीयादर्शनादनुबन्धेन सातत्येन सिद्धानि जाव त्ति करणाद् ‘बुद्धाई मुत्ताई अंतकडाई सव्वदुक्खप्पहीणाई' ति दृश्यम् । महालियाए णं विमाणपविभत्तीए चतुर्थे वर्गे चतुश्चत्वारिंशदुद्देशनकालाः प्रज्ञप्ताः ॥४४॥ 15 [सू० ४५] समयखेत्ते णं पणतालीसं जोयणसतसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते। सीमंतए णं नरए पणतालीसं जोयणसतसहस्साइं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते। एवं उडुविमाणे पण्णत्ते । ईसिपब्भारा णं पुढवी पण्णत्ता एवं चेव । धम्मे णं अरहा पणतालीसं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । 20 मंदरस्स णं पव्वतस्स चउद्दिसिं पि पणतालीसं पणतालीसं जोयणसहस्साई अबाधाते अंतरे पण्णत्ते । सव्वे वि णं दिवड्डखेत्तिया नक्खत्ता पणतालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जोएंसु वा जोएंति वा जोइस्संति वा १. जावं ति खंसं० विना ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पञ्चचत्वारिंशत्-षट्चत्वारिंशत्स्थानके । __ तिन्नेव उत्तराई, पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य । एते छन्नक्खत्ता, पणतालमुहुत्तसंजोगा ॥५८॥ महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पंचमे वग्गे पणतालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता । 5 [टी०] पञ्चचत्वारिंशत्स्थानके त्विदं लिख्यते, समयखेत्ते त्ति कालोपलक्षितं क्षेत्रम्, मनुष्यक्षेत्रमित्यर्थः । सीमंतए णं ति प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे मध्यभागवर्ती वृत्तो नरकेन्द्रः सीमन्तक इति । उडुविमाणे त्ति सौधर्मेशानयोः प्रथमप्रस्तटवर्ति चतसृणां विमानावलिकानां मध्यभागवर्ति वृत्तं विमानेन्द्रकमुडुविमानमिति । ईसिपब्भार त्ति सिद्धिपृथिवी । मंदरस्स णं पव्वयस्सेत्यादि सूत्रे लवणसमुद्राभ्यन्तरपरिध्यपेक्षयान्तरं 10 द्रष्टव्यमिति । सव्वे वि णमित्यादि, चन्द्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तभोग्यं नक्षत्रक्षेत्रं समक्षेत्रमुच्यते, तदेव सार्द्ध व्यर्द्धम्, द्वितीयमर्द्धमस्येति व्यर्द्धमित्येवं व्युत्पादनात्, तथाविधं क्षेत्रं येषामस्ति तानि व्यर्द्धक्षेत्रिकाणि नक्षत्राणि अत एव पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तान् चन्द्रेण सार्द्ध योगं, सम्बन्धं योजितवन्ति । तिन्नेव गाहा, त्रीण्युत्तराणि उत्तरफाल्गुन्य उत्तराषाढा उत्तरभद्रपदाः ॥४५॥ 15 [सू० ४६] दिट्ठिवायस्स णं छायालीसं माउयापया पण्णत्ता । बंभीए णं लिवीए छायालीसं माउयक्खरा पण्णत्ता । पभंजणस्स णं वातकुमारिंदस्स छायालीसं भवणावाससतसहस्सा पण्णत्ता। [टी०] अथ षट्चत्वारिंशत्स्थानके किञ्चिल्लिख्यते, दिट्ठिवायस्स त्ति द्वादशाङ्गस्य माउयापय त्ति सकलवाङ्मयस्य अकारादिमातृकाः पदानीव दृष्टिवादार्थप्रसवनिबन्धनत्वेन 20 मातृकापदानि उत्पाद-विगम-ध्रौव्यलक्षणानि, तानि च सिद्धश्रेणि-मनुष्यश्रेण्यादिना विषयभेदेन कथमपि भिद्यमानानि षट्चत्वारिंशद् भवन्तीति सम्भाव्यते । तथा बंभीए णं लिवीए त्ति लेख्यविधौ षट्चत्वारिंशन्मातृकाक्षराणि, तानि चाऽकारादीनि हकारान्तानि १. इसी जे२ ॥ २. क्षेत्रकाणि खं० ॥ ३. मातृकापदानीव खं० जे२ विना ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ [सू० ४७] . सप्तचत्वारिंशत्स्थानकम् । सक्षकाराणि ऋ ऋ ल ल लं(ळ) इत्येतदक्षरपञ्चकवर्जितानि सम्भाव्यन्ते । तथा पभंजणस्स त्ति औदीच्यस्येति ॥४६॥ [सू० ४७] जया णं सूरिए सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरति तया णं इहगतस्स मणूसस्स सत्तचत्तालीसं जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवढेहिं जोयणसतेहिं एक्कवीसाए य सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं 5 हव्वमागच्छति । थेरे णं अग्गिभूती सत्तचत्तालीसं वासाइं अगारमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगारातो अणगारियं पव्वइते । टी०] अथ सप्तचत्वारिंशत्स्थानके किमप्युच्यते, जया णमित्यादि, इह लक्षप्रमाणस्य जम्बूद्वीपस्योभयतोऽशीत्युत्तरे योजनशते ३६० अपनीते सर्वाभ्यन्तरस्य सूर्यमण्डलस्य 10 विष्कम्भो भवति ९९६४०, तत्परिधिस्त्रीणि लक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि एकोननवत्यधिकानि ३१५०८९, एतच्च सूर्यो मुहूर्तानां षष्ट्या गच्छतीति षष्ट्याऽस्य भागहारे मुहूर्तगतिर्लभ्यते, सा च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे चैकपञ्चाशदुत्तरे योजनशते एकोनत्रिंशच्च षष्टिभागा योजनस्य ५२५१ २९ , यदा चाभ्यन्तरमण्डले सूर्यश्चरति तदाऽष्टादश मुहूर्ता दिवसप्रमाणम्, तदर्द्धन नवभिर्मुहूर्तेः मुहूर्तगतिर्गुण्यते, ततश्च यथोक्तं 15 चक्षुःस्पर्शप्रमाणमागच्छतीति । अग्गिभूइ त्ति वीरनाथस्य द्वितीयो गणधरस्तस्य चेह सप्तचत्वारिंशद्वर्षाण्यगारवास उक्तः, आवश्यके तु षट्चत्वारिंशत्, तत्र १. सर्वेषु हस्तलिखितादर्शेषु लं इति पाठो दृश्यते, किन्तु ळ इति शुद्धः पाठः संभाव्यते ॥ २. पंचवर्तितानि जे२ ॥ ३. 'अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः, क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म, य र ल व श ष स ह, क्ष' इति षट्चत्वारिंशद् मातृकाक्षराणि अत्र संभाव्यन्ते॥ ४. “अगारपर्यायद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह- पण्णा छायालीसा बायाला होइ पण्ण पण्णा य । तेवण्ण पंचसट्ठी अडयालीसा य छायाला ॥६५०।। व्या० पञ्चाशत् षट्चत्वारिंशत् द्विचत्वारिंशत् भवति पञ्चाशत् पञ्चाशच्च त्रिपञ्चाशत् पञ्चषष्ठिः अष्टचत्वारिंशत् षट्चत्वारिंशत् इति गाथार्थः ॥ छत्तीसा सोलसगं अगारवासो भवे गणहराणं। छउमत्थयपरियागं अहक्कम कित्तइस्सामि ॥६५१॥ व्या०- षट्त्रिंशत् षोडशकम् अगारवासो गहवासो यथासङख्यम एतावान गणधराणाम ।... छद्यस्थपर्यायं यथाक्रमं यथायोगं कीर्तयिष्यामि इति गाथार्थः॥ तीसा बारस दसगं बारस बायाल चोइसदगं च । णवगं बारस दस अट्टगं च छउमत्थपरियाओ ॥६५२।। गाथेयं निगदसिद्धा॥ केवलिपर्यायपरिज्ञानोपायप्रतिपादनायाह- छउमत्थपरीयागं अगारवासं च वोगसित्ता णं । सव्वाउगस्स सेसं जिणपरियागं वियाणाहि ॥६५३॥ व्या० छद्मस्थपर्यायम् अगारवासं च व्यवकलय्य सर्वायुष्कस्य Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अष्टचत्वारिंशदेकोनपञ्चाशत्स्थानके । सप्तचत्वारिंशत्तमवर्षस्यासम्पूर्णत्वादविवक्षा, इह त्वपूर्णस्यापि पूर्ण[त्व?]विवक्षेति सम्भावनया न विरोध इति ॥४७॥ [सू० ४८] एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अडयालीसं पट्टणसहस्सा पण्णत्ता । 5 धम्मस्स णं अरहतो अडयालीसं गणा अडयालीसं गणहरा होत्था । सूरमंडले णं अडयालीसं एकसट्ठिभागे जोयणस्स विक्खंभेणं पण्णत्ते । [टी०] अष्टचत्वारिंशत्स्थानकेऽपि किमपि लिख्यते, पट्टण त्ति, विविधदेशपण्यान्यागत्य यत्र पतन्ति तत् पत्तनं नगरविशेषः । पत्तनं रत्नभूमिरित्याहुरेके। धम्मस्स त्ति पञ्चदशतीर्थकरस्य, इहाऽष्टचत्वारिंशद् गणा गणधराश्चोक्ताः, आवश्यके तु 10 त्रिचत्वारिंशत् पठ्यन्ते तदिदं मतान्तरमिति । सूरमंडले त्ति सूर्यविमानं येषां भागानामेकषष्ट्या योजनं भवति तेषामष्टचत्वारिंशत्, त्रयोदशभिस्तैयूँनं योजनमित्यर्थः ॥४८॥ 15 [सू० ४९] सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एकूणपण्णाए रातिदिएहिं छण्णउएणं भिक्खासतेणं अहासुत्तं आराहिया भवइ । देवकुरु-उत्तरकुरासु णं मणुया एकूणपण्णाए रातिदिएहिं संपत्तजोव्वणा भवति । तेइंदियाणं उक्कोसेणं एकूणपण्णं रातिंदिया ठिती पण्णत्ता । शेषं जिनपर्यायं विजानीहीति गाथार्थः ॥ स चायं जिनपर्यायः- बारस सोलस अट्ठारसेव अट्ठारसेव अटेव। सोलस सोल तहेकवीस चोद्द सोले य सोले य ॥६५४॥ निगदसिद्धा । सर्वायुष्कप्रतिपादनायाह- बाणउई चउहत्तरि सत्तरि तत्तो भवे असीई य । एगं च सयं तत्तो तेसीई पंचणउई य ॥६५५॥ अट्ठत्तरी च वासा तत्तो बावत्तरी च वासाइं । बावट्ठी चत्ता खलु सव्वगणहराउयं एयं ॥६५६।। गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव ॥" इति आवश्यकसूत्रनिर्युक्तेः हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ १. 'नके किमपि हे१ ॥ २. पट्टणं ति जे२ ॥ ३. “चुलसीइ १, पंचनउई २, बिउत्तरं ३, सोलसुत्तर ४, सयं च ५ । सत्तहिअं ६. पणनउई ७. तेणउई ८, अट्ठसीई अ ९ ॥२६६।। इक्कासीई १०, छावत्तरी अ ११, छावट्टि १२, सत्तवण्णा य १३ । पण्णा १४, तेयालीसा १५, छत्तीसा १६ चेव, पणतीसा १७ ॥२६७॥ तित्तीस १८, अट्ठवीसा १९, अट्ठारस २० चेव, तहय सत्तरस २१ । इक्कारस २२, दस २३, नवगं २४, गणाण माणं जिणिंदाणं १७ ॥२६८॥” इति आवश्यकनिर्युक्तौ ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५०] एकोनपञ्चाशत्-पञ्चाशत्स्थानके । १४१ [टी०] अथैकोनपञ्चाशत्स्थानके लिख्यते, सत्तसत्तमिया णं सप्त सप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसप्तमिका, सप्त च सप्तमदिनानि भवन्ति सप्तसु सप्तकेषु, अतः सा सप्तदिनसप्तकमयत्वादेकोनपञ्चाशता दिनैर्भवतीति । पडिम त्ति अभिग्रहः । छन्नउएणं भिक्खासएणं ति प्रथमे दिनसप्तके प्रतिदिनमेकोत्तरया भिक्षावृद्ध्या अष्टाविंशतिर्भिक्षा भवन्ति, एवं च सप्तस्वपि षण्णवतं भिक्षाशतं भवति, अथवा प्रतिसप्तकमेकोत्तरया 5 वृद्ध्या यथोक्तं भिक्षामानं भवति, तथाहि- प्रथमे सप्तके प्रतिदिनमेकैकभिक्षाग्रहणात् सप्त भिक्षा भवन्ति, द्वितीये द्वयोर्द्वयोर्ग्रहणाच्चतुर्दश, एवं सप्तमे सप्तानां ग्रहणादेकोनपञ्चाशदित्येवं सर्वसङ्कलने यथोक्तं मानं भवतीति, अहासुत्तं ति यथासूत्रं यथागमं सम्यक् कायेन स्पृष्टा भवति' इति शेषो द्रष्टव्यः । संपत्तजोव्वणा भवंति त्ति न मातापितृपरिपालनामपेक्षन्त इत्यर्थः । ठिइ त्ति आयुष्कम् ॥४९॥ 10 [सू० ५०] मुणिसुव्वयस्स णं अरहतो पंचासं अजियासाहस्सीतो होत्था। अणंतती णं अरहा पण्णासं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । पुरिसोत्तमे णं वासुदेवे पण्णासं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । सव्वे वि णं दीहवेयड्डा मूले पण्णासं पण्णासं जोयणाणि विक्खंभेणं पण्णत्ता। लंतए कप्पे पण्णासं विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता । सव्वातो णं तिमिसगुहा-खंडगप्पवातगुहातो पण्णासं पण्णासं जोयणाई आयामेणं पण्णत्तातो । सव्वे वि णं कंचणगपव्वया सिहरतले पण्णासं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता । 20 [टी०] अथ पञ्चाशत्स्थानकम्, तत्र पुरिसोत्तिम त्ति चतुर्थवासुदेवोऽनन्तजिनकालभावी । तथा कंचणग त्ति उत्तरकुरुषु नीलवदादीनां पञ्चानामानुपूर्वीव्यवस्थितानां महाहदानां पूर्वापरपार्श्वयोः प्रत्येकं दश दश काञ्चनपर्वता भवन्ति, ते च सर्वे शतम्, एवं देवकुरुषु निषधादीनां महाह्रदानां पार्श्वतः शतं भवति, १. सम्यग् न्यायेन हे२ विना । दृश्यतामेकाशीतिस्थानकटीकायाम् ॥ 15 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एकपञ्चाशद्-द्विपञ्चाशत्स्थानके । सर्व एव च ते जम्बूद्वीपे द्विशतमाना भवन्ति, ते योजनशतोच्छ्रिताः शतमूलविष्कम्भास्तन्नामकदेवनिवासभूतभवनालङ्कृतशिखरतलाः ॥५०॥ [सू० ५१] नवण्हं बंभचेराणं एकावण्णं उद्देसणकाला पण्णत्ता । चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो सभा सुधम्मा एकावण्णखंभसतसन्निविट्ठा 5 पण्णत्ता । एवं चेव बलिस्स वि । सुप्पभे णं बलदेवे एकावण्णं वाससतसहस्साई परमाउं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । दंसणावरण-नामाणं दोण्हं कम्माणं एकावण्णं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो। [टी०] अथैकपञ्चाशत्स्थानकम्, तत्र बंभचेराणं ति आचारप्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानां 10 शस्त्रपरिज्ञादीनाम्, तत्र प्रथमे सप्तोद्देशका इति सप्तैवोद्देशनकालाः, एवं द्वितीयादिषु क्रमेण षट्, चत्वारः, चत्वारः, एवं षट्, पञ्च, अष्टौ, चत्वारः, सप्त चेत्येवमेकपञ्चाशदिति । सुप्पहे त्ति चतुर्थो बलदेवः अनन्तजिज्जिननायककालभावी, तस्येहैकपञ्चाशद्वर्षलक्षाण्यायुरुक्तम्, आवश्यके तु पञ्चपञ्चाशदुच्यते तदिदं मतान्तर मिति । एकावण्णं उत्तरपगडीओ त्ति दर्शनावरणस्य नव नाम्नो द्विचत्वारिंशदित्येक15 पञ्चाशदिति ॥५१॥ सू० ५२] मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स बावण्णं नामधेजा पण्णत्ता, तंजहाकोहे कोवे रोसे दोसे अखमा संजलणे कलहे चंडिक्के भंडणे विवाए १०, माणे मदे दप्पे थंभे अत्तुक्कासे गव्वे परपरिवाए उक्कासे अवकासे उण्णते उण्णामे २१, माया उवही नियडी वलए गहणे णूमे कक्के कुरुते दंभे कूडे 20 झिम्मे किब्बिसिए आवरणया गृहणया वंचणया पलिकुंचणया सातिजोगे ३८, लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तण्हा भिज्झा अभिज्झा कामासा भोगासा जीवितासा मरणासा नंदी रागे ५२ । १. “पंचासीई १ पन्नत्तरी अ २ पन्नडि ३ पंचवन्ना य ४ । सत्तरस सयसहस्सा पंचमए आउअं होइ ५ ॥४०६|| पंचासीइ सहस्सा ६ पण्णट्ठी ७ तहय चेव पण्णरस ८ । बारस सयाई आउं ९ बलदेवाणं जहासंखं ॥४०७॥" इति आवश्यकनिर्युक्तौ ॥ २. अत्तुकासे खं० । अटी० मध्ये अत्तुकासे जे१ ॥ ३. उक्कोसे जे२ खं० । अटी० मध्येऽपि जे१ ॥ ४. अवकासे खं० जे१ । अटी० मध्येऽपि जे२ ॥ ५. उण्णत्ते जे१ खं० । अट्री० मध्ये उन्नाय खं०॥ ६. भिजा अभिजा जे२ । भिज्झा अभिज्झा अटी० मध्ये खं० जे१,२ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५२] द्विपञ्चाशत्स्थानकम् । १४३ गोथुभस्स णं आवासपव्वतस्स पुरथिमिल्लातो चरिमंतातो वलयामुहस्स महापायालस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते एस णं बावण्णं जोयणसहस्साई अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । दओभासस्स णं [आवासपव्वतस्स दाहिणिल्लातो चरिमंतातो] केउगस्स [महापायालस्स उत्तरिल्ले चरिमंते एस णं बावण्णं जोयणसहस्साई अबाहाते 5 अंतरे पण्णत्ते । संखस्स [णं आवासपव्वतस्स पच्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो] जुयकस्स [महापायालस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते एस णं बावण्णं जोयणसहस्साइं अबाहाते अंतरे पण्णत्ते ।] दगसीमस्स [णं आवासपव्वतस्स उत्तरिल्लातो चरिमंतातो] ईसरस्स 10 [महापायालस्स दाहिणिल्ले चरिमंते एस णं बावण्णं जोयणसहस्साइं अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । नाणावरणिजस्स नामस्स अंतरातियस्स एतेसि णं तिण्हं कम्मपगडीणं बावण्णं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो । सोहम्म-सणंकुमार-माहिंदेसु तिसु कप्पेसु बावण्णं विमाणवाससतसहस्सा 15 पण्णत्ता । [टी०] अथ द्विपञ्चाशत्स्थानकम्, तत्र मोहणिज्जस्स कम्मस्स त्ति इह मोहनीयकर्मणोऽवयवेषु चतुर्पु क्रोधादिकषायेषु मोहनीय[त्व?]मुपचर्यावयवे समुदायोपचारन्यायेन मोहनीयस्येत्युक्तम्, तत्रापि कषायसमुदायापेक्षया द्विपञ्चाशन्नामधेयानि न पुनरेकैकस्य कषायमात्रस्यैवेति, तत्र क्रोध इत्यादीनि दश 20 . नामानि क्रोधकषायस्य, चंडिक्के त्ति चाण्डिक्यम् । तथा मान इत्यादीन्येकादश मानकषायस्य, अत्तुक्कासे त्ति आत्मोत्कर्षः, उक्कासे त्ति उत्कर्षः, अवकासे त्ति अपकर्षः, उन्नए त्ति उन्नतः, पाठान्तरेण उन्नमः, उन्नामे त्ति उन्नामः । तथा मायादीनि सप्तदश मायाकषायस्य, णूमे त्ति न्यवमम्, कक्के त्ति कल्कम्, कुरुए त्ति कुरुकम्, १-२. दृश्यतां पृ० १४२ टि० ४-५ ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे त्रिपञ्चाशत्स्थानकम् । झिमे त्ति जैम्यम् । तथा लोभादीनि चतुर्दश लोभकषायस्य, 'भिज्झा अभिज्झ त्ति अभिध्यानमभिध्येत्यस्य तीतं पिधानमित्यादाविव वैकल्पिके अकारलोपे भिध्याऽभिध्या चेति शब्दभेदान्नामद्वयमिति । गोथुभेत्यादि, गोस्तुभस्य प्राच्यां लवणसमुद्रमध्यवर्त्तिनो वेलन्धरनागराज5 निवासभूतपर्वतस्य पौरस्त्याच्चरमान्तादपसृत्य वडवामुखस्य महापातालस्य महापातालकलशस्य पाश्चात्त्यश्चरमान्तो येन व्यवधानेन भवतीति गम्यते, एस णं ति एतदन्तरमबाधया व्यवधानलक्षणमित्यर्थः, द्विपञ्चाशद्योजनसहस्राणि भवन्तीत्यक्षरघटना, भावार्थस्त्वयम्- इह लवणसमुद्रं पञ्चनवतिं योजनसहस्राण्यवगाह्य पूर्वादिषु दिक्षु चत्वारः क्रमेण वडवामुख-केतुक-जूयकेश्वराभिधाना महापातालकलशा 10 भवन्ति, तथा जम्बूद्वीपपर्यन्ताद् द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यवगाह्य सहस्रविष्कम्भाश्चत्वार एव वेलन्धरनागराजपर्वता गोस्तुभादयो भवन्ति, ततश्च पञ्चनवत्यास्त्रिचत्वारिंशत्यपकर्षितायां द्विपञ्चाशत् सहस्राण्यन्तरं भवति । तथा सौधर्मे द्वात्रिंशद्विमानानां लक्षाणि, सनत्कुमारे द्वादश, माहेन्द्रे चाष्टाविति सर्वाणि द्विपञ्चाशत् ॥५२॥ [सू० ५३] देवकुरु-उत्तरकुरियातो णं जीवातो तेवण्णं तेवण्णं जोयण15 सहस्साइं साइरेगाई आयामेणं पण्णत्तातो । महाहिमवंत-रुप्पीणं वासहरपव्वयाणं जीवातो तेवण्णं तेवण्णं जोयणसहस्साइं नव य एक्कतीसे जोयणसते छच्च एकूणवीसतिभाए जोयणस्स आयामेणं पण्णत्तातो । . समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तेवण्णं अणगारा संवच्छरपरियाया पंचसु 20 अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महाविमाणेसु देवत्ताते उववन्ना । संमुच्छिमउरगपरिसप्पाणं उक्कोसेणं तेवण्णं वाससहस्साइं ठिती पण्णत्ता। [टी०] त्रिपञ्चाशत्स्थानके लिख्यते । महाहिमवंतेत्यादिसूत्रे संवादगाथातेवन्नसहस्साइं नव य सए जोयणाण इगतीसे । जीवा महाहिमवओ अद्धकला छक्कलाओ ॥ बृहत्क्षेत्र० ५६] त्ति । 25 संवच्छरपरियाग त्ति संवत्सरमेकं यावत् पर्यायः प्रव्रज्यालक्षणो येषां ते Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५४-५५] चतुःपञ्चाशत्स्थानकम् । १४५ संवत्सरपर्यायाः, महइमहालएसु महाविमाणेसु त्ति महान्ति च तानि विस्तीर्णानि च अतिमहालया इव अतिमहालयाश्च अत्यन्तमुत्सवाश्रयभूतानि महातिमहालयास्तेषु, महान्ति च तानि प्रशस्तानि विमानानि चेति विग्रहः, एते चाप्रतीताः, अनुत्तरोपपातिकाङ्गे तु येऽधीयन्ते ते त्रयस्त्रिंशत् बहुवर्षपर्यायाश्चेति ॥५३॥ [सू० ५४] भरहेरवएसु णं वासेसु एगमेगाए उस्सप्पिणीए एगमेगाए 5 ओसप्पिणीए चउप्पण्णं चउप्पण्णं उत्तमपुरिसा उप्पजिंसु वा उप्पज्जति वा उप्पजिस्संति वा, तंजहा- चउवीसं तित्थकरा, बारस चक्कवट्टी, णव बलदेवा, णव वासुदेवा । ___ अरहा णं अरिट्ठनेमी चउप्पण्णं रातिंदियाइं छउमत्थपरियागं पाउणित्ता जिणे जाए केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी । 10 समणे भगवं महावीरे एगदिवसेणं एगनिसेजाते चउप्पण्णं वागरणाई वागरित्था । अणंतइस्स णं अरहतो चिउप्पण्णं गणा चउप्पण्णं गणहरा होत्था । [टी०] चतुष्पञ्चाशत्स्थानके लिख्यते । पाउणित्त त्ति प्राप्य । एगणिसेजाए त्ति एकेनासनपरिग्रहेण, वागरणाई ति व्याक्रियन्ते अभिधीयन्ते इति व्याकरणानि प्रश्ने 15 सति निर्वचनतयोच्यमानाः पदार्थाः, वागरित्थ 'त्ति व्याकृतवान्, तानि चाप्रतीतानि। अनन्तनाथस्येह चतुष्पञ्चाशद् गणा गणधराश्चोक्ताः, आवश्यके तु पञ्चाशदुक्तास्तदिदं मतान्तरमिति ॥५४॥ [सू० ५५] मल्ली णं अरहा पणपन्नं वाससहस्साइं परमाउं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । मंदरस्स णं पव्वतस्स पच्चथिमिल्लातो चरिमंतातो विजयबारस्स पच्चथिमिल्ले चरिमंते एस णं पणपण्णं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं १. विस्तीर्णानि महालया इव अतिमहालयाश्च जे२ ॥ २. "मुत्सेधाश्रय' खं० ॥ ३. अनुत्तरोपपातिकाङ्गे त्रयो वर्गा विद्यन्ते । तत्र प्रथमे वर्गे दश अध्ययनानि, द्वितीये त्रयोदश, तृतीये दश, इत्येवं त्रयस्त्रिंशदध्ययनानि। तेषु च त्रयस्त्रिंशतो बहुवर्षपर्यायाणामनुत्तरोपपातिकानामनगाराणं वर्णनं दृश्यते ।। ४. येऽभिधीयते खं०॥ ५. दृश्यतां पृ० १४० टि० ३ ॥ 20 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पञ्चपञ्चाशत्स्थानकम् । चउद्दिसिं पि वेजयंतं जयंतं अपराजियं ति । समणे भगवं महावीरे अंतिमरातियंसि पणपण्णं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाइं पणपण्णं अज्झयणाणि पावफलविवागाणि वागरेत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । 5. पढम-बितियासु दोसु पुढवीसु पणपण्णं निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता। दंसणावरणिज-णामा-ऽऽउयाणं तिण्हं कम्मपगडीणं पणपण्णं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो । [टी०] पञ्चपञ्चाशत्स्थानके किञ्चिद् लिख्यते। मंदरस्सेत्यादि, इह मेरो: पश्चिमान्तात् पूर्वस्य जम्बूद्वीपद्वारस्य पश्चिमान्तः पञ्चपञ्चाशत् सहस्राणि योजनानां भवतीत्युक्तम्, तत्र 10 किल मेरोर्विष्कम्भमध्यभागात् पञ्चाशत् सहस्राणि द्वीपान्तो भवति, लक्षप्रमाणत्वाद् द्वीपस्य, मेरुविष्कम्भस्य च दशसाहसिकत्वाद् द्वीपार्धे पञ्चसहस्रक्षेपेण पञ्चपञ्चाशदेव भवतीति, इह च यद्यपि विजयद्वारस्य पश्चिमान्त इत्युक्तं तथापि जगत्याः पूर्वान्त इति किल सम्भाव्यते, मेरुमध्यात् पञ्चाशतो योजनसहस्राणां जगत्या बाह्यान्ते पूर्यमाणत्वात्, जम्बूद्वीपजगतीविष्कम्भेण च सह जम्बूद्वीपलक्षं पूरणीयम्, लवणसमुद्रजगतीविष्कम्भेण 15 च सह लवणसमुद्रलक्षद्वयमन्यथा द्वीपसमुद्रमानाज्जगतीमानस्य पृथग् गणने मनुष्यक्षेत्रपरिधिरतिरिक्ता स्यात्, सा हि पञ्चचत्वारिंशल्लक्षप्रमाणक्षेत्रापेक्षयाऽभिधीयते, ततश्चैवमतिरिक्ता स्यादिति, अथवेह किञ्चिदूनापि पञ्चपञ्चाशत् पूर्णतया विवक्षितेति । अंतिमराइयंसि त्ति सर्वायु:कालपर्यवसानरात्रौ रात्रेऽन्तिमे भागे पापायां मध्यमायां नगर्यां हस्तिपालस्य राज्ञः करणसभायां कार्तिकमासामावास्यायां स्वातिना नक्षत्रेण 20 चन्द्रमसा युक्तेन नागे करणे प्रत्यूषसि पर्यङ्कासननिषण्णः पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि कल्लाणफलविवागाई ति कल्याणस्य पुण्यस्य कर्मणः फलं कार्यं विपाच्यते व्यक्तीक्रियते यैस्तानि कल्याणफलविपाकानि, एवं पापफलविपाकानि, व्याकृत्य प्रतिपाद्य सिद्धो बुद्धः, यावत्करणात् ‘मुत्ते अंतकडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे' १. 'नके त्विदं लि जे१ खं० हे१,२ ॥ २. मंदरस्येत्यादि जे१ खं० हे१,२ ॥ ३. भवंतीति जे१ खं० हे२॥ ४. च नास्ति जे२ ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५६-५७] षट्पञ्चाशत्-सप्तपञ्चाशत्स्थानके। १४७ त्ति दृश्यम् । पढमेत्यादि, प्रथमायां त्रिंशन्नरकलक्षाणि द्वितीयायां पञ्चविंशतिरिति पञ्चपञ्चाशत्। दंसणेत्यादि, दर्शनावरणीयस्य नव प्रकृतयो नाम्नो द्विचत्वारिंशत् आयुषश्चतस्र इत्येवं पञ्चपञ्चाशदिति ॥५५॥ [सू० ५६] जंबुद्दीवे णं दीवे छप्पण्णं नक्खत्ता चंदेण सद्धिं जोगं जोएंसु 5 वा जोएंति वा जोइस्संति वा ।। विमलस्स णं अरहतो छप्पण्णं गणा छप्पण्णं गणहरा होत्था । [टी०] अथ षट्पञ्चाशत्स्थानके लिख्यते । जंबुद्दीवेत्यादि, तत्र चन्द्रद्वयस्य प्रत्येकमष्टाविंशतेर्भावात् षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि भवन्ति । विमलस्येह षट्पञ्चाशद् गणा गणधराश्चोक्ताः, आवश्यके तु सप्तपञ्चाशदुच्यते तदिदं मतान्तरमिति ॥५६॥ 10 [सू० ५७] तिण्हं गणिपिडगाणं आयारचूलियवजाणं सत्तावण्णं अज्झीणा पण्णत्ता, तंजहा- आयारे सूतगडे ठाणे । गोथुभस्स णं आवासपव्वतस्स पुरथिमिल्लातो चरिमंतातो वलयामुहस्स महापातालस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं सत्तावण्णं जोयणसहस्साइं अबाहाए । अंतरे पण्णत्ते । एवं दओभासस्स केउकस्स य, संखस्स जुयकस्स य, 15 दयसीमस्स ईसरस्स य । मल्लिस्स णं अरहतो सत्तावण्णं मणपज्जवनाणिसता होत्था । महाहिमवंत-रुप्पीणं वासधरपव्वयाणं जीवाणं धणुपट्ठा सत्तावण्णं सत्तावण्णं जोयणसहस्साइं दोण्णि य तेणउते जोयणसते दस य एकूणवीसतिभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ता । 20. [टी०] अथ सप्तपञ्चाशत्स्थानके किमपि लिख्यते । गणिपिडगाणं ति गणिनः आचार्यस्य पिटकानीव पिटकानि सर्वस्वभाजनानीति गणिपिटकानि, तेषाम्, आचारस्य श्रुतस्कन्धद्वयरूपस्य प्रथमाङ्गस्य चूलिका सर्वान्तिममध्ययनं १. दृश्यतां पृ० १४० टि० ३ ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अष्टपञ्चाशत्स्थानकम् । विमुक्त्यभिधानमाचारचूलिका, तद्वर्जानाम्, तत्राऽऽचारे प्रथमश्रुतस्कन्धे नवाध्ययनानि, द्वितीये षोडश, निशीथाध्ययनस्य प्रस्थानान्तरत्वेनेहानाश्रयणात्, षोडशानां मध्ये एकस्याचारचूलिकेति परिहतत्वात् शेषाणि पञ्चदश, सूत्रकृते द्वितीयाङ्गे प्रथमश्रुतस्कन्धे षोडश, द्वितीये सप्त, स्थानाङ्गे दशेत्येवं सप्तपञ्चाशदिति । 5 गोथुभेत्यादौ भावार्थोऽयम्-द्विचत्वारिंशत् सहस्राणि वेदिका-गोस्तुभपर्वतयोरन्तरम्, सहस्रं गोस्तुभस्य विष्कम्भः, द्विपञ्चाशद् गोस्तुभ-वडवामुखयोरन्तरम्, दशसहसमानत्वाद्वडवामुखविष्कम्भस्य तदर्धा पञ्चेति ततो द्विपञ्चाशतः पञ्चानां च मीलने सप्तपञ्चाशदिति। जीवाणं धणुपट्ट त्ति । मण्डलखण्डाकारं क्षेत्रम्, इह सूत्रे संवादगाथार्द्धम्- सत्तावन्न सहस्सा धणुं पि तेणउय दुसय दस य कल [बृहत्क्षेत्र० ५७] त्ति 10 ॥५७॥ [सू० ५८] पढम-दोच्च-पंचमासु तीसु पुढवीसु अट्ठावण्णं निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता । नाणावरणिजस्स वेयणिय[स्स] आउय[स्स] नाम[स्स] अंतराइयस्स य एतेसि णं पंचण्हं कम्मपगडीणं अट्ठावण्णं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो ।। 15 गोथुभस्स णं आवासपव्वतस्स पच्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं अट्ठावण्णं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं चउद्दिसिं पि नेतव्वं । [टी०] अष्टपञ्चाशत्स्थानकेऽपि किमपि लिख्यते । पढमेत्यादि तत्र प्रथमायां त्रिंशन्नरकलक्षाणि द्वितीयायां पञ्चविंशतिः पञ्चम्यां त्रीणीति सर्वाण्यष्टपञ्चाशदिति । 20 नाणेत्यादि, तत्र ज्ञानावरणस्य पञ्च वेदनीयस्य द्वे आयुषश्चतम्रो नाम्नो द्विचत्वारिंशत् अन्तरायस्य पञ्चेति सर्वा अष्टपञ्चाशदुत्तरप्रकृतयः । गोथुभस्सेत्यादि, अस्य च भावार्थः पूर्वोक्तानुसारेणावसेयः । एवं चउद्दिसिं पि नेयव्वं ति अनेन सूत्रत्रयमतिदिष्टम्, तच्चैवम्- ‘दओभासस्स णं आवासपव्वयस्स उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ केउगस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभागे एस णं अट्ठावन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५९-६०] एकोनषष्टि-षष्टिस्थानके । १४९ पन्नत्ते, एवं संखस्स आवासपव्वयस्स पुरत्थि मिल्लाओ चरिमंताओ जूयगस्स महापातालस्स, एवं दगसीमस्स आवासपव्वयस्स दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ ईसरस्स महापायालस्स' त्ति ॥५८॥ [सू० ५९] चंदस्स णं संवच्छरस्स एगमेगे उदू एगूणसहिँ रातिंदियाणि रातिदियग्गेणं पण्णत्ते । 5 संभवे णं अरहा एकूणसहिँ पुव्वसतसहस्साई अगारमज्ञ वसित्ता मुंडे जाव पव्वतिते । मल्लिस्स णं अरहतो एगूणसडिं ओहिण्णाणिसता होत्था । [टी०] अथैकोनषष्टिस्थानके लिख्यते । चंदस्स णमित्यादि, संवत्सरो ह्यनेकविधः स्थानाङ्गादिषूक्तः, तत्र यश्चन्द्रगतिमङ्गीकृत्य संवत्सरो विवक्ष्यते स चन्द्र एव, तत्र 10 च द्वादश मासाः षट् च ऋतवो भवन्ति, तत्र चैकैकऋतोरेकोनषष्टी रात्रिंदिवानां रात्रिंदिवाग्रेण भवति, कथम् ?, एकोनत्रिंशद्रात्रिंदिवानि द्वात्रिंशच्च द्विषष्टिभागा अहोरात्रस्येत्येवंप्रमाणः कृष्णप्रतिपदारब्धः पौर्णमासीपरिनिष्ठितः चन्द्रमासो भवति, द्वाभ्यां च ताभ्यामृतुर्भवति, तत एकोनषष्टिः अहोरात्राण्यसौ भवति, यच्चेह द्विषष्टिभागद्वयमधिकं तन्न विवक्षितम् । सम्भवस्यैकोनषष्टिः पूर्वलक्षाणि गृहस्थपर्याय इहोक्तः, आवश्यके 15 तु चतुःपूर्वाङ्गाधिका सोक्तेति ॥५९॥ [सू० ६०] एगमेगे णं मंडले सूरिए सट्ठीए सट्ठीए मुहुत्तेहिं संघाएइ । लवणस्स णं समुदस्स सर्टि नागसाहस्सीओ अग्गोदयं धारेंति । विमले णं अरहा सहिँ धणूई उद्धंउच्चत्तेणं होत्था । बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स सहिँ सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्तातो । 20 बंभस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सहिँ सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्तातो । सोहम्मीसाणेसु दोसु कप्पेसु सहिँ विमाणावाससतसहस्सा पण्णत्ता । [टी०] अथ षष्टिस्थानकम्, तत्र एगमेगेत्यादि, चतुरशीत्यधिकशतसंख्यानां १. जूयस्स जे२ ॥ २. “पण्णरस सयसहस्सा कुमारवासो अ संभवजिणस्स । चोआलीसं रज्जे चउरंगं चेव बोद्धव्वं ॥२७९॥” इति आवश्यकनिर्युक्तौ । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एकषष्टिस्थानकम् । सूर्यमण्डलानामेकैकं मण्डलं तथाविधमार्गभूमिं सूर्यः षष्ट्या षष्ट्या मुहूर्तः द्वाभ्यां . द्वाभ्यामहोरात्राभ्यामित्यर्थः सङ्घातयति निष्पादयति, अयमत्र भावार्थः- एकस्मिन्नहनि यत्र स्थाने उदितः सूर्यस्तत्र स्थाने पुनीभ्यामहोरात्राभ्यामुदेतीति । अग्गोदयं ति षोडशसहस्रोच्छ्रिताया वेलाया यदुपरि गव्यूतद्वयमानं वृद्धिहानिस्वभावं तदग्रोदकम् । 5 बलिस्स त्ति औदीच्यस्य असुरकुमारनिकायराजस्य । बंभस्स त्ति ब्रह्मलोकाभिधानपञ्चमदेवलोकेन्द्रस्य । सहि त्ति सौधर्मे द्वात्रिंशदीशाने चाष्टाविंशतिर्विमानलक्षाणीति कृत्वा षष्टिस्तानि भवन्तीति ॥६०॥ [सू० ६१] पंचसंवच्छरियस्स णं जुगस्स रिदुमासेणं मिजमाणस्स एगसडिं उदुमासा पण्णत्ता ।। 10 मंदरस्स णं पव्वतस्स पढमे कंडे एगसहिँ जोयणसहस्साई उईउच्चत्तेणं पण्णत्ते । चंदमंडले णं एगसट्ठिविभागभतिए समंसे पण्णत्ते । एवं सूरस्स वि । [टी०] अथ एकषष्टिस्थानकम्, तत्र पञ्चेत्यादि, पञ्चभिः संवत्सरैर्निर्वृत्तमिति पञ्चसांवत्सरिकम्, तस्य, णमित्यलङ्कारे, युगस्य कालमानविशेषस्य ऋतुमासेन 15 न चन्द्रादिमासेन मीयमानस्य एकषष्टिः ऋतुमासाः प्रज्ञप्ताः, इह चायं भावार्थ: युगं हि पञ्च संवत्सरा निष्पादयन्ति, तद्यथा- चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवर्द्धितः चन्द्रोऽभिवर्धितश्चेति, तत्र एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशच्च द्विषष्टिभागा अहोरात्रस्येत्येवंप्रमाणेन २९ ३२ कृष्णप्रतिपदारब्धेन पौर्णमासीनिष्ठितेन चन्द्रमासेन द्वादशमासपरिमाणश्चन्द्रसंवत्सरस्तस्य च प्रमाणमिदम्- त्रीणि शतान्यह्नां चतुष्पञ्चाशदुत्तराणि द्वादश च द्विषष्टिभागा दिवसस्य 20 ३५४६२, तथा एकत्रिंशद् दिवसा एकविंशत्युत्तरं च शतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानां दिवसस्येत्येवंप्रमाणोऽभिवर्द्धितमासो भवति, ३१ १२४ , एतेन च मासेन द्वादशमासप्रमाणोऽभिवर्द्धितसंवत्सरो भवति, स च प्रमाणेन त्रीणि शतान्यह्नां त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्विषष्टिभागा दिवसस्य ३८३ ६२ । तदेवं त्रयाणां १. प्रमाणत: जे१ हे१,२ । प्रमाणत जे२ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ६२] द्विषष्टिस्थानकम् । १५१ चन्द्रसंवत्सराणां द्वयोश्चाभिवर्द्धितसंवत्सरयोरेकीकरणे जातानि दिनानाम् अष्टादश शतानि त्रिंशदुत्तराणि १८३०, ऋतुमासश्च त्रिंशताऽहोरात्रैर्भवतीति त्रिंशता भागहारे लब्धा एकषष्टिः ऋतुमासा इति ।। मंदरस्सेत्यादि, इह मेरुर्नवनवतियोजनसहस्रप्रमाणो द्विधा विभक्तः, तत्र प्रथमो भाग एकषष्टिः सहस्राण्युक्तः, द्वितीयस्तु अष्टत्रिंशत्स्थानकेऽष्टत्रिंशदिति, क्षेत्रसमासे तु 5 कन्देन सह लक्षप्रमाणस्त्रिधा विभक्तः, तत्र प्रथमं काण्डं सहस्रं द्वितीयं त्रिषष्टिस्तृतीयं षट्त्रिंशदिति । चंदमंडले इत्यादि चन्द्रमण्डलं चन्द्रविमानं णमित्यलङ्कृतौ एगसट्ठि त्ति योजनस्यैकषष्टितमैर्भागैर्विभाजितं विभागैर्व्यवस्थापितं समांशं समविभागं प्रज्ञप्तम्, न विषमांशम्, योजनस्यैकषष्टिभागानां षट्पञ्चाशद्भागप्रमाणत्वात् तस्यावशिष्टस्य च भागभागस्याविद्यमानत्वादिति । एवं सूरस्स वि त्ति एवं सूर्यस्यापि मण्डलं 10 वाच्यम्, अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागमात्रं हि तत्, न चापरमंशान्तरं तस्याप्यस्तीति समांशतेति ॥६१॥ [सू० ६२] पंचसंवच्छरिए णं जुगे बावडिं पुण्णिमातो बावहिँ अमावासातो [पण्णत्तातो] । वासुपुज्जस्स णं अरहतो बावहिँ गणा बावढि गणहरा होत्था । 15 सुक्कपक्खस्स णं चंदे बावडिं बावडिं भागे दिवसे दिवसे परिवहृति, ते चेव बहुलपक्खे दिवसे दिवसे परिहायति । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु पढमे पत्थडे पढमावलियाए एगमेगाए दिसाए बावहिँ बावडिं विमाणा पण्णत्ता ।। सव्वे वेमाणियाणं बावहिँ विमाणपत्थडा पत्थडग्गेणं पण्णत्ता। 20 टी०] अथ द्विषष्टिस्थानकम्, पंचेत्यादि, तत्र युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सरा भवन्ति, तेषु षट्त्रिंशत् पौर्णमास्यो भवन्ति, द्वौ चाभिवर्द्धितसंवत्सरौ भवतः, तत्र चाभिवर्द्धितसंवत्सरस्त्रयोदशभिश्चन्द्रमासैर्भवतीति तयोः षड्विंशतिः पौर्णमास्य इत्येवं द्विषष्टिस्ता भवन्ति इत्येवममावास्या अपीति । वासुपूज्यस्येह द्विषष्टिर्गणा गणधराश्चोक्ता १. अत्र दृश्यतां पृ० १३१ पं० १८ ॥ २. तस्य च भागभागस्या खं० जे१ ।। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे आवश्यके तु षट्षष्टिरुक्तेति मतान्तरमिदमपीति । सुक्कपक्खस्सेत्यादि, शुक्लपक्षस्य सम्बन्धी चन्द्रो द्विषष्टिं भागान् प्रतिदिनं वर्द्धते, एवं कृष्णपक्षे चन्द्रः परिहीयते, अयं चार्थः सूर्यप्रज्ञप्त्यामप्युक्तः, तथाहिकिण्हं राहुविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियं । चउरंगुलमप्पत्तं हेट्ठा चंदस्स तं चरइ ॥ बावहिँ बावहिँ दिवसे दिवसे उ सुक्कपक्खस्स । जं परिवड्वइ चंदो खवेइ तं चेव कालेणं ॥ पन्नरसइभागेण य चंदं पण्णरसमेव तं वरइ । पण्णरसइभागेण य पुणो वि तं चेव वक्कमइ ॥ 10 एवं वड्डइ चंदो परिहाणी एव होइ चंदस्स । कालो वा जोण्हा वा एयणुभावेण चंदस्स ॥ [सूर्यप्र० १९] तथा तत्रैवोक्तम् - सोलस भागे काऊण उडुवई हायएत्थ पन्नरसं । तेत्तियमेत्ते भागे पुणो वि परिवहई जोण्हं ॥ [ज्योतिष्क० १११] ति । 15 तदेवं भणितद्वयानुसारेणानुमीयते यथा चन्द्रमण्डलस्य एकत्रिंशदुत्तर नवशतभागविकल्पितस्य एकोऽशोऽवस्थित एवास्ते, शेषाः प्रतिदिवसं द्विषष्टिं द्विषष्टिं कृत्वा वर्धन्ते, ततः पञ्चदशे चन्द्रदिने सर्वे समुदिता भवन्ति, पुनस्तथैव हीयन्ते पञ्चदशे दिने एकावशेषा भवन्तीति वचनद्वयसामर्थ्यलभ्यं व्याख्यानमेतत् । जीवाभिगमे तु 'बावडिं बावडिं' गाहा तथा ‘पन्नरसतिभागेणं' गाहा एते गाथे इत्थं व्याख्याते - 20 बावडिं बावडिं इत्यत्र द्विषष्टिर्द्विषष्टि गानां दिवसे दिवसे च प्रत्यहमित्यर्थः, शुक्लपक्षस्य सम्बन्धिनि, यत् परिवर्द्धते चन्द्रश्चतुरः साधिकान् द्विषष्टिभागान्, क्षपयति तदेव कालेन, एतदेवाह- पन्नरस इत्यादिना, चन्द्रविमानं द्विषष्टिभागान् क्रियते ततः १. दृश्यतामत्र पृ०१४० टि०३ ॥ २. द्विषष्टिभागान् जे१खं०हे१ ॥ ३. इमाश्चतम्रो गाथाः सूर्यप्रज्ञप्तौ एकोनविंशतितमे प्राभृते सन्ति । तत्र च ‘कालो वा जोण्हो वा' इति पाठः । प्रागपि उद्धृतेयं गाथा ज्योतिष्करण्डकात्, दृश्यतां पृ० ६० पं० ६ टि० २ ॥ किन्तु ‘तथा तत्रैवोक्तम्' इति पाठेन अत्र सूर्यप्रज्ञप्तेः प्रकृतत्वात् ‘सूर्यप्रज्ञप्तावेव उक्तम्' इत्यर्थः सूच्यते, किन्तु सूर्यप्रज्ञप्तौ चन्द्रप्रज्ञप्तौ वा नेयं गाथा कुत्रापि समुपलभ्यते ॥ ४. दृश्यतां पृ०६० टि०२।। ५. व्याख्यायेते हे२ ।। ६. द्विषष्टिर्द्विषष्टिभागानां जे१ । द्विषष्टि गानां खं० । द्विषष्टिभागानां हे१,२। (द्विषष्टिं द्विषष्टिं भागानां ?) ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ [सू० ६३] द्विषष्टिस्थानकम् । पञ्चदशभिर्भागोऽपह्रियते ततश्चत्वारो भागाः समधिका द्विषष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते, अत उच्यते- पञ्चदशभागेन चोक्तलक्षणेन चन्द्रमधिकृत्य पञ्चदशैव दिवसांस्तद्राहुविमानं चरति, एवमपक्रामतीत्यपि भावनीयमिति, अत्रास्माभिर्यथादृष्टे लिखिते उपनीते बहुश्रुतैर्निर्णयः कार्य इति । सोहम्मीत्यादि, तत्र सौधर्मेशानयोस्त्रयोदश विमानप्रस्तटा भवन्ति, सनत्कुमार- 5 माहेन्द्रयोादश, ब्रह्मलोके षट्, लान्तके पञ्च, शुक्रे चत्वारः, एवं सहस्रारे, आनत-प्राणतयोश्चत्वारः, एवमारणा-ऽच्युतयोः, ग्रैवेयकेष्वधस्तनमध्यमोपरिमेषु त्रयः त्रयः, अनुत्तरेष्वेक इति द्विषष्टिस्ते भवन्ति । एतेषां च मध्यभागे प्रत्येकमुडुविमानादिकाः सर्वार्थसिद्धविमानान्ता वृत्तविमानरूपा द्विषष्टिरेव विमानेन्द्रका भवन्ति, तत्पार्श्वतश्च पूर्वादिषु दिक्षु त्र्यम्र-चतुरस्र-वृत्तविमानक्रमेण विमानानामावलिका भवन्ति, तदेवं 10 सौधर्मेशानयोः कल्पयोः प्रथमे प्रस्तटे सर्वाधस्तन इत्यर्थः पढमावलियाए त्ति प्रथमा उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया आद्याश्चतम्र आवलिका यस्मिन् स प्रथमावलिकाकस्तत्र, अथवा प्रथमात् मूलभूताद्विमानेन्द्रकादारभ्य याऽऽवलिका विमानानुपूर्वी तया, अथवोत्तरोत्तरावलिकापेक्षया एकैकस्यां दिशि या प्रथमा आद्यावलिका तस्याम्, पढमावलिय त्ति पाठान्तरे तु उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया या एकैकस्यां दिशि 15 प्रथमावलिका सा द्विषष्टिर्द्विषष्टिर्विमानानि प्रमाणेन प्रज्ञप्तेति, एगमेगाए त्ति उडुविमानाभिधानदेवेन्द्रकापेक्षया एकैकस्यां पूर्वादिकायां दिशि द्विषष्टिर्द्विषष्टिर्विमानानि प्रज्ञप्तानि, द्वितीयादिषु पुनः प्रस्तटेषु एकैकहान्या विमानानि भवन्ति यावद् द्विषष्टितमेऽनुत्तरसुरप्रस्तटे सर्वार्थसिद्धदेवेन्द्रकस्य पार्श्वत एकैकमेव भवतीति, तथा सव्वे त्ति सर्वे वैमानिकानां देवविशेषाणां सम्बन्धिनो द्विषष्टिविमानप्रस्तटा 20 विमानप्रतराः प्रस्तटाग्रेण प्रस्तटपरिमाणेन प्रज्ञप्ता इति ॥६२॥ [सू० ६३] उसभे णं अरहा कोसलिए तेवहिँ पुव्वसतसहस्साई महारायवासमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगारातो अणगारियं पव्वइते । १. यावदावलिका जे१ । यावआवलिका खं०॥ २. द्विषष्टिवि हे२ विना ।। ३. एगमेगाए इ त्ति जे१,२ खं० ॥ | Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे त्रिषष्टि-चतुःषष्टिस्थानके । हरिवास-रम्मयवासेसु मणूसा तेवट्ठीए रातिदिएहिं संपत्तजोव्वणा भवंति। निसढे णं पव्वते तेवहिँ सूरोदया पण्णत्ता । एवं नीलवंते वि । [टी०] अथ त्रिषष्टिस्थानकम्, तत्र संपत्तजोव्वण त्ति मातापितृपरिपालनानपेक्षा इत्यर्थः । निसहे णमित्यादि, किल सूर्यमण्डलानां चतुरशीत्यधिकशतसंख्यानां 5 मध्यात् जम्बूद्वीपस्य पर्यन्तिमे अशीत्युत्तरे योजनशते पञ्चषष्टिर्भवति, तत्र च निषधवर्षधरपर्वतस्योपरि नीलवद्वर्षधरस्य चोपरि त्रिषष्टिः सूर्योदयाः सूर्योदयस्थानानि सूर्यमण्डलानीत्यर्थः, तदन्ये तु द्वे जगत्या उपरि, शेषाणि तु लवणे त्रिषु त्रिंशदधिकेषु योजनशतेषु भवन्तीति भावार्थः ॥६३॥ [सू० ६४] अट्ठमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए रातिदिएहिं दोहि य 10 अट्ठासीतेहिं भिक्खासतेहिं अहासुत्तं जाव भवति । चउसहिँ असुरकुमारावाससतसहस्सा पण्णत्ता । चमरस्स णं रण्णो चउसद्धिं सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्तातो । सव्वे वि णं दधिमुहपव्वया पल्लासंठाणसंठिता सव्वत्थ समा विक्खंभुस्सेहेणं चउसहिँ चउसहिँ जोयणसहस्साई पण्णत्ता ।। 15 सोहम्मीसाणेसु बंभलोए य तीसु कप्पेसु चउसहिँ विमाणावाससतसहस्सा पण्णत्ता । सव्वस्स वि य णं रण्णो चाउरंतचक्कवहिस्स चउसट्ठीलट्ठीए महग्धे मुत्तामणिमए हारे पण्णत्ते । [टी०] अथ चतुःषष्टिस्थानकम्, अद्वेत्यादि, अष्टावष्टमानि दिनानि यस्यां 20 साऽष्टाष्टमिका, यस्यां हि अष्टौ दिनाष्टकानि भवन्ति तस्यामष्टावष्टमानि भवन्त्येवेति, भिक्षुप्रतिमा अभिग्रहविशेषः, अष्टावष्टकानि यतोऽसौ भवत्यतश्चतुःषष्ट्या रात्रिंदिवैः सा पालिता भवति, तथा प्रथमेऽष्टके प्रतिदिनमेकैका भिक्षा, एवं द्वितीये द्वे द्वे, यावदष्टमे अष्टावष्टाविति सङ्कलनया द्वे शते भिक्षाणामष्टाशीत्यधिके भवतः, अत उक्तम्१. दिनानि साऽष्टाष्टमिका यस्यां हि खं० । दिनानि यस्यां हि जे१,२ ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ [सू० ६५] पञ्चषष्टिस्थानकम् । द्वाभ्यां चेत्यादि, यावत्करणात् 'अहाकप्पं अहामग्गं फासिया पालिया सोभिया तीरिया कित्तिया सम्मं आणाए आराहिया यावि भवती' ति दृश्यम् । सव्वे विणमित्यादि इतोऽष्टमे नन्दीश्वराख्ये द्वीपे पूर्वादिषु दिक्षु चत्वारोऽञ्जनकपर्वता भवन्ति, तेषां च प्रत्येकं चतसृषु दिक्षु चतस्रः पुष्करिण्यो भवन्ति, तासां च मध्यभागेषु प्रत्येकं दधिमुखपर्वता भवन्ति, ते च षोडश पल्यकसंस्थानसंस्थिताः, यतः सर्वत्र समा 5 विष्कम्भेण, मूलादिषु दशसहस्रविष्कम्भत्वात्तेषाम्, क्वचित्तु विक्खंभुस्सेहेणं ति पाठस्तत्र तृतीयैकवचनलोपदर्शनाद्विष्कम्भेणेति व्याख्येयम्, तथा उत्सेधेनोच्चत्वेन चतुःषष्टिश्चतुःषष्टिरिति । सोहम्मेत्यादि, सौधर्मे द्वात्रिंशदीशानेऽष्टाविंशतिः ब्रह्मलोके च चत्वारि विमानलक्षाणि भवन्तीति सर्वाणि चतुःषष्टिरिति । चउसट्ठिलट्ठीए त्ति चतुःषष्टिर्यष्टीनां सरीणां यस्मिन्नसौ चतुःषष्टियष्टिकः, मुत्तामणिमये त्ति मुक्ताश्च 10 मुक्ताफलानि मणयश्च चन्द्रकान्तादिरत्नविशेषाः, मुक्तारूपा वा मणयो रत्नानि मुक्तामणयः, तद्विकारो मुक्तामणिमयः ॥६४॥ [सू० ६५] जंबुद्दीवे णं दीवे पणसहिँ सूरमंडला पण्णत्ता । थेरे णं मोरियपुत्ते पणसद्धिं वासाई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगारातो अणगारियं पव्वतिते । 15 सोहम्मवडेंसयस्स णं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए पणसहिँ पणसहि भोमा पण्णत्ता । [टी०] अथ पञ्चषष्टिस्थानकम्, तत्र मोरियपुत्ते णं ति मौर्यपुत्रो भगवतो महावीरस्य सप्तमो गणधरस्तस्य पञ्चषष्टिर्वर्षाणि गृहस्थपर्यायः, आवश्यकेऽप्येवमेवोक्तः, नवरमेतस्यैव यो बृहत्तरो भ्राता मण्डिकपुत्राभिधानः षष्ठगणधरः तद्दीक्षादिन 20 एव प्रव्रजितस्तस्याऽऽवश्यके त्रिपञ्चाशद्वर्षाणि गृहस्थपर्याय उक्तो न च बोधविषयमुपगच्छति यतो बृहत्तरस्य पञ्चषष्टियुज्यते लघुतरस्य त्रिपञ्चाशदिति । सोहम्मेत्यादि, सौधर्मावतंसकं विमानं सौधर्मदेवलोकस्य मध्यभागवर्ति शक्रनिवासभूतम्, एगमेगाए बाहाए त्ति एकैकस्यां दिशि प्राकाराभ्यर्णवर्तीनि १. दृश्यतां पृ० १३९ टि० ४ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे षट्षष्टिस्थानकम् । भौमानि नगराकाराणि, विशिष्टस्थानानीत्येके ॥६५॥ [सू० ६६] दाहिणट्ठमणुस्सखेत्ता णं छावडिं चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, छावहिं सूरिया तवइंसु वा तवइंति वा तवइस्संति वा। उत्तरड्डमणुस्सखेत्ता णं छावहि चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति 5 वा । छावहिं सूरिया तवइंसु वा तवइंति वा तवइस्संति वा । सेजंसस्स णं अरहतो छावहिँ गणा छावडिं गणहरा होत्था । आभिणिबोहियनाणस्स णं उक्कोसेणं छावढि सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता। [टी०] अथ षट्षष्टिस्थानकम्, तत्र दाहिणेत्यादि, मनुष्यक्षेत्रस्यार्द्धमर्द्धमनुष्यक्षेत्रं दक्षिणं च तत्तच्चेति दक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्रम्, तत्र भवा दाक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्राः, 10 णमित्यलङ्कारे, षट्षष्टिश्चन्द्राः प्रभासितवन्तः प्रभासनीयम्, अथवा लिङ्गव्यत्ययाद् दक्षिणानि यानि मनुष्यक्षेत्राणाम नि तानि तथा, तानि प्रकाशितवन्तः, पाठान्तरे दक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्रे प्रभासनीयं प्रभासितवन्तः, ते च एवम्- द्वौ जम्बूद्वीपे चन्द्रौ चत्वारो लवणसमुद्रे द्वादश धातकीखण्डे द्विचत्वारिंशत् कालोदसमुद्रे द्विसप्ततिश्च पुष्कराधे, सर्वे चैते द्वात्रिंशदधिकं शतम्, एतदर्थं च षट्षष्टिदक्षिणपङ्क्तौ स्थिताः 15 षट्षष्टिश्चोत्तरपङ्क्तौ, यदा चोत्तरपङ्क्तिः पूर्वस्यां गच्छति तदा दक्षिणा पश्चिमायामिति, एवं सूर्यसूत्रमप्यवसेयमिति । छावहिं गण त्ति आवश्यके तु षट्सप्ततिरभिहितेतीदं च मतान्तरमिति । छावट्ठी सागरोवमाइं ठिइ त्ति, यच्चातिरिक्तं तदिह न विवक्षितम्, यत एवमिदमन्यत्रोच्यते दो वारे विजयाइसु गयस्स तिन्नऽच्चुए अहव ताई। १. दृश्यतां पृ० १४० टि० ३ ॥ २. "इह कश्चित् साधुर्मत्यादिज्ञानान्वितो देशोनां पूर्वकोटी यावत् प्रव्रज्यां परिपाल्य विजय-वैजयन्त-जयन्ता-ऽपराजितविमानानामन्यतरविमाने उत्कृष्टं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलक्षणदेवायुरनुभूय पुनरप्रतिपतितमत्यादिज्ञान एव मनुजेषूत्पन्नो देशोनां पूर्वकोटी प्रव्रज्यां विधाय तदैव विजयादिषूत्कृष्टमायुः संप्राप्य पुनरप्रतिपतितमत्यादिज्ञान एव मनुष्यो भूत्वा पूर्वकोटी जीवित्वा सिद्ध्यतीति । एवं विजयादिषु वारद्वयं गतस्य; अथवाऽच्युतदेवलोके द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु देवेषु त्रीन् वारान् गतस्य तानि षट्षष्टिसागरोपमानि अधिकानि भवन्ति । अधिकं चेह नरभवसंबन्धि देशोनं पूर्वकोटित्रयं चतुष्टयं वा द्रष्टव्यम् । नानाजीवानां तु सर्वाद्धं सर्वकालं मतिज्ञानस्य स्थितिः ।" इति विशेषावश्यकभाष्यस्य मलधारिहेमचन्द्रसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ [सू० ६७] - सप्तषष्टिस्थानकम् । अइरेगं नरभवियं नाणाजीवाण सव्वद्धं ॥ [विशेषाव० ४३६] ति ॥६६।। [सू० ६७] पंचसंवच्छरियस्स णं जुगस्स नक्खत्तमासेणं मिजमाणस्स सत्तसहि नक्खत्तमासा पण्णत्ता । हेमवतेरण्णवतियातो णं बाहातो सत्तसहिँ सत्तसहिँ जोयणसताइं पणपण्णाई तिण्णि य भागा जोयणस्स आयामेणं पण्णत्तातो । मंदरस्स णं पव्वतस्स पुरथिमिल्लातो चरिमंतातो गोयमदीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते एस णं सत्तसहिँ जोयणसहस्साई अबाधाते अंतरे पण्णत्ते। सव्वेसि पि णं नक्खत्ताणं सीमाविक्खंभे णं सत्तसट्ठिभागभइते समंसे पण्णत्ते । 10 [टी०] अथ सप्तषष्टिस्थानके किञ्चिद्विवियते । तत्र पंचसंवेत्यादि, नक्षत्रमासो येन कालेन चन्द्रो नक्षत्रमण्डलं भुङ्क्ते, स च सप्तविंशतिरहोरात्राणि एकविंशतिश्चाहोरात्रस्य सप्तषष्टिभागाः २७ १७, युगप्रमाणं चाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानीति प्राक् दर्शितम् १८३०, तदेवं नक्षत्रमासस्योक्तप्रमाणराशिना दिनसप्तषष्टिभागतया व्यवस्थापितेन त्रिंशदुत्तराष्टादशशतप्रमाणेन युगदिनप्रमाणराशिः सप्तषष्टिभागतया व्यवस्थापित एकं लक्षं 15 द्वाविंशतिः सहस्राणि षट् शतानि दश चेत्येवंरूपो विभज्यमानः सप्तषष्टिनक्षत्रमासप्रमाणो भवतीति । बाहाओ त्ति लघुहिमवज्जीवायाः पूर्वापरभागतो ये प्रबर्द्धमानक्षेत्रप्रदेशपङ्क्ती हैमवतवर्षजीवां यावत्ते हैमवतबाहू उच्यते एवमैरण्यवतबाहू अपि भावनीयौ, इह प्रमाणसंवादः- बाहा सत्तट्ठिसए पणपन्ने तिण्णि य कलाओ [बृहत्क्षेत्र० ५५] त्ति, कला एकोनविंशतिभागः, एतच्च बाहुप्रमाणं हैमवतधनुःपृष्ठात् चत्ताला सत्त सया अडतीससहस्स 20 दस कला य धणु [बृहत्क्षेत्र० ५५] त्ति एवंलक्षणात् ३८७४०१० हिमवद्धनुःपृष्ठे धणुपट्ट कलचउक्कं पणुवीससहस्स दुसय तीसहिय [बृहत्क्षेत्र० ५३] त्ति एवंलक्षणे २५२३० १९ अपनीते यच्छेषं तदर्कीकृतं सद्भवतीति, आयामेन दैर्येणेति । मंदरस्सेत्यादि, मेरोः पूर्वान्ताजम्बूद्वीपोऽपरस्यां दिशि जगतीबाह्यान्तपर्यवसानः १. दृश्यतां परिशिष्टे पृ० ५८ पं० २७ । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पञ्चपञ्चाशद्योजनसहस्राणि तावदस्ति, ततः परं द्वादशयोजनसहस्राण्यतिक्रम्य लवणसमुद्रमध्ये गौतमद्वीपाभिधानो द्वीपोऽस्ति तमधिकृत्य सूत्रार्थः संभवति, पञ्चपञ्चाशतो द्वादशानां च सप्तषष्टित्वभावात्, यद्यपि सूत्रपुस्तकेषु गौतमशब्दो न दृश्यते तथाप्यसौ दृश्यः, जीवाभिगमादिषु लवणसमुद्रे गौतम-चन्द्र-रविद्वीपान्. विना 5 द्वीपान्तरस्याश्रूयमाणत्वादिति । सव्वेसि पि णमित्यादि, सर्वेषामपि णमित्यलङ्कारे नक्षत्राणां सीमाविष्कम्भः पूर्वापरतश्चन्द्रस्य नक्षत्रभुक्तिक्षेत्रविस्तारः नक्षत्रेणाहोरात्रभोग्यक्षेत्रस्य सप्तषष्ट्या भागैर्भाजितो विभक्तः समांशः समच्छेदः प्रज्ञप्तः, भागान्तरेण तु भज्यमानस्य नक्षत्रसीमाविष्कम्भस्य विषमच्छेदता भवति, भागान्तरेण न भक्तुं शक्यते इत्यर्थः, तथाहि- नक्षत्रेणाहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य 10 सप्तषष्टिभागीकृतस्यैकविंशतिर्भागा अभिजिनक्षत्रस्य क्षेत्रतः सीमाविष्कम्भो भवति, एतावति क्षेत्रे चन्द्रेण सह तस्य योगो व्यपदिश्यत इत्यर्थः, तथा तस्यामेवैकविंशतौ त्रिंशन्मुहूर्तत्वादहोरात्रस्य त्रिंशता गुणितायां ६३० सप्तषष्ट्या हृतभागायां यल्लब्धं तत् कालसीमा भवति, चन्द्रेण सह तस्य योगकाल इत्यर्थः, सा च नव मुहूर्ताः सप्तविंशतिश्च सप्तषष्टिभागाः ९३७ । आह च अभिइस्स चंदजोगो सत्तहिँ खंडिए अहोरत्ते। भागा उ एक्कवीसं क्षेत्रतः होतऽहिगा नव मुहत्ता य ॥ [ज्योतिष्क० १६२] त्ति कालतः । तथा शतभिषग्-भरण्यार्द्रा-ऽऽश्लेषा-स्वाति-ज्येष्ठानां त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागास्तद्भागार्द्धं च क्षेत्रसीमाविष्कम्भो भवति, तस्यामेव सार्द्धत्रयस्त्रिंशति त्रिंशता गुणितायां १००५ सप्तषष्ट्या हृतभागायां यल्लब्धं तदेषां कालसीमा, तच्च पञ्चदश १. "अभिजित: अभिजिन्नक्षत्रस्य चन्द्रेण सह योगः सप्तषष्टिखण्डितः सप्तषष्टिप्रविभागीकृतो योऽहोरात्रस्तस्य सत्का ये एकविंशतिर्भागास्तावन्तं कालं भवति, ते चैकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः परिभाव्यमाना नव मुहूर्ताः अधिका: सप्तविंशतिसप्तषष्टिभागाधिका भवन्ति । तथाहि- सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्का ये एकविंशतिर्भागास्ते मुहूर्तगतभागकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तेषां सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धा नव मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागा इति ॥१६२॥” इति ज्योतिष्करण्डस्य मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ।। २. होंति हिगा खं० जे१ ॥ 15 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ [सू० ६८] सप्तषष्टि-अष्टषष्टिस्थानके। मुहूर्ताः, आह च सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य । एए छण्णक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजोगा ॥ [जम्बू० प्र० ७।१६०] इति । तथोत्तरात्रय-पुनर्वसु-रोहिणी-विशाखानां सप्तषष्टिभागानां शतं तद्भागार्द्धं च क्षेत्रविष्कम्भः सीमा भवति, तथा तस्मिन्नेव त्रिंशद्गुणिते ३०१५ तथैव हृतभागे यल्लब्धं 5 तदेषां कालसीमा भवति, सा च पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ता इति, आह चतिन्नेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य । एए छन्नक्खत्ता, पणयालमुहुत्तसंजोगा॥ [जम्बू० प्र० ७।१६० ] इति । शेषाणां पञ्चदशानां नक्षत्राणां सप्तषष्टिरेव सप्तषष्टिभागानां क्षेत्रसीमाविष्कम्भो भवति, तस्यां च तथैव गुणितायां २०१० हृतभागायां च यल्लब्धं तत् कालसीमा, तच्च त्रिंशन्मुहूर्ताः, आह 10 अवसेसा नक्खत्ता पन्नरस वि होंति तीसइमुहुत्ता । चंदस्स तेहिं जोगो समासओ एस वक्खामि ॥ [ज्योतिष्क० १६५] एवं चैकस्य षण्णां षण्णां पञ्चदशानां चेत्येवमष्टाविंशतेर्नक्षत्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि सप्तषष्टिभागानामेतदेव द्विगुणं षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां भवति, तच्च सहस्रत्रयं 15 षट् शतानि षष्ट्यधिकानि ३६६० ॥६७॥ [सू० ६८] धायइसंडे णं दीवे अट्ठसहि चक्कवट्टिविजया अट्ठसद्धिं रायधाणीतो पण्णत्ताओ । उक्कोसपदे अट्ठसहिँ अरहंता समुप्पजिंसु वा समुप्पजंति वा समुप्पजिस्संति वा । एवं चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा । पुक्खरवरदीवड्ढे णं अट्ठसहि विजया एवं चेव जाव वासुदेवा । 20 विमलस्स णं अरहतो अट्ठसढि समणसाहस्सीतो उक्कोसिया समणसंपदा होत्था । १. दृश्यतां परिशिष्टे पृ० ५२ पं० १५ ।। २. टीका- अवशेषाणि श्रवण-धनिष्ठाप्रभृतीनि नक्षत्राणि पञ्चदशापि सूर्येण सह गतानि यान्ति त्रयोदश समान् परिपूर्णानहोरात्रान् द्वादश च मुहूर्तान् यावत् । तथाहि- अमूनि परिपूर्णान् सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण समं व्रजन्ति, ततः सूर्येण सह एतानि पञ्चभागानप्यहोरात्रस्य सप्तषष्टिसंख्यान् गच्छन्ति, सप्तषष्टेश्च पञ्चभिर्भागे हृते लब्धास्त्रयोदशाहोरात्राः, शेषौ च द्वौ भागौ तिष्ठतः, तौ त्रिंशता गुण्येते जाता षष्टिः, तस्याः पञ्चभिर्भागे हृते लब्धा द्वादश मुहूर्ता इति ॥१६५॥” इति ज्योतिष्करण्डकस्य मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एकोनसप्ततिस्थानकम् । [टी०] अथाष्टषष्टिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, धायइसंडे इत्यादि, इह यदुक्तम् एवं चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेव त्ति तत्र यद्यपि चक्रवर्तिनां वासुदेवानां वा नैकदा अष्टषष्टिः सम्भवति यतो जघन्यतोऽप्येकैकस्मिन् महाविदेहे चतुर्णां चतुर्णां तीर्थकरादीनामवश्यं भावः स्थानाङ्गादिष्वभिहितः, न चैकत्र क्षेत्रे चक्रवर्ती 5 वासुदेवश्चैकदा भवतोऽतः षष्टिरेवोत्कर्षतश्चक्रवर्त्तिनां वासुदेवानां चाष्टषष्ट्यां विजयेषु भवति तथापीह सूत्रे एकसमयेनेत्यविशेषणात् कालभेदभाविनां चक्रवर्त्यादीनां विजयभेदेनाष्टषष्टिरविरुद्धा, अभिलप्यन्ते च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां भारत-काच्छाद्यभिलापेन चक्रवर्तिन इति ॥६८॥ [सू० ६९] समयखेत्ते णं मंदरवजा एकूणसत्तरिं वासा वासधरपव्वता 10 पण्णत्ता, तंजहा- पणतीसं वासा, तीसं वासहरा, चत्तारि उसुयारा । मंदरस्स पव्वतस्स पच्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो गोतमद्दीवस्स पच्चथिमिल्ले चरिमंते एस णं एकूणसत्तरि जोयणसहस्साइं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । मोहणिजवजाणं सत्तण्हं कम्मपगडीणं एकूणसत्तरं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो। 15 [टी०] अथैकोनसप्ततिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, समयेत्यादि, मन्दरवर्जा मेरुवर्जाः, वर्षाणि च भरतादिक्षेत्राणि वर्षधरपर्वताश्च हिमवदादयस्तत्सीमाकारिण: वर्षवर्षधरपर्वता: समुदिता एकोनसप्ततिः प्रज्ञप्ताः, कथम् ?, पञ्चसु मेरुषु प्रतिबद्धानि सप्त सप्त भरत-हैमवतादीनि पञ्चत्रिंशद्वर्षाणि तथा प्रतिमेरु षट् षट् हिमवदादयो वर्षधरास्त्रिंशत्तथा चत्वार एवेषुकारा इति सर्वसंख्यैकोनसप्ततिरिति । मंदरस्सेत्यादि, 20 लवणसमुद्रं पश्चिमायां दिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्य द्वादशसहस्रमानः सुस्थिताभिधानस्य लवणसमुद्राधिपतेर्भवनेनालङ्कृतो गौतमद्वीपो नाम द्वीपोऽस्ति, तस्य च पश्चिमान्तो मेरोः पश्चिमान्तादेकोनसप्ततिः सहस्राणि भवन्ति, पञ्चचत्वारिंशतो १. संडेत्यादि हेर विना ॥ २. चतुर्णा तीर्थकरा हेर विना ॥ ३. “जंबूदीवे दीवे महाविदेहे वासे जहन्नपते चत्तारि अरहंता चत्तारि चक्कवट्टी चत्तारि बलदेवा चत्तारि वासुदेवा उप्पजिसु वा उप्पजंति वा उप्पज्जिस्संति वा॥" इति स्थानाङ्गसूत्रे ४/२९९ ॥ ४. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ तृतीये चतुर्थे च वक्षस्कारे द्रष्टव्यम् ॥ ५. सहस्राणि भवति इति जेसं२ मध्ये पत्रस्याधस्तानिर्दिष्टः परितः पाठः ॥ ६. भवंतीति जे१ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ७०] सप्ततिस्थानकम् । १६१ जम्बूद्वीपसम्बन्धिनां द्वादशानामन्तरसम्बन्धिनां द्वादशानामेव द्वीपविष्कम्भसम्बन्धिनां च मीलनादिति । मोहनीयवर्जानां कर्मणामेकोनसप्ततिरुत्तरप्रकृतयो भवन्तीति कथम् ? ज्ञानावरणस्य पञ्च, दर्शनावरणस्य नव वेदनीयस्य द्वे, आयुषश्चतस्रः, नाम्नो द्विचत्वारिंशद्, गोत्रस्य द्वे, अन्तरायस्य पञ्चेति ॥६९॥ [सू० ७०] समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसतिराते मासे वीतिकंते 5 सत्तरीए रातिदिएहिं सेसेहिं वासावासं पजोसविते ।। पासे णं अरहा पुरिसादाणीए सत्तरिं वासाइं बहुपडिपुण्णाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । वासुपुजे णं अरहा सत्तरं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । मोहणिजस्स णं कम्मस्स सत्तरिं सागरोवमकोडाकोडीओ अबाहूणिया 10 कम्महिती कम्मणिसेगे पण्णत्ते । माहिंदस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सत्तरिं सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्तातो। [टी०] अथ सप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते, समणेत्यादि, वर्षाणां चतुर्मासप्रमाणस्य वर्षाकालस्य सविंशतिरात्रे विंशतिदिवसाधिके मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाशति दिनेष्वतीतेष्वित्यर्थः, सप्तत्यां च रात्रिंदिवेषु शेषेषु, भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यामित्यर्थः, 15 वर्षास्वावासो वर्षावास: वर्षावस्थानं पजोसवेइ त्ति परिवसति सर्वथा करोति, पञ्चाशति प्राक्तनेषु दिवसेषु तथाविधवसत्यभावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति, भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यां तु वृक्षमूलादावपि निवसतीति हृदयमिति । पुरिसादाणीए त्ति पुरुषाणामादानीयः उपादेयः पुरुषादानीयः । अबाहूणिया कम्मट्टिई कम्मणिसेगे पण्णत्ते त्ति, इह किलात्मा अविशिष्टमेव कर्मपुद्गलोपादानं कृत्वा उत्तरकालं 20 ज्ञानावरणीयादिकर्मणां स्वं स्वमबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादिप्रकृतिविभागतया अनाभोगिकेन वीर्येणोदयसहितं तद्दलिकं निषिञ्चति, उदययोग्यं रचयतीत्यर्थः, अतो द्विविधा स्थितिः- कर्मत्वापादनमात्ररूपा अनुभवरूपा च, यतः स्थितिः अवस्थानं तेन भावेनाप्रच्यवनम्, तत्र कर्मत्वापादनरूपां तामधिकृत्य सप्ततिः सागरोपमकोटीकोट्यः, १. भवंति जे२ ॥ २. समेत्यादि जे२ ॥ ३. सर्वथा वासं करोति हे२ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अनुभवरूपां त्वधिकृत्य सप्तवर्षसहस्रोनेति, तत्र अबाह त्ति किमुक्तं भवति ? बन्धावलिकाया आरभ्य यावत् सप्तवर्षसहस्राणि तावत् तत् कर्म न बाधते, नोदयं यातीत्यर्थः, ततोऽनन्तरसमये कर्मदलिकं पूर्वनिषिक्तम् उदये प्रवेशयति, निषेको नाम ज्ञानावरणादिकर्मदलिकस्यानुभवनार्थं रचना, तच्च प्रथमसमये बहुकं निषिञ्चति 5 द्वितीयसमये विशेषहीनं तृतीयसमये विशेषहीनमेवं यावदुत्कृष्टस्थिति कर्मदलिकं तावद्विशेषहीनं निषिञ्चति, तथा चोक्तम् मोत्तूण सगमबाहं पढमाए ठिइए बहुतरं दव्वं । सेसे विसेसहीणं जावुक्कोसन्ति सव्वासिं ॥ [कर्मप्र० ८३] ति । बाधृ लोडने [पा०धा० ५], बाधत इति बाधा कर्मण उदय इत्यर्थः, न बाधा अबाधा, 10 अन्तरं कर्मोदयस्येत्यर्थः, तया ऊनिका अबाधोनिका कर्मस्थितिः कर्मनिषेको भवतीत्येवमेके प्राहुः, अन्ये पुनराहुः- अबाधाकालेन वर्षसहस्रसप्तकलक्षणेनोना कर्मस्थितिः सप्तसहस्राधिकसप्ततिसागरोपमकोटीकोटीलक्षणा, कर्मनिषेको भवति, स च कियान् ? उच्यते- सत्तरं सागरोवमकोडाकोडीओ त्ति ॥७०॥ [सू० ७१] चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स हेमंताणं एक्कसत्तरीए राइदिएहिं 15 वीतिक्कंतेहिं सव्वबाहिरातो मंडलातो सूरिए आउटिं करेति । वीरियपुव्वस्स णं पुव्वस्स एक्कसत्तरिं पाहुडा पण्णत्ता । अजिते णं अरहा एक्कसत्तरिं पुव्वसतसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिते । एवं सगरे वि राया चाउरंतचक्कवट्टी एकसत्तरि पुव्व जाव पव्वतिते । 20 [टी०] अथैकसप्ततिस्थानके लिख्यते किञ्चित्, चउत्थस्सेत्यादि, इह भावार्थोऽयम्- . युगे हि पञ्च संवत्सरा भवन्ति, तत्राद्यौ चन्द्रसंवत्सरौ तृतीयोऽभिवर्द्धितसंवत्सरश्चतुर्थश्चन्द्रसंवत्सर एव, तत्र च एकोनत्रिंशता दिनानां द्वात्रिंशता च द्विषष्टिभागैर्दिनस्य चन्द्रमासो भवति, अयं च द्वादशगुणश्चन्द्रसंवत्सरो भवति, त्रयोदशगुणश्चायमेवाभिवर्द्धितो भवति, ततश्चन्द्र-चन्द्रा-ऽभिवर्द्धितलक्षणे संवत्सरत्रये 25 दिनानां सहस्रं द्विनवतिः षट् च द्विषष्टिभागा भवन्ति १०९२ ६., तथा Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ [सू० ७१] एकसप्ततिस्थानकम् । आदित्यसंवत्सरे दिनानां शतत्रयं षट्षष्टिश्च भवन्ति, तत्रितये च सहस्रमष्टनवत्यधिकं भवति, इह च किल चन्द्रयुगमादित्ययुगं चाषाढ्यामेकं पूर्यतेऽपरं च श्रावणकृष्णप्रतिपदि आरभ्यते, एवं चादित्ययुगसंवत्सरत्रयापेक्षया चन्द्रयुगसंवत्सरत्रयं पञ्चभिर्दिनैः षट्पञ्चाशता च दिनद्विषष्टिभागैरूनं भवतीति कृत्वा आदित्ययुगसंवत्सरत्रयं श्रावणकृष्णपक्षस्य चन्द्रदिनषट्के साधिके पूर्यते चन्द्रयुगसंवत्सरत्रयं त्वाषाढ्याम्, ततश्च 5 श्रावणकृष्णपक्षसप्तमदिनादारभ्य दक्षिणायनेनादित्यश्चरन् चन्द्रयुगचतुर्थसंवत्सरस्य चतुर्थमासान्तभूतायामष्टादशोत्तरशततमदिनभूतायां कार्तिक्यां द्वादशोत्तरशततमे स्वकीयमण्डले चरति, ततश्चान्यान्येकसप्ततिर्मण्डलानि तावत्स्वेव दिनेषु मार्गशीर्षादीनां चतुर्णां हेमन्तमासानां सम्बन्धिषु चरति, ततो द्विसप्ततितमे दिने माघमासे . बहुलपक्षत्रयोदशीलक्षणे सूर्य आवृत्तिं करोति, दक्षिणायनान्निवृत्त्योत्तरायणेन चरतीत्यर्थः, 10 उक्तं च ज्योतिष्करण्डके, पञ्चसु युगसंवत्सरेणूत्तरायणतिथयः क्रमेणैवं यदुत बहुलस्स सत्तमीए १ सूरो सुद्धस्स तो चउत्थीए २ । बहुलस्स य पाडिवए ३ बहुलस्स य तेरसीदिवसे ४ ॥ सुद्धस्स य दसमीए ५ पवत्तए पंचमी उ आउट्टी। १. क्रमेणैव जे१,२ हे२ ।। २. “पढमा बहुलपडिवए बिइया बहुलस्स तेरसीदिवसे । सुद्धस्स य दसमीए बहुलस्स य सत्तमीए उ ॥२४७॥ सुद्धस्स चउत्थीए पवत्तए पंचमी उ आउट्टी । एया आउट्टीओ सव्वाओ सावणे मासे ॥२४८॥ टीका- इह सूर्यस्य दशाऽऽवृत्तयो भवन्ति, एतच्चानन्तरमेव भावितम् । तत्र पञ्चावृत्तयः श्रावणे मासे पञ्च माघमासे। तत्र याः श्रावणे मासे भवन्ति तासां मध्ये प्रथमा बहुलपक्षे प्रतिपदि १, द्वितीया बहुलस्य बहुलपक्षस्य सम्बन्धिनि त्रयोदशीरूपे दिवसे २, तृतीया शुद्धस्य शुक्लपक्षस्य दशम्याम् ३, चतुर्थी बहुलपक्षस्य सप्तम्याम् ४, शुद्धस्य शुक्लपक्षस्य चतुर्थ्यां प्रवर्त्तते पञ्चमी आवृतिः ५ । एताः सर्वा अप्यावृत्तयः श्रावणे मासे वेदितव्याः ॥२४७-२४८।। साम्प्रतमेता आवृत्तयो येन नक्षत्रेण युता भवन्ति तन्नक्षत्रनिरूपणार्थमाह- पढमा होइ अभिइणा संठाणाहि य तहा विसाहाहिं। रेवतिए उचउत्थी पव्वाहिं फग्गणीहि तहा ॥२४९॥ टीका- श्रावणमासभाविनीनामन्तरोदितस्वरूपाणां पञ्चानामावृत्तीनां मध्ये प्रथमाऽऽवृत्तिरभिजिता नक्षत्रेण युता भवति, द्वितीया संठाणाहिं ति मृगशिरसा, तृतीया विशाखाभिः, चतुर्थी रेवत्या, पञ्चमी पूर्वाफाल्गुनीभिः ॥२४९॥ अधुना माघमासे भाविन्य आवृत्तयो यासु तिथिषु भवन्ति ता अभिदधाति- बहुलस्स सत्तमीए पढमा सुद्धस्स तो चउत्थीए । बहुलस्स य पाडिवए बहुलस्स य तेरसीदिवसे ॥२५०॥ सुद्धस्स य दसमीए पवत्तए पंचमी उ आउट्टी । एया आउट्टीओ सव्वाओ माघमासम्मि ॥२५१॥ टीका- माघमासे प्रथमाऽऽवृत्तिः बहुलस्य कृष्णपक्षस्य सप्तम्यां भवति १, द्वितीया शुद्धस्य शुक्लपक्षस्य चतुर्थ्याम् २, तृतीया बहुलपक्षस्य प्रतिपदि ३, चतुर्थी बहुलपक्षस्य त्रयोदशीदिवसे ४, पञ्चमी शुक्लपक्षस्य दशम्यां प्रवर्त्तते ५। एताः सर्वा अप्यावृत्तयो माघमासे भवन्ति ॥२५०-२५२॥” इति ज्योतिष्करण्डकस्य मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ।। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे 5 एआ आउट्टीओ सव्वाओ माघमासम्मि ॥ [ज्योतिष्क० २५०-२५१] त्ति । दक्षिणायनदिनानि चैवम्पढमा बहुलपडिवए १ बीया बहुलस्स तेरसीदिवसे २ । सुद्धस्स य दसमीए ३ बहुलस्स य सत्तमीए ४ उ ॥ सुद्धस्स चउत्थीए पवत्तए पंचमी उ आउट्टी । एया आउट्टीओ सव्वाओ सावणे मासे ॥ [ज्योतिष्क० २४७-२४८] त्ति । वीरियपुव्वस्स त्ति तृतीयपूर्वस्य, पाहुड त्ति प्राभृतमधिकारविशेषः । अजिएत्यादि, तस्य हि अष्टादश पूर्वलक्षाणि कुमारत्वं त्रिपञ्चाशच्चैकपूर्वाङ्गाधिका राज्यमित्येकसप्ततिः, इह च पूर्वाङ्गमधिकमल्पत्वान्न विवक्षितमिति । सगरो द्वितीयश्चक्रवर्ती 10 अजितस्वामिकालीनः ॥७१।। [सू० ७२] बावत्तरि सुवण्णकुमारावाससतसहस्सा पण्णत्ता । लवणस्स समुद्दस्स बावत्तरिं नागसाहस्सीतो बाहिरियं वेलं धारेंति । समणे भगवं महावीरे बावत्तरिं वासाइं सव्वाउयं पालयित्ता सिद्ध बुद्ध जाव प्पहीणे । 15 थेरे णं अयलभाया बावत्तरिं वासाइं सव्वाउयं पालयित्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । ___ अन्भंतरपुक्खरद्धे णं बावत्तरिं चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, बावत्तरिं सूरिया तवइंसु वा तवइंति वा तवइस्संति वा । ___ एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स बावत्तरि पुरवरसाहस्सीतो 20 पण्णत्तातो। बावत्तरिं कलातो पण्णत्तातो, तंजहा- लेहं १, गणितं २, रूवं ३, नर्से ४, गीयं ५, वाइतं ६, सरगयं ७, पुक्खरगयं ८, समतालं ९, जूयं १०, जाणवयं ११, पोरेकव्वं १२, अट्ठावयं १३, दयमट्टियं १४, अण्णविधिं १५, पाणविधिं १६, लेणविहिं १७, सयणविहिं १८, अजं १९, पहेलियं २०, 25 मागधियं २१, गाधं २२, सिलोगं २३, गंधजुत्तिं २४, मधुसित्थं २५, Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ [सू० ७२] द्विसप्ततिस्थानकम् । आभरणविहिं २६, तरुणीपडिकम्मं २७, इत्थीलक्खणं २८, पुरिसलक्खणं २९, हयलक्खणं ३०, गयलक्खणं ३१, गोणलक्खणं ३२, कुक्कुडलक्खणं ३३, मेंढयलक्खणं ३४, चक्कलक्खणं ३५, छत्तलक्खणं ३६, दंडलक्खणं ३७, असिलक्खणं ३८, मणिलक्खणं ३९, काकणिलक्खणं ४०, चम्मलक्खणं ४१, चंदचरियं ४२, सूरचरितं ४३, राहुचरितं ४४, गहचरितं 5 ४५, सोभाकरं ४६, दोभाकरं ४७, विजागतं ४८, मंतगयं ४९, रहस्सगयं ५०, सभावं ५१, चारं ५२, पडिचारं ५३, वूहं ५४, पडिवूहं ५५, खंधावारमाणं ५६, नगरमाणं ५७, वत्थुमाणं ५८, खंधावारनिवेसं ५९, नगरनिवेसं ६०, वत्थुनिवेसं ६१, ईसत्थं ६२, छरुपगयं ६३, आससिक्खं ६४, हत्थिसिक्खं ६५, धणुव्वेयं ६६, हिरण्णवायं, सुवण्णवायं, मणिपागं, धाउपागं ६७, 10 बाहुजुद्धं, दंडजुद्धं, मुट्ठिजुद्धं, अट्ठिजुद्धं, जुद्धं, निजुद्धं, जुद्धातिजुद्धं ६८, सुत्तखेड्डं, नालियाखेड्डु, वट्टखेड्डु, धम्मखेडं ६९, पत्तच्छेनं, कडगच्छेजं, पत्तगच्छेजं ७०, सजीवं, निजीवं ७१, सउणरुतमिति ७२ । ___ संमुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं बावत्तरिं वाससहस्साइं ठिती पण्णत्ता । [टी०] अथ द्विसप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते, सुवर्णकुमाराणां द्विसप्ततिर्लक्षाणि, कथम् ?, दक्षिणनिकाये अष्टत्रिंशदुत्तरनिकाये तु चतुस्त्रिंशदिति । नागसाहस्सीओ त्ति नागकुमारदेवसहस्राणि वेलां षोडशसहस्रप्रमाणामुत्सेधतो विष्कम्भतश्च दशसहसमानां लवणजलधिशिखां बाह्यां धातकीखण्डद्वीपाभिमुखीम्। महावीरो द्विसप्ततिं वर्षाण्यायुः पालयित्वा सिद्धः, कथम् ?, त्रिंशद् गृहस्थभावे, द्वादश सार्द्धानि पक्षश्च छद्मस्थभावे, 20 देशोनानि त्रिंशत् केवलित्वे इति द्विसप्ततिः । अयलभाय त्ति महावीरस्य नवमो गणधरः, तस्यायुर्द्विसप्ततिर्वर्षाणि, कथम् ? षट्चत्वारिंशद् गृहस्थत्वे, द्वादश छद्मस्थतायाम्, चतुर्दश केवलित्वे इति । पुष्करार्द्ध द्विसप्ततिश्चन्द्राः, तत्रैकस्यां पङ्क्तौ षट्त्रिंशदन्यस्यां च तावन्त एवेत्येवमिति । बावत्तरिं कलाओ त्ति कलनानि कलाः, 15 १. द्विसप्ततिवर्षा जे२ विना ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे विज्ञानानीत्यर्थः, ताश्च कलनीयभेदाद् द्विसप्ततिर्भवन्ति, तत्र लेखनं लेखोऽक्षरविन्यासः, तद्विषया कला विज्ञानं लेख एवोच्यते एवं सर्वत्र, स च लेखो द्विधा- लिपिविषयभेदात्, तत्र लिपिरष्टादशस्थानकोक्ता, अथवा लाटादिदेश भेदतस्तथाविधविचित्रोपाधिभेदतो वाऽनेकविधेति, तथाहि- पत्र-वल्क-काष्ठ-दन्त5 लोह-ताम्र-रजतादयो अक्षराणामाधारास्तथा लेखनोत्कीर्णन-स्यूत-व्यूत-च्छिन्न-भिन्नदग्ध-सङ्क्रान्तितोऽक्षराणि भवन्तीति, विषयापेक्षयाप्यनेकधा- स्वामि-भृत्य-पितृपुत्र-गुरु-शिष्य-भार्या-पति-शत्रु-मित्रादीनां लेखविषयाणामनेकत्वात्तथाविधप्रयोजनभेदाच्च, अक्षरदोषाश्चैते अतिकार्यमतिस्थौल्यम्, वैषम्यं पङ्क्तिवक्रता । 10 अतुल्यानां च सादृश्यमविभागोऽवयवेषु च ॥ [ ] इति १, तथा गणितं सङ्ख्यानं सङ्कलिताद्यनेकभेदं पाटीप्रसिद्धम् २, रूपं लेप्य-शिलासुवर्ण-मणि-वस्त्र-चित्रादिषु रूपनिर्माणम् ३, नाट्यं कला भरतमार्गच्छलिकं लास्यविधानमित्यादिभेदादष्टधा, नाट्यग्रहणात् नृत्तकलापि गृहीता, सा च अभिनयिका अङ्गहारिका व्यायामिका चेति त्रिभेदा, स्वरूपं चात्र भरतशास्त्रादवसेयम् ४, तथा 15 गीतं कला, सा च निबन्धमार्ग-छलिकमार्ग-भिन्नमार्गभेदात् त्रिधा, तत्र __सप्त स्वरास्त्रयो ग्रामा, मूर्च्छना एकविंशतिः । ___ताना एकोनपञ्चाशत् समाप्तं स्वरमण्डलम् ॥ [ ] इयं च विशाखिलशास्त्रावसेयेति ५, वाइयं ति वाद्यकला, सा च तत-विततशुषिर-घनवाद्यानां चतुष्पञ्चत्र्येकप्रकारतया त्रयोदशधा ६ इत्यादिकः कलाविभागो 20 लौकिकशास्त्रेभ्योऽवसेयः, इह च द्विसप्ततिरिति कलासंख्योक्ता, बहुतराणि च सूत्रे तन्नामान्युपलभ्यन्ते, तत्र च कासांचित् कासुचिदन्तर्भावोऽवगन्तव्य इति ॥७२॥ [सू० ७३] हरिवस्स-रम्मयवस्सियातो णं जीवातो तेवत्तरिं तेवत्तरिं जोयणसहस्साइं नव य एक्कुत्तरे जोयणसते सत्तरस य एकूणवीसतिभागे १. भरतविरचिते नाट्यशास्त्रे चतुर्थोऽध्यायोद्रष्टव्यः ।। २. भिन्नमाण्णमार्गजे२ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ १ * 10 [सू० ७४] त्रिसप्तति-चतुःसप्ततिस्थानके । • जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं पण्णत्तातो । विजये णं बलदेवे तेवत्तरिं वाससयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध जाव प्पहीणे । [टी०] अथ त्रिसप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते, हरिवासेत्यादि, अत्र संवादगाथाएगुत्तरा नव सया तेवत्तरिमेव जोयणसहस्सा। जीवा सत्तरस कला अद्धकला चेव हरिवासे ॥ ७३९०१ १९३ बहत्क्षेत्र० ५८] त्ति । तथा विजयो द्वितीयबलदेवः, तस्येह त्रिसप्ततिवर्षलक्षाण्यायुरुक्तम्, आवश्यके तु पञ्चसप्ततिरितीदमपि मतान्तरमेव ॥७३।। [सू० ७४] थेरे णं अग्गिभूती चोवत्तरिं वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । निसभातो णं वासहरपव्वतातो तिगिंच्छिद्दहातो णं दहातो सीतोता महानदी चोवत्तरिं जोयणसताइं साहियाई उत्तराहुत्ती पवहित्ता वतिरामतियाए जिब्भियाए चउजोयणायामाए पण्णासजोयणविक्खंभाए वइरतले कुंडे महता घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठाणसंठितेणं पवातेणं महया सद्देणं पवडति। एवं सीता वि दक्खिणाहुत्ती भाणियव्वा । चउत्थवज्जासु छसु पुढवीसु चोवत्तरं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता । [टी०] अथ चतुःसप्ततिस्थानके लिख्यते किञ्चित्, तत्राग्निभूतिरिति महावीरस्य द्वितीयो गणनायकः, तस्येह चतुःसप्ततिवर्षाण्यायुः, अत्र चायं विभाग:षट्चत्वारिंशद्वर्षाणि गृहस्थपर्यायः, द्वादश छद्मस्थपर्यायः, षोडश केवलिपर्याय इति। णिसहाओ णमित्यादि, अस्य भावार्थः- किल निषधवर्षधरस्य विष्कम्भो योजनानां 20 षोडश सहस्राणि अष्टौ शतानि द्विचत्वारिंशत् कलाद्वयं चेति, तस्य च मध्यभागे तिगिंछिमहाह्रदः सहस्रद्वयविष्कम्भश्चतुःसहस्रायामः, तदेवं पर्वतविष्कम्भार्द्धस्य हृदविष्कम्भार्द्धन न्यूनतायां शीतोदामहानद्याः पर्वतस्योपरि चतुःसप्ततिशतान्येकविंशत्यधिकानि कला चैकेत्येवं प्रवाहो भवति। वइरामइयाए जिन्भियाए त्ति वज्रमय्या १. दृश्यतां पृ० १४२ टि० ॥ 15 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पञ्चसप्ततिस्थानकम् । जिह्विकया प्रणालस्थमकरमुखजिह्वया चतुर्योजनदीर्घया पञ्चाशद्योजनविष्कम्भया वइरतले कुंडे त्ति निषधपर्वतस्याधोवर्त्तिनि वज्रभूमिके अशीत्यधिकचतुर्योजनशतायामविष्कम्भे दशयोजनावगाहे शीतोदादेवीभवनाध्यासितमस्तकेन तद्द्वीपेनालङ्कृतमध्यभागे शीतोदाप्रपातहदे महय त्ति महाप्रमाणेन, यत् पुनः दुहओ त्ति क्वचित् दृश्यते तदपपाठ 5 इति मन्यते, घडमुहपवत्तिएणं ति घटमुखेनेव कलशवदनेनेव प्रवर्तित: प्रेरितो घटमुखप्रवर्तितस्तेन मुक्तावलीनां मुक्ताफलसरीणां सम्बन्धी हारस्तस्य यत् संस्थानं तेन संस्थितो यस्तेन, प्रपात: पर्वतात् प्रपतजलसमूहस्तेन, महाशब्देन महाध्वनिना प्रपतति, एवं शीतापि, नवरं नीलवद्वर्षधराद् दक्षिणाभिमुखी प्रपततीति । चउत्थवजेत्यादि, तत्र प्रथमायां त्रिंशत्, द्वितीयायां पञ्चविंशतिः, तृतीयायां पञ्चदश, 10 पञ्चम्यां त्रीणि लक्षाणि, षष्ठ्यां पञ्चोनं लक्षम्, सप्तम्यां पञ्चेत्येतानि मीलितानि चतुःसप्ततिर्भवन्तीति ॥७४॥ [सू० ७५] सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स अरहतो पण्णत्तरं जिणा पण्णत्तरिं जिणसता होत्था । सीतले णं अरहा पण्णत्तरं पुव्वसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता 15 जाव पव्वतिते । संती णं अरहा पण्णत्तरिं वाससहस्साई अगारवासमज्झावसित्ता जाव पव्वतिते । [टी०] अथ पञ्चसप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते, सुविधेः नवमतीर्थकरस्य नामान्तरतः पुष्पदन्तस्येति, तथा शीतलस्य पञ्चसप्ततिः पूर्वसहस्राणि गृहवासे, कथम् ? पञ्चविंशतिः 20 कुमारत्वे, पञ्चाशच्च राज्य इति, तथा शान्तिः पञ्चसप्ततिवर्षसहस्राणि गृहवासमध्युष्य प्रव्रजितः, कथम् ? पञ्चविंशतिः कुमारत्वे, पञ्चविंशतिः माण्डलिकत्वे, पञ्चविंशतिश्चक्रवर्त्तित्वे इति ॥७५।। [सू० ७६] छावत्तरिं विजुकुमारावाससतसहस्सा पण्णत्ता । एवं१. सप्ततिवर्ष जे१ हे१ ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ [सू० ७६-७७] षट्सप्तति-सप्तसप्ततिस्थानके । दीव-दिसा-उदहीणं विज्जुकुमारिंद-थणियमग्गीणं । छण्हं पि जुगलयाणं छावत्तरि मो सतसहस्सा ॥५९॥ [टी०] अथ षट्सप्ततिस्थानके किञ्चित् लिख्यते, तत्र विद्युत्कुमाराणां भवनावासलक्षाणि दक्षिणायां चत्वारिंशदुत्तरस्यां तु षट्त्रिंशदिति षट्सप्ततिरिति । एवमिति इदमेव भवनमानं शेषाणां द्वीपकुमारादिभवनपतिनिकायानाम्, इहार्थे गाथा-दीवेत्यादि 5 युगलानामिति दक्षिणोत्तरनिकायभेदेन युगलम्, निकाये निकाये भवतीति ॥७६॥ [सू० ७७] भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्तत्तरिं पुव्वसतसहस्साई कुमारवासमज्झावसित्ता महरायाभिसेयं पत्ते । अंगवंसातो णं सत्तत्तरि रायाणो मुंडे जाव पव्वइया । गद्दतोय -तुसियाणं देवाणं सत्तत्तरिं देवसहस्सा परिवारो पण्णत्ता । 10 एगमेगे णं मुहुत्ते सत्तत्तरिं लवे लवग्गेणं पण्णत्ते । [टी०] अथ सप्तसप्ततिस्थानके विवियते किञ्चित्, तत्र भरतचक्रवर्ती ऋषभस्वामिनः षट्सु पूर्वलक्षेष्वतीतेषु जातस्त्र्यशीतितमे च तत्रातीते भगवति च प्रव्रजिते राजा संवृत्तः, ततश्च त्र्यशीत्याः षट्सु निष्कर्षितेषु सप्तसप्ततिस्तस्य कुमारवासो भवतीति । अङ्गवंश: 15 अङ्गराजसन्तानस्तस्य सम्बन्धिनः सप्तसप्तती राजानः प्रव्रजिताः । गद्दतोयेत्यादि, ब्रह्मलोकस्याधोवर्तिनीष्वष्टासु कृष्णराजिष्वष्टौ सारस्वतादयो लोकान्तिकाभिधाना देवनिकाया भवन्ति, तत्र गर्दतोयानां तुषितानां च देवानामुभयपरिवारसंख्यामीलनेन सप्तसप्ततिर्देवसहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्तानीति । तथैकैको मुहूर्त्तः सप्तसप्ततिं लवान् लवाग्रेण लवपरिमाणेन प्रज्ञप्तः, कथम् ? उच्यते हट्ठस्स अणवगल्लस्स, णिरुवकिट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणु त्ति वुच्चई ॥ १. “गद्दतोय-तुसियाणं देवाणं सत्त देवा सत्त देवसहस्सा पण्णत्ता' इति स्थानाङ्गसूत्रे सू० ५७६ ॥ 20 २. सप्ततिलवान जे२ हे१.२ ॥ ३. वुच्चड़ जे२ हे१ ।। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अष्टसप्ततिस्थानकम् । सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्ते वियाहिए ॥ [भगवती० ६७४] त्ति ॥७७॥ [सू० ७८] सक्स्स णं देविंदस्स देवरण्णो वेसमणे महाराया अट्ठसत्तरीए सुवण्णकुमार-दीवकुमारावाससतसहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्चं भट्टित्तं सामित्तं 5 महारायत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरति । थेरे णं अकंपिते अट्ठत्तरि वासाइं सव्वाउयं पालयित्ता सिद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । उत्तरायणनियट्टे णं सूरिए पढमातो मंडलातो एगूणचत्तालीसइमे मंडले अट्टत्तरिं एगसट्ठिभाए दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुवेत्ता णं 10 चारं चरति, एवं दक्खिणायणनिय? वि । [टी०] अथाष्टसप्ततिस्थानके किञ्चित् लिख्यते, सक्कस्सेत्यादि, वेसमणे महाराय त्ति सोम-यम-वरुण-वैश्रमणाभिधानानां लोकपालानां चतुर्थ उत्तरदिक्पालः, स हि वैश्रमणदेवनिकायिकानां सुपर्णकुमारदेव-देवीनां द्वीपकुमारदेव-देवीनां व्यन्तर-व्यन्तरीणां चाधिपत्यं करोति, तदाधिपत्याच्च तन्निवासानामप्याधिपत्यमसौ करोतीत्युच्यते 15 अष्टसप्तत्याः सुपर्णकुमार-द्वीपकुमारावासशतसहस्राणामिति, तत्र सुपर्णकुमाराणां दक्षिणायामष्टत्रिंशद् भवनलक्षाणि द्वीपकुमाराणां च चत्वारिंशदित्येवमष्टसप्ततिरिति, द्वीपकुमाराधिपत्यमेतस्य भगवत्यां न दृश्यते, इह तूक्तमिति मतान्तरमिदम्, आहेवच्चं १. °रिए जे१ खं० ॥२. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ द्वितीये वक्षस्कारे, अनुयोगद्वारसूत्रे ३६७ तमे सूत्रेऽपि च इदं गाथाद्वयमस्ति। "हट्ठस्स गाहा । हृष्टस्य तुष्टस्य अनवकल्यस्य जरसा अपीडितस्य निरुपक्लिष्टस्य व्याधिना प्राक् साम्प्रतं वाऽनभिभूतस्य जन्तोः मनुष्यादेरेक उच्छ्वासयुक्तो निःश्वासः उच्छ्वासनिःश्वासः, एष प्राण उच्यते, शोकजरादिभिरस्वस्थस्य जन्तोरुच्छ्वासनिःश्वासः त्वरितादिस्वरूपतया स्वभावस्थो न भवत्यतो हृष्टादिविशेषणोपादानम् ॥ सत्त पाणूणीत्यादि श्लोकः, सप्त प्राणा यथोक्तस्वरूपाः स एकः स्तोकः, सप्त स्तोकाः स एको लवः, लवानां सप्तसप्तत्या यो निष्पद्यते एष मुहूर्तो व्याख्यातः ॥” इति अनुयोगद्वारसूत्रे मलधारिहेमचन्द्रसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ ३. दिक्कुमार' इति सर्वेषु हस्तलिखितादर्शेषु पाठः । एतदनुसारेण 'द्वीपकुमारदेव-देवीनां दिक्कुमारदेव-देवीनां' इति सम्पूर्णः पाठोऽत्र टीकायां भवेदिति संभाव्यते । दृश्यतामधस्तनमत्रत्यं टिप्पणम् ॥ ४. भगवतीसूत्रस्य तृतीये शतके सप्तमे उद्देशके ईदृशं सूत्रमुपलभ्यते- “सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो इमे देवा आणा-उववायवयण-निद्देसे चिट्ठति, तंजहा- वेसमणकाइया ति वा वेसमणदेवयकाइया ति वा सुवण्णकुमारा सुव्वणकुमारीओ दीवकुमारा दीवकुमारीओ दिसाकुमारा दिसाकुमारीओ वाणमंतरा वाणमंतरीओ जे याऽवन्ने तहप्पगारा सव्वे ते Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ७८] अष्टसप्ततिस्थानकम् । १७१ ति आधिपत्यम् अधिपतिकर्म, पोरेवच्चं ति पुरोवर्त्तित्वम् अग्रगामित्वमित्यर्थः, भट्टित्तं ति भर्तृत्वं पोषकत्वम्, सामित्तं ति स्वामित्वं स्वामिभावम्, महारायत्तं ति महाराजत्वं लोकपालत्वमित्यर्थः, आणाईसरसेणावच्चं ति आज्ञाप्रधानसेनानायकत्वं कारेमाणे त्ति अनुनायकैः सेवकानां कारयन् पालेमाणे त्ति आत्मनापि पालयन् विहरति आस्ते । 5 अकम्पितः स्थविरो महावीरस्याष्टमो गणधरस्तस्य चाष्टसप्ततिर्वर्षाणि सर्वायुः, कथम् ?, गृहस्थपर्याये अष्टचत्वारिंशत्, छद्मस्थपर्याये नव, केवलिपर्याये चैकविंशतिरिति । उत्तरायणनियट्टे णं ति उत्तरायणाद् उत्तरदिग्गमनानिवृत्तः उत्तरायणनिवृत्तः, प्रारब्धदक्षिणायन इत्यर्थः, सूरिए त्ति आदित्यः पढमाओ मंडलाओ त्ति दक्षिणां दिशं गच्छतो रवेर्यत् प्रथमं तस्मात्, न तु सर्वाभ्यन्तरसूर्यमार्गात्, 10 एकूणचत्तालीसइमे त्ति एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले दक्षिणायनप्रथममण्डलापेक्षया, सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया तु चत्वारिंशे, अट्ठत्तरिं ति अष्टसप्ततिम् एगसट्ठिभाए त्ति मुहूर्तस्यैकषष्टिभागान् दिवसखेत्तस्स त्ति दिवसलक्षणस्य क्षेत्रस्य दिवसस्यैवेत्यर्थः, निव्वुड्ढेत्त त्ति निर्व_ हापयित्वेत्यर्थः, तथा रयणिखेत्तस्स त्ति रजन्या एव अभिनिव्वुड्ढेत्त त्ति अभिनिर्वर्थ्य वर्धयित्वेत्यर्थः, चारं चरइ त्ति भ्राम्यतीत्यर्थः, भावार्थोऽस्यैवं 15 चन्द्रप्रज्ञप्तिवाक्यैरुपदर्श्यते- जम्बूद्वीपे द्वीपे यदैतौ सूर्यौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतस्तदा नवनवतिर्योजनसहस्राणि षट् च पञ्चचत्वारिंशदधिकानि योजनशतान्यन्योन्यमन्तरं कृत्वा चरतः, एतच्च जम्बूद्वीपेऽशीत्युत्तरं योजनशतं तब्भत्तिया जाव चिट्ठति ।" अस्मिन् सूत्रे द्वीपकुमाराधिपत्यं वैश्रमणस्य स्पष्टं दृश्यते, अतः अभयदेवसूरिभिः 'न दृश्यते' इति यद् लिखितं तत् तेषां समक्षं विद्यमानेषु भगवतीसूत्रादर्शेषु अदर्शनादेव तैलिखितं भवेदिति संभाव्यते॥ १. 'सप्ततिः खं० जे१ हे१ । सप्ततिरिति हे२ ॥ २. निवुहेत्त खं० हे१,२ ॥ ३. निवऱ्या खंजे१ हे१,२। '२७, ८८, ९८' सूत्रेष्वपि ईदृशो विचारो वर्तते, किन्तु २७ तमसूत्रटीकायां 'निवर्धयन्, अभिनिवर्धयन्' इति शब्दप्रयोगो दृश्यते, अतो 'नि-निर्' उपसर्गौ एकार्थाविति मत्वा उभयोरपि पाठयोः संगतिः कर्तुं शक्यते । यदि तु अत्र 'निवर्थ्य' अग्रे च 'अभिनिवर्थ्य' इति पाठः स्वीक्रियते तदा खं० जे१ पाठः समीचीनः एव ॥ ४. निवुवेत्त हे१,२ ॥ ५. अभिनिवऱ्या खं० जे१, हे१,२ ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे प्रविश्याभ्यन्तरं मण्डलं भवति, एतस्मिंश्च द्विगुणे जंबूद्वीपप्रमाणादपकर्षिते यथोक्तमन्तरं भवतीति, तथा तत्र तयोश्चरतोरुत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति जघन्यिका च द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, ततोऽभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रम्य प्रथमेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरानन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य यदा चारं चरतस्तदा नवनवतिर्योजनसहस्राणि षट् च 5 पञ्चचत्वारिंशदधिकानि योजनशतानि पञ्चत्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्यान्तरं कृत्वा चारं चरतः, तदा चाष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति द्वाभ्यां मुहूर्तस्यैकषष्टिभागाभ्यामूनः, द्वादशमुहूर्ता च रात्रिर्भवति द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यामधिकेति, एवं दक्षिणायनस्य द्वितीयादिषु मण्डलेष्वहोरात्रेषु चान्योन्यान्तरप्रमाणस्य पञ्चभिः पञ्चभिर्योजनैः पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागैर्योजनस्य वृद्धिर्वाच्या, द्वाभ्यां द्वाभ्यां च मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यां दिनहानी 10 रात्रिवृद्धिश्चेति, एवं च एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले सूर्ययोरन्तरं नवनवतिः सहस्राण्यष्ट शतानि सप्तपञ्चाशच्च योजनानां त्रयोविंशतिश्चैकषष्टिभागाः, दिनप्रमाणं चाष्टादशानां मुहूर्तानां मध्यादेकषष्टिभागानामष्टसप्तत्यां पातितायां षोडश मुहूर्ताश्चतुश्चत्वारिंशच्चैकषष्टिभागा मुहूर्तस्य, रात्रेस्त्वष्टसप्तत्यां क्षिप्तायां त्रयोदश मुहूर्ताः सप्तदशैकषष्टिभागाश्चेति, एवं दक्खिणायणनिय? त्ति यथोत्तरायणनिवृत्त 15 एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले अष्टसप्ततिमेकषष्टिभागान् हापयति वर्द्धयति च, एवं दक्षिणायननिवृत्तोऽपि सूर्यस्तान् हापयति वर्द्धयति च, केवलं दक्षिणायने दिनभागान् हापयति रात्रिभागांश्च वर्द्धयति, इह तु दिनभागान् वर्द्धयति रात्रिभागांश्च हापयतीति ॥७८॥ [सू० ७९] वलयामुहस्स णं पातालस्स हेछिल्लातो चरिमंतातो इमीसे णं 20 रयणप्पभाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं एकूणासीति जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं केउस्स वि जुययस्स वि ईसरस्स वि । ___ छट्ठीए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभायाओ छट्ठस्स घणोदहिस्स हेढिल्ले चरिमंते एस णं एकूणासीतिं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स बारस्स य बारस्स य एस णं एगूणासीइं 25 जोयणसहस्साइं साइरेगाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ७९] एकोनाशीतितमस्थानकम् । १७३ [टी०] अथैकोनाशीतितमस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, तत्र वलयामुहस्स त्ति वडवामुखाभिधानस्य पूर्वदिग्व्यवस्थितस्य पायालस्स त्ति महापातालकलशस्याधस्तनचरमान्ताद् रत्नप्रभापृथिवीचरमान्त एकोनाशीत्यां सहस्रेषु भवति, कथम् ? रत्नप्रभा हि अशीतिसहस्राधिकं योजनानां लक्षं बाहल्यतो भवति, तस्याश्चैकं समुद्रावगाहसहस्रं परिहृत्याधोलक्षप्रमाणावगाहो वलयामुखपातालकलशो भवति, 5 ततस्तच्चरमान्तात् पृथिवीचरमान्तो यथोक्तान्तर एव भवति, एवमन्येऽपि त्रयो वाच्या इति । छट्ठीए इत्यादि, अस्य भावार्थ:- षष्ठपृथिवी हि बाहल्यतो योजनानां लक्षं षोडश च सहस्राणि भवति, घनोदधयस्तु यद्यपि सप्तापि प्रत्येकं विंशतिः सहस्राणि स्युस्तथाप्येतस्य ग्रन्थस्य मतेन षष्ठोऽसावेकविंशतिः संभाव्यते, तदेवं 10 षष्ठपृथिवीबाहल्यार्द्धमष्टपञ्चाशत् घनोदधिप्रमाणं चैकविंशतिरित्येवमेकोनाशीतिर्भर्वति, ग्रन्थान्तरमतेन तु सर्वघनोदधीनां विंशतियोजनसहस्रबाहल्यत्वात् पञ्चमीमाश्रित्येदं सूत्रमवसेयम्, यतस्तद्वाहल्यमष्टादशोत्तरं लक्षमुक्तम्, यत आह पंढमाऽसीइ सहस्सा १ बत्तीसा २ अट्ठवीस ३ वीसा य ४ । अट्ठार ५ सोल ६ अट्ठ य ७ सहस्स लक्खोवरिं कुजा ॥ [बृहत्सं० २४१] इति । 15 अथवा षष्ठ्याः सहस्राधिकोऽपि मध्यभागो मध्यभागो विवक्षितः, एवमर्थसूचकत्वाद्बहुशब्दस्येति । तथा जम्बूद्वीपस्य जगत्याश्चत्वारि द्वाराणि विजयवेजयन्त-जयन्ता-ऽपराजिताभिधानानि चतुश्चतुर्योजनविष्कम्भाणि गव्यूतपृथुलद्वार१. भवंति जे२ खं० ॥ २. °वतीति खं० ॥ ३. “अत्र प्राकृतत्वात् प्रथमाशब्दात् परत्र विभक्तेर्लोपः, प्रथमायां धर्माभिधायां पृथिव्यामुच्चस्त्वपरिमाणं परिभावयन्नशीतिसहस्राणि लक्षस्योपरि कुर्यात् । किमुक्तं भवति ? प्रथमाया रत्नप्रभायाः पृथीव्या अशीतियोजनसहस्राधिको योजनलक्षो बाहल्यमिति । एवं द्वितीयादिष्वपि पृथिवीषु बाहल्यपरिभावने द्वात्रिंशदादीनि योजनसहस्राणि लक्षस्योपरि कुर्यात् । अत्राप्ययं भावार्थः- द्वितीयस्यां पृथिव्यां विंशतियोजनसहस्राधिकः। पञ्चम्यामष्टादशयोजनसहस्राधिकः । षष्ठ्यां षोडशयोजनसहस्राधिकः । सप्तम्यामष्टयोजनसहस्राधिक इति । योजनं चेह प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नं द्रष्टव्यम् । रत्नप्रभायां च पृथिव्यामशीतियोजनसहस्राधिको लक्षः एवम्- षोडशसहस्रप्रमाणं प्रथम खरकाण्डम्, द्वितीयं पङ्कबहुलं काण्डं चतुरशीतियोजनसहस्रमानम्, तृतीयमशीतियोजनसहम्रप्रमाणं जलबहुलं काण्डमिति । शेषास्तु पृथिव्यः सर्वा अपि पृथिवीस्वरूपाः, केवलं शर्कराप्रभा शर्कराबहुला वालुकाप्रभा वालुकाबहुलेत्येवं नामानुसारतो विशेषस्वरूपं परिभावनीयम् ॥” इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां टीकायाम् ।। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अशीतितमस्थानकम् । शाखानि क्रमेण पूर्वादिषु दिक्षु भवन्ति, तेषां च द्वारस्य च द्वारस्य चान्योन्यमित्यर्थः, एस णं ति एतदेकोनाशीतिर्योजनसहस्राणि सातिरेकाणीत्येवंलक्षणमबाधया व्यवधानेन व्यवधानरूपमित्यर्थोऽन्तरं प्रज्ञप्तम्, कथम् ?, जम्बूद्वीपपरिधेः [यो०] ३१६२२७, गा०३, धनुषां १२८, अगुल १३ सार्ध इत्येवंलक्षणस्यापकर्षितद्वार5 द्वारशाखाविष्कम्भस्य चतुर्विभक्तस्यैवंफलत्वादिति ॥७९॥ [सू० ८०] सेजंसे णं अरहा असीतिं धणूइं उडुंउच्चत्तेणं होत्था । तिविठू णं वासुदेवे असीतिं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । अयले णं बलदेवे असीतिं धणूई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । तिविठू णं वासुदेवे असीतिं वाससतसहस्साइं महाराया होत्था । 10. आउबहले णं कंडे असीतिं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते । ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरणो असीतिं सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्तातो। जंबुद्दीवे णं दीवे असीउत्तरं जोयणसतं ओगाहेत्ता सूरिए उत्तरकट्ठोवगते पढमं उदयं करती। [टी०] अथाशीतितमस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, श्रेयांसः एकादशो जिनः । त्रिपृष्ठः 15 श्रेयांसजिनकालभावी प्रथमवासुदेवः, अचलः प्रथमबलदेवः, तथा त्रिपृष्ठवासुदेवस्य चतुरशीतिवर्षलक्षाणि सर्वायुरिति, चत्वारि लक्षाणि कुमारत्वे शेषं तु महाराज्ये इति। आउबहु इत्यादि, किल रत्नप्रभाया अशीत्युत्तरयोजनलक्षबाहल्यायास्त्रीणि काण्डानि भवन्ति, तत्र प्रथमं रत्नकाण्डं षोडशविधरत्नमयं षोडशसहस्रबाहल्यं द्वितीयं पङ्ककाण्डं चतुरशीतिसहस्रमानं तृतीयमब्बहुलकाण्डमशीतिर्योजनसहस्राणीति जंबुद्दीवे णमित्यादि, 20 ओगाहित्त त्ति प्रविश्य उत्तरकट्ठोवगय त्ति उत्तरां काष्ठां दिशमुपगतः उत्तरकाष्ठोपगतः प्रथममुदयं करोति, सर्वाभ्यन्तरमण्डले उदेतीत्यर्थः ॥८०॥ [सू० ८१] नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा एक्कासीतिए रातिदिएहिं चउहि य पंचुत्तरेहिं भिक्खासतेहिं अहासुत्तं जाव आराहिता [यावि भवति । कुंथुस्स णं अरहतो एक्कासीतिं मणपजवणाणिसया होत्था । १. परिधिः जे२ हे२ ॥ २. द्वारशाखा' जे१ खं० ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ [सू० ८१-८२] एकाशीति-व्यशीतिस्थानके । वियाहपण्णत्तीए एक्कासीतिं महाजुम्मसया पण्णत्ता । [टी०] अथैकाशीतिस्थानके किञ्चिदुच्यते, नवनवमिकेति नव नवमानि दिनानि यस्यां सा नवनवमिका, भवन्ति च नवसु नवकेषु नव नवमदिनानि, तस्यां च भिक्षुप्रतिमायामेकाशीतिरात्रिंदिवानि भवन्त्येव, नवानां नवकानामेकाशीतिरूपत्वात्, तथा प्रथमे नवके प्रतिदिनमेकैका भिक्षा, एवमेकोत्तरया वृद्ध्या नवमे नवके नव नवेति 5 सर्वासां पिण्डने चत्वारि पञ्चोत्तराणि भिक्षाशतानि भवन्तीत्यत उक्तं चउहि येत्यादि, इह च भिक्षाशब्देन दत्तिरभिप्रेता, अहासुत्तं ति यथासूत्रं सूत्रानतिक्रमेण जाव त्ति करणाद् ‘यथाकल्पं यथामार्गं यथातत्त्वं सम्यक्कायेन स्पृष्टा पालिता शोभिता तीरिता कीर्तिता आज्ञयाऽऽराधिता' इति द्रष्टव्यम् । वियाहपन्नत्तीए त्ति व्याख्याप्रज्ञप्त्यामेकाशीतिर्महायुग्मशतानि प्रज्ञप्तानि, इह शतशब्देनाध्ययनान्युच्यन्ते, 10 तानि कृतयुग्मादिलक्षणराशिविशेषविचाररूपाणि अवान्तराध्ययनस्वभावानि तदवगमावगम्यानीति ॥८१॥ [सू० ८२] जंबुद्दीवे दीवे बासीतं मंडलसतं जं सूरिए दुक्खुत्तो संकमित्ता णं चारं चरति, तंजहा- निक्खममाणे य पविसमाणे य । समणे भगवं महावीरे बासीतीए रातिदिएहिं वीतिकंतेहिं गब्भातो गन्भं 15 साहरिते । महाहिमवंतस्स णं वासहरपव्वयस्स अवरिल्लाओ चरिमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स हेडिल्ले चरिमंते एस णं बासीइं जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। एवं रुप्पिस्स वि । [टी०] अथ व्यशीतिस्थानके किमपि लिख्यते, तत्र जम्बूद्वीपे व्यशीतं 20 व्यशीत्यधिकं मण्डलशतं सूर्यस्य मार्गशतं तद् भवति' इति वाक्यशेषः, किंभूतम् ? १. भगवतीसूत्रे ३५ तमे शतके द्वादश एकेन्द्रियमहायुग्मशतानि, ३६ तमे शतके द्वादश द्वीन्द्रियमहायुग्मशतानि, ३७ तमे शतके द्वादश त्रीन्द्रियमहायुग्मशतानि, ३८ तमे शतके द्वादश चतुरिन्द्रियमहायुग्मशतानि, ३९ तमे शतके द्वादश असंज्ञिपञ्चेन्द्रियमहायुग्मशतानि, ४० तमे शतके एकविंशतिः संज्ञिपञ्चेन्द्रियमहायुग्मशतानि सर्वसंख्यया १२+१२+१२+१२+१२+२१-८१ महायुग्मशतानि । एतेषु यद् वर्णितं तत् तत्रैव द्रष्टव्यं जिज्ञासुभिः ।। २. अपांतरा' जे२ हे१,२ ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे यत् सूर्यो द्विकृत्वो द्वौ वारौ सङ्क्रम्य प्रविश्य चारं चरति, तद्यथा- निष्क्रामंश्च जम्बूद्वीपात् प्रविशश्च जम्बूद्वीप एवेति, अयमत्र भावार्थ:- किल चतुरशीत्यधिकं सूर्यमण्डलशतं भवति, तत्र सर्वाभ्यन्तर- सर्वबाह्ये सकृदेव सङ्क्रामति शेषाणि तु द्वौ वाराविति, इह च द्व्यशीतिविवक्षयैवेदं द्व्यशीतिस्थानकेऽधीतमिति भावनीयम्, यद्यपि 5 च जम्बूद्वीपे पञ्चषष्टिरेव मण्डलानां भवति तथापि जम्बूद्वीपकसूर्यचारविषयत्वाच्छेषाण्यपि जम्बूद्वीपेन विशेषितानीति । समणे इत्यादि आषाढशुक्लषष्ठ्या आरभ्य द्व्यशीत्यां रात्रिंदिवेष्वतिक्रान्तेषु त्र्यशीतितमे वर्त्तमाने, अश्वयुजः कृष्णत्रयोदश्यामित्यर्थः, गर्भात् गर्भाशयाद् देवानन्दाब्राह्मणीकुक्षित इत्यर्थः गर्भं त्रिशिलाभिधानक्षत्रियाकुक्षिं संहृतो नीतो 10 देवेन्द्रवचनकारिणा 'हरिनैगमेष्यभिधानदेवेनेति, इदं च सूत्रं द्व्यशीतिं रात्रिंदिवान्यधिकृत्य द्व्यशीतिस्थानकेऽधीयते, त्र्यशीतितमं रात्रिंदिवमाश्रित्य तु त्र्यशीतिस्थान इति । महाहिमवंतस्सेत्यादि महाहिमवतो द्वितीयवर्षधरपर्वतस्य योजनशतद्वयोच्छ्रितस्य अवरिल्लाओ त्ति उपरिमाच्चैरमान्तात् सौगन्धिककाण्डस्याधस्तनश्चरमान्तो द्व्यशीतियो(र्यो?)जनशतानि कथम् ? रत्नप्रभापृथिव्यां हि त्रीणि काण्डानि खरकाण्डं 15 पङ्ककाण्डमब्बहुलकाण्डं चेति, तत्र प्रथमं काण्डं षोडशविधम्, तद्यथा रत्नकाण्डम् १, वज्रकाण्डम् २, एवं वैडूर्य ३ लोहिताक्ष ४ मसारगल्ल ५ हंसगर्भ ६ पुलक ७ सौगन्धिक ८ ज्योतीरस ९ अञ्जन १० अञ्जनपुलक ११ रजत १२ जातरूप १३ अङ्क १४ स्फटिक १५ रिष्टकाण्डं चेति १६, एतानि च प्रत्येकं सहस्रप्रमाणानि, ततश्च सौगन्धिककाण्डस्याष्टमत्वादशीतिः शतानि द्वे च शते महाहिमवदुच्छ्रय 20 इत्येवं द्व्यशीतिः शतानि इति, एवं रुक्मिणोऽपि पञ्चमवर्षधरस्य वाच्यम्, महाहिमवत्समानोच्छ्रायत्वात्तस्येति ॥८२॥ [सू० ८३] समणे भगवं महावीरे बासीतीए रातिंदिएहिं वीतिक्कंतेहिं तेयासीइमे रातिंदिए वट्टमाणे गब्भाओ गब्भं साहरिते । १. द्वितीयाद्विवचनमेतत् ॥ २. हरिनिग खं० । हरिणेगमे हे२ ॥ ३. 'च्चरिमा' हे१, २ विना ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ [सू० ८३-८४] . त्र्यशीतितमस्थानकम् । सीतलस्स णं अरहतो तेसीति गणा तेसीति गणधरा होत्था । थेरे णं मंडियपुत्ते तेसीति वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । उसभे णं अरहा कोसलिए तेसीतिं पुव्वसतसहस्साई अगारवासमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं जाव पव्वइते । भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी तेसीतिं पुव्वसतसहस्साई अगारवासमज्झावसित्ता जिणे जाते केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी । [टी०] अथ त्र्यशीतितमस्थानके किमपि लिख्यते, इह शीतलजिनस्य त्र्यशीतिर्गणास्त्र्यशीतिर्गणधरा उक्ताः, आवश्यके त्वेकाशीतिरिति मतान्तरमिदमिति। तथा स्थविरो मण्डिकपुत्रो महावीरस्य षष्ठो गणधरः तस्य च त्र्यशीतिवर्षाणि 10 सर्वायुः, कथम् ?, त्रिपञ्चाशद् गृहस्थपर्याये, चतुर्दश छद्मस्थपर्याये, षोडश केवलित्वे इत्येवं त्र्यशीतिरिति । तथा कोसलिए त्ति कोशलदेशे भवः कौशलिकः । तेसीइं ति विंशतिः पूर्वलक्षाणि कुमारत्वे, त्रिषष्टिः राज्ये इत्येवं त्र्यशीतिः । तथा भरतश्चक्रवर्ती सप्तसप्ततिः पूर्वलक्षाणि कुमारत्वे, षट् चक्रवर्तित्वे, इत्येवं त्र्यशीतिमगारवासमध्युष्य जिनो जातः राज्यावस्थस्यैव रागादिक्षयात् केवली संपूर्णा-ऽसहाय- 15 विशुद्धज्ञानादित्रययोगात्, सर्वज्ञो विशेषबोधात्, सर्वभावदर्शी सामान्यबोधात्, ततः पूर्वलक्षं प्रव्रज्याग्रहणपूर्वकं केवलित्वेन विहृत्य सिद्ध इति ॥८३॥ [सू० ८४] चउरासीति निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता । उसभे णं अरहा कोसलिए चउरासीई पुव्वसतसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव [प्पहीणे । एवं भरहे बाहुबलि बंभि सुंदरि । 20 सेजंसे णं अरहा चउरासीइं वाससतसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । १. "स्य त्र्यशीतिर्गणधरा उक्ता खं० हे१ । २. दृश्यतां पृ० १४० टि० ३ ॥ ३. "न्तरमिति खं० जे? हे२ ॥ ४. कोशलादेशे जे२ हे१ ॥ ५. षट् च चक्र जे२ ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तिविडू णं वासुदेवे चउरासीइं वाससयसहस्साइं परमाउयं पालयित्ता अप्पतिट्ठाणे नरए नेरइयत्ताते उववन्ने । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो चउरासीतिं सामाणियसाहस्सीतो पण्णत्तातो । सव्वे वि णं बाहिरया मंदरा चउरासीतिं चउरासीतिं जोयणसहस्साइं 5 उड्डुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । सव्वे वि णं अंजणगपव्वया चउरासीतिं चउरासीतिं जोयणसहस्साइं उड्डउच्चत्तेणं पण्णत्ता । हरिवस्स- रम्मयवासियाणं जीवाणं धणुपट्ठा चउरासीतिं चउरासीतिं जोयणसहस्साइं सोलस जोयणाइं चत्तारि य भागा जोयणस्स परिक्खेवेणं 10 पण्णत्ता | पंकबहुलस्स णं कंडस्स उवरिल्लातो चरिमंतातो हेट्ठिले चरिमंते एस णं चउरासीतिं जोयणसहस्साइं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । वियाहपण्णत्तीए णं भगवतीए चउरासीतिं पदसहस्सा पदग्गेणं पण्णत्ता । चउरासीतिं नागकुमारावाससतसहस्सा पण्णत्ता । 15 चउरासीतिं पइण्णगसहस्सा पण्णत्ता । १७८ चउरासीतिं जोणिप्पमुहसतसहस्सा पण्णत्ता । पुव्वाइयाणं सीसपहेलियपज्जवसाणाणं सट्ठाणट्ठाणंतराणं चउरासीतीए गुणकारे पत्ते । उसभस्स णं अरहतो कोसलियस्स चउरासीतिं गणा चउरासीतिं गणधरा 20 होत्था | उसभस्स णं अरहतो कोसलियस्स उसभसेणपामोक्खातो चउरासीतिं समणसाहस्सीओ होत्था । चउरासीतिं विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउतिं च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवतीति मक्खाया । [टी०] चतुरशीतिस्थानके किमपि लिख्यते, चतुरशीतिर्नरकलक्षाण्यमुना विभागेन 25 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ८४ ] चतुरशीतिस्थानकम् । १. तीसा य १ पण्णवीसा २ पण्णरस ३ दसेव ४ तिण्णि य ५ हवंति । पंचूणसयसहस्सं ६ पंचेव ७ अणुत्तरा निरया || [बृहत्सं० २५५] इति । श्रेयांसः एकादशस्तीर्थकरः एकविंशतिर्वर्षलक्षाणि कुमारत्वे तावन्त्येव प्रव्रज्यायां द्विचत्वारिंशद्राज्ये इत्येवं चतुरशीतिमायुः पालयित्वा सिद्धः । तथा तिविट्टु ि प्रथमवासुदेवः श्रेयांसजिनकालभावीति । अप्रतिष्ठानो नरकः सप्तमपृथिव्यां पञ्चानां 5 मध्यम इति । तथा सामाणिय त्ति समानर्द्धयः । तथा बाहिरय त्ति जम्बूद्वीपकमेरुव्यतिरिक्ताश्चत्वारो मन्दराश्चतुरशीतिः सहस्राणि प्रज्ञप्ताः अंजणगपव्वय -त्ति जम्बूद्वीपादष्टमे नन्दीश्वराभिधाने द्वीपे चक्रवालविष्कम्भमध्यभागे पूर्वादिषु क्षु चत्वारोऽञ्जनरत्नमया 'अञ्जनकपर्वताः । हरिवासेत्यादि, चत्तारि य भागा जोयस्स त्ति एकोनविंशतिभागाः, इहार्थे गाथार्द्धम् १७९ * ४ धणुपट्ट कलचउक्वं चुलसीइ सहस्स सोलहिय ।। [बृहत्क्षेत्र० ५९] त्ति [८४०१६ ] तथा पङ्कबहुलं काण्डं द्वितीयं तस्य च बाहल्यं चतुरशीतिः सहस्राणीति यथोक्तसूत्रार्थ इति । तथा व्याख्याप्रज्ञप्त्यां भगवत्यां चतुरशीतिः पदसहस्राणि पदाग्रेण पदपरिमाणेन, इह च यत्रार्थोपलब्धिस्तत् पदम्, मतान्तरेण तु अष्टादशपदसहस्रपरिमाणत्वादाचारस्य एतद् द्विगुणद्विगुणत्वाच्च शेषाङ्गानां 15 व्याख्याप्रज्ञप्तिर्दे लक्षे अष्टाशीतिश्च सहस्राणि पदानां भवतीति । तथा चतुरशीतिर्नागकुमारावासलक्षाणि चतुश्चत्वारिंशतो दक्षिणायां चत्वारिंशतश्चोत्तरायां भावादिति । चतुरशीतिर्योनयो जीवोत्पत्तिस्थानानि, ता एव प्रमुखानि १. “प्रथमायां रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशच्छतसहस्राणि नरकावासानां ३०००००० । द्वितीयस्यां पञ्चविंशतिः शतसहस्राणि २५००००० । तृतीयस्यां पञ्चदश १५००००० । चतुर्थ्यां दश १०००००० । पञ्चम्यां त्रीणि ३००००० । षष्ठ्यां पञ्चोनं शतसहस्रं ९९९९५ । सप्तम्यां पञ्चैव ५ अनुत्तराः सर्वाधोवर्तिनो नरकावासाः । ते चैवम्- पूर्वस्यां दिशि कालनामा नरकावासोऽपरस्यां दिशि महाकालो दक्षिणस्यां रोरुक उत्तरस्यां महारोरुको मध्येऽप्रतिष्ठानः ॥ २५५॥" इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ २. बाहरिय जे२ । ३. अंजनपर्वताः जे१ खं० ॥ ४. °तिर्भागाः खं० ॥ ५. चउक्क चुलसीइं जे२ । चउक्कं चुलसीई खं० जे१ ॥ ६. एतद्विगुणत्वाच्च शेषा ं जे१ खं० ।। ७. समवायाने भगवतीसूत्रवर्णनेऽपि 'चतुरासीति पयसहस्साइं पयग्गेणं' इत्येवाभिहितम्, किन्तु नन्दीसूत्रे भगवतीसूत्रवर्णने 'दो लक्खा अट्ठासीतिं पयसहस्साइं पयग्गेणं' इत्यभिहितम् ॥ 10 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 पुढवि-दग-अगणि-मारुय एक्वेक्वे सत्त जोणिलक्खाओ । वण पत्ते अणंते दस चोद्दस जोणिलक्खाओ ॥ विगलिंदिए दो दो चउरो चउरो य नारय- सुरेसु । तिरिएसु होंति चउरो चोद्दस लक्खा य मणुसु ॥ [ बृहत्सं० ३५१ - ३५२] त्ति । इह च जीवोत्पत्तिस्थानानामसंख्येयत्वेऽपि समानवर्ण - गन्ध-रस- - स्पर्शानां तेषामेकत्वविवक्षणान्न यथोक्तयोनिसंख्याव्यभिचारो मन्तव्य इति । पुव्वाइयाणमित्यादि, पूर्वमादिर्येषां तानि पूर्वादिकानि तेषाम्, शीर्षप्रहेलिका पर्यवसाने येषां तानि 10 शीर्ष प्रहेलिकापर्यवसानानि तेषाम्, स्वस्थानात् पूर्वपूर्वस्थानादुत्तरोत्तरस्य संख्यास्थानस्योत्पत्तिस्थानात् संख्याविशेषलक्षणात् गुणनीयादित्यर्थः स्थानान्तराणि अनन्तरस्थानान्यव्यवहितसंख्याविशेषा गुणकारनिष्पन्ना येषु तानि स्वस्थानस्थानान्तराणि क्रमव्यवस्थितसंख्यास्थानविशेषा इत्यर्थः, अथवा स्वस्थानानि पूर्वस्थानानि स्थानान्तराणि च अनन्तरस्थानानि स्वस्थान-स्थानान्तराणि, अथवा 15 स्वस्थानात् प्रथमस्थानात् पूर्वाङ्गलक्षणात् स्थानान्तराणि विलक्षणस्थानानि स्वस्थानस्थानान्तराणि तेषाम्, चतुरशीत्या लक्षैरिति शेषः, गुणकारः अभ्यासराशिः प्रज्ञप्तः, तथाहि किल चतुरशीत्या लक्षैः पूर्वाङ्गं भवतीति स्वस्थानम्, तदेव चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितं पूर्वमुच्यते तच्च स्थानान्तरमिति, एवं पूर्वं स्वस्थानं तदेव चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितमनन्तरस्थानं त्रुटिताङ्गाभिधानं भवति, इह सङ्ग्रहगाथेपुव्वतुडियाडडाववहूहुय तह उप्पले य पउमे य । नलिणत्थनिउर अउए नउए पउए य नायव्वे ॥ [ ] चूलियसीसपहेलिय चोद्दस नामा उ अंगसंजुत्ता । अट्ठावीसं ठाणा चउणउयं होड़ ठाणसयं ॥ [ ] ति । 20 आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे योनिप्रमुखानि तेषां शतसहस्राणि लक्षाणि योनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, कथम् ? 25 १८० - 9 अभिलापश्चैषाम् - पूर्वाङ्गं पूर्वं त्रुटिताङ्गं त्रुटितमित्यादिरिति । चउरासीतिमित्यादि, इह विभागोऽयम् १. चउदस जे१ खं० ॥ २. चउदस जे१ ॥ ३. अत्र संग्रह जे१ खं० ॥ ४. हुहुय जे२ हे१ ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ८५] पञ्चाशीतिस्थानकम् । ११ १८१ 5 * बत्तीस ३२ अट्ठवीसा २८ बारस १२ अट्ठ ८ चउरो ४ सयसहस्सा । आरेण बंभलोगा विमाणसंखा भवे एसा ॥ पंचास ५० चत्त ४ छच्चेव सहस्सा लंत ६ सुक्क सहस्सारे । सय चउरो आणयपाणएसु तिण्णारणच्चुयओ ॥ एक्कारसुत्तरं हेटिमेसु १११ सत्तुत्तरं च मज्झिमए १०७ । सयमेगं उवरिमए १०० पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥ [बृहत्सं० ११७-११९] इति । भवंतीति मक्खाय त्ति एतानि विमानान्येवं भवन्ति इति हेतोराख्यातानि भगवता सर्वज्ञत्वात् सत्यवादित्वाच्चेति ॥८४॥ [सू० ८५] आयारस्स णं भगवतो सचूलियागस्स पंचासीतिं उद्देसणकाला पण्णत्ता । 10 धायइसंडस्स णं मंदरा पंचासीतिं जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ता । रुयए णं मंडलियपव्वए पंचासीतिं जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते । नंदणवणस्स णं हेट्ठिल्लातो चरिमंतातो सोगंधियस्स कंडस्स हेडिल्ले चरिमंते एस णं पंचासीतिं जोयणसयाई अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । [टी०] अथ पञ्चाशीतिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, तत्राऽऽचारस्य प्रथमाङ्गस्य 15 नवाध्ययनात्मकप्रथमश्रुतस्कन्धरूपस्य सचूलियागस्स त्ति द्वितीये हि तस्य श्रुतस्कन्धे पञ्च चूलिकाः तासु च पञ्चमी निशीथाख्येह न गृह्यते भिन्नप्रस्थानरूपत्वात्तस्यास्तदन्याश्चतस्रः, तासु च प्रथम-द्वितीये सप्तसप्ताध्ययनात्मिके तृतीयचतुर्थ्यावेकैकाध्ययनात्मिके तदेवं सह चूलिकाभिर्वर्त्तत इति सचूलिकाकस्तस्य पञ्चाशीतिरुद्देशनकाला भवन्तीति, उद्देशकानामेतावत्संख्यत्वात्, तथाहि-प्रथमश्रुतस्कन्धे 20 नवस्वध्ययनेषु क्रमेण सप्त षट् चत्वारश्चत्वारः षट् पञ्च अष्ट चत्वारः सप्त चेति, द्वितीयश्रुतस्कन्धे तु प्रथमचूलायां सप्तस्वध्ययनेषु क्रमेण एकादश त्रयस्त्रयः चतुर्यु द्वौ द्वौ द्वितीयायां सप्तैकसराणि अध्ययनान्येवं तृतीयैकाध्ययनात्मिका एवं चतुर्थ्यपीति सर्वमीलने पञ्चाशीतिरिति । १. सहसा खं० । सहस जे१,२ ॥ २. सहसारे जे२ ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे षडशीतिस्थानकम् । तथा धातकीखण्डमन्दरौ सहस्रमवगाढौ चतुरशीतिः सहस्राण्युच्छ्रिताविति पञ्चाशीतिर्योजनसहस्राणि सर्वाग्रेण भवतः, पुष्करार्द्धमन्दरावप्येवम्, नवरं सूत्रे नाभिहितौ विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति । तथा रुचको रुचकाभिधानस्त्रयोदशद्वीपान्तर्गतः प्राकाराकृती रुचकद्वीपविभागकारितया स्थितः, अत एव माण्डलिकपर्वतो मण्डलेन व्यवस्थितत्वात्, 5 स च सहस्रमवगाढश्चतुरशीतिरुच्छ्रित इति पञ्चाशीतिः सहस्राणि सर्वाग्रेणेति । ' तथा नन्दनवनस्य मेरोः पञ्चयोजनशतोच्छ्रितायां प्रथममेखलायां व्यवस्थितस्याऽधस्त्याच्चरमान्तात् सौगन्धिककाण्डस्य रत्नप्रभापृथिव्याः खरकाण्डाभिधानप्रथमकाण्डस्यावान्तरकाण्डभूतस्याष्टमस्य सौगन्धिकाभिधानरत्नमयस्य सौगन्धिककाण्डस्याधस्त्यश्चरमान्तः पञ्चाशीतिर्योजनशतान्यन्तरमाश्रित्य भवति, 10 कथम् ? पञ्च शतानि मेरोः सम्बन्धीनि प्रत्येकं च सहस्रप्रमाणत्वादवान्तरकाण्डानामष्टमकाण्डमशीतिः शतानीति ॥८५॥ [सू० ८६] सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स अरहओ छलसीतिं गणा छलसीतिं गणहरा होत्था । सुपासस्स णं अरहतो छलसीतिं वाइसया होत्था । ___ 15 दोच्चाए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभागाओ दोच्चस्स घणोदहिस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं छलसीतिं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । [टी०] अथ षडशीतिस्थानके किमपि लिख्यते, तत्र सुविधेः नवमजिनस्येह षडशीतिर्गणा गणधराश्चोक्ता आवश्यके तु अष्टाशीतिरिति मतान्तरमिदम् । तथा द्वितीया पृथिवी शर्कराप्रभा, सा च बाहल्यतो द्वात्रिंशत्सहस्राधिकलक्षमाना तदर्द्ध 20 षट्षष्टिः सहस्राणि घनोदधिश्च तदधोवर्ती द्वितीयपृथिवीसम्बन्धित्वात् द्वितीयो विंशतिः सहस्राणि बाहल्यत इति षडशीतिर्यथोक्तमन्तरं भवतीति ॥८६॥ [सू० ८७] मंदरस्स णं पव्वतस्स पुरथिमिल्लातो चरिमंतातो गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते एस णं सत्तासीतिं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । मंदरस्स [णं पव्वतस्स] दक्खिणिल्लातो चरिमंतातो १. दृश्यतां पृ० १४० टि० ३ ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ८७] सप्ताशीतिस्थानकम् । १८३ दओभासस्स आवासपव्वतस्स उत्तरिल्ले चरिमंते एस णं सत्तासीतिं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं मंदरस्स [णं पव्वतस्स] पच्चस्थिमिल्लातो चरिमंतातो संखस्स आवासपव्वतस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते एवं चेव । एवं मंदरस्स [णं पव्वतस्स] उत्तरिल्लातो चरिमंतातो दगसीमस्स आवासपव्वतस्स दाहिणिल्ले चरिमंते एस णं सत्तासीतिं जोयणसहस्साई 5 अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। छण्हं कम्मपगडीणं आतिमउवरिल्लवज्जाणं सत्तासीति उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो । महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लातो चरिमंतातो सोगंधियस्स कंडस्स हेडिल्ले चरिमंते एस णं सत्तासीतिं जोयणसयाई अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । एवं 10 रुप्पीकूडस्स वि । [टी०] अथ सप्ताशीतिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, मंदरेत्यादि, मेरोः पौरस्त्यान्तात् जम्बूद्वीपान्तः पञ्चचत्वारिंशत् सहस्राणि द्विचत्वारिंशच्च सहस्राणि लवणजलधिमवगाह्य गोस्तुभो वेलन्धरनागराजावासपर्वतः प्राच्यां दिशि भवति, एवं सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति, एवमन्येषां त्रयाणामन्तरमवसेयमिति । . 15 __ तथा षण्णां कर्मप्रकृतीनामादिमोपरिमवर्जानां ज्ञानावरणान्तरायरहितानां दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीया-ऽऽयुष्कनाम-गोत्रसंज्ञितानामित्यर्थः सप्ताशीतिरुत्तरप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, कथम् ?, दर्शनावरणादीनां षण्णां क्रमेण नव द्वे अष्टाविंशतिः चतम्रो द्विचत्वारिंशद् द्वे चेत्येतासां मीलने सूत्रोक्तसंख्या स्यादिति । महाहिमवंतेत्यादि, महाहिमवति द्वितीयवर्षधरपर्वते अष्टौ सिद्धायतनकूट- 20, महाहिमवत्कूटादीनि कूटानि भवन्ति, तानि च पञ्चशतोच्छ्रितानि, तत्र महाहिमवत्कूटस्य पञ्च शतानि द्वे शते महाहिमवद्वर्षधरोच्छ्रयस्य अशीतिश्च शतानि प्रत्येकं सहस्रमानानामष्टानां सौगन्धिककाण्डावसानानां रत्नप्रभाखरकाण्डावान्तरकाण्डानामित्येवं मीलिते सप्ताशीतिरन्तरं भवतीति । एवं रुप्पिकूडस्स वि त्ति रुक्मिणि पञ्चमवर्षधरे .. यद् द्वितीयं रुक्मिकूटाभिधानं कूटं तस्याप्यन्तरं महाहिमवत्कूटस्येव वाच्यम्, 25 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अष्टाशीतिस्थानकम् । समानप्रमाणत्वाद् द्वयोरपीति ॥ ८७ ॥ [सू० ८८] एगमेगस्स णं चंदिमसूरियस्स अट्ठासीतिं अट्ठासीतिं महग्गहा परिवारो पण्णत्तो । दिट्ठिवायस्स णं अट्ठासीतिं सुत्ताई पण्णत्ताई, तंजहा- उज्जुसुयं, 5 परिणतापरिणतं, एवं अट्ठासीतिं सुत्ताणि भाणियव्वाणि जहा णंदीए । मंदरस्स णं पव्वतस्स पुरत्थिमिल्लातो चरिमंतातो गोथुभस्स आवासपव्वतस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते एस णं अट्ठासीतिं जोयणसहस्साइं अबाधाते अंतरे पण्णत्ते । एवं चउसु वि दिसासु णातव्वं । बाहिराओ उत्तरातो णं कट्ठातो सूरिए पढमं छम्मासं अयमीणे चोयालीसइमे 10 मंडलगते अट्ठासीति एकसट्ठिभागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स णिवुत्ता रयणिखेत्तस्स अभिणिवुढेत्ता सूरिए चारं चरतीति । दक्खिणकट्ठातो णं सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमीणे चोयालीसतिमे मंडलगते अट्ठासीतिं एगसट्टिभागे मुहुत्तस्स रयणिखेत्तस्स णिवुड्डेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिणिवुट्टेत्ता णं सूरिए चारं चरति । 15 [ टी०] अष्टाशीतिस्थानके किञ्चिद् विव्रियते, एकैकस्याऽसंख्यातानामपि प्रत्येकमित्यर्थः, चन्द्रमाश्च सूर्यश्च चन्द्रमः सूर्यम्, तस्य, चन्द्र-सूर्ययुगलस्य इत्यर्थः, अष्टाशीतिर्महाग्रहाः, एते च यद्यपि चन्द्रस्यैव परिवारोऽन्यत्र श्रूयते तथापि सूर्यस्यापीन्द्रत्वादेत . एव परिवारतयाऽवसेया इति । दिट्ठिवाएत्यादि, दृष्टिवादस्य द्वादशाङ्गस्य परिकर्म्म- सूत्र - पूर्वगत- प्रथमानुयोग - चूलिकाभेदेन पञ्चप्रकारस्य सुत्ताई 20 ति द्वितीयप्रकारभूतानि अष्टाशीतिर्भवन्ति, जहा नंदीए त्ति अतिदेशतः सूत्राणि दर्शितानि, तानि चाग्रे व्याख्यास्यामः । मंदरस्सेत्यादि, मेरोः पूर्वान्तात् जम्बूद्वीपस्य पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्रमानत्वात् जम्बूद्वीपान्ताच्च द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्रेषु गोस्तुभस्य व्यवस्थितत्वात् तस्य च १. सूर्यश्चन्द्रमः ° जे२ ॥ २. र्भवति जे१, २ ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ८९ ] अष्टाशीति - एकोननवतिस्थानके । सहस्रविष्कम्भत्वाद् यथोक्तः सूत्रार्थो भवतीति, अनेनैव क्रमेण दक्षिणादिदिग्व्यवस्थितान् दकावभास-शङ्ख-दकसीमाख्यान् वेलन्धरनागराजनिवासपर्वतानाश्रित्य वाच्यमत एवाह - एवं चउसु वि दिसासु नेयव्वमिति । बाहिराओ णमित्यादि, बाह्याया: सर्वाभ्यन्तरमण्डलरूपाया उत्तरस्याः काष्ठायाः, क्वचित्तु बाहिराओ त्ति न दृश्यते, सूर्यः प्रथमं षण्मासं दक्षिणायनलक्षणं 5 दक्षिणायनादित्वात् संवत्सरस्य, अमीणे त्ि आयाच् आगच्छन् चतुश्चत्वारिंशत्तममण्डलगतोऽष्टाशीतिमेकषष्टिभागान्, दिवसखेत्तस्स त्ति दिवसस्यैव निवुत्त निवर्ध्य हापयित्वा रयणिखेत्तस्स त्ति रजन्यास्तु अभिवर्ध्य सूरिए चारं चरइ त्ति भ्राम्यतीति, इह च भावनैवम् - प्रतिमण्डलं दिनस्य मुहूर्तैकषष्टिभागद्वयहानेर्दक्षिणायनापेक्षया चतुश्चत्वारिंशत्तमे अष्टाशीतिर्भागा हीयन्ते, रात्रेस्तु त एव वर्द्धन्त 10 इति, द्विः सूर्यग्रहणं चेह दिनरात्र्याश्रितवाक्यद्वयभेदकल्पनया न पुनरुक्तमवसेयमिति, इदं च सूत्रमष्टसप्ततिस्थानकसूत्रवद् भावनीयमिति । दक्खिणाओ इत्यादिसूत्रं पूर्वसूत्रवदवगन्तव्यम्, नवरमिह दिनवृद्धिः रात्रिहानिश्च भावनीयेति ॥८८॥ [सू० ८९] उसमे णं अरहा कोसलिए इमीसे ओसप्पिणीए ततियाए समाए पच्छिमे भागे एकूणणउइए अद्धमासेहिं सेसेहिं कालगते वीतिक्कंते जाव 15 सव्वदुक्खप्पहीणे । समणे भगवं महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए चउत्थीए समाए पच्छिमे भागे एगूणनउतीए अद्धमासेहिं सेसेहिं कालगते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी एगूणनउई वाससयाइं महाराया होत्था । संतिस्स णं अरहतो एगूणनउई अज्जासाहस्सीतो उक्कोसिया अज्जासंपदा 20 १८५ [टी०] अथैकोननवतिस्थानके किञ्चिद्विचार्यते, तइयाए समाए त्ति सुषमादुष्षमाभिधानाया एकोननवत्यामर्द्धमासेषु त्रिषु वर्षेषु अर्द्धनवसु च मासेषु 'सत्सु ' इति गम्यते, जाव त्ति करणात् ' अंतगडे सिद्धे बुद्धे मुत्ते' त्ति दृश्यम् । हरिषेणचक्रवर्त्ती दशमस्तस्य च दश वर्षसहस्राणि सर्वायुस्तत्र च शतोनानि नव 25 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे नवतिस्थानकम् । सहस्राणि राज्यं शेषाण्येकादश [ शतानि ] कुमारत्व - माण्डलिकत्वा ऽनगारत्वेषु अवसेयानि । इह शान्तिजिनस्यैकोननवतिरार्यिकासहस्राण्युक्तानि, आवश्यके त्वेकषष्टिः सहस्राणि शतानि च षडभिधीयन्त इति मतान्तरमेतदिति ॥ ८९ ॥ [सू० ९०] सीयले णं अरहा णउडं धणूई उड्डउच्चत्तेणं होत्था । अजियस्स णं अरहओ णउइं गणा नउई गणहरा होत्था । एवं संतिस्स वि । 20 १८६ [टी०] अथ नवतिस्थानके किञ्चिद् व्याख्यायते, तत्राऽजितनाथस्य शान्तिनाथस्य चेह नवतिर्गणा गणधराश्चोक्ताः, आवश्यके तु पञ्चनवतिरजितस्य षट्त्रिंशत्तु शान्तेरुक्ताः, तदिदमपि मतान्तरमिति । तथा स्वयम्भूः तृतीयवासुदेवः, तस्य नवतिर्वर्षाणि विजयः पृथिवीसाधनव्यापारः । सव्वेसि णमित्यादि, सर्वेषां विंशतेरपि वर्तुलवैताढ्यानां शब्दापातिप्रभृतीनां योजनसहस्रोच्छ्रितत्वात् सौगन्धिक15 काण्डचरमान्तस्य चाष्टसु सहस्रेषु व्यवस्थितत्वात् नवसु सहस्रेषु नवतेः शतानां भावात् सूत्रोक्तमन्तरमनवद्यमिति ॥ ९० ॥ सयंभुस्स णं वासुदेवस्स णउतिं वासाइं विज होत्था । सव्वेसि णं वट्टवेयपव्वयाणं उवरिल्लातो सिहरतलातो सोगंधियकंडस्स ट्ठिल्ले चरिमंते एस णं नउतिं जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । [सू० ९१] एक्काणउइं परवेयावच्चकम्मपडिमातो पण्णत्तातो । कालोयणे णं समुद्दे एक्काणउतिं जोयणसयसहस्साइं साहियाइं परिक्खेवेणं पण । कुंथुस्स णं अरहतो एक्काणउतिं आहोहियसता होत्था । १. “अज्जासंगहमाणं उसभाईणं अओ वुच्छं ॥ २५९ ॥ तिण्णेव य लक्खाई १ तिण्णि य तीसा य २ तिणि छत्तीसा ३ । तीसा य छच्च ४ पंच य तीसा ५ चउरो अ वीसा अ ६ || २६० ॥ चत्तारि य तीसाई ७ तिण्णि य असिआई ८ तिहत्तो अ । वीसुत्तरं ९ छलहियं १० तिसहस्सहिअं च लक्खं च ११ ॥ २६९॥ लक्खं १२ अट्ठ सयाणि य १३ बावट्ठि सहस्स १४ चउसयसमग्गा १५ । एगट्ठी छच्च सया १६ सट्ठिसहस्सा सया छच्च १७ ॥ २६२ ॥ सट्ठि १८ पणपण्ण १९ पण्णे २० गचत्त २१ चत्ता २२ तहट्ठतीसं च २३ । छत्तीसं च सहस्सा २४ अज्जाणं संगहो एसो ॥२६३॥” इति आवश्यकनिर्युक्तौ ॥ २. दृश्यतां पृ० १४० टि० ३ ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९१] एकनवतिस्थानकम् । १८७ आउय-गोयवजाणं छहँ कम्मपगडीणं एक्काणउतिं उत्तरपगडीओ पण्णत्ताओ। [टी०] अथैकनवतिस्थानके किञ्चिद्वितन्यते, तत्र परेषाम् आत्मव्यतिरिक्तानां वैयावृत्यकर्माणि भक्तपानादिभिरुपष्टम्भक्रियास्तद्विषयाः प्रतिमाः अभिग्रहविशेषाः परवैयावृत्यकर्मप्रतिमाः, एतानि च प्रतिमात्वेनाभिहितानि क्वचिदपि नोपलब्धानि, 5 केवलं विनय-वैयावृत्यभेदा एते सन्ति, तथाहि- दर्शनगुणाधिकेषु सत्कारादिर्दशधा विनयः, आह च सक्कार १ अब्भुट्ठाणे २ सम्माणा ३ ऽऽसणअभिग्गहो ४ तह य । आसणअणुप्पयाणं ५ किइकम्मं ६ अंजलिगहो य ७ ॥ इंतस्सणुगच्छणया ८ ठियस्स तह पज्जुवासणा भणिया ९ । गच्छंताणुव्वयणं १० एसो सुस्सूसणाविणओ ॥ [ ] त्ति । तत्र सत्कारो वन्दन-स्तवनादिः १, अभ्युत्थानम् आसनत्याग: २, सन्मानो वस्त्रादिपूजनम् ३, आसनाभिग्रहः तिष्ठत एवासनानयनपूर्वकमुपविशतात्रेति भणनमिति ४, आसनानुप्रदानम् आसनस्य स्थानात् स्थानान्तरसञ्चारणम् ५, कृतिकादीनि । प्रकटानि । तथा तीर्थकरादीनां पञ्चदशानां पदानामनाशातनादिपदचतुष्टयगुणितत्वे 15 षष्टिविधोऽनाशातनाविनयो भवति, तथाहितित्थयर १ धम्म २ आयरिय ३ वायगे ४ थेर ५ कुल ६ गणे ७ संघे ८ । सम्भोइय ९ किरियाए १० मइनाणाईण १५ य तहेव ॥ [ ] अत्र भावना- तीर्थकराणामनाशातना, तीर्थकरप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य अनाशातना, एवं सर्वत्र । कायव्वा पुण भत्ती बहुमाणो तह य वण्णवाओ य । अरहंतमाइयाणं केवलनाणावसाणाणं ॥ [ ] ति । तथौपचारिकविनयः सप्तधा, यदाह१. एता वक्ष्यमाणाश्च सर्वा अपि विनयसम्बद्धा गाथा दशवैकालिकस्य प्रथमेऽध्ययने हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तावन्यत्र च समुद्धृताः सन्ति । विशेषतो जिज्ञासुभिः परिशिष्टे टिप्पनेषु द्रष्टव्यम् ॥ __20 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अब्भासच्छण १ छंदाणुवत्तणं २ कयपडिकीई तहय ३ । कारियनिमित्तकरणं ४ दुक्खत्तगवेसणा तहय ५ ॥ तह देसकालजाणण ६ सव्वत्थेसु तहय अणुमई भणिया ७ । उवयारिओ उ विणओ एसो भणिओ समासेणं ॥ [ ] ति, अभ्यासासनम् उपचरणीयस्यान्तिकेऽवस्थानम्, छन्दानुवर्त्तनम् अभिप्रायानुवृत्तिः, कृतप्रतिकृतिर्नाम प्रसन्ना आचार्याः सूत्रादि दास्यन्ति 'न नाम निर्जरा' इति मन्यमानस्याहारादिदानम्, कारितनिमित्तकरणं सम्यक् शास्त्रमध्यापितस्य विशेषेण विनये वर्त्तनं तदर्थानुष्ठानं च, शेषाणि प्रसिद्धानि, तथा वैयावृत्यं दशधा, यदाहआयरिय उवज्झाए थेर- तवस्सी गिलाण - सेहाणं । 20 १८८ साहम्मिय-कुल-गण-संघसंगयं तमिह कायव्वं ॥ [ ] ति, तत्र प्रव्राजना १ दिगु २ देश ३ समुद्देश ४ वाचना ५ चार्यभेदादाचार्यस्य च पञ्चविधत्वात्तदेवं चतुर्दशधेत्येकनवतिर्विनयभेदाः, एते एव अभिग्रहविषयीकृताः प्रतिमा उच्यन्त इति । तथा कालोयणे त्ति कालोदसमुद्रः, स चैकनवतिर्लक्षाणि साधिकानि परिक्षेपेण, 15 आधिक्यं च सप्तत्या सहस्रैः षड्भिः शतैः पञ्चोत्तरैः सप्तदशभिर्धनुः शतैः पञ्चदशोत्तरैः सप्ताशीत्या चाङ्गुलैः साधिकैरिति । आहोहि त्ति नियतक्षेत्रविषयावधयः । आयुर्गोत्रवज्र्जानां षण्णामिति ज्ञानावरण- - दर्शनावरण- वेदनीय मोहनीय-नामाऽन्तरायाणां क्रमेण पञ्च-नव-द्व्यष्टाविंशति-द्विचत्वारिंशत्-पञ्चभेदानामिति ॥९१॥ [सू० ९२] बाणउई पडिमातो पण्णत्ताओ । थेरे णं इंदभूती बाणउतिं वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे [जाव प्पहीणे] । मंदरस्स णं पव्वतस्स बहुमज्झदेसभागातो गोथुभस्स आवासपव्वतस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते एस णं बाणउतिं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। एवं चउण्ह वि आवासपव्वयाणं । १. शास्त्रपदमपितस्य खं० ॥ २. 'भेदाचार्य' जे२ खंमू० ॥ ३. सत्कारादि १०, अनाशातनादि ६०, औपचारिक ७, वैयावृत्य १४ = ९१ ॥ ४. कालायणे जे१, २ हे१,२ ॥ ५. अहो जे२ ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९२] द्विनवतिस्थानकम् । १८९ [टी०] अथ द्विनवतिस्थानके किमप्यभिधीयते, द्विनवतिः प्रतिमाः अभिग्रहविशेषाः, ताश्च दशाश्रुतस्कन्धनियुक्त्यनुसारेण दर्श्यन्ते, तत्र किल पञ्च प्रतिमा उक्ताः, तद्यथासमाधिप्रतिमा १, उपधानप्रतिमा २, विवेकप्रतिमा ३, प्रतिसंलीनताप्रतिमा ४, एकविहारप्रतिमा चेति ५ । तत्र समाधिप्रतिमा द्विविधा- श्रुतसमाधिप्रतिमा चारित्रसमाधिप्रतिमा च, दर्शनं ज्ञानान्तर्गतमिति न भिन्ना दर्शनप्रतिमा विवक्षिता, तत्र 5 श्रुतसमाधिप्रतिमा द्विषष्टिभेदा, कथम् ?, आचारे प्रथमे श्रुतस्कन्धे पञ्च, द्वितीये सप्तत्रिंशत्, स्थानाङ्गे षोडश, व्यवहारे चतस्र इत्येता द्विषष्टिः, एताश्च चरित्रस्वभावा अपि विशिष्टश्रुतवतां भवन्तीति श्रुतप्रधानतया श्रुतसमाधिप्रतिमात्वेनोपदिष्टा इति सम्भावयामः । पञ्च सामायिकच्छेदोपस्थापनीयाद्याश्चारित्रसमाधिप्रतिमाः । उपधानप्रतिमा द्विविधा- भिक्षु-श्रावकभेदात्, तत्र भिक्षुप्रतिमा मासाई सत्तता [पञ्चाशक० १८॥३] 10 इत्यादिनाऽभिहितस्वरूपा द्वादश, उपासकप्रतिमास्तु दसणवय [पञ्चाशक० १०॥३] इत्यादिनाऽभिहितस्वरूपा एकादशेति सर्वास्त्रयोविंशतिः । विवेकप्रतिमा त्वेका क्रोधादेराभ्यन्तरस्य गण-शरीरोपधि-भक्त-पानादेर्बाह्यस्य च विवेचनीयस्यानेकत्वेऽप्येकत्वविवक्षणादिति । प्रतिसंलीनताप्रतिमाऽ-प्येकैव इन्द्रियस्वरूपस्य पञ्चविधस्य नोइन्द्रियस्वभावस्य च योग-कषाय-विविक्तशयना-ऽऽसनभेदतस्त्रिविधस्य 15 प्रतिसंलीनताविषयस्य भेदेनाविवक्षणादिति, पञ्चम्येकविहारप्रतिमैकैव, न चेह सा भेदेन विवक्षिता, भिक्षुप्रतिमास्वन्त वितत्वादित्येवं द्विषष्टिः पञ्च त्रयोविंशतिरेका एका च द्विनवतिस्ता भवन्तीति । स्थविर इन्द्रभूतिर्महावीरस्य प्रथमगणनायकः, स च गृहस्थपर्यायं पञ्चाशतं वर्षाणि त्रिंशतं छद्मस्थपर्यायं द्वादश च केवलित्वं पालयित्वा सिद्ध इति सर्वाणि द्विनवतिरिति। 20 ___ मंदरस्सेत्यादेर्भावार्थ:- मेरुमध्यभागात् जम्बूद्वीपः पञ्चाशत् सहस्राणि ततो १. “मासाई सत्तंता पढ़मा बिति सत्त राइदिणा । अहराई एगराई भिक्खुपडिमाण बारसगं ॥१॥" इति सम्पूर्णा गाथा । आवश्यकसूत्रे प्रतिक्रमणाध्ययने 'बारसहिं भिक्खुपडिमाहिं' इति सूत्रस्य व्याख्यानरूपे मूलभाष्येऽपि गाथेयं वर्तते, व्याख्याता च तत्र हरिभद्रसूरिभिः ॥ २. 'दसण वय सामाइय पोसहपडिमा अबंभ सच्चित्ते । आरंभ पेस उद्दिट्ठवजए समणभूए य ॥' इति सम्पूर्णा गाथा । गाथेयम् आवश्यकसूत्रे प्रतिक्रमणाध्ययने 'इगारसहिं उवासगपडिमाहिं' इति सूत्रस्य मूलभाष्येऽपि वर्तते ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे त्रिनवति-चतुर्नवतिस्थानके । द्विचत्वारिंशत् सहस्राण्यतिक्रम्य गोस्तुभपर्वत इति सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति, एवं शेषाणामपि ॥१२॥ [सू० ९३] चंदप्पभस्स णं अरहतो तेणउतिं गणा तेणउतिं गणहरा होत्था। संतिस्स णं अरहतो तेणउइं चोद्दसपुव्विसया होत्था । तेणउतिमंडलगते णं सूरिए अतिवट्टमाणे वा नियमाणे वा समं अहोरत्तं विसमं करेति । [टी०] अथ त्रिनवतिस्थानके किमपि वितन्यते, तेणउइंमंडलेत्यादि, तत्र अतिवर्त्तमानो वा सर्वबाह्यात् सर्वाभ्यन्तरं प्रति गच्छन् निवर्तमानो वा सर्वाभ्यन्तरात् सर्वबाह्यं प्रति गच्छन् व्यत्ययो वा व्याख्येयः, सममहोरात्रं विषमं करोतीत्यस्यार्थः10 अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रं तयोः समता तदा भवति यदा पञ्चदश पञ्चदश मुहूर्ता उभयोरपि भवन्ति, तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डले अष्टादशमुहूर्तमहर्भवति रात्रिश्च द्वादशमुहूर्ता, सर्वबाह्ये तु व्यत्ययः, तथा त्र्यशीत्यधिके मण्डलशते द्वौ द्वावेकषष्टिभागौ वर्द्धते हीयेते च, यदा च दिनवृद्धिस्तदा रात्रिहानिः रात्रिवृद्धौ च दिनहानिरिति, तत्र द्विनवतितमे मण्डले प्रतिमण्डलं मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयवृद्ध्या त्रयो मुहूर्ता एकेनैकषष्टिभागेनाधिका वर्द्धन्ते 15 हीयन्ते वा, तेषु च द्वादशमुहूर्तेषु मध्ये क्षिप्तेषु अष्टादशभ्योऽपसारितेषु वा पञ्चदश मुहूर्ता उभयत्रैकेनैकषष्टिभागेनाधिका हीना वा भवन्ति, अतो द्विनवतितममण्डलस्यार्द्ध समाहोरात्रता तस्यैव चान्ते विषमाहोरात्रता भवति, द्विनवतितमं मण्डलं चादित आरभ्य त्रिनवतितममिति यथोक्तः सूत्रार्थ इति ॥९३॥ [सू० ९४] निसह-नेलवंतियाओ णं जीवातो चउणउई चउणउई 20 जोयणसहस्साइं एवं छप्पण्णं जोयणसतं दोण्णि य एकूणवीसतिभागे जोयणस्स आयामेणं पण्णत्तातो] । अजितस्स णं अरहतो चउणउतिं ओहिनाणिसया होत्था ।। [टी०] अथ चतुर्नवतिस्थानके किञ्चिद्विवेच्यते, निसहेत्यादि, इह पादोना १. पंचदश मुहूर्ता जे१ खं० ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९५] पञ्चनवतिस्थानकम् । संवादगाथा- चउणउइसहस्साइं छप्पण्णहियं सयं कला दो य । जीवा निसहस्सेसा [बृहत्क्षेत्र ६०] इति ॥९४॥ [सू० ९५] सुपासस्स णं अरहतो पंचाणउतिं गणा पंचाणउतिं गणहरा होत्था । . जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चरिमंताओ चउद्दिसिं लवणसमुदं पंचाणउतिं 5 पंचाणउतिं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता चत्तारि महापायाला पण्णत्ता, तंजहावलयामुहे केउए जुयते ईसरे । लवणसमुदस्स उभओपासिं पि पंचाणउतिं पंचाणउतिं पदेसा . उव्वेधुस्सेधपरिहाणीए पण्णत्ता । कुंथू णं अरहा पंचाणउतिं वाससहस्साई परमाउयं पालयित्ता सिद्धे बुद्धे 10 जाव प्पहीणे । थेरे णं मोरियपुत्ते पंचाणउतिं वासाइं सव्वाउयं पालयित्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । [टी०] अथ पञ्चनवतिस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, लवणसमुद्रस्योभयपार्श्वतोऽपि पञ्चनवतिः पञ्चनवतिः प्रदेशा उद्वेधोत्सेधपरिहाण्यां विषये प्रज्ञप्ताः, अयमत्र 15 भावार्थः- लवणसमुद्रमध्ये दशसाहम्रिकक्षेत्रस्य समधरणीतलापेक्षया सहस्रमुद्वेधः, उण्डत्वमित्यर्थः, तदनन्तरं पञ्चनवतिं प्रदेशानतिक्रम्योद्वेधस्य प्रदेशः परिहीयते, ततोऽपि पञ्चनवतिं प्रदेशान् गत्वा उद्वेधस्य प्रदेशो हीयते, एवं पञ्चनवतिपञ्चनवतिप्रदेशातिक्रमे प्रदेशमात्रस्य प्रदेशमात्रस्योद्वेधस्य हान्या पञ्चनवत्यां योजनसहस्रेष्वतिक्रान्तेषु समुद्रतटप्रदेशे उद्वेधतः सहस्रस्यापि परिहाणिर्भवति, समभूतलत्वं भवतीत्यर्थः, तथा 20 समुद्रमध्यभागापेक्षया तत्तटस्य साहसिक उत्सेधो भवति, उत्सेधश्चोच्चत्वम्, तत्र समधरणीतलरूपात् तत्तटात् पञ्चनवतिं प्रदेशानतिक्रम्य एकप्रदेशिका उत्सेधस्य परिहाणिर्भवति, ततोऽपि पञ्चनवतिं प्रदेशान् गत्वा प्रादेशिक्येवोत्सेधहानिर्भवति, एवं पञ्चनवतिपञ्चनवतिप्रदेशातिक्रमेण प्रादेशिक्या प्रादेशिक्या उत्सेधहान्या पञ्चनवत्यां योजनसहस्रेष्वतिक्रान्तेषु समुद्रमध्यभागे सहस्रमपि उत्सेधस्य परिहीयते, एवं 25 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे षण्णवतिस्थानकम् । साहम्रिकोत्सेधपरिहाणौ, साहसिकोद्वेधता भवति लवणस्येति, अथवा उद्वेधार्थं योत्सेधपरिहाणिस्तस्यां पञ्चनवतिः प्रदेशाः प्रज्ञप्ताः, तेष्वतिलघितेषु उत्सेधतः . प्रदेशपरिहाण्यामुद्वेधः प्रादेशिको भवतीति ।। तथा कुन्थुनाथस्य सप्तदशतीर्थकरस्य कुमारत्व-माण्डलिकत्व-चक्रवर्त्तित्वा5 ऽनगारत्वेषु प्रत्येकं त्रयोविंशतेर्वर्षसहस्राणामर्द्धाष्टमवर्षशतानां च भावात् सर्वायुः पञ्चनवतिवर्षसहस्राणि भवतीति । तथा मौर्यपुत्रो महावीरस्य सप्तमगणधरस्तस्य पञ्चनवतिर्वर्षाणि सर्वायुः, कथम् ?, गृहस्थत्व-छद्मस्थत्व-केवलित्वेषु क्रमेण पञ्चषष्टिचतुर्दश-षोडशानां वर्षाणां भावादिति ॥९५॥ [सू० ९६] एगमेगस्स णं रणो चाउरंतचक्कवट्टिस्स छण्णउति छण्णउतिं 10 गामकोडीओ होत्था । , वायुकुमाराणं छण्णउइं भवणावाससतसहस्सा पण्णत्ता । वावहारिए णं दंडे छण्णउतिं अंगुलाणि अंगुलपमाणेणं, एवं धणू नालिया जुगे अक्खे मुसले वि । अब्भंतराओ आइमुहुत्ते छण्णउतिं अंगुलच्छाये पण्णत्ते । 15 [टी०] अथ षण्णवतिस्थानके किमपि व्याख्यायते, वायुकुमाराणां षण्णवतिर्भवनलक्षाणि दक्षिणस्यां पञ्चाशत उत्तरस्यां च षट्चत्वारिंशतो भावादिति। वावहारिए त्ति व्यावहारिको येन गव्यूतादिप्रमाणं चिन्त्यते, अव्यावहारिकस्तु लघुः दीर्घो वा भवत्युक्तप्रमाणात्, दण्डो हि चतुःकर उक्तः, करश्च चतुर्विंशत्यगुलः, एवं चतुर्विंशतौ चतुर्गुणितायां षण्णवतिः स्यादेवेति । अब्भंतराओ इत्यादि, अभ्यन्तराद् 20 अभ्यन्तरं मण्डलमाश्रित्येत्यर्थः, आदिमुहूर्तः षण्णवत्यङ्गुलच्छायः प्रज्ञप्तः, अयमत्र भावार्थ:- सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यत्र दिने सूर्यश्चरति तस्य दिनस्य प्रथमो मुहूर्तो द्वादशाङ्गुलमानं शकुमाश्रित्य षण्णवत्यङ्गुलच्छायो भवति, तथाहितद्दिनमष्टादशमुहूर्तप्रमाणं भवतीति मुहूर्तोऽष्टादशभागो दिनस्य भवति, ततश्च छायागणितप्रक्रियया छेदेनाष्टादशलक्षणेन द्वादशाङ्गुलः शङ्कुर्गुण्यत इति, ततो द्वे शते १. हे१ विना- णास्यां पंचाशत उत्तरास्यां च जे१,२ खं० । णायां पंचाशत उत्तरायां च हे२ ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९७-९८] सप्तनवति-अष्टनवतिस्थानके । १९३ षोडशोत्तरे भवतः २१६, तयोरर्धीकृतयोरष्टोत्तरं शतं भवति १०८, ततश्च शङ्कुप्रमाणे १२ऽपनीते षण्णवतिरङ्गुलानि लभ्यन्ते इति ॥९६।। [सू० ९७] मंदरस्स णं पव्वतस्स पच्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो गोथुभस्स णं आवासपव्वयस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते एस णं सत्ताणउतिं जोयणसहस्साइं अबाधाते अंतरे पण्णत्ते । एवं चउद्दिसि पि । 5 अट्ठण्हं कम्मपगडीणं सत्ताणउतिं उत्तरपगडीतो पण्णत्तातो । हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी देसूणाई सत्ताणउतिं वाससयाई अगारवासमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगारातो जाव पव्वतिते । [टी०] अथ सप्तनवतिस्थानके किञ्चिद् विचार्यते, मंदरेत्यादेर्भावार्थोऽयम्- मेरोः पश्चिमान्तात् जम्बूद्वीपान्तः पञ्चपञ्चाशत् सहस्राणि ततो द्विचत्वारिंशता गोस्तुभ इति 10 यथोक्तमेवान्तरमिति । हरिषेणो दशमचक्रवर्ती देशोनानि सप्तनवतिं वर्षशतानि गृहमध्युषितस्त्रीणि चाधिकानि प्रव्रज्यां पालितवान् दशवर्षसहस्रत्वात्तदायुष्कस्येति ॥९७।। [सू० ९८] नंदणवणस्स णं उवरिल्लातो चरिमंतातो पंडयवणस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं अट्ठाणउतिं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । ___ मंदरस्स णं पव्वतस्स पच्चत्थिमिल्लातो चरिमंतातो गोथुभस्स 15 आवासपव्वतस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते एस णं अट्ठाणउतिं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं चउदिसि पि । दाहिणभरहड्डस्स णं धणुपट्टे अट्ठाणउतिं जोयणसयाई किंचूणाई आयामेणं पण्णत्ते । उत्तरातो णं कट्ठातो सूरिए पढमं छम्मासं अयमीणे एकूणपन्नासतिमे 20 मंडलगते अट्ठाणउतिं एक्कसट्ठिभागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता णं सूरिए चारं चरति । दक्खिणातो णं कट्ठातो सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमीणे एक्कूणपन्नासतिमे मंडलगते अट्ठाणउतिं एकसट्ठिभाए मुहुत्तस्स रयणिखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुड्हेत्ता णं सूरिए चारं चरति । 25 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे रेवतिपढमजेट्ठपजवसाणाणं एक्कूणवीसाए नक्खत्ताणं अट्ठाणउतिं तारातो तारग्गेणं पण्णत्तातो । [टी०] अथाष्टनवतिस्थानके किञ्चिदभिधीयते, नंदणवणेत्यादेर्भावार्थोऽयम्नन्दनवनं मेरोः पञ्चयोजनशतोच्छितप्रथममेखलाभावि पञ्चयोजनशतोच्छितं 5 तद्गतपञ्चयोजनशतोच्छितकूटाष्टकस्य तद्ग्रहणेन ग्रहणात्, तथा पण्डकवनं च मेरुशिखरव्यवस्थितम्, अतो नवनवत्या मेरोरुच्चस्त्वस्य आद्ये सहस्रे अपकृष्टे यथोक्तमन्तरं भवतीति । गोस्तुभसूत्रभावार्थः पूर्ववत्, नवरं गोस्तुभविष्कम्भसहस्रे क्षिप्ते यथोक्तमन्तरं भवतीति। वेयड्ढस्स णमित्यादिर्यः केषुचित् पुस्तकेषु दृश्यते सोऽपपाठः, सम्यक्पाठश्चायम्- दाहिणभरहड्वस्स णं धणुपट्टे अट्ठाणउइंजोयणसयाइं किंचूणाई 10 आयामेणं पण्णत्ते इति, यतोऽन्यत्रोक्तम् नव चेव सहस्साई छावट्ठाई सयाई सत्त भवे । . सविसेस कला चेगा दाहिणभरहद्धधणुपट्टे ॥ [बृहत्क्षेत्र० ४३] [९६०७ १९ ] ति । वैताढ्यधनुःपृष्ठं त्वेवमुक्तमन्यत्र दस चेव सहस्साई सत्तेव सया हवंति तेयाला । 15 धणुपट्टे वेयढे कला य पण्णारस हवंति ॥ [बृहत्क्षेत्र० ४५] [१०७४३ २२] । __ उत्तराओ णमित्यादि, भावार्थः पूर्वोक्तानुसारेणावसेयः, नवरमिह एक्वेतालीसइमे इति केषुचित् पुस्तकेषु दृश्यते सोऽपपाठः, एगूणपंचासइमे त्ति एकोनपञ्चाशतो द्विगुणत्वे अष्टनवतिर्भवति, द्वयगुणनं च प्रतिमण्डलं मुहर्तेकषष्टिभागद्वयवृद्धेर्दिनस्य रात्रेर्वेति । रेवईत्यादि, रेवतिः प्रथमा येषां तानि रेवतिप्रथमानि तथा ज्येष्ठा पर्यवसाने 20 येषां तानि ज्येष्ठापर्यवसानानि, तानि च तानि चेति कर्मधारयः, तेषामेकोनविंशतेर्नक्षत्राणामष्टनवतिस्तारास्तारापरिमाणेन प्रज्ञप्ताः, तथाहिरेवतीनक्षत्रं द्वात्रिंशत्तारम् ३२, अश्विनी त्रितारम् ३५, भरणी त्रितारम् ३८, कृत्तिका षट्तारम् ४४, रोहिणी पञ्चतारम् ४९, मृगशिरस्त्रितारम् ५२, आद्रा(H?) एकतारम् ५३, पुनर्वसू पञ्चतारम् ५८, पुष्यस्त्रितारम् ६१, अश्लेषा षट्तारम् ६७, मघा सप्ततारम् 25 ७४, पूर्वफाल्गुनी द्वितारम् ७६, उत्तरफाल्गुनी द्वितारम् ७८, हस्तः पञ्चतारम् ८३, १. पण्णरस हे२ ॥ २. उत्तराफा' जे२ । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ९९] नवनवतिस्थानकम् । १ चित्रा एकतारम् ८४, स्वातिरेकतारम् ८५, विशाखा पञ्चतारम् ९०, अनुराधा चतुस्तारम् ९४, ज्येष्ठा त्रितारमित्येवम् ९७, सर्वतारामीलने यथोक्तताराग्रमेकोनं ग्रन्थान्तराभिप्रायेण भवति, अधिकृतग्रन्थाभिप्रायेण त्वेषामेकतरस्य एकताराधिकत्वं सम्भाव्यते ततो यथोक्ता तत्संख्या भवतीति ॥ ९८ ॥ [सू० ९९] मंदरे णं पव्वते णवणउतिं जोयणसहस्साइं उड्डउच्चत्तेणं पण्णत्ते । 5 नंदणवणस्स णं पुरत्थिमिल्लातो चरिमंतातो पच्चत्थिमिले चरिमंते एस णं णवणउतिं जोयणसताइं अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । १९५ एवं दक्खिणिल्लातो उत्तरे । पढ सूरियमंड णवणउतिं जोयणसहस्साइं सातिरेगाई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते । दोच्चे सूरियमंडले णवणउतिं जोयणसहस्साइं साहियाई 10 आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते । ततिए सूरियमंडले नवनउतिं जोयणसहस्साइं साहियाइं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते । इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए अंजणस्स कंडस्स हेट्ठिल्लातो चरिमंतातो वाणमंतरभोमेज्जविहाराणं उवरिमंते एस णं नवनउतिं जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । [टी०] अथ नवनवतिस्थानके किमपि लिख्यते, नंदणवणेत्यादि, अस्य भावार्थ:मेरुविष्कम्भो मूले दश सहस्राणि, नन्दनवनस्थाने तु नवनवतिर्योजनशतानि चतुःपञ्चाशच्च योजनानि षट् च योजनैकादशभागा बाह्यो गिरिविष्कम्भो नन्दनवनाभ्यन्तरस्तु मेरुविष्कम्भ एकोननवतिः शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि षट् चैकादशभागास्तथा पञ्च शतानि नन्दनवनविष्कम्भः, तदेवमभ्यन्तरगिरिविष्कम्भो 20 द्विगुणनन्दनवनविष्कम्भश्च मीलितो यथोक्तमन्तरं प्रायो भवतीति । पढमसूरियमंडले त्ति, इह जम्बूद्वीपप्रमाणस्याशीत्युत्तरशते द्विगुणिते अपकृष्टे यो राशिः स प्रथममण्डलस्याऽऽयामविष्कम्भः, स च नवनवतिः सहस्राणि षट् शतानि १. राधाश्चतु १, २ विना । “अणुराहा पंचतारे पन्नत्ते" इति विक्रमसंवत् १९७५ तमे वर्षे आगमोदयसमिति प्रकाशितायां मलयगिरिविरचितटीकासहितायां सूर्यप्रज्ञप्तौ दशमे प्राभृते नवमे प्राभृतप्राभृते ।। २. अत्र नव जे१,२ ॥ 15 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे शतस्थानकम् । चत्वारिंशदधिकानि, द्वितीयं तु नवनवतिः सहस्राणि षट् शतानि पञ्चचत्वारिंशच्च योजनानि योजनस्य च पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाः, कथम् ?, मण्डलस्य मण्डलस्य चान्तरं द्वे द्वे योजने, सूर्यविमानविष्कम्भश्चाष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः, एतद् द्विगुणितं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाश्चेति जातमेतच्च पूर्वमण्डलविष्कम्भे क्षिप्तं 5 जातमुक्तप्रमाणमिति, तृतीयमण्डलविष्कम्भोऽप्येवमवसेयः, स च नवनवतिः सहस्राणि षट् शतानि एकपञ्चाशत् योजनानि नवैकषष्टिभागाश्चेति । इमीसे णमित्यादेर्भावार्थोऽयम् - अञ्जनकाण्डं दशमं काण्डम्, तत्र च रत्नप्रभोपरिमान्ताच्छतं शतानां भवति, प्रथमकाण्डप्रथमशते च व्यन्तरनगराणि न सन्तीति तस्मिन्नपसारिते नवनवतिः शतान्यन्तरं सूत्रोक्तं भवतीति ॥९९॥ [सू० १००] दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसतेणं अद्धछट्ठेहिं भिक्खासतेहिं अहासुत्तं जाव आराहिया यावि भवति । सयभिसयानक्खत्ते सएक्कतारे पण्णत्ते । 10 १९६ सुविधी पुप्फदंते णं अरहा एगं धणुसतं उउच्चत्तेणं होत्था । पासे णं अरहा पुरिसादाणीए एक्कं वासस्यं सव्वाउयं पालयित्ता सिद्धे 15 जाव प्पहीणे । एवं थेरे वि अज्जसुहम्मे । सव्वे वि णं दीहवेयड्डपव्वया एगमेगं गाउयसतं उडुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । सव्वे वि णं चुल्लहिमवंत - सिहरिवासहरपव्वया एगमेगं जोयणसतं उड्डउच्चत्तेणं, एगमेगं गाउयसतं उव्वेधेणं पण्णत्ता । सव्वे वि णं कंचणगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उडुंउच्चत्तेणं, एगमेगं 20 गाउयसतं उव्वेधेणं, एगमेगं जोयणसयं मूले विक्खंभेणं पण्णत्ता । [टी०] अथ शतस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, तत्र दश दशमदिनानि यस्यां सा दशदशमिका, या हि दिनानां दश दशकानि भवति, तत्र भवन्ति दश दशमदिनानि शतं च दिन उच्यते एकेन रात्रिंदिवशतेनेति, यस्यां च प्रथमे दशके प्रतिदिनमेकैका भिक्षा एवं यावद्दशमे दश दशेत्येवं सर्वभिक्षासङ्कलने सूत्रोक्तसंख्या भवत्येव इति । १. 'स्याचांतरं जे१ । 'स्यावांतरं खं० जे२ ॥ २. भवंति जे२ ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १०१-१०४] १५०-२००-२५०-३०० स्थानकानि । १९७ पार्श्वनाथस्त्रिंशद्वर्षाणि कुमारत्वं सप्ततिं चानगारत्वमित्येवं शतमायुः पालयित्वा सिद्धः । एवं थेरे वि अजसुहम्मे त्ति आर्यसुधा महावीरस्य पञ्चमो गणधरः सोऽपि वर्षशतं सर्वायुः पालयित्वा सिद्धः, तथा च तस्यागारवासः पञ्चाशद्वर्षाणि छद्मस्थपर्यायो द्विचत्वारिंशत् केवलिपर्यायोऽष्टी, भवति चैतद्राशित्रयमीलने वर्षशतमिति। वैताढ्यादिषूच्चत्वचतुर्थांशः उद्वेधः, काञ्चनका उत्तरकुरु-देवकुरुषु क्रमव्यवस्थितानां 5 पञ्चानां महाह्रदानामुभयतो दश दश व्यवस्थिताः, ते च जम्बूद्वीपे शतद्वयसंख्याः समवसेया इति ॥१००॥ [सू० १०१] चंदप्पभे णं अरहा दिवढे धणुसतं उटुंउच्चत्तेणं होत्था । आरणे कप्पे दिवढे विमाणावाससतं पण्णत्तं । एवं अच्चुए वि । [सू० १०२] सुपासे णं अरहा दो धणुसयाई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । 10 सव्वे वि णं महाहिमवंत-रुप्पीवासहरपव्वया दो दो जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं, दो दो गाउयसताई उव्वेधेणं पण्णत्ता । जंबुद्दीवे णं दीवे दो कंचणपव्वतसया पण्णत्ता । [सू० १०३] पउमप्पभे णं अरहा अड्डाइजाइं धणुसताइं उटुंउच्चत्तेणं होत्था। असुरकुमाराणं देवाणं पासायवडेंसगा अड्डाइजाइं जोयणसयाई उटुंउच्चत्तेणं 15 पण्णत्ता । [टी०] अथैकोत्तरस्थानवृद्ध्या सूत्ररचनां परित्यज्य पञ्चाशच्छतादिवृद्ध्या तां कुर्वन्नाह- चंदप्पहेत्यादि, सुगमं च सर्वमा द्वादशाङ्गगणिपिटकसूत्रात् ॥१५०॥२००॥ नवरं पासायवडेंसय त्ति अवतंसकाः शेखरकाः कर्णपूराणि वा अवतंसका इव अवतंसकाः प्रधाना इत्यर्थः, प्रासादाश्च ते अवतंसकाश्च प्रासादानां वा मध्ये अवतंसका: 20 प्रासादावतंसकाः ॥२५०॥ [सू० १०४] सुमती णं अरहा तिण्णि धणुसयाई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । अरिट्ठनेमी णं अरहा तिण्णि वाससयाई कुमारमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिते । | Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ३५०-४००-४५० स्थानकानि । वेमाणियाणं देवाणं विमाणपागारा तिण्णि तिण्णि जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तिनि सयाणि चोद्दसपुव्वीणं होत्था। पंचधणुसतियस्स णं अंतिमसारीरियस्स सिद्धिगतस्स सातिरेगाणि तिण्णि 5 धणुसयाणि जीवप्पदेसोगाहणा पण्णत्ता । [सू० १०५] पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स अद्भुट्ठाइं सयाई चोद्दसपुव्वीणं होत्था । अभिनंदणे णं अरहा अछुट्टाइं धणुसयाई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । [टी०] तथा पंचधणुस्सतियस्स णमित्यादि, पञ्चधनुःशतप्रमाणस्य 10 अंतिमसारीरियस्स त्ति चरमशरीरस्य सिद्धिगतस्य सातिरेकाणि त्रीणि शतानि धनुषां जीवप्रदेशावगाहना प्रज्ञप्ता, यतोऽसौ शैलेशीकरणसमये शरीररन्ध्रपूरणेन देहत्रिभागं विमुच्य घनप्रदेशो भूत्वा देहत्रिभागद्वयावगाहनः सिद्धिमुपगच्छति, सातिरेकत्वं चैवम् तिण्णि सया तेत्तीसा धणुत्तिभागो य होइ बोद्धव्वो । 15 एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिय ॥ [आव० नि० ९७१] त्ति ॥३००॥३५०।। [सू० १०६] संभवे णं अरहा चत्तारि धणुसताई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । सव्वे वि णं णिसभ-नीलवंता वासहरपव्वया चत्तारि चत्तारि जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं, चत्तारि चत्तारि गाउयसताई उव्वेधेणं पण्णत्ता । सव्वे वि य णं वक्खारपव्वया णिसभ-नीलवंतवासहरपव्वयं तेणं चत्तारि 20 चत्तारि जोयणसताइं उडुंउच्चत्तेणं, चत्तारि चत्तारि गाउयसताई उव्वेधेणं पण्णत्ता। आणय-पाणएसु णं दोसु कप्पेसु चत्तारि विमाणसया पण्णत्ता । समणस्स णं भगवतो महावीरस्स चत्तारि सता वादीणं सदेवमणुयासुरम्मि लोगम्मि वाए अपराजिताणं उक्कोसिया वादिसंपया होत्था । [सू० १०७] अजिते णं अरहा अद्धपंचमाइं धणुसताई उटुंउच्चत्तेणं होत्था। 25 सगरे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी अद्धपंचमाइं धणुसताई उडेउच्चत्तेणं होत्था। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० स्थानकम् । 5 [सू० १०८] .. [सू० १०८] » सव्वे वि णं वक्खारपव्वया सीया-सीओयाओ महानईओ मंदरं वा पव्वयं तेणं पंच जोयणसयाई उटुंउच्चत्तेणं, पंच गाउयसयाई उव्वेहेणं पण्णत्ता । सव्वे वि णं वासहरकूडा पंच पंच जोयणसताई उहुंउच्चत्तेणं, मूले पंच पंच जोयणसताई विक्खंभेणं पण्णत्ता । उसभे णं अरहा कोसलिए पंच धणुसताई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी पंच धणुसताई उडुंउच्चत्तेणं होत्था । सोमणस-गंधमादण-विजुप्पभ-मालवंता णं वक्खारपव्वया णं मंदरपव्वयं तेणं पंच पंच जोयणसयाई उटुंउच्चत्तेणं, पंच पंच गाउयसताइं उव्वेधेणं पण्णत्ता । 10 सव्वे वि णं वक्खारपव्वयकूडा हरि-हरीसहकूडवजा पंच पंच जोयणसताई उहुंउच्चत्तेणं, मूले पंच पंच जोयणसताई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता । ____ सव्वे वि णं णंदणकूडा बलकूडवजा पंच पंच जोयणसताइं उटुंउच्चत्तेणं, मूले पंच पंच जोयणसताई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणा पंच पंच जोयणसयाई उडुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता। 15 . [टी०] सव्वे विणं वक्खारपव्वएत्यादि, वक्षस्कारपर्वता एकमेरुप्रतिबद्धा विंशतिस्ते च वर्षधरासत्तौ चतुःशतोच्चाः, शीतादिनदीप्रत्यासत्तौ मेरुप्रत्यासत्तौ च पञ्चशतोच्चा इति । तथा सव्वे वि णं वक्खारेत्यादि, तत्र वर्षधरकूटानि शतद्वयमशीत्यधिकम्, कथम् ?, लहुहिमव हिमव निसढे एक्कारस अट्ठ नव य कूडाइं । 20 नीलाइसु तिसु नवगं अढेक्कारस जहासंखं ॥ [ ] एतेषां च पञ्चगुणत्वात्, वक्षस्कारकूटानि त्वशीत्यधिकचतुःशतीसंख्यानि, कथम् ?, विजुपहमालवंते नव नव सेसेसु सत्त सत्तेव । सोलस वक्खारेसुं चउरो चउरो य कूडाइं ॥ [ ] १. → 6 एतदन्तर्गतः पाठो जे२ मध्ये एव वर्तते ।। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ६०० स्थानकम् । एतेषां पञ्चगुणत्वात्, पञ्चगुणत्वं च जम्बूद्वीपादिमेरूपलक्षितक्षेत्राणां पञ्चत्वात्, सर्वाण्येतानि पञ्चशतोच्छ्रितानि, एवं मानुषोत्तरादिष्वपि, वैताढ्यकूटानि तु सक्रोशषड्योजनोच्छ्रयाणि, वर्षकूटानि तु ऋषभकूटादीन्यष्टयोजनोच्छ्रितानीति, हरिकूटहरिसहकूटवर्जनं त्विह तयोः सहस्रोच्छ्रयत्वाद्, आह च5 विजुप्पभहरिकूडो हरिस्सहो मालवंतवक्खारे । नंदणवणबलकूडो उब्विद्धा जोयणसहस्सं ॥ [बृहत्क्षेत्र० १५६] ति ॥५००॥ [सू० १०९] सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु विमाणा छ जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता ।। चुल्लहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लाओ चरिमंतातो चुल्लहिमवंतस्स 10 वासहरपव्वतस्स समे धरणितले एस णं छ जोयणसताइं अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । एवं सिहरिकूडस्स वि । पासस्स णं अरहतो छ सता वादीणं सदेवमणुयासुरे लोए [वाए] अपराजियाणं उक्कोसा वातिसंपदा होत्था । अभिचंदे णं कुलगरे छ धणुसताई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । 15 वासुपुजे णं अरहा छहिं पुरिससतेहिं मुंडे भवित्ता णं अगारातो अणगारियं पव्वतिते । [टी०] चुल्लहिमवंतकूडस्सेत्यादि, इह भावार्थः-हिमवान् योजनशतोच्छ्रितस्तत्कूटं च पञ्चशतोच्छ्रितमिति सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति । अभिचंदे णं कुलकरे त्ति अभिचन्द्रः कुलकरोऽस्यामवसर्पिण्यां सप्तानां कुलकराणां चतुर्थः, तस्योच्छ्रयः षड् धनुःशतानि १. "व्या०- विद्युत्प्रभनामके देवकुरूणां पश्चिमदिग्भागे मेरोदक्षिणापरकोणस्थे निषधलग्ने गजदन्ते पर्वते हरिकूट यन्नाम निषधप्रत्यासन्नं नवमं कूटम्, तथोत्तरकुरूणां पूर्वदिशि मेरोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि वर्तमाने नीलवद्वर्षधरपर्वतलग्ने माल्यवति वक्षस्कारपर्वते नीलवतः प्रत्यासन्नं यन्नवमं हरिस्सहकटं नाम कटम, यच्च मेरोः प्रथममेखलायां नन्दनवने उत्तरपूर्वस्यां दिशि वक्ष्यमाणस्वरूपं बलकूटं नाम कूटम्, एतानि त्रीण्यपि कूटानि कनकमयानि प्रत्येकं योजनसहस्रमुद्विद्धानि उच्चानि १०००।" इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ २. "वक्खारो जे२ हेमू२ ॥ ३. “कुलकरनामप्रतिपादनायाह- पढमित्थ विमलवाहण चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो अ पसेणइए मरुदेवे चेव नाभी य ॥१५५।। प्रथमोऽत्र विमलवाहनश्चक्षुष्मान् यशस्वी चतुर्थोऽभिचन्द्रः ततश्च प्रसेनजित् मरुदेवश्चैव Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७००-८०० स्थानके । [सू० ११०-१११] पञ्चाशदधिकानि ||६००॥ [सू० ११०] बंभ-लंतएसु कप्पेसु विमाणा सत्त सत्त जोयणसताई उड्डउच्चत्तेणं पण्णत्ता । २०१ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त जिणसता होत्था । समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त वेउव्वियसया होत्था । अरिट्ठनेमी णं अरहा सत्त वाससताइं देसूणाइं केवलपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लातो चरिमंतातो महाहिमवं तस्स वासधरपव्वयस्स समे धरणितले एस णं सत्त जोयणसताइं अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । एवं रुप्पिकूडस्स वि । [टी०] श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त जिनशतानि केवलिशतानीत्यर्थः । तथा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त वैक्रियशतानि वैक्रियलब्धिमत्साधुशतानीत्यर्थः । अरिट्ठेत्यादि, देसूणाई ति चतुःपञ्चाशता दिनानामूनानि, तत्प्रमाणत्वात् छद्मस्थकालस्येति । महाहिमवंतेत्यादौ भावार्थोऽयम्महाहिमवान् योजनशतद्वयोच्छ्रितस्तत्कूटं च पञ्चशतोच्छ्रितमिति सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति 15 ॥७००॥ [सू० १११] महासुक्क - सहस्सारेसु दोसु कप्पेसु विमाणा अट्ठ जोयणसताई उडुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । इणं रयणप्पभाए पुढवीए पढमे कंडे अट्ठसु जोयणसतेसु वाणमंतरभोमेज्जविहारा पण्णत्ता । समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अट्ठ सया अणुत्तरोववातियाणं देवाणं गतिकल्लाणाणं ठितिकल्लाणाणं आगमेसिभद्दाणं उक्कोसिया नाभिश्चेति ॥ १५५॥ णव धणुसया य पढमो अट्ठय सतद्धसत्तमाइं च । छच्चेव अद्धछट्ठा पंचसया पण्णवी सं तु ।। १५६ ।। नव धनुः शतानि प्रथमः अष्टौ च सप्त अर्धसप्तमानि षड् च अर्धषष्ठानि पञ्च शतानि पञ्चविंशतिः, अन्ये पठन्ति पञ्चशतानि विंशत्यधिकानि, यथासंख्यं विमलवाहनादीनामिदं प्रमाणं द्रष्टव्यमिति गाथार्थः || १५६ || " इति आवश्यकसूत्रस्य हारिभद्र्यां वृत्तौ ॥ 5 10 20 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ९०० स्थानकम् । अणुत्तरोववातियसंपदा होत्था । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो अट्ठहिं जोयणसएहिं सूरिए चारं चरति । अरहतो णं अरिट्टनेमिस्स अट्ट सताइं वादीणं सदेवमणुयासुरम्मि लोगम्मि 5 वाते अपराजियाणं उक्कोसिया वादिसंपदा होत्था । [टी०] इमीसे णमित्यादि, प्रथमं काण्डं खरकाण्डस्य षोडशविभागस्य प्रथमविभागरूपं रत्नकाण्डम्, तत्र योजनसहस्रप्रमाणे अध उपरि च योजनशतद्वयं विमुच्यान्येष्वष्टसु योजनशतेषु वनेषु भवा वानास्ते च ते व्यन्तराश्च तेषां सम्बन्धिनः भूमिविकारत्वाद् भौमेयकास्ते च ते विहरन्ति क्रीडन्ति तेष्विति विहाराश्च नगराणि 10 वानव्यन्तरभौमेयकविहारा इति । अट्ठ सय त्ति अष्ट शतानि, केषामित्याह अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं ति देवेषूत्पत्स्यमानत्वात् देवा द्रव्यदेवा इत्यर्थः, तेषाम्, गतिः देवगतिलक्षणा कल्याणं येषां ते गतिकल्याणाः, तेषाम्, एवं स्थितिः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलक्षणा कल्याणं येषां ते तथा, तेषाम्, तथा ततश्च्युतानामागमिष्यद् आगामि भद्रं कल्याणं निर्वाणगमनलक्षणं येषां ते आगमिष्यद्भद्राः, तेषाम्, किमित्याह15 उक्कोसिएत्यादि ॥८००॥ [सू० ११२] आणय-पाणय-आरण-ऽच्चुतेसु कप्पेसु विमाणा णव जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । निसभकूडस्स णं उवरिल्लातो सिहरतलातो णिसभस्स वासहरपव्वतस्स समे धरणितले एस णं नव जोयणसताई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं 20 नीलवंतकूडस्स वि। . विमलवाहणे णं कुलगरे णव धणुसताई उटुंउच्चत्तेणं होत्था । इमीसे [णं] रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो णवहिं जोयणसतेहिं सव्वुपरिमे तारारूवे चारं चरति । निसभस्स णं वासधरपव्वयस्स उवरिल्लातो सिहरतलातो इमीसे रतणप्पभाए Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ [सू० ११२-११४] १०००-११०० स्थानके। पुढवीए पढमस्स कंडस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं णव जोयणसताई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं नीलवंतस्स वि । [टी०] निसहकूडस्स णमित्यादि, इहायं भावः- निषधकूटं पञ्चशतोच्छ्रितं निषधश्चतुःशतोच्छ्रित इति यथोक्तमन्तरं भवतीति ॥९००॥ [सू० ११३] सव्वे वि णं गेवेजविमाणा दस दस जोयणसताई उहृउच्चत्तेणं 5 पण्णत्ता । सव्वे वि णं जमगपव्वया दस दस जोयणसताइं उडुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता, दस दस गाउयसताइं उव्वेधेणं, मूले दस दस जोयणसताई आयामविक्खंभेणं। एवं चित्त-विचित्तकूडा वि भाणियव्वा । सव्वे वि णं वट्टवेयड्डपव्वया दस दस जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं, दस दस 10 गाउयसताइं उव्वेधेणं, मूले दस दस जोयणसताइं विक्खंभेणं, सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया, दस दस जोयणसताइं विक्खंभेणं पण्णत्ता । सव्वे वि णं हरि-हरिस्सहकूडा वक्खारकूडवजा दस दस जोयणसयाई उटुंउच्चत्तेणं, मूले दस दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता । एवं बलकूडा । वि नंदणकूडवजा । 15 अरहा वि अरिट्ठनेमी दस वाससयाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । पासस्स णं अरहतो दस सयाइं जिणाणं होत्था । पासस्स णं अरहतो दस अंतेवासिसयाई कालगताई जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई। 20 पउमद्दह-पुंडरीयद्दहा दस दस जोयणसयाई आयामेणं पण्णत्ता । [सू० ११४] अणुत्तरोववातियाणं देवाणं विमाणा एक्कारस जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता । पासस्स णं अरहतो एक्कारस सताई वेउव्वियाणं होत्था । [टी०] सव्वे वि णं जमगेत्यादि, उत्तरकुरुषु नीलवद्वर्षधरस्य दक्षिणतः शीताया 25 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे २००० स्थानकम् । महानद्या उभयोः कूलयो यमकाभिधानौ पर्वतौ स्तः, ते च पञ्चस्वप्युत्तरकुरुषु द्वयोर्द्वयोर्भावाद् दश । एवं चित्त-विचित्तकूडा वि त्ति पञ्चसु देवकुरुषु यमकवत् तत्सद्भावात् पञ्च चित्रकूटाः पञ्च चे विचित्रकूटा इति । सव्वे वि णमित्यादि, सर्वेऽपि वृत्ता वैताढ्या विंशतिः शब्दापात्यादयः। सव्वे 5 वि णं हरीत्यादि, हरिकूटं विद्युत्प्रभाभिधाने गजदन्ताकारवक्षस्कारपर्वते हरिसहकूटं तु मालवद्वक्षस्कारे, एतानि च पञ्चस्वपि मन्दरेषु भावात् पञ्च पञ्च भवन्ति सहस्रोच्छ्रितानि च, वक्खारकूडवज त्ति शेषवक्षस्कारकूटेष्वेवमुच्चत्वं नास्ति, एतेष्वेवास्तीत्यर्थः । एवं बलकूडा वि त्ति पञ्चसु मन्दरेषु पञ्च नन्दनवनानि तेषु प्रत्येकमैशान्यां दिशि बलकूटाभिधानं कूटमस्ति, ततः पञ्च, तानि सहस्रोच्छ्रितानि च, नंदनकूडवज त्ति 10 शेषाणि नन्दनवनेषु प्रत्येकं पूर्वादिदिग्विदिग्व्यवस्थितानि चत्वारिंशत्संख्यानि नन्दनकूटानि वर्जयित्वा, तानि साहम्रिकाणि न भवन्तीत्यर्थः । अरहेत्यादि, कुमारत्वे त्रीणि वर्षशतान्यनगारत्वे सप्तेत्येवं दश शतानि । पउमद्दहपुंडरीयद्दह त्ति पद्मह्रदः श्रीदेवीनिवासो हिमवद्वर्षधरपर्वतोपरिवर्ती पुण्डरीकह्रदो लक्ष्मीदेवीनिवासः शिखरिवर्षधरोपरिवर्तीति ॥१०००॥११००॥ 15 [सू० ११५] महापउम-महापुंडरीयद्दहा णं दो दो जोयणसहस्साई आयामेणं पण्णत्ता । [सू० ११६] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए वतिरकंडस्स उवरिल्लाओ चरिमंताओ लोहितक्खस्स कंडस्स हेढिल्ले चरिमंते एस णं तिण्णि जोयणसहस्साइं अबाहाते अंतरे पण्णत्ते । 20 [सू० ११७] तिगिंच्छि-केसरिद्दहा णं दहा चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई आयामेणं पण्णत्ता । [टी०] तथा महापद्म-महापुण्डरीकह्रदौ महाहिमवद्रुक्मिवर्षधरयोरुपरिवर्तिनौ ह्री-बुद्धिदेव्योर्निवासभूताविति ॥२०००।। इमीसे णं रयणेत्यादि, अयमिह भावार्थः- रत्नप्रभापृथिव्याः प्रथमस्य १. च नास्ति खं० जे१ ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ११८-१३१] ३००० आदिस्थानकानि । षोडशविभागस्य खरकाण्डाभिधानकाण्डस्य वज्रकाण्डं नाम द्वितीयं काण्डम्, वैडूर्यकाण्डं तृतीयम्, लोहिताक्षकाण्डं चतुर्थम्, तानि च प्रत्येकं साहस्रिकाणीति त्रयाणां यथोक्तमन्तरं भवतीति ॥ ३०००|| तिगिंच्छि-केसरिह्रदौ निषध- नीलवद्वर्षधरोपरिस्थितौ धृति - कीर्त्तिदेवीनिवासाविति ॥४०००|| [सू० ११८] धरणितले मंदरस्स णं पव्वतस्स बहुमज्झदेसभागाओ रुयगणाभीतो चउद्दिसिं पंच पंच जोयणसहस्साइं अबाहाए मंदरे पव्वते पण्णत्ते । २०५ [सू० ११९] सहस्सारे णं कप्पे छ विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता । [ टी० ] धरणितले इत्यादि, धरणितले धरण्यां समे भूभाग इत्यर्थः, रुयगनाभीओ त्ति अपएसो रुयगो तिरियं लोगस्स मज्झयारम्मि । एस प्पभवो दिसाणं एसेव भवे अणुदिसाणं ॥ [ आचा० नि० ४२] ति । रुचक एव नाभिः चक्रस्य तुम्बमिवेति रुचकनाभिः, ततश्चतसृष्वपि दिक्षु पञ्च पञ्च सहस्राणि मेरुस्तस्य दशसहस्रविष्कम्भत्वादिति ||५००० ||६०००|| [सू० १२०] इमीसे णं रतणप्पभाए पुढवीए रयणस्स कंडस्स उवरिल्लातो चरिमंतातो पुलगस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं सत्त जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । [सू० १२१] हरिवस्स- रम्मया णं वासा अट्ठ जोयणसहस्साइं सातिरेगाई वित्थरेणं पण्णत्ता । [सू० १२२] दाहिणड्डभरहस्स णं जीवा पाईणपडिणायया दुहतो समुदं पुट्ठा णव जोयणसहस्साइं आयामेणं पण्णत्ता । १. “तिर्यग्लोकमध्ये रत्नप्रभापृथिव्या उपरि बहुमध्यदेशे मेर्व्वन्तद्वौ सर्व्वक्षुल्लकप्रतरौ तयोरुपरितनस्य चत्वारः प्रदेशा गोस्तनाकारसंस्थाना अधस्तनस्यापि चत्वारस्तथाभूता एवेत्येषोऽष्टाकाशप्रदेशात्मकश्चतुरस्रो रुचको दिशामनुदिशां च प्रभव उत्पत्तिस्थानमिति । ” इति शीलाचार्यविरचितायामाचाराङ्गटीकायां प्रथमेऽध्ययने प्रथमे उद्देशके ॥ २. पञ्च नास्ति खं० जे१ ॥ 5 10 15 20 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे [सू० १२३] मंदरे णं पव्वते धरणितले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ते । [सू० १२४] जंबूदीवे णं दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते । 5 [सू० १२५] लवणे णं समुद्दे दो जोयणसतसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते । [सू० १२६] पासस्स णं अरहतो तिण्णि सयसाहस्सीतो सत्तावीसं च सहस्साई उक्कोसिया सावियासंपदा होत्था । [सू० १२७] धायइसंडे णं दीवे चत्तारि जोयणसतसहस्साई चक्कवाल10 विक्खंभेणं पण्णत्ते । [सू० १२८] लवणस्स णं समुद्दस्स पुरथिमिल्लातो चरिमंतातो पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते एस णं पंच जोयणसयसहस्साई अबाधाते अंतरे पण्णत्ते । [सू० १२९] भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी छ पुव्वसतसहस्साई रायमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगारातो अणगारियं पव्वतिते । 15 [सू० १३०] जंबूदीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्लातो वेइयंतातो धायइसंडचक्कवालस्स पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते [एस णं] सत्त जोयणसतसहस्साई अबाधाते अंतरे पण्णत्ते । [सू० १३१] माहिंदे णं कप्पे अट्ठ विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । [टी०] इमीसे णमित्यादि, रत्नकाण्डं प्रथमं पुलककाण्डं सप्तममिति सप्त 20 सहस्राणि ||७०००। ___ हरिवस्सेत्यादि, इहार्थे गाथार्द्धम्- हरिवासे इगवीसा चुलसीइ सया कला य एक्का य [बृहत्क्षेत्र० ३१] त्ति ॥८०००।। १. "हरिवासे इगवीसा, चुलसीइ सया कला य एक्का य । सोलस सहस्स अट्ठ सय, बायाला दो कला निसढे ॥३१॥ व्या०- सुगमम् । तथा निषधपर्वतस्य विष्कम्भानयनाय जम्बूद्वीपविष्कम्भो लक्षप्रमाणो द्वात्रिंशता गुण्यते, जाता द्वात्रिंशल्लक्षाः, तासां नवत्यधिकेन शतेन भागो ह्रियते, लब्धानि योजनानां षोडश सहस्राण्यष्टौ शतानि Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ [सू० १३२-१३५] ९००० आदिस्थानकानि । दाहिणेत्यादि, दक्षिणो भागो भरतस्येति दक्षिणार्द्धभरतं तस्य जीवेव जीवा ऋज्वी सीमा प्राचीनं पूर्वतः प्रतीचीनं पश्चिमतः आयता दीर्घा प्राचीनप्रतीचीनायता दुहओ त्ति उभयतः पूर्वापरपार्श्वयोरित्यर्थः, समुद्रं लवणसमुद्रं स्पृष्टा छुप्तवती, नव सहस्राण्यायामत इहोक्ता, स्थानान्तरे तु तद्विशेषोऽयम्- नव सहस्राणि सप्त शतान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि द्वादश च कला इति ।।९०००।१००००॥ 5 १०००००॥२०००००॥३०००००॥४०००००॥ लवणेत्यादि, तत्र जम्बूद्वीपस्य लक्षं चत्वारि च लवणस्येति पञ्च ॥५०००००॥ जंबूदीवस्सेत्यादि, तत्र लक्षं जम्बूद्वीपस्य द्वे लवणस्य चत्वारि धातकीखण्डस्येति सप्त लक्षाण्यन्तरं सूत्रोक्तं भवतीति ॥७०००००॥ [सू० १३२] अजियस्स णं अरहतो सातिरेगाइं नव ओहिणाणिसहस्साई 10 होत्था । [सू० १३३] पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससतसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता पंचमाए पुढवीए णरएसु नेरइयत्ताते उववन्ने । [सू० १३४] समणे भगवं महावीरे तित्थकरभवग्गहणातो छ? पोट्टिलभवग्गहणे एगं वासकोडिं सामण्णपरियागं पाउणित्ता सहस्सारे कप्पे 15 सव्वढे विमाणे देवत्ताते उववन्ने । [सू० १३५] उसभसिरिस्स भगवतो चरिमस्स य महावीरवद्धमाणस्स एगा सागरोवमकोडाकोडी अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । [टी०] अजितस्याहंतः सातिरेकाणि नवावधिज्ञानिसहस्राणि, अतिरेकश्च चत्वारि शतानि, इदं च सहस्रस्थानकमपि सल्लक्षस्थानकाधिकारे यदधीतं तत् 20 सहस्रशब्दसाधाद्विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेर्लेखकदोषाद्वेति ॥९०००॥ द्विचत्वारिंशदधिकानि अपरे चैकोनविंशतिभागरूपे द्वे कले १६८४२ क० २ । एतावन्निषधपर्वतस्य विष्कम्भपरिमाणम्।।" - इति बृहत्क्षेत्रसमासस्य मलयगिरिविरचितायां टीकायाम् ॥ १. “जोयणसहस्सनवगं, सत्तेव सया हवंति अडयाला । बारस य कला सकला, दाहिणभरहद्धजीवाओ ॥३९॥" - इति बृहत्क्षेत्रसमासे प्रथमेऽधिकारे ॥ २. जंबुद्दी जे१ खं० ॥ ३. स्थानाङ्गे तु “पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता छट्ठाते तमाए पुढवीए नेरतितत्ताए उववन्ने” (सू० ७३५) इति पाठः॥ ४. श्चत्वारि खं०॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे द्वादशाङ्गनामानि । पुरुषसिंहः पञ्चमवासुदेवः ॥१००००००। समणेत्यादि, किल भगवान् पोटिलाभिधानो राजपुत्रो बभूव, तत्र चे वर्षकोटिं प्रव्रज्यां पालितवानित्येको भवः, ततो देवोऽभूदिति द्वितीयः, ततो नन्दनाभिधानो राजसूनुः छत्राग्रनगर्यां जज्ञे इति तृतीयः, तत्र वर्षलक्षं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा 5 दशमदेवलोके पुष्पोत्तरवरविजयपुण्डरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवदिति चतुर्थः, ततो ब्राह्मणकुण्डग्रामे ऋषभदत्तब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानायाः कुक्षावुत्पन्न इति पञ्चमः, ततस्त्र्यशीतितमे दिवसे क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे सिद्धार्थमहाराजस्य त्रिशिलाभिधानभार्यायाः कुक्षाविन्द्रवचनकारिणा हरिनैगमेषिनाम्ना देवेन संहृतस्तीर्थकरतया च जात इति षष्ठः, उक्तभवग्रहणं हि विना नान्यद् भवग्रहणं षष्ठं 10 श्रूयते भगवत इत्येतदेव षष्ठभवग्रहणतया व्याख्यातम्, यस्माच्च भवग्रहणादिदं षष्ठं तदप्येतस्मात् षष्ठमेवेति सुष्ठूच्यते तीर्थकरभवग्रहणात् षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे इति ॥१०००००००। उसभेत्यादि, उसभसिरिस्स त्ति प्राकृतत्वेन श्रीऋषभ इति वाच्ये व्यत्ययेन निर्देशः कृतः, एका सागरोपमकोटीकोटीति द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्रैः 15 किञ्चित्साधिकैरूनाऽप्यल्पत्वाद्विशेषस्याविशेषितोक्तेति ॥१००००००००००००००॥ [सू० १३६-१] दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णत्ते, तंजहा- आयारे सूतगडे ठाणे समवाए वियाहपण्णत्ती णायाधम्मकहाओ उवासगदसातो अंतगडदसातो अणुत्तरोववातियदसातो पण्हावागरणाई विवागसुते दिट्ठिवाए । [सू० १३६-२] से किं तं ऑयारे ? आयारेणं समणाणं निग्गंथाणं 20 आयारगोयरविणयवेणइयट्ठाणगमणचंकमणपमाणजोगजुंजणभासासमिति गुत्तीसेजोवहिभत्तपाणउग्गमउप्पायणएसणाविसोहिसुद्धासुद्धग्गहणवयणियमतवोवधाणसुप्पसत्थमाहिजति । से समासतो पंचविहे पण्णत्ते, तंजहाणाणायारे दसणायारे चरित्तायारे तवायारे वीरियायारे । आयारस्स णं परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा, संखेजातो पडिवत्तीतो, संखेज्जा वेढा, १. च नास्ति जे२ ॥ २. मासलक्षक्षपणेन खं० ॥ ३. त्रिशला जे१,२, हे१,२ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३६] आचाराङ्गवर्णनम् । २०९ संखेजा सिलोगा, संखेजातो निजुत्तीतो । से णं अंगट्टयाए पढमे अंगे, दो सुतक्खंधा, पणुवीसं अज्झयणा, पंचासीती उद्देसणकाला, पंचासीई समुद्देसणकाला, अट्ठारस पदसहस्साइं पदग्गेणं पण्णत्ते । संखेजा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पजवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइता जिणपण्णत्ता भावा आघविनंति पण्णविज्जति परूविज्जति 5 दंसिर्जति निदंसिर्जति उवदंसिर्जति । से एवंआता, एवंणाता, एवंविण्णाता। एवं चरणकरणपरूवणया आघविजति पण्णविजति परूविजति दंसिजति निदंसिजति उवदंसिजति । सेत्तं आयारे । [टी०] इह य एते अनन्तरं संख्याक्रमसम्बन्धमात्रेण सम्बद्धा विविधा वस्तुविशेषा उक्तास्त एव विशिष्टतरसम्बन्धसम्बद्धा द्वादशाङ्गे प्ररूप्यन्त इति द्वादशाङ्गस्यैव 10 स्वरूपमभिधित्सुराह- दुवालसंगे इत्यादि, अथवोत्तरोत्तरसंख्याक्रमसंबद्धार्थप्ररूपणमनन्तरमकारि, साम्प्रतं संख्यामात्रसंबद्धपदार्थप्ररूपणायोपक्रम्यते- दुवालसंगे इत्यादि, तत्र श्रुतपरमपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि द्वादशाऽङ्गानि आचारादीनि यस्मिंस्तद् द्वादशाङ्गम्, गुणानां गणोऽस्यास्तीति गणी आचार्यः, तस्य पिटकमिव पिटकं सर्वस्वभाजनं गणिपिटकम्, अथवा गणिशब्दः परिच्छेदवचनः, तथा चोक्तम्- 15 आयारम्मि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो भण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ॥ [आंचा० नि० १०] परिच्छेदस्थानमित्यर्थः, ततश्च परिच्छेदसमूहो गणिपिटकम्, अत्र चैवं पदघटना - यदेतद् गणिपिटकं तत् द्वादशाङ्गं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- आचारः सूत्रकृत इत्यादि। से किं तमित्यादि, अथ किं तदाचारवस्तु ? यद्वा अथ कोऽयमाचारः ? 20 १. “यस्मादाचाराध्ययनात् क्षान्त्यादिकश्चरण-करणात्मको वा श्रमणधर्मः परिज्ञातो भवति तस्मात् सर्वेषां गणित्वकारणानामाचारधरत्वं प्रथमम् आद्यं प्रधानं वा गणिस्थानमिति" इति शीलाचार्यविरचितायामाचाराङ्गटीकायां प्रथमेऽध्ययने प्रथमे उद्देशके ॥ २. आचारादीनां दृष्टिवादपर्यन्तानां द्वादशानामङ्गानां स्वरूपं नन्दीसूत्रस्य हारिभद्रीवृत्त्यनुसारेण प्रायः सर्वं वर्णितमत्र, अतो विशेषजिज्ञासुभिः नन्दीसूत्रस्य हरिभद्रसूरिभिर्विरचिता वृत्तिरवलोकनीया । यद्यपि नन्दीसूत्रस्य जिनदासगणिमहत्तरविरचितायां चूर्णावपि एतादृशं किञ्चिद् वर्णनमुपलभ्यते, तथापि इयम् अभयदेवसूरिभिर्विरचिता वृत्तिः बहुषु स्थानेषु प्रायोऽक्षरशः नन्दीहारिभद्रीवृत्तिमनुसरति इति ध्येयम् ।। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे - सक्क-तावस आचरणमाचारः आचर्यत इति वा आचारः साध्वाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिरिति भावार्थः, एतत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽप्याचार एवोच्यते । आयारेणं ति अनेनाचारेण करणभूतेन श्रमणानामाचाराद्याख्यायत इति योगः, अथवा आचारेऽधिकरणभूते णमिति वाक्यालङ्कारे श्रमणानां तपःश्रीसमालिङ्गितानां निर्ग्रन्थानां 5 सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितानाम्, आह— श्रमणा निर्ग्रन्था एव भवन्तीति विशेषणं किमर्थमिति ?, उच्यते, शाक्यादिव्यवच्छेदार्थम्, उक्तं च- निग्गंथ-स गेरुय-आजीव पंचहा समण [पिण्डनि० ४४५ ]त्ति, तत्राऽऽचारो ज्ञानाद्यनेकभेदभिन्नः, गोचरो भिक्षाग्रहणविधिलक्षणः, विनयो ज्ञानादिविनयः, वैनयिकं तत्फलं कर्म्मक्षयादि, स्थानं कायोत्सर्गोपवेशन - शयनभेदात् त्रिरूपम्, गमनं विहारभूम्यादिषु गतिः, 10 चङ्क्रमणम् उपाश्रयान्तरे शरीरश्रमव्यपोहाद्यर्थमितस्ततः सञ्चरणम्, प्रमाणं भक्तपाना-ऽभ्यवहारोपध्यादेर्मानम्, योगयोजनं स्वाध्याय - प्रत्युपेक्षणादिव्यापारेषु परेषां नियोजनम्, भाषा संयतभाषा सत्या - ऽसत्यामृषारूपा, समितयः ईर्यासमित्याद्याः पञ्च, गुप्तयो मनोगुप्त्यादयस्तिस्रः, तथा शय्या च वसतिरुपधिश्च वस्त्रादिको भक्तं च अशनादि पानं च उष्णोदकादीति द्वन्द्वः, तथा उद्गमोत्पादनैषणालक्षणानां दोषाणां 15 विशुद्धिः अभाव उद्द्मोत्पादनैषणाविशुद्धिः, ततः शय्यादीनामुद्रमादिविशुद्धया शुद्धानां तथाविधकारणेऽशुद्धानां च ग्रहणं शय्यादिग्रहणम्, तथा व्रतानि मूलगुणा नियमाः उत्तरगुणास्तपउपधानं द्वादशविधं तपः, तत आचारश्च गोचरश्चेत्यादि यावद् गुप्तयश्च शय्यादिग्रहणं च व्रतानि च नियमाश्च तपउपधानं चेति समाहारद्वन्द्वस्ततस्तच्च तत् सुप्रशस्तं चेति कर्म्मधारयः, एतत् सर्वमाख्यायते अभिधीयते । तेषु 20 चाऽऽचारादिपदेषु यत्र क्वचिदन्यतरोपादाने अन्यतरस्य गतार्थस्याभिधानं तत् सर्वं तत्प्राधान्यख्यापनार्थमेवेत्यवसेयमिति । २१० १. “निग्गंथ - सक्क - तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा । तेसि परिवेसणाए लोभेण वणिज्ज को अप्पं ? || ४४५।। व्या०- निर्ग्रन्थाः साधवः, शाक्याः मायासूनवीयाः, तापसाः वनवासिनः पाखण्डिनः, गैरुका: गेरुकरञ्जितवाससः परिव्राजकाः, आजीवकाः गोशालकशिष्या इति पञ्चधा पञ्चप्रकाराः श्रमणा भवन्ति, एतेषां च यथायोगं गृहिगृहेषु समागतानां परिवेषणे भोजनप्रदाने क्रियमाणे सति कोऽप्याहारलम्पटः साधुः लोभेन आहारादिलुब्धतया वनति शाक्यादिभक्तमात्मानं दर्शयति, तद्भक्तगृहिणः पुरत इति सामर्थ्यगम्यम् ||४४५ || ” - इति पिण्डनिर्युक्तौ मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३६ ] आचाराङ्गवर्णनम् । से समास [ओ] इत्यादि, सः आचारो यमधिकृत्य ग्रन्थस्याचार इति संज्ञा प्रवर्त्तते समासतः संक्षेपतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - ज्ञानाचार इत्यादि, तत्र ज्ञानाचारः श्रुतज्ञानविषयः कालाध्ययन- विनयाध्ययनादिरूपो व्यवहारोऽष्टधा दर्शनाचारः सम्यक्त्ववतां व्यवहारो निःशङ्कतादिरूपोऽष्टधा चारित्राचारः चारित्रिणां समित्यादिपालनात्मको व्यवहारः, तपआचारो द्वादशविधतपोविशेषानुष्ठितिः, 5 वीर्याचारो ज्ञानादिप्रयोजनेषु वीर्यस्याऽगोपनमिति । आचारस्स त्ति आचारग्रन्थस्य, णमित्यलङ्कारे, परित्ता संख्येया आद्यन्तोपलब्धेर्नानन्ता भवतीत्यर्थः, का ? वाचना सूत्रार्थप्रदानलक्षणा, अवसर्पिण्युत्सर्पिणीकालं वा प्रतीत्य परीतेति 1 संख्येयान्यनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि, अध्ययनानामेव संख्येयत्वात् प्रज्ञापकवचनगोचरत्वाच्च । संखेज्जाओ पडिवत्तीओ त्ति द्रव्यादिपदार्थाभ्युपगमा 10 मतान्तराणीत्यर्थः, प्रतिमाद्यभिग्रहविशेषा वा । संखेज्जा वेढ त्ति वेष्टकाः छन्दोविशेषाः, एकार्थप्रतिबद्धवचनसङ्कलिकेत्यन्ये । संखेज्जा सिलोग त्ति श्लोकाः अनुष्टुप्छन्दांसि । संख्याताः निर्युक्तयः, निर्युक्तानां सूत्रेऽभिधेयतया व्यवस्थापितानामर्थानां युक्तिः घटना विशिष्टा योजना निर्युक्तयुक्तिः, एतस्मिंश्च वाच्ये युक्तशब्दलोपान्निर्युक्तिरित्युच्यते, एताश्च निक्षेपनिर्युक्त्याद्याः संख्या इति । से णमित्यादि, स आचारो णमित्यलङ्कारे 15 अङ्गार्थतया अङ्गलक्षणवस्तुत्वेन प्रथममङ्ग स्थापनामधिकृत्य, रचनापेक्षया तु द्वादशमङ्गं प्रथमम्, पूर्वगतस्य सर्वप्रवचनात् पूर्वं क्रियमाणत्वादिति द्वौ श्रुतस्कन्धौ अध्ययनसमुदायलक्षणौ । पञ्चविंशतिरध्ययनानि, तद्यथा सत्थपरिण्णा १ लोगविजओ २ सीओसणिज्ज ३ संमत्तं ४ । आवंति ५ धुय ६ विमोहो ७ महापरिण्णो ८ वहाणसुयं ९ ।। [आव० सं०] 20 प्रथमश्रुतस्कन्धः । १. भवंती २ । २. वा नास्ति जे१ ॥। ३. प्रतिषु पाठः - परीत्तेति जेर हे१, २ । परीते त्ति खं० जे१॥ ४. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने 'अट्ठावीसविहे आयारकप्पे' इति सूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तौ इदं गाथाद्वयं दृश्यते, तत्र च पूर्वापरसम्बन्धानुसारेण आवश्यकसंग्रहणिकारविरचितमिदं गाथाद्वयं प्रतीयते । २११ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पिंडेसण ९ सेनि २ रिया ३ भासज्जाया य ४ वत्थ ५ पाएसा ६ । उग्गहपडिमा ७ सत्त सत्तिक्कया १४ भावण १५ विमुत्ती १६ ।। [ आव० सं० ] इति द्वितीयश्रुतस्कन्धः । 10 २१२ एवमेतानि निशीथवर्जानि पञ्चविंशतिरध्ययनानि । तथा पञ्चाशीतिरुद्देशनकालाः, 5 कथम् ?, उच्यते, अङ्गस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्योद्देशकस्य चैतेषां चतुर्णामप्येक एवोद्देशनकालः, एवं च शस्त्रपरिज्ञादिषु पञ्चविंशतावध्ययनेषु क्रमेण सप्त १ षट् २ चतु ३ श्चतुः ४ षट् ५ पञ्च ६ अष्ट ७ सप्त ८ चतु ९ रेकादश १० त्रि ११ त्रि १२ द्वि १३ द्वि १४ द्वि १५ द्वि १६ संख्या उद्देशनकालाः षोडशस्वध्ययनेषु, शेषेषु नवसु नवैवेति, इह सङ्ग्रहगाथा सत्त य छ च्चउ चउरो छ पंच अट्ठेव सत्त चउरो य । एक्कारा ति ति दो दो दो दो सत्तेक्क एक्को य ॥ [ ]त्ति । एवं समुद्देशनकाला अपि भणितव्याः । अष्टादश पदसहस्राणि पदाग्रेण प्रज्ञप्तः, इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत् पदम् । ननु यदि द्वौ श्रुतस्कन्धौ पञ्चविंशतिरध्ययनान्यष्टादश पदसहस्राणि पदाग्रेण भवन्ति, ततो यद् भणितं नवबंभचेरमइओ अट्ठारसपदसहस्सिओ 15 वेउ [आचा० नि० ११] त्ति तत् कथं न विरुध्यते ? उच्यते, यत् द्वौ श्रुतस्कन्धावित्यादि तदाचारस्य प्रमाणं भणितम्, यत् पुनरष्टादश पदसहस्राणि तन्नवब्रह्मचर्य्याध्ययनात्मकस्य प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रमाणम्, विचित्रार्थबद्धानि च सूत्राणि, गुरूपदेशतस्तेषामर्थोऽवसेय इति । संख्येयानि अक्षराणि, वेष्टकादीनां संख्येयत्वात् । अनन्ता गमाः, इह गमाः अर्थगमा गृह्यन्ते, अर्थपरिच्छेदा इत्यर्थः, ते चानन्ताः, एकस्मादेव 20 सूत्रात्तत्तद्धर्मविशिष्टानन्तधर्म्मात्मकवस्तुप्रतिपत्तेः, अन्ये तु व्याचक्षते अभिधानाभिधेयवशतो गमा भवन्ति, ते चानन्ताः । अनन्ताः पर्याया: स्वपरभेदभिन्ना अक्षरार्थपर्याया इत्यर्थः । परित्ता सा आख्यायन्त इति योग:, त्रसन्तीति त्रसाः द्वीन्द्रियादयस्ते च परीत्ता नानन्ता:, एवंरूपत्वादेव तेषाम् । अनन्ताः स्थावरा वनस्पतिकायसहिताः । 1 १. दृश्यतामत्र पृ०७१ पं०९ ॥ २. परीत्ता जे२ ॥ ३ परीता खं० जे१ ।। - Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ [सू० १३७] आचाराङ्गवर्णनम् । _ किंभूता एते ? सासया कडा निबद्धा निकाइय त्ति शाश्वता: द्रव्यार्थतया अविच्छेदेन प्रवृत्तेः, कृताः पर्यायार्थतया प्रतिसमयमन्यथात्वावाप्तेः, निबद्धाः सूत्र एव ग्रथिताः, निकाचिता नियुक्ति-सङ्ग्रहणि-हेतूदाहरणादिभिः प्रतिष्ठिता जिनैः प्रज्ञप्ता भावाः पदार्था अन्येऽप्यजीवादयः आघविजंति त्ति प्राकृतशैल्या आख्यायन्ते सामान्यविशेषाभ्यां कथ्यन्त इत्यर्थः, प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदाभिधानेन, प्ररूप्यन्ते 5 नामादिस्वरूपकथनेन, यथा पजायाणभिधेय [विशेषाव० २५] मित्यादि, दर्श्यन्ते उपमामात्रतः यथा गौर्गवयस्तथा [मी० श्लो० वा० ] इत्यादि, निदर्श्यन्ते हेतुदृष्टान्तोपन्यासेन, उपदर्श्यन्ते उपनय-निगमनाभ्यां सकलनयाभिप्रायतो वेति । साम्प्रतमाचाराङ्गग्रहणफलप्रतिपादनायाह- से एवमित्यादि, स इत्याचाराङ्गग्राहको गृह्यते, एवंआय त्ति अस्मिन् भावतः सम्यगधीते सत्येवमात्मा भवति, 10 तदुक्तक्रियापरिणामाव्यतिरेकात् स एव भवतीत्यर्थः, इदं च सूत्रं पुस्तकेषु न दृष्टं नन्द्यां तु दृश्यते इतीह व्याख्यातमिति, एवं क्रियासारमेव ज्ञानमिति ख्यापनार्थं क्रियापरिणाममभिधायाधुना ज्ञानमधिकृत्य आह- एवंनाय त्ति इदमधीत्य एवंज्ञाता भवति यथैवेहोक्तमिति, एवंविनाय त्ति विविधो विशिष्टो वा ज्ञाता विज्ञाता एवंविज्ञाता भवति, तन्त्रान्तरीयज्ञातृभ्यः प्रधानतर इत्यर्थः । एवमित्यादि निगमनवाक्यम्, एवम् 15 अनेन प्रकारेणाऽऽचारगोचरविनयाद्यभिधानरूपेण चरण-करणप्ररूपणता आख्यायत इति, चरणं व्रत-श्रमणधर्म-संयमाद्यनेकविधम्, करणं पिण्ड विशुद्धिसमित्याद्यनेकविधम्, तयोः प्ररूपणता प्ररूपणैव आख्यायते इत्यादि पूर्ववदिति, सेत्तं आयारे ति तदिदमाचारवस्तु अथवा सोऽयमाचारो यः पूर्वं पृष्ट इति ॥१॥ [सू० १३७] से किं तं सूयगडे ? सूयगडेणं ससमया सूइजंति, परसमया 20 सूइजंति, ससमय-परसमया सूइज्जंति, जीवा सूइजंति, अजीवा सूइज्जंति, १. “कीदृग् गवय इत्येवं पृष्टो नागरिकैर्यदि । ब्रवीत्यारण्यको वाक्यं यथा गौर्गवयस्तथा ॥१॥” इति मीमांसा श्लोकवार्तिके उपमानपरिच्छेदे न्यायरत्नाकरस्य टीका “प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम्” (न्या० सू० १.१.६) इति अक्षपादेनोक्तम्, कीदृशो गवयः इत्येवं नागरिकेण पृष्टो वन्यः प्रसिद्धेन गवा साधादप्रसिद्धं गवयं येन वाक्येन बोधयति यथा- गौरिव गवयः इति, तद्वाक्यम् उपमानमिति । २. सेतं हे१ विना ॥ ३. पूर्वपृष्ट खं० हे२ । पूर्वदृष्ट हे१ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे जीवा-ऽजीवा सूइजंति, लोगे सूइज्जति, अलोगे सूइजति, लोगालोगे सूइज्जति। सूयगडे णं जीवा-ऽजीव-पुण्ण-पावा-ऽऽसव-संवर-णिजरबंध-मोक्खावसाणा पयत्था सूइज्जति । समणाणं अचिरकालपव्वइयाणं कुसमयमोहमोहमतिमोहिताणं संदेहजायसहजबुद्धिपरिणामसंसइयाणं 5 पावकरमइलमतिगुणविसोहणत्थं आसीतस्स किरियावादिसतस्स चउरासीतीए अकिरियावादीणं सत्तट्टीए अण्णाणियवादीणं बत्तीसाए वेणइयवादीणं तिण्हं तेसट्ठाणं अण्णदिट्ठियसयाणं वूहं किच्चा ससमए ठाविजति । णाणादिटुंतवयणणिस्सारं सुटु दरिसयंता विविहवित्थाराणुगमपरम सब्भावगुणविसिट्ठा मोक्खपहोदारगा उदारा, अण्णाणतमंधकारदुग्गेसु दीवभूता, 10 सोवाणा चेव सिद्धिसुगतिघरुत्तमस्स, णिक्खोभनिप्पकंपा सुत्तत्था । सूयगडस्स णं परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा, संखेजातो पडिवत्तीतो, संखेजा वेढा, [संखेजा] सिलोगा, [संखेजाओ] निजुत्तीतो । से णं अंगठ्ठताए दोच्चे अंगे, दो सुतक्खंधा, तेवीसं अज्झयणा, तेत्तीसं उद्देसणकाला, तेत्तीसं समुद्देसणकाला, छत्तीसं पदसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ते । संखेजा अक्खरा, 15 तं चेव जाव परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइता जिणपण्णत्ता भावा आपविजंति जाव उवदंसिज्जति । से एवंआता, ?] एवंणातेणाता?] एवंविण्णाते ता?] जाव चरणकरणपरूवणया आघविजति [पण्णविजति परूविजति निदंसिजति उवदंसिजति] । सेत्तं सूयगडे । [टी०] से किं तं सूयगडे ? सूच सूचायाम् [ ], सूचनात् सूत्रम्, सूत्रेण कृतं 20 सूत्रकृतमिति रूढ्योच्यते । सूयगडेणं ति सूत्रकृतेन सूत्रकृते वा स्वसमयाः सूच्यन्ते इत्यादि कण्ठ्यम्, तथा सूत्रकृतेन जीवा-ऽजीव-पुण्य-पापा-ऽऽश्रव-संवर-निर्जराबन्ध-मोक्षावसानाः पदार्थाः सूच्यन्ते । तथा समणाणमित्यादि, अत्र च श्रमणानां १. अत्र १४७[७] तमे च सूत्रे एवं णाते एवं विण्णाते इत्येव पाठो हस्तलिखितादर्शेषु दृश्यते, किन्तु १३६ तमे सूत्रे एवंआता एवंणाता एवंविण्णाता इति पाठो वर्तते, नन्दीसूत्रेऽपि आचारादिवर्णनपरेषु सर्वेषु सूत्रेषु तथैव पाठः । अतस्तदनुसारेण अत्र १४७[७] तमे च सूत्रे ‘एवंआता, एवंणाता, एवंविण्णाता' इति पाठः शुद्ध इति संभाव्यते ॥ २. मिति इहोच्यते जे१ खं० ॥ ३. सूत्रकृते जीवा खं० ॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३७] सूत्रकृताङ्गवर्णनम् । २१५ मतिगुणविशोधनार्थं स्वसमयः स्थाप्यत इति वाक्यार्थः, तत्र श्रमणानां किंभूतानाम् ? अचिरकालप्रव्रजितानाम्, चिरप्रव्रजिता हि निर्मालमतयो भवन्ति, अहर्निशं शास्त्रपरिचयाद् बहुश्रुतसंपर्काच्चेति, पुनः किंभूतानाम् ? कुसमयमोह[मोहमइमोहियाणं ति, कुत्सितः समयः सिद्धान्तो येषां ते कुसमयाः कुतीर्थिकाः, तेषां मोहः पदार्थेष्वयथावद् बोधः कुसमयमोहः, तस्माद्यो मोहः श्रोतृमनोमूढता, तेन मतिर्मोहिता 5 मूढतां नीता येषां ते कुसमयमोहमोहमतिमोहिताः । अथवा कुसमयाः कुसिद्धान्ताः, तेषाम् ओघः संघो मकारस्तु प्राकृतत्वात्, तस्माद्यो मोहः मूढता, तेन मतिर्मोहिता येषां ते कुसमयौघमोहमतिमोहिताः । अथवा कुसमयानां कुतीथिकानां मौधो मोघो वा शुभफलापेक्षया निष्फलो यो मोहस्तेन मतिर्मोहिता येषां ते कुसमयमौधमोहमतिमोहिता: कुसमयमोघमोहमतिमोहिता वा, तेषाम्, तथा 10 संदेहाः वस्तुतत्त्वं प्रति संशयाः कुसमयमोहमोहमतिमोहितानामिति विशेषणसान्निध्यात् कुसमयेभ्यः सकाशात् जाता येषां ते सन्देहजाताः, तथा सहजात् स्वभावसम्पन्नात् न कुसमयश्रवणसम्पन्नाद् बुद्धिपरिणामात् मतिस्वभावात् संशयो जातो येषां ते सहजबुद्धिपरिणामसंशयिताः, सन्देहजाताश्च सहजबुद्धिपरिणामसंशयिताश्च ये ते तथा, तेषाम्, श्रमणानामिति प्रक्रमः, किमत आह– पापकरो विपर्यय-संशयात्मकत्वेन 15 कुत्सितप्रवृत्तिनिबन्धनत्वादशुभकर्महेतुरत एव च मलिनः स्वरूपाच्छादनादनिर्मलो यो मतिगुणो बुद्धिपर्यायस्तस्य विशोधनाय निर्मलत्वाधानाय पापकरमलिनमतिगुणविशोधनार्थम् । __ आसीयस्स किरियावाइसयस्स त्ति अशीत्यधिकस्य क्रियावादिशतस्य व्यूह कृत्वा स्वसमयः स्थाप्यत इति योगः, एवं शेषेष्वपि पदेषु क्रिया योजनीयेति । तत्र 20 न कर्तारं विना क्रिया संभवतीति तामात्मसमवायिनीं वदन्ति ये तच्छीलाश्च ते क्रियावादिनः, ते पुनरात्माद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेनाशीत्यधिकशतसंख्या विज्ञेयाः - जीवा-ऽजीवा-ऽऽश्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-पुण्या-ऽपुण्यमोक्षाख्यान्नव पदार्थान् विरचय्य परिपाट्या जीवपदार्थस्याधः स्वपरभेदावुपन्यसनीयौ, १. चिरकालप्रव्र' हे१,२ ॥ २. का विना जे१,२ हे२ ॥ ३. क्रिया भवतीति जे२ हे१ ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तयोरधो नित्यानित्यभेदौ, तयोरप्यधः कालेश्वरा -ऽऽत्म-नियति-स्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः, पुनरित्थं विकल्पाः कर्त्तव्याः - अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतइत्येको विकल्पः, विकल्पार्थश्चायम् - विद्यते खल्वात्मा स्वेन रूपेण नित्यश्च कालवादिनः, उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्वरकारणिकस्य, तृतीयः आत्मवादिनः, चतुर्थो 5 नियतिवादिनः, पञ्चमः स्वभाववादिनः, एवं स्वत इत्यपरित्यजता लब्धाः पञ्च विकल्पाः, परत इत्यनेनापि पञ्च लभ्यन्ते, नित्यत्वापरित्यागेन चैते दश विकल्पा, एवमनित्यत्वेनापि दशैव, इति एकत्र विंशतिर्जीवपदार्थेन लब्धाः, अजीवादिष्वप्यष्टास्वेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतो विंशतिर्नवगुणा शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिनामिति । चउरासीए अकिरियवाईणं ति, एतेषां च स्वरूपं यथा नन्द्यादिषु तथा वाच्यम्, 10 नवरमेतद्व्याख्याने पुण्यापुण्यवर्जाः सप्त पदार्थाः स्थाप्यन्ते, तदधः स्वतः परतश्चेति पदद्वयम्, तदधः कालादीनां षष्ठी यदृच्छा न्यस्यते, ततश्च नास्ति जीवः स्वतः काल इत्येको विकल्पः, एवमेते चतुरशीतिर्भवन्ति । सत्तट्ठीए अन्नाणियवाईणं ति, एतेऽपि तथैव, नवरं जीवादीन्नव पदार्थानुत्पत्तिदशमान् व्यवस्थाप्याधः सप्त सदादयः स्थाप्याः, तद्यथा - सत्त्वमसत्त्वं सदसत्त्वमवाच्यत्वं 15 सदवाच्यत्वमसदवाच्यत्वं सदसदवाच्यत्वमिति, तत्र को जानाति जीवस्य सत्त्वमित्येको विकल्पः, एवमसत्त्वमित्यादि, तत एते सप्त नवकास्त्रिषष्टिः, उत्पत्तेस्त्वाद्या एव चत्वारो वाच्याः, इत्येवं सप्तषष्टिरिति । तथा बत्तीसाए वेणइयवाईणं ति, एते चैवम्- सुर- नृपति - ज्ञाति-यति- स्थविरा २१६ १. “चउरासीईते अकिरियावादीणं चतुरशीतेरक्रियावादिनाम्, क्रिया पूर्ववत्, न हि कस्यचिदनवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया समस्ति, तद्भावे चावस्थितेरभावादित्येवंवादिनोऽक्रियावादिनः । तथा चाऽऽहुरेके- 'क्षणिकाः सर्वसंस्काराः, अस्थितानां कुतः क्रिया ? | भूर्तियेषां क्रिया सैव कारकं सैव चोच्यते ॥ १ ॥ ' [ ] इत्यादि । एते चाऽऽत्मादिनास्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेन चतुरशीतिर्द्रष्टव्याः एतेषां हि पुण्या-ऽपुण्यविवर्जितपदार्थसप्तकन्यासस्तथैव, जीवस्याधः स्व-परविकल्पभेदद्वयोपन्यासः, असत्त्वादात्मनो नित्याऽनित्यभेदौ न स्तः, कालादीनां तु पञ्चानां षष्ठी यदृच्छा न्यस्यते, पश्चाद् विकल्पाभिलाप:- नास्ति जीवः स्वतः कालत इत्येको विकल्पः, एवमीश्वरादिभिरपि यदृच्छावसानैः सर्वे च षड् विकल्पाः ।” इति नन्दीसूत्रे सूत्रकृताङ्गस्वरूपवर्णने हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ २. र्भवति खं० ॥ ३. सत्त्वादि जे२ ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३७] सूत्रकृताङ्गवर्णनम् । ऽधम-मातृ-पितॄणां प्रत्येकं काय - वाङ्-मनो-दानैश्चतुर्द्धा विनयः कार्य इत्यभ्युपगमवन्तो द्वात्रिंशदिति । एवं चैतेषां चतुर्णां वादिप्रकाराणां मीलने त्रीणि त्रिषष्ट्यधिकानि अन्यदृष्टिशतानि भवन्त्यत उच्यते- तिण्हमित्यादि, वूहं किच्च त्ति प्रतिक्षेपं कृत्वा स्वसमयो जैनसिद्धान्तः स्थाप्यते । यत एवं सूत्रकृतेन विधीयते अतस्तत्सूत्रार्थयोः स्वरूपमाह - 5 नाणेत्यादि, नाना अनेकधा बहुभिः प्रकारैरित्यर्थः, दिट्टंतवयणनिस्सारं ति स्याद्वादिना पूर्वपक्षीकृतानां प्रवादिनां स्वपक्षस्थापनाय यानि दृष्टान्तवचनान्युपलक्षणत्वाद्धेतुवचनानि च तदपेक्षया निस्सारं सारताशून्यं परेषां मतमिति गम्यते, सुष्ठु पुनरप्रतिक्षेपणीयत्वेन दर्शयन्तौ प्रकटयन्तौ तथा विविधश्चासौ सत्पदप्ररूपणाद्यनेकानुयोगद्वाराश्रितत्वेन विस्तारानुगमश्च अनुगमनीयाने कजीवादितत्त्वानां विस्तरप्रतिपादनं विविध - 10 विस्तारानुगमः, तथा परमसद्भावः अत्यन्तसत्यता वस्तूनामैदम्पर्यमित्यर्थः, तावेव गुणौ ताभ्यां विशिष्टौ विविधविस्तारानुगमपरमसद्भावगुणविशिष्टौ, मोक्ख होयारग त्ति मोक्षपथावतारकौ, सम्यग्दर्शनादिषु प्राणिनां प्रवर्त्तकावित्यर्थः, उदार त्ति उदारौ सकलसूत्रार्थदोषरहितत्वेन निखिलतद्गुणसहितत्वेन च, तथाऽज्ञानमेव तमः अन्धकारमात्यन्तिकान्धकारमथवा प्रकृष्टमज्ञानमज्ञानतमं 15 तदेवान्धकारमज्ञानतमोऽन्धकारमज्ञानतमान्धकारं वा, तेन ये दुर्गा दुरधिगमास्ते तथा, तेषु, तत्त्वमार्गेष्विति गम्यते, दीवभूय त्ति प्रकाशकारित्वाद् दीपोपमौ, सोवाणा चेव त्ति सोपानानीव उन्नताऽऽरोहणमार्गविशेष इव सिद्धिसुगतिगृहोत्तमस्य सिद्धिलक्षणा सुगतिः सिद्धिसुगतिरथवा सिद्धिश्च सुगतिश्च सुदेवत्व - सुमानुषत्वलक्षणा सिद्धि-सुगती, तल्लक्षणं यद् गृहाणामुत्तमं गृहोत्तमं वरप्रासादस्तस्य 20 सिद्धिसुगतिगृहोत्तमस्यारोहण इति गम्यते, निक्खोहनिप्पकंप त्ति निक्षोभौ वादिना क्षोभयितुं चलयितुमशक्यत्वात् निष्प्रकम्पौ स्वरूपतोऽपीषद्व्यभिचारलक्षणकम्पाभावात्, कावित्याह - सूत्रार्थी सूत्रं चार्थश्च निर्युक्ति-भाष्य-सङ्ग्रहणि-वृत्ति - चूर्णि - पञ्जिकादिरूप १. इव सिद्धिसुगतिरथवा सिद्धिश्च सुगतिश्च खं० जे१ । इव सिद्धिसुगइगृहोत्तमस्य सिद्धिलक्षणा सु सिद्धिश्च सुगतिश्च जे२ ॥ २. गम्यं निक्खों जे२ ॥ २१७ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे इति सूत्रार्थौ, शेषं कण्ठ्यं यावत् सेत्तं सूयगडे त्ति, नवरं त्रयस्त्रिंशदुद्देशनकालाःच ४ यि ३ चउरो ४ दो २ दो २ एक्कारस चेव हुंति एक्कसरा । सत्तेव महज्झयणा एगसरा बीयसुयखंधे ॥ [ ] इत्यतो गाथातोऽवसेया इति । [सू० १३८ ] से किं तं ठाणे ? ठाणेणं ससमया ठाविज्जंति, परसमया 5 ठाविज्जंति, ससमय - परसमया [ठाविज्जंति], जीवा ठाविज्जंति, अजीवा [ठाविज्जंति], जीवाजीवा [ठाविज्जंति], लोगो अलोगो लोगालोगो वा ठाविज्जति । ठाणेणं दव्व-गुण-खेत्त-काल- पज्जव पयत्थाणं । सेला सलिला य समुद्द सूर भवण विमाण आगरा णदीतो । धियो पुरिसज्जाया सरा य गोत्ता य जोति संचाला ॥६०॥ एक्कविधवत्तव्वयं दुविह जाव दसविहवत्तव्वयं जीवाण पोग्गलाण य लोगट्ठाई च णं परूवणया आघविज्जति जाव ठाणस्स णं परित्ता वायणा जाव संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जातो संगहणीतो । से तं ( णं) अंगट्ठताए ततिए अंगे, एगे सुतक्खंधे, दस अज्झयणा, एक्कवीसं उद्देसणकाला, एक्कवीसं समुद्देसणकाला, बावत्तरिं पयसहस्साइं पदग्गेणं पण्णत्ते । संखेजा अक्खरा 15 जाव चरणकरणपरूवणया आघविज्जति । सेत्तं ठाणे । I [ टी०] से किं तं ठाणे इत्यादि, अथ किं तत् स्थानम् ?, तिष्ठन्त्यस्मिन् प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानम्, तथा चाह - ठाणेणमित्यादि, स्थानेन स्थाने वा जीवाः स्थाप्यन्ते यथावस्थितस्वरूपप्रतिपादनयेति हृदयम्, शेषं प्रायो निगदसिद्धमेव, नवरं 'ठाणेणमित्यस्य पुनरुच्चारणं सामान्येन पूर्वोक्तस्यैव स्थापनीयविशेषप्रतिपादनाय 20 वाक्यान्तरमिदमिति ज्ञापनार्थम्, तत्र दव्वगुणखेत्तकालपज्जव ति प्रथमाबहुवचनलोपाद् द्रव्य-गुण-क्षेत्र - काल-पर्यवा: पदार्थानां जीवादीनां स्थानेन स्थाप्यन्ते इति प्रक्रमः, तत्र द्रव्यं द्रव्यार्थता यथा जीवास्तिकायोऽनन्तानि द्रव्याणि, गुण: स्वभावो यथोपयोगस्वभावो जीवः, क्षेत्रं यथा असंख्येयप्रदेशावगाहनोऽसौ, कालो यथा अनाद्यपर्यवसितः, पर्यवा: कालकृता अवस्था यथा नारकत्वादयो बालत्वादयो वेति । १. ठाणेणं त्यस्य जे२ हे१,२ ॥ 10 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ [सू० १३९] स्थानाङ्गवर्णनम् । ___ सेला इत्यादि गाथाविशेषः, तत्र शैला: हिमवदादिपर्वताः स्थाप्यन्ते स्थानेनेति योगः सर्वत्र, सलिलाश्च गङ्गाद्या महानद्यः, समुद्राः लवणादयः, सूरा: आदित्याः, भवनानि असुरादीनाम्, विमानानि चन्द्रादीनाम्, आकराः सुवर्णाद्युत्पत्तिभूमयः, नद्यः सामान्या मही-कोसीप्रभृतयः, निधयः चक्रवर्तिसम्बन्धिनो नैसर्पादयो नव, पुरिसजाय त्ति पुरुषप्रकारा उन्नतप्रणतादिभेदाः, पाठान्तरेण पुस्सजोय त्ति उपलक्षणत्वात् 5 पुष्यादिनक्षत्राणां चन्द्रेण सह पश्चिमाग्रिमोभयप्रमादिका योगाः, स्वराश्च षड्जादयः सप्त, गोत्राणि च काश्यपादीनि एकोनपञ्चाशत्, जोइसंचाल त्ति ज्योतिषः तारकरूपस्य सञ्चलनानि तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चलेजा [स्थानाङ्ग० सू० १४१] इत्यादिना सूत्रेण स्थाप्यन्ते स्थानेनेति प्रक्रमः । तथा एकविधं च तद् वक्तव्यकं च तदभिधेयमित्येकविधवक्तव्यकं प्रथमे अध्ययने 10 स्थाप्यत इति योगः, एवं द्विविधवक्तव्यकं द्वितीयेऽध्ययने, एवं तृतीयादिषु यावद् दशविधवक्तव्यकं दशमेऽध्ययने । तथा जीवानां पुद्गलानां च प्ररूपणताऽऽख्यायत इति योगः, तथा लोगट्ठाई च णं ति लोकस्थायिनां च धर्माधर्मास्तिकायादीनां प्ररूपणता प्रज्ञापना, शेषमाचारसूत्रव्याख्यानवदवसेयम्, नवरमेकविंशतिरुद्देशनकालाः, कथम् ? द्वितीय- 15 तृतीय-चतुर्थेष्वध्ययनेषु चत्वारश्चत्वार उद्देशकाः पञ्चमे त्रय इत्येते पञ्चदश, शेषास्तु षट् षण्णामध्ययनानां षडुद्देशनकालत्वादिति। बावत्तरिं पदसहस्साई ति अष्टादशपदसहस्रमानादाचाराद् द्विगुणत्वात् सूत्रकृतस्य ततोऽपि द्विगुणत्वात् स्थानस्येति ॥३॥ [सू० १३९] से किं तं समवाए ? समवाए णं ससमया सूइज्जति, परसमया 20 सूइजंति, ससमय-परसमया सूइज्जति, जीवा सूइज्जति, अजीवा सूइजंति, जीवाजीवा सूइजंति, लोगे सूइज्जति, अलोगे सूइज्जति, लोगालोगे सूइजति। समवाए णं एकादियाणं एगत्थाणं एगुत्तरिय परिवड्डी य दुवालसंगस्स य १. नारकादयो जे२ ॥ २. सूत्रकृतस्य ततोऽपि द्विगुणत्वात् जे१ मध्ये नास्ति । ख० मध्ये तु अधस्तात् पूरितः । सूत्रकृतस्तत् द्विगुणत्वात् जे२ ॥ ३. समाये अटी० ॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समणुगाइजति । ठाणगसयस्स बारसविहवित्थरस्स सुतणाणस्स जगजीवहितस्स भगवतो समासेणं समायारे आहिजति । तत्थ य णाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वण्णिता वित्थरेणं, अवरे वि य बहुविहा विसेसा नरग-तिरिय-मणुय-सुरगणाणं आहारुस्सास-लेस-आवाससंख5 आययप्पमाण-उववाय-चवण-ओगाहणोहि- वेयण-विहाण-उवओग-जोगइंदिय-कसाय, विविहा य जीवजोणी, विक्खंभुस्सेहपरिरयप्पमाणं विधिविसेसा य मंदरादीणं महीधराणं, कुलगर-तित्थगर-गणधराणं समत्तभरहाहिवाण चक्कीण चेव चक्कहर-हलहराण य, वासाण य निग्गमा य, समाए एते अण्णे य एवमादि एत्थ वित्थरेणं अत्था समाहिति । समवायस्स णं परित्ता वायणा 10 जाव से णं अंगट्ठताए चउत्थे अंगे, एगे अज्झयणे, एगे सुयक्खंधे, एगे उद्देसणकाले, एगे समुद्देसणकाले, एगे चोयाले पदसतसहस्से पदग्गेणं पण्णत्ते। संखेजाणि अक्खराणि जाव सेत्तं समवाए । [टी०] से किं तमित्यादि, अथ कोऽसौ समवायः ?, सूत्रे तु प्राकृतत्वेन वकारलोपात् समाये इत्युक्तम्, समवायनं समवायः सम्यक् परिच्छेद इत्यर्थः, तद्धेतुश्च 15 ग्रन्थोऽपि समवायः, तथा चाह- समवायेन समवाये वा स्वसमयाः सूच्यन्ते इत्यादि कण्ठ्यम् । तथा समवायेन समवाये वा, एगाइयाणं ति एकद्वित्रिचतुरादीनां शतान्तानां कोटीकोट्यन्तानां वा, एगत्थाणं ति एके च ते अर्थाश्चेत्येकार्थास्तेषाम्, अयमर्थः- एकेषां केषाञ्चित्, न सर्वेषाम्, निखिलानां वक्तुमशक्यत्वात्, अर्थानां जीवादीनाम्, एगुत्तरिय त्ति एक उत्तरो यस्यां सा एकोत्तरा सैव एकोत्तरिका, इह 20 च प्राकृतत्वात् ह्रस्वत्वम्, परिवुड्डी य त्ति परिवृद्धिश्चेति समनुगीयते समवायेनेति योगः, तत्र च परिवर्द्धनं संख्यायाः समवसेयम्, चशब्दस्य चान्यत्र सम्बन्धादेकोत्तरिका अनेकोत्तरिका च, तत्र शतं यावदेकोत्तरिका परतोऽनेकोत्तरिकेति । तथा द्वादशाङ्गस्य च गणिपिटकस्य पल्लवग्गं ति पर्यवपरिमाणम् अभिधेयादितद्धर्मसंख्यानं यथा परित्ता तसा इत्यादि पर्यवशब्दस्य च पल्लव त्ति निर्देशः प्राकृतत्वात् पर्यङ्कः पल्लंक Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १३९] समवायाङ्गवर्णनम् । २२१ इत्यादिवदिति, अथवा पल्लवा इव पल्लवाः अवयवास्तत्परिमाणं समणुगाइजइ त्ति समनुगीयते प्रतिपाद्यते । पूर्वोक्तमेवार्थं प्रपञ्चयन्नाह- ठाणगेत्यादि, ठाणगसयस्स त्ति स्थानकशतस्यैकादीनां शतान्तानां संख्यास्थानानाम्, तद्विशेषितात्मादिपदार्थानामित्यर्थः, तथा द्वादशविधो विस्तरो यस्याचारादिभेदेन तत् द्वादशविधविस्तरम्, तस्य, श्रुतज्ञानस्य 5 जिनप्रवचनस्य, किंभूतस्य ? जगजीवहितस्य, भगवतः श्रुतातिशययुक्तस्य समासेन संक्षेपेण समाचारः प्रतिस्थानं प्रत्यङ्गं च विविधाभिधेयाभिधायकत्वलक्षणो व्यवहारः आहिज्जइ त्ति आख्यायते । अथ समाचाराभिधानानन्तरं तत्र यदुक्तं तदभिधातुमाहतत्थ येत्यादि, तत्थ य त्ति तत्रैव समवाये इति योगः, नानाविधः प्रकारो येषां ते नानाविधप्रकाराः, तथाहि- एकेन्द्रियादिभेदेन पञ्चप्रकारा जीवाः, पुनरेकैकः प्रकार: 10 पर्याप्ता-ऽपर्याप्तादिभेदेन नानाविधः, जीवाजीवा य त्ति जीवा अजीवाश्च वर्णिता विस्तरेण महता वचनसन्दर्भण, अपरेऽपि च बहुविधा विशेषा जीवाजीवधर्मा वर्णिता इति योगः, तानेव लेशत आह- नरएत्यादि, नरय त्ति निवासनिवासिनामभेदोपचारान्नारकाः, ततश्च नारकतिर्यग्मनुजसुरगणानां सम्बन्धिन आहारादयः, तत्र आहारः ओजआहारादिराभोगिकानाभोगिकस्वरूपोऽनेकधा, 15 उच्छ्वासोऽनुसमयादिः कालभेदेनानेकधा, लेश्या कृष्णादिका षोढा, आवाससंख्या यथा नरकावासानां चतुरशीतिर्लक्षाणीत्यादिका, आयतप्रमाणमावासानामेव संख्यातासंख्यातयोजनायामता, उपलक्षणत्वादस्य विष्कम्भ-बाहल्य-परिधिमानान्यप्यत्र द्रष्टव्यानि, उपपात एकसमयेनैतावतामेतावता वा कालव्यवधानेनोत्पत्तिः, च्यवनमेकसमयेनैतावतामियता वा कालव्यवधानेन मरणम्, अवगाहना 20 शरीरप्रमाणमङ्गुलासंख्येयभागादि, अवधिः अङ्गुलासंख्येयभागक्षेत्रविषयादिः, वेदना शुभाशुभस्वभावा, विधानानि भेदा यथा सप्तविधा नारका इत्यादि, उपयोगः आभिनिबोधिकादिभदशविधः, योगः पञ्चदशविधः, इन्द्रियाणि पञ्च, १. 'इजंति समनुगीयंते प्रतिपाद्यते खं० । 'इजंति समनुगीयते प्रतिपाद्यते जे१ । 'इजत्ति समनुगीयते प्रतिपाद्यते जे२ ॥ २. नानाविधः नानाविध: जे२ ॥ ३. नरेत्यादि खसं० विना ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे द्रव्यादिभेदाद् विंशतिर्वा, श्रोत्रादिच्छिद्राद्यपेक्षयाऽष्टौ वा, कषायाः क्रोधादयः आहारश्चोच्छ्वासश्चेत्यादिद्व(ई)न्द्वस्ततः कषायशब्दात् प्रथमाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, तथा विविधा च जीवयोनिः सचित्तादिकं जीवानामुत्पत्तिस्थानम्, तथा विष्कम्भोत्सेध-परिरयप्रमाणं विधिविशेषाश्च मन्दरादीनां महीधराणामिति, तत्र 5 विष्कम्भो विस्तार उत्सेध: उच्चत्वं परिरय: परिधिः, विधिविशेषा इति विधयो भेदा यथा मन्दरा जम्बूद्वीपीय-धातकीखण्डीय-पौष्करार्द्धिकभेदात् त्रिधा तद्विशेषस्तु जम्बूद्वीपको लक्षोच्चः शेषास्तु पञ्चाशीतिसहस्रोच्छ्रिता इति, एवमन्येष्वपि भावनीयम्, तथा कुलकर-तीर्थकर-गणधराणां तथा समस्तभरताधिपानां चक्रिणां चैव तथा चक्रधर-हलधराणां च विधिविशेषाः इति योगः, तथा वर्षाणां च भरतादिक्षेत्राणां 10 निर्गमाः पूर्वेभ्यः उत्तरेषामाधिक्यानि, समाए त्ति समवाये चतुर्थे अङ्गे वर्णिता इति प्रक्रमः, अथैतन्निगमयन्नाह- एते चोक्ताः पदार्था अन्ये च घन-तनुवातादयः पदार्थाः, एवमादयः एवंप्रकाराः अत्र समवाये विस्तरेणार्थाः समाश्रीयन्ते, अविपरीतस्वरूपगुणभूषिता बुद्धयाऽङ्गीक्रियन्त इत्यर्थः, अथवा समस्यन्ते कुप्ररूपणाभ्यः सम्यक् प्ररूपणायां क्षिप्यन्ते, शेष निगदसिद्धमा निगमनादिति ॥५॥ 15 [सू० १४०] से किं तं वियाहे ? वियाहेणं ससमया विआहिजंति, परसमया विआहिजंति, ससमय-परसमया विआहिजंति, जीवा विआहिजंति, अजीवा विआहिज्जति, जीवाजीवा विआहिज्जति, लोए विआहिज्जति, अलोए वियाहिजति । वियाहेणं नाणाविहसुर-नरिंद-रायरिसि-विविहसंसइय पुच्छियाणं जिणेण वित्थरेण भासियाणं दव्वगुणखेत्तकालपजवपदेस20 परिणामजहत्थिभावअणुगमनिक्खेवणयप्पमाण-सुनिउणोवक्कमविविहप्पकारपागडपयंसियाणं लोगालोगप्पगासियाणं संसारसमुरुंदउत्तरणसमत्थाणं सुरवतिसंपूजियाणं भवियजणपयहियया-भिनंदियाणं तमरयविद्धंसणाणसुदिट्ठदीवभूयईहामतिबुद्धिवद्धणाणं छत्तीससहस्समणूणयाणं वागरणाण दसणाओ सुयत्थबहुविहप्पगारा सीसहितत्थाय गुणहत्था । वियाहस्स णं 25 परित्ता वायणा जाव अंगठ्ठताए पंचमे अंगे, एगे सुतक्खंधे, एगे साइरेगे Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ [सू० १४०] व्याख्याप्रज्ञप्ति[=भगवतीसूत्र]वर्णनम् । .. अज्झयणसते, दस उद्देसगसहस्साइं, दस समुद्देसगसहस्साइं, छत्तीसं वागरणसहस्साई, चउरासीति पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ते । संखेजाई अक्खराइं, अणंता गमा जाव सासया कडा णिबद्धा [णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा] आघविजंति जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविजति । सेत्तं वियाहे । 5 [टी०] से किं तं वियाहे इत्यादि, अथ केयं व्याख्या ?, व्याख्यायन्ते अर्था यस्यां सा व्याख्या, वियाहे इति च पुलिँङ्गनिर्देशः प्राकृतत्वात्, वियाहेणं ति व्याख्यया व्याख्यायां वा ससमया इत्यादीनि नव पदानि सूत्रकृतवर्णके व्याख्यातत्वादिह कण्ठ्यानि। वियाहेणमित्यादि, नानाविधैः सुरैः नरेन्द्रैः राजऋषिभिश्च विविहसंसइय त्ति विविधसंशयितैः विविधसंशयवद्भिः पृष्टानि यानि तानि तथा, तेषां 10 नानाविधसुरनरेन्द्रराजऋषिविविधसंशयितपृष्टानां व्याकरणानां षट्त्रिंशतः सहस्राणां दर्शनात् श्रुतार्था व्याख्यायन्त इति पूर्वापरेण वाक्यसंबन्धः, पुनः किंभूतानां व्याकरणानाम् ? जिनेनेति भगवता महावीरेण वित्थरेण भासियाणं विस्तरेण भणितानामित्यर्थः, पुनः किंभूतानाम् ? दव्वेत्यादि, द्रव्य-गुण-क्षेत्र-काल-पर्यवप्रदेश-परिणामानां यथास्तिभावोऽनुगम-निक्षेप-नय-प्रमाण-सुनिपुणोप- 15 क्रमैर्विविधप्रकारैः प्रकटः प्रदर्शितो यैर्व्याकरणैस्तानि तथा, तेषाम्, तत्र द्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि, गुणा ज्ञान-वर्णादयः, क्षेत्रम् आकाशम्, काल: समयादिः, पर्यवाः स्व-परभेदभिन्ना धर्माः, अथवा कालकृता अवस्था नव-पुराणादयः पर्यवाः, प्रदेशा निरंशावयवाः, परिणामाः अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनानि, यथा येन प्रकारेणाऽस्तिभावः अस्तित्वं सत्ता यथाऽस्तिभावः, अनुगम: 20 संहितादिव्याख्यानप्रकाररूपः उद्देश-निर्देश-निर्गमादिद्वारकलापात्मको वा, निक्षेपो नामस्थापना-द्रव्य-भावैर्वस्तुनो न्यासः, नयप्रमाणम्, नया नैगमादयः सप्त द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकभेदात् ज्ञाननय-क्रियानयभेदान्निश्चय-व्यवहारभेदाद्वा द्वौ, ते एव तावेव वा प्रमाणं वस्तुतत्त्वपरिच्छेदनं नयप्रमाणम्, तथा सुनिपुणः सुसूक्ष्मः सुनिगुणो वा सुष्ठ निश्चितगुण उपक्रमः आनुपूर्व्यादिः, विविधप्रकारता चैषां भेदभणनत एवोपदर्शितेति, 25 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पुनः किंभूतानां व्याकरणानाम् ?, लोकालोको प्रकाशितौ येषु तानि तथा, तेषाम्, तथा संसारसमुद्दरुंदउत्तरणसमत्थाणं ति संसारसमुद्रस्य रुंदस्य विस्तीर्णस्य उत्तरणे तारणे समर्थानामित्यर्थः, अत एव सुरपतिसंपूजितानां प्रच्छक-निर्णायकपूजनात् सूक्तत्वेन श्लाघितत्वाद्वा, तथा भवियजणपयहिययाभिणंदियाणं ति भव्यजनानां 5 भव्यप्राणिनां प्रजा लोको भव्यजनप्रजा भव्यजनपदो वा, तस्यास्तस्य वा हृदयैः चित्तैरभिनन्दितानां अनुमोदितानामिति विग्रहः, तथा तमोरजसी अज्ञान-पातके विध्वंसयति नाशयति यत्तत्तमोरजोविध्वंसं तच्च तद् ज्ञानं च तमोरजोविध्वंसज्ञानम्, तेन सुष्ठ दृष्टानि निर्णीतानि यानि तानि तथा, अत एव तानि च तानि दीपभूतानि चेति, अत एव तानि च तानि ईहामतिबुद्धिवर्द्धनानि चेति, तेषां 10 तमोरजोविध्वंसज्ञानसुदृष्टदीपभूतेहामतिबुद्धिवर्द्धनानाम्, तत्र ईहा वितर्कः, मतिः अवायो निश्चय इत्यर्थः, बुद्धिः औत्पत्तिक्यादिश्चतुर्विधेति, अथवा तमोरजोविध्वंसनानामिति पृथगेव पदम्, पाठान्तरेण सुदृष्टदीपभूतानामिति च, तथा छत्तीससहस्समणूणयाणं ति अन्यूनकानि षट्त्रिंशत् सहस्राणि येषां तानि तथा, इह मकारोऽन्यथा पदनिपातश्च प्राकृतत्वादनवद्य इति, वागरणाणं ति व्याक्रियन्ते 15 प्रश्नानन्तरमुत्तरतयाऽभिधीयन्ते निर्णायकेन यानि तानि व्याकरणानि, तेषां दर्शनात् प्रकाशनादुपनिबन्धनादित्यर्थः, अथवा तेषां दर्शना उपदर्शका इत्यर्थः, क इत्याहसुयत्थबहुविहप्पयार त्ति श्रुतविषया अर्थाः श्रुतार्था अभिलाप्यार्थविशेषा इत्यर्थः, श्रुता वा आकर्णिता जिनसकाशे गणधरेण ये अर्थास्ते श्रुताः , अथवा श्रुतमिति सूत्रम् अर्था निर्युक्त्यादय इति श्रुतार्थाः, ते च ते बहुविधप्रकाराश्चेति विग्रहः, 20 श्रुतार्थानां वा बहुविधाः प्रकारा इति विग्रहः, किमर्थं ते व्याख्यायन्त इत्याह शिष्यहितार्थाय शिष्याणां हितम् अनर्थप्रतिघाता-ऽर्थप्राप्तिरूपं तदेवाऽर्थः प्रार्थ्यमानत्वात्तस्य, तस्मै इति, किंभूतास्ते अत आह- गुणहस्ताः, गुण एवार्थप्राप्त्यादिलक्षणो हस्त इव हस्तः प्रधानावयवो येषां ते तथा । वियाहस्सेत्यादि तु निगमनान्तं सूत्रसिद्धम्, नवरं शतमिहाध्ययनस्य संज्ञा । 25 चतुरशीतिः पदसहस्राणि पदाग्रेणेति समवायापेक्षया द्विगुणताया इहानाश्रयणात्, Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ [सू० १४१] ज्ञाताधर्मकथावर्णनम् । अन्यथा तद्विगुणत्वे द्वे लक्षे अष्टाशीतिः सहस्राणि च भवन्तीति ॥५॥ सू० १४१] से किं तं णायाधम्मकहाओ ? णायाधम्मकहासु णं णायाणं णगराई, उजाणा, चेतियाई, वणसंडा, रायाणो, अम्मापितरो, समोसरणाई, धम्मायरिया, धम्मकहातो, इहलोइया पारलोइया इड्डिविसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वजातो, सुतपरिग्गहा, तवोवहाणाइं, परियागा, संलेहणातो, 5 भत्तपच्चक्खाणाई, पाओवगमणाई, देवलोगगमणाई, सुकुलपच्चायाती, पुण बोहिलाभो, अंतकिरियातो य आघविज्जति जाव नायाधम्मकहासु णं पव्वइयाणं विणयकरणजिणसामिसासणवरे संजमपतिण्णापालणधिइमतिववसायदुब्बलाणं तवनियमतवोवहाणरणदुद्धरभरभग्गाणिसहाणिसट्ठाणं घोरपरीसहपराजियासहप[पारद्धरुद्धसिद्धालयमग्गनिग्गयाणं विसयसुहतुच्छ आसावसदोस- 10 मुच्छियाणं विराहियचरित्तणाणदंसणजतिगुणविविहप्पगारणिस्सारसुन्नयाणं संसारअपारदुक्खदुग्गतिभवविविहपरंपरापवंचा, धीराण य जियपरीसहकसायसेण्णधितिधणियसंजमउच्छाहनिच्छियाणं आराहियणाणदंसणचरित्तजोगणिस्सल्लसुद्धसिद्धालयमग्गमभिमुहाणं सुरभवणविमाणसोक्खाई अणोवमाई भोत्तूण चिरं च भोगभोगाणि ताणि दिव्वाणि महरिहाणि ततो य 15 कालक्कमचुयाणं जह य पुणो लद्धसिद्धिमग्गाणं अंतकिरिया, चलियाण य सदेवमाणुसधीरकरणकारणाणि बोधणअणुसासणाणि गुणदोसदरिसणाणि, दिटुंते पच्चये य सोऊण लोगमुणिणो जह य ट्ठिय सासणम्मि जरमरणणासणकरे, आराहितसंजमा य सुरलोगपडिनियत्ता उति जह सासतं सिवं सव्वदुक्खमोक्खं, एते अण्णे य एवमादित्थ वित्थरेण य । 20 णायाधम्मकहासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा जाव संखेजातो संगहणीतो । से णं अंगठ्ठताए छटे अंगे, दो सुतखंधा, एकूणवी(ती?)सं अज्झयणा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- चरिता य कडता य । दस धम्मकहाणं वग्गा, तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयसताई, १. एकूणतीसं खं०अटी० विना ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयसताइं, एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइयउवक्खाइयसताई, एवामेव सपुव्वावरेणं अद्भुट्ठातो अक्खाइयकोडीओ भवंतीति मक्खायाओ । एगूणतीसं उद्देसणकाला, एगूणतीसं समुद्देसणकाला, संखेजाइं पयसतसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ते । 5 संखेजा अक्खरा जाव चरणकरणपरूवणया आघविज्जति । सेत्तं णायाधम्मकहातो । [टी०] से किं तमित्यादि, अथ कास्ता ज्ञाताधर्मकथा: ? ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथाः, दीर्घत्वं संज्ञात्वाद्, अथवा प्रथमश्रुतस्कन्धो ज्ञाताभिधायकत्वात् ज्ञातानि द्वितीयस्तु तथैव धर्मकथाः, ततश्च ज्ञातानि च धर्मकथाश्च 10 ज्ञाताधर्मकथाः, तत्र प्रथमव्युत्पत्त्यर्थं सूत्रकारो दर्शयन्नाह- नायाधम्मकहासु ण मित्यादि, ज्ञातानाम् उदाहरणभूतानां मेघकुमारादीनां नगरादीन्याख्यायन्ते, नगरादीनि द्वाविंशतिः पदानि कण्ठ्यानि च, नवरमुद्यानं पत्र-पुष्प-फल-च्छायोपगवृक्षोपशोभितं विविधवेषोन्नतमानश्च बहजनो यत्र भोजनार्थं यातीति, चैत्यं व्यन्तरायतनम. वनखण्डोऽनेकजातीयैरुत्तमैर्वृक्षरुपशोभित इति। आघविजंति, इह यावत्करणादन्यानि 15 पञ्च पदानि दृश्यानि यावदयं सूत्रावयवो यथा नायाधम्मेत्यादि, तत्र ज्ञाताधर्मकथासु णमित्यलङ्कारे, प्रव्रजितानाम्, व? विनयकरणजिनस्वामिशासनवरे कर्मविनयकरे जिननाथसम्बन्धिनि शेषप्रवचनापेक्षया प्रधाने प्रवचने इत्यर्थः, पाठान्तरेण समणाणं विणयकरणजिणसासणम्मि पवरे, किंभूतानाम् ? संयमप्रतिज्ञा संयमाभ्युपगमः सैव दुरधिर्गमत्वात् कातरनरक्षोभकत्वाद् गम्भीरत्वाच्च पातालमिव पातालम्, तत्र, 20 धृतिमतिव्यवसाया दुर्लभा येषां ते तथा, पाठान्तरेण संयमप्रतिज्ञापालने ये धृतिमतिव्यवसायास्तेषु दुर्बला ये ते तथा, तेषाम्, तत्र धृतिः चित्तस्वास्थ्यम्, मतिः बुद्धिः, व्यवसाय: अनुष्ठानोत्साह इति, तथा तपसि नियमः अवश्यं करणं तपोनियमो नियन्त्रित(तं) तपः, स च तपउपधानं चानियन्त्रितं तप एव श्रुतोपचारतपो वा तपोनियमतपउपधाने ते एव रणश्च कातरनरक्षोभकत्वात् सङ्ग्रामो दुद्धरभर त्ति १. 'गम्यत्वात् हे२ विना ।। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४१] ज्ञाताधर्मकथावर्णनम् । २२७ श्रमकारणत्वाद् दुर्द्धरभरश्च दुर्वहलोहादिभारस्ताभ्यां भग्ना इति भग्नकाः पराङ्मुखीभूताः, तथा निसहा-निसट्ठाणं ति निःसहा नितरामशक्तास्त एव निःसहका निसृष्टाश्च निसृष्टाङ्गा मुक्ताङ्गा ये ते तपोनियमतपउपधानरणदुर्धरभरभग्नकनिःसहकनिसृष्टाः, पाठान्तरेण निःसहकनिविष्टाः, तेषाम्, इह च प्राकृतत्वेन ककारलोप-सन्धिकरणाभ्यां भग्ना इत्यादौ दीर्घत्वमवसेयम्, तथा घोरपरीषहैः पराजिताश्चासहाश्च असमर्थाः 5 सन्तः प्रारब्धाश्च परीषहैरेव वशीकर्तुं रुद्धाश्च मोक्षमार्गगमने ये ते घोरपरीषहपराजितासहप्रारब्धरुद्धाः, अत एव सिद्धालयमार्गात् ज्ञानादेर्निर्गताः प्रतिपतिता ये ते तथा, ते च ते ते चेति, तेषाम्, घोरपरीषहपराजितासहप्रारब्धरुद्धसिद्धालयमार्गनिर्गतानाम्, पाठान्तरेण घोरपरीषहपराजितानाम्, तथा सह युगपदेव परीषहैर्विशिष्टगुणश्रेणिमारोहन्तः प्ररुद्धरुद्धाः अतिरुद्धाः 10 सिद्धालयमार्गनिर्गताश्च ये ते तथा, तेषां सहप्ररुद्धरुद्धसिद्धालयमार्गनिर्गतानाम्, तथा विषयसुखे तुच्छे स्वरूपतः आशावशदोषेण मनोरथपारतन्त्र्यवैगुण्येन मूर्च्छिता अध्युपपन्ना ये ते तथा, तेषां विषयसुखतुच्छाशावशदोषमूर्च्छितानाम्, पाठान्तरेण विषयसुखे या महेच्छा कस्यांचिदवस्थायां या चावस्थान्तरे तुच्छाशा तयोर्वशः पारतन्त्र्यं तल्लक्षणेन दोषेण मूर्च्छिता ये ते तथा, तेषां 15 विषयसुखमहेच्छातुच्छाशावशदोषमूर्छितानाम्, तथा विराधितानि चरित्रज्ञानदर्शनानि यैस्ते तथा, तथा यतिगुणेषु विविधप्रकारेषु मूलगुणोत्तरगुणरूपेषु निःसारा: सारवर्जिताः पलञ्जिप्रायगुणधान्या इत्यर्थः, तथा तैरेव यतिगुणैः शून्यकाः सर्वथा अभावाद्ये ते तथेति पदत्रयस्य कर्मधारयोऽतस्तेषां विराधितचारित्रज्ञानदर्शनयतिगुणविविधप्रकारनिःसारशून्यकानाम्, किमत आह- 20 संसारे संसृतौ अपारदुःखा अनन्तक्लेशा ये दुर्गतिषु नारक-तिर्यक्-कुमानुषकुदेवत्वरूपासु भवा भवग्रहणानि तेषां या विविधाः परम्परा: पारम्पर्याणि तासां ये प्रपञ्चास्ते संसारापारदुःखदुर्गतिभवविविधपरम्पराप्रपञ्चाः, आख्यायन्ते इति पूर्वेण योगः, तथा धीराणां च महासत्त्वानाम्, किंभूतानाम् ? - जितं परीषहकषायसैन्यं यैस्ते तथा, धृते: मनःस्वास्थ्यस्य धनिका: स्वामिनो धृतिधनिकाः, 25 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तथा संयमे उत्साहो वीर्यं निश्चित: अवश्यंभावी येषां ते संयमोत्साहनिश्चिताः, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, अतस्तेषां जितपरीषहकषायसैन्यधृतिधनिकसंयमोत्साहनिश्चितानाम्, तथा आराधिता ज्ञानदर्शनचारित्रयोगा यैस्ते तथा, निःशल्यो मिथ्यादर्शनादिरहितः शुद्धश्च अतीचारवियुक्तो यः सिद्धालयस्य सिद्धेर्मार्गस्तस्या5 ऽभिमुखा ये ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, अतस्तेषामाराधितज्ञानदर्शनचारित्रयोगनिःशल्यशुद्धसिद्धालयमार्गाभिमुखानाम्, किमत आह– सुरभवने देवतयोत्पादे यानि विमानसौख्यानि तानि सुरभवनविमानसौख्यानि अनुपमानि ज्ञाताधर्मकथास्वाख्यायन्त इति प्रक्रमः, इह च भवनशब्देन भवनपतिभवनानि न व्याख्यातान्यविराधितसंयमप्रव्रजितप्रस्तावात्, ते हि भवनपतिषु नोत्पद्यन्त इति, 10 तथा भुक्त्वा चिरं च भोगभोगान् मनोज्ञशब्दादीन् तांस्तथाविधान् दिव्यान् स्वर्गभवान् महार्हान्, महतः आत्यन्तिकान् अर्हान् प्रशस्ततया पूज्यानिति भावः, ततश्च देवलोकात् कालक्रमच्युतानां यथा च पुनर्लब्धसिद्धिमार्गाणां मनुजगताववाप्तज्ञानादीनामन्तक्रिया मोक्षो भवति तथाऽऽख्यायत इति प्रक्रमः, तथा चलितानां च कथञ्चित् कर्मवशतः परीषहादावधीरतया संयमप्रतिज्ञाया भ्रष्टानां सह 15 देवैर्मानुषाः सदेवमानुषास्तेषां सम्बन्धीनि धीरकरणे धीरत्वोत्पादने यानि कारणानि ज्ञातानि तानि सदेवमानुषधीरकरणकारणानि आख्यायन्त इति प्रक्रमः, इयमत्र भावना - यथा आर्याषाढो देवेन धीरीकृतो यथा वा मेघकुमारो भगवता, शैलकाचार्यो वा पन्थकसाधुना धीरीकृतः एवं धीरकरणकारणानि तत्राख्यायन्ते, किंभूतानि तानीत्याह- बोधनानुशासनानि, बोधनानि मार्गभ्रष्टस्य मार्गसंस्थापनानि अनुशासनानि 20 दुस्थस्य सुस्थतासम्पादनानि, अथवा बोधनम् आमन्त्रणं तत्पूर्वकान्यनुशासनानि बोधनानुशासनानि, तथा गुणदोषदर्शनानि संयमाराधनायां गुणा इतरत्र दोषा भवन्तीत्येवंदर्शनानि वाक्यान्याख्यायन्त इति योगः, तथा दृष्टान्तान् ज्ञातानि प्रत्ययांश्च बोधिकारणभूतानि वाक्यानि श्रुत्वा लोकमुनयः शुकपरिव्राजकादयो यथा च येन च प्रकारेण स्थिताः शासने जरा-मरणनाशनकरे जिनानां सम्बन्धिनीति भावः, १. धीरीकरण जे२ हे२, खंसं० ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४१] ज्ञाताधर्मकथावर्णनम् । २२९ तथाऽऽख्यायन्त इति योगः, तथा आराहितसंजम त्ति एत एव लौकिकमुनयः संयमवलिताश्च जिनप्रवचनं प्रपन्नाः पुनः परिपालितसंयमाश्च सुरलोकं गत्वा चैते सुरलोकप्रतिनिवृत्ता उपयन्ति यथा शाश्वतं सदाभाविनं शिवम् अबाधकं सर्वदुःखमोक्षं निर्वाणमित्यर्थः, एते चोक्तलक्षणाः अन्ये च एवमादिअत्थ त्ति एवमादय आदिशब्दस्य प्रकारार्थत्वादेवंप्रकारा अर्थाः पदार्थाः, वित्थरेण य ति 5 विस्तरेण चशब्दात् क्वचित् केचित् संक्षेपेण आख्यायन्त इति क्रियायोगः । नायाधम्मकहासु णमित्यादि कण्ठ्यमा निगमनात्, नवरं एकूणतीसमज्झयण त्ति प्रथमे श्रुतस्कन्धे एकोनविंशतिर्द्वितीये च दशेति । तथा दस धम्मकहाणं वग्गा इत्यादौ भावने यम्- इहै कोनविंशतिर्शाताध्ययनानि दार्शन्तिकार्थज्ञापनलक्षणज्ञातप्रतिपादकत्वात्तानि प्रथमश्रुतस्कन्धे, द्वितीये 10 त्वहिंसादिलक्षणधर्मस्य कथा धर्मकथा आख्यानकानीत्युक्तं भवति, तासां च दश वर्गाः, वर्ग इति समूहः, ततश्चार्थाधिकारसमूहात्मकान्यध्ययनान्येव दश वर्गा द्रष्टव्याः, तंत्र ज्ञातेष्वादिमानि दश ज्ञातानि ज्ञातान्येव, न तेष्वाख्यायिकादिसम्भवः, शेषाणि नव ज्ञातानि, तेषु पुनरेकै कस्मिन् पञ्च पञ्च चत्वारिंशदधिकानि आख्यायिकाशतानि, तत्राप्येकैकस्यामाख्यायिकायां पञ्च पञ्चोपाख्यायिकाशतानि, 15 तत्राप्येकैकस्यामुपाख्यायिकायां पञ्च पञ्चाख्यायिकोपाख्यायिकाशतानि, एवमेतानि संपिण्डितानि किं सञ्जातम् ? इगवीसं कोडिसयं लक्खा पण्णासमेव बोद्धव्वा । (९ x ५४० x ५०० x ५०० =) १२१५०००००० एवं ठिए समाणे अहिगयसुत्तस्स पत्थावो ॥ [नन्दी० हारि० ] तद्यथा- दस धम्मकहाणं वग्गा, तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच 20 १. "ख्यायत जे१ ॥ २. एकूणवीस खं० । अत्रेदमवधेयम्- समवायाङ्गसूत्रस्य मूलादर्शेषु एकूणवीस' इति पाठ उपलभ्यते, खं०अटी० हस्तलिखितादर्शऽपि एकूणवीस इति पाठ उपलभ्यते, अन्येषु तु अटी०हस्तलिखितादर्शेषु एकूणतीस' इति पाठ उपलभ्यते । नन्दीसूत्रेऽपि एकूणवीसं इति पाठो दृश्यते, नन्दीवृत्तिकृद्भिरपि तथैव व्याख्यातम्। तथापि अटी०मध्ये 'प्रथमे श्रुतस्कन्धे एकोनविंशतिर्द्वितीये च दश' इति व्याख्यादर्शनात् एकूणतीस इति पाठस्यापि संगतिः कर्तुं शक्यत एवात्र इति ध्येयम् ।। ३. नन्दीसूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तावीदृशमेव वर्णनमुपलभ्यते, जिनदासगणिमहत्तरविरचितायां चूर्णी तु अन्यथा वर्णनं दृश्यते । विस्तरार्थिभिः परिशिष्टे टिप्पने द्रष्टव्यम् ॥ | Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अक्खाइयासयाई, एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंचउवक्खाइयासयाई, एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइउवक्खाइयासयाई ति, एवमेतानि सम्पिण्डितानि किं संजातम् ? पणुवीसं कोडिसयं (१२५०००००००) एत्थ य समलक्खणाइया जम्हा । नवनाययसंबद्धा अक्खाइयमाइया तेणं ॥ ते सोहिजंति फुडं इमाउ रासीउ वेगलाणं तु । पुणरुत्तवज्जियाणं पमाणमेत्थं विणिद्दिढें ॥ [नन्दी० हारि०] शोधिते चैतस्मिन् सति अर्द्धचतुर्था एव कथानककोट्यो भवन्तीति, अत एवाहएवामेव सपुव्वावरेणं ति भणितप्रकारेण गुणन-शोधने कृते सतीत्युक्तं भवति, 10 अद्भुट्टाओ अक्खाइयाकोडीओ भवंतीति मक्खायाओ त्ति आख्यायिकाः कथानकानि एता एवमेतत्संख्या भवन्तीति कृत्वा आख्याता भगवता महावीरेणेति। तथा संख्यातानि पदसयसहस्साणीति किल पञ्च लक्षाणि षट्सप्ततिश्च सहस्राणि पदाग्रेण, अथवा सूत्रालापकपदाग्रेण संख्यातान्येव पदशतसहस्राणि भवन्तीत्येवं सर्वत्र भावयितव्यमिति ॥६॥ 15 [सू० १४२] से किं तं उवासगदसातो ? उवासगदसासु णं उवासयाणं णगराइं, उज्जाणाई, चेतियाइं, वणसंडा, रायाणो, अम्मापितरो, समोसरणाइं, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइया पारलोइया इड्डिविसेसा, उवासयाणं च सीलव्वयवेरमणगुणपच्चक्खाणपोसहोववासपडिवजणतातो, सुयपरिग्गहा, तवोवहाणाई, पडिमातो, उवसग्गा, संलेहणातो, भत्तपच्चक्खाणाई, 20 पाओवगमणाई, देवलोगगमणाई, सुकुलपच्चायाती, पुण बोहिलाभो, अंतकिरियातो य आघविजंति । उवासगदसासु णं उवासयाणं रिद्धिविसेसा, परिसा, वित्थरधम्मसवणाणि, बोहिलाभ, अभिगमणं, सम्मत्तविसुद्धता, थिरत्तं, मूलगुणुत्तरगुणातियारा, ठितिविसेसा य, बहुविसेसा पडिमाऽभिग्गहगहणपालणा, उवसग्गाहियासणा, णिरुवसग्गा य, तवा य चित्ता, सीलव्वयगुण१. तो हे१ विना ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४२] उपासकदशावर्णनम् । २३१ वेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासा, अपच्छिममारणंतियायसंलेहणाझोसणाहिं अप्पाणं जह य भावइत्ता बहूणि भत्ताणि अणसणाए य छेयइत्ता उववण्णा कप्पवरविमाणुत्तमेसु जह अणुभवंति सुरवरविमाणवरपोंडरीएसु सोक्खाई अणोवमाई कमेण भोत्तूण उत्तमाइं, तओ आउक्खएणं चुया समाणा जह जिणमयम्मि बोहिं, लळूण य संजमुत्तमं तमरयोघविप्पमुक्का उवेंति जह 5 अक्खयं सव्वदुक्खमोक्खं, एते अन्ने य एवमादी [अत्था वित्थरेण य] । उवासयदसासु णं परित्ता वायणा, संखेजा अणु[ओगदारा] जाव संखेजातो संगहणीतो । से णं अंगट्ठयाए सत्तमे अंगे, एगे सुतक्खंधे, दस अज्झयणा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ते । संखेजाइं अक्खराइं जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविजति। 10 सेत्तं उवासगदसातो । [टी०] से किं तमित्यादि, अथ कास्ता उपासकदशाः ?, उपासकाः श्रावकास्तद्गतक्रियाकलापप्रतिबद्धा दशा: दशाध्ययनोपलक्षिता उपासकदशाः, तथा चाह- उपासकदसासु णं उपासकानां नगराणि उद्यानानि चैत्यानि वनषण्डा राजानः अम्बा-पितरौ समवसरणानि धर्माचार्या धर्मकथा ऐहलौकिक- 15 पारलौकिका ऋद्धिविशेषा उपासकानां च शीलव्रतविरमणगुणप्रत्याख्यानपौषधोपवासप्रतिपदनताः, तत्र शीलव्रतानि अणुव्रतानि, विरमणानि रागादिविरतयः, गुणा गुणव्रतानि, प्रत्याख्यानानि नमस्कारसहितादीनि, पोषधः अष्टम्यादिपर्वदिनं तत्रोपवसनमाहार-शरीरसत्कारादित्यागः पोषधोपवासः, ततो द्वन्द्वे सत्येतेषां प्रतिपदनताः प्रतिपत्तय इति विग्रहः, श्रुतपरिग्रहास्तपउपधानानि 20 च प्रतीतानि, पडिमाओ त्ति एकादश उपासकप्रतिमाः कायोत्सर्गा वा, उपसर्गा देवादिकृतोपद्रवाः, संलेखना भक्त-पानप्रत्याख्यानानि, पादपोपगमनानि देवलोकगमनानि सुकुलप्रत्यायाति: पुनर्बोधिलाभोऽन्तक्रिया चाख्यायन्ते पूर्वोक्तमेव, इतो विशेषत आह- उवासगेत्यादि, तत्र ऋद्धिविशेषा १. णाहिं ज्झोसणाहिं खं० जे१ ॥ २. पोष' हे१ ॥ ३. प्रतिपादनताः खं० । प्रतिपदनं जे२ ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अनेककोटीसंख्यद्रव्यादिसम्पद्विशेषाः, तथा परिषदः परिवारविशेषा यथा माता-पितृपुत्रादिका अभ्यन्तरपरिषत् दासी-दास-मित्रादिका बाह्यपरिषदिति, विस्तरधर्मश्रवणानि महावीरसन्निधौ, ततो बोधिलाभोऽभिगमः सम्यक्त्वस्य विशुद्धता, स्थिरत्वं सम्यक्त्वशुद्धरेव, मूलगुणोत्तरगुणा अणुव्रतादयः, अतिचारास्तेषामेव बन्ध-वधादितः 5 खण्डनानि, स्थितिविशेषाश्च उपासकपर्यायस्य कालमानभेदाः, बहुविशेषाः प्रतिमाः प्रभूतभेदाः सम्यग्दर्शनादिप्रतिमाः, अभिग्रहग्रहणानि, तेषामेव च पालनानि, उपसर्गाधिसहनानि, निरुपसर्गं च उपसर्गाभावश्चेत्यर्थः, तपांसि च चित्राणि, शीलवतादयोऽनन्तरोक्तरूपाः, अपश्चिमाः पश्चात्कालभाविन्यः, अकारस्त्वमङ्गलपरिहारार्थः, मरणरूपे अन्ते भवा मारणान्तिक्यः, आत्मनः शरीरस्य 10 जीवस्य च संलेखनाः तपसा रागादिजयेन च कृशीकरणानि आत्मसंलेखनाः, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, तासाम्, झोसण त्ति जोषणा: सेवनाः करणानीत्यर्थः, ताभिरपश्चिममारणान्तिकात्मसंलेखनाजोषणाभिरात्मानं यथा च भावयित्वा, बहूनि भक्तानि अनशनतया च निर्भोजनतया छेदयित्वा व्यवच्छेद्य उपपन्ना मृत्वेति गम्यते, केषु ? कल्पवरेषु यानि विमानानि उत्तमानि तेषु, यथानुभवन्ति 15 सुरवरविमानानि वरपुण्डरीकाणीव वरपुण्डरीकाणि यानि तेषु, कानि? सौख्यान्यनुपमानानि क्रमेण भुक्त्वोत्तमानि, ततः आयुःक्षयेण च्युताः सन्तो यथा जिनमते बोधिं लब्ध्वा इति शेषः, लब्ध्वा च संयमोत्तमं प्रधानं संयम तमोरजओघविप्रमुक्ता अज्ञानकर्मप्रवाहविमुक्ता उपयन्ति यथा अक्षयम् अपुनरावृत्तिकं सर्वदुःखमोक्षं कर्मक्षयमित्यर्थः, तथोपासकदशास्वाख्यायत इति प्रक्रमः, एते चान्ये 20 चेत्यादि प्राग्वत् । नवरं संखेजाइं पयसयसहस्साई पदग्गेणं ति किलैकादश लक्षाणि द्विपञ्चाशच्च सहस्राणि पदानामिति ॥७॥ [सू० १४३] से किं तं अंतगडदसातो ? अंतगडदसासु णं अंतगडाणं णगराइं, उजाणाई, चेतियाई, वणसंडा, रायाणो, अम्मापितरो, समोसरणाई धम्मायरिया, धम्मकहातो, इहलोइया पारलोइया इविविसेसा, भोगपरिच्चाया, १. तपांसि च रित्राणि जे१ खं० । तपांसि च विचित्राणि हे२ ॥ २. “रपश्चिमामारणा खं० जे१,२॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४३] अन्तकृतदशावर्णनम् । २३३ पव्वज्जातो, सुतपरिग्गहा, तवोवहाणाई, पडिमातो बहुविहातो, खमा, अजवं, मद्दवं च, सोयं च सच्चसहियं, सत्तरसविहो य संजमो, उत्तमं च बंभं, आकिंचणिया, तवो, चियातो, किरियातो, समितिगुत्तीओ चेव, तह अप्पमायजोगो, सज्झायज्झाणाण य उत्तमाणं दोण्हं पि लक्खणाई, पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउव्विहकम्मक्खयम्मि जह केवलस्स लंभो, 5 परियाओ जत्तिओ य जह पालिओ मुणीहिं, पातोवगतो य जो जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता अंतगडो मुणिवरो तमरयोघविप्पमुक्को, मोक्खसुहमणुत्तरं च पत्ता, एते अन्ने य एवमादी अत्था परू[विजंति जाव से गं अंगट्ठयाए अट्ठमे अंगे, एगे सुतक्खंधे, दस अज्झयणा, सत्त वग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेजाइं पयसतसहस्साइं पयग्गेणं। 10 संखेजा अक्खरा जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविजति । सेत्तं अंतगडदसातो । [टी०] से किं तमित्यादि, अथ कास्ता अन्तकृतदशा: ? तत्रान्तो विनाशः, स च कर्मणस्तत्फलस्य वा संसारस्य कृतो यैस्ते अन्तकृताः, ते च तीर्थकरादयः, तेषां दशा: प्रथमवर्गे दशाध्ययनानीति तत्संख्यया अन्तकृतदशाः, तथा चाह-अंतगडदसासु 15 णमित्यादि कण्ठ्यम्, नवरं नगरादीनि चतुर्दश पदानि षष्ठाङ्गवर्णकाभिहितान्येव, तथा पडिमाओ त्ति द्वादश भिक्षुप्रतिमा मासिक्यादयो बहुविधाः, तथा क्षमा आर्जवं मार्दवं च शौचं च सत्यसहितम्, तत्र शौचं परद्रव्यापहारमालिन्याभावलक्षणम्, सप्तदशविधश्च संयम उत्तमं च ब्रह्म मैथुनविरतिरूपम्, आकिंचणिय त्ति आकिञ्चन्यम्, तपः, त्याग इति आगमोक्तं दानम्, समितयो गुप्तयश्चैव, तथा अप्रमादयोगः, 20 स्वाध्यायध्यानयोश्च उत्तमयोर्द्वयोरपि लक्षणानि स्वरूपाणि, तत्र स्वाध्यायस्य लक्षणं सज्झाएण पसत्थं झाण [उपदेशमाला० गा० ३३८] मित्यादि, ध्यानलक्षणं यथा- अंतोमुहत्तमेत्तं १. क्षमा मार्दवं आर्जवं च खं० ॥ २. “सज्झाएण पसत्थं झाणं जाणइ स सव्वपरमत्थं । सज्झाए वढ्तो खणे खणे जाइ वेरग्गं ॥३३८॥” इति संपूर्णा गाथा ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि [ध्यानश० ३] इत्यादि, आख्यायन्त इति सर्वत्र योगः, तथा प्राप्तानां च संयमोत्तमं सर्वविरतिं जितपरीषहाणां चतुर्विधकर्मक्षये घातिक्षये सति यथा केवलस्य ज्ञानादेर्लाभः पर्यायः प्रव्रज्यालक्षणो यावांश्च यावद्वर्षादिप्रमाणो यथा येन तपोविशेषाश्रयणादिना प्रकारेण पालितो मुनिभिः पादपोपगतश्च 5 पादपोपगमाभिधानमनशनं प्रतिपन्नो यो मुनिर्यत्र शत्रुञ्जयपर्वतादौ यावन्ति च भक्तानि भोजनानि छेदयित्वा, अनशनिनां हि प्रतिदिनं भक्तद्वयच्छेदो भवति, अन्तकृतो मुनिवरो जात इति शेषः, तमोरजओघविप्रमुक्तः, एवं च सर्वेऽपि क्षेत्रकालादिविशेषिता मुनयो मोक्षसुखमनुत्तरं च प्राप्ता आख्यायन्त इति क्रियायोगः । एते अन्ये चेत्यादि प्राग्वत् । नवरं दस अज्झयण त्ति प्रथमवर्गापेक्षयैव घटन्ते, 10 नन्द्यां तथैव व्याख्यातत्वात्, यच्चेह पठ्यते सत्त वग्ग त्ति तत् प्रथमवर्गादन्यवर्गापेक्षया, यतोऽत्र सर्वेऽप्यष्ट वर्गाः, नन्द्यामपि तथा पठितत्वात्, तद्वृत्तिश्चेयम्- अट्ठ वग्ग त्ति अत्र वर्गः समूहः, स चान्तकृतानामध्ययनानां वा, सर्वाणि चैकवर्गगतानि युगपदुद्दिश्यन्ते, अतो भणितम् ‘अट्ठ उद्देसणकाला' इत्यादि [नन्दी० हारि०], इह च दश उद्देशनकाला अधीयन्ते इति नास्याभिप्रायमवगच्छामः । तथा संख्यातानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेणेति, 15 तानि च किल त्रयोविंशतिर्लक्षाणि चत्वारि च सहस्राणीति ॥८॥ __ [सू० १४४] से किं तं अणुत्तरोववातियदसातो ? अणुत्तरोववातियदसासु णं अणुत्तरोववातियाणं णगराइं, उजाणाई, चेतियाई, वणसंडा, रायाणो, अम्मापितरो, समोसरणाई, धम्मायरिया, धम्मकहातो, इहलोइया पारलोइया १. “अंतोमुहुत्तमेत्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥३॥ व्या०इह मुहूर्तः सप्तसप्ततिलवप्रमाणः कालविशेषो भण्यते । अन्तर्मध्यकरणे, ततश्चान्तर्मुहूर्तमानं कालमिति गम्यते, मात्रशब्दस्तदधिककालव्यवच्छेदार्थः, ततश्च भिन्नमुहूर्तमेव कालम्, किम् ? चित्तावस्थानमिति चित्तस्य मनसः अवस्थानं चित्तावस्थानम्, अवस्थिति: अवस्थानम्, निष्प्रकम्पतया वृत्तिरित्यर्थः, क्व ? एकवस्तुनि, एकम् अद्वितीयं वसन्त्यस्मिन् गुणपर्याया इति वस्तु चेतनादि, एकं च तद्वस्तु एकवस्तु, तस्मिन् २ छद्मस्थानां ध्यानमिति, तत्र छादयतीति छद्म पिधानं तच्च ज्ञानादीनां गुणानामावारकत्वाज्ज्ञानावरणादिलक्षणं घातिकर्म, छद्मनि स्थिताश्छद्मस्था अकेवलिन इत्यर्थः, तेषां छद्मस्थानाम्, ध्यानं प्राग्वत् ॥३॥” इति ध्यानशतके हारिभत्र्यां वृत्तौ ॥ २."से किं तं अंतगडदसाओ..." [सू० ९२] इति नन्दीसूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तावेतदस्ति । नन्दीसूत्रस्य जिनदासगणिमहत्तरविरचितायां चूर्णावपि स्तोकं वर्णनमुपलभ्यते । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ [सू० १४४] अनुत्तरोपपातिकदशावर्णनम् । इडिविसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वजाओ, सुतपरिग्गहा, तवोवहाणाइं, पडिमातो, संलेहणातो, भत्तपच्चक्खाणाई, पाओवगमणाई, अणुत्तरोववत्ति, सुकुलपच्चायाती, पुण बोहिलाभो, अंतकिरिया तो] य आघविजंति । अणुत्तरोववातियदसासु णं तित्थकरसमोसरणाई परममंगल्लजगहिताणि, जिणातिसेसा य बहुविसेसा, जिणसीसाणं चेव समणगणपवरगंधहत्थीणं 5 थिरजसाणं परिसहसेण्णरिवुबलपमद्दणाणं तवदित्तचरित्तणाणसम्मत्तसारविविहप्पगारवित्थरपसत्थगुणसंजुयाणं अणगारमहरिसीणं अणगारगुणाण वण्णओ उत्तमवरतवविसिट्ठणाणजोगजुत्ताणं, जह य जगहियं भगवओ, जारिसा य रिद्धिविसेसा देवासुरमाणुसाण । परिसाणं पाउब्भावा य जिणसमीवं, जह य उवासंति जिणवरं, जह य परिकहें(हे)ति धम्मं 10 लोगगुरू अमर-नरा-ऽसुरगणाणं, सोऊण य तस्स भासियं अवसेसकम्मा विसयविरत्ता नरा जहा अब्भुवेंति धम्मं ओरालं संजमं तवं चावि बहुविहप्पगारं जह बहूणि वासाणि अणुचरित्ता आराहियनाणदंसणचरित्तजोगा जिणवयणमणुगयमहियभासिता जिणवराण हिययेणमणुणेत्ता जे य जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता लळूण य समाहिमुत्तमं झाणजोगजुत्ता उववन्ना 15 मुणिवरुत्तमा जह अणुत्तरेसु, पावंति जह अणुत्तरं तत्थ विसयसोक्खं तत्तो य चुया कमेण काहिंति संजया जह य अंतकिरियं, एते अन्ने य एवमादित्थ जाव परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा, [जाव] संखेजातो संगहणीतो। से गं अंगट्ठयाए नवमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, तिन्नि वग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेजाइं पयसयसहस्साइं पयग्गेणं 20 पण्णत्ते । संखेज्जाणि अक्खराणि जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविजति। सेत्तं अणुत्तरोववातियदसातो । [टी०] से किं तमित्यादि, नास्मादुत्तरो विद्यते इत्यनुत्तर उपपतनमुपपातो जन्मेत्यर्थः, अनुत्तरः प्रधानः संसारे अन्यस्य तथाविधस्याभावादपपातो येषां ते तथा, त १. वित्थार' अटी० ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एवाऽनुत्तरोपपातिकाः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा दशध्ययनोपलक्षिता अनुत्तरोपपातिकदशाः, तथा चाह- अणुत्तरोववाइयदसासु णमित्यादि, तत्रानुत्तरोपपातिकानामिति साधूनाम्, नगरादीनि द्वाविंशतिः पदानि ज्ञाताधर्मकथावर्णकोक्तानि तथा । एतेषामेव च प्रपञ्च रचयन्नाह– अनुत्तरोपपातिकदशासु तीर्थकरसमवसरणानि, 5 किम्भूतानि ? परममङ्गल्यत्वेन जगद्धितानि परममङ्गल्यजगद्धितानि, जिनातिशेषाश्च बहुविशेषा देहं विमलसुयंध[ ]मित्यादयश्चतुस्त्रिंशदधिकतरा वा, तथा जिनशिष्याणां चैव गणधरादीनाम्, किम्भूतानामत आह-श्रमणगणप्रवरगन्धहस्तिनां श्रमणोत्तमानामित्यर्थः, तथा स्थिरयशसाम्, तथा परीषहसैन्यमेव परीषहवृन्दमेव रिपुबलं परचक्रं तत्प्रमईनानाम्, तथा दववद् दावाग्निरिव दीप्तानि उज्ज्वलानि, 10 पाठान्तरेण तपोदीप्तानि, यानि चरित्र-ज्ञान-सम्यक्त्वानि तैः सारा: अफल्गवो विविधप्रकारविस्तारा अनेकविधप्रपञ्चाः प्रशस्ताश्च ये क्षमादयो गुणास्तैः संयुतानाम्, क्वचित्तु गुणध्वजानामिति पाठः, तथा अनगाराश्च ते महर्षयश्चेत्यनगारमहर्षयस्तेषामनगारगुणानां वर्णकः श्लाघा आख्यायत इति योगः, पुनः किम्भूतानां जिनशिष्याणाम् ? उत्तमाश्च ते जात्यादिभिर्वरतपसश्च ते विशिष्टज्ञानयोगयुक्ताश्चेत्यत15 स्तेषामुत्तमवरतपोविशिष्टज्ञानयोगयुक्तानाम्, किञ्चापरम् ? यथा च जगद्धितं भगवत इत्यत्र जिनस्य शासनमिति गम्यते, यादृशाश्च ऋद्धिविशेषा देवासुरमानुषाणां रत्नोज्ज्वललक्षयोजनमानविमानरचनं सामानिकाद्यनेकदेवदेवीकोटिसमवायनं मणिखण्डमण्डितदण्डपटु प्रचलत्पताकिकाशतोपशोभितमहाध्वजपुरःप्रवर्तनं विविधातोद्यनादगगनाभोगपूरणं चैवमादिलक्षणाः प्रतिकल्पितगन्धसिन्धुरस्कन्धारोहणं 20 चतुरङ्गसैन्यपरिवारणं छत्र-चामर-महाध्वजादिमहाराजचिह्नप्रकाशनं च एवमादयश्च सम्पद्विशेषाः समवसरणगमनप्रवृत्तानां वैमानिक-ज्योतिष्काणां भवनपति-व्यन्तराणां राजादिमनुजानां च, अथवा अनुत्तरोपपातिकसाधूनाम् ऋद्धिविशेषा देवादिसम्बधिनस्तादृशा आख्यायन्त इति क्रिया, तथा पर्षदां संजयवेमाणित्थी संजयि पुव्वेण पविसिउं वीर[ ]मित्यादिनोक्तस्वरूपाणां प्रादुर्भावाश्च आगमनानि, क्व ? १. क्तानि यथा एतेषा' जे२ हे१,२ ॥ २. पवसिउं खं० जे१,२ ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ [सू० १४५] अनुत्तरोपपातिकदशावर्णनम् । जिणसमीवं ति जिनसमीपे, यथा च येन च प्रकारेण पञ्चविधाभिगमादिना उपासते सेवन्ते राजादयो जिनवरं तथाऽऽख्यायत इति योगः, यथा च परिकथयति धर्म लोकगुरुरिति जिनवरोऽमर-नरा-ऽसुरगणानाम्, श्रुत्वा च तस्येति जिनवरस्य भाषितम्, अवशेषाणि क्षीणप्रायाणि कर्माणि येषां ते तथा, ते च ते विषयविरक्ताश्चेति अवशेषकर्मविषयविरक्ताः, के ? नराः, किम् ? यथा अभ्युपयन्ति धर्ममुदारम्, 5 किंस्वरूपमत आह-संयमं तपश्चापि, किम्भूतमित्याह- बहुविधप्रकारम्, तथा यथा बहूनि वर्षाणि अणुचरित्त त्ति अनुचर्य आसेव्य संयमं तपश्चेति वर्त्तते, तत आराधितज्ञान-दर्शन-चारित्रयोगाः, तथा जिणवयणमणुगयमहियभासिय त्ति जिनवचनम् आचारादि अनुगतं सम्बद्धं नार्दवितर्दमित्यर्थः महितं पूजितमधिकं वा भाषितं यैरध्यापनादिना ते तथा, पाठान्तरे जिनवचनमनुगत्या आनुकूल्येन सुष्ठ 10 भाषितं यैस्ते जिनवचनानुगतिसुभाषिताः, तथा जिणवराण हियएणमणुणेत्त त्ति, इह षष्ठी द्वितीयार्थे, तेन जिनवरान् हृदयेन मनसा अनुनीय प्राप्य ध्यात्वेति यावत्, ये च यत्र यावन्ति च भक्तानि छेदयित्वा लब्ध्वा च समाधिमुत्तमं ध्यानयोगयुक्ताः उपपन्ना मुनिवरोत्तमा यथा अनुत्तरेषु तथा आख्यायत इति प्रक्रमः, तथा प्राप्नुवन्ति यथाऽनुत्तरं तत्थ त्ति अनुत्तरविमानेषु विषयसुखं तथाऽऽख्यायते इति योगः, तत्तो 15 य त्ति अनुत्तरविमानेभ्यश्च्युताः क्रमेण करिष्यन्ति संयता यथा चान्तक्रियां ते तथाऽऽख्यायन्ते अनुत्तरोपपातिकदशास्विति प्रकृतम् ।। ___ एते चान्ये चेत्यादि पूर्ववत्, नवरं दस अज्झयणा तिन्नि वग्ग त्ति, इहाध्ययनसमूहो वर्गः, वर्गे वर्गे दशाध्ययनानि, वर्गश्च युगपदेवोद्दिश्यते इत्यतस्त्रय एवोद्देशनकाला भवन्तीति । एवमेव च नन्दावभिधीयन्ते, इह तु दृश्यन्ते दशेत्यत्राभिप्रायो न ज्ञायत 20 इति । तथा संख्यातानि पदसयसहस्साइं पदग्गेणं ति किल षट्चत्वारिंशल्लक्षाण्यष्टौ च सहस्राणि ॥९॥ [सू० १४५] से किं तं पण्हावागरणाणि ? पण्हावागरणेसु अट्ठत्तरं १. “यंत जे१ खं० ॥ २. “पहाणादिकोउकम्म, भूतीकम्मं सविजगा भूती । विजारहिते लहुगो चउवीसा तिण्णि पसिणसया ॥४२८९॥ व्या० णिंदुभादियाण मसाणचच्चरादिसु ण्हवणं कजति, रक्खाणिमित्तं भूती, Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पसिणसतं, अडत्तरं अपसिणसतं, अडत्तरं पसिणापसिणसतं, विज्जातिसया, नागसुपण्णेहिं सद्धिं दिव्वा संवाया आघविज्जति । पण्हावागरणदसासु णं ससमय-परसमयपण्णवयपत्तेयबुद्धविविधत्थभासाभासियाणं अतिसयगुणउवसमणाण-प्पगारआयरियभासियाणं वित्थरेणं थिरमहेसीहिं विविध5 वित्थार (त्थ ? ) भासियाणं च जगहिताणं अद्दागंगुट्ठबाहुअसिमणिखोमआइच्चमातियाणं विविहमहापसिणविज्जामणपसिणविज्जाद वयपयोगपाहण्णगुणप्पगासियाणं सब्भूयबिगुणप्पभावनरगणमतिविम्हयकरीणं अतिसयमतीतकालसमये दमतित्थकरुत्तमस्स थितिकरणकारणाणं दुरभिगमदुरवगाहस्स सव्वसव्वण्णुसम्मतस्साऽबुधजणविबोहकरस्स पच्चक्खयप्पच्चय10 करीणं पहाणं विविहगुणमहत्था जिणवरप्पणीया आघविनंति । पावागरणेसु णं परित्ता वायणा, संखेजा जाव संखेजातो संगहणीतो । से णं अंगट्ठताए दसमे अंगे, एगे सुत्तक्खंधे, [ पंणतालीसं अज्झयणा ] पणतालीसं उद्देसणकाला, पणतालीसं समुद्देसणकाला, संखेजाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पण्णत्ते, संखेज्जा अक्खरा, अनंता गमा जाव 15 चरणकरणपरूवणया आघविज्जति । सेत्तं पण्हावागरणाणि । " [ टी०] से किं तमित्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, तन्निर्वचनं व्याकरणम्, प्रश्नानां च व्याकरणानां च योगात् प्रश्नव्याकरणानि तेषु अट्टुत्तरं पसिणसयं इत्यादि, तत्राङ्गुष्ठ-बाहुप्रश्नादिका मन्त्रविद्याः प्रश्नाः, याः पुनर्विधिना जप्यमाना अपृष्टा एव शुभाशुभं कथयन्ति एताः अप्रश्नाः, तथाऽङ्गुष्ठादिप्रभावं तदभावं च प्रतीत्य या 20 विद्याः शुभाशुभं कथयन्ति ताः प्रश्नाप्रश्नाः । विज्जाइसय त्ति तथा अन्ये विद्यातिशयाः स्तम्भ - स्तोभ-वशीकरण- विद्वेषीकरणोच्चाटनादयः नागसुपर्णैश्च सह २३८ विज्जाभिमंतीए भूतीए चउलहुं । इयराए मासलहुं । पसिणा एते पण्हवाकरणेसु पुव्वं आसी ||४२८९ ॥ पसिणापसिणं सुविणे विज्जासिद्धं तु साहति परस्स । अहवा आइंखिणिया घंटियसिद्धं परिकहेति ॥४२९०॥ व्या० सुविणयविज्जाकहियं कधिंतस्स पासिणापसिणं भवति । अहवा विज्जाभिमंतिया घंटिया कण्णमूले चालिज्जति, तत्थ देवता कधिति, कहेंतस्स पसिणापसिणं भवति, स एव इंखिणी भण्णति ॥ ४२९० || ” इति निशीथभाष्यचूर्णौ । १. वित्थारेण वीरमहे जे२ ॥ २ नन्दीसूत्रे पाठोऽयं वर्तते ॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४५] प्रश्नव्याकरणवर्णनम् । २३९ भवनपतिविशेषैरुपलक्षणत्वाद् यक्षादिभिश्च सह ‘साधकस्य' इति गम्यते, दिव्या: तात्त्विकाः संवादाः शुभाशुभगताः संलापाः आख्यायन्ते । एतदेव प्रायः प्रपञ्चयन्नाहपण्हावागरणदसेत्यादि, स्वसमय-परसमयप्रज्ञापका ये प्रत्येकबुद्धास्तैः करकण्ड्वादिसदृशैर्विविधार्था यका भाषा गम्भीरेत्यर्थः तया भाषिताः गदिताः स्वसमयपरसमयप्रज्ञापकप्रत्येकबुद्धविविधार्थभाषाभाषिताः, तासाम्, किम् ? - 5 आदर्शाङ्गुष्ठादीनां सम्बन्धिनीनां प्रश्नानां विविधगुणमहार्थाः प्रश्नव्याकरणदशास्वाख्यायन्त इति योगः, पुनः किम्भूतानां प्रश्नानाम् ? अइसयगुणउवसमनाणप्पगारआयरियभासियाणं ति अतिशयाश्च आमर्पोषध्यादयो गुणाश्च ज्ञानादय उपशमश्च स्वपरभेदः, एते नानाप्रकारा येषां ते तथा, ते च ते आचार्याश्च तैर्भाषिता यास्तास्तथा, तासाम्, कथं भाषितानामित्याह- वित्थरेणं ति विस्तरेण महता वचनसन्दर्भेण, तथा 10 स्थिरमहर्षिभिः, पाठान्तरे वीरमहर्षिभिः विविहवित्थरभासियाणं च त्ति विविधविस्तरेण भाषितानाम्, चकारस्तृतीयप्रणायकभेदसमुच्चयार्थः, पुनः कथंभूतानां प्रश्नानाम् ? जगहियाणं ति जगद्धितानां पुरुषार्थोपयोगित्वात्, किंसम्बन्धिनीनामित्याहअद्दाग त्ति आदर्शश्चाङ्गुष्ठश्च बाहू च असिश्च मणिश्च क्षौमं च वस्त्रम् आदित्यश्चेति द्वन्द्वस्ते आदिर्येषां कुड्य-शङ्ख-घटादीनां ते तथा, तेषां 15 सम्बन्धिनीनाम्, प्रश्नविद्याभिरादर्शकादीनामावेशनात्, किंभूतानां प्रश्नानामत आह- विविधमहाप्रश्नविद्याश्च वाचैव प्रश्ने सत्युत्तरदायिन्यः मनःप्रश्नविद्याश्च मनःप्रनितार्थोत्तरदायिन्यः, तासां दैवतानि तदधिष्ठातृदेवताः, तेषां प्रयोगप्राधान्येन तद्व्यापारप्रधानतया गुणं विविधार्थसंवादनलक्षणं प्रकाशयन्ति लोके व्यञ्जयन्ति यास्ता विविधमहाप्रश्नविद्या-मनःप्रश्नविद्या-दैवतप्रयोगप्राधान्यगुणप्रकाशिकाः, 20 तासाम्, पुनः किंभूतानां प्रश्नानाम् ? सद्भूतेन तात्त्विकेन द्विगुणेन उपलक्षणत्वाल्लौकिकप्रश्नविद्याप्रभावापेक्षया बहुगुणेन, पाठान्तरे विविधगुणेन, प्रभावेन माहात्म्येन नरगणमते: मनुजसमुदयबुद्धेर्विस्मयकर्यः चमत्कारहेतवो याः प्रश्नास्ताः १. पहावागरणमित्यादि खं० जे१,२ ॥ २. वित्थारेणं हे१ विना ॥ ३. वित्थार' हे२ विना ॥ ४. प्रत्युत्तर जे२ ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सद्भूतद्विगुणप्रभावनरगणमतिविस्मयकर्यः, तासाम्, पुनः किंभूतानां तासाम् ? अतिसयमतीतकालसमये त्ति अतिशयेन योऽतीतः कालसमयः स तथा, तत्र, अतिव्यवहिते काले इत्यर्थः, दमः शमस्तत्प्रधानः तीर्थकराणां दर्शनान्तरशास्तृणामुत्तमो यः स तथा भगवान् जिनः, तस्य दमतीर्थकरोत्तमस्य स्थितिकरणं स्थापनम् ‘आसीद् 5 अतीतकाले सातिशयज्ञानादिगुणयुक्तः सकलप्रणायकशिरःशेखरकल्पः पुरुषविशेष एवंविधप्रश्नानामन्यथानुपपत्तेः' इत्येवंरूपम्, तस्य कारणानि हेतवो यास्तास्तथा, तासाम्, पुनस्ता एव विशिनष्टि दुरभिगमं दुरवबोधं गम्भीरसूक्ष्मार्थत्वेन दुरवगाहं च दुःखाध्येयं सूत्रबहुत्वाद्यत्तस्य, सर्वेषां सर्वज्ञानां सम्मतम् इष्टं सर्वसर्वज्ञसम्मतम्, अथवा सर्वं च तत् सर्वज्ञसम्मतं चेति सर्वसर्वज्ञसम्मतं प्रवचनतत्त्वमित्यर्थः, तस्य, 10 अबुधजनविबोधनकरस्य एकान्तहितस्येति भावः, पच्चक्खयपच्चयकरीणं ति प्रत्यक्षकेण ज्ञानेन साक्षादित्यर्थो यः प्रत्ययः ‘सर्वातिशयनिधानमतीन्द्रियार्थोपदर्शनाव्यभिचारि चेदं जिनप्रवचनम्' इत्येवंरूपा प्रतिपत्तिः, अथवा प्रत्यक्षेणेवानेनार्थाः प्रतीयन्त इति प्रत्यक्षमिवेदमित्येवं प्रतीतिः प्रत्यक्षताप्रत्ययस्तत्करणशीला: प्रत्यक्षकप्रत्ययकर्यः प्रत्यक्षताप्रत्ययको वा, तासां प्रत्यक्षकप्रत्ययकरीणां 15 प्रत्यक्षताप्रत्ययकरीणां वा, कासामित्याह- प्रश्नानां प्रश्नविद्यानाम् उपलक्षणत्वादन्यासां च यासामष्टोत्तरशतान्यादौ प्रतिपादितानि, विविधगुणा बहुविधप्रभावास्ते च ते महार्थाश्च महान्तोऽभिधेयाः पदार्थाः शुभाशुभसूचनादयो विविधगुणमहार्थाः, किंभूताः ? जिनवरप्रणीताः, किमित्याह आघविजंति त्ति आख्यायन्ते, शेषं पूर्ववत्, नवरं यद्यपीहाध्ययनानां दशत्वाद् दशैवोद्देशनकाला भवन्ति तथापि वाचनान्तरापेक्षया 20 पञ्चचत्वारिंशदिति सम्भाव्यते इति पणयालीसमित्याद्यविरुद्धमिति । संखेजाणि पयसयसहस्साणि पदग्गेणं ति तानि च किल द्विनवतिर्लक्षाणि षोडश च सहस्राणीति ॥१०॥ [सू० १४६] से किं तं विवागसुते ? विवागसुए णं सुकडदुक्कडाणं कम्माणं १. काल: समय: खं० ॥ २. समसमस्तत्प्र जे२ ॥ ३. प्रत्यक्षेणैवा' जे२ ॥ ४. प्रत्यक्षकप्रत्यय' जे२ ।। ५. 'नवतिल' हे२ विना ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४६ ] विपाकश्रुतवर्णनम् । फलविवागे आघविज्जति । से समासओ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- दुहविवागे चेव सुहविवागे चेव, तत्थ णं दह दुहविवागाणि, दह सुहविवागाणि । से किं तं दुहविवागाणि ? दुहविवागेसु णं [दुहविवागाणं] णगराई, चेतियाई, उज्जाणाइं, वणसंडा, रायाणो, अम्मापितरो, समोसरणाई, धम्मायरिया, धम्मकहातो, नरग (नगर) गमणाई, संसारपवंचदुहपरंपराओ य 5 आघविज्जंति, सेत्तं दुहविवागाणि । २४१ से किं तं सुहविवागाणि ? सुहविवागेसु सुहविवागाणं णगराई जाव धम्महातो, इहलोइयपारलोइया इड्डिविसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वज्जाओ, सुयपरिग्गहा, तवोवहाणाई, पडिमातो, संलेहणातो, भत्तपच्चक्खाणाई, पाओवगमणाई, देवलोगगमणाई, सुकुलपच्चायाती, पुण बोहिलाभो, 10 अंतकिरियातो य आघविज्जंति । दुहविवागेसु णं पाणातिवाय- अलियवयण - चोरिक्ककरण- परदारमेहुणससंगताए महतिव्वकसाय - इंदिय- प्पमाय - पावप्पओय - असुहज्झवसाणसंचियाणं कम्माणं पावगाणं पावअणुभागफलविवागा णिरयगतितिरिक्खजोणिबहुविहवसण-सयपरंपरापबद्धाणं मणुयत्ते वि आगताणं जह 15 पावकम्मसेसेण पावगा होंति फलविवागा वह वसणविणास - णासकण्णोद्वंगुट्ठ-कर-चरण-नहच्छेयण - जिब्भच्छेयण- अंजण-कडग्गिदाहणगयचलणमलण-फालण-उल्लंबण-सूल - लता -लउड - लट्ठिभंजण- तउ-सीसगतत्ततेल्लकलकलअभिसिंचण-कुंभिपाग- कंपण-थिरबंधण - वेह - वज्झकत्तणपतिभयकरकरपलीवणादिदारुणाणि अणोवमाणि, 20 बहुविविहपरंपराणुबद्धा ण मुच्वंति पावकम्मवल्लीए, अवेयइत्ता हु णत्थि मोक्खो, तवेण धितिधणियबद्धकच्छेण सोहणं तस्स वा वि होज्जा । दुख तो य सुभविवागेसु सील- संजम नियम-गुण- तवोवहाणेसु साहुसु १. जेमू१ - हे २ - अटी० मध्येऽत्र 'नगरगमणाई' इति पाठः, अन्येषु तु हस्तलिखितादर्शेषु 'नरगगमणाई' इति पाठः, नन्दीसूत्रेऽपि अस्मिन्नेव वर्णने निरयगमणाई इत्येव पाठः || Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे सुविहिएसु अणुकंपासयप्पयोगतेकालमतिविसुद्धभत्तपाणाइं पययमणसा हितसुहनीसेसतिव्वपरिणामनिच्छियमती पयच्छिऊणं पयोगसुद्धाइं जह य निव्वत्तेंति उ बोहिलाभं जह य परित्तीकरेंति णर- णिरय - तिरियसुरगतिगमणविपुलपरियट्ट - अरति-भय-विसाय- सोक-मिच्छत्तसेलसंकडं 5 अण्णाणतमंधकारचिक्खल्लसुदुत्तारं जर मरण - जोणिसंखुभितचक्कवालं सोलसकसायसावयपयंडचंडं अणातियं अणवयग्गं संसारसागरमिणं, जह य णिबंधंति आउगं सुरगणेसु, जह य अणुभवंति सुरगणविमाणसोक्खाणि अणोवमाणि, ततो य कालंतरे चुयाणं इहेव नरलोगमागयाणं आउ - वपुवण्ण-रूव- -जाति- कुल - जम्म - आरोग्ग - बुद्धि-मेहाविसेसा मित्तजण-सयण10 धणधण्णविभवसमिद्धिसारसमुदयविसेसा बहुविहकामभोगुब्भवाण सोक्खाण सुहविवागुत्तमेसु, अणुवरयपरंपराणुबद्धा असुभाणं सुभाणं चेव कम्माणं भासिया बहुविहा विवागा विवागसुयम्मि भगवता जिणवरेण संवेगकारणत्था, अन्ने वि य एवमादिया, बहुविहा वित्थरेणं अत्थपरूवणया आघविज्जति । विवागसुयस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा जाव संखेज्जातो संगहणीतो । 15 से णं अंगट्ठताए एक्कारसमे अंगे, वीसं अज्झयणा, वीसं उद्देसणकाला, वीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाई पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ते, संखेजाणि अक्खराणि, जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविज्जति । सेतं विवागसुए। I [टी] से किं तमित्यादि, विपचनं विपाकः शुभाशुभकर्म्मपरिणामस्तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतम् । विवागसुए णमित्यादि कण्ठ्यम्, नवरं फलविवागे त्ति फलरूपो 20 विपाकः, तथा नगरगमणाई ति भगवतो गौतमस्य भिक्षाद्यर्थं नगरप्रवेशनानीति । एतदेव पूर्वोक्तं प्रपञ्चयन्नाह— दुहविवागेसु णमित्यादि, तत्र प्राणातिपाताऽलीकवचन-चौर्यकरण- परदारमैथुनैः सह ससंगयाए त्ति या ससङ्गता सपरिग्रहता तया संचितानां कर्म्मणामिति योगः, महातीव्रकषायेन्द्रियप्रमादपापप्रयोगाशुभाध्यवसानसञ्चितानां कर्मणां पापकानां पापानुभागा अशुभरसा ये १. था इत्यत आरभ्य षट् पत्राणि खं० मध्ये न सन्ति ॥ २. सह संगयाए जे२ हे२ । खं० मध्येऽत्र पाठः पतितः ॥ २४२ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४६] विपाकश्रुतवर्णनम् । २४३ फलविपाका विपाकोदयास्ते तथा, ते आख्यायन्त इति योगः, केषामित्याह-निरयगतौ तिर्यग्योनौ च ये बहुविधव्यसनशतपरम्पराभिः प्रबद्धाः ते तथा, तेषाम्, जीवानामिति गम्यते, तथा मणुयत्ति त्ति मनुजत्वेऽप्यागतानां यथा पापकर्मशेषेण पापका भवन्ति फलविपाका अशुभा विपाकोदया इत्यर्थः, तथा आख्यायते इति प्रकृतम्, तथाहि-व्यधो यष्ट्यादिताडनं वृषणविनाशो वर्द्धितककरणं तथा नासायाश्च कर्णयोश्च 5 ओष्ठस्य चाङ्गुष्ठानां च करयोश्च चरणयोश्च नखानां च यच्छेदनं तत्तथा, जिह्वाछेदनम्, अंजण त्ति अञ्जनं तप्तायःशलाकया नेत्रयोः, म्रक्षणं वा देहस्य क्षार-तैलादिना, कडग्गिदाहणं ति कटानां विदलवंशादिमयानामग्निः कटाग्निस्तेन दाहनं कटाग्निदाहनम्, कटेन परिवेष्टितस्य बोधनमित्यर्थः, तथा गजचलनमलनं फालनं विदारणम् उल्लम्बनं वृक्षशाखादावुद्बन्धनम्, तथा शूलेन लतया लकुटेन यष्ट्या च भञ्जनं गात्राणाम्, 10 तथा त्रपुणा धातुविशेषेण, सीसकेन च तेनैव, तप्तेन तैलेन च कल-कल त्ति सशब्देनाभिषेचनम्, तथा कुम्भ्यां भाजनविशेषे पाकः कुम्भीपाकः, कम्पनं शीतलजलाच्छोटनादिना शीतकाले गात्रोत्कम्पजननम्, तथा स्थिरबन्धनं निबिडनियन्त्रणम्, वेधः कुन्तादिना शस्त्रेण भेदनम्, वर्द्धकर्त्तनं त्वगुत्त्रोटनम्, प्रतिभयकरं भयजननं तच्च तत् करप्रदीपनं च वसनावेष्टितस्य तैलाभिषिक्तस्य 15 करयोरग्निप्रबोधनमिति कर्मधारयः, ततश्च व्यधश्च वृषणविनाशश्चेत्यादि यावत् प्रतिभयकरकरप्रदीपनं चेति द्वन्द्वः, ततस्तानि आदिर्येषां दुःखानां तानि, तथा तानि च तानि दारुणानि चेति कर्मधारयः, कानीमानीत्याह- दुःखानि, किंभूतानि ? अनुपमानि दुःखविपाकेष्वाख्यायन्त इति प्रक्रमः, तथेदमाख्यायते बहुविविधपरम्पराभिः दुःखानामिति गम्यते, अनुबद्धाः सन्ततमालिगिता 20 बहुविविधपरम्परानुबद्धा जीवा इति गम्यते, न मुच्यन्ते न त्यज्यन्ते, कया ? पापकर्मवल्लया दुःखफलसम्पादिकया, किमित्याह- यतोऽवेदयित्वा अननुभूय कर्मफलमिति गम्यते, हुर्यस्मादर्थे, नास्ति न भवति मोक्षो वियोगः कर्मणः सकाशात्, जीवानामिति गम्यते, किं सर्वथा नेत्याह- तपसा अनशनादिना, किम्भूतेन ? धृतिः १. विधौ जे२ । वधो जे१ । “व्यध ताडने" - पाधा० ११८१ ॥ २. अग्निप्रबोधनमित्यर्थः ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे चित्तसमाधानं तद्रूपा धणियं ति अत्यर्थं बद्धा निष्पीडिता कच्छा बन्धविशेषो यत्र तत्तथा तेन, धृतिबलयुक्तेनेत्यर्थः, शोधनम् अपनयनं तस्य कर्म्मविशेषस्य वावि सम्भावनायां होज्जा सम्पद्येत, नान्यो मोक्षोपायोऽस्तीति भावः । २४४ तो येत्यादि, इतश्चानन्तरं सुखविपाकेषु द्वितीयश्रुतस्कन्धाध्ययनेष्वित्यर्थः, 5 यदाख्यायते तदभिधीयत इति शेषः, शीलं ब्रह्मचर्यं समाधिर्वा, संयमः प्राणातिपातविरतिः, नियमा अभिग्रहविशेषाः, गुणाः शेषमूलगुणाः उत्तरगुणाश्च, तपोऽनशनादि, एतेषामुपधानं विधानं येषां ते तथा, अतस्तेषु शील-संयम-नियमगुण- तपउपधानेषु, केष्वित्याह- साधुषु यतिषु, किम्भूतेषु ? सुष्ठु विहितम् अनुष्ठितं येषां ते सुविहितास्तेषु भक्तादि दत्त्वा यथा बोधिलाभादि निर्वर्त्तयन्ति तथेहाख्या 10 इति सम्बन्धः, इह च सम्प्रदानेऽपि सप्तमी न दुष्टा, विषयस्य विवक्षणात्, अनुकम्पा अनुक्रोशस्तत्प्रधान आशयः चित्तं तस्य प्रयोगो व्यावृत्ति (पृति) रनुकम्पाशयप्रयोगस्तेन, तथा तेकालमति त्ति त्रिषु कालेषु या मतिः बुद्धिर्यदुत दास्यामीति परितोषो दीयमाने परितोषो दत्ते च परितोष इति सा त्रिकालमतिस्तया च यानि विशुद्धानि तानि तथा, तानि च तानि भक्तपानानि चेति अनुकम्पाशयप्रयोगत्रिकालमतिविशुद्धभक्त15 पानानि प्रदायेति क्रियायोगः, केन प्रदायेत्याह- प्रयतमनसा आदरपूतचेतसा, हितोऽनर्थपरिहाररूपत्वात् सुखः तद्धेतुत्वात् शुभो वा नीसेस त्ति निःश्रेयसः कल्याणकरत्वात् तीव्रः प्रकृष्टः परिणामः अध्यवसानं यस्यां सा तथा, सा निश्चिता असंशया मतिः बुद्धिर्येषां ते हितसुखनिःश्रेयसतीव्रपरिणामनिश्चितमतयः, किम् ? पयच्छिऊणं ति प्रदाय, किंभूतानि भक्त - पानानि ? प्रयोगेषु शुद्धानि 20 दायकदानव्यापारापेक्षया सकलाशंसादिदोषरहितानि ग्राहकग्रहणव्यापारापेक्षया चोद्गमादिदोषवर्जितानि, ततः किम् ? यथा च येन च प्रकारेण पारम्पर्येण मोक्षसाधकत्वलक्षणेन निर्वर्त्तयन्ति, भव्यजीवा इति गम्यते, तुशब्दो भाषामात्रार्थः, बोधिलाभम्, यथा च परित्तीकुर्वन्ति ह्रस्वतां नयन्ति संसारसागरमिति योगः, किंभूतम् ? नर- निरय-तिर्यक् - सुरगतिषु यज्जीवानां गमनं परिभ्रमणं स एव विपुलो 25 विस्तीर्णः परिवर्त्तो मत्स्यादीनां परिवर्त्तनमनेकधा सञ्चरणं यत्र स तथा, तथा अरति Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४६]] विपाकश्रुतवर्णनम् । २४५ भय-विषाद-शोक-मिथ्यात्वान्येव शैला: पर्वतास्तैः सङ्कटः सङ्कीर्णो यः स तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्तम्, इह च विषादो दैन्यमात्रम्, शोकस्त्वाक्रन्दनादिचिह्न इति, तथा अज्ञानमेव तमोऽन्धकारं महान्धकारं यत्र स तथा, अतस्तम्, चिक्खल्लसुदुत्तारं ति चिक्खल्लं कर्दमः संसारपक्षे तु चिक्खल्लं विषय-धन-स्वजनादिप्रतिबन्धः, तेन सुदुस्तरो दुःखोत्तार्यो यः स तथा, तम्, तथा जरामरणयोनय एव संक्षुभितं 5 महामत्स्य-मकरायनेकजलजन्तुजातिसम्मन प्रविलोडितं चक्रवालं जलपारिमाण्डल्य यत्र स तथा, तम्, तथा षोडश कषाया एव श्वापदानि मकर-ग्राहादीनि प्रकाण्डचण्डानि अत्यर्थरौद्राणि यत्र स तथा, तम्, अनादिकमनवदग्रमनन्तं संसारसागरमिमं प्रत्यक्षमित्यर्थः, तथा यथा च सागरोपमादिना प्रकारेण निबध्नन्त्यायुः सुरगणेषु साधुदानप्रत्ययमिति भावः, यथा चानुभवन्ति सुरगणविमानसौख्यानि अनुपमानि, 10 ततश्च कालान्तरे च्युतानाम् इहेव त्ति तिर्यग्लोके नरलोकमागतानामायु-र्वपुवर्ण-रूप-जाति-कुल-जन्मा-ऽऽरोग्य-बुद्धि-मेधाविशेषा आख्यायन्त इति योगः, तत्रायुषो विशेष इतरजीवायुषः सकाशात् शुभत्वं दीर्घत्वं च, एवं वपुः शरीरं तस्य स्थिरसंहननता, वर्णस्योदारगौरत्वम्, रूपस्यातिसुन्दरता जातेरुत्तमत्वम्, कुलस्याप्येवम्, जन्मनो विशिष्टक्षेत्रकालनिराबाधत्वम्, आरोग्यस्य प्रकर्षः, बुद्धिरौत्पत्तिक्यादिका 15 तस्याः प्रकृष्टता, मेधा अपूर्वश्रुतग्रहणशक्तिः, तस्या विशेषः प्रकृष्टतैवेति, तथा मित्रजनः सुहल्लोकः, स्वजनः पितृपितृव्यादिः, धनधान्यरूपो यो विभवो लक्ष्मीः स धनधान्यविभवः, तथा समृद्धेः पुरा-ऽन्तःपुर-कोश-कोष्ठागार-बल-वाहनरूपायाः सम्पदो यानि साराणि प्रधानवस्तूनि तेषां यः समुदयः समूहः स तथा इत्येतेषां द्वन्द्वस्तत एषां ये विशेषाः प्रकर्षास्ते तथा, तथा बहुविधकामभोगोद्भवानां सौख्यानां 20 विशेषा इतीहापि सम्बन्धनीयम्, शुभविपाक उत्तमो येषां ते शुभविपाकोत्तमाः, तेषु, जीवेष्विति गम्यम्, इह चेयं षष्ट्यर्थे सप्तमी, तेन शुभविपाकाध्ययनवाच्यानां साधूनामायुष्कादिविशेषाः शुभविपाकाध्ययनेष्वाख्यायन्ते इति प्रकृतम् । अथ प्रत्येकं श्रुतस्कन्धयोरभिधेये पुण्य-पापविपाकरूपे प्रतिपाद्य, तयोरेव यौगपद्येन १. चिक्खिल्ल जे१,२ ॥ २. पुरकोश जे२ विना ॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ते आह- अणुवरयेत्यादि, अनुपरता अविच्छिन्ना ये परम्परानुबद्धाः पारम्पर्यप्रतिबद्धाः, के ? विपाका इति योगः, केषाम् ? अशुभानां शुभानां चैव कर्मणां प्रथमद्वितीयश्रुतस्कन्धयोः क्रमेणैव भाषिताः उक्ता बहुविधा विपाकाः विपाकश्रुते एकादशेऽङ्गे भगवता जिनवरेण संवेगकारणार्थाः संवेगहेतवो भावाः, अन्येऽपि 5 चैवमादिका आख्यायन्त इति पूर्वोक्तक्रियया वचनपरिणामाद्वोत्तरक्रियया योगः, एवं बहविधा विस्तरेणार्थप्ररूपणता आख्यायत इति, शेष कण्ठ्यम्, नवरं संख्यातानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेणेति, तत्र किल एका पदकोटी चतुरशीतिश्च लक्षाणि द्वात्रिंशच्च सहस्राणीति ॥११॥ [सू० १४७] [१] से किं तं दिट्ठिवाए ? दिट्ठिवाए णं सव्वभावपरूवणया 10 आघविजति । से समासतो पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा- परिकम्मं सुत्ताई पुव्वगयं अणुओगो चूलिया । [२] से किं तं परिकम्मे ? परिकम्मे सत्तविहे पण्णत्ते, तंजहासिद्धसेणियापरिकम्मे मणुस्ससेणियापरिकम्मे पुट्ठसेणियापरिकम्मे ओगाहण सेणियापरिकम्मे उवसंपजणसेणियापरिकम्मे विप्पजहणसेणियापरिकम्मे 15 चुताचुतसेणियापरिकम्मे । से किं तं सिद्धसेणियापरिकम्मे ? सिद्धसेणिया परिकम्मे चोद्दसविहे पण्णत्ते, तंजहा- माउयापदाणि १, एगट्ठितातिं २, पाढो ३, अट्ठपयाणि ४, (अट्ठपयाणि ३, पाढो ४,) आगासपदाणि ५, केउभूयं ६, रासिबद्धं ७, एगगुणं ८, दुगुणं ९, तिगुणं १०, केउभूतपडिग्गहो ११, संसारपडिग्गहो १२, नंदावत्तं १३, सिद्धावत्तं १४, सेत्तं सिद्धसेणियापरिकम्मे। 20 से किं तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे? मणुस्ससेणियापरिकम्मे चोद्दसविहे पण्णत्ते, तंजहा- ताई चेव माउयापयाइं जाव नंदावत्तं मणुस्सावत्तं, सेत्तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे । अवसेसाई परिकम्माइं पाढाइयाइं एक्कारसविहाणि पन्नत्ताई। इच्चेताई सत्त परिकम्माइं, छ ससमइयाणि, सत्त आजीवियाणि। छ चउक्कणइयाणि, सत्त तेरासियाणि। एवामेव सपुव्वावरेणं सत्त परिकम्माई १. पारंपर्यप्रतिबद्धाः हेर विना नास्ति ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ [सू० १४७] दृष्टिवादस्वरूपम् । तेसीतिं भवंतीति मक्खायातिं । सेत्तं परिकम्माइं । [टी०] से किं तं दिट्ठिवाए त्ति, दृष्टयो दर्शनानि, वदनं वादः दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः दृष्टीनां वा पातो यत्रासौ दृष्टिपातः, सर्वनयदृष्टयः एवेहाख्यायन्त इत्यर्थः, तथा चाह- दिट्ठिवाएणमित्यादि, दृष्टिपातेन दृष्टिपाते वा सर्वभावप्ररूपणाऽऽख्यायते। से समासओ पंचविहेत्यादि, सर्वमिदं प्रायो व्यवच्छिन्नं तथापि यथादृष्टं किञ्चित् 5 लिख्यते, तत्र सूत्रादिग्रहणयोग्यतासम्पादनसमर्थानि परिकर्माणि गणितपरिकर्मवत्, तच्च परिकर्मश्रुतं सिद्धश्रेणिकादिपरिकर्ममूलभेदतः सप्तविधम्, उत्तरभेदतस्तु त्र्यशीतिविधं मातृकापदादि, एतच्च सर्वं समूलोत्तरभेदं सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नम्, एतेषां च परिकर्मणां षट् आदिमानि परिकर्माणि स्वसामयिकान्येव, गोशालकप्रवर्तिताजीविकपाषण्डिसिद्धान्तमतेन पुनः च्युताच्युतश्रेणिकापरिकर्म- 10 सहितानि सप्त प्रज्ञाप्यन्ते, इदानीं परिकर्मसु नयचिन्ता, तत्र नैगमो द्विविधः - साङ्ग्रहिकोऽसाङ्ग्रहिकश्च, तत्र साङ्ग्रहिकः सङ्ग्रहं प्रविष्टोऽसाङ्ग्रहिकश्च व्यवहारम्, तस्मात् सङ्ग्रहो व्यवहार ऋजुसूत्रः शब्दादयश्चैक एवेत्येवं चत्वारो नयाः, एतैश्चतुर्भिर्नयैः षट् स्वसामयिकानि परिकर्माणि चिन्त्यन्ते, अतो भणितं छ चउक्कनइयाइं भवन्ति, त एव चाजीविकास्त्रैराशिका भणिताः, कस्माद् ?, उच्यते, यस्मात्ते सर्वं त्र्यात्मकम् 15 इच्छन्ति, यथा 'जीवोऽजीवो जीवाजीवः, लोकोऽलोको लोकालोकः, सत् असत् सदसत्' इत्येवमादि, नयचिन्तायामपि ते त्रिविधं नयमिच्छन्ति, तद्यथा- द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकः उभयार्थिकः, अतो भणितं सत्त तेरासिय त्ति सप्त परिकर्माणि त्रैराशिकपाषण्डस्थास्त्रिविधया नयचिन्तया चिन्तयन्तीत्यर्थः । सेत्तं परिकम्म त्ति निगमनम् । [सू० १४७] [३] से किं तं सुत्ताइं ? सुत्ताइं अट्ठासीतिं भवंतीति 20 मक्खायातिं, तंजहा- उज्जगं परिणयापरिणयं बहुभंगियं विपच्चवियं अणंतरपरंपरं सामाणं संजूहं भिन्नं आहव्वायं सोवत्थितं घंटं णंदावत्तं बहुलं १. दृष्टिपादेन जे१,२ ॥ २. पाखंडि जे२ ॥ ३. त्रुटितस्य खं० आदर्शस्य नि' इत्यतः प्रारम्भः ॥ ४. संग्राहि खं० । संग्रहि जे२ । जे१ मध्येऽत्र पत्रं त्रुटितम् ॥ ५. संग्राहि खं० । संग्रहि जे२ ॥ ६. संग्रहप्रवि जे२ ॥ ७. संग्राहि खं० हे१ ॥ ८. पाषण्डि हे१,२ विना ॥ ९. 'कम्मे हे२ ॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पुट्ठापुढे वियावत्तं एवंभूतं दुयावत्तं वत्तमाणुप्पयं समभिरूढं सव्वतोभदं पणसं दुपडिग्गहं २२ । इच्चे ताई बावीसं सुत्ताई छिण्णच्छे यणइयाणि ससमयसुत्तपरिवाडीए, इच्चेताई बावीसं सुत्ताई अच्छिन्नच्छेयनइयाणि आजीवियसुत्तपरिवाडीए, इच्चताई बावीसं सुत्ताइं तिकणइयाणि 5 तेरासियसुत्तपरिवाडीए, इच्चताई बावीसं सुत्ताई चउक्कणइयाणि ससमयसुत्तपरिवाडीए । एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठासीती सुत्ताइं भवंतीति मक्खायाइं । सेत्तं सुत्ताइं । . [टी०] से किं तं सुत्ताइमित्यादि, तत्र सर्वद्रव्य-पर्याय-नयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणि अमून्यपि च सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नानि तथापि दृष्टानुसारतः किञ्चिल्लिख्यते, एतानि किल 10 ऋजुकादीनि द्वाविंशतिः सूत्राणि, तान्येव विभागतोऽष्टाशीतिर्भवन्ति, कथम् ?, उच्यते, इच्चेइयाई बावीसं सुत्ताई छिन्नच्छेयनइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए त्ति इह यो नयः सूत्रं छिन्नं छेदेनेच्छति स छिन्नच्छेदनयो यथा धम्मो मंगलमुक्कट्ठ [दशवै० १।१] इत्यादिश्लोकः सूत्रार्थतः प्रत्येकच्छेदेन स्थितो न द्वितीयादिश्लोकमपेक्षते, प्रत्येककल्पितपर्यन्त इत्यर्थः, एतान्येव द्वाविंशतिः स्वसमयसूत्रपरिपाट्या सूत्राणि स्थितानि, तथा इत्येतानि द्वाविंशतिः 15 सूत्राणि अच्छिन्नच्छेदनयिकान्याजीविकसूत्रपरिपाट्येति, अयमर्थः- इह यो नयः सूत्रमच्छिन्नं छेदेनेच्छति सोऽच्छिन्नच्छेदनयो यथा धम्मो मंगलमुक्कट्ठ [दशवै० १।१] इत्यादिश्लोक एवार्थतो द्वितीयादिश्लोकमपेक्षमाणो द्वितीयादयश्च प्रथममिति अन्योन्यसापेक्षा इत्यर्थः, एतानि द्वाविंशतिराजीविकगोशालकप्रवर्तितपाषण्डसूत्रपरिपाट्या अक्षररचनाविभागस्थितान्यप्यर्थतोऽन्योन्यमपेक्षमाणानि भवन्ति । इच्चेइयाइं इत्यादि 20 सूत्रम्, तत्र तिकनइयाइं ति नयत्रिकाभिप्रायतश्चिन्त्यन्त इत्यर्थः, त्रैराशिकाश्चाजीविका एवोच्यन्ते इति। तथा इच्चेइयाइं इत्यादि सूत्रम्, तत्र चउक्कनइयाई ति नयचतुष्काभिप्रायतश्चिन्त्यन्त इति भावना । एवमेवेत्यादिसूत्रम्, एवं चतम्रो द्वाविंशतयोऽष्टाशीतिः सूत्राणि भवन्ति । सेत्तं सुत्ताई ति निगमनवाक्यम् । १. अष्टाशीत्यपि च खमू० जे१ । अष्टाशीतिरेतान्यपि च खंसं० ॥२. दृश्यतां पृ०८२ पं०२० ॥ ३. 'मपेक्ष्यमाणो जे२॥ ४. 'न्यमवेक्ष्यमाणानि जे१,२,हे१ । न्यसावेक्ष्यमाणानि खं०॥ ५. भवंतीति खं० जे१॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४७] दृष्टिवादस्वरूपम् । [सू० १४७] [४] से किं तं पुव्वगए ? पुव्वगए चोद्दसविहे पण्णत्ते, तंजहाउप्पायपुव्वं अग्गेणियं वीरियं अत्थिणत्थिप्पवायं णाणप्पवायं सच्चप्पवायं आतप्पवायं कम्मप्पवायं पच्चक्खाणं अणुप्पवायं अवंझं पाणाउं किरियाविसालं लोगबिंदुसारं १४ । उप्पायपुव्वस्स णं दस वत्थू, चत्तारि चूलियावत्थू पण्णत्ता । अग्गेणियस्स णं पुव्वस्स चोद्दस वत्थू, बारस चूलियावत्थू पण्णत्ता। 5 वीरियपुव्वस्स अट्ठ वत्थू, अट्ठ चूलियावत्थू पण्णत्ता । अत्थिणत्थिप्पवायस्स णं पुव्वस्स अट्ठारस वत्थू, दस चूलियावत्थू पण्णत्ता । णाणप्पवायस्स णं पुव्वस्स बारस वत्थू पण्णत्ता । सच्चप्पवायस्स णं पुव्वस्स दो वत्थू पण्णत्ता । आतप्पवायस्स णं 'पुव्वस्स सोलस 'वत्थू पण्णत्ता । कम्मप्पवायस्स णं पुव्वस्स तीसं वत्थू पण्णत्ता । पच्चक्खाणस्स णं पुव्वस्स वीसं वत्थू पण्णत्ता । 10 अणुप्पवायस्स णं पुव्वस्स पण्णरस वत्थू पण्णत्ता । अवंझस्स णं पुव्वस्स बारस वत्थू पण्णत्ता । पाणाउस्स णं पुव्वस्स तेरस वत्थू पण्णत्ता । किरियाविसालस्स णं पुव्वस्स तीसं वत्थू पण्णत्ता । लोगबिंदुसारस्स णं पुव्वस्स पणुवीसं वत्थू पण्णत्ता । दस चोस अट्ठारसेव बारस दुवे य वत्थूणि । सोलस तीसा वीसा पण्णरस अणुप्पवायम्मि ॥ ६१ ॥ बारस एक्कारसमे बारसमे तेरसेव वत्थूणि । तीसा पुण तेरसमे चोदसमे पण्णवीसाओ ||६२ || चत्तारि दुवाल अट्ठ चेव दस चेव चूलवत्थूणि । अतिल्लाण चउन्हं सेसाणं चूलिया णत्थि ॥ ६३ ॥ सेत्तं पुव्वगतं । [ टी०] से किं तं पुव्वगयेत्यादि, अथ किं तत् पूर्वगतम् ?, उच्यते, यस्मात्तीर्थकरः तीर्थप्रवर्त्तनाकाले गणधराणां सर्वसूत्राधारत्वेन पूर्वं पूर्वगतसूत्रार्थं भाषते तस्मात् पूर्वाणीति भणितानि, गणधराः पुनः श्रुतरचनां विदधाना आचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च, मतान्तरेण तु पूर्वगतसूत्रार्थः पूर्वमर्हता भाषितो गणधरैरपि पूर्वगतश्रुतमेव पूर्वं रचितं 25 २४९ 15 20 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पश्चादाचारादि । नन्वेवं यदाचारनियुक्त्यामभिहितं सव्वेसिं आयारो पढमो [आचा० नि० ८] इत्यादि तत् कथम् ?, उच्यते, तत्र स्थापनामाश्रित्य तथोक्तमिह त्वक्षररचनां प्रतीत्य भणितं 'पूर्वं पूर्वाणि कृतानि' इति । तच्च पूर्वगतं चतुर्दशविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- उप्पायेत्यादि, तत्रोत्पादपूर्व प्रथमम्, 5 तत्र च सर्वद्रव्याणां पर्यवाणां चोत्पादभावमङ्गीकृत्य प्रज्ञापना कृता, तस्य च पदपरिमाणमेका कोटी । अग्गेणीयं द्वितीयम, तत्रापि सर्वेषां द्रव्याणां पर्यवाणां जीवविशेषाणां चाऽग्रं परिमाणं वर्ण्यत इत्यग्रेणीतम्, तस्य पदपरिमाणं षण्णवतिः पदशतसहस्राणि । वीरियं ति वीर्यप्रवादं तृतीयम्, तत्राप्यजीवानां जीवानां च सकर्मेतराणां वीर्यं प्रोच्यत इति वीर्यप्रवादम् । तस्यापि सप्ततिः पदशतसहस्राणि परिमाणम् । 10 अस्तिनास्तिप्रवादं चतुर्थम्, यद्यल्लोके यथास्ति यथा वा नास्ति, अथवा स्याद्वादाभिप्रायतः तदेवास्ति तदेव नास्तीत्येवं प्रवदतीति अस्तिनास्तिप्रवादं भणितम्, तदपि पदपरिमाणतः षष्टिः पदशतसहस्राणि। ज्ञानप्रवादं पञ्चमम्, तस्मिन् मतिज्ञानादिपञ्चकस्य भेदप्ररूपणा यस्मात् कृता तस्मात् ज्ञानप्रवादम्, तस्मिन् पदपरिमाणमेका कोटी एकपदोनेति । सत्यप्रवादं षष्ठम् । सत्यं संयमः सत्यवचनं वा, 15 तद्यत्र सभेदं सप्रतिपक्षं च वर्ण्यते तत् सत्यप्रवादम्, तस्य पदपरिमाणम् एका पदकोटी षट् च पदानीति । आत्मप्रवादं सप्तमम्, आय त्ति आत्मा सोऽनेकधा यत्र नयदर्शनैर्वर्ण्यते तदात्मप्रवादम्, तस्य पदपरिमाणं षड्विंशतिः पदकोट्यः। कर्मप्रवादमष्टमम्, ज्ञानावरणादिकमष्टविधं कर्म प्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशादिभिर्भेदैरन्यैश्चोत्तरोत्तरभेदैर्यत्र वर्ण्यते तत् कर्मप्रवादम्, तत्परिमाणमेका पदकोटी अशीतिश्च सहस्राणीति । प्रत्याख्यानं 20 नवमम्, तत्र सर्वप्रत्याख्यानस्वरूपं वर्ण्यत इति प्रत्याख्यानप्रवादम्, तत्परिमाणं चतुरशीतिः पदशतसहस्राणीति। विद्यानुप्रवादं दशमम्, तत्रानेके विद्यातिशया वर्णिताः, तत्परिमाणमेका पदकोटी दश च पदशतसहस्राणीति । अवन्ध्यमेकादशम्, वन्ध्यं नाम निष्फलम्, न वन्ध्यमवन्ध्यं सफलमित्यर्थः, तत्र हि सर्वे ज्ञान-तपः-संयमयोगाः शुभफलेन १. “सव्वेसिं आयारो, तित्थस्स पवत्तणे पढमयाए । सेसाई अंगाई, एक्कारस आणुपुवीए ॥८॥" - इति आचाराङ्गनिर्युक्तौ ॥ | Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४७] दृष्टिवादस्वरूपम् । सफला वर्ण्यन्ते, अप्रशस्ताश्च प्रमादादिकाः सर्वे अशुभफला वर्ण्यन्ते, अतोऽवन्ध्यम्, तस्य च परिमाणं षड्विंशतिः पदकोट्यः । प्राणायुर्द्वादशम्, तत्राप्यायुः प्राणविधानं सर्वं सभेदमन्ये च प्राणा वर्णिताः, तत्परिमाणमेका पदकोटी षट्पञ्चाशच्च पदशतसहस्राणीति । क्रियाविशालं त्रयोदशम्, तत्र कायिक्यादयः क्रिया विशाल त्ति सभेदाः संयमक्रियाः छन्दःक्रियाविधानानि च वर्ण्यन्त इति क्रियाविशालम्, तत्पदपरिमाणं 5 नव पदकोट्यः। लोकबिन्दुसारं च चतुर्दशम्, तच्चास्मिन् लोके श्रुतलोके वा बिन्दुरिवाक्षरस्य सर्वोत्तममिति, सर्वाक्षरसन्निपातप्रतिष्ठितत्वेन च लोकबिन्दुसारं भणितम्, तत्प्रमाणमर्द्धत्रयोदश पदकोट्य इति । उप्पायपुव्वस्सेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं वस्तु नियतार्थाधिकारप्रतिबद्धो ग्रन्थविशेषोऽध्ययनवदिति, तथा चूडा इव चूडा, इह दृष्टिवादे परिकर्म्म - सूत्र - पूर्वगता - 10 ऽनुयोगोक्तानुक्तार्थसङ्ग्रहपरा ग्रन्थपद्धतयश्चडा इति । सेत्तं पुव्वगते त्ति निगमनम् । [सू० १४७] [५] से किं तं अणुओगे ? अणुओगे दुविहे पण्णत्ते, तंजहामूलपढमाणुओगे य गंडियाणुओगे य । से किं तं मूलपढमाणुओगे ? मूलपढमाणुओगे एत्थ णं अरहंताणं भगवंताणं पुव्वभवा, देवलोगगमणाणि, आउं, चयणाणि, जम्मणाणि य, अभिसेया, रायवरसिरीओ, सीयाओ, 15 पव्वज्जाओ, तवा य, भत्ता, केवलणाणुप्पाता, तित्थपवत्तणाणि य, संघयणं, संठाणं, उच्चत्तं, आउं, वण्णविभागो, सीसा, गणा, गणहरा य, अज्जा, पवत्तिणीओ, संघस्स चउव्विहस्स जं वा वि परिमाणं, जिणा, मणपज्जवओहिणाणि - समत्तसुयणाणिणो य वादी अणुत्तरगती य जत्तिया, जत्तिया सिद्धा, पातोवगतो य जो जहिं जत्तियाई भत्ताइं छेयइत्ता अंतगडो मुणिवरुत्तमो, 20 तमरतोघविप्पमुक्का सिद्धिपहमणुत्तरं च पत्ता, एते अन्ने य एवमादी भावा पढमाणुओगे कहिया आघविज्जंति पण्णविनंति परूविज्जंति [ दंसिज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिजंति ] | सेत्तं मूलपढमाणुओगे । से किं तं गंडियाणुओगे ? गंडियाणुओगे अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा- कुलकरगंडियाओ १. सेतं जे२ ॥ २५१ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तित्थकरगंडियाओ गणधरगंडियाओ चक्कवट्टिगंडियाओ दसारगंडियाओ बलदेवगंडियाओ वासुदेवगंडियाओ हरिवंसगंडियाओ भद्दबाहुगंडियाओ तवोकम्मगंडियाओ चित्तंतरगंडियाओ ओसप्पिणिगंडियाओ उस्सप्पिणिगंडियाओ अमर-नर- तिरिय - निरयगतिगमणविविह5 परियट्टणाणुयोगे, एवमातियातो गंडियातो आघविज्जंति पण्णविज्जंति परूविज्जंति [दंसिज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति ] । सेत्तं गंडियाणुओगे | [६] से किं तं चूलियाओ ? जण्णं आइल्लाणं चउण्हं पुव्वाणं चूलियाओ, सेसाई पुव्वाई अचूलियाई । सेत्तं चूलियाओ । [७] दिट्ठवायस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा जाव संखेज्जातो 10 निज्जुत्तीओ। से णं अंगट्ठताए बारसमे अंगे, एगे सुतक्खंधे, चोद्दस पुव्वाई, संखेज्जा वत्थू, संखेज्जा चूलवत्थू, संखेज्जा पाहुडा, संखेज्जा पाहुडपाहुडा, संखेज्जातो पाहुडियातो, संखेज्जातो पाहुडपाहुडियातो, संखेजाणि पयसयसहस्साणि पदग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अनंता थावरा, सासता कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता 15 भावा आघविज्जंति पण्णविज्जंति परूविज्जंति दंसिज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति । एवंणाते, एवं विण्णाते, एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जति । सेत्तं दिट्ठिवाते । सेत्तं दुवालसंगे गणिपिडगे । [टी०] से किं तमित्यादि, अनुरूपोऽनुकूलो वा योगोऽनुयोगः सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सार्द्धमनुरूपः सम्बन्ध इत्यर्थः, स च द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- - मूलप्रथमानुयोगश्च 20 गण्डिकानुयोगश्च । से किं तमित्यादि, इह धर्म्मप्रणयनाद् मूलं तावत्तीर्थकराः, तेषां प्रथमसम्यक्त्वाप्तिलक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानुयोगः, तथा चाह- से किं तं मूलपढमाणुओगे इत्यादि सूत्रसिद्धं यावत् सेतं मूलपढमाणुओगे । से किं तमित्यादि इहैकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगता वाक्यपद्धतयो गण्डिका उच्यन्ते तासामनुयोगः अर्थकथनविधिः गण्डिकानुयोगः, तथा चाह- गंडियाणुओगे १. दृश्यतां पृ० २१४ टि० १ ॥ २५२ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४८] दृष्टिवादस्वरूपम् । अणेगेत्यादि, तत्र कुलकरगण्डिकासु कुलकराणां विमलवाहनादीनां पूर्वजन्माद्यभिधीयत इति, एवं शेषास्वपि अभिधानवशतो भावनीयम्, यावत् चित्रान्तरगण्डिकाः, नवरं दशार्हाः समुद्रविजयादयो दश वसुदेवान्ताः । तथा चित्रा अनेकार्था अन्तरे ऋषभा -ऽजिततीर्थकरान्तरे गण्डिका एकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगतां, ततश्च चित्राश्च ता अन्तरगण्डिकाश्च चित्रान्तरगण्डिकाः, एतदुक्तं भवति - ऋषभा - ऽजिततीर्थकरान्तरे 5 तद्वंशजभूपतीनां शेषगतिगमनव्युदासेन शिवगमना - ऽनुत्तरोपपातप्राप्तिप्रतिपादिकाश्चित्रान्तरगण्डिका इति, ताश्च चोइस लक्खा सिद्धा निवईणेक्को य होइ सव्व । वेक्ट्ठाणे पुरिसजुगा हुंतऽसंखेज्जा ॥ [ ] इत्यादिना ग्रन्थेन नन्दिटीकायामभिहितास्तत एवावधार्याः, इह सूत्रगमनिकामात्रस्य 10 विवक्षितत्वादिति, शेषं सूत्रसिद्धमा निगमनात्, नवरं संखेज्जा वत्थु त्ति पञ्चविंशत्युत्तरे द्वे शते, संखेज्जा चूलवत्थु त्ति चतुस्त्रिंशत् ॥ १२॥ २५३ [सू० १४८] इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीते काले अणंता जीवा आणाए विराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियहिंसु, इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पन्ने काले परित्ता जीवा आणाए विरात्ता चाउरंतं संसारकंतारं 15 अणुपरियहंति, इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं अणागते काले अणंता जीवा आणाए विरात्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरिट्टस्संति । इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीते काले अणंता जीवा आणाए आराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं वितिवतिंसु, एवं पडुपण्णे वि, अणागते वि । दुवालसंगे णं गणिपिडगे ण कयाति ण आसी, ण कयाति णत्थि, ण 20 काति ण भविस्सइ, भुविं च भवति य भविस्सति य, धुवे णितिए सासते अक्खए अव्वए अवट्ठिते णिच्चे । से जहाणामए पंच अत्थिकाया ण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थी, ण कयाइ ण भविस्संति, भुविं च भवंति १. नन्दीसूत्रस्य चूर्णौ हारिभद्र्यां च वृत्तौ चोद्दस... आदय एकविंशतिर्गाथा उद्धृता वर्तन्ते । ताश्च तत्रैव जिज्ञासुभिर्द्रष्टव्याः || Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे भविस्संति य, धुवा णितिया जाव णिच्चा, एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे ण कयाति ण आसि, ण कयाति णत्थी, ण कयाति ण भविस्सति, भुविं च भवति [य] भविस्सइ य, जाव अवट्ठिते णिच्चे । २५४ एत्थ णं दुवालसंगे गणिपिडगे अणंता भावा, अनंता अभावा, अनंता 5 हेऊ, अणंता अहेऊ, अणंता कारणा, अणंता अकारणा, अणंता जीवा, अनंता अजीवा, अनंता भवसिद्धिया, अणंता अभवसिद्धिया, अणंता सिद्धा, अनंता असिद्धा, आघविज्जंति पण्णविज्जंति परूविज्नंति दंसिज्नंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति । [टी०] साम्प्रतं द्वादशाङ्गे विराधनानिष्पन्नं त्रैकालिकं फलमुपदर्शयन्नाह— 10 इच्चेयमित्यादि, इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटकमतीतकाले अनन्ता जीवा आज्ञया विराध्य चतुरन्तं संसारकान्तारम् अणुपरियहिंसु त्ति अनुपरिवृत्तवन्तः, इदं हि द्वादशाङ्गं सूत्रार्थोभयभेदेन त्रिविधम्, ततश्च आज्ञया सूत्राज्ञया अभिनिवेशतोऽन्यथापाठादिलक्षणया, अतीतकाले अनन्ता जीवाश्चतुरन्तं संसारकान्तारं नारक- -तिर्यङ्-नरा-ऽमरविविधवृक्षजालदुस्तरं भवाटवीगहनमित्यर्थः, 15 अनुपरावृत्तवन्तो जमालिवत्, अर्थाज्ञया पुनरभिनिवेशतोऽन्यथाप्ररूपणादिलक्षणया गोष्ठामाहिलवत्, उभयाज्ञया पुनः पञ्चविधाचारपरिज्ञानकरणोद्यतगुर्वादेशादेरन्यथाकरणलक्षणया गुरुप्रत्यनीकद्रव्यलिङ्गधार्यनेकश्रमणवत्, सूत्रार्थोभयैर्विराध्येत्यर्थः, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावापेक्षमागमोक्तानुष्ठानमेवाज्ञा, तया, तदकरणेनेत्यर्थः । इच्चेयमित्यादि गतार्थमेव, नवरं परीत्ता जीवा इति संख्येया जीवाः, वर्त्तमान20 विशिष्टविराधकमनुष्यजीवानां संख्येयत्वात्, अणुपरियहंति त्ति अनुपरावर्त्तन्ते, भ्रमन्तीत्यर्थः । इच्चेयमित्यादि, इदमपि भावितार्थमेव, नवरम् अणुपरियट्टिस्संति ति अनुपरावर्त्तिष्यन्ते, पर्यटिष्यन्तीत्यर्थः । अथवा इच्चेयमित्यादि कण्ठ्यम्, नवरं विंइवइंसु त्ति व्यतिव्रजितवन्तः, चतुर्गतिकसंसारोल्लङ्घनेन मुक्तिमवाप्ता इत्यर्थः, एवं प्रत्युत्पन्नेऽपि, नवरम् अयं विशेष: १. विई जे२ ॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४८] दृष्टिवादस्वरूपम् । २५५ वीवयंति त्ति व्यतिव्रजन्ति, व्यतिक्रामन्तीत्यर्थः, अनागतेऽप्येवम्, नवरं वीवइस्संति त्ति व्यतिव्रजिष्यन्ति, व्यतिक्रमिष्यन्तीत्यर्थः । यदिदमनिष्टेतरभेदभिन्नं फलं प्रतिपादितमेतत् सदावस्थायित्वे सति द्वादशाङ्गस्योपजायत इत्याह- दुवालसंगेत्यादि, द्वादशाङ्गं णमित्यलङ्कारे गणिपिटकं न कदाचिन्नासीदनादित्वात्, न कदाचिन्न भवति सदैव भावात्, न 5 कदाचिन्न भविष्यति अपर्यवसितत्वात्, किं तर्हि ? भुविं चेत्यादि, अभूच्च भवति च भविष्यति च, ततश्चेदं त्रिकालभावित्वादचलत्वाच्च ध्रुवं मेर्वादिवत्, ध्रुवत्वादेव नियतं पञ्चास्तिकायेषु लोकवचनवत्, नियतत्वादेव शाश्वतं समयावलिकादिषु कालवचनवत्, शाश्वतत्वादेव वाचनादिप्रदानेऽप्यक्षयं गङ्गासिन्धुप्रवाहेऽपि पाहदवत्, अक्षयत्वादेवाऽव्ययं मानुषोत्तरादहिः समुद्रवत्, अव्ययत्वादेव स्वप्रमाणेऽवस्थितं 10 जम्बूद्वीपादिवत्, अवस्थितत्वादेव नित्यमाकाशवदिति, साम्प्रतं दृष्टान्तमत्रार्थे आहसे जहा नामए इत्यादि, तद्यथा नाम पञ्चास्तिकाया धर्मास्तिकायादयः न कदाचिन्नासन्नित्यादि प्राग्वत्, एवामेवेत्यादि दार्टान्तिकयोजना निगदसिद्धैवेति । __एत्थ णमित्यादि, अत्र द्वादशाङ्गे गणिपिटके अनन्ता भावा आख्यायन्त इति योगः, तत्र भवन्तीति भावा जीवादयः पदार्थाः, एते च जीव-पुद्गलानन्तत्वादनन्ता 15 इति, तथा अनन्ता अभावाः, सर्वभावानामेव पररूपेणासत्त्वात्त एवानन्ता अभावा इति, स्व-परसत्ताभावा-ऽभावोभयाधीनत्वाद्वस्तुतत्त्वस्य, तथाहि- जीवो जीवात्मना भावोऽजीवात्मना चाभावोऽन्यथाऽजीवत्वप्रसङ्गादिति । अन्ये तु धर्मापेक्षया अनन्ता भावाः अनन्ता अभावाः प्रतिवस्त्वस्तित्वनास्तित्वाभ्यां प्रतिबद्धा इति व्याचक्षते । तथाऽनन्ता हेतवः, तत्र हिनोति गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुः, 20 ते चानन्ताः, वस्तुनोऽनन्तधात्मकत्वात्, तत्प्रतिबद्धधर्मविशिष्टवस्तुगमकत्वाच्च हेतोः, सूत्रस्य चानन्तगमपर्यायात्मकत्वादिति, यथोक्तहेतुप्रतिपक्षतोऽनन्ता अहेतवः तथा अनन्तानि कारणानि मृत्पिण्ड-तन्त्वादीनि घट-पटादिनिर्वर्त्तकानि, तथा अनन्तान्यकारणानि सर्वकारणानामेव कार्यान्तराकारणत्वात्, न हि मृत्पिण्डः पटं १. "त्यादिः खं० जे१,२ ॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे निवर्तयतीति। तथा अनन्ता जीवाः प्राणिनः, एवमजीवाः व्यणुकादयः, भवसिद्धिका भव्याः इतरे तु अभव्याः । सिद्धा निष्ठितार्थाः, इतरे संसारिणः, आघविजंतीत्यादि पूर्ववदिति । [सू० १४९] [१] दुवे रासी पण्णत्ता, तंजहा- जीवरासी य अजीवरासी 5 य । अजीवरासी दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- रूविअजीवरासी य अरूविअजीवरासी य । से किं तं अरूविअजीवरासी ? अरूविअजीवरासी दसविहा पण्णत्ता, तंजहा- धम्मत्थिकाए जाव अद्धासमए, जाव से किं तं अणुत्तरोववातिया? अणुत्तरोववातिया पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा- विजय वेजयंत-जयंत-अपराजिय-सव्वट्ठसिद्धया, सेत्तं अणुत्तरोववातिया, सेत्तं 10 पंचेंदियसंसारसमावण्णजीवरासी । दुविहा णेरइया पण्णत्ता, तंजहा- पजत्ता य अपजत्ता य, एवं दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणिय त्ति । [टी०] द्वादशाङ्गस्य स्वरूपमनन्तरमभिहितमथ तदभिधेयस्य राशिद्वयान्तर्भावतः स्वरूपमभिधित्सुराह- दुवे रासीत्यादि । इह च प्रज्ञापनायाः प्रथमपदं प्रज्ञापनाख्यं 15 सर्वं तदक्षरमध्येतव्यम्, किमवसानमित्याह- जाव से किं तमित्यादि, केवलमस्य प्रज्ञापनासूत्रस्य चायं विशेषः, इह दुवे रासी पण्णत्ता इत्यभिलापः, तत्र तु दुविहा पण्णवणा पण्णत्ता - जीवपण्णवणा अजीवपण्णवणा य [प्रज्ञापना० ३] त्ति, अतिदिष्टस्य च सूत्रतः सर्वस्य प्रज्ञापनापदस्य लेखितुमशक्यत्वादर्थतस्तल्लेश उपदर्शातेतत्राऽजीवराशिर्द्विविधो रूप्यरूपिभेदात्, तत्रारूप्यजीवराशिर्दशधा- धर्मास्तिकाय20 स्तद्देशस्तत्प्रदेशाश्चेत्येवमधर्मास्तिकायाकाशास्तिकायावपि वाच्यावेवं नव दशमोऽद्धासमय इति । रूप्यजीवराशिश्चतु - स्कन्धा देशाः प्रदेशाः परमाणवश्चेति, ते च वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-संस्थानभेदतः पञ्चविधाः संयोगतोऽनेकविधा इति । जीवराशिर्द्विविधः- संसारसमापन्नोऽसंसारसमापन्नश्च, तत्रासंसारसमापन्ना जीवा द्विविधाःअनन्तर-परम्परसिद्धभेदात्, तत्रानन्तरसिद्धाः पञ्चदशप्रकाराः, परम्परसिद्धास्त्वनन्तप्रकारा १. प्रज्ञापना० १४७ ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४९] - जीवाजीवराशिवर्णनम् । २५७ इति, संसारसमापन्नास्तु पञ्चधैकेन्द्रियादिभेदेन, तत्रैकेन्द्रियाः पञ्चविधाः पृथिव्यादिभेदेन, पुनः प्रत्येकं द्विविधाः सूक्ष्म-बादरभेदेन, पुनः पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदेन द्विधा, एवं द्वित्रि-चतुरिन्द्रिया अपि, पञ्चेन्द्रियाश्चतुर्द्धा नारकादिभेदात्, तत्र नारकाः सप्तविधाः रत्नप्रभादिपृथिवीभेदात्, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चस्त्रिधा जल-स्थल-खचरभेदात्, तत्र जलचराः पञ्चविधा मत्स्य-कच्छप-ग्राह-मकर-सुंसुमारभेदात् । पुनर्मत्स्या अनेकधा 5 श्लक्ष्णमत्स्यादिभेदात् । कच्छपा द्वेधा अस्थिकच्छप-मांसकच्छपभेदात्, ग्राहाः पञ्चधा दिलि-वेष्टक-मद्गु-पुलक-सीमाकारभेदात्, मकरा द्विधा शुण्डामकरा मष्टमकराश्च, संसुमारास्त्वेकविधाः, स्थलचरा द्विधा चतुष्पद-परिसर्पभेदात्, तत्र चतुष्पदाश्चतुर्द्धा एकखुर-द्विखुर-गण्डीपद-सनखपदभेदात्, क्रमेण चैते अश्व-गो-हस्ति-सिंहादयः, परिसर्पा द्विधा उर:परिसर्प-भुजपरिसर्पभेदात्, उर:परिसर्पाश्चतुर्द्धा अहि-अजगरा- 10 ऽऽशालिक-महोरगभेदात्, तत्राऽहयो द्विधा दर्वीकरा मुकुलिनश्चेति, खचराश्चतुर्द्धा चर्मपक्षिणो लोमपक्षिणः समुद्गपक्षिणो विततपक्षिणश्च, तत्राद्यौ द्वौ वल्गुलीहंसादिभेदावितरौ द्वीपान्तरेष्वेव स्तः, सर्वे च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च द्विधासम्मूर्छिमा गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च, तत्र संमूर्च्छिमा: नपुंसका एव, इतरे तु त्रिलिङ्गा इति, गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यास्त्रिधा - कर्मभूमिजा अकर्मभूमिजा अन्तरद्वीपजाश्चेति, 15 कर्मभूमिजा द्विविधाः- आर्या म्लेच्छाश्च, आर्या द्वेधा - ऋद्धिप्राप्ता इतरे च, तत्र प्रथमा अर्हदादयः, द्वितीया नवविधाः क्षेत्र-जाति-कुल-कर्म-शिल्प-भाषा-ज्ञान-दर्शनचारित्रभेदात् । देवाश्चतुर्विधाः भवनवास्यादिभेदात्, भवनपतयो दशधा असुर-नागादयः, व्यन्तरा अष्टधा पिशाचादयः, ज्योतिष्काः पञ्चधा चन्द्रादयः, वैमानिका द्वेधा कल्पोपगा: 20 कल्पातीताश्च, कल्पोपगा द्वादशधा सौधर्मादिभेदात्, कल्पातीता द्वेधा- ग्रैवेयका अनुत्तरोपपातिकाश्च, ग्रैवेयका नवधा, अनुत्तरोपपातिकाः पञ्चधेति, एतत् समस्तं सूचयतोक्तं जाव से किं तं अणुत्तरेत्यादि । पूर्वोक्तमेव जीवराशिं दण्डकक्रमेण द्विधा दर्शयन्नाह- दुविहेत्यादि सुगमम् । नवरं दंडओ त्ति । १. द्विधा जे२ हे१ ॥ २. द्वैधा जे२ ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे नेरइया १ असुराई १० पुढवाई ५ बिंदियादओ ४ मणुया १ । वंतर १ जोइस १ वेमाणिया य १ अह दंडओ एवं ॥ [ ] ॥ [सू० १४९] [२] इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए केवइयं ओगाहेत्ता केवइया णिरया पण्णत्ता? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए 5 आसीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं तीसं निरयावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खाया । ते णं णरया अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, जाव असुभा निरया असुभातो णरएसु वेयणातो । 10 [टी०] अथानन्तरप्रज्ञापितानां नारकादीनां पर्याप्ता-ऽपर्याप्तभेदानां स्थाननिरूपणायाह इमीसे णमित्यादि अवगाहनासूत्रादर्वाक् सर्वं कण्ठ्यम्, नवरं ते णं निरया इत्यादि, अत्र च जीवाभिगमचूर्ण्यनुसारेण लिख्यते - किल द्विविधा नरका भवन्ति आवलिकाप्रविष्टाः आवलिकाबाह्याश्च, तत्रावलिकाप्रविष्टा अष्टासु दिक्षु भवन्ति, ते च वृत्त-त्र्यम्र-चतुरस्रक्रमेण प्रत्यवगन्तव्याः, एतेषां च मध्ये इन्द्रकाः सीमन्तकादयो 15 भवन्ति, आवलिकाबाह्यास्तु पुष्पावकीर्णा दिविदिशामन्तरालेषु भवन्ति, नानासंस्थानसंस्थिता इति निरयसंस्थानव्यवस्था, तत्र च बाहुल्यमङ्गीकृत्येदमभिधीयते - अंतो वट्टेत्यादि, उक्तं च सूत्रकृद्वृत्तिकृता- नरका: सीमन्तकादिका बाहुल्यमङ्गीकृत्याऽन्त: मध्ये वृत्ता बहिरपि चतुरस्रा अधश्च क्षुरुप्रसंस्थानसंस्थिताः, एतच्च संस्थानं पुष्पावकीर्णकानाश्रित्योक्तं तेषामेव प्रचुरत्वात्, आवलिकाप्रविष्टास्तु वृत्त-त्र्यम्र-चतुरस्रसंस्थाना 20 भवन्ती[सूत्रकृताङ्गवृ० ति, तत्रान्तर्वृत्ता मध्ये शुषिरमाश्रित्य, बहिश्चतुरस्रा कुड्यपरिधिमाश्रित्य, यावत्करणादिदं दृश्यं यदुत- अधः क्षुरुप्रसंस्थानसंस्थिताः - १. “इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहाआवलियपविट्ठा य आवलियबाहिरा य । तत्थ णं जे ते आवलियपविट्ठा ते तिविहा पन्नत्ता, तंजहा- वट्टा तंसा चउरसा । तत्थ णं जे ते आवलियबाहिरा ते नानासंठाणसंठिता पन्नत्ता।" इति जीवाभिगमसूत्रे तृतीयायां प्रतिपत्तौ द्वितीये उद्देशके । अस्य सूत्रस्य चूर्णिरत्राभिप्रेता प्रतीयते । सम्प्रति जीवाभिगमचूर्णि!पलभ्यते ॥ २. अत्र प्रज्ञापनासूत्रस्य द्वितीये स्थानपदे १७४ तमं सूत्रं द्रष्टव्यम् ॥ ३. दृश्यतां सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीये श्रुतस्कन्धे द्वितीयस्य अध्ययनस्य शीलाचार्यविरचितायां वृत्तौ ॥ ४. क्षुरप्र' हे२ ॥ ५. क्षुरप्र जे१ हे२ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १४९] नरकावासवर्णनम् । २५९ भूतलमाश्रित्य क्षुरुप्राकारास्तद्भूतलस्य संचारिसत्त्वपादच्छेदकत्वात्, अन्ये त्वाहुः - तेषामधस्तनोंऽशः क्षुरुप्र इवाग्रेऽग्रे प्रतलो विस्तीर्णश्चेति क्षुरप्रसंस्थानता । तथा निच्चंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसप्पहा मेयवसापूयरुहिरमंसचिक्खल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा इति, तत्र नित्यं सर्वदा अन्धकारम् अन्धत्वकारकं बहलबलाहकपटलाऽऽच्छादित- 5 गगनमण्डलाऽमावास्याऽर्द्धरात्राऽन्धकारवत्तमः तमिदं येषु ते नित्यान्धकारतमसः, अथवा नित्येनान्धकारेण सार्वकालिकेनेत्यर्थः तमसः तमिस्रा नित्यान्धकारतमसः, जात्यन्धमेघाऽन्धकाराऽमावास्यानिशीथतुल्या इत्यर्थः, कथमित्यत आह– व्यपगता अविद्यमाना ग्रहचन्द्रसूरनक्षत्ररूपाणां ज्योतिषां ज्योतिष्कलक्षणविमानविशेषाणां ज्योतिषो वा दीपाद्यग्नेः प्रभा प्रकाशो येषु ते तथा, पह त्ति पथशब्दो वाऽयं व्याख्येयः, 10 तथा मेदो-वसा-पूय-रुधिर-मांसानि शरीरावयवास्तेषां यच्चिक्खल्लं कर्दमस्तेन लिप्तम् उपदिग्धमनुलेपनेन सकृल्लिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपनेन तलं भूमिका येषां ते मेदोवसा-पूय-रुधिर-मांसचिखल्ललिप्तानुलेपनतलाः, यद्यपि च तत्र मेदःप्रभृतीन्यौदारिकपञ्चेन्द्रियशरीरावयवरूपाणि न सन्ति वैक्रियशरीरत्वान्नारकाणां तथापि तदाकारास्तदवयवास्तत्तयोच्यन्त इति, अशुचयो विश्राः आमगन्धयः पूतिगन्धय 15 इत्यर्थः, अत एव परमदुरभिगन्धा: काऊअगणिवण्णाभ त्ति कृष्णाग्निर्लोहादीनां ध्यायमानानां तद्वर्णवदाभा येषां ते कृष्णाग्निवर्णाभाः, तथा कर्कशः स्पर्शो येषां ते कर्कशस्पर्शाः, अत एव दुःखेन कृच्छ्रेणाधिसोढुं शक्यते वेदना येषु ते दुरधिसहाः, अत एवाऽशुभा नरका अत एव च अशुभा नरकेषु वेदना इति ।। [सू० १४९] [३] एवं सत्त वि भाणियव्वाओ जं जासु जुजति- 20 आसीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च । अट्ठारस सोलसगं अट्ठत्तरमेव बाहल्लं ॥६४॥ तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दसेव सयसहस्साई । तिण्णेगं पंचूणं पंचेव अणुत्तरा नरगा ॥६५॥ १. क्षुरप्र जे१ हे२ ॥ २. असुइ जे२ ॥ ३. तत्तया तत्त्वेन उच्यन्त इत्यर्थः ॥ ४. सह्या जे२ हे२ ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे चउसट्ठी असुराणं चउरासीतिं च होति नागाणं । बावत्तरि सुवण्णाण वाउकुमाराण छण्णउतिं ॥६६॥ दीव-दिसा-उदधीणं विजुकुमारिंद-थणिय-मग्गीणं । छण्हं पि जुवलगाणं छावत्तरि मो सतसहस्सा ॥६७॥ बत्तीसऽट्ठावीसा बारस अट्ट चउरो सतसहस्सा । पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहस्सारे ॥६८॥ आणय-पाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणच्चुते तिन्नि । सत्त विमाणसताई चउसु वि एएसु कप्पेसु ॥६९॥ एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । 10 सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥७॥ दोच्चाए णं पुढवीए तच्चाए णं पुढवीए चउत्थी[ए णं पुढवीए] पंचमी [ए णं पुढवीए] छट्ठी[ए णं पुढवीए] सत्तमी[ए णं पुढवीए] गाहाहिं भाणियव्वा। सत्तमाए णं पुढवीए पुच्छा, गोतमा ! सत्तमाए पुढवीए अटुत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उवरिं अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता 15 हेट्ठा वि अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साइं वज्जेत्ता मज्झे तिसु जोयणसहस्सेसु एत्थ णं सत्तमाए पुढवीए नेरइयाणं पंच अणुत्तरा महतिमहालया महानिरया पण्णत्ता, तंजहा- काले, महाकाले, रोरुते, महारोरुते, अपतिट्ठाणे णामं पंचमए। ते णं निरया वट्टे य तंसा य, अधे खुरप्पसंठाणसंठिता जाव असुभा नरगा असुभाओ नरएसु वेयणातो । 20 [टी०] एवं सत्त वि भाणियव्व त्ति प्रथमाममुञ्चता सप्त इत्युक्तम्- जं जासु जुज्जइ त्ति यच्च यस्यां पृथिव्यां बाहल्यस्य नरकाणां च परिमाणं युज्यते स्थानान्तरोक्तानुसारेण तच्च तस्यां वाच्यम्, तच्चेदम्- आसीतं गाहा, तीसा य गाहा, अशीतिसहस्राधिकं योजनलक्षं रत्नप्रभायां बाहल्यमेवं शेषासु भावनीयम्, तथा त्रिंशल्लक्षाणि प्रथमायां नरकावासानामित्येवं शेषास्वपि नेयमिति, आवासपरिमाणं चासुरादीनामपि दशानां १. प्रज्ञापनासूत्रे द्वितीये स्थानपदे क्वचिदक्षरशः क्वचित्तु अर्थानुसारि सर्वमिदमभिहितं विस्तरेण ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५०] नरकावासा-ऽसुरकुमारावासादिवर्णनम् । २६१ सौधर्मादीनां च कल्पेतराणां सूत्रैर्वक्ष्यतीति, तन्निवासपरिमाणसङ्ग्रहः- चउसट्ठी इत्यादि गाथाः पञ्च । एवं चेह सूत्राभिलापो दृश्य:- सक्करप्पभाए णं पुढवीए केवइयं ओगाहित्ता केवइया निरया पण्णत्ता ?, गोयमा ! सक्करप्पभाए णं पुढवीए बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे तीसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं सक्करप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं पणुवीसं निरयावाससयसहस्सा 5 भवन्तीति मक्खाया, ते णं निरयेत्यादि, एवं गाथानुसारेणान्येऽपि पञ्चालापका वाच्या इति, एतदेवाह- दोच्चाए इत्यादि वेयणाओ इत्येतदन्तं सुगमम्, नवरं गाहाहिं ति गाथाभिः करणभूताभिर्गाथानुसारेणेत्यर्थः, भणितव्या वाच्या नरकावासा इति प्रक्रमः। तथा वट्टे य तंसा य त्ति मध्यमो वृत्तः शेषास्त्र्यम्रा इति ।। [सू० १५०] [१] केवतिया णं भंते ! असुरकुमारावासा पण्णत्ता ? 10 गोतमा! इमीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्टा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए चउसर्टि असुरकुमारावाससतसहस्सा पण्णत्ता । ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, अहे पोक्खरकण्णियासंठाणसंठिता, उक्किण्णंतरविपुलगंभीरखात- 15 फलिहा अट्टालयचरियदारगोउरकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतमुसलमुसंढिसतग्घिपरिवारिता अउज्झा अडयालकोट्ठयरइया अडयालकतवणमाला लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणददरदिण्णपंचंगुलितला कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझंतधूवमघमघेतगंधुद्धराभिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधवट्टिभूता अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सप्पभा 20 समिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । एवं जस्स जं कमती तं तस्स जं जं गाहाहिं भणियं, तह चेव वण्णओ । [२] केवतिया णं भंते ! पुढविकाइयावासा पण्णत्ता ? गोतमा ! असंखेजा पुढविकाइयावासा पण्णत्ता । एवं जाव मणूस त्ति । [३] केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावासा पण्णत्ता ? गोतमा ! इमीसे 25 णं रतणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरिं Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आचार्य श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एगं जोयणसतं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसतं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसतेसु एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जणगरावाससतसहस्सा पण्णत्ता । ते णं भोमेज्जा नगरा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा, एवं जहा भवणवासीणं तहेव णेयव्वा णवरं पडागमालाउला सुरम्मा पासादीया 5 [ दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ] । 9 [४] केवतिया णं भंते ! जोतिसियावासा पण्णत्ता ? गोयमा ! इसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तनउयाई जोयणसयाइं उड्डुं उप्पतित्ता एत्थ णं दसुत्तरजोयणसतबाहल्ले तिरियं जोतिसविसए जोतिसियाणं देवाणं असंखेजा जोतिसियविमाणावासा पण्णत्ता । ते णं 10 जोतिसियविमाणावासा अब्भुग्गयमूसियपहसिया विविहमणिरयणभत्तिचित्ता वाउद्भुतविजयवेजयंतीपडागच्छत्तातिच्छत्तकलिया तुंगा गगणतलमणुलिहंतसिहरा जालंतररयण पंजरुम्मिलित व्व मणिकणगथ्रुभियागा विगसितसतवत्तपुंडरीयतिलयरयणद्धचंदचित्ता अंतो बहिं च सण्हा तवणिज्जवालुगापत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिवा । [५] केवइया णं भंते ! वेमाणियावासा पण्णत्ता ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उड चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवा णं वीतिवइत्ता बहूणि जोयणाणि बहूणि जोयणसताणि [ बहूणि] जोयणसहस्साणि [ बहूणि] जोयणसयसहस्साणि [बहुगीतो] जोयणकोडीतो [ बहुगीतो] जोयणकोडाकोडीतो असंखेज्जाओ 20 जोयणकोडाकोडीतो उडुं दूरं वीइवइत्ता एत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं सोहम्मीसाण - सणकुमार - माहिंद - बंभ - लंतग-सुक्क सहस्सार- आणय- पाणयआरण-ऽच्चुए गेवेज्जगणुत्तरेसु य चउरासीति विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउतिं च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवतीति मक्खाया । ते णं विमाणा अच्चिमालिप्पभा भासरासिवण्णाभा अरया नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा १. गेवेज्जमणु जे२ । गेवेज्जगमणु जे१ || 15 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५०] असुरकुमारावासादिवर्णनम् । २६३ सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा णिप्पंका णिक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरिया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । [६] सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवतिया विमाणावासा पण्णत्ता ? गोयमा! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । एवं ईसाणाइसु २८ । १२ । ८। ४ । एयाई सयसहस्साई, ५० । ४० । ६ । एयाइं सहस्साई, आणए पाणए 5 चत्तारि, आरणच्चुए तिण्णि, एयाणि सयाणि, एवं गाहाहिं भाणियव्वं । [टी०] अथासुराद्यावासविषयमभिलापं दर्शयति- केव इत्यादि सुगमम्, नवरं तानि भवनानि बहिर्वृत्तानि वृत्तप्राकारावृतनगरवत्, अन्तः समचतुरस्राणि तदवकाशदेशस्य चतुरस्रत्वात्, अधः पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितानि, पुष्करकर्णिका पद्ममध्यभागः, सा चोन्नतसमचित्रबिन्दकिनी भवतीति, तथा उत्कीर्णान्तर- 10 विपुलगम्भीरखात-परिखानि, उत्कीर्णं भुवमुत्कीर्य पालीरूपं कृतमन्तरम् अन्तरालं ययोस्ते उत्कीर्णान्तरे ते विपुलगम्भीरे खात-परिखे येषां तानि तथा, तत्र खातमध उपरि च समम्, परिखा तूपरि विशाला अधः सङ्कुचिता, तयोरन्तरे तेषु पाली अस्तीति भावः, तथा अट्टालकाः प्राकारस्योपर्याश्रयविशेषाः, चरिका नगर-प्राकारयोरन्तरमष्टहस्तो मार्गः, पाठान्तरेण चतुरय त्ति चतुरकाः सभाविशेषाः ग्रामप्रसिद्धाः, दारगोउर 15 त्ति गोपुरद्वाराणि प्रतोल्यो नगरस्येव, कपाटानि प्रतीतानि, तोरणान्यपि तथैव, प्रतिद्वाराणि अवान्तरद्वाराणि, तत एतेषां द्वन्द्वः, एतानि देशलक्षणेषु भागेषु येषां तानि तथा, इह देशो भागश्चानेकार्थः, ततोऽन्योन्यमनयोर्विशेष्यविशेषणभावो दृश्य इति, तथा यन्त्राणि पाषाणक्षेपणयन्त्राणि, मुशलानि प्रतीतानि, मुसुण्ढयः प्रहरणविशेषाः, शतघ्न्यः शतानामुपघातकारिण्यो महाकायाः काष्ठ-शैलस्तम्भयष्टयः, ताभिः परियारिय 20 त्ति परिवारितानि, परिकरितानीत्यर्थः, तथा अयोधानि योधयितुं सङ्ग्रामयितुं दुर्गत्वान्न शक्यन्ते परबलैर्यानि तान्ययोधानि, अविद्यमाना वा योधाः परबलसुभटा यानि प्रति तान्ययोधानि । तथा अडयालकोट्ठगरइय त्ति अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्नविचित्रच्छन्दगोपुररचितानि, अन्ये भणन्ति अडयालशब्दः किल प्रशंसावाचकः । तथा १. म्भीरखातपरिखे खं० जे१ ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अडयालकयवणमाल त्ति अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्नाः प्रशंसाए वा कृता वनमाला वनस्पतिपल्लवस्रजो येषु तानि तथा । तथा लाइयं ति यद् भूमेश्छगणादिनोपलेपनम् उल्लोइयं ति कुड्यमालानां सेटिकादिभिः सम्मृष्टीकरणम्, ततस्ताभ्यामिव महितानि पूजितानि लाउल्लोइयमहितानि । तथा गोशीर्षं चन्दनविशेषः सरसं च रसोपेतं 5 यद् रक्तचन्दनं चन्दनविशेषः, ताभ्यां दर्दराभ्यां घनाभ्यां दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला हस्तकाः कुड्यादिषु येषु, अथवा गोशीर्षसरसरक्तचन्दनस्य सत्का दर्दरेण चपेटाभिघातेन दर्दरेषु वा सोपानवीथीषु दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला येषु तानि गोशीर्षसरसरक्तचन्दनदर्दरदत्तपञ्चाङ्गुलितलानि । तथा कालागुरुः कृष्णा गुरुर्गन्धद्रव्यविशेष: प्रवरः प्रधानः कुन्दुरुक्कः चीडा तुरुष्कः सिल्हकं गन्धद्रव्यमेव 10 एतानि च तानि डज्झंत त्ति दह्यमानानि चेति विग्रहः, तेषां यो धूमो मघमघेत त्ति अनुकरणशब्दोऽयं मघमघायमानो बहलगन्ध इत्यर्थः तेनोद्धुराणि उत्कटानि यानि तानि तथा, तानि च तान्यभिरामाणि च रमणीयानीति समासः । तथा सुगन्धयः सुरभयो ये वरगन्धाः प्रधानवासास्तेषां गन्ध: आमोदो येष्वस्ति तानि सुगन्धिवरगन्ध गन्धिकानि । तथा गन्धवर्तिः गन्धद्रव्याणां गन्धयुक्तिशास्त्रोपदेशेन निर्वर्तिता 15 गुटिका, तद्भूतानि तत्कल्पानीति गन्धवर्तिभूतानि प्रवरगन्धगुणानीत्यर्थः । तथा अच्छानि आकाशस्फटिकवत्, सह त्ति श्लक्ष्णानि सूक्ष्मस्कन्धनिष्पन्नत्वात्, श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत्, लण्ह त्ति मसृणानीत्यर्थः, घुण्टितपटवत्, घट्ट त्ति घृष्टानीव घृष्टानि खरशानया पाषाणप्रतिमावत्, मट्ठ त्ति मृष्टानीव मृष्टानि सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमेव, शोधितानि वा प्रमार्जनिकयेव, अत एव नीरय त्ति नीरजांसि 20 रजोरहितत्वात्, निम्मल त्ति निर्मलानि कठिनमलाभावात्, वितिमिर त्ति वितिमिराणि निरन्धकारत्वात, विसुद्ध त्ति विशुद्धानि निष्कलकत्वात्, न चन्द्रवत् सकलङ्कानीत्यर्थः। तथा सप्पह त्ति सप्रभाणि, सप्रभावाणि अथवा स्वेन आत्मना प्रभान्ति शोभन्ते प्रकाशन्ते वेति स्वप्रभाणि, यतः समिरीय त्ति समरीचीनि सकिरणानि अत एव १. च तानि यानि तानि तथा, तेषां यो हे२ । च यानि तानि तथा, यो हे१ ॥ २. उत्कुटानि खं० जे२ ॥ ३. नि:पंकत्वात् हे१,२ । नि:पंचकत्वात् जे२ ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५०] असुरकुमारावासादिवर्णनम् । २६५ सउज्जोय त्ति सहोद्योतेन वस्त्वन्तरप्रकाशनेन वर्त्तन्ते इति सोद्योतानि, पासाईय त्ति प्रासादीयानि मनःप्रसत्तिकराणि, दरिसणिज त्ति दर्शनीयानि, तानि हि पश्यंश्चक्षुषा न श्रमं गच्छतीति भावः, अभिरूव त्ति अभिरूपाणि कमनीयानि, पडिरूव त्ति प्रतिरूपाणि द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रमणीयानि, नैकस्य कस्यचिदेवेत्यर्थः । एवमित्यादि, यथा असुरकुमारावाससूत्रे तत्परिमाणमभिहितमेवमिति, तथा यद् 5 भवनादिपरिमाणं यस्य नागकुमारादिनिकायस्य क्रमते घटते तत्तस्य वाच्यमिति । किंविधं तत् परिमाणमत आह– जं जं गाहाहिं भणियं यद्यद् गाथाभिः चउसट्ठी असुराणमित्यादिकाभिरभिहितम्, किं परिमाणमेव तथा वाच्यम् ? नेत्याह- तह चेव वण्णओ त्ति यथा असुरकुमारे भवनानां वर्णक उक्तस्तथा सर्वेषामसौ वाच्य इति, तथाहि- केवइया णं भंते ! नागकुमारावासा पण्णत्ता ?, गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए 10 पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसयसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए [पुढवीए] चुलसीई नागकुमारावाससयसहस्सा → [पण्णत्ता], ते णं भवणा इत्यादीति । केवइया णं भंते । पुढवीत्यादि गतार्थम्, नवरं मनुष्याणां गर्भव्युत्क्रान्तिकानाम् असंख्यातानामभावात् संख्याता एवावासाः, सम्मूर्छिमानां त्वसंख्येयत्वेन 15 प्रतिशरीरमावासभावादसंख्येया इति भावनीयमिति । केवइया णं भंते ! जोइसियाणं विमाणावासा इत्यादि। अब्भुग्गयमूसियपहसिय त्ति अभ्युद्गता सञ्जाता उत्सृता प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा दीप्तिस्तया सिताः शुक्ला इत्यभ्युद्गतोत्सृतप्रभासिताः, तथा विविधा अनेकप्रकारा मणयः चन्द्रकान्ताद्या रत्नानि कर्केतनादीनि, तेषां भक्तयो विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्रा: 20 चित्रवन्तः आश्चर्यवन्तो वेति विविधमणिरत्नभक्तिचित्राः, तथा वातोद्भूता वायुकम्पिता विजयः अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्तीत्यभिधाना याः पताका अथवा विजया इति वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना या वैजयन्त्यस्ताश्च तद्वर्जिताः पताकाच छत्रातिच्छत्राणि च उपर्युपरिस्थितातपत्राणि तैः कलिता युक्ता १. पासाइय जे२ हे१,२ ॥ →..... एतच्चिह्रान्तर्गतपाठस्थाने हे२ मध्ये ईदृशः पाठः- भवंतीति मक्खाय त्ति । द्वीपकुमारादीनां तु षण्णां प्रत्येकं षट्सप्ततिर्वाच्येति ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे वातोद्भूतविजयवैजयन्तीपताकाछत्रातिच्छत्रकलिता इति । तुङ्गा उच्चस्त्वगुणयुक्ताः, अत एव गयणतलमणुलिहंतसिहर त्ति गगनतलम् अम्बरमनुलिखद् अभिलङ्घयच्छिखरं येषां ते गगनतलानुलिखच्छिखराः । तथा जालान्तरेषु जालकमध्यभागेषु रत्नानि येषां ते जालान्तररत्नाः, इह प्रथमा5 बहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, जालकानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतान्येव तदन्तरेषु च शोभा) रत्नानि सम्भवन्त्येवेति । तथा पञ्जरोन्मीलिता इव पञ्जरबहिष्कृता इव, यथा किल किञ्चिद्वस्तु पञ्जराद् वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाबहिः कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायत्वाच्छोभते एवं तेऽपीति भावः । तथा मणिकनकानां सम्बन्धिनी स्तूपिका शिखरं येषां ते मणिकनकस्तूपिकाकाः । तथा विकसितानि यानि शतपत्रपुण्डरीकाणि द्वारादौ 10 प्रतिकृतित्वेन तिलकाश्च भित्त्यादिषु पुण्ड्राणि रत्नमयाश्च ये अर्द्धचन्द्रा द्वाराग्रादिषु तैश्चित्रा ये ते विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्राः । तथा अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णा मसृणा इत्यर्थः । तथा तपनीयं सुवर्णविशेषस्तन्मय्या वालुकायाः सिकतायाः प्रस्तट: प्रतरो येषु ते तपनीयवालुकाप्रस्तटाः, पाठान्तरे तु सण्हशब्दस्य वालुकाविशेषणत्वात् श्लक्ष्णतपनीयवालुकाप्रस्तटा इति व्याख्येयम् । तथा सुखस्पर्शाः शुभस्पर्शा वा, 15 तथा सश्रीकं सशोभं रूपम् आकारो येषाम् अथवा सश्रीकाणि शोभावन्ति रूपाणि नरयुग्मादीनि रूपकाणि येषु ते सश्रीकरूपाः, प्रासादीया दर्शनीयाः अभिरूपाः प्रतिरूपा इति पूर्ववत्। केवइएत्यादि, रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ त्ति बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य ऊर्ध्वम् उपरि, तथा चन्द्रमः-सूर्य-ग्रहगण-नक्षत्र20 तारारूपाणि, णमित्यलङ्कारे, किम् ? वीइवइत्त त्ति व्यतिव्रज्य व्यतिक्रम्येत्यर्थः, तारारूपाणि चेह तारका एवेति, तथा बहूनीत्यादि, किमित्याह– ऊर्ध्वम् उपरि दूरमत्यर्थं व्यतिव्रज्य चतुरशीतिर्विमानलक्षाणि भवन्तीति सम्बन्धः, इति मक्खाय त्ति इति एवंप्रकारा अथवा यतो भवन्ति तत आख्याताः सर्ववेदिनेति, ते णं ति तानि विमानानि, णमिति वाक्यालकारे, अच्चिमालिप्पभ त्ति अर्चिमाली १. जालमध्य' जे२ ॥ २. प्रसा' जे२ हे२ ॥ ३. केव इत्यादि जे२ ॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५१] असुरकुमारावासादिवर्णनम् । आदित्यस्तद्वत् प्रभान्ति शोभन्ते यानि तान्यर्चिमालिप्रभाणि, तथा भासानां प्रकाशानां राशिः भासराशिः आदित्यस्तस्य वर्णस्तद्वदाभा छाया वर्णो येषां केषांचित्तानि भासराशिवर्णाभानि, तथा अरय त्ति अरजांसि स्वाभाविकरजोरहितत्वात्, नीरयत्ति नीरजांसि आगन्तुकरजोविरहात्, निम्मल त्ति निर्मलानि कक्खटमलाभावात्, वितिमिराणि आहार्यान्धकाररहितत्वात्, विशुद्धानि स्वाभाविकतमोविरहात् 5 सकलदोषविगमाद्वा, सर्वरत्नमयानि न दार्वादिदलमयानीत्यर्थः, अच्छान्याकाशस्फटिकवत्, श्लक्ष्णानि सूक्ष्मस्कन्धमयत्वात्, घृष्टानीव घृष्टानि खरशानया पाषाणप्रतिमेव, मृष्टानीव मृष्टानि सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमेवेति, निष्पङ्कानि कलङ्कविकलत्वात् कर्दमविशेषरहितत्वाच्च, निष्कङ्कटा निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेत्यर्थः छाया दीप्तिर्येषां तानि निष्ककटच्छायानि, 10 प्रभाणि प्रभाववन्ति, समरीचीनि सकिरणानीत्यर्थः, सोद्योतानि वस्त्वन्तरप्रकाशनकराणीत्यर्थः, पासाईएत्यादि प्राग्वत् । सोहम्मे णं भंते! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णत्ता ?, गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । एवमीशानादिष्वपि द्रष्टव्यम्, एतदेवाह - एवं ईसाणाइसुति, एवं गाहाहिं भाणियव्वं ति बत्तीस अट्ठवीसा इत्यादिकाभिः 15 पूर्वोक्तगाथाभिः, तदनुसारेणेत्यर्थः, प्रतिकल्पं भिन्नपरिमाणा विमानावासा भणितव्यास्तद्वर्णकश्च वाच्यो यथा - ते णं विमाणेत्यादि यावत् पडिरूवा, नवरमभिलापभेदोऽयं यथा - ईसाणे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णत्ता ?, गोयमा ! अट्ठावीस विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते णं विमाणा जाव पडिरूवा । एवं सर्वं पूर्वोक्तगाथानुसारेण प्रज्ञापनाद्वितीयपदानुसारेण च वाच्यमिति ॥ [सू० १५१] नेरेंइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्त्रेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । अपज्जत्तगाणं भंते ! नेरइयाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । १. यथा नास्ति जे२ ॥ २. प्रज्ञापनासूत्रे चतुर्थे स्थितिपदे विस्तरेणेदं सर्वं विद्यते ॥ २६७ 20 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पजत्तगाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए एवं जाव विजय-वेजयंत-जयंतअपराजियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं 5 बत्तीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाणि । सव्वढे अजहण्णमणक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ।। [टी०] अनन्तरं नारकादिजीवानां स्थानान्युक्तानि, अथ तेषामेव स्थितिमुपदर्शयितुमाह-नेरइयाणं भंते इत्यादि सुगमम्, नवरं स्थितिः नारकादिपर्यायेण जीवानामवस्थानकालः, अपजत्तयाणं ति, नारकाः किल लब्धितः पर्याप्तका 10 एव भवन्ति, करणतस्तूपपातकाले अन्तर्मुहूर्तं यावदपर्याप्तका भवन्ति ततः पर्याप्तकाः, ततस्तेषामपर्याप्तकत्वेन स्थितिर्जघन्यतोऽप्युत्कर्षतोऽपि चान्तर्मुहूर्तमेव, पर्याप्तकानां पुनरौघिक्येव जघन्योत्कृष्टा चान्तर्मुहूर्तोना भवतीति, अयं चेह पर्याप्तकाऽपर्याप्तकविभाग: नारयदेवा तिरिमणुयगब्भया जे असंखवासाऊ । 15 एते उ अपजत्ता उववाए चेव बोद्धव्वा ।। [ ] सेसा य तिरियमणुया लद्धिं पप्पोववायकाले य । दुहओ वि य भइयव्वा पजत्तियरे य जिणवयणं ॥ [ ] ति । उक्ता सामान्यतो नारकस्थितिः, विशेषतस्तामभिधातुमिदमाह- इमीसे णमित्यादि, स्थितिप्रकरणं च सर्वं प्रज्ञापनाप्रसिद्धमित्यतिदिशन्नाह- एवमिति यथा प्रज्ञापनायां 20 सामान्य-पर्याप्तका-ऽपर्याप्तकलक्षणेन गमत्रयेण नारकाणां नारकविशेषाणां तिर्यगादिकानां च स्थितिरुक्ता एवमिहापि वाच्या, कियदूरं यावदित्याह- जाव विजयेत्यादि, अनुत्तरसुराणामौघिका-ऽपर्याप्तक-पर्याप्तकलक्षणं गमत्रयं यावदित्यर्थः, इह १. अत्रैव समवायाङ्गसूत्रे एकत्रिंशत्स्थानके “विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिताणं देवाणं जहण्णेणं एक्कतीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता' [सू०३१] इति अभिहितम्, अत्र तु जघन्येन द्वात्रिंशत् सागरोपमाणि उक्तानि । कथमेकत्रैव सूत्रे परस्परं विसंवादः ?। अनुयोगद्वारसूत्रे [सू०३९१[९]], प्रज्ञापनासूत्रे चतुर्थे पदे ४३६[३] तमे सूत्रे उत्तराध्ययनसूत्रे षट्त्रिंशत्तमेऽध्ययने [गा०२४३] च एकत्रिंशद् एव जघन्येन स्थितिरुक्ता ॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५२] नारकादिस्थितिवर्णनम्-औदारिकादिशरीरवर्णनम् । २६९ चैवमतिदिष्टसूत्राण्यर्थतो वाच्यानि– रत्नप्रभानारकाणां भदन्त ! कियती स्थितिः ?, गौतम! जघन्येन दश वर्षसहस्राणि, उत्कर्षतः सागरोपमम् १, अपर्याप्तकरत्नप्रभापृथिवीनारकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, गौतम! उभयथाऽपि अन्तर्मुहूर्तम् २, एवं पर्याप्तकानां सामान्योक्तैवान्तर्मुहूर्तांना वाच्या ३, एवं शेषपृथिवीनारकाणां प्रत्येकं दशानामसुरादीनां पृथिवीकायिकादीनां तिरश्चां गर्भजेतरभेदानां 5 मनुष्याणां व्यन्तराणामष्टविधानां ज्योतिष्काणां पञ्चप्रकाराणां सौधर्मादीनां वैमानिकानां च गमत्रयं वाच्यम्, इह च विजयादिषु जघन्यतो द्वात्रिंशत् सागरोपमाण्युक्तानि, गन्धहस्त्यादिष्वपि तथैव दृश्यते, प्रज्ञापनायां त्वेकत्रिंशदुक्तेति मतान्तरमिदम्, पर्याप्तकाऽपर्याप्तकगमद्वयमिह समूह्यम्, एवं सर्वार्थसिद्धिस्थितिरपि त्रिभिर्गमैर्वाच्येति ॥ [सू० १५२] कति णं भंते ! सरीरा पण्णत्ता ? गोतमा ! पंच सरीरा 10 पण्णत्ता, तंजहा- ओरालिए जाव कम्मए । __ ओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा- एगिदियओरालियसरीरे जाव गन्भवतियमणुस्सपंचिंदिय ओरालियसरीरे य । ओरालियसरीरस्स णं भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं 15 जोयणसहस्सं । एवं जहा ओगाहणसंठाणे ओरालियपमाणं तहा निरवसेसं, १. “हूर्तम् २, पर्याप्तकानां तु सामान्यो हे२ ॥ २. तत्त्वार्थटीकाकर्तुः सिद्धसेनाचार्यस्य गन्धहस्तिनाम्ना प्रसिद्धिरस्ति । किन्तु तत्त्वार्थस्य सिद्धसेनाचार्यविरचितायां टीकायामीदृशः पाठो वर्तते- “विजयादिषु चतुर्ष जघन्येन एकत्रिंशत् उत्कर्षेण द्वात्रिंशत्, सर्वार्थसिद्ध त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि अजघन्योत्कृष्टा स्थितिः । भाष्यकारेण तु सर्वार्थसिद्धेऽपि जघन्यापि द्वात्रिंशत् सागरोपमाण्यधीता, तन्न विद्यः केनाप्यभिप्रायेण" तत्त्वार्थटीका ४।३२] । अत इदमभयदेवसूरिवचनं तत्त्वार्थव्याख्याकर्तुः सिद्धसेनाचार्यस्य गन्धहस्तित्वप्रसिद्धिबाधकम्, ततश्चिन्त्यमिदम् । "परत: परत: पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा [तत्त्वार्थसू० ४।४२] माहेन्द्रात् परतः, पूर्वा परा अनन्तरा जघन्या स्थितिर्भवति, तद्यथा- माहेन्द्रे परा स्थितिर्विशेषाधिकानि सप्त सागरोपमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या स्थितिर्भवति, ब्रह्मलोके दश सागरोपमाणि परा स्थितिः सा लान्तके जघन्या । एवमा सर्वार्थसिद्धादिति" इति तत्त्वार्थभाष्ये पाठः ४।४२॥ दिगम्बरपरम्परायां तु उपरिमग्रैवेयकेषु प्रथमे एकान्नत्रिंशत्, द्वितीये त्रिंशत्, तृतीये एकत्रिंशत्, अनुदिशविमानेषु द्वात्रिंशत्, विजयादिषु त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि उत्कृष्टा स्थितिः, सर्वार्थसिद्धे त्रयस्त्रिंशदेवेति" इति तत्त्वार्थराजवार्तिके ४।३२॥ ३. प्रज्ञापनासूत्रस्य एकविंशतितमे अवगाहनासंस्थानपदे एतद् विस्तरेण वर्णितमस्ति । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे एवं जाव मणुस्से उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाइं । कतिविहे णं भंते ! वेउव्वियसरीरे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा - एगिंदियवेउव्वियसरीरे य पंचिंदियवेउव्वियसरीरे य । एवं जाव सणकुमारे आढत्तं जाव अणुत्तरा भवधारणिज्जा जा तेसिं रयणी रयणी 5 परिहायति । आहारयसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगाकारे पण्णत्ते । जइ एगाकारे पण्णत्ते किं मणुस्सआहारयसरीरे अमणुस्सआहारयसरीरे ? गोयमा ! मणुस्साहारगसरीरे, णो अमणूसाहारगसरीरे । एवं जति मणूस ० किं गब्भवक्कंतिय० संमुच्छिम० ? गोयमा ! गव्भवक्कंतिय०, नो संमुच्छिम० । 10 जइ गब्भवक्कंतिय० किं कम्मभूमग० अकम्मभूमग० ? गोयमा ! कम्मभूमग०, नो अकम्मभूमग० । जइ कम्मभूमग० किं संखेज्जवासाउय० असंखेज्जवासाउय० ? गोयमा ! संखेज्जवासाउय०, नो असंखेज्जवासाउय० । जइ संखेज्जवासाउय० किं पज्जत्तय० अपज्जत्तय० ? गोयमा ! पज्जत्तय०, नो अपज्जत्तय० । जइ पज्जत्तय० किं सम्मद्दिट्ठी० मिच्छदिट्ठी० सम्मामिच्छदिट्ठी० ? गोयमा ! 15 सम्मदिट्ठिo, नो मिच्छदिट्ठि० नो सम्मामिच्छदिट्ठि० । जइ सम्मदिट्ठि० किं संजत० असंजत० संजतासंजत० ? गोयमा ! संजत०, नो असंजत० नो संजतासंजत० । जइ संजत० किं पमत्तसंजत० अपमत्तसंजत० ? गोयमा ! पत्तसंजत०, नो अपमत्तसंजत० । जइ पमत्तसंजत० किं इड्डिपत्त० अणिड्डिपत्त० ? गोयमा ! इडिपत्त०, नो अणिडिपत्त० । वयणा वि भणियव्वा । आहारयसरीरे 20 समचउरंससंठाणसंठिते । आहार [ यसरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? गोमा !] जहन्नेणं देसूणा रयणि, उक्कोसेणं पडिण्णा रणी । तेयासरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - एगिंदियतेयसरीरे य बेइंदियतेयसरीरे य तेइंदियतेयसरीरे य चउरिंदियतेयसरीरे य पंचिंदियतेयसरीरे य एवं जाव गेवेज्जयस्स णं भंते ! 25 देवस्स मारणंतियसमुग्घातेणं समोहतस्स समाणस्स [तेयासरीरस्स] केमहालिया Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ [सू० १५२] औदारिकादिशरीरवर्णनम् । सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभबाहल्लेणं, आयामेणं जहन्नेणं अहे जाव विजाहरसेढीओ, उक्कोसेणं अहे जाव अहोलोइया गामा, उढे जाव सयाई विमाणाई, तिरियं जाव मणुस्सखेत्तं, एवं जाव अणुत्तरोववाइया वि । एवं कम्मयसरीरं पि भाणियव्वं । [टी०] अनन्तरं नारकादिजीवानां स्थितिरुक्ता, इदानीं तच्छरीराणामवगाहना- 5 प्रतिपादनायाह- कइ णं भंते इत्यादि कण्ठ्यम्, नवरमेकेन्द्रियौदारिकशरीरमित्यादौ यावत्करणाद् द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियौदारिकशरीराणि पृथिव्यायेकेन्द्रिय-जलचरादिपञ्चेन्द्रियभेदेन प्रागुपदर्शितजीवराशिक्र मेण वाच्यानि, कियदूरमित्याहगब्भवक्कंतियेत्यादि । ओरालियसरीरस्सेत्यादि, तत्रोदारं प्रधानं तीर्थकरादिशरीराणि प्रतीत्य अथवोरोलं विशालं समधिकयोजनसहस्रप्रमाणत्वात् वनस्पत्यादि प्रतीत्य अथवा 10 उरलं स्वल्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्त्वाच्च भेण्डवदिति, अथवा मांसास्थिस्नायुबद्धं यच्छरीरं तत् समयपरिभाषया ओरालमिति, तच्च तच्छरीरं चेति प्राकृतत्वादौ(दो)रोलियशरीरम्, तस्य, अवगाहन्ते यस्यां साऽवगाहना आधारभूतं क्षेत्रम्, शरीराणामवगाहना शरीरावगाहना, अथवौदारिकशरीरस्य जीवस्य औदारिकशरीररूपावगाहना शरीरावगाहना सा भदन्त ! केमहालिया किम्महती प्रज्ञप्ता ?, तत्र 15 जघन्येनामुलासंख्येयभागं यावत् पृथिव्याद्यपेक्षया, उत्कर्षेण सातिरेकं योजनसहस्रमिति बादरवनस्पत्यपेक्षयेति। __ एवं जाव मणुस्से त्ति, इह एवं यावत्करणादवगाहनासंस्थानाभिधानप्रज्ञापनैकविंशतितमपदाभिहितग्रन्थोऽर्थतोऽयमनुसरणीयः, तथाहि- एकेन्द्रियौदारिकस्य पृच्छा निर्वचनं च तदेव, तथा पृथिव्यादीनां चतुर्णा बादर-सूक्ष्मपर्याप्ता-ऽपर्याप्तानां जघन्यत 20 उत्कृष्टतश्चाङ्गुलासंख्येयभागः, वनस्पतीनां बादरपर्याप्तानामुत्कर्षतः साधिकं योजनसहस्रम्, शेषाणां त्वगुलासंख्येयभाग एव, द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियाणां पर्याप्तानां १. 'गाहना आह खं० ॥ २. 'वोरालं विस्तरालं समधि हे२ ॥ ३. ओरालं खं० ॥ ४. भिंडवदिति खं० । भेंडवदित्यादि हे२ ॥ ५. लियं शरीरं खं० ॥ ६. औदारिकशरीरावगाहना खं० । ख० अनुसारेण ओरालियसरीरोगाहणा इति मूलपाठ: संभाव्यते॥ ७. मणुस्सेत्यादि इह खं० ॥ | Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे क्रमेण द्वादश योजनानि त्रीणि गव्यूतानि चत्वारि चेति, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां जलचराणां पर्याप्तानां गर्भजानां संमूर्च्छनजानां चोत्कर्षतो योजनसहस्रम्, एवं स्थलचराणां चतुष्पदानां संमूर्च्छनजानां पर्याप्तानां गव्यूतपृथक्त्वम्, गर्भव्युत्क्रान्तिकानां तेषां षड् गव्यूतानि, उर:परिसर्पाणां गर्भव्युत्क्रान्तिकानां योजनसहस्रम्, एषामेव सम्मूर्च्छनजानां 5 योजनपृथक्त्वम्, भुजपरिसर्पाणां गर्भजानां गव्यूतपृथक्त्वम्, सम्मूर्च्छनजानां धनुःपृथक्त्वम्, खचराणां गर्भजानां सम्मूर्छनजानां च धनुःपृथक्त्वमेव, तथा मनुष्याणां गर्भव्युत्क्रान्तिकानां गव्यूतत्रयम् सम्मूर्च्छनजानामगुलासंख्येयभागः, एष एव सर्वत्र जघन्यपदे अपर्याप्तपदे चेति । तथा कइविहे णमित्यादि स्पष्टम्, नवरं विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया, तस्यां 10 भवं वैक्रियम्, विविधं विशिष्टं वा कुर्वन्ति तदिति वैकुर्विकमिति वा, तत्रैकेन्द्रियवैक्रियशरीरं वायुकायस्य पञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरं नारकादीनाम् । एवं जावेत्यादेरतिदेशादिदं द्रष्टव्यम्, यदुत जइ एगिदियवेउब्वियसरीरए किं वाउकाइयएगिंदियवेउब्वियसरीरए अवाउकाइयएगिदियवेउव्वियसरीरए ?, गोयमा! वाउकाइयएगिदियसरीरए नो अवाउकाइय [प्रज्ञापना सू०१५१५] इत्यादिनाऽभिलापेनायमर्थो दृश्यः, यदि वायोः किं 15 सूक्ष्मस्य बादरस्य वा ?, बादरस्यैव, यदि बादरस्य किं पर्याप्तकस्या-ऽपर्याप्तकस्य वा ?, पर्याप्तकस्यैव, यदि पञ्चेन्द्रियस्य किं नारकस्य पञ्चेन्द्रियतिरश्चो मनुजस्य देवस्य वा ?, गौतम ! सर्वेषाम्, तत्र नारकस्य सप्तविधस्य पर्याप्तकस्येतरस्य च, यदि तिरश्चः किं सम्मूर्छिमस्य इतरस्य वा ?, इतरस्य, तस्यापि संख्यातवर्षायुष एव पर्याप्तकस्य, तस्य च जलचरादिभेदेन त्रिविधस्यापि । तथा मनुष्यस्य गर्भजस्यैव, तस्यापि 20 कर्मभूमिजस्यैव, तस्यापि संख्यातवर्षायुष एव पर्याप्तकस्यैव च । तथा देवस्य भवनवास्यादेः, तत्रासुरादेर्दशविधस्य पर्याप्तकस्येतरस्य च, एवं व्यन्तरस्याष्टविधस्य ज्योतिष्कस्य पञ्चविधस्य, तथा यदि वैमानिकस्य किं कल्पोपपन्नस्य कल्पातीतस्य ? उभयस्यापि पर्याप्तस्यापर्याप्तस्य चेति । तथा वैक्रियं भदन्त ! किंसंस्थितम् ?, उच्यते, नानासंस्थितम्, तत्र वायोः १. तस्यापिजल' हे१ ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५२] औदारिकादिशरीरवर्णनम् । २७३ पताकासंस्थितम्, नारकाणां भवधारणीयमुत्तरवैक्रियं च हुण्डसंस्थितम्, पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्-मनुष्याणां नानासंस्थितम्, देवानां भवधारणीयं समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितमुत्तरवैक्रियं नानासंस्थितम्, केवलं कल्पातीतानां भवधारणीयमेव । तथा वैक्रियशरीरावगाहना भदन्त ! किंमहती ?, गौतम ! जघन्यतोऽगुलासंख्येयभागमुत्कर्षतः सातिरेकं योजनलक्षम्, वायोरुभयथा अङ्गुलासंख्येयभागम्, एवं 5 नारकस्य जघन्येन, भवधारणीया तु उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि, एषा च सप्तम्याम्, षष्ठ्यादिषु त्वियमेव अर्द्धार्द्धहीनेति, उत्तरवैक्रिया तु जघन्यतः सर्वेषामप्यनुलसंख्येयभागमुत्कर्षतस्तु नारकस्य भवधारणीयद्विगुणेति, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां योजनशतपृथक्त्वमुत्कर्षतः, मनुष्याणां तूत्कर्षतः सातिरेकं योजनानां लक्षम्, देवानां तु लक्षमेवोत्तरवैक्रियम्, भवधारणीया तु भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्क-सौधर्मेशानानां 10 सप्त हस्ताः, सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः षट्, ब्रह्म-लान्तकयोः पञ्च, महाशुक्रसहस्रारयोश्चत्वार आनतादिषु त्रयो ग्रैवेयकेषु द्वावनुत्तरेष्वेक इति, अनन्तरोक्तं सूत्रत एवाह- एवं जाव सणंकुमारेत्यादि, एवमिति दुविहे पण्णत्ते एगिदिएत्यादिना पूर्वदर्शितक्रमेण प्रज्ञापनोक्तं वैक्रियावगाहनामानसूत्रं वाच्यम्, कियदूरमित्याह-यावत् सनत्कुमारे आरब्धं भवधारणीयवैक्रियशरीरपरिहाणमिति गम्यं ततोऽपि यावदनुत्तराणि 15 अनुत्तरसुरसम्बन्धीनि भवधारणीयानि शरीराणि यानि भवन्ति तेषां रत्नी रलिः परिहीयत इति, एतदर्थं सूत्रं तावदिति, पुस्तकान्तरे त्विदं वाक्यमन्यथापि दृश्यते, तत्राप्यक्षरघटनैतदनुसारेण कार्येति । आहारएत्यादि सुगमम्, नवरम् एवमिति यथा पूर्वम् आलापकः परिपूर्ण उच्चारित एवमुत्तरत्रापि, तथाहि- जइ मणुस्स त्ति - जइ मणुस्साहारगसरीरे किं 20 गब्भवक्कंतियमणुस्साहारगसरीरे संमुच्छिममणुस्साहारगसरीरे ?, गोयमा ! गब्भवक्कं तियमणुस्साहारगसरीरे नो संमुच्छिममणुस्साहारगसरीरे, जइ गब्भवक्कंतिय० इत्यादि सर्वमूह्यं यावत् जइ पमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपजत्तयसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणुस्साहारगसरीरे किं इडिपत्तपमत्त१. तिर्यग्मनु जे२ ॥ २. सूत्र एवाह जे१ खं० ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ . आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे संजयसम्मदिट्ठिपजत्तयसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणुस्साहारगसरीरे अणिडिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तयसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्वंतियमणुस्साहारगसरीरे ?, गोयमा ! द्वितीयस्य निषेधः प्रथमस्य चानुज्ञा वाच्या, एतदेवाह- वयणा वि भाणियव्व त्ति सूचितवचनान्यप्युक्तन्यायेन 5 सर्वाणि भणनीयानि, विभागेन पूर्णान्युच्चारणीयानीत्यर्थः, आहार त्ति ‘आहारगसरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?, गोयमा !' इत्येतत् सूचितम्, जहण्णेणं देसूणा रयणीति, कथम् ? उच्यते, तथाविधप्रयत्नविशेषतस्तथाऽऽरम्भकद्रव्यविशेषतश्च प्रारम्भकालेऽप्युक्तप्रमाणभावात्, न हीहौदारिकादेरिवा गुलासंख्येयभागमात्रता प्रारम्भकाले इति भावः । 10 तेयासरीरे णं भंते इत्यादि, एवं यावत्करणात् प्रज्ञापनासत्कैकविंशतितमपदोक्ता तैजसशरीरवक्तव्यता इह वाच्या, सा चेयमर्थतः- एगिदियतेयगसरीरे णं भंते ! कतिविहे ?, गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा- पुढवि जाव वणप्फइकाइयएगिदियतेयगसरीरे [प्रज्ञापना सू० १५३६-१५३७], एवं जीवराशिप्ररूपणाऽनुसारेण सूत्रं भावनीयम्, यावत् सठवट्ठसिद्धगअणुत्तरोववाइयकप्पातीतवेमाणियदेवपंचेंदियतेयगसरीरे णं भंते ! 15 किंसंठिए ?, नाणासंठिए [प्रज्ञापना सू० १५४४[३]], यस्य पृथिव्यादिजीवस्य यदौदारिकादिशरीरसंस्थानं तदेव तैजसस्य कार्मणस्य च । तथा जीवस्य मारणान्तिकसमुद्घातगतस्य कियती तैजसी शरीरावगाहना ?, शरीरमात्रा विष्कम्भ-बाहल्याभ्यामायमतस्तु जघन्येनाङ्गुलस्यासंख्येयभाग उत्कर्षत ऊर्ध्वमधश्च लोकान्ताल्लोकान्तं यावदेकेन्द्रियस्य, ततस्तत्रोत्पत्तिमङ्गीकृत्येति भावः, 20 एवं सर्वेषामेवैकेन्द्रियाणाम्, द्वीन्द्रियादीनां तु आयामत उत्कर्षेण तिर्यग्लोकाल्लोकान्तं यावत् प्रायस्तिर्यग्लोके द्वीन्द्रियादितिरश्चां भावात्, नारकस्य जघन्यतो योजनसहस्रम्, कथम् ?, नरकात् पातालकलशस्य सहस्रमानं कुड्यं भित्त्वा तत्र मत्स्यतयोत्पद्यमानस्य, उत्कर्षेण तु अधः सप्तमी यावत् सप्तमपृथिवीनारकं समुद्रादिमत्स्येषूत्पद्यमानं प्रतीत्य, तिर्यक् स्वयम्भूरमणं यावत् ऊर्ध्वं पण्डकवनपुष्करिणीं यावत्, यतस्तयोर्नारक उत्पद्यते, १. "म्मद्दिट्टि खं० जे१ हे२ ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५३] अवधि-वेदनादिवर्णनम् । २७५ न परतः, मनुष्यस्य लोकान्तं यावत्, भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्क-सौधर्मेशानदेवानां जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येयभागः स्वस्थान एव पृथिव्यादितयोत्पादात्, उत्कर्षतस्तु अधस्तृतीयपृथिवीं यावत् तिर्यक् स्वयम्भूरमणबहिर्वेदिकान्तम् ऊर्ध्वमीषत्प्राग्भारां यावत्, यत एते शुभपर्याप्तबादरेष्वेव पृथिव्यादिषूत्पद्यन्ते अतो न परतोऽपीति, सनत्कुमारादिसहस्रारान्तदेवानां तु जघन्यतोऽगुलासंख्येयभागः, कथम् ?, पण्डकवनादि- 5 पुष्करिणीमजनार्थमवतारे मृतस्य तत्रैव मत्स्यतयोत्पद्यमानत्वात्, पूर्वसम्बन्धिनी वा मनुष्योपभुक्तस्त्रियं परिष्वज्य मृतस्य तद्गर्भे समुत्पादादिति, उत्कर्षतस्तु अधो यावन्महापातालकलशानां द्वितीयस्त्रिभागः, तत्र हि जलसद्भावान्मत्स्येषूत्पद्यमानत्वात्, तिर्यक् स्वयम्भूरमणसमुद्रं यावत्, ऊर्ध्वमच्युतं यावत्, तत्र हि सङ्गतिकदेवनिश्रया गतस्य मृत्वेहोत्पद्यमानत्वादिति, आनतादीनामच्युतान्तानां तु जघन्यतोऽङ्गुला- 10 संख्येयभागः, कथम् ?, इहागतस्य मरणकालविपर्यस्तमतेर्मनुष्योपभुक्तस्त्रियमभिष्वज्य मृतस्य तत्रैवोत्पत्तेरिति, उत्कर्षतस्त्वधो यावदधोलोकग्रामान्, तिर्यग् मनुष्यक्षेत्रे, ऊर्ध्वमच्युतविमानानि यावत् मनुष्येष्वेवोत्पद्यन्ते एत इति भावना तथैव कार्या, ग्रैवेयकानुत्तरोपपातिकदेवानां जघन्यतो विद्याधरश्रेणीं यावत्, उत्कर्षतोऽधो यावदधोलोकग्रामान्, तिर्यग् मनुष्यक्षेत्रम्, ऊर्ध्वं तद्विमानान्येवेति, एवं कार्मणस्याप्यवगाहना 15 दृश्या समानत्वादेतयोरिति । उक्तार्थमेव सूर्तीशमाह- गेवेजगस्स णमित्यादि । [सू० १५३] भेदे विसय संठाणे अभंतर बाहिरे य देसोधी । ओहिस्स वड्डि हाणी पडिवाती चेव अपडिवाती ॥७॥ कतिविहे णं भंते ! ओही पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते- भवपच्चइए य खओवसमिए य । एवं सव्वं ओहिपदं भाणियव्वं । 20 सीता य दव्व सारीर सात तह वेयणा भवे दुक्खा । अब्भुवगमुवक्कमिया णिताई चेव अणिदातिं ॥७२॥ नेरइया णं भंते ! किं सीतवेदणं वेयंति, उसिणवेयणं वेयंति, सीतोसिणवेयणं वेयंति ? गोयमा ! नेरइया० एवं चेव वेयणापदं भाणियव्वं । . १. प्रज्ञापनासूत्रस्य त्रयस्त्रिंशत्तमम् अवधिपदम् ॥ २. प्रज्ञापनासूत्रस्य पञ्चत्रिंशत्तमं वेदनापदम् ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे __ कति णं भंते ! लेसातो पण्णत्तातो ? गोयमा ! छल्लेसातो पण्णत्तातो, तंजहा- किण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा । एवं लेसापदं भाणियव्वं । अणंतरा य आहारे आहाराभोयणा विय । 5 पोग्गला नेव जाणंति अज्झवसाणा य सम्मत्ते ॥७३॥ नेरइया णं भंते ! अणंतराहारा ततो निव्वत्तणया ततो परियातियणता ततो परिणामणता ततो परियारणया ततो पच्छा विकुव्वणया ? हंता गोयमा! एवं आहारपदं भाणियव्वं । [टी०] अनन्तरं शरीरिणामवगाहनाधर्म्म उक्तोऽधुना त्ववधिधर्मप्रतिपादनायाह-भेदे 10 इत्यादि द्वारगाथा, तत्र भेदोऽवधेर्वक्तव्यः, यथा द्विविधोऽवधिः - भवप्रत्ययः क्षायोपशमिकश्च, तत्र भवप्रत्ययो देवनारकाणां क्षायोपशमिको मनुष्यतिरश्चामिति, तथा विषयो गोचरोऽवधेर्वाच्यः, स च चतुर्द्धा - द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो जघन्येन तेजो-भाषयोरग्रहणप्रायोग्यानि द्रव्याणि जानाति, उत्कर्षतस्तु सर्वमेकाणुकाद्यनन्ताणुकान्तं रूपिद्रव्यजातं जानाति, क्षेत्रं जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येयभागं 15 जानाति उत्कर्षतोऽसंख्येयान्यलोके लोकमात्राणि खण्डानि जानाति, कालं जघन्यत आवलिकाया असंख्येयभागमतीतमनागतं च जानाति, उत्कर्षतः संख्यातीता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीर्जानाति, भावान् जघन्यतः प्रतिद्रव्यं चतुरो वर्णादीन् उत्कृर्षतः प्रतिद्रव्यमसंख्येयान् सर्वद्रव्यापेक्षया त्वनन्तानिति । तथा संस्थानमवधेर्वाच्यम्, यथा नारकाणां तप्राकारोऽवधिः, पल्याकारो भवनपतीनाम्, पटहाकारो व्यन्तराणाम्, 20 झल्लाकृतियॊतिष्काणाम्, मृदङ्गाकारः कल्पोपपन्नानाम्, पुष्पावलीरचितशिखर चङ्गेर्याकारो ग्रैवेयकाणाम्, कन्याचोलकसंस्थानोऽनुत्तरसुराणां लोकनाड्याकृतिरित्यर्थः, तिर्यङ्-मनुष्याणां तु नानासंस्थान इति । तथा अब्भंतर त्ति के अवधिप्रकाशितक्षेत्रस्याभ्यन्तरे वर्तन्ते इति वाच्यम्, तत्र नेरइयदेवतित्थंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा हुंति १. प्रज्ञापनासूत्रस्य सप्तदशं लेश्यापदम् ॥ २. अत्र प्रज्ञापनासूत्रस्य अष्टाविंशतितमम् आहारपदं न ग्राह्यम्, किन्तु आहारपदशब्देन चतुस्त्रिंशत्तमं परिचारणापदं ग्राह्यमिति टीकायां निर्दिष्टमभयदेवसूरिपादैः ॥ ३. च नास्ति खं० जे१ ॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ [सू० १५३] अवधि-वेदनादिवर्णनम् । [आव० नि०६६] इत्यादि । तथा बाहिरे त्ति केऽवधिक्षेत्रस्य बाह्या भवन्तीति वाच्यम्, तत्र शेषा जीवा बाह्यावधयोऽभ्यन्तरावधयश्च भवन्ति । तथा देसोहि त्ति अवधिप्रकाश्यवस्तुनो देशप्रकाशी अवधिर्देशावधिः स केषां भवतीति वाच्यम्, तद्विपरीतस्तु सर्वावधिः, तत्र मनुष्याणाम् उभयमन्येषां देशावधिरेव, यतः सर्वावधिः केवलज्ञानलाभप्रत्यासत्तावेवोत्पद्यत इति । तथाऽवधेर्वृद्धिानिश्च वाच्या, यो येषां 5 भवति, तत्र तिर्यङ्-मनुष्याणां वर्द्धमानो हीयमानश्च भवति, शेषाणामवस्थित एव, तत्र वर्द्धमानो योऽङ्गुलासंख्येयभागादि दृष्ट्वा बहु बहुतरं पश्यति, विपरीतस्तु हीयमान इति। तथा प्रतिपाती चाप्रतिपाती चावधिर्वाच्यः, तत्रोत्कर्षतो लोकमात्रः प्रतिपाती, ततः परमप्रतिपाती, तत्र भवप्रत्ययस्तं भवं यावन्न प्रतिपतति, क्षायोपशमिकस्तूभयथेति। एतदेव दर्शयति- कइविहेत्यादि, अत्रावसरे प्रज्ञापनायास्त्रय- 10 स्त्रिंशत्तमं पदमन्यूनमध्येयमिति । | अनन्तरमुपयोगविशेषः क्षायोपशमिको जीवपर्यायः उक्तोऽधुना स एवौदयिको वेदनालक्षणोऽभिधीयते- सीया इत्यादि द्वारगाथा, तत्र सीया य त्ति चशब्दोऽनुक्तसमुच्चये, तेन त्रिविधा वेदना - शीता उष्णा शीतोष्णा चेति, तत्र शीतामुष्णां च वेदयन्ति नारकाः, शेषास्त्रिविधामपि । दव्व त्ति उपलक्षणत्वाच्चतुर्विधा 15 वेदना द्रव्यादिभेदेन, तत्र पुद्गलद्रव्यसम्बन्धात् द्रव्यवेदना, नारकाद्युपपातक्षेत्रसम्बन्धात् क्षेत्रवेदना, नारकाद्यायुःकालसम्बन्धात् कालवेदना, वेदनीयकर्मोदयाद् भाववेदना, तत्र नारकादयो वैमानिकान्ताश्चतुर्विधामपि वेदनां वेदयन्तीति । तथा सारीर त्ति त्रिधावेदना शारीरी मानसी शारीरमानसी च, तत्र संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सर्वे त्रिविधामपि, इतरे तु शारीरीमेवेति। तथा साय त्ति त्रिधा वेदना - साता असाता सातासाता चेति, तत्र 20 सर्वे जीवाः त्रिविधामपि वेदयन्तीति । तह वेयणा भवे दुक्ख त्ति, त्रिविधा वेदनासुखा दुःखा सुखदुःखा चेति, तत्र सर्वेऽपि त्रिविधामपि वेदयन्ति, नवरं सातासातयोः सुखदुःखयोश्चायं विशेष:- सातासाते क्रमेणोदयप्राप्तवेदनीयकर्मपुद्गलानुभवलक्षणे, सुखदुःखे तु परेण उदीर्यमाणवेदनीयकर्मानुभवलक्षणे। तथा अब्भुवगमुवक्किमिय त्ति, द्विधा वेदना- आभ्युपगमिकी औपक्रमिकी चेति, तत्राद्या यामभ्युपगमतो वेदयन्ति 25 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे जीवा यथा साधवः शिरोलोच - ब्रह्मचर्यादिकाम्, द्वितीया तु स्वयमुदीर्णस्योदीरणाकरणेन वोदयमुपनीतस्य वेदनीयस्यानुभवः, तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यङ् - मनुष्या द्विविधामपि शेषास्त्वौपक्रमिकीमेव वेदयन्तीति । तथा णीयाए चेव अणियाए त्ति, द्विविधा वेदना, तत्र निदया आभोगतः अनिदया त्वनाभोगतः, तत्र संज्ञिन उभयतोऽसंज्ञिनस्त्वनिदयेति, 5 एतद्द्वारविवरणाय नेरइया णमित्यादि, इहावसरे प्रज्ञापनायाः पञ्चत्रिंशत्तमं वेदनाख्यं पदमध्येयमिति । अनन्तरं वेदना प्ररूपिता, सा च लेश्यावत एव भवतीति लेश्याप्ररूपणायाह- क णं भंते इत्यादि, इह स्थाने प्रज्ञापनायाः सप्तदशं षडुद्देशकं लेश्याभिधानं पदमध्येतव्यम्, तच्चास्माभिरतिबहुत्वादर्थतोऽपि न लिखितमिति तत एवावधारणीयमिति । अनन्तरं लेश्या उक्ताः, सलेश्या एव चाहारयन्तीत्याहारप्ररूपणाय अनंतरा येत्यादिद्वारश्लोकमाह । तत्र अणंतरा य आहारे त्ति अनन्तराश्च अव्यवधानाश्चाहारविषये अनन्तराहारा जीवा वाच्या इत्यर्थः, तथाऽऽहारस्याऽऽभोगना, अपिचेति वचनादनाभोगना च वाच्या । तथा पुद्गलान्न जानन्त्येव, एवकारान्न पश्यन्तीति चतुर्भङ्गी सूचिता । तथा अध्यवसानानि सम्यक्त्वं च वाच्यमिति । तत्राद्यद्वारार्थमाह– नेरइत्यादि, अनंतराहार त्ति उपपातक्षेत्रप्राप्तिसमय एवाहारयन्तीत्यर्थः । ततो निव्वत्तणया इति ततः शरीरनिर्वृत्तिः । ततो परियादियणय त्ति ततः पर्यापानमङ्गप्रत्यङ्गैः समन्तात् पानमित्यर्थः । ततो परिणाम आपीतस्योपात्तस्य परिणतिरिन्द्रियादिविभागेन । ततो परियारणय त्ति ततः शब्दादिविषयोपभोग इत्यर्थः । ततो पच्छा विउव्वणय त्ति ततः पश्चाद्विक्रिया नानारूपा 20 इत्यर्थः । हंत त्ति हन्त गौतम !, एवमेतदिति भावः, एवं सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां वक्तव्यम्, नवरं देवानां पूर्वं विकुर्वणा पश्चात् परिचारणा शेषाणां तु पूर्वं परिचारणा पश्चाद्विकुर्वणा, एकेन्द्रियादीनामप्येवमेव प्रश्नः, निर्वचने तु यत्र वैक्रियसम्भवो नास्ति तत्र विकुर्वणा निषेधनीयेति । 10 15 एवमाहारपयं भाणियव्वं ति यथाऽऽद्यद्वारस्य प्रश्न उक्तस्तथा तदुत्तरं शेषद्वाराणि 25 च भणद्भिः प्रज्ञापनायाश्चतुस्त्रिंशत्तमं परिचारणापदाख्यं पदमिह भणितव्यमिति, इदं Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ [सू० १५४] आयुर्बन्धादिवर्णनम् । चात्राहारविचारप्रधानतया आहारपदमुक्तमिति, तत् पुनरेवमर्थतस्तत्र आहाराभोगणाइ यत्ति एतस्य विवरणम् - नारकाणां किमाभोगनिर्वर्तित आहारोऽनाभोगनिर्वर्त्तितो वा ?, उभयथापीति निर्वचनम्, एवं सर्वेषाम्, नवरमेकेन्द्रियाणामनाभोगनिर्वर्तित एवेति । तथा पोग्गला नेव जाणंति त्ति, अस्यार्थः- नारका यान् पुद्गलान् आहारयन्ति तानवधिनापि न जानन्ति अविषयत्वात्तदवधेस्तेषाम्, न पश्यन्ति चक्षुषाऽपि लोमाहारत्वात् तेषाम्, 5 एवमसुरादयस्त्रीन्द्रियान्ताः, केवलम् एकेन्द्रिया अनाभोगाहारत्वाद् द्वित्रीन्दियाश्च मत्यज्ञानित्वान्न जानन्ति चक्षुरिन्द्रियाभावाच्च न पश्यन्तीति, चतुरिन्द्रियास्तु चक्षुःसद्भावेऽपि मत्यज्ञानित्वात् प्रक्षेपाहारं न जानन्ति, चक्षुषा तु पश्यन्ति, तथा त एव लोमाहारमाश्रित्य न जानन्ति न पश्यन्तीति व्यपदिश्यते, चक्षुषोऽविषयत्वात्तस्य, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च केचिजानन्ति पश्यन्ति चावधिज्ञानादियुक्ताः लोमाहारं प्रक्षेपाहारं 10 च, तथाऽन्ये जानन्ति न पश्यन्ति लोमाहारम्, जानन्त्यवधिना न पश्यन्ति चक्षुषा, तथा अन्ये न जानन्ति पश्यन्ति, तत्र न जानन्ति प्रक्षेपाहारं मत्यज्ञानित्वात् पश्यन्ति चक्षुषा, तथा अन्ये न जानन्ति न पश्यन्ति लोमाहारं निरतिशयत्वादिति, व्यन्तर-ज्योतिष्का नारकवत्, वैमानिकास्तु ये सम्यग्दृष्टयस्ते जानन्ति विशिष्टावधित्वात् पश्यन्ति च चक्षुषोऽपि विशिष्टत्वात्, मिथ्यादृष्टयस्तु न जानन्ति न पश्यन्ति, प्रत्यक्ष- 15 परोक्षज्ञानयोस्तेषामस्पष्टत्वादिति । तथा अज्झवसाणा य त्ति दारम्, नारकादीनां प्रशस्ताप्रशस्तान्यसंख्येयान्यध्यवसानानीति । तथा संमत्ते त्ति दारम्, तत्र नारकाः किं सम्यक्त्वाभिगमिनो मिथ्यात्वाभिगमिनः सम्यक्त्वमिथ्यात्वाभिगमिनश्चेति? त्रिविधा अपि, एवं सर्वेऽपि, नवरमेकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिया मिथ्यात्वाभिगमिन एवेति । [सू० १५४] [१] कतिविहे णं भंते ! आउगबंधे पण्णत्ते ? गोयमा ! 20 छविहे आउगबंधे पण्णत्ते, तंजहा- जातिनामनिधत्ताउए, एवं गतिनाम० ठितिनाम० पदेसनाम० अणुभाग० ओगाहणानाम० । [२] नेरइयाणं भंते ! कतिविहे आउगबंधे पन्नत्ते ?, गोयमा ! छव्विहे पन्नत्ते, तंजहा- जातिनाम० जाव ओगाहणानाम० । एवं जाव वेमाणिय त्ति। १. “आहाराभोयणाइ य इति आहाराभोगना, आदिशब्दादाहारानाभोगना च वक्तव्या ।" इति प्रज्ञापनासूत्रस्य चतुस्त्रिंशत्तमे पदे मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ।। २. एव च लोमाखं० ॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे [३] निरयगती णं भंते ! केवतियं कालं विरहिता उववाएणं पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ते, एवं तिरियगति मणुस्स[गति] देव[गति] । सिद्धिगती णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया सिज्झणयाए पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेणं छम्मासे। 5 एवं सिद्धिवजा उव्वदृणा । [४] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केवइयं कालं विरहिया उववाएणं ? एवं उववायदंडओ भाणियव्वो उव्वट्टणादंडओ य । [टी०] अनन्तरमाहारप्ररूपणा कृता, आहारश्चायुर्बन्धवतामेव भवतीत्यायुर्बन्धप्ररूपणायाह- कइविहेत्यादि, तत्रायुषो बन्धः निषेक आयुर्बन्धः, निषेकश्च प्रतिसमयं 10 बहुहीनहीनतरस्य दलिकस्यानुभवनार्थं रचना, निधत्तमपीह निषेक उच्यते, अत एवाह जाइनामनिधत्ताउए, जातिनाम्ना सह निधत्तं निषिक्तमनुभवनार्थं बह्वल्पाल्पतरक्रमेण व्यवस्थापितमायुर्जातिनामनिधत्तायुः, अथ किमर्थं जात्यादिनामकर्मणाऽऽयुविशेष्यते ?, उच्यते- आयुष्कस्य प्राधान्योपदर्शनार्थम्, यस्मानारकाद्यायुरुदये सति जात्यादिनामकर्मणामुदयो भवति, नारकादिभवोपग्राहकं चायुरेव, यस्माद् 15 व्याख्याप्रज्ञप्त्यामुक्तम्- नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववजइ, अनेरइए नेरइएसु उववजइ ?, गोयमा ! नेरइए नेरइएसु उववजइ, नो अनेरइए नेरइएसु उववजइ [भगवती० ४/९/१७३], एतदुक्तं भवति - नारकायुःप्रथमसमयसंवेदनकाल एव नारक इत्युच्यते, तत्सहचारिणां च पञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्मणामप्युदय इति । तथा गतिनामनिधत्ताउए त्ति, गति रकगत्यादिः, तल्लक्षणं नामकर्म तेन सह 20 निधत्तं निषिक्तमायुर्गतिनामनिधत्तायुः । तथा ठिइनामनिधत्ताउए त्ति, स्थितियत् स्थातव्यं तेन भावेनायुर्दलिकस्य सैव नाम परिणामो धर्म इत्यर्थः स्थितिनाम, गति-जात्यादिकर्मणां वा प्रकृत्यादिभेदेन चतुर्विधानां यः स्थितिरूपो भेदस्तत् स्थितिनाम, तेन सह निधत्तमायुः स्थितिनामनिधत्तायुरिति। तथा पएसनामनिधत्ताउए त्ति, प्रदेशानां प्रमितपरिमाणानामायु:कर्मदलिकानां नाम १. अत्र प्रज्ञापनासूत्रे षष्ठं व्युत्क्रान्तिपदं द्रष्टव्यम् ।। २. विशिष्यिते जे२ हे१, हेसं२ ।। ३. नाम: जे२ खं० हे२॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५४] आयुर्बन्धादिवर्णनम् । २८१ परिणामो यः तथाऽऽत्मप्रदेशेषु सम्बन्धनं स प्रदेशनाम, जाति-गत्यवगाहनाकर्मणां वा यत् प्रदेशरूपं नामकर्म तत् प्रदेशनाम, तेन सह निधत्तमायुः प्रदेशनामनिधत्तायुरिति। तथा अणुभागनामनिधत्ताउए त्ति, अनुभाग: आयुष्कर्मद्रव्याणां तीव्रादिभेदो रसः स एव तस्य वा नामः परिणामोऽनुभागनाम:, अथवा गत्यादीनां नामकर्मणामनुभागबन्धरूपो भेदोऽनुभागनाम, तेन सह निधत्तमायुरनुभागनामनिधत्तायुरिति । 5 ___ तथा ओगाहणानामनिधत्ताउए त्ति, अवगाहते जीवो यस्यां साऽवगाहना शरीरमौदारिकादि पञ्चविधम्, तत्कारणं कर्माप्यवगाहना, तद्रूपं नामकाऽवगाहनानाम, तेन सह निधत्तमायुरवगाहनानामनिधत्तायुरिति । नेरइयाणमित्यादि स्पष्टम् । ___ अनन्तरमायुर्बन्ध उक्तोऽधुना बद्धायुषां नारकादिगतिषूपपातो भवतीति तद्विरहकालप्ररूपणायाह- निरयगई णमित्यादि कण्ठ्यम्, नवरं यद्यपि रत्नप्रभादिषु 10 चतुर्विंशतिर्मुहूर्तादिविरहकालः, यथोक्तम् चउवीसई मुहत्ता सत्त अहोरत्त तह य पण्णरसा । मासो य दो य चउरो छम्मासा विरहकालो उ ॥ [बृहत्सं० २८१] त्ति । तथापि सामान्यगत्यपेक्षया द्वादश मुहर्ता उक्ताः, तथा एवंकरणाद् यत्तिर्यङ्मनुष्यगत्योः सामान्येन द्वादश मुहर्ता उक्ताः तद् गर्भव्युत्क्रान्तिकापेक्षया, देवगतौ तु 15 सामान्यत एव। सिद्धिवज्जा उव्वदृण त्ति नारकादिगतिषु द्वादशमुहूर्तो विरहकाल १. "साई खं० जे१ । “चउवीसयं मुहुत्ता, सत्त अहोरत्त तह य पन्नरस । मासो अ दो अ चउरो छम्मासा विरहकालो उ ।।२८१॥ उक्कोसो रयणाइसु, सव्वासु जहन्नओ भवे समओ । एमेव य उव्वट्टण, संखा पुण सुरवरूतुल्ला ॥२८२॥ व्या०- इह नरकेषु नारकाः सततमेव प्राय उत्पद्यन्ते । केवलं कदाचिदन्तरं भवति । तच्चान्तरं जघन्यतः सर्वासु समस्तासु पृथिवीषु प्रत्येकं भवत्येकः समयः | उत्कर्षतो रत्नप्रभायां पृथिव्यां चतुर्विंशतिमूहुर्ता अन्तरम् । शर्कराप्रभायां सप्ताहोरात्राः । वालुकाप्रभायां पञ्चदश । पङ्कप्रभायां मासः । धूमप्रभायां द्वौ मासौ । तमःप्रभायां चत्वारो मासाः । तमस्तमःप्रभायां षण्मासाः । एमेव य उव्वट्टण त्ति यथोपपातविरहकाल उक्त एवमेवोद्वर्तनाविरहकालोऽपि जघन्यत उत्कर्षतश्च वाच्यः । ततः समस्तासु पृथिवीषु प्रत्येकमुद्वर्तनाविरहकालो जघन्यत एकः समयः । उत्कर्षतो रत्नप्रभायां चतुर्विंशतिमुहूर्ताः । शर्कराप्रभायां सप्ताहोरात्राः । वालुकाप्रभायां पक्षः । पङ्कप्रभायां मासः । धूमप्रभायां द्वौ मासौ । तमःप्रभायां चत्वारो मासाः । तमस्तमःप्रभायां षण्मासाः । “संखा पुण सुरवरूतुल्ल त्ति' उपपात उद्वर्तनायां च सङ्ख्या पुनरेकस्मिन् समये सुरवरतुल्या सुराणामिव द्रष्टव्या । तद्यथा- एकस्मिन् समये नारका उत्पद्यन्ते जघन्यपद एको द्वौ वा, उत्कर्षतः सङ्ख्याता असङ्ख्याता वा, एवमेव चोद्वर्तन्तेऽपीति ॥२८१८२॥” इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे उद्वर्तनायामिति, सिद्धानां तूद्वतनैव नास्ति, अपुनरावृत्तित्वात्तेषामिति । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केवइकालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ?, एवं उववायदंडओ भाणियव्वो त्ति, स चायम्- गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ताई [प्रज्ञापना० ६।५६९], अनेनाभिलापेन शेषा वाच्याः, 5 तथाहि- सक्करप्पभाए णं उक्कोसेणं सत्त राइंदियाणि, वालुयप्पभाए अद्धमासं, पंकप्पभाए मासं, धूमप्पभाए दो मासा, तमप्पभाए चउरो मासा, अहेसत्तमाए छ मास त्ति । असुरकुमारा चउवीसइ मुहुत्ता एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइया अविरहिया उववाएणं एवं सेसा वि। बेइंदिया अंतोमुहुत्तं, एवं तेइंदियचउरिंदियसंमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया वि, गब्भवक्कंतिया तिरिया मणुया य बारस मुहुत्ता, संमुच्छिममणुस्सा चउवीसई मुहुत्ता विरहिया उववाएणं, वंतर10 जोइसिया चउवीसं मुहुत्ताई, एवं सोहम्मीसाणे वि, सणंकुमारे णव दिणाई वीसा य मुहुत्ता, माहिंदे बारस दिणाइं दस मुहुत्ता, बंभलोए अद्धतेवीसं राइंदियाई, लंतए पणयालीसं, महासुक्के असीइं, सहस्सारे दिणसयं, आणए संखेजा मासा, एवं पाणए वि, आरणे संखेजा वासा, एवं अच्चुए वि, गेवेजपत्थडेसु तिसु तिसु कमेणं संखेजाइं वाससयाई वाससहस्साई वाससयसहस्साई, विजयाइसु असंखेजं कालं, सव्वट्ठसिद्धे पलिओवमस्सासंखेजइभागं ति, 15 एवं उव्वट्टणादंडओ वि त्ति । [सू० १५४] [५] नेरइया णं भंते ! जातिनामनिधत्ताउगं कतिहिं आगरिसेहिं पगरेंति? गोयमा ! सिय १, सिय २।३।४।५।६७, सिय अट्ठहिं, नो चेव णं नवहिं। एवं सेसाण वि आउगाणि जाव वेमाणिय त्ति ।। [टी०] उपपात उद्वर्त्तना चायुर्बन्धे एव भवतीत्यायुर्बन्धे विधिविशेषप्ररूपणायाह20 नेरइएत्यादि कण्ठ्यम्, नवरम् आकर्षो नाम कर्मपुद्गलोपादानम्, यथा गौः पानीयं पिबन्ती भयेन पुनः पुनः आबृंहति, एवं जीवोऽपि तीव्रणायुर्बन्धाध्यवसानेन सकृदेव जातिनामनिधत्तायुः प्रकरोति, मन्देन द्वाभ्यामाकर्षाभ्यां मन्दतरेण त्रिभिर्मन्दतमेन चतुर्भिः पञ्चभिः षड्भिः सप्तभिरष्टाभिर्वा न पुनर्नवभिः, एवं शेषाण्यपि, आउगाणि त्ति गतिनामनिधत्तायुरादीनि वाच्यानि यावद् वैमानिका इति, अयं चैकाद्याकर्षनियमो 25 जात्यादिनामकर्मणामायुर्बन्धकाल एव बध्यमानानां न शेषकालम्, आयुर्बन्धपरि १. अत्र प्रज्ञापनासूत्रस्य षष्ठं व्युत्क्रान्तिपदं द्रष्टव्यम् ।। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५५] संहननादिवर्णनम् । ર૮૩ समाप्तेरुत्तरकालमपि बन्धोऽस्त्येव, एषां ध्रुवबन्धिनीनां च ज्ञानावरणादिप्रकृतीनां प्रतिसमयमेव बन्धनिर्वृत्तिर्भवति, एतास्तु परावृत्य परावृत्य बध्यन्त इति । [सू० १५५] [१] कइविहे णं भंते ! संघयणे पण्णत्ते ? गोयमा ! छविहे संघयणे पण्णत्ते, तंजहा- वइरोसभनारायसंघयणे रिसभनारायसंघयणे नारायसंघयणे अद्धनारायसंघयणे खीलियासंघयणे छेवट्ठ(सेवट्ट?)संघयणे । 5 [टी०] अनन्तरं जीवानामायुर्बन्धप्रकार उक्तोऽधुना तेषामेव संहनन-संस्थानवेदप्रकारानाह-कइविहे णमित्यादि दण्डकत्रयं कण्ठ्यम्, नवरं संहननमस्थिबन्धविशेषः, मर्कटस्थानीयमुभयोः पार्श्वयोरस्थि नाराचम्, ऋषभस्तु पट्टः, वजं कीलिका, वज्रं च ऋषभश्च नाराचं च यत्रास्ति तद्वज्रर्षभनाराचसंहननम्, मर्कट-पट्ट-कीलिकारचनायुक्तः प्रथमोऽस्थिबन्धः, मर्कट-कीलिकाभ्यां द्वितीयः, मर्कटयुक्तस्तृतीयः, मर्कटकैकदेशबन्धन- 10 द्वितीयपार्श्वकीलिकासम्बन्धश्चतुर्थः, अगुलिद्वयस्य संयुक्तस्य मध्ये कीलिकैव दत्ता यत्र तत् कीलिकासंहननं पञ्चमम्, यत्रास्थीनि चर्मणा निकाचितानि केवलं तत् सेवार्तम्, स्नेहपानादीनां नित्यपरिशीलना सेवा, तया ऋतं प्राप्तं सेवार्त्तमिति षष्ठम् । [सू० १५५] [२] नेरइया णं भंते ! किंसंघयणी [पण्णत्ता] ? गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी, णेवट्ठी, णेव छिरा, णवि ण्हारू, जे पोग्गला 15 अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणावा ते तेसिं असंघयणत्ताए परिणमंति । असुरकुमारा णं [भंते !] किंसंघयणी पण्णत्ता ? गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी, णेवट्ठी, णेव छिरा जाव जे पोग्गला इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा मणाभिरामा ते तेसिं असंघयणत्ताए परिणमंति । एवं जाव थणियकुमार 20 त्ति । पुढवि[काइया णं भंते !] किंसंघयणी पन्नत्ता ? [गोयमा !] सेवदृसंघयणी पण्णत्ता, एवं जाव संमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिय त्ति । गब्भवतिया १. परावृत्य बध्यंत जे२ हे२ ॥ २. प्रकारामाह जे१ । 'प्रकारमाह खं० ॥ ३. नाराच खं० ।। ४. मर्कटकपट्ट जे२ ॥ ५. मर्कटक-कीलि जे२ हे२ ॥ ६. अत्र ‘अस्थिद्वयस्य' इति पाठः शुद्धो भाति ॥ ७. °णेव अटी० ।। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे छव्विहसंघयणी । संमुच्छिममणुस्सा णं सेवट्टसंघयणी । गब्भवक्कंतियमणूसा छविहे संघयणे पण्णत्ता । जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरा जोतिसिया माणिया । २८४ [टी०] छण्हं संघयणाणं असंघयणि त्ति उक्तरूपाणां षण्णां संहननाना5 मन्यतमस्याप्यभावेनाऽसंहनिनः अस्थिसञ्चयरहिताः, अत एवाह - नेवट्ठी नैवास्थीनि तच्छरीरके, नेव छिर त्ति नैव शिरा धमन्यः, णेव ण्हारू नैव स्नायूनीति कृत्वा संहननाभावः, तत्सहितानां हि प्रचुरमपि दुःखं न बाधाविधायि स्यात्, नारकास्त्वत्यन्तशीतादिबाधिता इति, न चास्थिसञ्चयाभावे शरीरं नोपपद्यते, स्कन्धवत्तदुपपत्तेः, अत एवाह- जे पोग्गलेत्यादि, पुद्गला अनिष्टाः अवल्लभाः 10 सदैवैषां सामान्येन, तथा अकान्ता अंकमनीयाः सदैव तद्भावेन, तथा अप्रिया द्वेष्याः सर्वेषामेव, तथाऽशुभाः प्रकृत्यसुन्दरतया, तथा अमनोज्ञा अमनोरमाः कथयापि, अमनआपा न मनः प्रियाश्चिन्तयापि, ते एवंभूताः पुद्गलास्तेषां नारकाणाम् असंघयणत्ताए ति अस्थिसञ्चयविशेषरहितशरीरतया परिणमन्ति । तथा [सू० १५५] [३] कतिविहे णं भंते ! संठाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! छव्विहे संठाणे 15 पण्णत्ते, तंजहा - समचउरंसे, णग्गोहपरिमंडले, साति, खुज्जे, वामणे, हुंडे । रइया णं भंते! किं[संठाणी पण्णत्ता ? ] गोयमा ! हुंडसंठाणी पण्णत्ता । असुरकुमारा [णं भंते !] किं [ संठाणी पण्णत्ता ?] गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिया पण्णत्ता जाव थणिय त्ति । पुढवि[काइया] मसूरयसंठाणा पण्णत्ता । आऊ [काइया ] थिबुयसंठाणा 20 पण्णत्ता । तेऊ[काइया] सूइकलावसंठाणा पण्णत्ता । वाऊ [काइया] पडातियासंठाणा पण्णत्ता । वणप्फति [काइया] णाणासंठाणसंठिता पण्णत्ता । बेंतिया तेंतिया चउरिंदिया सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया हुंडसंठाणा पण्णत्ता । गब्भवक्वंतिया छव्विहसंठाणा [ पण्णत्ता ] । संमुच्छिममणूसा हुंडसंठाणसंठिता पण्णत्ता । गब्भवक्वंतियाणं [मणूसाणं] 25 छव्विहा संठाणा [ पण्णत्ता ] । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५६-१५७] संस्थान-वेदवर्णन-कुलकरादिनामानि । २८५ जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरा जोतिसिया वेमाणिया । [टी०] कइविहे संठाणेत्यादि, तत्र मानोन्मानप्रमाणानि अन्यूनान्यनतिरिक्तानि अङ्गोपाङ्गानि च यस्मिन् शरीरसंस्थाने तत् समचतुरस्रसंस्थानम्, तथा नाभित उपरि सर्वावयवाश्चतुरस्रलक्षणाऽविसंवादिनोऽधस्तु तदनुरूपं यन्न भवति तन्न्यग्रोधसंस्थानम्, तथा नाभितोऽधः सर्वावयवाश्चतुरस्रलक्षणाविसंवादिनो यस्योपरि च यत्तदनुरूपं न भवति 5 तत् सादिसंस्थानम्, तथा ग्रीवा हस्तपादाश्च समचतुरस्रलक्षणयुक्ता यत्र संक्षिप्तविकृतं च मध्यकोष्ठं तत् कुब्जसंस्थानम्, तथा यल्लक्षणयुक्तं कोष्ठं चतुरस्रलक्षणापेतं ग्रीवाद्यवयवहस्तपादं च तद्वामनम्, तथा यत्र हस्तपादाद्यवयवाः बहुप्रायाः प्रमाणविसंवादिनश्च तद् हुण्डमित्युच्यते। [सू० १५६] कतिविहे णं भंते ! वेए पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे वेए 10 पण्णत्ते, तंजहा- इत्थिवेदे पुरिसवेदे णपुंसगवेदे । रतियाणं भंते ! किं इत्थिवेए पुरिसवेए णपुंसगवेए पण्णत्ते ? गोयमा ! णो इत्थि वेदे], णो पुंवेदे, णपुंसगवेदे [पण्णत्ते] । असुरकुमाराणं भंते !] किं [इत्थिवेए पुरिसवेए णपुसंगवेए पण्णत्ते] ? गोयमा ! इत्थि[वेए,] पुमविए,] णो णपुंसग[वेए] जाव थणिय त्ति । पुढवि[काइया आउ[काइया ते[काइया वा[काइया] 15 वण[प्फतिकाइया] बे[इंदिया] ते[इंदिया] चरिंदिया] संमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्ख[जोणिया] संमुच्छिममणूसा णपुंसगवेया । गब्भवक्कंतियमणूसा पंचेंदियतिरिया तिवेया । जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरा जोतिसिया वेमाणिया । [टी०] कइविहे वेद(दे) इत्यादि, तत्र स्त्रीवेदः पुंस्कामिता, पुरुषवेद: 20. स्त्रीकामिता, नपुंसकवेदः स्त्रीपुंस्कामितेति । [सू० १५७] ते णं काले णं ते णं समए णं कप्पस्स समोसरणं णेतव्वं जाव गणहरा सावच्चा णिरवच्चा वोच्छिन्ना । जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीताए उस्सप्पिणीते सत्त कुलकरा होत्था, तंजहा 25 | Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे मित्तदामे सुदामे य, सुपासे य सयंपभे । विमलघोसे सुघोसे य, महाघोसे य सत्तमे ॥४॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीताए उस्सप्पिणीए दस कुलकरा होत्था, तंजहा5 सतजले सताऊ य, अजितसेणे अणंतसेणे य । कक्कसेणे भीमसेणे, महासेणे य सत्तमे ॥७५।। दढरहे दसरहे सतरहे । जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए समाते सत्त कुलगरा होत्था, तंजहा10 पंढमेत्थ विमलवाहण० [चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो पसेणईए मरुदेवे चेव नाभी य ॥७६॥] गाहा एतेसि णं सत्तण्हं कुलगराणं सत्त भारियातो होत्था, तंजहाचंदजस चंद०[कंता सुरूव पडिरूव चक्खुकंता य । सिरिकंता मरुदेवी कुलगरपत्तीण णामाई ॥७७॥] गाहा । जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे णं ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थकराण पितरो होत्था, तंजहा णाभी जियसत्तू या० [जियारी संवरे इ य । मेहे धरे पइढे य महसेणे य खत्तिए ॥७८॥ सुग्गीवे दढरहे विण्हू वसुपुजे य खत्तिए । 20 कयवम्मा सीहसेणे य भाणू विस्ससेणे इ य ॥७९॥ सूरे सुदंसणे कुंभे सुमित्तविजए समुद्दविजये य ।। राया य आससेणे सिद्धत्थे च्चिय खत्तिए ॥८०॥] गाहा । १. स्थानाङ्गेऽपि सू० ५५६ ॥ २. स्थानाङ्गसूत्रे [सू०७६७] 'अणंतसेणे त अजितसेणे त' इति पाठः ॥ ३. अत्र [ ] कोष्ठकान्तर्गतः पाठ आवश्यकनियुक्ति-स्थानाङ्ग-समवायाङ्गटीकानुसारेण अस्माभिः पूरित इति 15 सर्वत्र ज्ञेयम्॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ [सू० १५७] कुलकरादिनामानि । उदितोदितकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहिं उववेया । तित्थप्पवत्तयाणं एते पितरो जिणवराणं ॥८१॥ जंबुद्दीवे एवं मातरोमरुदेवा० [विजय सेणा सिद्धत्था मंगला सुसीमा य । पुहई लक्खण रामा नंदा विण्हू जया सामा ॥८२।। सुजसा सुव्वय अइरा सिरि देवी य पभावई । पउमावती य वप्पा सिव वम्मा तिसिला इ य ॥८३॥] गाहातो । जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थकरा होत्था, तंजहा- उसभ १ अजित २ जाव वद्धमाणो २४ य । एतेसिं चउवीसाए तित्थकराणं चउवीसं पुव्वभविया णामधेज्जा होत्था, 10 तंजहा पढमेत्थ वतिरणाभे विमले तह विमलवाहणे चेव । तत्तो य धम्मसीहे सुमित्त तह धम्ममित्ते य ॥८४॥ सुंदरबाहू तह दीहबाहु जुगबाहु लट्ठबाहू य । दिण्णे य इंददिण्णे सुंदर माहिंदरे चेव ॥८५॥ सीहरहे मेहरहे रुप्पी य सुदंसणे य बोधव्वे । तत्तो य णंदणे खलु सीहगिरी चेव वीसतिमे ॥८६॥ अद्दीणसत्तु संखे सुदंसणे णंदणे य बोधव्वे । ओसप्पिणीए एते तित्थकराणं तु पुव्वभवा ॥८७॥ एतेसि णं चउवीसाए तित्थयराणं चउवीसं सीयाओ होत्था, तंजहा- 20 सीया सुदंसणा सुप्पभा य सिद्धत्थ सुप्पसिद्धा य । विजया य वेजयंती जयंती अपराजिया ॥८८॥ अरुणप्पभ सूरप्पभ सुंकप्पभ अग्गिसप्पभा चेव । विमला य पंचवण्णा सागरदत्ता तह णागदत्ता य ॥८९॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ 5 . 10 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अभयकर णिव्वुतिकरी मणोरमा तह मणोहरा चेव । देवकुरु उत्तरकुरा विसाल चंदप्पभा सीया ॥९०॥ एतातो सीयातो सव्वेसिं चेव जिणवरिंदाणं । सव्वजगवच्छलाणं सव्वोतुकसुभाए छायाए ॥११॥ पुव्विं उक्खित्ता माणुसेहिं सा हट्ठरोमकूवेहिं । पच्छा वहंति सीयं असुरिंद-सुरिंद-नागिंदा ॥१२॥ चलचवलकुंडलधरा सच्छंदविउव्वियाभरणधारी । सुर-असुरवंदियाणं वहंति सीयं जिणिंदाणं ॥१३॥ पुरतो वहंति देवा नागा पुण दाहिणम्मि पासम्मि । पच्चत्थिमेण असुरा गरुला पुण उत्तरे पासे ॥१४॥ उसभो य विणीताए बारवतीए अरिट्ठवरणेमी । अवसेसा तित्थकरा णिक्खंता जम्मभूमीसु ॥१५॥ सव्वे वि एगदूसेण [णिग्गया जिणवरा चउव्वीसं । ण य णाम अण्णलिंगे ण य गिहिलिंगे कुलिंगे य ॥९६॥] गाहा । एक्को भगवं वीरो पासो मल्ली [य तिहिं तिहिं सएहिं । भगवं पि वासुपुजो छहिं पुरिससएहिं निक्खंतो ॥९७॥] गाहा । उग्गाणं भोगाणं रातिण्णा[णं च खत्तियाणं च ।। चाहिं सहस्सेहिं उसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा ॥९८॥] गाहा । सुमतित्थ णिच्चभत्तेण [णिग्गओ वासुपुज्जो जिणो चउत्थेणं । पासो मल्ली वि य अट्टमेण सेसा उ छट्टेणं ॥९९॥] गाहा । एतेसि णं चउवीसाए तित्थकराणं चउवीसं पढमभिक्खादेया होत्था, तंजहा सेजंस बंभदत्ते सुरिंददत्ते य इंददत्ते य । तत्तो य धम्मसीहे सुमित्ते तह धम्ममित्ते य ॥१०॥ 15 20 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ [सू० १५७] शिबिका-तीर्थकरसहदीक्षित-भिक्षा-चैत्यवृक्षादिवर्णनम् । पुस्से पुणव्वसू पुण णंदे सुणंदे जए य विजए य । पउमे य सोमदेवे महिंददत्ते य सोमदत्ते य ॥१०१॥ अपरातिय वीससेणे वीसतिमे होति उसभसेणे य । दिण्णे वरदत्ते धन्ने बहुले य आणुपुव्वीए ॥१०२॥ एते विसुद्धलेसा जिणवरभत्तीय पंजलिउडाओ । तं कालं तं समयं पडिलाभेती जिणवरिंदे ॥१०३॥ संवच्छरेण भिक्खा० [लद्धा उसभेण लोगणाहेण । सेसेहिं बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥१०४॥] गाहा । उसभस्स पढमभिक्खा० [खोयरसो आसि लोगणाहस्स । सेसाणं परमण्णं अमयरसरसोवमं आसि ॥१०५॥] गाहा । 10 सव्वेसि पि जिणाणं जहियं लद्धातो पढमभिक्खातो । तहियं वसुधारातो सरीरमेत्तीओ वुट्ठातो ॥१०६॥ एतेसि णं चउवीसाए तित्थकराणं चउवीसं चेतियरुक्खा होत्था, तंजहाणग्गोह सत्तिवण्णे साले पियते पियंगु छत्तोहे । सिरिसे य णागरुक्खे माली य पिलुंक्खुरुक्खे य ॥१०७॥ 15 तेंदुग पाडलि जंबू आसोत्थे खलु तहेव दधिवण्णे । णंदीरुक्खे तिलए अंबगरुक्खे असोगे य ॥१०८॥ चंपय बउले य तहा वेडसरुक्खे तहा य धायईरुक्खे । साले य वद्धमाणस्स चेतियरुक्खा जिणवराणं ॥१०९॥ बत्तीसतिं धणूइं चेतियरुक्खो उ वद्धमाणस्स । णिच्चोउगो असोगो ओच्छन्नो सालरुक्खेणं ॥११०॥ १. तुलना- “सव्वेहिं पि जिणेहिं, जहि लद्धाओ पढमभिक्खाओ । तहि वसुहाराओ, वुट्ठाओ पुप्फवुट्टीओ ॥३३१॥ अद्धतेरसकोडी उक्कोसा तत्थ होइ वसुहारा । अद्धतेरस लक्खा, जहण्णिआ होइ वसुहारा ॥३३२।।" इति आवश्यकनिर्युक्तौ ।। 20 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 २९० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तिण्णेव गाउयाइं चेतियरुक्खो जिणस्स उसभस्स । सेसाणं पुण रुक्खा सरीरतो बारसगुणा उ ॥१११॥ सच्छत्ता सपडागा सवेइया तोरणेहिं उववेया । सुरअसुरगरुलमहियाण चेतियरुक्खा जिणवराणं ॥११२॥ एतेसि णं चउवीसाए तित्थकराणं चउवीसं पढमसीसा होत्था, तंजहापढमेत्थ उसभसेणे बितिए पुण होइ सीहसेणे उ । चारू य वजणाभे चमरे तह सुव्वय विदब्भे ॥११३॥ दिण्णे वाराहे पुण आणंदे गोत्थुभे सुहम्मे य । मंदर जसे अरिट्टे चक्काउह सयंभु कुंभे य ॥११४॥ भिसए य इंद कुंभे वरदत्ते दिण्ण इंदभूती य । उदितोदितकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहिं उववेया । तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सा जिणवराणं ॥११५॥ एतेसि णं चउवीसाए तित्थकराणं चउवीसं पढमसिस्सिणीओ होत्था, तंजहा15 बंभी फग्गू सम्मा अतिराणी कासवी रती सोमा । सुमणा वारुणि सुलसा धारणि धरणी य धरणिधरा ॥११६॥ पउमा सिवा सुयी अंजू भावितप्पा य रक्खिया । बंधू पुप्फवती चेव अजा वणिला य आहिया ॥११७॥ जक्खिणी पुप्फचूला य चंदणजा य आहिता । 20 उदितोदितकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहिं उववेया । तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सी जिणवराणं ॥११८॥ [टी०] एते च पूर्वोदिता अर्थाः समवसरणस्थितेन भगवता देशिता इति समवसरणवक्तव्यतामाह- ते णमित्यादि, इह णकारौ वाक्यालङ्कारार्थों, अतस्ते इति Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५७] शिबिका-तीर्थकरसहदीक्षित-भिक्षा-चैत्यवृक्षादिवर्णनम् । २९१ प्राकृतत्वात् तस्मिन् काले सामान्येन दुःषमसुषमालक्षणे, तस्मिन् समये विशिष्टे यत्र भगवानेव विहरति स्मेति । कप्पस्स समोसरणं नेयव्वं ति इहावसरे कल्पभाष्यक्रमेण समवसरणवक्तव्यताऽध्येया, सा चाऽऽवश्यकोक्ताया न व्यतिरिच्यते, वाचनान्तरे तु पर्युषणाकल्पोक्तक्रमेणेत्यभिहितम्, कियदूरमित्याह- जाव गणेत्यादि, तत्र गणधरः पञ्चमः सुधर्माख्यः सापत्यः, शेषा निरपत्या: अविद्यमानशिष्यसन्ततय इत्यर्थः, 5 वोच्छिन्न त्ति सिद्धा इति, तथाहि परिनिव्वुया गणहरा जीवंते नायए नव जणा उ । इंदभूई सुहम्मे य रायगिहे निव्वुए वीरे ॥ [आव० नि० ६५८] त्ति । अयं च समवसरणनायकः कुलकरवंशोत्पन्नो महापुरुषश्चेति कुलकराणां वरपुरुषाणां च वक्तव्यतामाह- जंबुद्दीवेत्यादि सुगमम्, नवरं पढमेत्थ विमलवाहण चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो पसेणईए मरुदेवे चेव नाभी य ॥ [आव० नि० १५५] त्ति । तथा- चंदजस चंदकंता सुरूव पडिरूव चक्खुकंता य । सिरिकंता मरुदेवी कुलगरपत्तीण णामाई ॥ [आव० नि० १५९] ति । 10. १. बृहत्कल्पभाष्ये 'समोसरणे केवइया... ॥१९७६॥' इति गाथात आरभ्य 'संखाईए वि भवे.... ॥१२१७॥' इति गाथापर्यन्तं समवसरणवक्तव्यता वर्तते, किन्तु जाव गणहरा सावच्चा निरवच्चा वोच्छिन्ना इति अत्र जावशब्देन सूचितः कोऽपि पाठो बृहत्कल्पभाष्ये नास्ति । आवश्यकनिर्युक्तौ तु समोसरणे केवइया... ॥५४३॥ इत्यत आरभ्य जं कारण णिक्खमणं वोच्छं एएसि आणुपुव्वीए । तित्थं च सुहम्माओ णिरवच्चा गणहरा सेसा ॥५९५॥ इति पर्यन्ता बृहत्कल्पभाष्येण अक्षरशः समानप्राया बढ्यो गाथाः सन्ति, तत्र च निरवच्चा गणहरा सेसा इति पाठ उपलभ्यते॥ २. 'ते णं काले णं ते णं समए णं समणस्स भगवओ महावीरस्य नव गणा इक्कारस गणहरा हुत्था । ....... सव्वे वि णं एते समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवालसंगि चउदसपुग्विणो समत्तगणिपिडगधारगा रायगिहे नगरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं कालगया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा। थेरे इंदभूई थेरे अज्जसुहम्मे य सिद्धिगए महावीरे पच्छा दोण्णि वि थेरा परिनिव्वुया, जे इमे अज्जत्ताए समणा निगंथा विहरंति एए णं सव्वे अजसुहम्मस्स अणगारस्स आवच्चिजा, अवसेसा गणहरा निरवच्चा वुच्छिन्ना ।" इति पर्युषणाकल्पसूत्रे स्थविरावल्याम् ॥ ३. स्थानाङ्गसू० ५५६ । “प्रथमोऽत्र विमलवाहनश्चक्षुष्मान् यशस्वी चतुर्थोऽभिचन्द्रः ततश्च प्रसेनजित् मरुदेवश्चैव नाभिश्चेति भावार्थः सुगम एवेति गाथार्थः ॥१५५॥ चन्द्रयशाः चन्द्रकान्ता सुरूपा प्रतिरूपा चक्षुःकान्ता च श्रीकान्ता मरुदेवी कुलकरपत्नीनां नामानीति गाथार्थः ॥१५९॥” इति आवश्यकसूत्रे हारिभत्र्यां वृत्तौ ॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे __तथा- नाभी जियसत्तू या जियारी संवरे इ य । मेहे धरे पइटे य, महसेणे य खत्तिए ॥ सुग्गीवे दढरहे विण्हू वसुपुजे य खत्तिए । 'कयवम्मा सीहसेणे य भाणू विस्ससेणे इ य । सूरे सुदंसणे कुंभे सुमित्तविजए समुद्दविजये य । राया य आससेणे सिद्धत्थे च्चिय खत्तिए । [आव० नि० ३८७-३८९] त्ति। तथा- मरुदेवि विजय सेणा सिद्धत्था मंगला सुसीमा य । पुहई लक्खण रामा नंदा विण्हू जया सामा ॥ सुजसा सुव्वय अइरा, सिरि देवी य पभावती । 10 पउमावती य वप्पा सिव वम्मा तिसिला इ य ॥ [आव० नि० ३८५-३८६] त्ति। तथा सव्वोउगसुभाए छायाए त्ति सर्वर्तुकया सर्वेषु शरदादिषु ऋतुषु सुखदया छायया प्रभया आतपाभावलक्षणया वा युक्ता इति शेषः ॥९१॥ तथा सा हट्ठरोमकूवेहिं ति सा शिबिका यस्यां जिनोऽध्यारूढः हृष्टरोमकूपैः उद्धृषितरोमभिरित्यर्थः ॥९२।। ___ तथा चलचवलकुंडलधर त्ति चलाश्च ते चपलकुण्डलधराश्चेति वाक्यम्, तथा स्वच्छन्देन 15 स्वरुच्या विकुर्वितानि यान्याभरणानि मुकुटादीनि तानि धारयन्ति ये ते तथा असुरेन्द्रादय इति योगः ॥९३॥ गरुल त्ति गरुडध्वजाः सुपर्णकुमारा इत्यर्थः ।।९४॥ तथा- सव्वे वि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउवीसं । न य णाम अन्नलिंगे न य गिहिलिंगे कुलिंगे य ॥ [आव० नि० २२७] त्ति । [एगादसेण त्ति एकेन वस्त्रेणेन्द्रसमर्पितेन नोपधिभूतेन युक्ता निष्क्रान्ता इत्यर्थः, 20 न चाऽन्यलिङ्गे स्थविरकल्पिकादिलिङ्गे, तीर्थकरलिङ्ग एवेत्यर्थः, कुलिङ्गे शाक्यादिलिङ्गे । तथा एक्को भगवं वीरो पासो मल्ली य तिहिं तिहिं सएहिं । १. कयधम्मा जे१,२ ॥ २. सर्वेऽपि एकदूष्येण एकवस्त्रेण निर्गता: जिनवराश्चतुर्विंशतिः, अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, सर्वे यावन्तः खल्वतीता जिनवरा अपि एकदूष्येण निर्गताः । सर्वे तीर्थकृतः तीर्थकरलिङ्ग एव निष्क्रान्ताः, न च नाम अन्यलिङ्गे न गृहस्थलिङ्गे कुलिङ्गे वा, अन्यलिङ्गाद्यर्थ उक्त एवेति गाथार्थः ॥२२७॥" आव० हारि० ॥ ३. एको भगवान् वीरः चरमतीर्थकरः प्रव्रजितः, तथा पार्थो मल्लिश्च त्रिभिस्त्रिभिः शतैः सह, तथा भगवांश्च वासुपूज्य: षड्भिः पुरुषशतैः सह निष्क्रान्तः प्रव्रजितः । तथा उग्राणां भोगानां राजन्यानां Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ [सू० १५७] तीर्थकरमातृ-भिक्षा-चैत्यवृक्षादिनिरूपणम् । २९३ भयवं पि वासुपुजो छहिं पुरिससएहिं निक्खंतो ॥ उग्गाणं भोगाणं राइण्णाणं च खत्तियाणं च । चउहिं सहस्सेहिं उसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा ॥ [आव० नि० २२४-२२५] तथा- सुमइऽत्थ निच्चभत्तेण निग्गओ वासुपुजो जिणो चउत्थेणं । पासो मल्ली विय अट्ठमण सेसा उ छट्टेणं ॥ [आव० नि० २२८] ति, 5 सुमतिरत्र नित्यभक्तेन, अनुपोषितो निष्क्रान्त इत्यर्थः । तथा- संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसभेण लोगनाहेण । सेसेहि बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥ [आव० नि० ३१९] त्ति, तथा- उसभस्स पढमभिक्खा खोयरसो आसि लोगनाहस्स । सेसाणं परमण्णं अमयरसरसोवमं आसि ॥ [आव० नि० ३२०] [ २२] सरीरमेत्तीओ त्ति पुरुषमात्राः ॥१०६।। चेइयरुक्ख त्ति बद्धपीठा वृक्षा येषामधः केवलान्युत्पन्नानीति । बत्तीसं धणुयाइं गाहा, निच्चोउगो त्ति नित्यं सर्वदा ऋतुरेव पुष्पादिकालो यस्य स नित्यर्तुकः असोगो त्ति अशोकाभिधानो यः समवसरणभूमिमध्ये भवति, ओच्छन्नो सालरुक्खेणं ति अवच्छन्नः शालवृक्षेणेत्यत एव वचनादशोकस्योपरि शालवृक्षोऽपि 15 कथञ्चिदस्तीत्यवसीयत इति ॥११०॥ तिण्णेव गाउयाइं गाहा ऋषभस्वामिनो द्वादशगुण इत्यर्थः ॥१११॥ सवेइय त्ति वेदिकायुक्ताः, एते चाशोकाः समवसरणसम्बन्धिनः सम्भाव्यन्त इति ॥११२॥ च क्षत्रियाणां च चतुर्भिः सहस्रैः सह ऋषभः, किम् ? निष्क्रान्त इति वर्त्तते, शेषास्तु अजितादयः सहस्रपरिवारा निष्क्रान्ता इति, उग्रादीनां च स्वरूपमधः प्रतिपादितमेवेति गाथार्थः ॥२२४-२५॥" आव० हारि० ॥ १. "सुमति: तीर्थकरः, थेति निपातः, नित्यभक्तेन अनवरतभक्तेन निर्गतो निष्क्रान्तः, तथा वासुपूज्यो जिनश्चतुर्थेन, निर्गत इति वर्त्तते, तथा पार्थो मल्ल्यपि चाष्टमेन, शेषास्तु ऋषभादयः षष्ठेनेति गाथार्थः ॥२२८॥" आव० हारि० ॥ २. संवत्सरेण भिक्षा लब्धाः ऋषभेण लोकनाथेन प्रथमतीर्थकृता, शेषैः अजितादिभिः भरतक्षेत्रतीर्थकृद्भिः द्वितीयदिवसे लब्धाः प्रथमभिक्षा इति गाथार्थः ॥३१९|| ऋषभस्य तु इक्षुरसः प्रथमपारणके आसील्लोकनाथस्य, शेषाणाम् अजितादीनां परमं च तदन्नं च परमानं पायसलक्षणम्, किंविशिष्टमित्याह- अमृतरसवद् रसोपमा यस्य तद् अमृतरसरसोपममासीदिति गाथार्थः ॥३२०॥” इति आवश्यकसूत्रस्य हारिभद्र्यां वृत्तौ ॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 २९४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे [सू० १५८] [१] जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टीपितरो होत्था, तंजहाउसभे सुमित्तविजए समुद्दविजए य विस्ससेणे य ।। सूरिते सुदंसणे पउमुत्तर कत्तवीरिए चेव ॥११९॥ महाहरी य विजए य पउमे राया तहेव य । बंभे बारसमे वुत्ते पिउनामा चक्कवट्टीणं ॥१२०॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमाए ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टिमायरो होत्था, तंजहा सुमंगला जसवती भद्दा सहदेवा अतिरा सिरि देवी । जाला तारा मेरा वप्पा चुलणी य अपच्छिमा ॥१२१॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमाए ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टी होत्था . तंजहा भरहे सगरे मघवं० [सणंकुमारो य रायसठूलो । संती कुंथू य अरो हवइ सुभूमो य कोरव्वो ॥१२२॥ नवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसठूलो । जयनामो य नरवई बारसमो बंभदत्तो य ॥१२३॥] गाधातो । एतेसि णं बारसण्हं चक्कवट्टीणं बारस इत्थिरयणा होत्था, तंजहापढमा होइ सुभद्दा, भद्दा सुणंदा जया य विजया य । कण्हसिरी सूरसिरी, पउमसिरी वसुंधरा देवी । 20 लच्छिमती कुरुमती, इत्थीरतणाण नामाई ॥१२४॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमाए ओसप्पिणीए नव बलदेव-वासुदेवपितरो होत्था, तंजहा पयावती य बंभे [रुद्दे सोमे सिवे ति त । महसीह अग्गिसीहे, दसरहे नवमे त वसुदेवे ॥१२५॥] गाहा । _25 जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए णव वासुदेवमातरो 15 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ [सू० १५८] चक्रवर्तिपितृ-मातृ-चक्रवर्तिनामानि वासुदेव-बलदेववर्णनम् । होत्था, तंजहामियावती उमा चेव, पुढवी सीया य अम्मया । लच्छिमती सेसमती, केकई देवई इ य ॥१२६॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमाए ओसप्पिणीए णव बलदेवमायरो होत्था, तंजहा भद्दा सुभद्दा य सुप्पभा सुदंसणा विजया य वेजयंती । जयंती अपरातिया णवमिया य रोहिणी बलदेवाणं मातरो ॥१२७॥ [टी०] तथा-भरहो सगरो मघवं सणंकुमारो य रायसद्लो । संती कुंथू य अरो हवइ सुभूमो य कोरव्वो ॥ नवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसद्लो । 10 जयनामो य नरवई बारसमो बंभदत्तो य ।। [आव० नि० ३७४-३७५] तथा- पयावती य बंभो सोमो रुद्दो सिवो महसिवो य । अग्गिसिहो यं दसरहो नवमो भणिओ य वसुदेवो । [आव० नि० ४११] त्ति। [सू० १५८] [२] जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए नव दसारमंडला होत्था, तंजहा- उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंसी 15 तेयंसी वच्चंसी जसंसी छायंसी कंता सोमा सुभगा पियदसणा सुरूवा सुहसील-सुहाभिगम-सव्वजणणयणकंता ओहबला अतिबला महाबला अणिहता अपरातिया सत्तुमद्दणा रिपुसहस्समाणमधणा साणुक्कोसा अमच्छरा अचवला अचंडा मितमंजुपलावहसित-गंभीर-मधुरपडिपुण्णसच्चवयणा अब्भुवगयवच्छला सरणा लक्खणवंजणगुणोववेता माणुम्माणपमाण- 20 पडिपुण्णसुजातसव्वंगसुंदरंगा ससिसोमागारकंतपियदंसणा अमसणा पयंडदंडप्पयारगंभीरदरिसणिजा तालद्धयोव्विद्धगरुलकेऊ महाधणुविकड्डया महासत्तसागरा दुद्धरा धणुद्धरा धीरपुरिसा जुद्धकित्तिपुरिसा विपुलकुलसमुब्भवा महारयणविहाडगा अद्धभरहसामी सोमा रायकुलवंसतिलया अजिया अजितरहा १. इतः परं त्रीणि पत्राणि खं० मध्ये न सन्ति । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे हल - मुसल - कणगपाणी संख-चक्क -गय-सत्ति - णंदगधरा पवरुज्जलसुकंतविमलगोत्थुभतिरीडधारी कुंडलउज्जोवियाणणा पुंडरीयणयणा एकावलिकंठलइतवच्छा सिरिवच्छसुलंछणा वरजसा सव्वोउयसुरभिकुसुमसुरचितपलंबसोभंतकंतविकसंतचित्तवरमालरइयवच्छा अट्ठसयविभत्तलक्खणपसत्थ5 सुंदरविरतियंगमंगा मत्तगयवरिंदललियविक्कमविलासियगती सारतनवथणियमधुरगंभीरकोंचनिग्घोसदुंदुभिसरा कडिसुत्तगनीलपीयकोसेज्जवाससा पवरदित्ततेया नरसीहा नरवती नरिंदा नरवसहा मरुयवसभकप्पा अब्भहियं रायतेयलच्छीए दिप्पमाणा नीलग- पीतगवसणा दुवे दुवे राम केसवा भायरो होत्था, तंजा - तिविट्टू य जाव कण्हे ॥१२८॥ अयले वि० जाव रामे यावि अपच्छिमे ॥ १२९ ॥ एतेसि णं णवण्हं बलदेव - वासुदेवाणं पुव्वभविया नव नामधेज्जा होत्था, तंजहा 10 २९६ विस्सभूती पव्वयए धणदत्त समुद्ददत्त सेवाले । 15 पियमित्त ललियमित्ते पुणव्वसू गंगदत्ते य ॥१३०॥ एताइं नामाई पुव्वभवे आसि वासुदेवाणं । तो बलदेवाणं जहक्कमं कित्तइस्सामि ॥ १३१ ॥ विस्सनंदी सुबंधू य सागरदत्ते असोग ललिए य । वाराह धम्मसेणे अपराइय रायललिए य ॥ १३२ ॥ एतेसिं णं णवण्हं बलदेव - वासुदेवाणं पुव्वभविया नव धम्मायरिया होत्था, तंजहा 20 १. “तिविट्ठू अ दुविहू सयंभु पुरिसुत्तमे पुरिससीहे । तह पुरिसपुंडरीए दत्ते नारायणे कण्हे ||४०|| अयले विज भद्दे सुप्प अ सुदंसणे । आणंदे णंदणे पउमे रामे आवि अपच्छिमे ॥४१॥” इति संपूर्णं गाथाद्वयम् आवश्यकमूलभाष्ये वर्तते ॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सू० १५८] वासुदेव-बलदेवादिनामानि । २९७ संभूत सुभद्द सुदंसणे य सेयंस कण्ह गंगदत्ते य । सागर समुदनामे दुमसेणे य णवमए ॥१३३॥ एते धम्मायरिया कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । पुव्वभवे आसिण्हं जत्थ निदाणाई कासी य ॥१३४॥ एतेसिंणं णवण्हं वासुदेवाणं पुव्वभवे णव णिदाणभूमीतो होत्था, तंजहा- 5 महुरा जाव हत्थिणपुरं च ॥१३५॥ एतेसि णं णवण्हं वासुदेवाणं नव णिदाणकारणा होत्था, तंजहागावी जुए जाव मातुका ति य ॥१३६॥ एतेसि णं णवण्हं वासुदेवाणं णव पडिसत्तू होत्था, तंजहाअस्सग्गीवे जाव जरासंधे ॥१३७॥ 10 एते खलु पडिसत्तू जाव सचक्केहिं ॥१३८॥ एक्को य सत्तमाए पंच य छट्ठीए पंचमा एक्को । एक्को य चउत्थीए कण्हो पुण तच्चपुढवीए ॥१३९॥ अणिदाणकडा रामा० [सव्वे वि य केसवा नियाणकडा । उटुंगामी रामा केसव सव्वे अहोगामी ॥१४०॥] गाहा । अटुंतकडा रामा, एगो पुण बंभलोयकप्पम्मि । एक्का से गब्भवसही, सिज्झिस्सति आगमिस्सेणं ॥१४१॥ जंबुद्दीवे णं दीवे एरवते वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा होत्था, तंजहा चंदाणणं सुचंदं च अग्गिसेणं च नंदिसेणं च । इसिदिण्णं वयहारिं वंदिमो सामचंदं च ॥१४२॥ वंदामि जत्तिसेणं अजितसेणं तहेव सिवसेणं । बुद्धं च देवसम्म सययं निक्खित्तसत्थं च ॥१४३॥ अस्संजलं जिणवसभं वंदे य अणंतई अमियणाणिं । उवसंतं च धुयरयं वंदे खलु गुत्तिसेणं च ॥१४४॥ 15 25 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अतिपासं च सुपासं देवीसरवंदियं च मरुदेवं । निव्वाणगयं च धरं खीणदुहं सामकोटं च ॥१४५॥ जियरागमग्गिसेणं वंदे खीणरयमग्गिउत्तं च ।। वोकसियपेज्जदोसं च वारिसेणं गतं सिद्धिं ॥१४६।। 5 जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे आगमेसाते उस्सप्पिणीए सत्त कुलगरा भविस्संति, तंजहा मित्तवाहणे सुभूमे य सुप्पभे य सयंपभे । दत्ते सुहुमे सुबंधू य आगमेसाणं होक्खति ॥१४७॥ जंबुद्दीवे णं दीवे [भरहे वासे] आगमेसाते उस्सप्पिणीते दस कुलकरा 10 भविस्संति, तंजहा- विमलवाहणे सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे दढधणू दसधणू सयधणू पडिसुई सम्मुई त्ति । जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे आगमेसाए उस्सप्पिणीए चउवीसं तित्थकरा भविस्संति, तंजहा महापउमे १ सुरादेवे २ सुपासे य ३ सयंपभे ४ । सव्वाणुभूती ५ अरहा देवउत्ते य होक्खती ६ ॥१४८॥ उदए ७ पेढालपुत्ते य ८ पोट्टिले ९ सतए ति य १० । मुणिसुव्वते य अरहा ११ सव्वभावविद जिणे १२ ॥१४९॥ अममे १३ णिक्कसाए य १४, निप्पुलाए य १५ निम्ममे १६ । चित्तउत्ते १७ समाही य १८ आगमिस्सेण होक्खई ॥१५०॥ 20 संवरे १९ अणियट्टी य २०, विवाए २१ विमले ति य २२ । देवोववाए अरहा २३ अणंतविजए ति य २४ ॥१५॥ एते वुत्ता चउव्वीसं भरहे वासम्मि केवली । आगमिस्साण होक्खंति धम्मतित्थस्स देसगा ॥१५२॥ एतेसि णं चउवीसाए तित्थकराणं पुव्वभविया चउवीसं नामधेज्जा 25 भविस्संति, तंजहा 15 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५८ ] कुलकर - तीर्थकर - चक्रवर्ति-वासुदेव- बलदेवादिनामानि । सेणिय सुपास उदए, पोट्टिल अणगारे तह दढाऊ य । कत्तिय संखे य तहा, णंद सुणंदे सतए य बोधव्वा ॥ १५३ ॥ देवई चेव सच्चति तह वासुदेवे बलदेवे । रोहिणि सुलसा चेव य तत्तो खलु रेवती चैव ॥ १५४ || ततो वति मिगाली बोधव्वे खलु तहा भयाली य । दीवाय य कहे तत्तो खलु नारए चेव ॥ १५५ ॥ अंमडे दारुमडे या सातीबुद्धे य होति बोधव्वे | उस्सप्पिणि आगमेसाए तित्थकराणं तु पुव्वभवा ॥१५६॥ एसि णं चउवीसं तित्थकराणं चउवीसं पितरो भविस्संति, चउवीसं मातरो भविस्संति, चउवीसं पढमसीसा भविस्संति, चउवीसं पढमसिस्सिणीतो 10 भविस्संति, चउवीसं पढमभिक्खादा भविस्संति, चउवीसं चेतियरुक्खा भविस्संति । जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे आगमेसाए उसप्पिणीए बारस चक्कवट्टी भविस्संति, तंजहा भरहे य दीहदंते गूढदंते य सुद्धदंते य । सिरिउत्ते सिरिभूती सिरिसोमे य सत्तमे ।। १५७॥ पउमे य महापउमे विमलवाहणे विपुलवाहणे चेव । २९९ रिट्ठे बारसमे वुत्ते आगमेसा भरहाहिवा ।। १५८।। एतेसि णं बारसहं चक्कवट्टीणं बारस पितरो भविस्संति, बारस मातरो भविस्संति, बारस इत्थीरयणा भविस्संति । वेदवे भर वासे आगमेसाए उस्सप्पिणीए णव बलदेव - वासुदेवपितरो भविस्संति, णव वासुदेवमातरो भविस्संति, णव बलदेवमातरो भविस्संति णव दसारमंडला भविस्संति, तंजहा - उत्तिमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंसी एवं सो चेव वण्णतो भाणियव्वो जाव नीलगपीतगवसणा दुवे दुवे राम केसवा भातरो भविस्संति, तंजहा 5 15 20 25 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे णंदे य १ णंदमित्ते २ दीहबाहू ३ तहा महाबाहू ४ । अइबले ५ महब्बले ६ बलभद्दे य सत्तमे ७ ॥१५९॥ दुविठू य ८ तिविठू य ९ आगमेसाणं वण्हिणो । जयंते विजए भद्दे सुप्पभे य सुदंसणे ॥ 5 आणंदे णंदणे पउमे संकरिसणे य अपच्छिमे ॥१६०॥ एतेसि णं नवण्हं बलदेव-वासुदेवाणं पुव्वभविया णव नामधेजा भविस्संति, णव धम्मायरिया भविस्संति, णव नियाणभूमीओ भविस्संति, णव नियाणकारणा भविस्संति, णव पडिसत्तू भविस्संति, तंजहा तिलए य लोहजंघे वइरजंघे य केसरी य पहराए । 10 अपराजिये य भीमे महाभीमसेणे य सुग्गीवे य अपच्छिमे ॥१६१॥ एते खलु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वे य चक्कजोही हम्मिहिंति सचक्केहिं ॥१६२॥ जंबुद्दीवे णं दीवे एरवते वासे आगमेसाए उस्सप्पिणीए चउवीसं तित्थकरा भविस्संति, तंजहा सुमंगले अत्थसिद्धे य, व्वाणे य महाजसे । धम्मज्झए य अरहा, आगमेसाण होक्खति ॥१६३॥ सिरिचंदे पुप्फकेऊ य, महाचंदे य केवली । सुयसागरे य अरहा, आगमेसाण होक्खती ॥१६४॥ १. तेरापंथिभिः जैन विश्वभारती-लाडनूंतः ईसवीये १९८४ वर्षे प्रकाशिते, स्थानकवासिभिश्च ईसवीये २००० वर्षे ब्यावरत: प्रकाशिते समवायाङ्गसूत्रेऽत्र ईदृशः पाठः- “सुमंगले य सिद्धत्थे णिव्वाणे य महाजसे । धम्मज्झए य अरहा आगमिस्साण होक्खई । सिरिचंदे पुप्फकेऊ महाचंदे य केवली । सुयसागरे य अरहा आगमिस्साण होक्खई ॥ सिद्धत्थे पुण्णघोसे य महाघोसे य केवली । सच्चसेणे य अरहा आगमिस्साण होक्खई ॥ सूरसेणे य अरहा महासेणे य केवली । सव्वाणंदे य अरहा देवउत्ते य होक्खई ।। सुपासे सुव्वए अरहा अरहे य सुकोसले। अरहा अणंतविजए आगमिस्साण होक्खई ।। विमले उत्तरे अरहा अरहा य महाबले । देवाणंदे य अरहा आगमिस्साण होक्खई ॥ एए वुत्ता चउव्वीसं एरवयम्मि केवली । आगमिस्साण होखंति धम्मतित्थस्स देसगा ॥" २. इत आरभ्य 'देवउत्ते य होक्खती' इतिपर्यन्तः पाठः ख० मध्ये द्विर्भूतः ॥ 15 For Private & Personal use only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ __10 [सू० १५८] तीर्थकरादिनामानि वासुदेव-बलदेववर्णनादि । सिद्धत्थे पुण्णघोसे य, महाघोसे य केवली । सच्चसेणे य अरहा, अणंतविजए इ य ॥१६५॥ सूरसेणे महासेणे, देवसेणे य केवली । .सव्वाणंदे य अरहा, देवउत्ते य होक्खती ॥१६६॥ सुपासे सुव्वते अरहा, महासुक्के य सुकोसले । देवाणंदे अरहा अणंतविजए इ य ॥१६७॥ विमले उत्तरे अरहा अरहा य महाबलो । देवोववाए अरहा आगमेस्साण होक्खती ॥१६८॥ एए वुत्ता चउव्वीसं, एरवतवासम्मि केवली । आगमेसाण होक्खंति, धम्मतित्थस्स देसगा ॥१६९॥ बारस चक्कवट्टिपितरो मातरो चक्कवट्टिइत्थीरयणा भविस्संति, नव बलदेववासुदेवपितरो मातरो णव दसारमंडला भविस्संति, तंजहा- उत्तिमपुरिसा जाव रामकेसवा भायरो भविस्संति, नामा, पडिसत्तू, पुव्वभवणामधेजाणि, धम्मायरिया, णिदाणभूमीओ, णिदाणकारणा, आयाए, एरवते आगमेसा भाणियव्वा, एवं दोसु वि आगमेसा भाणियव्वा ।। 15 [टी०] जंबूदीवेत्यादि । दसारमंडल त्ति । दशाराणां वासुदेवानां मण्डलानि बलदेव-वासुदेवद्वय-द्वयलक्षणाः समुदाया दशारमण्डलानि, अत एव दो दो रामकेसव त्ति वक्ष्यति, दशारमण्डलाव्यतिरिक्तत्वाच्च बलदेव-वासुदेवानां दशारमण्डलानीति १. खं० मध्ये यादृशः पाठ उपलभ्यते सोऽत्र उपन्यस्तः । अणंतविजए इ य इत्ययं पाठः खं० मध्ये १६७ तमे श्लोके पुनरपि दृश्यते । किन्तु एतत्स्थाने आगमेस्साण होक्खती इति पाठोऽत्र यदि भवेत् तदा सर्वं समञ्जसं भवेत्, २४ संख्यापूर्तिरपि च कथञ्चिद् भवेत् । अत्र च समवायानसूत्रस्य हस्तलिखितादर्शेषु अन्येषु च प्रवचनसारोद्धार-तित्थोगालीप्रकीर्णकादिग्रन्थेषु भूयान् पाठविसंवादो दृश्यते । विस्तरेण एतजिज्ञासुभिः श्रीमहावीरजैनविद्यालयेन विक्रमसं० २०४१ वर्षे [इसवीये १९८५ वर्षे] प्रकाशितेऽस्मत्संपादिते समवायाङ्गसूत्रे तत्रत्यपरिशिष्टे च द्रष्टव्यम् ॥ २. जे१,२ मध्येऽत्र ईदृशः पाठः- देवाणंदे अरहा णं विजये विमल उत्तरे ॥१६७॥ अरहा अरहा य महायसे । देवोववाए अरहा आगमेस्साण होक्खती ॥१६८॥ ३. दृश्यतां पृ०२९९ पं०२५ ॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे पूर्वमुद्दिश्यापि दशारमण्डलव्यक्तिभूतानां तेषां विशेषणार्थमाह- तद्यथेत्यादि, तद्यथेति बलदेव-वासुदेवस्वरूपोपन्यासारम्भार्थः, केचित्तु दशारमंडणा इति पठन्ति, तत्र दशाराणां वासुदेवकुलीनप्रजानां मण्डनाः शोभाकारिणो दशारमण्डनाः, उत्तमपुरुषा इति तीर्थकरादीनां चतुष्पञ्चाशत उत्तमपुरुषाणां मध्यवर्त्तित्वात्, मध्यमपुरुषाः तीर्थकर5 चक्रिणां प्रतिवासुदेवानां च बलाद्यपेक्षया मध्यवर्तित्वात्, प्रधानपुरुषास्तात्कालिकपुरुषाणां शौर्यादिभिः प्रधानत्वात्, ओजस्विनो मानसबलोपेतत्वात्, तेजस्विनो दीप्तशरीरत्वात्, वर्चस्विनः शारीरबलोपेतत्वात्, यशस्विनः पराक्रमं प्राप्य प्रसिद्धिप्राप्तत्वात्, छायंसि त्ति प्राकृतत्वात् छायावन्तः शोभमानशरीराः, अत एव कान्ता: कान्तियोगात्, सौम्या अरौद्राकारत्वात्, सुभगा जनवल्लभत्वात्, प्रियदर्शनाः 10 चक्षुष्यरूपत्वात्, सुरूपाः समचतुरस्रसंस्थानत्वात्, शुभं सुखं वा सुखकरत्वाच्छीलं स्वभावो येषां ते शुभशीलाः सुखशीला वा, सुखेनाभिगम्यन्ते सेव्यन्ते ये शुभशीलत्वादेव ते सुखाभिगम्याः, सर्वजननयनानां कान्ता अभिलाष्या ये ते तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, ओघबला: प्रवाहबलाः अव्यवच्छिन्नबलत्वात्, अतिबला: शेषपुरुषबलानामतिक्रमात्, महाबलाः प्रशस्तबलाः, अनिहता निरुप15 क्रमायुष्कत्वादुरोयुद्धे वा भूम्यामपातित्वात्, अपराजितास्तैरेव शत्रूणां पराजितत्वात्, एतदेवाह- शत्रुमर्दनास्तच्छरीर-तत्सैन्यकदर्थनाद्, रिपुसहस्रमानमथनास्तद्वाञ्छितकार्यविघटनात्, सानुक्रोशाः प्रणतेष्वद्रोहकत्वात्, अमत्सरा: परगुणलवस्यापि ग्राहकत्वात्, अचपला मनोवाक्कायस्थैर्यात्, अचण्डा निष्कारणप्रबलकोपरहितत्वात्, मिते परिमिते मञ्जुनी कोमले प्रलापश्च आलापो हसितं च येषां ते मितम प्रलाप20 हसिताः, गम्भीरम् अदर्शितरोष-तोष-शोकादिविकारं मेघनादवद्वा, मधुरं श्रवणसुखकर प्रतिपूर्णम् अर्थप्रतीतिजनकं सत्यम् अवितथं वचनं वाक्यं येषां ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, अभ्युपगतवत्सलाः तत्समर्थनशीलत्वात, शरण्यास्त्राणकरणे साधुत्वात्, लक्षणानि मानादीनि वज्र-स्वस्तिक-चक्रादीनि वा व्यञ्जनानि तिलक१. °वादीनां हे२ ॥ २. युद्धे बाहुभ्यामपाति अपरा' जे२ ॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ [सू० १५८] वासुदेव-बलदेववर्णनम् । मषादीनि तेषां गुणा महर्द्धिप्राप्त्यादयस्तैरुपअपइताः शकन्ध्वादिदर्शनादुपपेता युक्ता लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेताः, मानमुदकद्रोणपरिमाणशरीरता, कथम् ?, उदकपूर्णायां द्रोण्यां निविष्टे पुरुषे यजलं ततो निर्गच्छति तद्यदि द्रोणप्रमाणं स्यात् तदा स पुरुषो मानप्राप्त इत्यभिधीयते, उन्मानम् अर्द्धभारपरिमाणता, कथम् ?, तुलारोपितस्य पुरुषस्य यद्यर्द्धभारस्तौल्यं भवति तदाऽसावुन्मानप्राप्त उच्यते, प्रमाणमष्टोत्तरशत- 5 मगुलानामुच्छ्रयः, मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णम् अन्यूनं सुजातमा गर्भाधानात् पालनविधिना सर्वाङ्गसुन्दरं निखिलावयवप्रधानम् अङ्गं शरीरं येषां ते तथा, शशिवत् सौम्याकारमरौद्रमबीभत्सं वा कान्तं दीप्रं प्रियं जनप्रेमोत्पादकं दर्शनं रूपं येषां ते तथा, अमसण त्ति अमसृणाः प्रयोजनेष्वनलसाः अमर्षणा वा अपराधिष्वकृतक्षमाः, प्रकाण्ड उत्कटो दण्डप्रकार आज्ञाविशेषो नीतिभेदविशेषो वा 10 येषां ते तथा, अथवा प्रचण्डो दुःसाध्यसाधकत्वाद् दण्डप्रचारः सैन्यविचरणं येषां ते तथा, गम्भीरा अलक्ष्यमाणान्तर्वृत्तित्वेन दृश्यन्ते ये ते गम्भीरदर्शनीयाः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, प्रचण्डदण्डप्रचारेण वा ये गम्भीरा दृश्यन्ते, तथा तालस्तलो वा वृक्षविशेषो ध्वजो येषां ते तालध्वजा: बलदेवाः, उद्विद्धः उच्छ्रितो गरुडलक्षितः केतुः ध्वजो येषां ते उद्विद्धगरुडकेतवो वासुदेवाः, तालध्वजाश्च उद्विद्धगरुडकेतवश्च 15 तालध्वजोद्विद्धगरुडकेतवः, महाधनुर्विकर्षका: महाप्राणत्वात्, महासत्त्वलक्षणजलस्य सागरा इव सागरा आश्रयत्वान्महासत्त्वसागराः, दुर्द्धरा रणाङ्गणे तेषां प्रहरतां केनापि धन्विना धारयितुमशक्यत्वात्, धनुर्धराः कोदण्डप्रहरणाः, धीरेष्वेव ते पुरुषाः पुरुषकारवन्तो न कातरेष्विति धीरपुरुषाः, युद्धजनिता या कीर्तिस्तत्प्रधानाः पुरुषा युद्धकीर्तिपुरुषाः, विपुलकुलसमुद्भवा इति प्रतीतम्, महारत्नं वज्रं तस्य 20 महाप्राणतया विघटका अगुष्ठ-तर्जनीभ्यां चूर्णका महारत्नविघटकाः, वज्रं हि १. “७९. अचोऽन्त्यादि टि ।१।११६४। अचां मध्ये योऽन्त्यः स आदिर्यस्य तट्टिसंज्ञं स्यात् ॥ शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम् ॥ तच्च टेः ॥ शकन्धुः । कर्कन्धुः। कुलटा । (ग) सीमन्तः केशवेशे ॥ सीमान्तोऽन्यः । मनीषा। हलीषा । लाङ्गलीषा । पतञ्जलिः । सारङ्गः पशु-पक्षिणोः । सारङ्गोऽन्यः || आकृतिगणोऽयम् ॥ मार्तण्डः ॥" इति पा० सिद्धान्तकौमुद्याम् ।। २. दीप्तं जे२ हे२ ।। ३. वा नास्ति जे१,२ हे१ ॥ ४. इतः खं० प्रते: प्रारम्भः।। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे अधिकरण्यां धृत्वा अयोघनेनाऽऽस्फोट्यते न च भिद्यते तावेव च भिनत्तीति दुर्भेदं तदिति, अथवा महती या आरचना सागर - शकटव्यूहादिना प्रकारेण सिसङ्ग्रामयिषोर्महासैन्यस्य तां रणरङ्गरसिकतया महाबलतया च विघटयन्ति वियोजयन्ति ये ते महारचनाविघटकाः, पाठान्तरेण तु महारणविघटकाः, 5 अर्द्धभरतस्वामिनः, सौम्या नीरुजा राजकुलवंशतिलका: अजिता: अजितरथाः, हलमुशल-कणकपाणयः, तत्र हल - मुशले प्रतीते, ते प्रहरणतया पाणौ हस्ते येषां ते बलदेवाः, येषां तु कणका बाणा: पाणौ ते शार्ङ्गधन्वानो वासुदेवाः, शंखश्च पञ्चजन्याभिधानः चक्रं च सुदर्शननामकं गदा च कौमोदकीसंज्ञा लकुटविशेषः शक्तिश्च त्रिशूलविशेषो नन्दकश्च नन्दकाभिधानः खड्गः, तान् धारयन्तीति शंख-चक्र-गदा10 शक्ति-नन्दकधराः वासुदेवाः, प्रवरो वरप्रभावयोगादुज्ज्वलः शुक्लत्वात् स्वच्छतया वा, सुकान्तः कान्तियोगात्, पाठान्तरे सुकृतः सुपरिकर्म्मितत्वात्, विमलो मलवर्जितत्वात्, गोत्थुभ त्ति कौस्तुभाभिधानो यो मणिविशेषस्तं तिरीडं ति किरीटं च मुकुटं धारयन्ति ये ते तथा, कुण्डलोद्योतिताननाः, पुण्डरीकवन्नयने येषां ते तथा, एकावली आभरणविशेषः सा कण्ठे ग्रीवायां लगिता विलम्बिता सती वक्षसि 15 उरसि वर्त्तते येषां ते एकावलीकण्ठलगितवक्षसः, श्रीवृक्षाभिधानं सुष्ठु लाञ्छनं महापुरुषत्वसूचकं वक्षसि येषां ते श्रीवृक्षलाञ्छनाः, वरयशसः सर्वत्र विख्यातत्वात्, सर्वर्तुकानि सर्वऋतुसंभवानि सुरभीणि सुगन्धीनि यानि कुसुमानि तैः सुरचिता कृता या प्रलम्बा आप्रपदीना सोभंत त्ति शोभमाना कान्ता कमनीया विकसन्ती फुल्लन्ती चित्रा पञ्चवर्णा वरा प्रधाना माला स्रक् रचिता निहिता रतिदा वा सुखकारिका 20 वक्षसि येषां ते सर्वर्तुकसुरभिकुसुमसुरचितप्रलम्बशोभमानकान्तविकसच्चित्रवरमालारचितवक्षसः, तथा अष्टशतसंख्यानि विभक्तानि विविक्तरूपाणि यानि लक्षणानि चक्रादीनि तैः प्रशस्तानि मङ्गल्यानि सुन्दराणि च मनोहराणि विरचितानि विहितानि अंगमंग त्ति अङ्गोपाङ्गानि शिरोऽङ्गुल्यादीनि येषां ते अष्टशतविभक्तलक्षणप्रशस्तसुन्दरविरचिताङ्गोपाङ्गाः, तथा मत्तगजवरेन्द्रस्य यो १. तावेव अधिकरण्ययोघनावेव इत्यर्थः ॥ ३०४ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५८] वासुदेव-बलदेववर्णनम् । ३०५ ललितो मनोहरो विक्रमः संचरणं तद्वद्विलासिता संजातविलासा गतिः गमनं येषां ते मत्तगजवरेन्द्रललितविक्रमविलासितगतयः, तथा शरदि भवः शारदः स चासौ नवं स्तनितं रसितं यस्मिन्नि?षे स नवस्तनित: स चेति समासः, स चासौ मधुरो गम्भीरश्च यः क्रौञ्चनिर्घोषः पक्षिविशेषनिनादस्तद्वद् दुन्दुभिस्वरवच्च स्वरो नादो येषां ते शारदनवस्तनितमधुरगम्भीरक्रौञ्चनिर्घोषदुन्दुभिस्वराः, इह च शरत्काले हि 5 क्रौञ्चा माद्यन्ति मधुरध्वनयश्च भवन्तीति शारदग्रहणम्, तथा पौनःपुण्येन शब्दप्रवृत्तौ तद्भङ्गादमनोज्ञता तस्य स्यादिति नवस्तनितग्रहणं स्वरूपोपदर्शनार्थं तु मधुरगम्भीरग्रहणमिति, तथा कटीसूत्रकम् आभरणविशेषस्तत्प्रधानानि नीलानि बलदेवानां पीतानि वासुदेवानां कौशेयकानि वस्त्रविशेषभूतानि वासांसि वसनानि येषां ते कटीसूत्रकनीलपीतकौशेयवाससः, प्रवरदीप्ततेजसो वरप्रभावतया वरदीप्तितया 10 च, नरसिंहा विक्रमयोगात्, नरपतयः तन्नायकत्वात्, नरेन्द्राः परमैश्वर्ययोगात्, नरवृषभा उत्क्षिप्तकार्यभरनिर्वाहकत्वात्, मरुवृषभकल्पाः देवराजोपमाः, अभ्यधिकं शेषराजेभ्यः राजतेजोलक्ष्म्या दीप्यमानाः, नीलकपीतकवसना इति पुनर्भणनं निगमनार्थम्, कथं ते नवेत्याह- दुवे दुवे इत्यादि, एवं च नव वासुदेवा नव बलदेवा इति, तिविठू य यावत्करणात् दुविद य सयंभु पुरिसुत्तमे पुरिससीहे। 15 तह पुरिसपुंडरीए दत्ते नारायणे कण्हे ।। [आव० भा० ४०] त्ति, अयले विजये भद्दे सुप्पभे य सुदंसणे । आनंदे णंदणे पउमे रामे आवि अपच्छिमे ॥ [आव० भा० ४१] त्ति । कित्तीपुरिसाणं ति कीर्तिप्रधानपुरुषाणामिति ॥१३४॥ महुरा य कणगवत्थू सावत्थी पोयणं च रायगिहं । कायंदी कोसंबी मिहिलपुरी हत्थिणपुरं च ॥ [आव० प्र० ] तथा- गावी जुए संगामे तह इत्थी पराइओ रंगे । भजाणुराग गोट्ठी परइडी माउया इ य ॥ [आव० प्र० ] त्ति । 20 ... .१. मधुर खं० । २. आवश्यकनियुक्ती प्रक्षिप्तेयं गाभा । ३. 4 गुए खं० १ ॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे तथा- अस्सग्गीवे तारए मेरए महुकेढवे निसुंभे य । बलि पहराए तह रावणे य नवमे जरासंधे ॥ [आव० भा० ४२] त्ति । एए खलु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वे वि चक्कजोही सव्वे वि हया सचक्केहिं ॥ [आव० भा० ४३] ति । अणियाणकडा रामा सव्वे वि य केसवा नियाणकडा । उड्ढंगामी रामा केसव सव्वे अहोगामी ॥ [आव० नि० ४१५] ति । आगमिस्सेणं ति आगमिष्यता कालेन आगमेस्साणं ति पाठान्तरे आगमिष्यतां भविष्यतां मध्ये सेत्स्यतीति ॥१४१।। जम्बूद्वीपैरवते अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्विंशतिस्तीर्थकरा अभूवन्, तांश्च 10 स्तुतिद्वारेणाह- चंदाणणं गाहा। चन्द्राननं १ सुचन्द्रं च २ अग्निसेनं च ३ नन्दिषेणं च ४ । क्वचिदात्मसेनोऽयं दृश्यते । ऋषिदिन्नं च ५ व्रतधारिणं च ६ वन्दामहे श्यामचन्द्रं च ७ ॥१४२॥ वंदामि गाहा, वन्दे युक्तिसेनं क्वचिदयं दीर्घबाहुर्दीघसेनो वोच्यते ८, अजितसेनं क्वचिदयं शतायुरुच्यते ९, तथैव शिवसेनं क्वचिदयं सत्यसेनोऽभिधीयते सत्यकिश्चेति 15 १०, बुद्धं चावगततत्त्वं च देवशर्माणं देवसेनापरनामकं ११, सततं सदा वन्दे इति प्रकृतम्, निक्षिप्तशस्त्रं च नामान्तरतः श्रेयांसम् १२ ॥१४३।। - असंजलं गाहा, असंज्वलं जिनवृषभं पाठान्तरेण अस्वयंज्वलं १३, वन्दे अनन्तजितममितज्ञानिनं सर्वज्ञमित्यर्थः, नामान्तरेणायं सिंहसेन इति १४, उपशान्तं १. रामणे जे१,२ हे१,२ ॥ २. °संध त्ति जे१ खमू० । °संधु त्ति खंसं० ॥ ३. “एते खलु प्रतिशत्रवः, एते एव, खलुशब्दस्य अवधारणार्थत्वात्, नान्ये, कीर्तिपुरुषाणां वासुदेवानाम्, सर्वे चक्रयोधिनः, सर्वे च हता: स्वचक्रैरिति, यतस्तान्येव तच्चक्राणि वासुदेवव्यापत्तये क्षिप्तानि तैः पुण्योदयात् वासुदेवं प्रणम्य तानेव व्यापादयन्ति इति गाथार्थः ॥४३॥ अनिदानकृतो रामाः, सर्वे अपि च केशवा निदानकृतः, ऊर्ध्वगामिनो रामाः, केशवाः सर्वे अधोगामिनः । भावार्थः सुगमः, नवरं प्राकृतशैल्या पूर्वापरनिपातः अनिदानकृता रामाः इति, अन्यथा अकृतनिदाना रामा इति द्रष्टव्यम्, केशवास्तु कृतनिदाना इति गाथार्थः ।।४१५॥” इति आवश्यकसूत्रस्य हारिभद्र्यां वृत्तौ ॥ ४. सचक्केण । अणि जे२ ॥ ५. गामि त्ति जे१ ॥ ६. सेत्स्यंतीति खं० ॥ ७. नंदिसेणं जे२ हे२ ॥ ८. °सेनो दृश्यते जे२ ॥ ९. च नास्ति जे१,२ हे१,२ ॥ १०. अनन्तजिनम जे२ हे१ । अनन्तकं तं जिनम' हे२ ॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५९] ३०७ तीर्थकरनामादि । च उपशान्तसंज्ञं धूतरजसं १५ वन्दे खलु गुप्तिसेनं च १६ ॥१४४॥ ___ अइपासं गाहा, अतिपाद्यं च १७ सुपार्श्व १८ देवेश्वरवन्दितं च मरुदेवं १९ निर्वाणगतं च धरं धरसंज्ञं २० क्षीणदुःखं श्यामकोष्ठं च २१ ॥१४५॥ जिय गाहा, जितरागमग्निसेनं महासेनापरनामकं २२ वन्दे क्षीणरजसमग्निपुत्रं च २३ व्यवकृष्टप्रेमद्वेषं च वारिषेणं २४ गतं सिद्धिमिति, स्थानान्तरे 5 किञ्चिदन्यथाप्यानुपूर्वी नाम्नामुपलभ्यते ॥१४६।। महापद्मादयो विजयान्ताश्चतुर्विंशतिः ॥१४८|| एवमिदं सर्वं सुगम ग्रन्थसमाप्ति यावत्, नवरम् आयाए त्ति बलदेवादेरायातं देवलोकादेश्च्युतस्य मनुष्येषूत्पादः सिद्धिश्च यथा रामस्येति, एवं दोसु वि त्ति भरतैरावतयोरागमिष्यन्तो वासुदेवादयो भणितव्याः। [सू० १५९] इच्चेतं एवमाहिज्जति, तंजहा- कुलगरवंसे ति य एवं तित्थगरवंसे 10 ति य चक्कवहिवंसे ति य दसारवंसे ति य गणधरवंसे ति य इसिवंसे ति य जतिवंसे ति य मुणिवंसे ति य सुते ति वा सुतंगे ति वा सुतसमासे ति वा सुतखंधे ति वा समाए ति वा संखेति वा । समत्तमंगमक्खायं, अज्झयणं ति त्ति बेमि ॥ ॥ समवाओ चउत्थमंगं सम्मत्तं ॥ ग्रं० १६६७॥ 15 [टी०] इत्यमेवमनेकधाऽर्थानुपदाधिकृतग्रन्थस्य यथार्थान्यभिधानानि दर्शयितुमाहइत्येतदधिकृतशास्त्रमेवमनेनाभिधानप्रकारेणाऽऽख्यायते अभिधीयते, तद्यथाकुलकरवंशस्य तत्प्रवाहस्य प्रतिपादकत्वात् कुलकरवंश इति च, इतिरुपदर्शने, चशब्दः समुच्चये, एवं तित्थगरवंसे इ यत्ति यथा देशेन कुलकरवंशप्रतिपादकत्वात् कुलकरवंश इत्येतदाख्यायते एवं देशतस्तीर्थकरवंशप्रतिपादकत्वात् तीर्थकरवंश इति 20 च आख्यायते एतदिति, एवं चक्रवर्तिवंश इति च दशारवंश इति च गणधरवंश इति च, गणधरव्यतिरिक्ताः शेषा जिनशिष्या ऋषयस्तद्वंशप्रतिपादकत्वादृषिवंश इति च, तत्प्रतिपादनं चात्र पर्युषणाकल्पस्य समस्तस्य ऋषिवंशपर्यवसानस्य समवसरणप्रक्रमेण भणितत्वादत एव यतिवंशो मुनिवंशश्चैतदुच्यते, यति-मुनिशब्दयोः १. सिद्धिश्च यथा रामस्येति नास्ति जे२ हे१ । जे१ मध्ये पत्रं त्रुटितम् ॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे ऋषिपर्यायत्वात्, तथा श्रुतमिति वैतदाख्यायते, परोक्षतया त्रैकालिकार्थावबोधनसहत्वादस्य, तथा श्रुताङ्गमिति वा श्रुतस्य प्रवचनस्य पुरुषरूपस्याङ्गम् अवयव इति कृत्वा, तथा श्रुतसमास इति [वा] समस्तसूत्रार्थानामिह संक्षेपेणाभिधानात्, श्रुतस्कन्ध इति वा श्रुतांशसमुदायरूपत्वादस्य, समाए इ व त्ति समवाय इति वा, 5 समस्तानां जीवादिपदार्थानामभिधेयतयेह समवायनात् मीलनादित्यर्थः, तथा एकादिसंख्याप्रधानतया पदार्थप्रतिपादनपरत्वादस्य संख्येति वाऽऽख्यायते, तथा समस्तं परिपूर्णं तदेतदङ्गमाख्यातं भगवता, नेह श्रुतस्कन्धद्वयादिखण्डनेनाचारादाविवाङ्गतेति भावः, तथा अज्झयणं ति त्ति समस्तमेतदध्ययनमित्याख्यातं नेहोद्देशकादिखण्डनाऽस्ति शस्त्रपरिज्ञादिष्विवेति भावः, इतिशब्दः समाप्तौ । बेमि त्ति किल सुधर्मस्वामी 10 जम्बूस्वामिनं प्रत्याह स्म, ब्रवीमि प्रतिपादयामि एतत् श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिनः समीपे यदवधारितमित्यनेन गुरुपारम्पर्यमर्थस्य प्रतिपादितं भवति, एवं च शिष्यस्य ग्रन्थे गौरवबुद्धिरुपजनिता भवति, आत्मनश्च गुरुषु बहुमानो दर्शित औद्धत्यं च परिहृतम्, अयमेवार्थः शिष्यस्य सम्पादितो भवति मुमुक्षूणां चायं मार्ग इत्यावेदितमिति समवायाख्यं चतुर्थमङ्गं वृत्तितः समाप्तम् ॥ नमः श्रीवीराय प्रवरवरपार्थाय च नमो । नमः श्रीवाग्देव्यै वरकविसभाया अपि नमः । नमः श्रीसङ्घाय स्फुटगुणगुरुभ्योऽपि च नमो नमः सर्वस्मै च प्रकृतविधिसाहायककृते ॥१॥ यस्य ग्रन्थवरस्य वाक्यजलधेर्लक्षं सहस्राणि च, चत्वारिंशदहो चतुर्भिरधिका मानं पदानामभूत् । तस्योच्चैश्चुलुकाकृतिं निदधतः कालादिदोषात्तथा, दुर्लेखात् खिलतां गतस्य कुधियः कुर्वन्तु किं मादृशाः ? ॥२॥ १. व्याख्यायत खं० । जे१ मध्ये पत्रं खण्डितम् ॥ २. सदेत जे२ हे१,२ ॥ ३. “सहायाद्वा" - सि० असश योपान्त्याद् गुरूपोत्तमादसुप्रख्यादकञ्" . सि०७१।७२॥ ॥ 15 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० १५९] टीकाकृद्विरचिता प्रशस्तिः । ३०९ स्वं कष्टेऽतिनिधाय कष्टमधिकं मा मेऽन्यदा जायताम्, व्याख्यानेऽस्य तथा विवेक्तुमनसामल्पश्रुतानाममुम् । इत्यालोचयता तथापि किमपि प्रोक्तं मया तत्र च, दुर्व्याख्यानविशोधनं विदधतु प्राज्ञाः परार्थोद्यताः ॥३॥ इह वचसि विरोधो नास्ति सर्वज्ञवाक्त्वात्, क्वचन तदवभासो यः स मान्द्यान्नृबुद्धेः। 5 वरगुरुविरहाद्वाऽतीतकाले मुनीशैर्गणधरवचनानां प्रस्तसङ्घातनाद्वा ॥४॥ व्याख्यानं यद्यपीदं प्रवरकविवचःपारतन्त्र्येण दृब्धम् सम्भाव्योऽस्मिंस्तथापि क्वचिदपि मनसो मोहतोऽर्थादिभेदः । किन्तु श्रीसङ्घबुद्धेरनुसरणविधेर्भावशुद्धेश्च दोषो मा मेऽभूदल्पकोऽपि प्रशमपरमना अस्तु देवी श्रुतस्य ।।५।। निःसम्बद्धविहारहारिचरितान् श्रीवर्द्धमानाभिधान् सूरीन् ध्यातवतोऽतितीव्रतपसो ग्रन्थप्रणीतिप्रभोः । श्रीमत्सूरिजिनेश्वरस्य जयिनो दपीयसां वाग्मिनाम्, तद्वन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे वि ॥६॥ शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणा विवृतिः कृता । श्रीमतः समवायाख्यतुर्याङ्गस्य समासतः ॥७॥ एकादशसु शतेष्वथ विंशत्यधिकेषु विक्रमसमानाम् । अणहिलपाटकनगरे रचिता समवायटीकेयम् ॥८॥ प्रत्यक्षरं निरूप्यास्याः ग्रन्थमानं विनिश्चितम् । त्रीणि श्लोकसहस्राणि, पादन्यूना च षट्शती ॥९॥ 10 15 १. श्रस्त खं० हे१,२ ॥ २. स्ताच्च देवी जे२ हे१ ॥ ३. "विहारिहारि' खं० । जे१ मध्ये पत्रं खण्डितम् ।। ४. विवृत्तिः जे१,२ । खं० मध्ये पत्रं खण्डितम् ॥ ५. 'स्राणि पादन्यूनानि जे१ खंमू० । °म्राणि पादन्यूना च खसं०॥६पादोनाष्टशती तथा । ग्रंथाग्रं ३७७५ । शुभं भवतु श्री मणसंघस्य हे२ ॥ हे२ = अणहिलपुरपत्तने = पाटणनगरे) श्रीहेमचन्द्राचार्यज्ञानमन्दिरै ९९९७ ग्रन्थक्रमाके विद्यमानः कागजपत्रोपरिलिखित आदर्शः । पत्रसंख्या १-६९ । अयमादर्शः षोडशे वैक्रमे शतके लिखितः प्रतिभाति ।। ७ शुभं भवतु श्रीसंघस्य ॥ श्री कल्याणमस्तु Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते समवायाङ्गसूत्रे लेखकप्रशस्त्यादि । श्रीरस्तु ग्रंथाग्रं ३५७५ हे१ ॥ हे१ = पूर्वं वाडीपार्श्वनाथभण्डारसत्कः सम्प्रति तु उपरि निर्दिष्टे श्रीहेमचन्द्राचार्यजैनज्ञानमन्दिरै क्रमाले विद्यमान: कागजपत्रोपरि लिखित: आदर्श: । पत्रसंख्या १-८४ । अयमपि षोडशे वैक्रमे शतके लिखितः प्रतिभाति ॥ ____ खं० मध्ये इतः परं महती प्रशस्तिर्वर्तते, तद्यथा- “नमः श्रीवर्धमानाय वर्धमानाय वेदसा। वेदसारं परं ब्रह्म ब्रह्मबद्धस्थितिश्च यः ॥१॥ स्वबीजमुप्तं कृतिभिः कृषीवलैः क्षेत्रे सुसिक्तं शुभभाववारिणा । क्रियेत यस्मिन् सफलं शिवश्रिया पुरं तदत्रास्ति दयावटाभिधम् ॥२॥ ख्यातस्तत्रास्ति वस्तुप्रगुणगणः प्राणिरक्षकदक्षः । सज्ज्ञाने लब्धलक्ष्यो जिनवचनरुचिश्चंचदुच्चैश्चरित्रः । पात्रं पात्रकचूडामणिजिनसुगुरूपासनावासनायाः । संघः सुश्रावकाणां सुकृतमतिरमी सन्ति तत्रापि मुख्याः ॥३॥ होनाकः सज्जनज्येष्ठः श्रेष्ठी कुमरसिंहकः । सोमाकः श्रावकः श्रेष्ठः शिष्टधीररिसिंहकः ॥४॥ कडुयाकश्च सुश्रेष्ठी सांगाक इति सत्तमः । खीम्वाकः सुहडाकश्च धर्मकर्मैककर्मठः ॥५॥ एतन्मुखः श्रावकसंघ एषोऽन्यदा वदान्यो जिनशासनज्ञः । सदा सदाचारविचारचारुक्रियासमाचारशुचिव्रतानाम् ॥६॥ श्रीमज्जगच्चन्द्रमुनीन्द्रशिष्यश्रीपूज्यदेवेन्द्रमुनीश्वराणाम् । तदाद्यशिष्यत्वभृतां च विद्यानन्दाख्यविख्यातमुनिप्रभूणाम् ॥७॥ तथा गुरूणां सुगुणैर्गुरूणां श्रीधर्मघोषाभिधसूरिराजाम् । सद्देशनामेवमपापभावां शुश्राव भावावनतोत्तमांग: ॥८॥ विषयसुखपिपासोर्गेहिनः क्वास्ति शीलं करणवशगतस्य स्यात् तपो वाऽपि कीदृक् । अनवरतमदभ्रारम्भिणो भावनाः कास्तदिह नियतमेकं दानमेवास्य धर्मः ॥९॥ किंच- धर्मः स्फूर्जति दानमेव गृहिणां ज्ञानाभयोपग्रहैत्रेधा तद्वरमाद्यमत्र यदितो निःशेषदानोदयः । ज्ञानं चाद्य न पुस्तकैर्विरहितं दातुं च लातुं च वा शक्यं पुस्तकलेखनेन कृतिभिः कार्यस्तदर्थोऽर्थवान् ॥१०॥ श्रुत्वेति संघसमवायविधीयमानज्ञानार्चनोद्भवधनेन मिथः प्रवृद्धिम्। नीतेन पुस्तकमिदं श्रुतक्रोशवृद्ध्यै बद्धादरश्चिरमलेखयदेष हृष्टः ॥११॥ यावज्जिनमतभानुः प्रकाशिताशेषवस्तुविचारः । जगति जयतीह पुस्तकमिदं बुधैर्वाच्यतां तावत् ॥१२॥ ___ संवत् १३४९ वर्षे माघ शुदि १३ अद्येह दयावटे श्रे० होना श्रे० कुमरसीह श्रे० सोमप्रभृतिसंघसमवायसमारब्धपुस्तकभांडागारे ले० सीहाकेन श्रीसमवायवृत्तिपुस्तकं लिखितम् ॥छ।" Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२)/अंब ७ प्रथमं परिशिष्टम् । श्री समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः __सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः __ सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः अइबल . १५८ अंतेवासिसयाई ११३ अक्खयं १ (२) अइरा १५७ अंतोधूमेण ३० (१) अक्खर १३६,१३७, अउज्झा १५० अंतोसल्लमरण १७ (१) १४०,१४४, अंकलिवि १८ (१) अंधकार ३४ (१) अक्खरपुट्ठिया १८ (१) अंकुसं १६ (३) १५ (१) | अक्खाइयउवक्खाइयसताई १४१ अंकुसपलंब १६ (३) अंबगरूक्खे १५७ अक्खाइयकोडीओ १४१ अंगवंसातो अंबरिसी १५ (१) अक्खाइयसताई १४१ अंगुल अंमड १५८ अक्खीणझंझे ३० (१) अंगुलच्छाय अकंता अखमा ५२ अंगुलपमाण ९६ अकंपित ११ (२), ७८ अगरूयलहुअनामं २८ (१) अंगे १३६, २९ (१ अकप्पो अगरूयलहुयपरिणाम २२ (१) अंजण ९९, १८ (३), १४६ अकम्म ३० (१) अगरूलहुनामं २५ (१) अंजणगपव्वया अकम्मभूमियाणं १० (२) अगरूलहुयणाम ४२ अंजलीपग्गहे १२ (१) अकम्हादंडे १३ (१) अगारं १९ (१), ३० (१) अंजू अकम्हाभए ७ (१) अगारमज्झे ५९,६५,७१,७५, अडउड ३० (१) अकसायया ५ (१) अगारवास ७५,८३ १९ (१ अकसिणा २८ (१) अग्गि १ (८) अकाममरणिज्जं ३६ अग्गिउत्तं १५८ अंतकिरियातो१४१, १४२, १४४, अकारणा १४८ अग्गिच्चाभं ८ (४) १४६ अकालसज्झायकारए २० (१) अग्गिभूती ११ (२),४७,७४ अंतगडदसा१ (२), १३६, १४३ अकिरिया १ (३) अग्गिवेसायणे ३० (१) अंतलिक्खे अकिरियावादी १३७ | अग्गिसीह अंतराइय अकुमारभूए ३० (१) अग्गिसेणं १५८ अंतरातिय अक्कोसपरीसह २२ (१) अग्गीणं ७६, १४९ अंतरायं ३० (१) अक्ख ___ ९६ अग्गेणियं १४ (१), १४७ अंतिमसारीरियं १०४ अक्खए १४८ अग्गेणीय १४ (१) १. सामान्यतः सूत्राङ्क एव केवल: सर्वत्रास्मामिर्दाशितः । किन्तु यत्र सूत्रमतिमहद् वर्तते तत्र सूत्राङ्केन सह पृष्ठ-पङ्क्त्यकोऽपि निर्दिष्टोऽत्र ॥ ८४ १५ अंडे १५७ अंतं /७ " १५८ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ १५० समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः अग्गोदयं ६० अजोगी १४ (१) अट्ठसयविभत्तलक्खणअचंडा १५८ अजं ७२पसत्थसुंदरविरतियंगमंगा १५८ अचक्खु-ओही अज्जव १० (१),३२ (१),१४३ अट्ठाणउतिं केवलदसणावरणं १७ (१) अजसुहम्म १०० अट्ठादंडे २ (१), १३ ३ (१) अचक्खुदंसणावरण ९ (२), ३१ अज्जा १४७ अट्ठारस १८ (१) (१) अज्जासंपदा अट्ठारसमुहुत्त १८ (१) अचवला अज्जासाहस्सीतो अट्ठारसविह १८ (१) अचिरकालपव्वइयाण १३७ अज्जियासाहस्सीतो अट्ठावयं अचेलपरीसह २२ (१) अज्झथिए १३ (१) अट्ठावीसं २८ ( अच्चुत २१ (२), २२ (२) अज्झयण ४४, १३६, १३८, अट्ठावीसतिविहे अच्छा १५० १३९, १४२, १४३, अट्ठासीति अच्चिं ८ (४) | १४४, १४५, १४६, १५९ अट्ठिजुद्धं अच्चिमालिं ८ (४) अज्झयणसते १४० अडयालकतवणमाला अच्चिमालिप्पभा १५० अज्झवसाणा १५३ अडयालकोट्ठयरइया १५० अच्चुए १०१ अज्झावसित्ता १९ (१), अडयालीसं अच्चुत ३२ (१) ३० (१), ४७, ६३, अणंत १ (२) अच्चुतवडेंसगं २२ (३) ७५, ७७, ८३, ९७, १०४ अणंतई १५८ अच्छिन्नछेयणयियाई २२ (१) | अज्झीणा अणंतइस्स ५४ अछिन्नछेयनइयाणि १४७ अट्ट । अणंतरपरंपरं अजसोकित्तिणाम ४२ अट्टालयचरियदारगोउ अणंतरा १५३ अजसोकित्तीणामं २५(१),२८(१)| रकवाडतोरणपडि- अणंतराहारा १५३ अजित २४ (१), ७१, दुवारदेसभागा १५० | अणंतविजए १५८ ९४, १०७, १५७ अट्ठ ८ (१) अणंतसेण अजितरहा १५८ अट्ठट्ठमिया अणंताणुबंधी १६ (१) अजितसेण १५७,१५८ अकृतीसं | अणंती अजिय ९०, १३२, १५८ अठ्ठत्तरिं ७८ अणगारगुणा अजीव १३७, १३८, अट्ठपयाणि १४७ अणगारमग्गे १३९, १४०, १४८ अट्ठसट्ठि ६८ अणगारमहरिसीणं १४४ अजीवकायअसंजम १७ (१) अट्ठसत्तरीए ७८ अणगारसुतं २३ (१) अजीवरासी २ (१), १४९ अट्ठसमइए ८ (१) अणट्ठादंडे २ (१), १३ (१) अजोगया | अणणुसरणता २५ (१) ४८ ५७ १४७ १५७ ६४ २७ (१) Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टशब्दा: अणसण अणसणाए अणाएज्ज अणाज्जणा अणायगस्स अणाया अणावुट्ठी अणाहपव्वज्जा अनिंदा अणिट्ठा अणिदाणकडा अणिदातिं ३० (१) अणुराहाइया १ (३) अणुराहाणक्खत्त ३४ अणुपट्ठिसिद्धा ३६ | अणुप्पवाय २४ (१) अणुवीतिभासणया १५५ अणुवेलंधर १५८ अण्णतित्थियपव१५३ ताणुजोगे १५८ अण्णतित्थियपावयणी ३० (१) अण्णदिट्ठियसयाणं ३२ (१) अण्णयरं अण अणिस्सरे अणिस्सितोवहाणे अणिहता १५८ अण्णलिंगे अणुओगदारा १३६, १४१, १४४ अण्णविधिं अणुओ अणुकंपासयप्पयोगतिकालमतिविसुद्धभत्तपाणाई १४६ अण्णाणतमंधकारदुग्गेसु चिक्खल्लसुदुत्तरं १४७ अण्णाणपरीसह १४९ अण्णाणियवादी १४४ अण्णाणी प्रथमं परिशिष्टम् । सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः ६ (१) अणुपरियद्विंसु १४२ | अणुपरियट्टिस्संति २८ (१) अणुभावबंध २५ (१), अणुवरयपरंपराणुबद्धा २८ (१), ४२ अणुराहा अणुत्तरोववातियसंपदा अघातिया अत्तर अणुत्तरा अणुत्तरोववत्ति अणुत्तवरोवातिय १११, ११४, अण्णातता १४९ व अणुत्तरोववातिदा १ (२), अतवस्सिए १४४ अतिपासं १४७ अण्णाणतमंधकार १११ अतिबला २८ (१) अतिरा १४८ अतिराणी सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः १४८ | अतिरित्तसेज्जासणिए १४८ | अतिवट्टमाण ४ (१) अतिवुट्ठी १४६ | अतिसयगुणउवसमणाणप्पगारआयरियभासियाणं ८ (२) ७ (२) अतिसयमतीतकालसमये ४ (२) अत्तकम्मुणा ४४ | अत्तदोसोवसंहारे १५ (२), १४७ अत्तुक्कोस २५ (१) अथ १७ (१) अत्थमणं अत्थसिद्ध २९ (१) अत्थिकाय ३४ अत्थिणत्थिप्पवाय १३७ २८ (१) अत्थीणत्थिपवायं १५७ अत्थे ७२ अत्थेगतियाणं अत्थोग्गह १४६ अथिरणाम १३७ २२ (१) अदंडे १३७ अदिण्णादाणातो ३० (१) अदिन्नादाणवत्तिए ३२ (१) अदिस्से २५ (१) अदुव ३० (१) अद्दइज्जं ३ सूत्राङ्काः २० (१) ९३ ३४ १४५ १४५ ३० (१) ३२ (१) ५२ २५ (१), २८ (१), ४२ १ (३) ५ (१) १३ (१) ३४ ३० (१) २३ (१) १५८ अद्दा १० (२), १५ (२) १५८ | अद्दागंगुट्ठबाहुअसिमणिखोम आइचमातियाणं १४५ १५८ १५७ अद्दाणक्खत्ते १ (५) ३८ १९ (१) १५८ ५ (१), १४८ १८ (१), १४७ १४ (१) १६ (१) १ (६) ६ (१) Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः |विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः अद्दीणसत्तु १५७ अपसत्थविहायगइणामं २८ (१) | अभिइवजेहिं २७ (१) अद्धनारायसंघयण १५५ अपसिणसतं १४५ अभिचंद ३० (१),१०९,१५७ अद्धभरहसामी १५८ अपस्समाणो __ ३० (१) अभिज्जा अद्धमागधा ३४ अपुणरावत्तयं १ (२) अभीजि ९ (२) अद्धमास १ (७) अपुरोहिता २४ (१) अभिणिवड्माण २७ (१) अद्धासमए १४९ अप्पडिपूयए ३० (१) अभिनंदण १०५ अधम्म अप्पडिहतवरणाण | अभिनिवुड्ढेत्ता ७८, ९८ अधम्मत्थिकाय ५ (१)। दसणधर | अभियाईया ७ (२) अधिकरण २० (१) अप्पणो ३० (१)| अभिरूवा १५० अनियट्टिबायर १४ (१) अप्पतिट्ठाण ३३ (२), ८४ | अभिवड्ढिए ३१ (१) अनियणा १० (२) अप्पप्पणो ३४ अभिसंजायति अपइट्ठाण १ (४) अप्पमत्तसंजत १४ (१) अभिसेया १४७ अपच्चक्खाणकसाए १६ (१), अप्पमात ३६ | अभीइणक्खत्ते ३ (२) २१ (१) अप्पमाद ५ (१), ३२ (१) | अभीजिणक्खत्त ९ (२) अपच्छिममारणंतियायसंलेह- अप्पमायजोगो १४३ अभीजियाइया ९ (२) णाज्झोसणाहिं १४२ अप्पिया १५५ अभूएणं अपज्जत्तए २५ (१) अबंभयारी ३० (१) |अमच्छरा १५८ अप्पज्जत्तग १५१ | अबहुस्सुए अमणावा १५५ अपज्जत्तणाम ९ (२) अमणुण्णा १५५ अपजत्तयणाम २५ (१) अबाहूणिया ७० | अमणुस्सआहारयसरीर १५२ अपज्जत्तया १४ (१) अब्भंतर ६ (१), ९६, १५२ अमम १५८ अपडिवाती १५२ अभंतरपुक्खरद्ध . ७२ | अमयरसरसोवमं १५७ अपतिट्ठाण १४९ अब्भहियं रायतेयलच्छीए १५८ | अमर-नर-तिरियअपमज्जणाअसंजम १७ (१) अब्भुग्गयमूसियपहसिया १५० निरयगतिगमणविविहअपमज्जितचारि २० (१) अब्भुट्ठाण १२ (१)| परियटणाणयोगे अपराइय १५८ अब्भुवगमुवक्कमिया १५३ अमसणा १५८ अपराजित ३१ (२), ३२ (३), अब्भुवगयवच्छला १५८ अमावासा ३३ (२), ३७ अभयकर १५७ अम्मया १५८ अपराजिय ५५, १५७, १४९, अभयदय १ (२) अम्मापितरो १४१, १४२, _१५१, १५८ अभवसिद्धिया २६ (१), १४८ १४३, १४४, १४६ अपरातिय १५७, १५८ अभावा १४८ अयमीणे ८८, ९८ ३० (१) ३० (१) ४२ | अबाहात १४७ ६२ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । १४८ १५ (२) विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः अयल १ (२), ८०, १५८ अरुणप्पभ ___ १५७ असच्चामोसवतीपओग १५ (२) अयलभाया ११ (२), ७२ अरुणाभं । ८ (४) असनिअपज्जत्तया १४ (१) अर ३० (१), १५८ अरुणुत्तरवडेंसगं ८ (४) असन्निपज्जत्तया १४ (१) अरति २१ (१), २६ (१) अरुयं १ (२) | असमाहिट्ठाणा २० (१) अरतिपरीसह २२ (१) अरूविअजीवरासी १४९ असमुप्पण्णपुव्वा १० (१) अरया अलाभपरीसह २२ (१) असायावेयणिज्ज ३१ (१) अरहंता ___३४, ६८ अलियवयण १४६ असिणाती ११ (१) अरहतो(ओ) ८ (१), १६ (२), अलोए १ (३), १४० | असिद्धा १८ (१), ३२ (१), ३४, अलोग १३७, १३८, १३९ असिपत्त १५ (१) ३८, ३९, ४१, ४४, ४८, अलोभ ३२ (१) असिरयण १४ (१) ५०, ५४, ५७, ५९, ६२, अवंझ १४ (१), १४७ असिलक्खणं ६६, ६८, ७५, ८०, ८१, अवकरिसो ३४ असिलेसा ८३, ८४, ८६, ९०, ९१, अवकोसे ५२ असिलेसानक्खत्त ६ (२) ९३, ९४, ९५, १००, अवट्टिते ३४, १४८ असिलोगभए २४, १४८८ आसलागभए ७ (१) १०५, १०९, १११, अवण्णिमं ३० (१) असुभणाम २५(१),३१(१), ११३, ११४, १२६, १३२ अवरकंका १९ (१) ४२, २८ (१) अरहा ९ (१), १० (१), १५ अवरदारिया ७ (२) असुभनामं २८ (१) (१), २३ (२), २५ अवरिल्लाओ | असुर १४९, १५७ (१), ३० (१), ३५, अवसेसकम्मा १४४ असुरकुमार १ (६), २ (३), ४५, ५०, ५४, ५५, ५९, अवहट्टअसंजम १७ (१) ३ (३), ४ (३), ५ (३), ६०, ६३, ७०, ७१, ७५, अविरतसम्मद्दिट्ठी १४ (१) ६ (३), ७ (२), ९ (३), ८०, ८३, ८४, ८९, ९०, अविरति ५ (१) १० (३), ११ (३), ९५, १०१, १०२, १०३, अविवरीया १२ (२), १३ (२), १०४, १०५, १०६, अव्वए १४८ १४ (२), १५ (३), १०७, १०८, १०९, अव्वाबाह १ (२) १६ (२), १७ (२), ११०, ११३ असंखयं १८ (२), १९ (२), अरिट्ठ १५७ असंखेज्जवासाउय १(६),२(३),३(३) २० (२), २१ (२), अरिट्ठनेमी १० (१), १८ (१), असंघयणत्ताए . १५५ २२ (२), २३ (२), ५४, ४०, १०४, ११०, असच्चवाई ३० (१) २५ (२), २६ (२), १११, ११३ असच्चामोसमणपओग१३(१),१५(२) २७ (२), २८ (२), अरिट्ठवरणेमी १५७ असच्चामोसवतिपओगे १३(१) २९ (२), ३० (२), ३४ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः ३१ (२), ३२ (२), अहोलोइया १५२ | आघविजंति १३७ ३३ (२), १०३, १५५ अहोसिरा ३४ आघविज्जति १३६, १३८ असुरकुमारावास ६४, १५० | आइच्च ३१ (१) | आजीवभए ७ (१) असुरकुमारिंदवज्जियाणं १ (६) आइडे ३० (१) आजीवियसुत्तपरिअसुररण्णो १७ (१) आइण्णे १९ (१) वाडीए २२ (१), १४७ असुरिंद १७ (१), १५७ आइमुहुत्त ९६ आढत्तं १५२ असुरिंदवज्जाणं १० (३) आउ ३९, १४७ आणए १८ (२) असुरिंदवज्जियाणं २ (३) | आउकाइयअसंजम १७ (१) आणंद ३० (१), १५७, १५८ असुहज्झवसाणसंचियाणं १४६ आउकाए ६ (१) |आणतं १९ (३) असोग १५७, १५८ आउक्खएणं १४२ आणमंति १(७),४(४),५(४) असोगवरपायव ३४ आउगबंधे १५४ आणयकप्पे १९ (२) अस्संजल १५८ आउट्टि आणय-पाणएसु १०६ अस्सग्गीवे १५८ आउबहुले आणय-पाणय-आरणअस्सिणिणक्खत्त ३ (२) |आउय ५८ ___ऽच्चुतेसु अस्सेसा १० (२) आउय-गोय ९१ आणाइसरसेणावच्चं अहमिंदा २४ (१) आउ-वपु-वण्ण-रूव-जाति- | आणुपुव्वीणाम अहातच्चं १० (१) । कुल-जम्म-आरोग्ग- आतप्पवायं अहातहिए १६ (१) बुद्धि-मेहाविसेसा १४६ | आतवं ___३० (१) अहासुत्तं ४९ आउसं १ (१) आतवणाम अहिए ३० (१) आएज २८ (१) आता १ (३), १३६ अहिगमेण ३० (१) आकिंचणिया आदंसलिवी अहिगरणिया ५ (१) आगमेसिभद्दाणं १११ आदाणभए अहेऊ १४८ आगरा १३८ आदाणभंडनिक्खेअहेसत्तमाए २२ (२), २३ (२), आगरिसेहिं १५४ वणासमिति २५ (२), २६ (२), आगासगं ३४ | आदिकर १ (२) २७ (२), २८ (२), आगासगतो ३४ | आदेजणाम ४२ २९ (२), ३० (२), आगासगयं ३४ आभंकरं ३ (४) ३१ (२), ३२(२),३३(२) आगासस्थिकाय ५ (१) आभंकरपभंकरं . ३ (४) अहोगामी आगासपदाणि १४७ आभरणविहिं अहोरत्ते ३० (१) आगासफालियामयं ३४ आभिणिबोहियणाण २८ (१) अहोरातिया १२ (१) आगासियाओ ३४ आभिणिबोहियणाणावरण १७ १४७ १४३ RESS | Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ २८ (१) २१ (१) प्रथमं परिशिष्टम् । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः (१), ३१ (१) आराहितसंजमा १४१ आसीउत्तरजोयणसयआभिणिबोहियनाण ६६ आराहियणाणदंसणचरित्त- | सहस्सबाहल्लाए १४९ आयंतिमरण १७ (१) जोगणिस्सल्लसुद्धसिद्धाल- | आसीतस्स १३७ आयप्पवाय १६ (२) यमग्गमभिमुहाणं १४१ आसोत्थे आयप्पवायपुव्वं १४ (१) |आराहियनाणदंसण आहट्ट २१ (१) आयरियउवज्झाएहिं ३० (१) चरित्तजोगा आहत्तहिए २३ (१) आयरियव्व २८ (१) आरोवणा आहम्मिए ३० (१) आयाए १५८ आलवमाण ३३ (१) आहव्वायं __ १४७ आयाणभंडनिक्खेव आलावगा १८ (१) आहाकम्म णासमिई ८ (१) आलोयणवजणता २५ (१) आहारइत्ता ९ (१) आयाणभंडनिक्खेव आलोयणा ३२ (१) | आहारट्ठे णासमिती ५ (१) आलोयभायणभोयणं २५ (१) आहारनीहारे ३४ आयामविक्खंभ १ (४) आवंती ९ (१) आहारपदं १५३ आयार १ (२), १८ (१), २५ आवतीसु दढधम्मया । आहारपरिण्णा २३ (१) (१), ३२ (१), ५७, । आवत्तं १६ (३), ३० (१) आहारभोयणा १५३ ८५, १३६ आवरणया ५२ आहारयमीससरीरआयारपकप्प २८ (१) आवरेत्ता १५ (१) कायप्पओग १५ (२) आयारगोयरविणयवेणआवासपव्वत आहारसण्णा ४ (१) इयट्ठाणगमणआवासपव्वय आहारयसरीर १५२ चकमणपमाणजोगजुंजण- आवीइमरण आहारयसरीरकायप्पओग १५ (२) भासासमितिगुत्तीसेज्जो आहारसमुग्घात ६ (१), ७ (१) वहिभत्तपाणउग्गमउप्पायण- आसन्नं ३३ (१) आहारुस्सास-लेस-आवासएसणाविसोहिसुद्धा- आसयति ३० (१) ___ संख-आययप्पमाण १३९ सुद्धग्गहणवयणियम- आसरयण १४ (१) आहेवच्चं तवोवधाणसुप्पसत्थं १३६ आसव १ (३) आहोहियसता ९१ आयारचूलियवज ५७ | आसवदारा आहोहियसया आरंभपरिण्णाते ११ (१) आससिक्खं ७२ | इंगिणिमरण १७ (१) आरण २० (२), २१ (२), आससेण १५७ / इंद १९ (३), १५७ १०१ |आसाढ २९ (१) | इंदज्झओ ३४ २१ (३) आसायणा ३३ (१) | इंददत्त १५७ 'आराहणा "३२ (१) “१५७. आवेढेति ३० (१) ७८ ५ (१) आहोहिय इंददिण्णे Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । २८ । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः |विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः इंदभूती ११ (२), ९२, १५७ इस्सरेण ३० (१) उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणइंदिय १४६ | इहंगतस्स ३३ (१)। जल्लपारिट्ठावणियाइंदुत्तरवडेंसगं १९ (३) | इहगत ४७ समिती ___ ५(१) इंदोकंतं १९ (३) इहलोइया १४१, १४२, १४३, | उज्जगं । १४७ इच्छा १४४, १४६ उज्जाणाई १४१, १४२, १४३, इट्ठा १५५ इहलोगभय १४४, १४६ इडिविसेसा १४१, १४२, १४३, |ईती ३४ | उज्जुसुयं १४४, १४६ | ईसत्थं ७२ उज्जोयणाम इडीगारव - ३ (१) | ईसर ५२, ५७, ७९, ९५ उडु इत्ताव २८ (१) | ईसाण १ (६), २ (३), | उडुविमाण इत्थिकहा ४ (१) २८ (१), ३० (१), उड्डंगामी इत्थिपरिणा १६ (१) ३२ (१), ८० | उण्णते इत्थिपरीसह २२ (१) ईसादोसेण ३० (१) |उण्णामे ५२ इत्थिवेद २१ (१), १५६ ईसि १२ (१) उत्तमंगम्मि ३० (१) इत्थीकहविवज्जणया २५ (१) ईसिपब्भार १२ (१), ४५ | उत्तमवरतवविसिट्ठण्णाणइत्थीपसुपंडगसंसत्त ९ (१) उक्किण्णंतरविपुलगंभीर तरावपुलगभार ___ जोगजुत्ताणं इत्थी-पसु-पंडगसंसत्तसय- खातफलिहा १५० | उत्तर १६ (१) णासणवजणता २५ (१) उक्खित्तणाए १९ (१) | उत्तरकट्ठोवगते ८० इत्थीवेद २६ (१) |उक्कोस १ (६), ५२ | उत्तरकुरा १५७ इत्थीरयण १४ (१), १५८ | उक्कोसिया उत्तरज्झयणा इत्थीलक्खणं उग्गहअणुगेहणता २५ (१) उत्तरडमणुस्सखेत्ता ६६ इत्थीविसयगेहीए ३० (१) उग्गहअणुण्णवणता २५ (१) | उत्तरदारिया ७ (२) इत्थीहिं ३० (१) उग्गहसीमजाणणता २५ (१) उत्तरपगडी ९ (२), २५ (१), इरिआवहिए . १३ (१) उग्गाणं १५७ | ३९, ५१, ५२, ५५, ५८, इरियासमिई उग्घातिया २८ (१)। ६९, ८७, ९७ इरियासमिति ५ (१), २५ (१) उच्चत्तं १४७ | उत्तराई . १५८ उच्चत्तरिया १८ (१) उत्तरातो इसिभासिया | उच्चागोए ३१ (१) उत्तराफग्गुणीणक्खत्त २ (२) इसिवंस उच्चागोतं १७ (१) उत्तराभद्दवताणक्खत्त २ (२) इस्सरियमए ८ (१) उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण- उत्तरायणगते २४ (१) इस्सरीकए ३० (१)| जल्लपारिट्ठावणियासमिई ८(१) | उत्तरायणनियट्टे ७८ १४४ ३६ इसिदिण्णं ८८ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदए प्रथमं परिशिष्टम् । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः उत्तरासाढनक्खत्त ४ (२) उल्लंबण १४६ | उवसमंति ३४ उत्तराहुत्ती ७४ उवक्खाइयसताई १४१ उवसामए १४ (१) उत्तिमपुरिसा ५४, १५८ उवगसंतं ३० (१) उवहसे ३० (१) ३२ (१), १५८ उवघातणामं २५ (१) उवासगदसा १ (२), १३६ उदएणक्कम्म ३० (१) उवधायणाम उवासागदसातो १४२ उदगणाते १९ (१) उवघायनामं २८ (१) उवासगपडिमा ११ (१) उदधी १४९ उवट्ठियं ३० (१) उवहाणसुतं ९ (१) उदय | उवत्थिया १० (२) उवहि १२ (१), ५२ उदही ७६ उवदंसिजंति १३६ उव्वट्टणा १५४ उदारा १३७ उवदंसेमाणे १५ (१) उव्वट्टणादंडओ १५४ उदितोदितकुलवंसा १५७ उवभोगत्ताते १० (२) उव्वहती ३० (१) उदीरेत्ता २० (१) | उववाय १३९ | उव्वेधुस्सेधपरिहाणी ९५ उदुमासा उववायदंडओ १५४ उसप्पिणि-ओसप्पिणि५९ उवरिमउवरिमगेवेजय ३१ (३), मंडल २० (१) उद्दिट्ठभत्तपरिण्णाते ११ (१) | । ३० (२) | उसभ २३(२),२४ (१),६३, उद्देसगसहस्स १४० उवरिमंते ८३, ८४, ८९, १०८,. उद्देसणकाल २६ (१), ८५, उवरिममज्झिमगेवेजय २९ (२), १५७, १५८ १३६, १३७, १३८, ३० (३) उसभसिरि १३५ १३९, १४१, १४२, | उवरिमहेट्ठिमगेवेजय २८ (२), | उसभसेण १५७ १४३, १४४, १४५, २९ (३) उसभसेणपामोक्खातो ८४ उसिणपरीसह २२ (१) उद्देसियं २१ (१) उवरुद्द १५ (१) उसिणफासपरिणाम २२ (१) उपेहाअसंजम १७ (१) उवसंकमित्ता उसिणवेयणं १५३ उप्पलं २० (३) उवसंतं १५८ उसुकारा उप्पाए २९ (१) |उवसंतमोहे १४ (१) उसुकारिजं उप्पातपव्वत १७ (१) |उवसंपज्जणसेणियापरिकम्मे १४७ | उसुयारा उप्पातिया ३४ उवसग्ग १४२ | उस्सग्गो ६ (१) उप्पायपुव्वं १४ (१), १४७ उवसग्गपरिण्णा १६ (१), २३ उस्सप्पिणिगंडियाओ १४७ उभओपासिं ९५ | उस्सप्पिणीए २१ (१), ४२ उमा १५८ | उवसग्गाहियासणा १४२ | उस्सासणाम उरभिजं ३६ उवसम ३० (१) | उस्सासनिस्सासे ३४ उवरिल्ले . ४२ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः ऊ १३ (१) एगत्थाणं ऊससंति १ (७), ४ (४), एगदिवसेणं ५ (४) एगदूसेण २८ (१) एगनामं ऊसासनामं एकविधवत्तव्यं एकसट्ठिभाग एकादिया कवणं एकूणणउइए एकूण एकूणपण्णाए एकूणसत्तरं एकूणातं एके एकावण्णखंभसतसन्निविट्ठा : ५१ एगा एकावलिकंठलइतवच्छा १५८ एगाकारे एकचत्तालीसं एकतीसं एक्करातिया एकवीस एकसत्तरि एक्काणउ एक्कारस एक्कारसंगिणो समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । एक्कारतारे एक्कारेहिं गुणं एगट्ठितातिं एगतारे १३८ एगनिक्खमणं १३ (१) एगनिसेज्जाते १३९ मेगा ५१ एगसट्ठिविभागभतिए ८९ एगिंदियओरालियसरीर २९ (१) एगिंदियतेयसरीर ४९ एगिंदियवेव्वियसरीर १९ (१) एगुत्तरिय ६९ एगूणचत्तालीसइमे ७९ गुणवत्तालीसं १ (३) एगूणतीसतिविहे ४१ ३१ (१) एरवत १२ (१) एरवय १७ (१), २१ (१) एवंभूतं ७१ सणासम ९१ एसणासमिती ११ (१) एसणाऽसमिते २३ (२) ओगाहणसंठाण एक्कारसभागपरिहीणे ११ (२) ओगाहणसेणियापरिकम्म ११ (२) ओगाहणोहि ११ (२) ओच्छन्नो १४७ ओधारइत्ता १४७ ओमोदरिया १ (५) ओयंसी सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः १३९ | ओरालिए ५४ ओरालियमीससरीरकाय१५७ २८ (१) ओरालियसरीर १२ (१) ओरालियसरीरंगोवंगणाम ५४ ९ (२) ओरालियसरीरकाय ६१ १ (३) ओरालियसरीरणामं १५२ ओरुंभिया १५२ |ओवारियालेणे १५२ | ओसप्पिणिगंडियाओ १५२ ओसप्पिणीए सूत्राङ्काः १८ (१), १५२ पओग १३ (१),१५ (२) १५२ १३९ ओहबला ७८ ओहिणा ३९ ओहिणा २९ (१) ओहिणाणावरण १९ (१) ओहिणाणि पओग १३ (१), १५८ ओहिणाणिसहस्स ७ (१), ३४, १५८ ओहिण्णाणिसता १० (१) १० (१) ३१ (१) १४७ १३२ १४७ ओहिदंसण ५९ १० (१) ८ (१) ओहिदंसणावरण ९ (२), ३१ (१) ५ (१) ओहिनाणिसया ९४ २० (१) ओहिपदं १५२ ओहिमरण २५ (१) १५८ कंचणपव्वतसया १५ (२) २५ (१) ३० (१) १६ (२) १४७ २१ (१), ४२ १५८ १४७ ओही १३९ कंखा ५२ १५७ कंड ३८, ६१, ८०, ८२, ८४, ८५, ८७, ९९, ११२, १२० २० (१) ६ (१) कंचणकूडं ७ (३) १०२ १५३ १७ (१) १५३ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । १४ (१) कंता ७२ / कम ७८ विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः |विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः कंचणगपव्वया ५०, १०० कम्मगसरीरणामं । २५ (१) काकणिलक्खणं कंटया ३४ कम्महिती कागणिरयण १५५, १५८ कम्मणिसेग कामगुणा ५ (१) कंबु १२ (३) कम्मपगडी ३६, ३९, ५२, | कामभोग १८ (१) कंबुग्गीवं १२ (३) ५८, ६९, ८७, ९७ कामासा कक्कसेण १५७ कम्मपगतीओ ७ (१) | कायअसंजम १७ (१) कक्के ५२ कम्मप्पवायं १४७ | कायकिलेस ६ (१) कक्खडफासपरिणाम २२ (१) कम्मप्पवायपुव्वं १४ (१) कायगुत्ती ३ (१), ८ (१) कट्ठातो ८८,९८ कम्मयसरीरकायपओग १५ (२) कायछक्क १८ (१) कडगच्छेज्जं कम्मयसरीरनामं २८ (१) कायदंड ३ (१) कडग्गिदाहण १४६ कम्मविवागज्झयणा ४३ कायसंजम १७ (१) कडा १३६, १३७, १४० कम्मविसोहिमग्गणं १४ (१) कायसमाहरणता २७ (१) कडिसुत्तगनीलपीयको- कम्मसरीरकायपओग १३ (१) कारणा १४८ सेज्जवाससा १५८ कयवम्मा १५७ | कारेमाणे कणगपाणी १५८ करणसच्चे काल १५(१),१८(३),३३(२) कण्ह १० (१), १५८ करिस्संति | कालक्कमचुयाणं १४१ कण्हलेसा ६ (१) कलह ५२ | कालयवण्णपरिणाम २२ (१) कण्हसिरी १५८ कलहकरे २० (१) कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुकतव्वयकम्म ११ (१) कलाओ १९ (१) रुक्कडझंतधूवमघमकत्तवीरिए १५८ कलुसाउलचेयसे ३० (१) घेतगंधुद्धराभिरामा १५० कत्तिय ८ (२), २९(१),१५८ कलुसाविलचेयसे ३० (१) काले १४९ कत्तियबहुलसत्तमी ३७ कल्लाणफलविवाग | कालोए कत्तियादीया ७ (२) कवाडं | कालोयण कत्तियानक्खत्त ६ (२) कसाय काविट्ठ १४ (३) कप्प १(६), २(३), ३(३), कसायसमुग्घात ६ (१), ७ (१) | काविलिजं २६ (१), ३५, १५७ कसाया ४ (१), कासवी १५७ • कप्पवरविमाणुत्तमेसु १४२ कसिणा २८ (१) | किसंघयणी १५५ कमती १५० कहाते १२ (१) | किं(संठाणी) १५५ कम्मए १५२ | कहाहिगरणाई ३० (१) किडिं ४ (४), २१ (३) कम्मंसा २१ (१), २६ (१), काइया ५ (१) | किट्टिकूड ४ (४) २८ (१) काउलेसा ६ (१), १५३ | किट्ठियोसं ६ (४) ३६ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ < < ४ (४) समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः |विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः किट्ठिजुत्तं ४ (४) कुमुदगुम्मं १८ (३) केवलदंसणावरण ९(२),३१(१) किट्ठिज्झयं ४ (४) कुम्भ १९ (१), २५ (१) | केवलनाण १० (१) किट्ठिप्पभं ४ (४) कुरुते ५२ केवलपरियागं ११० किट्ठियावत्तं कुरुमती १५८ | केवलवरनाणदंसणे २३ (२) किहिलेसं कुलकर १५७ | केवलिमरणं १०(१),१७(१) किट्ठिवण्णं कुलकरगंडियाओ १४७ केवलिसमुग्घात ७ (१), ८ (१) किट्ठिसिंग कुलगर १०९, ११२, १५८ | केवली १४ (१), ५४ किट्ठिसिट्ठ ४ (४) कुलगरतित्थगरगणधर १३९ केस-मंसु-रोम-णहे ३४ (१) किछत्तरवडेंसगं ४ (४) कुलगरपत्तीण . १५७ | केसरी १५८ किण्हलेसा १५३ कुलगरवंस १५९ केसवा १५८ कितिकम्म १२ (१) कुलपव्वया ३९ कोधणे २० (१) कित्तीपुरिस १५८ | कुलमए ८ (१) कोधविवेग २७ (१) किब्बिसिए ५२ कुलिंगे १५७ | कोव ५२ किरियट्ठाणा १३ (१),२३ (१) कुसमयमोहमोहमति कोस २४ (१) किरियविसालं १४ (१)| मोहिताणं १३७ कोसलिए २३ (२), ६३, किरिया १ (३),५ (१),१४३ कुसीलपरिभासिए १६ (१) ८३, ८४, ८९, १०८ किरियावादिसतस्स १३७ कुसीलपरिभासिते २३ (१) कोसलिय किरियाविसालं १४७ कुसुमेणं ३४ कोह की २१ (१) कूड ५२ | कोहकसाय ४ (१) कुंडलउज्जोवियाणणा १५८ | कूडसामली ८ (१) कोहविवेग २५ (१) कुंथु ३२ (१), ३५, ३७, केउ खओवसमिए __१५३ ८१, ९१, ९५, १५८ केउक ५७ | खंडगप्पवातगुहा कुंभ १५७ केउग ५२ | खंती १० (१) कुंभिपागकंपण १४६ केउभूतपडिग्गहो १४७ | खंधावारनिवेसं ७२ कुक्कुडलक्खणं १४७ | खंधावारमाणं कुडभीसहस्सपरिमंडि केकई १५८ | खत्तियाणं १५७ याभिरामो ३४ | केमहालिया १५२ खमए १४ (१) १०४ केवलं १० (१) |खमा २७ (१), १४३ कुमारभूए ३० (१) केवलणाणावरण ३१ (१) खरस्सरे १५ (१) कुमारवास ७७ केवलणाणुप्पात १४७ | खरोट्ठिया १८ (१) कुमुदं १७ (३), १८ (३) | केवलदसण १० (१) खलुंकिजं ७९, ९५ ___७२ केउभूयं ७२ कुमारं ३६ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । १३ सूत्राङ्काः ३० (१) |गावी १५८ १६ (१) १६ (१) ३० (१) १६ (१) ३० (१) १८ (१) १५७ ७२ विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः खवितसत्तय २१ (१) ९३, ९५, १४७, १५७ | गामकोडी खामितविओसवियाणं २० (१) |गणा ८ (१), ३७, ४८, ५४, | गामेणं खिंसती ३० (१)। ६६, ८३, ८६, ९०, ९३, | गायलट्ठी खीणमोह ७ (१), १४ (१) ९५, १४७ गारवा खीलियासंघयण गणितं खुज १५५ गणिपिडग १ (२), ५७, | गाहा खुड्डियाए ३७, ३८, ४० | १३६, १३९, १४८ | गाहावतिरयण खुरप्पसंठाणसंठित १४९ गणियलिवि १८ (१) गाहासोलसगा खेमंकर १५८ गतिकल्लाण १११ | गिद्धे खेमंधर १५८ गतिणाम | गिरिराया खोयरसो १५७ गद्दतोय-तुसियाणं | गिलाणम्मि गंगदत्त १५८ गद्दभे ३० (१) गिहिभायणं गंगा १४ (१) गद्धपट्टमरण १७ (१) गिहिलिंगे गंगा-सिंधू २४ (१), २५ (१) गब्भवक्कंतिअपंचेंदिअति- गीयं गंथे १६ (१), २३ (१) रिक्खजोणिआणं १३ (१) |गुज्झगे गंधजुतिं ७२ गब्भवक्कंतियमणुस्सपंचिंदि- गुणकार गंधणामं २५(१),२८(१),४२/ यओरालियसरीर १५२ | गुणदोसदरिसणाणि गंधमादण १०८ गब्भवक्कंतियसन्निमणुयाणं १ (६) | गुणहत्था गंधवट्टिभूता १५० गब्भवसही १५८ | गुत्तिसेणं गंधव्व ३० (१) गमा १३६, १४० गुत्ती गंधव्वलिवि १८ (१) गयचलणमलण गुरुफासपरिणाम गंधा ५ (१) गयलक्खणं | गूढदंत गंधाणुवाती ९ (१) गरुयलहुयपरिणाम २२ (१) गूढायारी गंभीरदरिसणिज्जा १५८ गरुला | गृहणया गंभीरमधुरपडिपुण्ण गरुलावास ८ (१) | गेवेज्जविमाणसतं सच्चवयणा १५८ गवं गेवेज्जविमाणा गगणतलमणुलिहंतसिहरा १५० गव्व ५२ गेहागारा गणधरगंडियाओ १४७ गहचरितं गेही गणधरवंस १५९ गहण ५२ गोखीरपंडुरे गणहरा ८ (१),११ (२),३७, गाथा .. २३ (१) गोणलक्खणं ४८, ५४,६६,८३,८६,९०, | गाधं . ७२ / गोतमकेसिज़ ३० (१) ८४ १४१ .१४० १५८ ३ (१) २२ (१) १५८ ३० (१) १५७ ११ (२) १० (२) ५२ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ घंटे ६४ | चंदेणं घणं ३४ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्रावाः गोतमदीव ६९ चउमासिया २८ (१) चंदसिर्ट ३ (४) गोत्त ३९ चउरंसा १४९ / चंदसिंग ३ (४) गोत्ता १३८ चउरासीई ८४ चंदा गोत्थुभ १५७ चउरासीति ८४ | चंदाणणं गोत्थूभ ५२, ५७, ५८, ४२, | चउरासीतीए १३७ चंदाभं ४३, ८७, ८८, ९२ च उरिंदिय १४ (१) चंदावत्तं गोयमदीव ६७ चउरिंदियअसंजम १७ (१) चंदिमसूरियगणनकखगोलवट्टसमुग्गतेसु . ३५ चउरिंदियतेयसरीर १५२/ तताररूवा १५० गोसीससरसरत्तचंदणदद्दर- चउवीसं २४ (१) चंदिमा १९ (१) ___ दिण्णपंचंगुलितला १५० चउवीसंगुलिए २४ (१) चंदिमसूरिय १४७ चउव्विहकम्मक्खय __ १४३ | चंदुत्तरवडेंसगं ३ (४) घट्ठा १५० चउसट्ठि ८ (२) घडमुहपवत्तिएणं २५ (१), ७४ | चउसट्ठीलठ्ठीए ६४ | चंपय १५७ - १९ (३) चउसिरं १२ (१) चक्क घणोदहि २० (१), ७९, ८६ चंडिक्के ५२ चक्कजोही १५८ पाणिंदियअत्थोग्गह ६ (१) चंद ३ (४), ३२ (१), ५९, चक्करयण १४ (१) घाणिंदियत्थोग्गह २८ (१) ६२, ७२ चक्कलक्खण ७२ घाणिंदियवंजणोग्गह २८ (१) |चंदकंत ३ (४), १५७ | चक्कवट्टिइत्थीरयणा घोरपरीसहपरायियास हप (पा?) |चंदकूडं ३ (४) चक्कवट्टिांडियाओ १४७ रद्धरुद्धसिद्धालयमग्ग- चंदचरितं ७२ चक्ककट्टिपितरो निग्गयाणं १४१ चंदजस १५७ | चक्कवट्टिवंस घोस ६(४), १०(४), ३२(१) चंदज्झयं ३ (४) | चक्कवट्टिविजया ३४, ६८ चउक्कणइयाई चंदणज्जा . १५७ चक्कवट्टी २३ (२),५४,६८,१५८ चउगाउए ४ (१) चंददिणे २९ (१) |चक्कहर-हलहर १३९ चउणउइं ___ ९४ | चंदप्पभ (४), ९३, चक्काउह १५७ चउतारे ४ (२) ०१, १५७ चक्कीण १३९ चउत्तीसं ६१ चक्खिंदियत्थोग्गह २८ (१) चउत्थ १ (२) चंदरूवं ३ (४) | चक्खुइंदियअत्थोग्गह ६ (१) चउत्थी ७ (२), ९ (३), चंदलेसं ३ (४) | चक्खुकंता १५७ १० (३), १४९ चंदवण्णं ३ (४) चक्खुदय १ (२) चउप्पय ३४, ५४ | चंदसंवच्छर १५८ १५८ १५९ ३४ | चंदमंडले Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । ४४ __ ४० चारं ३३ (१) १४७ विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः चक्खुदंसणावरण ९ (२), चाउरंतचक्कट्टि १४ (१), ४८, चोतालीसं १७ (१), ३१ (१) ७१, ७२, ७७, ८३, ८९, चोत्तीसं ३४ चक्खुम १५७ / ९६, ९७, १०७, १०८, चोद्दस १४ (१) चत्तारि ४ (१)। १२९ चोद्दसपुब्बिसया चत्तालीसं ९ (२), ७२ | चोद्दसपुव्वी २३(२),१०४,१०५ चत्तालीसंगुलियं |चारणाणं १७ (१) चोयालीसतिमे ८८ चत्ताले ३८| चारू १५७ चोयाले चमर १६ (२), १७ (१), चावोण्णतं २१ (३) |चोरिक्ककरण १४६ __३२ (१), ३३ (१), ३४, चोवत्तरे ३७ चोवत्तरं ७४ ३६, ५१, १५७ | चित्तउत्त १५८ चमरचंचाए | चित्तंगा १० (२) छउमत्थपरियागं ५४ चम्मरयण १४ (१) | चित्तंतरगंडियाओ | छउमत्थमरण १७ (१) चम्मलक्खणं ७२ | चित्तरसा १० (२) छजीवनिकाय ६ (१) चयणाणि १४७ | चित्तसंभूयं ३६ | छट्ठीए १७ (२), १८ (२), चरणकरणपरूवणया चित्तसमाहिट्ठाणा १० (१)। १९ (२), २० (२), १३७, १३८, १४०, चित्ता ८ (२), १० (२) २१ (२), २२ (२), १४९ १४१, १४२, १४३, १४४ | | चित्ताणक्खत्त १ (५) | छण्णउई ९६ चरणकरणपरूवणा १४७ चियाते १० (१) | छत्तारे ६ (२) चरणविही |चियातो १४३ छत्तं ३४ (१) ९ (२) |चुताचुतसेणियापरिकम्मे १४७ | छत्तरयण १४ (१) चरित्तमोहणिज्ज ३१ (१) |चुलणी १५८ | छत्तलक्खणं ७२ चरित्तविराहणा ३ (१) चुल्लहिमवंत ७(१),२४(१),१०० | छत्तीसं । चरित्तसंपण्णया २७ (१) चुल्लहिमवंतकूड छत्तीसंगुलियं चरित्तायार __ १३६ | चूलिया १२ (१), १४७ छत्तीससहस्समणूणयाणं १४० चरियापरीसह २२ (१) |चूलियावत्थू १४७ | छत्तोहे १५७ चलचवलकुंडलधरा १५७ चेएइ ३० (१) | छम्मासिया १२ (१) चवण १३९ | चेत्तासोएसु १५ (२), ३६ | छरूपगयं ७२ चाउम्मासिया १२ (१) चेतियक्खंभे ३५ | छलसीति चाउरंगिज्ज ३६ चेतियरुक्खा ८ (१),१५८,१५७ | छल्लेसा ६ (१) चाउरतं १४८ चेतियाई १४१, १४२, १४३, छविहे ६ (१) १४४, १४६ | छव्वीसं २६ (१) चरति ३६ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ४६ ૬૬ १५७, १५८ २२ (१ छिरा समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः छाउमत्थिया ६ (१) जम्मभूमीसु १५७ जाणुस्सेहप्पमाणमेत्ते ३४ छायए ३० (१) जय १५८ जातिकुलकोडीजोणिपछायंसी १५८ जयंत ३१ (१), ३२ (३), मुहसतसहस्सा १३ (१) छायालीसं ३३ (२), ३७, ५५, जातिणाम जातिणाम ४२ छावडिं १४९, १५१, १५८ जातिनामनिधत्ताउगं १५४ छिण्णछेयणइयाणि १४७ जयंती १५७, १५८ जातिमए ८ (१) छिन्नछेयणयियाई २२ (१) |जया जायणपरीसह १५५ / जर-मरण-जोणिसंखुभि- जायतेयं ३० (१) छेयणाओ १९ (१)। तचक्कवालं १४६ | जालंतररयणपंजरुम्मिलित १७० छेवट्ठसंघयण १५५ |जरमरणसासणकरे १४१ जाला १५८ जए १५७ जरासंध १५८ जिण १ (२), ७५, ३० (१) जंतमुसलमुसंढिसतग्घी- | जलथलयभासुरपभूत ३४ जिणपण्णत्त १३६ परिवारिता १५० जलयरपंचेंदियतिरिक्ख- जिणपूयट्ठी ३० (१) जंबुद्दीव १ (४), ९ (२), जोणि १३ (१) जिणवयणमणुगयमहि११ (२), १२ (१), जल्लपरीसह २२ (१) यभासिता १४४ १९ (१), २३ (२), जवणालिया १८ (१) | जिणवरप्पणीया १४५ २७ (१), ३४, ४३, ५६, जस ८ (१) जिणवरभत्तीय १५७ ६५, ७९, ८०, ८२, ९५, जसंसी १५८ जिणसकहा १०२, १३०, १५७, १५८ जसकित्तिनामं २८ (१) | जिणसता ७५ जंबू ८ (१), १५७ | जसमं १५७/जिणसमीव १४४ जंबूदीव १२४ जसवती १५८ जिणातिसेसा १४४ जंबूद्दीविया ३० (१) जिब्भछेयण १४६ जक्ख ३० (१) जसे १५७ जिभिंदियअत्थोग्गह ६ (१) जखिणी १५७ जसोकित्तिणा(ना)म ४२,१७(१) जिन्भिंदियत्थोग्गह २८ (१) जगजीवहित जहण्ण १ (६) जिभिंदियवंजणोग्गह २८ (१) जगती ८ (१) जहाजायं १२ (१) | जिब्भियाए जण्णतिजं ___३६ | जहाणामए १४८ जियपरीसहकसायसेण्णजतिवंस १५९ जाणएणं १ (२) धितिधणियसंजमउच्छाजमगपव्वया ११३ जाणमाणो ३० (१) हनिच्छियाणं १४१ जमतीते १६ (१), २३ (१) जाणवयं ७२ | जियसत्तू १५७ जम्मणाणि १४७ जाणविमाण १ (४) जियारी १५७ ३५ ८ (१) |जससा Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । '१४० ५२ ९० विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः जीव ५३, ५७, ८४, ९४, जेट्ठा ३ (२), ८ (२), | झाण ४ (१), ६ (१) १३७, १३८, १३९, १४० १५ (२) | झाणजोगजुत्ता १४४ जीवजोणि १३९ जोइ १० (२) | झाणसंवरजोग ३२ (१) जीवट्ठाणा १४ (१) जोइसिय झिम्म जीवत्थिकाय जोइस्संति ४५ ठाण १ (२), ५७,१३६,१३८ जीवदय १ (२) जोए ३० (१) ठाणगसय १३९ जीवप्पदेसोगाहणा १०४ जोएंति | ठितिकल्लाणाणं १११ जीवरासी २ (१), १४९ जोएंसु ठितिबंध जीवा १४ (१), २४ (१), जोगं ८ (२) णउइं १२२, ३७, १४८ जोगसंगहा ३२ (१) | णंद १५ (४), १५७, १५८ जीवा-ऽजीव-पुण्ण-पावा- जोगसच्चे २७ (१) | णंदकंतं __ १५ (४) ऽऽसव-संवर-णिज्जर- जोगा ५ (१) | णंदण १५७, १५८ बंध-मोक्ख १३७ | जोगाणुजोग २९ (१) णंदणकूडा १०८ जीवाजीवविभत्ती ३६ जोणिप्पमुहसतसहस्सा ८४ | णंदप्पभं १५ (४) जीवाजीवा १३७, १३८, जोतिसचाला १३८ | णंदमित्त १३९, १४० जोतिसंते ११ (२) णंदलेसं जीवितासा ५२ | जोतिसियविमाणवासा १५० णंदवण्णं १५ (४) जुए १५८ | जोतिसियावासा १५० णंदावत्तं १५ (४), १४७ जुग ६१, ६२, ६७, ९६ जोतिसे ११ (२) णंदी ८८ जुगबाहु १५७ | जोयणकोडाकोडीतो १५० णंदुत्तरवडेंसगं १५ (४) जुगलयाणं ७६ जोयणकोडीतो १५० णंदीरुक्खे १५७ जुत्तफुसिएण ३४ जोयणनीहारी ३४ | णक्खत्तभासे २७ (१) १५८ जोयणपरिमंडलं ३४ | णगराई १४१, १४२, ७२ जोयणसत ९ (२) १४३, १४४, १४६ जुद्धकित्तिपुरिसा जोयणसताणि १५० णग्गोह १५७ जुद्धातिजुद्धं जोयणसयसहस्साणि १५० | णग्गोहपरिमंडल जुयक ५२, ५७ जोयणसहस्सं १ (४) | णट्टे ३२ (१) ९५ | जोयणसहस्साई ८४ णतं १९ (३) जुयय ७९ जोयणसहस्साणि १५० णदीतो १३८ १४९ झंझकरे २० (१) |णपुंसगवेद १५६ जूयं ७२ झंपित्ता ३० (१) णपुंसयवेद २१ (१) १५८ जुत्तिसेणं १५५ जुयते जुवलगाणं Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ (७) णिजरा १५५ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः णपुंसयवेयणिज २० (१) णिगंथ १८ (१) णीससंति णरकंता १४ (१) णिच्चभत्तेण १५७ णूमे णर-णिरय-तिरिय-सुरगतिगमण- णिच्चे १४८ णेयारं ३० (१) विपुलपरियट्ट-अरति-भय- |णिच्चोउगो १५७ /जेव्वारे १५८ विसाय-सोक १ (३) णोइंदियअवाते २८ (१) मिच्छत्तसेलसंकडं १४६ णिण्हइया १८ (१) णोइंदियईहा २८ (१) णवजोयणिया ९ (२) णिण्हाई ३० (१) णोइंदियत्थोग्गह २८ (१) णवणउतिं |णिताई १५३ णोइंदियधारणा २८ (१) णाए | णितिए १४८ णोकसाया २८ (१) णागदत्ता १५७ णिद्दा ९ (२) हारू णागरुक्खे १५७ णिद्दाणिद्दा ९ (२), ३१ (१) तउ १४६ णाणप्पवायं १४७ णिद्धफासपरिणाम २२ (१) तओ णाणसंपण्णया २७ (१) |णिधयो १३८ तच्चा ३ (३), ४ (३), णाणादिटुंतवयणिस्सारं १३७ | णिप्पंका १५० ५ (३), ६ (३), णाणायार १३६ | णिबंधति २८ (१) ७ (२), १४९ णाणासंठाणसंठिता १५५ णिबद्धा १३६, १३७, १४० | तणुयतरि १२ (१) णाता १३६ णिम्मला १५० तणू १२ (१) णाते १३७ णियट्टति २४ (१)| तण्हा णाभी १५७ णियट्टिबादर २१ (१) तट्ठवं ३० (१) णामधेजा १५७ णियाणकारणा १५८ तढे ३० (१) णायज्झयणा १९ (१) |णियाणभूमी १५८ | तणपरीसह २२ (१) णायाधम्मकहा १ (२), १३६, णिरयगति १४६ | तत्ततेल्लकलकलअभिसिंचण १४६ १४१ णिरवच्चा .१५७/तत्थगते ३३ (१) णारिकता १४ (१) णिव्वइत्ता २४ (१) तब्भवमरण १७ (१) णालंदतिज्ज २३ (१) णिव्युतिकरी १५७ तमतमा णास-कण्णोठंगुट्ठकर-चरण- |णिसभ ११२ तमरतोघविप्पमुक्का १४७ नहच्छेयण १४६ णिसभ-नीलवंतवासहर- तमरयविद्धंसणाणणिकाइता १३६, १३७ पव्वयं १०६ सुदिट्ठदीवभूयईहामतिणिकंकडच्छाया १५० णिसभ-नीलवंता १०६ बुद्धिवद्धणाणं १४० णिक्कसाय १५८ णिसीहियापरीसह २२ (१) तमरयोघविप्पमुक्का १४२, १४३ णिक्खोभनिप्पकंपा १३७ णिस्सारं १३७ | तमा ४१ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । . १५५ १५७ तवो १५९ विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः तरुणीपडिकम्म ७२ | तिगिच्छिद्दहा ७४ तुंबे १९ (१) तव १० (१) तिगिछिकूड १७ (१) | तुडियंगा १० (२) तवइंसु ६६, ७२ तिगुणं __१४७ तेइंदिय १४ (१), ४९ तवणिज्जवालुगापत्थडा १५० तिगुत्तं १२ (१) तेइंदियअसंजम १७ (१) तवदित्तचरित्त-णाण-सम्मतसार- तिण्हं तेसट्ठाणं १३७ तेइंदियतेयसरीर १५२ विविहप्पगारवित्थर- |तितारे ३ (२) तेउकाइयअसंजम १७ (१) पसत्थगुणसंजुय १४४ तितिक्खा ३२ (१) | तेउकाए ६ (१) तवनियमतवोवहाणरणदुद्धरभर- तित्तरसपरिणाम २२ (१)| तेउलेसा ६ (१), १५३ ___ भग्गाणिसहाणिसट्ठाणं १४१ | तित्थकर १ (२), १९ (१), | तेतिया तवमए ८ (१) २५ (१),३४,५४,१५८ तेंदुग तवा १४७ | तित्थकरगंडियाओ १४७ | तेणउतिमंडलगते ९३ तवायार १३६ | तित्थकरणाम ४२ तेणे ३० (१) १४३ तित्थकरनामसहिता २९ (१) तेतली १९ (१) तवोकम्म ६ (१) | तित्थकरसमोसरण | तेतालीसं ४३ तवोकम्मगंडियाओ १४७ तित्थगरवंस | तेतीसं ३३ (१) तवोमग्गो तित्थपवत्तणाणि १४७ | तेमासिया १२ (१), २८ (१) तवोवहाणाई १४१, १४२, तित्थप्पवत्तयाणं १५७ तेयंसी १५८ १४३, १४४, १४६ तिनेणं १ (२) | तेयगसरीरणाम २५ (१) तस ३० (१), १३६, १३७ तिप्पयंतो ३० (१) | तेयमंडल तसकाए ६ (१) | तिमिसगुहा ५० तेययसरीरनाम २८ (१) तसणाम २५ (१), ४२, २८ तिरिक्खजोणि १४६ तेयससमुग्घात ६ (१), ७ (१) तिरियगतिणाम तेयासरीर ताणं तिरियाउ तेयासीइमे ८३ १ (२) तिरियाणुपुब्विणामं २५ (१) | तेरस १३ (१) तारग्गेणं ९८ तिलए १५७, १५८ | तेरासियसुत्तपरिवाडीए २२ (१), तारा ९८, १५८ | तिविढू ८०, ८४, १५८ तारारूव ९ (२), ११२ | तिवेया १५६ तेवण्ण तालद्धयोव्विद्धगरुलकेऊ १५८ | तिव्वासुभसमायार ३० (१) | तेवीस तिकणइयाई २२ (१) तिसिला १५७ | तेवत्तरिं तिगिच्छिकेसरिद्दहा ११७ | तीसं ३० (१) |तेसीति तिगिच्छं २० (३) तुंगा १५० | तोरणेहिं १५७ १५२ तारएणं १४७ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० १३८ समक्षयाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः थंभ ५२ दंसणसावए ११ (१) दव्वगुणखेत्तकालपज्जवदेसपरिथणियं ७६, १४९ | दंसणायार १३६ | णामजहत्थिभावअणुगमथणियकुमार १५५ दंसणावरण-नामाणं निक्खेवणयप्पमाणसुनिउणोवथद्धे ३० (१) सणावरणिज ९ (२)। क्कमविविहप्पकारपाथावर १३६, १३७ | दंसणावरणिज्ज-णामा गडपयंसियाणं १४० थावरणाम ४२ | ऽऽउयाणं ५५ दरिसणिज्जा १५० थिणगिद्धी ३१ (१) |दसमसगफासपरीसह २२ (१) | दस १० (१) थितिकरणकारणाणं दसिज्जति १३६ दस-कप्प-ववहार २६ (१) थिबुयसंठाण १५५ दओभास ४२, ४३, ५२, | दसदसमिया १०० थिरजस १४४ दसद्धवण्णेणं ३४ थिरणाम ४२ दक्खिणकट्ठातो ८८ दसधणू १५८ थिरबंधण १४६ दक्खिणायणनियट्टे ७८ दसरह १५७, १५८ थिराथिराणं २८ (१) दक्खिणाहुत्ती ७४ | दसविह १० (१) थीणगिद्धी ९ (२) दक्खिणिल्ल ९९ | दसविहवत्तव्वयं थीपरिण्णा २३ (१) दगसीम ५२, ८७ | दसारगंडियाओ १४७ थूभियग्गातो १२ (१) दढधणू १५८ | दसारमंडला थेरे ३० (१), ४७, ६५, दढरह १५७ | दसारवंस १५९ ७२, ७४, दढाऊ १५८ दाणंतराइयं १७ (१) ९२, ९५ | दत्त ३५, १५८ दाणंतराए थेरोवघातिए २० (१) दधिमुहपव्वय ६४ दायणे १२ (१) दंड १ (३), २ (१), ३ (१), | दधिवण्ण १५७ | दारुमडे १५८ ३० (१), ९६ दप्प ५२ दारे दंडजुद्ध ७२ | दमतित्थकरुत्तमस्स १४५ | दावद्दवे १९ (१) दंडरयण १४ (१) दमिडलिवि १८ (१) दासऊरिया १८ (१) दंडलक्खण |दयमट्टियं ७२ | दाहिणभरह १२२ दंभे दयसीम ४२, ४३, ५७ | दाहिणड्डमणुस्सखेत्ता दंसण दवदवचारि २० (१) दाहिणदारिया ७ (२) दसणपरीसह २२ (१) | दव्व दाहिणभरहड्ड दसणमोह ३१ (१) दव्व-गुण-खेत्त-काल- दिगिंछापरीसह २२ (१) दसणविराहणा पज्जव __ १३८ | दिट्ठिवाए १ (२), १४७ दंसणसंपण्णया २७ (१)। | दिट्ठिवाते १४७ १५८ ७८, ८३, ३१ (१) ३० (१) ९८ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । ७७ ३४ देवसेण _ १५७ दुब्भिगंध |दुयावत्तं विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः दिट्ठिवाय ४६, ८८, १३६ | दुभगणाम २५ (१), देवसम्म १५८ दिट्ठिविपरियासियादंडे १३ (१) २८ (१), ४२ | देवसहस्स दिण्ण ___ १५७ | दुभिक्खं १५८ दिण्णे २२ (१) देवाउए ३१ (१) दिप्पमाणा १५८ दुम १८ (३) देवाणंद १५८ दियलोगचुताभासिया ४४ दुमपत्तयं ३६ | देवाणुपुव्वीणामं २८ (१) दिया बंभयारी ११ (१) दुमसेण १५८ | देवाणुभावं दिवढं १०१ १४७ | देवासुर-नाग-सुवण्णदिवड्डखेत्तिया ४५ दुरभिगमदुरोवगाह १४५ जक्ख-रक्खस-किंनरदिवस १२ (१) दुवालसंग, १ (२), १३६, | किंपुरिस-गरुल-गंधव्वदिवसखेत २७ (१), ७८, ९८ १३९, १४८ महोरगा ३४ दिव्वं १० (१) दुवालसमुहुत्तिया १२ (१) | देवासुरमाणुस १४४ दिसा १६ (१), ७६, १४९ दुवालसविह १२ (१) देवाहिदेव २४ (१) दिसासोवत्थियं २० (३) दुवालसावत्ते १२ (१) देविंद ३२ (१), ६०, ७० दीव १० (२), २३ (२), दुविडू १५८ देविडिं १० (१) ३० (१), ७६, १४९ दुस्सरनामं २८ (१), ४२ देवी १५७, १५८ दीवभूता १३७ दुहविवाग ३० (१) दीवायण २१ (१) | देवोववाए १५८ दीहदंत १५८ दूसमदूसमा (१) | देसकहा ४ (१) १५७, १५८ देवई | देसोधी १५२ दीहवेयड्ड ३४, ५० देवउत्त १५८ | दो २ (१) दीहवेयपव्वय २५ (१), १०० देवकुरु १५७ | दोच्च-चउत्थ-पंचमदुओणयं १२ (१) | देवकुरु-उत्तरकुरिया ५३ | छट्ठ-सत्तमासु ३९ दुगुंछा २१ (१), २६ (१) | देवकुरु-उत्तरकुरु ४९ दोच्चा १ (६), २ (३), दुगुणं १४७ | देवगति २८ (१) ३ (३), २५ (१), ८६, १४९ दुतारे २ (२) | देवगतिनाम २८ (१) दोभाकरं दुद्धरा १५८ | देवजुतं १० (१) | दोमासिया १२ (१), २८ (१) दुपडिग्गहं १४७ | देवठ्ठाण २४ (१) दोस दुपमज्जितचारि २० (१) देवदंसण १० (१) | दोसबंधण २ (१) दुपवेसं १२ (१) | देवलोगगमण १४१, १४२, धंसिया ३० (१) दुप्पय १४६, १४७ | धंसेई ३० (१) १४६ / देवे १५८ दूसम दीहबाहु १८ ५२ ३४ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० २६ (१) ८४ २२ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः धणदत्त १५८ धरण ३२ (१), ४४ | नगरनिवेसं धणिट्ठाइया धरणि १५७ नगरमाणं धणिट्ठानखत्त ५ (२) धरणितल ११ (२), ३१ (१), नट्ट धणु १० (१), १५ (१), ९६ ११८, १२३ नदई धणुद्धरा धरणिधरा नदं ३० (१) धणुपट्ठा ५७, ८४, ९८ धाउपागं नदंतं ३० (१) धणुव्वेयं ७२ | धायइसंड ६८, ८५, १२७ नपुंसकवेद धणुसत धायईरुक्ख १५७ नमि ३९, ४१ धणूवट्ठा ३८ धारणि १५७ | नमिपव्वजा धन्ने १५७ धारेति ७२ नयवं ३० (१) धम्म १ (३), ४ (१), धितिधणियबद्धकच्छ । १४६ नरए १६ (१), २३ (१), धितिमती ३२ (१) नरगगमण १४६ ४५, ४८ धीरपुरिस १५८ नरयविभत्ती २३ (१) धम्मकहा १४१, १४२, १४३, धुतं ९ (१) नरवती १५८ १४४, १४६ | धुवराहू २५ (१) | नरवसहा १५८ धम्मखेड्डं धूवे १४८ नरसीहा १५८ धम्मचिंता १० (१) धूमप्पभा १८ (१) नरिंद १२ (३), १५८ धम्मज्झए १५८ नंदण ३५, ९८ नरिंदुत्तरवडेंसगं १२ (३) धम्मत्थिकाए १४९ नंदणकूडवज्जा ११३ नरिंदोकंतं १२ (३) धम्मत्थिकाय ५ (१) नंदणवण ८५, ९९ नलिणं. १७ (३), १८ (३) धम्मदय . १ (२) १५७ नलिणगुम्म १८ (३) धम्मदेसएणं १ (२) नंदावत्तं १४७ | नव ९ (१) धम्मनायग १ (२) नंदिघोसं १० (४) नवनवमिया धम्ममित्त १५७ नंदिफले १९ (१) नाग १४९ धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टि १ (२) नंदियावत्तं १६ (३) नागकुमारावास ८४ धम्मसारहि १ (२) नंदिसेणं १५८ नागरण्णो धम्मसीह १५७ नंदी ५२ नागसाहस्सी ४२, ६०, ७२ धम्मसेण १५८ | नक्खत्त ९८, १०० नागसुपण्ण १४५ धम्मायरिया १४१, १४२, १४३, नक्खत्तमासा | नागिंद ४४, १५७ १४४, १४६, १५८ नक्खत्ता ७ (२), ८ (२), नाणप्पवायं १४ (१) धर १५७, १५८ | १० (२) | नाणविद्धिकरा १० (२) ७२ नंदा ४० Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारए ८४ प्रथमं परिशिष्टम् । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः नाणविराहणा ३ (१) | निप्पुलाए १५८ नीलवंत ७ (१), ६३, ११२ नाणावरणिज ३९, ५२, ५८ | निम्मम १५८ नीलवण्णपरिणाम २२ (१) नाणाविहसुरनरिंदरायरिसि- |निम्माणणामं २५ (१), ४२ नीससंति ४ (४), ५ (४) विविहसंसइयनिम्माणनाम २८ (१) नेयाउय ३० (१) पुच्छियाण १४० | नियट्टमाण ९३ नेयारं ३० (१) नाभी १६ (१), १५७ | नियट्टि १४ (१) | नेरइया १५३ नाम ५२, ५८ नियडिपण्णाणे ३० (१) | नेरइयाउए __३१ (१) नामधेज्जा १२ (१) नियडी ५२ नेरइयाणं १५१, १५४ नायगं ३० (१) नियाणकडा १५८ नोइंदियअत्थोग्गह ६ (१) १५८ | नियाणभूमी १५८ | पइट्ठ १५७ नारायसंघयण १५५ | नियाणसल्ल ३ (१)| पइण्णगसहस्सा नालिया | निरयगती १५४ पउम १७ (३), १८ (३), नालियाखेडं ७२ निरयविभत्ती १६ (१) १५७, १५८ निवाए १२ (१) | निरयावास ३४, ८४ | पउमगुम्मं १८ (३) निक्खममाणे ८२ | निरवलाव ३२ (१) | पउमद्दह-पुंडरीयद्दहा निक्खित्तसत्थं १५८ | निरामया ३४ पउमप्पभ १०३ निगमस्स ३० (१) निरुवलेवा ३४ | पउमसिरी १५८ निगृहेज्जा ३० (१) | निवड्माण २७ (१) | पउमावती १५७ निग्गमा १३९ | निवुवेत्ता - ७८, ९८ पउमुत्तर १५८ निच्चागोए ३१ (१) निव्वट्टइत्ता ४० | पउमुप्पलगंधिए निजुद्धं निव्वत्तणया १५३ | पंकबहुल निज्जरट्ठाणा ५ (१) | निसढ ७ (१), ६३ पंकप्पभा निजीवं - ७२ | निसभ ७४, ११२ | पंच ५ (१) निज्जुत्ती १३६ | |निसभकूड ११२ | पंचजामस्स २५ (१) निज्झाएत्ता ९ (१) |निसह-नेलवंतियाओ ९४ | पंचतारे निदंसिर्जति १३६ निसिज्जा १८ (१) पंचधणुसतिय १०४ निदाणकारणा १५८ | निस्सिए ३० (१) पंचम-छट्ठीतो निद्दा ३१ (१) | निहयरयरेणुयं ३४ | पंचमाए १० (३), ११ (३), निप्पडिकम्मया ३२ (१) | नीरया १५० १२ (२), १३ (२), निप्पडिवयणा नीलगपीतगवसणा १५८ १४ (२), १५ (३), निबंधमाण २८ (१) नीललेसा ६ (१), १५३ | १६ (२), १७ (२) स Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ ६१, ६७ / पट्टणस ९ (१) २५ (१) १५ (१) समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः |विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः पंचमासिया १२ (१) |पज्जत्तनाम २८ (१) पढमावलियाए पंचमीए पज्जत्तया १४ (१) पणतालमुहुत्तसंजोगा पंचवण्णा पज्जवा १३६ पणतालीसं पंचसंवच्छरिए पज्जोसविते ७० | पणतीसं पंचसंवच्छरिय पट्टणसहस्सा पणसं पंचाणउतिं |पडागमालाउला १५० |पणीताहारविवजणता २५ (१) पंचासं पडातियासंठाणा १५५ | पणिही ३२ (१) पंचिंदिय १४ (१) पडिचारं ७२ पणीयरसभोई पंचिंदियअसंजम १७ (१) पडिबाहिर ____३० (१) | पणुवीसं पंचिंदियतेयसरीर १५२ पडिमा ९२, १४२, पण्णत्तरिं पंचिंदियवेउब्वियसरीर १५२ १४४, १४६ | पण्णरस पंचेंदियजातिनामं २८ (१) पडिमाभिग्गहगहणपालणा १४२ पण्णरसमुहुत्त १५ (२) पंचेंदियसंसारसमावण्णपडिरूव १५०, १५७ | पण्णविजंति १३६ जीवरासी १४९ पडिलोमाहिं ३० (१) पण्णापरीसह २२ (१) पंजलिउडाओ |पडिवत्तीतो १३६ | पण्णासं पंडयवण ९८ पडिवाती १५२ | पण्हाणं १४५ पंडितमरण १७ (१) पडिविरयं ३० (१) पण्हावागरण १ (२), १३६, पकुव्वति ३० (१) पडिवूहं ७२ १४५ पक्खं ३३ (१) पडिसत्तू १५८ | पण्हावागरणदसा १४५ पगडिबंध ४ (१) पडिसाहरति ८ (१) पतिभयकरकरपलीवणा १४६ पच्चक्खयप्पच्चयकरीणं १४५ पडिसुई १५८ | पत्तगच्छेज्जं ७२ पच्चक्खाण १४ (१), पडिसुणेति | पत्तच्छेजं २०(१), ३२(१),१४७ पंडिसेवमाणे २१ (१) पत्तेयसरीरणाम २५ (१), ४२ पच्चक्खाणकसाए २१ (१) | पडुच्च १४ (१) पत्तेयसरीरनामं २८ (१) पच्चक्खाणकिरिया २३ (१) पढम-चउत्थ-पंचमासु ४३ | पत्थग्गेणं पच्चक्खाणावरण १६ (१) पढम-पंचम-छट्ठी-सत्तमासु ३४ पत्थडे पच्चाहरतो __३४ | पढम-बितिया ४२, ५५ पदग्ग १३६, १३८, १३९ पच्छन्ने पढमभिक्खा १५७/पदसतसहस्स १३९ पच्छा ८ (१) पढमभिक्खादा १५८ पदसहस्स __ १३६, १३७ पज्जत्तगाणं १५१ पढमभिक्खादेय १५७ पदेसबंध ४ (१) पज्जत्तणाम ४२ | पढमसिस्सिणी १५७, १५८ पदेसा ९५ ५० ३३ (१) ७२ ६२ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । ३६ २२ (३) विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः पन्नरसतिभागं १५ (१) पयसहस्स १३८, १४० परिवार __७७ पन्नरसमुहुत्त १५ (२) पयावती १५८ परिसओ ३० (१) पन्नरसमुहुत्तसंजुता १५ (२). पयोगसुद्धाई १४६ परिसहसेण्णरिवुबलपपबंधणे १२ (१) परचक्क ___३४ मद्दणाणं १४४ पभंकरं ३ (४), ८ (४) परदारमेहुण १४६ परिहायति ६२ पभंजण ४६ परपरिवाए ५२ परीसहा पभावई १५७ परमण्णं १५७ | परूविजंति १३६ पभास ७ (३), ११ (२), परममंगल्लजगहिताणि १४४ | पलंबं २० (३) परमाउयं ९५ पलिकुंचणया ५२ पभासिंसु ६६, ७२ परलोगभय ७ (१) पलितोवमं १ (६) पभू ३० (१) | परवेयावच्चकम्मपडिमा ९१ पलियंक १८ (१) पमत्तसंजते १४ (१) परसमय १३७, १३८, पल्लगसंठाणसंठिया ११३ पमद्द ८ (२) १३९, १४० | पल्लवग्गे १३९ पमाद ५ (१) पराघातणाम ४२ पल्लासंठाणसंठिता पमायट्ठाण पराघायनामं २८ (१) | पवडंति २५ (१) ९ (४) परिकम्म १४७ पवत्तिणीओ १४७ पम्हकंतं ९ (४) परिग्गह ५ (१) पवयणमाता ८ (१) पम्हप्पभं ९ (४) परिग्गहसण्णा पवरदित्ततेया पम्हलेसा ६(१), ९(४), १५३ परिणतापरिणतं ८८ पवरुज्जलसुकंतविमलपम्हवण्णं ९ (४) परिणमति ३४ गोत्थुभतिरीडधारी १५८ पम्हावत्तं ९ (४) परिणयापरिणयं १४७ पवहे २४ (१) पम्हुत्तरवडेंसगं ९ (४) |परिणामणता १५३ | पवात २५ (१), ७४ पयंडदंडप्पयार १५८ परिणिव्वाइस्संति पविकत्थई ३० (१) पयग्ग १३७, १४०, १४२, परिण्णा ___३२ (१) पविसमाण १४३, १४४ परित्ता __ १३६ | पविसिंसु ९ (२) पययमणसा १४६ परिभुंजणता २५ (१) पव्वज्जा १४१, १४३, पयला ९ (२), ३१ (१) परियागा १४१ १४४, १४६, १४७ पयलापयला ९ (२), ३१ (१) परियातियणता १५३ पव्वत १० (१) पयसतसहस्स १४३ | परियारणया १५३ | पव्वय १५८ पयसयसहस्स १४२, १४४, | परिवकृति ६२ पव्वयंतेणं १०८ १४७ परिवड्डी १३९ पव्वयरण्णो ३८ १५८ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । २१ (१) ३४ विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः पसंतचित्तमाणसा ३४ | पाणातिवात ५ (१) | पासायवडेंसगा पसत्थज्झवसाणजुत्ते २९ (१) |पाणातिवातकिरिया ५ (१) पासित्तए १० (१) पसत्थविहायगइणामं २८ (१) |पाणातिवातवेरमण २७ (१) पाहुड १४७ पसत्थारं ३० (१) पाणातिवाय १४६ | पाहुडपाहुडा १४७ पसिणसतं १४५ पाणिणा ३० (१) पाहुडपाहुडियातो १४७ पसिणापसिणसतं १४५ /पाणे ३० (१) पाहुडियातो १४७ पसेणईए १५७ पातोवगतो १४७ | पिंड पस्सामि ३० (१) पायच्छित्तं ६ (१) पिट्ठओ पहराए १५८ पायच्छित्तकरण ३२ (१) | पियंगु १५७ पहाणपुरिसा १५८ पायमूले ३४ | पियते १५७ पहाराइया १८ (१) |पायावच्चे ३० (१) | पियदसण १६ (१), १५८ पहेलियं ___७२ पायोवगतो १४३ पियमित्त १५८ पाईणपडिणायया १२२ पारलोइय ३० (१), १४१, पिया १५५ पाउणित्ता ४२ १४२,१४३,१४४,१४६ पिलुक्खुरुक्खे १५७ पाउब्भावो ३४ पारितावणिया ५ (१) पिवासापरीसह २२ (१) पाओवगमण १४१, १४२, पालए १ (४) | पुंखं १२ (३) १४४, १४६ | पालेमाणे ७८ पुंडं १२ (३) पाओवगमणमरण १७ (१) पाव १ (३) पुंडरीय १८ (३), १९ (१), पाओसिया ५ (१) पावअणुभागफलविवागा १४६ २३ (१) पागारा . ३७ पावकम्मवल्ली १४६ | पुंडरीयगुम्म १८ (३) पाठान्तर ७ (२) पावकरमइलमतिगुण पुंडरीयणयणा पाठो विसोहणत्थं १३७ पुक्खरगयं पाडलि १५७/पावप्पओय १४६ पुक्खरवरदीवड पाणए १९ (२) पावफलविवाग . ५५ पुक्खरसाविया १८ (१) पाणत १९ (३), ३२ (१), पावसमणिज्ज __३६ पुट्ठसेणियापरिकम्म १४७ २० (२) पावसुतपसंगे २९ (१) पुट्ठापुढे १४७ पाण-भोयण ९ (१) पास ८(१),९ (१),१६(२), पुढविकाइयअसंजम १७ (१) पाणमंति१ (७), ४ (४), ५ (४)। ३० (१), ३८, ७०, १००, | पुढविकाइयावासा १५० पाणय २० (१) १०५, १०९, ११३, ११४, पुढविकायसंजम १७ (१) पाणविधि १२६, १५७ पुढवी १ (६), १५८ पाणाउ १३(१),१४(१),१४७ पासादीया १५० | पुढवीकाय ६ (१) १५८ १४७ ७२ ६८ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । २ १५८ पुण्ण पुप्फ १५८ विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः |विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः पुणव्वसू ५ (२), ८ (२), पुरिसवेद २६ (१), १५६ पेढालपुत्त ४५, १५७, १५८ पुरिससएहिं १५७ पेसपरिण्णाते ११ (१) १(३) पुरिससीह १ (२), १३३ | पेहाअसंजम १७ (१) पुण्णघोस १५८ पुरिसादाणी ७० पोंडरीयं १७ (३) पुण्णिमा ४०, ६२ | पुरिसादाणीय ८(१), १६(२), पोक्खरकण्णियासंठाण२० (३)| ३८, १००, १०५ संठिता १५० पुप्फकत २० (३) पुरिसोत्तम १ (२), ५० पोग्गल १३८ पुप्फकूड २० (३) | पुरोहितरयण १४ (१) पोग्गलत्थिकाय पुप्फकेऊ १५८ | पुलग १२० पोग्गलपरिणाम २२ (१) पुप्फचूला १५७ पुव्व १३ (१), १४ (१) पोट्टिल पुप्फज्झय (३) पुव्वकीलिआई ९ (१) | पोट्टिलभवग्गहण १३४ पुप्फदंत ७५, ८६, १०० पुव्वगए १४७ पोराणाणं २० (१) पुप्फपभ २० (३) पुव्वगय १४७ | पोरिसिच्छायं २७ (१), ३६ पुप्फवण्ण २० (३) पुव्वदारिया ७ (२) पोरिसीछायं २४ (१) पुप्फवती १५७ पुव्वबद्धवेरा ३४ | पोरेकव्वं २० (३) पुव्वभव १० (१), १४७ पोरेवच्चं २० (३) पुव्वभवनामधेजाणि १५८ पोलिंदि (लिवि) १८ (१) पुप्फसिट्ठ २० (३) पुव्वभविया १५७, १५८ पोसहोववासणिरत ११ (१) पुप्फावत्त २० (३) पुव्वरत-पुव्वकीलियाणं २५ (१) पोसासाढेसु १८ (१) पुप्फुत्तरवडेंसगं २० (३) पुव्वरय ९ (१) पोसे २९ (१) पुप्फोवयार पुव्वसतसहस्स १२९ प्पमाय १४६ पुमवेद २१ (१) पुव्वाई १० (२) फग्गु १५७ ३३ (१) पुव्वाफग्गुणीणक्खत्त २ (२) | फग्गुणे २९ (१) पुरवरसाहस्सी ७२ | पुव्वाभद्दवताणक्खत्त २ (२) | फग्गुणपुण्णिमासिणी ४० पुरिमपच्छिमताणं २५ (१) पुव्वासाढणक्खत्त ४ (२) फलविवाग १४६ पुरिसजुगाई ४४ पुव्वुप्पण्णा ३४ | फलेणं ३० (१) पुरिसज्जाया १३८ पुस्स १५७ | फालण पुरिसलक्खणं पुस्सणक्खत्त ३ (२) फाले ३० (१) पुरिसवरगंधहत्थिणा १ (२) पुहई १५७ फासणाम २५(१), २८(१), पुरिसवरपुंडरीएणं १ (२) पूरेति ८ (१) पुरिसविज्जा ___३६ पूसो १० (२) फासा ५ (१) पुप्फलेसं पुप्फसिंग पुरतो Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ बध समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः फासाणुवाती ९ (१) बंभलोयकप्प १५८ | बहुविहकामभोगुब्भवाण १४६ फासिदियअत्थोग्गह ६ (१) बंभसिंग ११ (४) | बहुविहपरंपराणुबद्धा १४६ फासिंदियईहा २८ (१) बंभसिटुं ११ (४) | बहुविहवसणसयपरंपराफसिंदियत्थोग्गह २८ (१) बंभावत्तं ११ (४)। पबद्धाणं १४६ फासिंदियनिग्गह २७ (१) बंभी १८ (१), ४६, बहुसमरमणिजातो ९ (२) फासिंदियवंजणोग्गह २८ (१) ८४, १५७ | बहुसुतपुज्जा बउले १५७ | बंभुत्तरवडेंसगं ११ (४) | बाणउई बंध १ (३), ४ (१) बंभे ३० (१), १५८ बादर १४ (१) बंधओ २० (१) बत्तीसं ३२ (१) बादरणाम २५ (१), ४२ बंधद्विती २० (१) | बत्तीसतितारे ३२ (१) | बादरवणप्फतिकाइय १० (३) बंधण २ (१) बत्तीसतिविहे ३२ (१) बायरणाम २८ (१) १५७ बत्तीसा १३७ बायालीसं बंभ ११ (४), १२ (१), बलकूड ११३ | बारवतीए १५७ १८ (१), ६०, १५८ बलकूडवजा १०८ बारस १२ (१) बंभकत . ११ (४) | बलदेव १०(१), १२(१), बारसगुणा बंभकूडं ११ (४) ३५, ५१, ५४, ६८, बारसविहवित्थर १३९ बंभचेर ९ (१), ५१ ७३, ८०, १५८ | बारसावयं १२ (१) बंभचेरअगुत्तीओ ९ (१) बलदेवगंडियाओ १४७ | | बालपंडितमरण बंभचेरगुत्ती ९ (१) बलदेवमायरो १५८ | बालमरण १७ (१) बंभचेरवास १० (१) बलदेव-वासुदेवपितरो १५८ बाले बंभज्झयं ११ (४) | बलभद्द १५८ | बावणं बंभदत्त १५७, १५८ बलमए ८ (१) बावत्तरिं बंभप्पभं ११ (४) बलवं ३० (१) बावीसं बंभयारि ८ (१), ३० (१) बलि १६(२), ३२(१),६० बावीसतिविधे बंभलोगवडेंसगं १० (४), बहु बासीतं १२ (१) | बहुजण ३० (१) | बासीतीए बंभवण्णं ११ (४) बहुपडिपुण्ण ७० बाहा ९ (२), ६५, ६७ ९ (२), बंभ-लंतएसु __ ११० बहुभंगियं १४७ बाहिरया बंभलेसं ११ (४) बहुरवं ३० (१) बाहिराओ बंभलीए ७(२), ८(३), बहुलं १४७, १५७ बाहिराणंतरं ९(३), १० (३), ६४ | बहुलपक्ख १५ (१), ६२ | बाहिरियं १५७ १७ (१) ३० (१) ७२ ८२ 586200000 ७२ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ बितिए १४८ भद्दा बेतिया प्रथमं परिशिष्टम् । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः बाहिरे ६ (१), १५२ १४६ । भवियजणपयहिययाबाहुजुद्धं भत्तपच्चक्खाणमरण भिनंदियाणं ___१४० बाहुबलि ८४ भत्तपाण १२ (१) भसे ३० (१) बिंदुसार १४ (१) भत्ता १४७ भाणू भत्तारं ३० (१) भावणा २५ (१) बितिय-चउत्थीसु ___३५ भद्द १६ (३), १५८ | भावसच्चे २७ (१) बुज्झिस्संति | भद्दबाहुगंडियाओ १४७ | भावा बुद्धातिसेसा ३४ भद्दवते २९ (१) भावियप्पा ___३० (१) बेइंदिय १४ (१) १५८ | भावियं १७ (३) बेइंदियअसंजम १७ (१) भद्दुत्तरवडेंसगं १६ (३) भावे १० (१) बेइंदियतेयसरीर १५२ | भय २१ (१), २६ (१) भासत्ताए ३४ भयट्ठाण ७ (१) | भासरं ७ (३) बोधणअणुसासण १४१ भयविवेग २५ (१) | भासरासिवण्णाभा १५० बोहएणं १ (२) भयसण्णा ४ (१) | भासा बोहिलाभ १४१, १४२, भयाली १५८ | भासासमिई ८ (१) १४४, १४६ भरणि ९ (२), १५ (२) भासासमिती ३० (१) भरणिणक्खत्त ३ (२) | भासिज्जमाणी ३४ भगवं ७ (१), ३० (१), ४२, भरह ७(१),३४,७७,८३,८४, भिंगा ५४, ५५, ७०, ७२, ८२, १०८, १२९, १५८ भिक्खासतेहिं ८१, १०० ८३, ८९, १३४ भरहेरवय १४ (१), ५४ भिक्खुपडिमा १२ (१), भगवंतो ३४ | भवं १ (७) ६४, भगवओ ११०, १११ भवम्गहण १ (८) | भिज्जा ५२ भगवता १ (२), १८ (१) भवण १३८ | भिन्नं १४७ भगवतीए ८४ भवणावास ३४ भिसए १५७ भगवतो ११ (२), १४ (१), भवणावाससतसहस्सा ९६ भीस १५८ १८ (१), ३६, ५३, भवणावाससयसहस्सा ४०, ४४ भीमसेण १५७ १०४, १०६ | भवधारणिज्जा १५२ | भुंजमाणे २१ (१) ७८ भवपच्चइए १५३ भूओवघातिए २० (१) भंडणे ५२ | भवसिद्धिया १(८), २८(१), | भूमहं । ३० (१) भत्तकहा ४ (१) १४८ भूमिभागातो ९ (२) भत्तपच्चक्खाण१४१, १४२, १४४, भविए २९ (१) भूयग्गामा १४ (१) भंसे भट्टित्तं Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० १० (२) | मग्गे समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः भूयाणंद ३२ (१), ४० मंदर ७(१), १०(१),११ (२), मणपज्जवणाणावरण भेदे १५२ १६ (१), ३१ (१), ४५, मणपज्जवनाणिसता भोगपरिच्चाया १४१, १४३, ५५, ६१, ६९, ८७, ८८, मणपज्जवनाणिसया १४४, १४६ ९२, ९७, ९८, ९९, १२३, मणसमाहरणता २७ (१) भोगभोग ३० (१), १४१ | १५७ मणाभिरामा १५५ भोगवयता १८ (१) मंदरचूलिया मणामा १५५ भोगाणं १५७ मंदरवजा ६९ मणिकणगथूभियागा भोगासा ५२ | मंदरादीणं १३९ मणिपागं भोमा ९ (२), २९ (१), मंसचक्खुणा ३४ (८)। मणियंगा ३३ (१), ६५ मंससोणिते मणिरयण १४ (१) भोमेज १ (६), २ (३), मक्खायं | मणिलक्खणं ७२ १० (३) मग्गदय १ (२) मणु १ (७) भोमेज्जणगणरावास १६ (१), २३ (१) | मणुण्णा ३४, १५५ सतसहस्सा १५० | मघवं १५८ मणुस्सआहारयसरीर मउडट्ठाणम्मि ३४ (१) मच्छा ९ (२) मणुस्ससेणियापरिकम्मे १४७ मउयफासपरिणाम २२ (१) मज्झिमउवरिमगेवेज २८ (३) | मणुस्सावत्तं १४७ मंगला १५७ मज्झिमउवरिमगेवेजय २७ (२) मणोगए १० (१) मंगलावतिं १० (४) मज्झिमपुरिसा १५८ | मणोरम १० (४), १६ (१), मंडलगते ८८ | मज्झिममज्झिमगेवेज २६ (२) १५७ मंडलसतं मज्झिममज्झिमगेवेजय २७ (३) मणोरहा १५७ मंडलातो ७१, ७८ मज्झिमहेट्ठिमगेवेज २५ (२) मत्तगय १० (२) मंडलियपव्वए ८५ मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जय २६ (३) मत्तगयवरिंदललियमंडलियरायाणो २३ (२) मज्झे ३० (१) विक्कमविलसियगती १५८ मंडल ३१ (१), ६० मज्झे लोगस्स। १६ (१) | मत्थयं मत्थयं ३० (१) मंडियपुत्ते ११ (२), मद ५२ मंडुक्के १९ (१) | मणअसंजम १७ (१) मद्दव . १० (१), १४३ मंतगयं ७२ मणगुत्ती ३ (१), ८ (१), मधुसित्थ मंताणुजोग २९ (१) २५ (१) मयट्ठाण ८ (१) मंथंतराई ८ (१) मणदंड ३ (१) मरणंते ३२ (१) मणपज्जव १४७ मरणासा मणपज्जवनाण १० (१) | मरणभय ७ (१) २ ३० (१) मट्ठा ___ १५० ७२ ५२ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टशब्दाः किडया १५८ ५७ महावीर १३५ ६४ महाप प्रथमं परिशिष्टम् । सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः मरुदेव १५७, १५८ महादुमं १८ (३) महावीर १ (२), ७ (१), मरुदेवी __ १५७ महाधणुविकड्या ११ (२), १४ (१), मरुयवसभकप्पा १५८ महानक्खत्त ७ (२) १८ (१), ३० (१), ३६, मल्लं २१ (३) महानिरया ४२, ५३, ५४, ५५, ७०, मल्ली १९ (१), २५ (१), महापउम १७ (३), ११५, | ७२, ८२, ८३, ८९, १०४, ५५, ५७, ५९, १५७ १५८ १०६, ११०, १११, १३४ मसूरयसंठाणा १५५ महापभं महावीरथुई १६ (१), २३ (१) महम्गह १९ (१), ८८ महापाताल | महावीरवद्धमाण महग्घ महापायाल ५८, ९५ | महासत्तसागरा १५८ महतिमहालया ५३, १४९ महापुंडं १२ (३) | महासामाणं १७ (३) महतिव्वकसाय १४६ महापुंडरीयद्दहा __ ११५ महासुक्क १४ (२), १५ (३), महपरिणा ९ (१) महापुखं १२ (३) १६ (२), १७ (२), महब्बल १५८ महापोंडरीयं १७ (३)। १७ (३), ४०, १५८ महारायाभिसेय ७७ महाबल १५८ | महासुक्क-सहस्सार महरिहाणि १४१ महाबाहू १५८ महासेण १५७, १५८ महल्लियाए महाभद्दे १६ (३) | महाहरी महव्वया ५ (१) महाभीमसेण १५८ महाहिमवंत ७ (१), ५३, महसीह १५८ महामोहं ३० (१) ८२, १०२ महसेण १५७ महारयणविहाडगा १५८ | महाहिमवंतकूड ८७, ११० महाकाल १५ (१), १८ (३), महारायत्तं ७८ महितं ३३ (२), १४९ महारायवास ६३ | महिंदं १२ (३), १४ (३) महाकुमुदं १७ (३) महाराया ७८, ८० महिंदज्झयं १२ (३) महाघोस ६ (४), १० (४), महारोरुएसु ३३ (२) महिंददत्त १५७ १५ (१), ३२ (१), महारोरुते १४९ | महिंदुत्तरवडेंसगं १४ (३) १५७, १५८ | महालियाए ४२, ४३, ४४, | महिंदोकंतं १४ (३) महाचंद १५८ ४५ महीधर महाजुम्मसया ८१ महाविमाण १ (४), १२ (१), महुरा १५८ महाणंदियावत्तं १६ (३) ३३ (३), ५३ माउयक्खरा ४६ महाणदी २४ (१), २५ (१) महाविदेहे ७ (१), ३३ (१), माउयापदाणि महाणलिणं १७ (३) ३४ माउयापया महादीया ७ (२) महा ८ (२) मागंदी १९ (१) २२ (३) १३९ १४७ ४६ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ माण पातियारा १४२ ११ (२) समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः मागधिय ७२ | मिगसिर १० (२) मुत्तालए १२ (१) मिगसिरणक्खत्त ३ (२) मुत्तावलिहारसंठाणसंठितेणं ७४ माणुम्माणपमाणपडिपुण्ण- मिगाली १५८ मुत्तावलिहारसंठितेणं २५ (१) सुजातसव्वंगसुदरंगा १५८ | मिच्छत्तं ५ (१) | मुत्ती १० (१), १२ (१) माणकसाय ४ (१) मिच्छत्तमोहणिज्ज २६ (१) मुत्तेणं १ (२) माणवए ३५ मिच्छत्तवेयणिजं मुसल ९६, १५८ माणवत्तिए १३ (१) | मिच्छदिट्ठी १४ (१) | मुसावायवत्तिए १३ (१) माणुसाउए ३१ (१) | मिच्छादिट्ठिविगलिंदिए २५ (१) मुसावायातो ५ (१) माणुसुत्तरं १ (७) मिच्छादसणसल्ल २९ (१), ७७ माणुस्सए ३० (१) | मिज्जमाण ६१, ६७ मुहुत्तग्गेणं २९ (१) मातुका १५८ | मित ३० (१) | मूलं १० (२) माया ५२ मितमंजुपलावहसित १५८ मूलगुणुत्तरगुणातियारा मायाकसाय ४ (१) | मित्तजण-सयण | मूलनक्खत्त मायामोसं ३० (१) धणधण्णाविभव मेंढयलक्खणं मायावत्तिए १३ (१) समिद्धिसारसमुदय- मेत्तज्ज मायासक्क ३ (१) विसेसा १४६ मुत्तामणिमए मारणंतिअसमुग्घात ६ (१) मित्तदाम १५७ मेरा ___ १५८ मारणंतिए ३२ (१) मित्तदोसवत्तिए मेरू १६ (१) मारणंतियअहियासणया २७ (१) | मित्तवाहणे १५८ मेह १५७ मारणंतियसमुग्घात ७ (१), १५२ | मियचारिता ३६ मेहरह १५७ मारी ३४ मिय-पसु-पक्खि मेहुण ५ (१), २१ (१) मारुएणं ३४ सिरीसिवाणं ३४ | मेहुणसण्णा ४ (१) मारेति ३० (१) | मियावती । १५८ मो मालवंत १०८ मुच्चिस्संति (८) मोक्ख माली १५७ मुच्छा | मोक्खपहोयारगा १३७ मास २९ (१), ३१ (१) मुट्ठिजुद्धं मोक्खमग्गगती मासिया १२ (१), २८ (१) मुणिवंस १५९ मोयगेणं १ (२) माहिंद २ (३), ७ (२), मुणिवरुत्तम १४४, १४७ मोरियपुत्त ११ (२), ६५, ९५ ३० (१), ७०, १३१ मुणिसुव्वत _२०(१), ५०, मोलिकडे ११ (१) माहिंदर १५७ १५८ मोसमणपओग १३ (१), माहेसरलिवि १८ (१) मुत्तामणिमए ६४ १५ (२) विभव १३ (१) ७२ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टशब्दा: मोसवतिपओग सूत्राङ्का: १३ (१), १५ (२) मोहणिज्ज २१ (१),२६ (१), रक्खसे रक्खिया ३९, ७० रयणिखेत्त ३० (१) रयणी मोहणिज्जठाणा मोहणिज्जवज्ज ७ (१), ६९ रयणुच्चय ३० (१) रसगारव रत्ता-रत्तवती रत्तिं परिमाणकडे रमणिज्जं रम्मं रट्ठस्स रति २१ (१), २६ (१), १५७ रसा रत्तवती रत्ता प्रथमं परिशिष्टम् । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः ३० (१), ३१ (२), ३३ (२), राया ७७, ८३, ९७, १०७, १०८, १४१, १४२, १४३, ४१, ९९,१११,११२, ११६, १४९, १५०, १५१, १५४ १४४, १४६ १५७ रसणाम ३० (१) रसपरिच्चातो १४ (१) रसाणुवाती १४ (१) रहनेमिज्ज २४ (१), २५ (१) रहस्सगयं ११ (१) राग रम्मए रम्मगं रम्मयवास १२० रातिण्ण रयण रयणप्पभा १ (६), २ (३), राती १० (४) रागबंधण १० (४) रातिंदिय ७ (१) रातिंदियग्गेणं १० (४) रातिणिय २७ (१), ७८, ९८ रासिबद्ध ७ (१), ९ ( १ ) रासी २५ (१), २८ (१),४२ रिट्ठाभं ६३ रातिणियपरिभासी ३ (३), ४ (३), ४ (३), रातीभोयण ५ (३), ६ (३), ७ (२), राम ९ (२), ९ (३), १० (३), ११ (३), १२ (२), रामकेसवा १३ (२), १४ (२), रायकहा १५(३), १६ (२), १७ (१), रायकुलवंसतिलया १७ (२), १८ (२), १९ (२), रायधाणी २० (२), २१ (२), २२ (२), रायललिए २३ (२), २५ (२), २६ (२), रायवरसिरी २७ (२), २८ (२), २९ (२), रायहाणी १६ (१) राहुचरितं ३ (१) रिट्ठ ६ (१) |रिमाणं ५ (१) रिद्धिविसेसा ९ ( १ ) रिपुसहस्समाणमधणा ३६ रिसभ ७२ | रिसभनारायसंघयण ५२ रुक्खा २ (१) रुतिलं २९ (१) रुतिल्लं २९ (१) रुतिल्लप्पभं ३३ (१) रुतिल्लावंत्त २० (१) रुतिल्लुत्तरवडेंसगं १५७ रुद्द ४ (१), १५ १२ (१) | रुप्पकूला २१ (१) रुप्पी १० (१), १२ (१), १५७, १५८ रुप्पीकूड १५८ रुयए ४ (१) रुयगणाभी १५८ रुगिंद ३७, ६८ रूवं ३३ १४७ २ (१), १४९ ७२ १८ (३), १५८ ८ (४) ६१ १४२, १४४ १५८ ३० (१) १५५ १० (२) २० (३) ९ (४) ९ (४) ९ (४) ९ (४) (१), १५८ १४ (१) १५८ रूवमए १४७ रूवा ३२ (१) | रूवाणुवाती ७ (१), ५३, ५७,८२, १०२, १५७ ८७ ८५ ११८ १७ (१) ७२ ८ (१) ५ (१) ९ (१) Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । रोयंस रोरुते रोरुय रोस १५८ विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः रूविअजीवरासी १४९ लवण १६ (२), १७ (१), लोगप्पभं १३ (३) रेवतिणक्खत्त ३२ (१) ६०,७२,९५,१२५,१२८ | लोगबिंदुसार २५ (१), १४७ रेवतिपढमजेट्ठपज्जवसाण ९८ |लवालवे ३२ (१) | लोगविजओ ९ (१) रेवती __१५८ लहुफासपरिणाम २२ (१) लोगहित १ (२) रोगपरीसह २२ (१) लाउल्लोइयमहिया १५० | लोगहियं रोद्द ३० (१) लाघव १० (१) लोगालोग १३७, १३८, १५८ लाभमए ___८ (१) १३९, १४० १४९ लाभ-भोग लोगावत्तं १३ (३) ३३ (२) उवभोग लोगुत्तरवडेंसगं १३ (३) वीरियअंतराइयं लोगोत्तम १ (२) रोहिणी ८ (२), १९ (१), लिवीए ४६ लोभ ___ ५२ ४५, १५८ लुक्खफासपरिणाम २२ (१) लोभविवेग २५ (१), २७(१) रोहिणीनक्खत्त ५ (२) लुब्भइ ३० (१) | लोभकसाय ४ (१) रोहियंसा १४ (१) लेणविहिं ७२ लोभवत्तिए १३ (१) रोहिया १४ (१) लेसं १५ (१) लोहबंधे लउड लेसज्झयणं ३६ लोगमुणिणो लंतए १० (३), ११ (४), लेसा १५३ | लोहितक्ख १२ (२), १३ (२), लेसापदं १५३ लोहियवण्णपरिणाम २२ (१) ___१४ (२), १४ (३), ५० | लेहं । ७२ वरं १३ (३) लक्खण २९ (१), १५७ | लोए १ (३), १४० वइगुत्ती २५ (१) लक्खणवंजणगुणोववेता १५८ लोकपडिपूरणे १२ (१) वइरतल लच्छिमती १५८ लोग १० (१), १३ (३), वइरजंघे लट्ठबाहू १५७ १३७, १३८, १३९ वइरावत्तं १३ (३) लट्ठिभंजण |लोगंत ११ (२) वइरुत्तरवडेंसगं लण्हा लोगगुरू १४४ वइरोयणं ८ (४) लता १४६ लोगग्ग-चूलिआ १२ (१) | वइरोयणिंद ६० लद्धसिद्धिमग्गाणं १४१ लोगट्ठाई १३८ वइरोसभनारायसंघयण १५५ ललिए १५८ लोगणाह १५७ वइसाहे २९ (१) ललियमित्त लोगनाह १ (२) वंचणया ५२ लव ७७ |लोगपईव १ (२) वंजण २९ (१) लवग्गेणं ७७ | लोगपज्जोयगर १ (२)| वक्खारकूडवज्जा १४१ ११६ ७४ १५८ १४६ १५० १५८ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । ३० (१) वज्ज १५७ ७४ | वसुधारातो ७२ ८६ विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः वक्खारपव्वय १०६, १०८ वण्णणाम २५(१), २८(१),४२ वसए । वक्खारपव्वयकूडा १०८ वण्णविभाग १४७ वसट्टमरण १७ (१) वगूहिं ३० (१) वतिअसंजम १७ (१) वसणविणास १४६ वग्गे ३७,३८,४०,४१,४२ वतिगुत्ती ८ (१)| वसिट्ठ ८ (१) वच्चंसी १५८ वतिरकंड __ ११६ वसुंधरा १५८ १३ (३) वतिरणाभ | वसुदेव १५८ वजकंतं १३ (३) वतिरामतियाए १५७ वज्जकूडं १३ (३) वतिसमाहरणता २७ (१) वसुपुज्ज १५७ वज्जज्झयं १३ (३) वत्तमाणुप्पयं १४७ वह १४६ वज्जणाभ १५७ वत्तिए २९ (१) वाइतं वजप्पभं १३ (३) वत्थु १४७ | वाइसया वज्जलेसं १३ (३) वत्थुनिवेसं वाउकाइयअसंजम १७ (१) वज्जवण्णं १३ (३) वत्थुमाणं ७२ वाउकाए ६ (१) वज्जसिंग १३ (३) |वद्धमाण २४ (१), १५७ वाउकुमार १४९ वजसिट्ठ १३ (३) वद्धमाणयं २० (३) | वाउत्तरवडेंसगं ५ (४) वजावत्तं १३ (३) वधपरीसह २२ (१) वाउछुतविजयवेजयंतीपडावजुत्तरवडेंसगं १३ (३) वप्पा १५७, १५८/ ___गच्छत्तातिच्छत्तकलिया १५० वज्झकत्तण वम्मा १५७|| वाऊ ३० (१) वट्टखेडं वयगुत्ती __ ३ (१) वागरण ५४, १४० वट्टमाण वयछक्क १८ (१) वागरणसहस्स १४० वट्टवेयड्ढपव्वय ९०, ११३ वयदंड वागरित्था ५४ १४९ वयहारि १५८ वागरेत्ता वडेंसे १६ (१) वरजसा १५८ वाणमंतर १ (६), ८ (१), वड्डइरयण १४ (१) वरदंसिणं ३० (१) ९ (२), १० (३) वडि __ १५२ वरदत्त १५७ वाणमंतरभोमेज्जविहार ९९, १११ २२ (३) वरुण ३० (१) वाणमंतरावासा १५० वणसंडा १४१, १४२, १४३, वलए ५२ वातकंतं ५ (४) १४४, १४६ वलयामुह ५२, ५७, ५८, वातकुमारिंद ५२, वणस्सइकाइयअसंजम १७ (१) ७९, ९५ वातकूडं ५ (४) वणस्सतिकाए ६ (१) वलातमरण १७ (१) | वातज्झयं ५ (४) वणिला १५७ ववहार २६ (१) | वातप्पभं ५ (४) वट्टा वणमालं Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ३० (१) २९ (१) समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः वातलेसं ५ (४) वाही __३४ विणओवए ३२ (१) वातसिंग ५ (४) विअट्टच्छउम १ (२) विणतं १९ (३) वातसिट्ठ ५ (४) विअडभोती ११ (१) विणयकरणजिणवातावत्तं ५ (४) विआहिजति १४० सामिसासणवरे १४१ वादिसंपया १०६ विओसग्गे ३२ (१) | विणयसुयं वादी १०६, १०९, १४७ विंटट्ठाइणा ३४ विणीता १५७ वामण १५५ विकहाणुयोग २९ (१) विण्णात १३६, १३७ वाय ५ (४) विकुव्वणया १५३ विण्ह १५७ वायणा १३६, १३९, १४० ६४ वितिमिरा १५० वायुकुमार ९६ | विक्खंभुस्सेहपरिरयप्पमाणं १३९ | वित्तम्मि वायुभूती ११ (२) विक्खोभइत्ताणं ३० (१) वित्ती वाराह १५७, १५८ विगहा वित्तीसंखेवो ६ (१) वारिमज्झे ३० (१) विगसितसतवत्तपुंडरी- वित्थरधम्मसवण १४२ वारिसेणं यतिलयरयणद्ध- | विदब्भ १५७ वारुणि १५७ | चंदचित्ता विधिविसेस १३९ वालुए २५ (१) | विगाहिया ३० (१) विद्धिकराई १० (२) वावहारिए __ ९६ | विजय ९ (२), १२ (१), विपच्चवियं १४७ वासकोडिं १३४ ३० (१), ३१ (२), विपुलकुलसमुब्भवा १५८ वासधरपव्वय ३२ (३), ३३ (२), ३७, विपुलवाहण १५८ वासहर ३९, ६९ ६८, ७३, १४९, १५१, विप्पजहणसेणियापरिकम्मे १४७ वासहर-कूडा १०८ १५७, १५८, | विभज्ज ३० (१) वासहरपव्वय ७ (१), विजयबारस्स। ५५ विमल ७ (३), २२ (३), २४ (१), ७४, ८२ विज्जाअणुप्पवायं १४ (१) ४४, ५६, ६०, ६८, वासा ७(१),६९, १२१, १३९ विजागतं ७२ १५७, १५८ वासावासं ७० विजाणुजोग २९ (१) विमलघोस १५७ वासुदेव १० (१), ३५, ५०, विज्जातिसया १४५ विमलावाहण ११२, १५७, १५८ ५४, ६८, ८०, ८४, विज्जाहरसेढी १५२ विमाणपत्थडा ६२ ९०, १३३, १५८ | विज्जुकुमारावास ७६ विमाणपविभत्ती ३७, ३८, वासुदेवगंडियाओ १४७ | विज्जुकुमारिंद ७६, १४९ ४०, ४१, ४२, वासुदेवमातरो १५८ | विजुप्पभ १०८ ४३, ४४, ४५ वासुपुज ६२, ७०, १०९, १५७ | विणओ ६ (१) विमाणपागारा १०४ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टशब्दाः विमा विमाणावास विमोहायणं वियत्त विरति विरहिया विरागता विराहणा विराहियचरित्तणाणदं ९ (१) | विसयसुहतुच्छआसावसदोसमुच्छियाणं ११ (२) वियलिंदियजातिणामं २५ (१) विसातं वियारेति ३० (१) विसाल वियावत्तं १६ (३), १४७ विसाहा १४० विसाहानक्खत्त वियाह वियाहपण्णत्ती ८१, ८४, १३६ |विसुद्धलेसा विरताविरतसम्मदिट्ठी १४ (१) विसुद्धवंसा ५ (१) विसुद्धा १५४ विस्सनंदी २७ (१) विस्सभूती ३ (१) विस्सरं सजतिगुणविविहप्पगारणिस्सारसुन्नयाणं सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा: २७ (१) विसय ८४, १५० | विसयविरत्ता गासियाणं विविहवित्थारभासियाणं विविहवित्थाराणु प्रथमं परिशिष्टम् । गमपरमसब्भाव गुणविसा विसमं विवाए ५२, १५८ विहरति विवागत १ ( २ ), १३६, १४६ | विहिंसइ विवाहपण्णत्ती १ (२) वीतिक्कंतेहिं १४५ वीर विविहगुणमहत्था विविहमणिरयणभत्तिचित्ता १५० वीरकंतं विविहमहापसिणविज्जा वीरकूडं मणपसिणविज्जाद वीरगतं इवयपयोगपाहण्णगुणप्प विस्ससेण विस्सुतं १४१ विहगगतिणाम | वीरज्झयं १४५ वीरप्पभं १४५ वीरभद्द वीरमहेसी हिं वीरलेसं १३७ वीरवण्णं ९३ वीरसिंगं सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः १५२ वीरसिहं १४४ वीरसेणियं | वीरावत्तं १४१ वीरिय २० (३) १८ (३), १५७ वीरियपुव्व ८ (२), ४५ वीरियायार ६ (४),१५७ वे ५ (२) वीरुत्तरवडेंसगं १५७ वीसं १५७ वीससेण १५० वूहं १५८ वेउव्वियसरीरकायप १५८ ओग १३ (१), १५ (२) ३० (१) वेउव्वियमीससरीरकाय १५७, १५८ पओग १३ (१), १५ (२) २२ (३) वेउव्वियसमुग्घात ४२ ६ (१), ७ (१) १५२ ३४ वेउव्वियसरीर ३० (१) वेडव्वियसरीरंगोवंगणामं २८ (१) ८२ वेउव्वियसरीरनाम २८ (१) १५६ ३१ (२), ३२ (३), ३३ (२), ३७, ५५, १४९, १५१ १५७, १५८ १५७ १३६ १३७ १२ (१) १५० २७ (१) ६ ( ४ ) | वेजयंत ६ (४) ६ (४) ६ ( ४ ) ६ (४) ८ (१) ६ (४) वेजयंती वेडसरुक्खे वेढा १४५ वेणइयवादी वेतिया सूत्राङ्काः ६ (४) ६ (४) ६ (४) १४ (१), १६ (१), २३ (१), १४७ ७१, १४७ १३६ ६ (४) २० (१) ३० (१), १५७ ७२, १३७ ३७ ६ ( ४ ) वेमाणियावास ६ (४) | वेयगसम्मत्तबंधोवरय Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ विशिष्टशब्दा: वेयणअधियासणता वेयणतिया वेयण - विहाण-उवओग जोग - इंदिय- कसाय वेहासमरण वोकम्म वोच्छिन्ना सइ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । १३९ संघाइ वेणा १ (३), १५३ संघाडे वेयणासमुग्घात ६ (१), ७ (१) संछन्नपत्तपुप्फपल्लवसमाउलो ३४ ५८ संजइज्जं इंदा सउज्जोय उणरुतं सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः २७ (१) संगाणं १८ (१) संघयण वेयणिय वेयरणी १५ (१) संजम वेयालिए १६ (१), २३ (१) संजमपतिण्णापालणधि वेयावच्च वेरमणं वेलं वेलंधर वेसमण वेह संघयणणाम ६ (१), १२ (१) ५ (१) संजयं ७२ संजलण १७ (१) ७८, ३० (१) संजूह सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः ३२ (१) समुच्छिमउरगपरिसप्प १४७, १५५ समुच्छिमखहयरपंचेंदिय ४२ तिरिक्खजोणियाणं इतिववसाय दुब्बलाणं १४१ ६९ संलीणया १९ (१) संलेहणा एकतारे संकमित्ता संकरिस संकि लिट्ठपरिणाम संख ४२, ४३, ५२, ५७, संपाविउकामेणं ८७, १५७, १५८, १५९ संपिहित्ताणं संख-चक्क -गय-सत्तिसंभव १५८ संभूत १४१, १४४, १४६ संभोग दगधरा संगणी १० (१) संवच्छर १० (१) संवच्छरपरियाय संवर १६ (१), २० (१), संवेग ३० (१) संवरदारा ८२ संपग्गहस्स १५८ संपत्तजोव्वणा २५ (१) संपमज्जिज्जइ २१ (१), ५२ संसारअपारदुक्खदुग्गति१४७ भवविविहपरंपरापवंचा १४१ १४८ १४७ १४६ २८ (१) संसारसमुद्दरुंदउत्तरणसमत्थ १४० २७ (१) सक ३२ (१), ७८, ८४ ४०,७५,८९,९३,१५८ सक्कारपुरक्कारपरीसह २२ (१) १ (८) सखुड्डयवियत्त १८ (१) ७१, १०७, १५८ ३४ ३४, १५८ ११ (१) १८ (१), ८५ २५ (१) १० (१), ३० (१) १५८ १४६ संठाण १७ (१) संठाणणाम १४७, १५२, १५५ संसारकंतार ४२ संसार डिग्गहो ३० (१) संतकम्म २१ ( १ ), २६ (१), संसारपवंचदुहपरंपरा १५७ १८ (१) संतकम्मंसा २४ (१) संती ७२ ६ (१) १४१, १४२, १४४, १४६ ५९ ५३ १ (३), ३२ (१), १५७, १५८ ५ (१) ३२ (१) १९५० संगतिया ७२ | संदेहजायसहजबुद्धि सगर १०० परिणामसंसइयाण १३७ | सघंटो ३० (१) सचक्कं ४९, ६३ सचित्तपरिण्णात सूत्राङ्काः ५३ ३४ सचूलियाग १ (२) सचूलियाय ३० (१) सच्च ५९, १०६ सच्चति १५८ सच्चप्पवायं १२ (१) | सच्चप्पवायपुव्वं १४७ १४ (१) Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टशब्दा: सच्चमणपओग सच्चवतिपओग सच्चवयणाइसेसा सच्चसहियं सच्चसेण ३० (१) सताऊ सच्चामोसा सच्चामोसमणपओग १३ (१), सत्त सच्छत्ता सजोगी सज्जीवं सज्झाओ सज्झायवायं साद्वाणंतराणं स सच्चामोसवतिपओग १३ (१), सत्तट्ठीए १५ (२) सत्ततारे सच्छंदविउव्वियाभरणधारी १५७ सत्तत्तीसं ३४, १५७ सत्तत्तीसंगुलियं कुमार सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः १३ (१), सण्णिमणुस्साणं १५ (२) सहा १३ (१), सतए १५ (२) सतज्जले ३५ सतभिसय सण्णा प्रथमं परिशिष्टम् । १४३ सतरह १५८ सतरिसभे १५ (२) सत्तचत्तालीसं १४ (१) सत्तमाए ७२ |सत्तमासिया ६ (१), ३४ सत्तमीए ३० (१) सत्तरस २ (३), ७ (२), सत्तरिं ३२ (१) सत्तसट्ठि सकुमार- माहि ३ (३), सत्तसट्ठिभागभइते ४ (३), ५ (३), ६ (३) सत्तसत्तमिया सकुमारवडेंसगं ७ (३) सत्ताणउतिं ४ (१) सत्तावण्णं सण्णिगब्भवक्कंतियमणुस्स ३ (३) सत्तावीसं सणिनाणे १० (१) सत्तावीसंगुलियं सण्णिपंचिंदियतिरिक्खसत्तासीतिं जोणियाणं १ (६), २(३), सत्तिवण्णे ३ (३) सत्तुमद्दणा ८४ सत्तरसविह ३० (१) सत्तरातिंदिया सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा: २ (३) सत्थपरिण्णा १५० सदसरातमासिया १५८ | सदेवासुर १५७ | सदेवमाणुसधीरकरण१५ (२) कारणाणि १५७ सद्दक ३० (१) सद्दा १५७ | सद्दाणुवाती ७ (१) सद्धिं ४७ | सन्निअपज्जत्तया १३७ | सन्निपज्जत्तया ७ (२) सन्निसेज्जा ३७ सपंचरातदोमासिया ३७ सपंचरायमासिया १४९ सपंचवीसरातमासिया १२ (१) सपडागा १४९ सपडतो १७ (१) | सपण्णरसरातमासिया १७ (१) सपायपीढं १२ (१) सप्पभा ७० सप्पी ६७ सबल ६७ | सब्भूयबिगुणप्पभावनर ४९ १४१ २० (१) ५ (१) ९ (१) ८ (२) १४ (१) १४ (१) १२ (१) २८ (१) २८ (१) २८ (१) १५७ ३४ २८ (१) ३४ १५०, १५७ ३० (१) १५ (१), २१ (१) ९७ सभा ५७ सभावं २७ (१) सभिक्खुगं २७ (१) समए ८७ समं १५७ समंसे १५८ समचउरंस ३९ सूत्राङ्काः ९ (१) २८ (१) १०६ गणमतिविम्हयकरीणं १४५ ९ (२) ७२ ३६ १६ (१), २३ (१) ७ (३), ९३ ६१, ६७ १५५ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० १५८ ४२ १५७ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः |विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः समचउरंससंठाणणामं २८ (१) समुच्छिमभुयपरिसप्प ४२ सरगयं समचउरंससंठाणसंठिते १५२ समुद्द। ४२, १३८ सरणदय १ (२) समण १(२), ७(१), ११(२), समुद्ददत्त | सरण्णा १५८ १४ (१), १८ (१), समुद्दनाम सरीर १५२ ३० (१), ३६, ४२, ५३, | समुद्दपालिजं ३६ सरीरंगोवंगणाम ४२ ५४, ५५, ७०, ७२, ८२, समुद्दविजय १५७, १५८ | सरीरणाम ४२ ८३, ८९, १०४, १०६, समुद्देसगसहस्स १४० | | सरीरत्थ ८ (१) ११०, १११, १३४ समुद्देसणकाला १३६, १३७, सरीरप्पमाणमेत्ता १५२ समणधम्म १० (१)। १३८, १३९, १४१, १४२, | सरीरबंधणणाम समणभूते १४३, १४४, १४५, १४६ सरीरमेत्तीओ समणसंपदा १४ (१), समोसरण १२ (१), १६ (१), | सरीरसंघायणणाम ४२ १६ (२), १८ (१), ६८/ २३ (१), १४१, १४२, | सरीरोगाहणा १५२ समणसाहस्सीओ १४ (१)। १४३, १४४, १४६, १५७ सलिला १३८ समणाउसो ११ (१) सम्मत्त ५ (१), ९ (१), १५३ | सल्ला ३ (१) समतालं ७२ सम्मत्तविसुद्धता १४२| सवण ९ (२) समत्तभरहाहिवाण १३९ सम्मत्तवेयणिजं २८ (१) सवणणक्खत्त ३ (२) समत्तसुयणणि १४७ सम्मद्दिट्ठी २९ (१), ३२ (१) |सवीसतिराते ७० समप्पभं ७ (३) सम्ममिच्छत्तवेयणिजं २८ (१) सवीसतिरायमासिया २८ (१) समभिरूढं १४७ | सम्मा १५७ सवेइया १५७ समयखेत ३९, ४५, ६९ सम्मामिच्छदिट्ठी १४ (१) सव्व समवाय १ (२), १३६, १३९ सम्मुई १५८ | सव्वओभदं समाए १३९, १५९ | सम्मुच्छिममणूसा १५५ सव्वओ समंता ३४ समाणं १८ (३) सयंपभ १६ (१), १५७, १५८ | सव्वकामविरत्तया ३२ (१) समायारे १३९ सयंभु ६ (४), ९०, १५७ | सव्वजगवच्छल १५७ समाहि १६ (१), २३ (१), सयंभुरमणं ६ (४) सव्वजणणयणकंता १५८ ३२ (१), १५८ सयंसंबुद्धं १ (२) सव्वजहण्णिया १२ (१) समाहिट्ठाण ३६ सयणविहिं ७२ सव्वट्ठसिद्ध १ (४), १२ (१), समिति ५ (१), ३६ सयधणू १५८ ३० (१), ३३ (३) समितिगुत्ती १४३ | सयभिसया १०० | सव्वट्ठसिद्धया १४९ समिरीया १५० सयारब्भ ३० (१) सव्वण्णु १ (२), ५४, ८३ समुग्घाय ६ (१), ७ (१) सर २९ (१), ३४, १३८ सव्वतित्थाण ३० (१) Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ ४७ १५७, ७/ सारी प्रथमं परिशिष्टम् । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः सव्वतोभदं __ १४७ ससरक्खपाणिपाए २० (१) सामाणं १७ (३), १४७ सव्वदरिसि १ (२) | ससिसोमागारकंतपियदंसणा १५८ | सामाणिय ६०, ८४ सव्वदुक्ख १ (८) | सस्सिरीयरूवा १५० सामातियकडे ___ ११ (१) सव्वदुक्खप्पहाण १० (१) सहदेव १५८ सामायारी सव्वबाहिरयं ३१ (१) सहस्सपरिवार १५७ | सामित्तं ७८ सव्वबाहिरा ७१ सहस्सार १७ (२), १८ (२), | सायागारव ३ (१) सव्वब्भंतरं ३० (१)। सायावेयणिजं १७ (१) सव्वभावदरिसी ५४, ८३ | सहस्सारवडेंसगं १८ (३) सायासोक्खपडिबद्ध ९ (१) सव्वभावविदू १५८ सहीहेडं ३० (१) | सारतनवथणियसव्वरयणामया १५० | साइ १५ (२) | मधुरगंभीरकोंचसव्वलोयपरे ३० (१) सागर १ (७), १५८| निग्घोसदुंदुभिसरा १५८ सव्वसव्वण्णुसम्म सागरकंत १ (७) | सारीर १५३ तस्साबुधजण सागरदत्त १५७, १५८ साल १८ (३), १५७ विबोहकरस्स १४५ सागरोवम १ (६) | सालरुक्ख सव्वाउयं ९५ सागरोवमकोडाकोडी २० (१), | सावच्चा १५७ सव्वाणंद १५८ १३५ | सावणसुद्धसत्तमी २७ (१) सव्वाणुभूती १५८ | सागारियं २१ (१) सासते १४८ सव्वुपरिमे ११२ साणुक्कोसा १५८ सासया १३६, १३७, १४० सव्वोउयसुरभिकुसुमसुरचित- सात २० (३), १५३ सासायणसम्मदिट्ठी १४ (१) पलंबसोभंतकंतविकसंत- सातावेयणिज्ज ३१ (१) साहम्मियउग्गहं २५ (१) चित्तवरमालरइयवच्छा १५८ | साति १५५ साहारणट्ठा _३० (१) सव्वोत्तुकसुभाए १५७ | सातिजोग साहारणभत्तपाणं २५ (१) ससंगताए १४६ सातिणक्खत्त १ (५) साहाहेउं ससमय १३७,१३८,१३९,१४० | सातिरेग ९९ | साहियाई ससमय-परसमयप सातीबुद्धे १५८ | सिंधू १४ (१) ण्णवयपत्तेयबुद्धविविधत्थ- | साधारणसरीरणाम ४२ सिक्खा ३२ (१) भासाभासियाणं १४५ साम १५ (१) सिज्झणयाए १५४ ससमय-परसमया १३७, १३८, सामकोढें १५८ सिज्झिस्संति १ (८). १३९, १४० सामचंदं १५८ सिणाण १८ (१) ससमयसुत्तपरिवाडीए २२ (१), सामण्णपरियागं ४२, ७०, १३४ | सिद्ध ४२, १४८ १४७ सामा १५७ सिद्धत्थ २० (३), १५७ १५७ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ३४ ७४ सिद्धी १५७ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः सिद्धसेणियापरकम्म १४७ सीआ-सीओआओ १०८ | सीसावेढेण ३० (१) सिद्धाइगुणा ३१ (१) सीओसणिजं ९ (१) सीहं १७ (३) सिद्धालए १२(१) सीतपरीसह २२ (१) सीहगिरी १५७ सिद्धावत्तं १४७ | सीतफासपरिणाम २२ (१) | सीहरह १५७ सिद्धिगत सीतल ३४, ७५, ८३ | सीहवियं १७ (३) सिद्धिगतिणामधेयं १ (२) सीतवेदणं | सीहसेण १५७ सिद्धिवजा १५४ | सीता १४ (१), १५३ | सीहासणं सिद्धिपह १४७ सीतोता सीहोकतं १७ (३) सिद्धिसुगतिघरुत्तम सीतोदयवियडवग्धारिय- | सुई ३२ (१) १२ (१) पाणि २१ (१) | सुंदर सिरि १५७, १५८ | सीतोदा १४ (१) | सुंदरबाहू ___ १५७ सिरिउत्त १५८ सीतोसिणवेयणं १५३ | सुसमा १९ (१) सिरिकंत १४ (३), १५७ | सीमंकर १५८ | सुकडदुक्कडाणं सिरिचंद १५८ सीमंतए ४५ सुकालं १८ (३) सिरिदामगंड २१ (३) सीमंधर १५८ | सुकिडिं ४ (४) सिरिधर ८ (१) सीमाविक्खंभ | सुकुलपच्चायाती १४१, १४२, सिरिभूती १५८ सीयल १४४, १४६ सिरिमहिअं १४ (३) सीया १५८ | सुक्क ४ (१), १७ (३), सिरिवच्छं २१ (३) सीयाओ १४७, १५७ १९ (१) सिरिवच्छसुलंछण १५८ |सीलवयगुणवेरमणपच्चक्खा- सुक्कपक्ख १५ (१), ६२ सिरिसे १५७ णपोसहोववासा १४२ सुक्कलेसा ६ (१), १५३ सिरिसोम १५८ सीलव्वयवेरमणगुणपच्चक्खा- | सुक्किलवण्णपरिणाम २२ (१) सिरिसोमणसं १४ (३) णपोसहोववासपडिवज्ज- सुगंधवरगंधगंधिया १५० सिरी ३० (१) णतातो १४२ | सुग्गीव १५७, १५८ सिलोग ७२, १३६ सील-संजम-णियम-गुण- | सुघोस ६ (४),१० (४),१५७ सिलोगाणुवाती ९ (१)। तवोवहाणेसु १४६ | सुचंदं १५८ सिव १ (२), १५७, १५८ सीसग १४६ | सुजसा १५७ सिवसेण सीसपहेलिय ८४ | सुज ९ (४) सिहरतल ११ (२), ५०, सीसम्मि ३० (१) सुज्जकंतं ९०, ११२ सीसहितत्थाय । १४० सुज्जप्पभं सिहरी ७(१), २४(१), १०० सीसा १४७ | सुज्जावत्तं ९ (४) ६७ ९ (४) ९ (४) Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतमए | सुरभिणा प्रथमं परिशिष्टम् । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः सुज्जुत्तरवडेंसगं ९ (४) | सुपुप्फ २० (३) सुयक्खंध १३९, १४४ सुणंद १५ (४), १५७, १५८ | सुप्पभ ५१, १५७, १५८ सुयणाणावरण ३१ (१) सुत १५९ | सुप्पसिद्धा १५७ | सुयत्थबहुविहप्पगारा १४० सुतंग १५९ | सुबंधू १५८ सुयपरिग्गहा १४६ सुतक्खंध १३६, १३८, १४०, सुबंभं ११ (४) सुयसागर १५८ १४२,१४३,१४५,१४७,१५९ सुन्भिगंधपरिणाम २२ (१)|सुयी १५७ सुतणाण १३९ सुभ २ (४), ८ (१)|सुरअसुरगरुलमहियाण १५७ सुतपरिग्गहा १४१, १४३, १४४ सुभकंतं २ (४)|सुरभवणविमाणसोक्ख १४१ ८ (१) सुभग १५८ ३४ सुतवस्सियं ३० (१) सुभगंधं २ (४) सुरम्मा १५० सुतसमास १५९ सुभगणाम २८ (१), ४२ सुरलोगपडिनियत्ता १४१ सुतोहि-मण सुभघोस ८ (१) सुरवतिसंपूजियाणं १४० केवल(णाणावरण) १७ (१) सुभणाम ___३१ (१), ४२ सुरवरविमाणवरपोंडरीएसु १४२ २९ (१), १४७ सुभवण्णं २ (४) सुराभं ८ (४) |सुभफास २ (४) सुरिंद १५७ सुत्तत्था १३७ सुभद्द १६ (३), १५८ | सुरिंददत्त १५७ सुदंसणा ८ (१), १६ (१), सुभलेसं २ (४) | सुरूव १५७, १५८ १५७, १५८ | सुभासुभाणं २८ (१) सुलसा १५७, १५८ सुंदरप्पभ १५७ | सुभविवाग १४६ सुवज्ज १३ (३) ८४ सुभूम १५८ सुवण्ण १४९ सुदाम १५७ सुमंगला १५८ सुवण्णकुमार-दीवकुमार ७८ सुदिट्ठदीवभूयईहामति सुमणा १५७ सुवण्णकुमारावास बुद्धिवद्धणाणं १४० सुमति १०४ | सुवण्णकूला १४ (१) सुद्धदंत १५८ | सुमतित्थ १५७ सुवण्णवायं ७२ सुधम्मा ९ (२) सुमरइत्ता ९ (१) सुवायं ५ (४) ८ (४) सुमरित्तए १० (१) सुविसायं २० (३) सुपम्हं ९ (४) सुमिण १० (१), २९ (१) सुविधी सुपास ८६,९५,१०२,१५७,१५८ सुमिणदसण १० (१) सुविहि ३२ (१), ७५, ८६ सुपीए ३० (१) सुमित्त १५७ सुवीरं ६ (४) १२ (३) सुमित्तविजए १५८ | सुव्वय १५७ १२ (३) सुय १२ (१) सुसागरं सुत्तखेडं सुंदरि सुपतिट्ठाभं १०० सुपुंखं Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसामाणं सुसालं सुसिरं सुसीमा सुसुज्ज सुसूर सुस्सरं ९० सुहम्म ४४ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः । विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः १७ (३) सूरमंडल १३ (१), ४८, ६५ | सेवाल १५८ १८ (३) सूरलेसं ५ (४) सेसमती १५८ १९ (३) सूरवण्णं ५ (४) | सेहे ३३ (१) __ १५७ सूरसिंग ५ (४) | सोइंदियधारणा २८ (१) ९ (४) सूरसिढें ५ (४) सोइंदियरागोवरती २५ (१) ५ (४) सूरसिरी १५८ | सोक २१ (१) १० (४) सूरसेण १५८ | सोग २६ (१) सुस्सरणाम २८ (१), ४२ सूरावत्तं ५ (४) सोगंधिय ८२, सुहफासा ३४, १५० सूरिए ६०, ७८ सोगंधियकंड ११ (२), १५७ | सूरिते १५८ | सोतिंदियईहा २८ (१) सुहविवाग १४६ सूरियावत्ते १६ (१) सोतिंदियत्थोग्गह २८ (१) सुहसील १५८ सूरियावरण १६ (१) सोतिंदियनिग्गह २७ (१) सुहाभिगम १५८ सूरुग्गमणमुहुत्तंसि २३ (२) सोतिदियवंजणोग्गह २८ (१) सुहुम १४ (१), १५८ सूरत्तरवडेंसगं ५ (४) सोतिंदियावाते सुहुमणाम ४२ सूरोदया ६३ | सोतेंदियअत्थोग्गह सुहुमसंपराए १४ (१), १७ (१) सूल १४६ | सोभवजणं १८ (१) सुहुमसंपरायभावे १७ (१) सेज्जं ६६ सोभाकर सूइकलावसंठाण १५५ सेजंस ८०, ८४, १५७ सोम ८ (१), १५८ सूतगड ५७, १३६ सेज्जापरीसह सोमणस १०८ सूयगड १ (२), १३७ सेज्जासण सोमदत्त १५७ सूयगडज्झयणा २३ (१) सेटिं सोमदेव १५७ सूयपरिग्गहा १४२ सेणा सोमा १५७ सूर ५ (४), ३२ (१), सेणावई सोयं १४३ १३८,१५७ सेणावतिरयण सोलस १६ (१) सूरकंतं ५ (४) सेणिय १५८ | सोलसकसायसावय५ (४) सेते ३० (१) पयंडचंडं १४६ सूरचरित्तं सेयवरचामरातो ३४ | सोवत्थितं १४७ सूरज्झयं ५ (४) सेलये १९ (१) | सोवाणा १३७ सूरदेव १५८ सेला १३८ | सोहम्म १ (६), २ (३), सूरप्पभ ५ (४), १५७ सेवट्ठसंघयणणाम २५ (१) ३२ (१), ३५, १५० सूरप्पमाणभोई २० (१) सेवणया ९ (१) | सोहम्मवडेंसगं २(४), १३(१) RSSC0888 ७२ SSSSS सूरकंडं Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् । १४६ ७२ १५५ विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः |विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः सोहम्मवडेंसय ६५ हत्थकम्म २१ (१) हिंसादंड १३ (१) सोहम्म-सणंकुमार-माहिदेसु ५२ |हत्थिणपुरं १५८ हितसिवसुहदा ३४ सोहम्मीसाणेसु ३(३), ४(३), हत्थिरयण १४ (१) | हितसुहनीसेसतिव्वपरिणा५ (३), ६ (३), ७ (२), हत्थिसिक्खं मनिच्छियमती ८ (३), ९ (३), १० (३), हयलक्खणं |हिययगमणीओ ३४ ११ (३), १२ (२), हरिकता १४ (१) हिरण्णवायं ७२ १३ (२), १४ (२), हरितेसिज्ज १५५ १५ (३), १६ (२), हरिवंसगंडियाओ १४७ हुंडसंठाणणाम २५(१), २८(१) १७ (२), १८ (२), हरिवस्स-रम्मय १२१ इंडसंठाणी २० (२), हरिवस्स-रम्मयवस्सियातो ७६ | हेऊ १४८ २२ (२), हरिवस्स-रम्मयवासियाणं ८४ | हेट्ठिमउवरिमगेवेज २४ (२) २५ (२), हरिवास ७ (१), ६३ | हेट्ठिमउवरिमगेवेजग २५ (३) २७ (१), हरिसेण ८९, ९७, १५८ | हेट्ठिमगेवेज ११ (२) २७ (२), २८ (२), हरि-हरिस्सहकूडा ११३ | हेटिममज्झिमगेवेज २३ (२) २९ (२), ३० (२), हरी ___१४ (१) हेट्ठिममज्झिमगेवेज्जय २४ (३) ३१ (२), ३२ (२), हल १५८ हेट्टिमहेट्ठिमगेवेज २२ (२) ३३ (२), ६०, ६२, ६४ हाणी १५२ हेट्ठिमहेट्ठिमगेवेज्जय २३ (३) हंता ३० (१) हार ६४ | हेमवत ७ (१) हट्ठरोमकूव १५७ हालिद्दवण्णपरिणाम २२ (१) | हेमवतेरण्णवतियाणं ३८, ६७ हणित्ता ३० (१) हास २१ (१), २६ (१) | हेमवय-हेरण्णवतियातो ३७ हत्थ ५ (२), १० (२) हासविवेग २५ (१) हेरण्णवत ७ (१) * २६ (२), Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ द्वितीयं परिशिष्टम् । श्री समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतानां गाथाङनामकारादिक्रमः । गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः | गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः अइबले ५ महब्बले ६ ३०० अप्पणो य अबोहीए १०२ इसिदिण्णं वयहारिं २९७ अंतोधूमेण मारेइ १०० अबंभयारी जे केइ १०१ | इस्सरेण अदुवा गामेण १०१ अंतो नदंतं मारेइ १०० अबहुस्सुए य जे केइ १०२ ईसादोसेण आइढे १०१ अंबे अंबरिसी चेव ५६ अब्भुवगमुवक्कमिया २७५ उक्खित्तणाए १ संघाडे २ ७२ अंमडे दारुमडे या २९९ अभयकर णिव्वुतिकरी २८८ उग्गाणं भोगाणं २८८ अकुमारभूए जे केइ १०१ अममे णिक्कसाए २९८ उड्डगामी रामा केसव २९७ अक्खीणझंझे पुरिसे १०१ अयले वि जाव २९६ | उत्तरे य २४ दिसाई य २५ ६२ अढतकडा रामा २९७ अरुणप्पभ सूरप्पभ २८७ उदएणक्कम्म मारेति १०० अट्ठारस सोलसगं २५९ अवसेसा तित्थकरा २८८ उदए ७ पेढालपुत्ते य ८ २९८ अणंतरा य आहारे २७६ असच्चवाई णिण्हाई १०० उदितोदितकुलवंसा २८७ अणागयस्स नयवं १०१ असिपत्ते धणु कुम्भे ५६ उदितोदितकुलवंसा अणिदाणकडा रामा २९७ अस्संजलं जिणवसभं २९७ उदितोदितकुलवंसा अणिस्सितोवहाणे य ४ ११६ अस्सग्गीवे जाव २९७ उप्पायपुव्वमग्गेणियं अण्णाणी जिणपूयट्ठी १०३ आगमिस्साण होक्खंति २९८ उवगसंतं पि झपिता १०१ अण्णातता ७ अलोभे य १०३ आगमेसाण होक्खंति ३०१ उवट्ठियं पडिविरयं १०२ अतवस्सिए य जे केइ १०२ आणंदे णंदणे पउमे ३०० उवसंतं च धुयरयं २९७ अतिपासं च सुपासं २९८ आणय-पाणयकप्पे २६० उवहि सुय भत्तपाणे ४३ अत्तदोसोवसंहारे २१ ११६ आतिल्लाण चउण्हं २४९ / उसभस्स पढमभिक्खा २८९ अत्थीणत्थिपवायं ५२ आयरियउवज्झाएहिं १०२ उसभे सुमित्तविजये २९४ अत्थे य ११ सूरियावत्ते ६२ आयरियउवज्झायाणं १०२ | उसभो य विणीताए २८८ अद्दीणसत्तु संखे २८७ आराहणा य मरणंते ११६ उस्सप्पिणि आगमेसाए २९९ अदुवा तुममकासि त्ति १०१ आलोयणा १ निरवलावे २ ११६ | एए वुत्ता चउव्वीसं ३०१ अपराजिये य भीमे ३०० आवंती धुतं विमोहायणं ३० एक्का से गब्भवसही २९७ अपरातिय वीससेणे २८९ | आसीयं बत्तीसं २५९ | एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु २६० अपस्समाणो पस्सामि १०३ इड्डी जुती जसो वण्णो १०३ एक्को भगवं वीरो पासो २८८ अप्पडिपूयए थद्धे १०२. इत्थीविसयगेहीए १०१ एक्को य चउत्थीए २९७ अप्पणो अहिए बाले १०१ | इत्थीहिं गिद्धे वसए १०१ | एक्को य सत्तमाए २९७ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । ५२ १०१ गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः | गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः | गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः एताई नामाई २९६ चलचवलकुंडलधरा २८८ |तं तिप्पयंतो भावेति १०२ एतातो सीयातो सव्वेसिं २८८ चारू य वजणाभे २९० | तत्तो किरियविसालं एते खलु पडिसत्तू २९७ | चित्तउत्ते १७ समाही य २९८ | तत्तो पसेणईए २८६ एते खलु पडिसत्तू ३०० चित्तरसा मणियंगा ३४ | तत्तो य णंदणे खलु २८७ एते छण्णक्खत्ता ५७ छण्हं पि जुगलयाणं १६९ | तत्तो य धम्मसीहे २८७ एते छनक्खत्ता १३८ | छण्हं पि जुवलयाणं २६० | तत्तो य धम्मसीहे २८८ एते धम्मायरिया २९७ | जं निस्सिए उव्वहती १०१ | तत्तो हवति मिगाली २९९ एते विसुद्धलेसा २८९ जक्खिणी पुप्फचूला य २९० | तस्स लुब्भइ वित्तम्मि एते वुत्ता चउव्वीसं २९८ | जयंती अपरातिया णवमिया २९५ | तस्स संपग्गहीयस्स १०१ एत्तो बलदेवाणं २९६ जयंते विजए भद्दे ३०० तहियं वसुधारातो २८९ एयारिसं नरं हता १०२ | जयनामो य नरवई २९४ तहेवाणतणाणीणं १०२ ओसप्पिणीए एते २८७ जाणमाणो परिसओ १०१ तित्थप्पवत्तयाणं एते २८७ ओहिस्स वड्डी हाणी २७१ जायतेयं समारब्भ १०० |तित्थप्पवत्तयाणं पढमा २९० कक्कसेणे भीमसेणे २८६ जाला तारा मेरा २९४ तित्थप्पवत्तयाणं पढमा २९० कण्हसिरी सूरसिरी २९४ | जियरागमग्गिसेणं वंदे २९८ तिण्णेग पंचूणं २५९ कत्तिय संखे य तहा जे अंतरायं चेएइ १०१ तिण्णेव गाउयाई २९० कम्मप्पवायपुव्वं ५२ | जे कहाहिगरणाई १०२ तिन्नेव उत्तराई १३८ कयवम्मा सीहसेणे य २८६ | जे नायगं व रहस्स तिलए य लोहजंघे ३०० कितिकम्मस्स य करणे ४३ जे य आहम्मिए जोए १०२ तिविठू य जाव २९६ खरस्सरे महाघोसे ५६ | जे य माणुस्सए भोए १०३ तिव्वे सुभ समायरे १०० गद्दभे व्व गवं मझे |जे यावि तसे पाणे १०० तीसा पुण तेरसमे २४९ गावी जुए जाव २९७ झाणसंवर जोगे य ११६ तीसा य पण्णवीसा गूढायारी निगृहेज्जा १०० णंदिरुक्खे तिलए २८९ | तुंबे अ ६ रोहिणी ७ मल्ली ७२ चंदजस चंद [कंता २८६ णंदे य १ णंदमित्ते २ ३०० | तेंदुग पाडलि जंबू २८९ चेदाणणं सुचंदं २९७ ण य णाम अण्णलिंगे २८८ ते चेव खिंसती बाले १०२ चंपय बउले य तहा २८९ णग्गोह सत्तिवणे साले २८९ तेऽतिप्पयंतो आसयति १०३ चउसट्ठी असुराणं २६० णाभी जियसत्तू या २८६ | तेसिं अवण्णिमं बाले १०२ चउसिरं तिगुत्तं ४३ णिच्चोउगो असोगो २८९ तेसिं अवण्णिम बाले १०३ चउहिं सहस्सेहिं २८८ | णिधयो पुरिसज्जाया २१८ दत्ते सुहुमे सुबंधू य २९८ चत्तारि दुवालस अट्ठ २४९ तं कालं तं समयं २८९ । दस चोद्दस अट्ठऽट्ठारसेव २४९ २५९ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ समवायाङ्गसूत्रान्तर्गतानां गाथार्धानामकारादिक्रमः । २८७ गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः | गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः |गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः दायणे य निकाए य ४३ | पढमेत्थ उसभसेणे २९० | भरहे सगरे मघवं २९४ दावद्दवे ११ उदगणाते १२ ७२ पढमेत्थ वतिरणाभे २८७ भिसए य इंद कुंभे २९० दिण्णे य इंददिण्णे २८७ | पढमेत्थ विमलवाहण २८६ | भेदे विसय संठाणे २७१ दिण्णे वरदत्ते धन्ने २८९ | पण्णा चत्तालीसा छच्च २६० | भोगभोगे वियारेति १०१ दिण्णे वाराहे पुण २९० पभू ण कुणई किच्चं १०२ | मंदर जसे अरिढे २९० दीव-दिसा-उदधीणं २६० पयावती य बंभे २९४ मंदर १ मेरु २ मणोरम ३ ६२ दीव-दिसा-उदहीणं १६९ | पलियंक १५ निसिज्जा य ६९ मत्तंगया य भिंगा ३४ दीवायणे य कण्हे २९९ | पाणिणा संपहित्ताणं १०० | मरुदेवा विजयसेणा दुओणय जहाजायं ४३ / पासो मल्ली वि य अट्ठमेण २८८ | महसीह अग्गिसीहे २९४ दुविठू य ८ तिविठू य ९ ३०० | पियमित्त ललियमित्ते २९६ महापउमे १ सुरादेवे २ २९८ देवई चेव सच्चति २९९ पुणो पुणो पणिहीए १०० महाहरी य विजए य २९४ देवकुरु उत्तरकुरा २८८ पुरतो वहंति देवा २८८ | महुरा जाव हत्थिणपुरं २९७ देवाणंदे अरहा ३०१ पुव्वभवे आसिहं २९७ मिगसिर अद्दा पूसो देवोववाए अरहा २३ २९८ पुव्विं उक्खित्ता २८८ मित्तदामे सुदामे य देवोववाए अरहा २८९ मित्तवाहणे सुभूमे य धंसेइ जो अभूयेणं १०१ पुहई लक्खण रामा २८७ | मियावती उमा चेव २९५ धम्मज्झए य अरहा ३०० पोग्गला नेव जाणंति २७६ | मुणिसुव्वते य अरहा ११ २९८ धितीमती य १६ संवेगे ११६ | फलेणं अदुव दंडेणं मेहे धरे पइढे य २८६ नंदिफले १५ अवरकंका ७२ | बंधू पुप्फवती चेव २९० रयणुच्चय ७ पियदसण ८ ६२ नवमो य महापउमो २९४ | बंभी फग्गू सम्मा २९० राया य आससेणे २८६ नेयाउयस्स मग्गस्स १०२ बंभे बारसमे वुत्ते २९४ रिढे बारसमे वुत्ते २९९ निव्वाणगयं च धरं २९७ बत्तीसतिं धणूई २८९ रुद्दोवरुद्द काले य ५६ पउमा सिवा सुयी २९० बत्तीसऽट्ठावीसा बारस २६० रोहिणि सुलसा चेव य २९९ पउमावती य वप्पा २८७ | बहुजणस्स णेयारं १०२ लच्छिमती कुरुमती .. २९४ पउमे य महापउमे २९९ बारस एक्कारसमे २४९ लच्छिमती सेसमती २९५ पउमे य सोमदेवे २८९ बावत्तरिं सुवण्णाण २६० | वंदामि जुत्तिसेणं २९७ पच्चक्खाणे विओसग्गो ११६ बुद्धं च देवसम्म । २९७ वयछक्कं ६ कायछक्कं १२ ६९ पच्चत्थिमेण असुरा २८८ भगवं पि वासुपुज्जो २८८ वाराह धम्मसेणे २९६ पच्छा वहति सीयं २८८ भद्दा सुभद्दा य सुप्पभा २९५ | विउलं विक्खोभइत्ताणं १०१ पढमा होइ सुभद्दा २९४ | भरहे य दीहदंते २९९ | विज्जा अणुप्पवायं २८६ २९८ ३०१ गव्वसू पूर्ण Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं परिशिष्टम् । ४९ २८७ गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः | गाथार्धम् पृष्ठाङ्कः गाथार्थम् पृष्ठाङ्कः विजया य वेजयंती २८७ | सम्मदिट्ठी १२ समाही य ११६ | सुग्गीवे दढरहे २८६ विभज्ज मत्थयं फाले सयमेगं उवरिमए २६० | सुजसा सुव्वय अइरा विमलघोसे सुघोसे य २८६ सव्वजगवच्छलाणं २८८ सुपासे सुव्वते अरहा ३०१ विमला य पंचवण्णा २८७ सव्वतित्थाण भेयाय १०२ सुभे य सुभघोसे य २७ विमले उत्तरे अरहा ३०१ सव्वलोयपरे तेणे १०२ सुमंगला जसवती २९४ विस्सनंदी सुबंधू य २९६ सव्वाणंदे य अरहा ३०१ सुमंगले अत्थ सिद्धे य ३०० विस्सभूती पव्वयए २९६ सव्वाणुभूती ५ अरहा २९८ | सुमणा वारुणि सुलसा २९० वोकम्म धम्मओ भंसे १०२ | सव्वे य चक्कजोही ३०० सुमतित्थ णिच्चभत्तेण २८८ वोकसियपेज्जदोसं य २९८ सव्वे वि एगदूसेण २८८ सुयसागरे य अरहा ३०० संगाणं च परिण्णा य ११६ | सव्वेसि पि जिणाणं २८९ सुर-असुरवंदियाणं २८८ संती कुंथू य अरो २९४ सागर समुद्दनामे २९७| | सुरअसुरगरुलमहियाण २९० संभूत सुभद्द सुदंसणे २९७ साले य वद्धमाणस्स २८९ सूरसेणे महासेणे ३०१ संवच्छरेण भिक्खा २८९ | साहारणट्ठा जे केइ १०२ | सूरिते सुदंसणे पउमुत्तर २९४ संवरे १९ अणियट्टी य २९८ | साहाहेउं सहीहेउं १०२ | सूरे सुदंसणे कुंभे २८६ सच्चप्पवायपुव्वं __५२ | सिद्धत्थे पुण्णघोसे य ३०१ सेजंस बंभदत्ते २८८ सच्चसेणे य अरहा ३०१ | सिरिउत्ते सिरिभूती २९९ सेटिं बहुरवं हंता १०१ सच्छत्ता सपडागा २९० | सिरिकंता मरुदेवी २८६ | सेणावई पसत्थारं १०१ सज्झायवायं वयति १०२ | सिरिचंदे पुप्फकेऊ य ३०० | | सेणिय सुपास उदए २९९ सढे नियडीपण्णाणे १०२ सिरिसे य णागरुक्खे २८९ सेला सलिला य समुद्द २१८ सतजले सताऊ य २८६ सीता य दव्व सारीर २७५ सेसाणं परमण्णं सत्तभिसय भरणि अद्दा ५७ | सीया सुदंसणा सुप्पभा २८७ | सेसाणं पुण रुक्खा सत्त विमाणसताई २६० सीसम्मि जे पहणइ १०० सेसेहिं बीयदिवसे २८९ सत्थपरिण्णा लोगविजओ ३० | सीसावेढेण जे केई १०० | सोमे सिरिधरे चेव २७ सप्पी जहा अंडउडं १०१ | सीहरहे मेहरहे २८७ | सोलस तीसा वीस समोसरण सन्निसेज्जा य ४३ | सुंदरबाहू तह दीहबाहु २८७ हत्थो चित्ता य तहा २८९ २९० Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम्- कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । [पृ०२६ पं०१७] सम्प्रति चन्द्रप्रज्ञप्तिः सूर्यप्रज्ञप्तिश्च प्राय एकरूपैव संजाता उपलभ्यते, अतः एतद्विषये सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रं तट्टीका चात्र उपन्यस्येते अस्माभिः “ता कहं ते जोतिसस्स दारा आहिताति वदेजा । तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तिओ 5 पन्नत्ताओ- तत्थेगे एवमाहंसु-ता कत्तियादिया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता । एगे पुण एवमाहंसु - ता महादिया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता । एगे पुण एवमाहंसु-ता धणिट्ठादिया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता। एगे पुण एवमाहंसु-ता अस्सिणीयादिया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता । एगे पुण एवमाहंसु-ता भरणीयादिया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता... वयं पुण एवं वदामो-ता अभिईयादिया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता तंजहा-अभिई सवणो 10 धणिट्ठा सतभिसया पुव्वापोट्ठवया उत्तरापोट्टवया रेवती। अस्सिणीयादिया णं सत्त नक्खत्ता दाहिणदारिया पन्नत्ता तंजहा-अस्सिणी भरणी कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणव्वसू । पुस्सादिया णं सत्त नक्खत्ता पच्छिमदारिया पन्नत्ता तंजहा-पुस्सो अस्सेसा महा पुव्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता । सातियादिया णं सत्त नक्खत्ता उत्तरदारिया पन्नत्ता तंजहा-साती विसाहा अनुराहा जेट्ठा मूले पुव्वासाढा उत्तरासाढा।” इति चन्द्रप्रज्ञप्तौ सूर्यप्रज्ञप्तौ च। 15 अस्य व्याख्या- “ता कहं ते जोइसदारा इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथम् ? - केन प्रकारेण केन क्रमेणेत्यर्थः ज्योतिषो - नक्षत्रचक्रस्य द्वाराणि आख्यातानीति वदेत् ? एवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावत्यः परतीथिकानां प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति- तत्थेत्यादि, तत्र - तेषां पञ्चानां परतीर्थिकसङ्घातानां मध्ये एके एवमाहुः - कृत्तिकादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि, इह येषु नक्षत्रेषु पूर्वस्यां दिशि गच्छतः प्रायः शुभमुपजायते तानि पूर्वद्वारकाणि, एवं दक्षिणद्वारकादीन्यपि 20 वक्ष्यमाणानि भावनीयानि, अत्रैवोपसंहारमाह- एगे एवमाहंसु एके पुनरेवमाहुः - अनुराधादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि, अत्राप्युपसंहारः- एगे एवमाहंसु एवं शेषाण्यप्युपसंहारवाक्यानि योजनियानि, एके पुनरेवमाहुः-धनिष्ठादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि, एके पुनरेवमाहुः- अश्विन्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि एके पुनरेवमाहुः भरण्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि, सम्प्रत्येतेषामेव पञ्चानामपि मतानां भावनिकामाह- तत्थ जे ते एवमाहंसु इत्यादि सुगमम्, भगवान् 25 स्वमतमाह- वयं पुण इत्यादि पाठसिद्धम् ॥” इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य एकविंशतितमे प्राभृतप्राभृते। [पृ०३९ पं०१८] “अथ प्रतिमाप्रतिमास्वरूपमाह- सम्ममणुव्वयगुणवयसिक्खावयवं थिरो य नाणी य । अट्ठमि-चउद्दसीसुं पडिमं ठाएगराईयं १०।१७॥ सम्म० गाहा । सम्यगिति सम्यक्त्वम्, अणुव्रत-गुणव्रत-शिक्षापदानि प्रतीतानि । तानि यस्य सन्ति स तद्वान् । पूर्वोक्तप्रतिमा Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् । चतुष्कयुक्त इत्यर्थः । सोऽपि स्थिरोऽविचलसत्त्वः । इतरो हि तद्विराधको भवति । यतः सा रात्रौ चतुष्पथादौ च विधीयते, तत्र चोपसर्गाः संभवन्तीति । ज्ञानी च ज्ञाता प्रतिमाकल्पपादेः। अज्ञानो हि सर्वत्राप्ययोग्यः किं पुनरस्यामिति । चशब्दौ समुच्चयार्थौ । अष्टमीचतुर्दश्योः प्रतीतयोः। उपलक्षणत्वादस्य पौषधदिवसेष्विति दृश्यम्, प्रतिमां कायोत्सर्ग ठाइ त्ति अधितिष्ठति करोतीत्यर्थः । किंप्रमाणमित्याह-एका रात्रिः परिमाणस्या इत्येकरात्रिकी सर्वरात्रिकी तां यस्तस्य प्रतिमाप्रतिमा 5 भवतीति शेषः । इति गाथार्थः ॥१७॥ शेषदिनेषु यादृशोऽसौ भवति तदर्शयितुमाह- असिणाणवियडभोई मउलियडो दिवसबंभयारी या रत्तिं परिमाणकडो पडिमावजेसु दियहेसु १०।१८॥ असिणा० गाहा । अस्नानोऽविद्यमानस्नानः। विकटे प्रकटे दिवसे, न रात्राविति यावत्, भोक्तुं शीलमस्येति विकटभोजी चतुर्विधाहाररात्रि-भोजनवर्जकः, ततः पूर्वपदेन सह कर्मधारयः । तथा मौलिकृतोऽबद्धकच्छः । 10 तथा दिवसे ब्रह्म चरतीत्येवंशीलो दिवसब्रह्मचारी । चः समुच्चये । तथा रत्तिमिति विभक्तिपरिणामाद् रात्रौ रजन्यां परिमाणकृत: मैथुनासेवनं प्रति कृतयोषिद्भोगपरिमाणः । कदेत्याह- प्रतिमावर्जेषु अपर्वस्वित्यर्थः, दिवसेषु दिनेषु । उक्तव्याख्यानसंवादिनी चेयं गाथा यदुत- असिणाणवियडभोई पकासभोइ त्ति होइ जं भणियं । दिवसओ न रत्ति भुंजे मउलिकडो कच्छ नवि रोधे॥ [ ] कच्छां नारोपयतीत्यर्थः । इति गाथार्थः ॥१८॥” इति पञ्चाशकस्य अभयदेवसूरिविरचितायां वृत्तौ॥ [पृ०४३ पं०१, पृ०४५ पं०१३] “ओहद्दारस्स इमे बारस पडिदारा- उवहि सुत भत्त पाणे अंजलीपग्गहेति य । दावणा य निकाए य । अन्भुट्ठाणे ति यावरे ॥२०७१॥ कितिकम्मस्स य करणे वेयावच्चे करणेति य । समोसरण सणिसेजा, कधाए य पबंधणे ॥२०७२॥ उवहि त्ति दारस्स इमे छ पडिदारा- उग्गम उप्पादण एसणा य परिकम्मणा य परिहरणा । संजोयविहिविभत्ता छट्ठाणा होंति उवधिम्मि ॥ २०७३॥ तत्थ उग्गम त्ति दारं, अस्य व्याख्या- 20 समणुण्णेण मणुण्णो सहितो सुद्धोवधिग्गहे सुद्धो । अह अविसुद्धं गेण्हति जेणऽविसुद्धं तमावजे ॥२०७४॥ संभोतितो संभोइएण समं उवहिं सोलसेहि आहाकम्मतिएहिं उग्गमदोसेहिं सुद्धं उप्पाएति तो सुद्धो । अह असुद्धं उप्पाएति जेण उग्गमदोसेण असुद्धं गेण्हति तत्थ जावतिओ कम्मबंधो जं च पायच्छित्तं तं आवजति ॥२०७४॥ एगं व दो व तिण्णि व आउटुंतस्स होति पच्छित्तं । आउटुंते वि ततो परेण तिण्हं विसंभोगो ॥२०७५॥ संभोइओ असुद्धं गेण्हंतो चोइओ 25 भणाति-'संता पडिचोयणा, मिच्छामि दुक्कडं, ण पुणो एवं करिस्सामो' । एवं आउट्टे जमावण्णो तं पच्छित्तं दाउं संभोगो । एवं बितियवाराए वि । एवं ततियवाराए वि । ततियवाराओ परेणं चउत्थवाराए तमेव अतियारं सेविऊण आउटुंतस्स वि विसंभोगो ॥२०७५॥" - इति निशीथभाष्यचूर्णी पञ्चमे उद्देशके ॥ 15 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । पृ०४३ पं०८] “कहि णं भंते ! विजयस्स देवस्स विजया णाम रायहाणी पण्णत्ता ?, गोयमा ! विजयस्स णं दारस्स पुरत्थिमेणं तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे वीतिवतित्ता अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं विजयस्स देवस्स विजया णाम रायहाणी प० बारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं सत्ततीसजोयणसहस्साइं नव य अडयाले जोयणसए 5 किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते.... ॥ [सू० १३५] ॥ व्या०- कहि णं भंते ! विजयस्सेत्यादि, क्क भदन्त ! विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह- गौतम ! विजयस्य द्वारस्य पूर्वस्यां दिशि तिर्यग् असङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्य अतिक्रम्य अत्रान्तरे योऽन्यः जम्बूद्वीपः अधिकृतद्वीपतुल्याभिधानः, अनेन जम्बूद्वीपानामप्यसङ्ख्येयत्वं सूचयति, तस्मिन् द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य अत्रान्तरे विजयस्य देवस्य योग्या विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता मया 10 शेषैश्च तीर्थकृद्भिः, सा च द्वादश योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण आयामविष्कम्भाभ्याम्, सप्तत्रिंशद् योजनसहस्राणि नव शतानि अष्टाचत्वारिंशानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, इदं च परिक्षेपपरिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होइ' [ ] इति करणवशात् स्वयमानेतव्यम् ॥” इति जीवाभिगमसूत्रे तृतीयायां प्रतिपत्तौ प्रथमे उद्देशके मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ 15 [पृ०६० पं०१५, पृ०१५९, पं०२] “सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य । एए छ नक्खत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥७/१६०॥ टी० शतभिषक् भरणी आर्द्रा अश्लेषा स्वाति: ज्येष्ठा, च: समुच्चये एतानि षट् नक्षत्राणि पञ्चदश मुहूर्तान् यावत् चन्द्रेण सह संयोगः सम्बन्धो येषां तानि तथा, तद्यथा- एतेषां षण्णामपि नक्षत्राणां प्रत्येक सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्कान् सार्द्धान् त्रयस्त्रिंशद्भागान् यावच्चन्द्रेण सह योगो भवति ततो 20 मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागकरणार्थं त्रयस्त्रिंशत् त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि नव शतानि नवतानि नवत्यधिकानि ९९० यदपि चार्द्धं तदपि त्रिंशता गुणयित्वा द्विकेन भज्यते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्तस्य सप्तषष्टिभागास्ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातः पूर्वराशिः सहस्रं पञ्चोत्तरम् १००५, अस्य सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ता इति । तथा- “तिण्णेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य । एए छ नक्खत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥७/१६०॥ टी० तिस्र उत्तराः उत्तरफल्गुनी उत्तराषाढा उत्तरभद्रपदा 25 इत्येवंरूपाः पुनर्वसू रोहिणी विशाखा, च: समुच्चये, एतानि एवकारस्य भिन्नक्रमत्वादेतान्येवेति योज्यम्, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्, षड् नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशतं मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह संयोगो येषां तानि तथा, तद्यथा-अत्रापि षण्णां नक्षत्राणां प्रत्येकं सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्कानां भागानां शतमेकमेकस्य च भागस्यार्द्धं चन्द्रेण सह योगस्तत्रैषां भागानां मुहूर्तगतभागकरणार्थं शतं प्रथमतस्त्रिंशता गुण्यते जातानि त्रीणि सहस्राणि पञ्चदशोत्तराणि ३०१५, एतेषां सप्तषष्ट्या Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् । भागे हृते लब्धाः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ता इति ।" इति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तेः सप्तमे वक्षस्कारे १६० तम सूत्रस्य शान्तिचन्द्रीयायां वृत्तौ ॥ [पृ०६६ पं०१६] “सम्प्रति लवणसमुद्रशिखावक्तव्यतामाह- दसजोयणसहस्सा, लवणसिहा चक्कवालओ रुंदा । सोलस सहस्स उच्चा, सहस्समेगं च ओगाढा ॥१७॥ व्या० अभ्यन्तरतो बाह्यतश्च पञ्चनवतिपञ्चनवतियोजनसहस्राणि परित्यज्य मध्यभागे लवणसमुद्रस्य शिखा वर्तते, सा 5 च चक्रवालतो रथचक्राकारेण रुन्दा विस्तीर्णा दश योजनसहस्राणि, तथा भूतले समजलपट्टादूर्ध्वमुच्चा षोडश योजनसहस्राणि, सहस्रमेकं योजनानामवगाढा भूमौ प्रविष्टा ॥१७॥ देसूणमद्धजोयण, लवणसिहोवरि दगं दुवे काला । अइरेगं अइरेगं, परिवढइ हायए वावि ॥१८॥ व्या० अनन्तरोक्ताया लवणसमुद्रशिखाया उपरि देशोनमर्धयोजनं किञ्चिन्न्यूने द्वे गव्यूते द्वौ कालौ अहोरात्रमध्ये द्वौ वारौ उदकमतिरेकमतिरेकं परिवर्धते हीयते च, पातालकलशगतवायुक्षोभे वर्धते तदुपशान्तौ 10 च हीयते इत्यर्थः ॥१८॥ सम्प्रति वेलन्धरवक्तव्यतामाह- अन्भिंतरियं वेलं, धरंति लवणोदहिस्स नागाणं । बायालीस सहस्सा, दुसत्तरि सहस्स बाहिरियं ॥१९॥ सहिँ नागसहस्सा, धरंति अग्गोदयं समुदस्स । वेलंधरआवासा, लवणे चाउद्दिसिं चउरो ॥२०॥ व्या० लवणसमुद्रस्याभ्यन्तरिका जम्बूद्वीपाभिमुखां वेलां शिखोपरिजलं शिखां च अर्वाक् प्रविशन्ती धरन्ति वारयन्ति नागानां नागकुमाराणां भवनपतिनिकायान्तर्वर्तिनां द्वाचत्वारिंशत्सहस्राणि, बाह्यां 15 धातकीखण्डद्वीपाभिमुखां वेलां धातकीखण्डद्वीपमध्ये प्रविशन्तीं वारयन्ति नागानां द्वासप्ततिसहस्राणि, तथा षष्टिनागसहस्राणि अग्रोदकं देशोनयोजनार्धजलादुपरि वर्धमानं जलं समुद्रस्य लवणसमुद्रस्य वारयन्ति । एवं सर्वसङ्ख्यया वेलन्धरदेवानामेकं लक्षं चतुःसप्ततिसहस्राणि भवन्ति । उक्तं च"लवणस्स णं भंते समुदस्स केवइया नागसहस्सा अभिंतरियं वेलं धरंति ? केवइया नागसहस्सा बाहिरियं वेलं धरंति ? केवइया नागसहस्सा अग्गोदगं धरंति ? गोयमा ! लवणस्स णं समुद्दस्स 20 बायालीसं नागसहस्सा अभिंतरियं वेलं धरंति, बावत्तरि नागसहस्सा बाहिरियं वेलं धरंति, सर्व्हि नागसहस्सा अग्गोदगं धरंति । एवमेव सपुव्वावरेण लवणे समुद्दे एगसयसाहस्सिया चउहत्तरं च नागसहस्सा भवंतीति मक्खायं” [ ] । एतेषां च वेलन्धरदेवानामावासा आश्रयभूताः पर्वता लवणसमुद्रे पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु द्विचत्वारिंशद्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे प्रत्येकमेकै कभावेन चत्वारः चतुःसङ्ख्या वेदितव्याः ॥१९-२०॥ सम्प्रति 25 तेषामावासपर्वतानामावासपर्वताधिपतीनां च नागराजानां नामान्याह- पुव्वाइं अणुकमसो, गोत्थुभ दगभास संख दगसीमा । गोत्थुभ सिवए संखे, मणोसिले नागरायाणो ॥२१॥ व्या० तथा पूर्वाद्यनुक्रमेणैवैतेषामावासपर्वतानामधिपतीनां नामान्यमूनि, तद्यथागोस्तूपस्यावासपर्वतस्याधिपतिर्गोस्तूपनामा देवः, दकभासस्य शिवः, शङ्खस्य शङ्खः, दकसीम्नो मनःशिलः । एते चत्वारोऽपि प्रत्येकं चतुर्णामिन्द्रसामानिकसहस्राणाम्, चतसृणामग्रमहिषीणां 30 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । सपरिवाराणाम्, तिसृणां पर्षदाम्, सप्तानामनीकानाम्, सप्तानामनीकाधिपतीनाम्, षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणाम्, स्वस्य स्वस्यावासपर्वतस्य, स्वस्याः स्वस्या राजधान्या अधिपतयः । तत्र गोस्तूपदेवस्य राजधानी गोस्तूपा, सा च गोस्तूपस्यावासपर्वतस्य पूर्वतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादशयोजनसहस्रेभ्यः परतो वेदितव्या । शिवदेवस्य शिवा राजधानी, सा च दकभासस्यावासपर्वतस्य दक्षिणतोऽपरस्मिन् 5 लवणसमुद्रे । शङ्खदेवस्य शङ्खा नाम राजधानी, सा च शङ्खस्यावासपर्वतस्यापरतोऽपरस्मिन् लवणसमद्रे । मनःशिलस्य देवस्य मनःशिला राजधानी, सा च दकसीम्न आवासपर्वतस्योत्तरतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे ॥ २१॥ तदेवमुक्ता महतां वेलन्धराणां नागराजानामावासपर्वता नामानि च सम्प्रति क्षुल्लवेलन्धरदेवानामावासपर्वतान् नामानि चाह- अणुवेलंधरवासा, लवणे विदिसासु संठिया चउरो । कक्कोडग विज्जुप्पभ, कइलास रुणप्पभे चेव ||२२|| कक्कोडग कद्दमए, केलास 10 रुणप्पभे य रायाणो । बायालीस सहस्से, गंतुं उदहिम्मि सव्वेऽवि ||२३|| व्या० महतां वेलन्धराणामादेशप्रतीच्छकतयाऽनुयायिनो वेलन्धरा अनुवेलन्धरास्तेषामावासा आवासपर्वता लवणे लवणसमुद्रे विदिक्षु उत्तरपूर्वादिकासु चतसृषु विदिक्षु द्वाचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाह्यान्तरे संश्रिताः स्थिताः चत्वारः चतुःसङ्ख्या वेदितव्याः, तद्यथा- उत्तरपूर्वस्यां दिशि कर्कोटकः १, दक्षिणपूर्वस्यां विद्युत्प्रभः २, दक्षिणापरस्यां कैलाशः ३, अपरोत्तरस्यामरुणप्रभः ४ । एतेषामधिपतयो 15 नागराजा यथाक्रमं कर्कोटकः कर्दमकः कैलाशः अरुणप्रभश्च । एते च चत्वारोऽपि गोस्तूपदेव इव महर्द्धिका वेदितव्याः, नवरं कर्कोटकस्य नागराजस्य राजधानी कर्कोटिका, सा च कर्कोटकस्यावासपर्वतस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि तिर्यगसङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रानतिक्रम्यापरस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादशयोजनसहस्रेभ्यः परतोऽवगन्तव्या । कर्दमस्य च नागराजस्य कर्दमिका राजधानी, सा च विद्युत्प्रभस्य स्वावासपर्वतस्य दक्षिणपूर्वतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे । कैलाशदेवस्य नागराजस्य कैलाशा 20 नाम राजधानी, सा च स्वावासपर्वतस्य कैलाशस्य दक्षिणापरतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे । अरुणप्रभस्य नागराजस्यारुणप्रभा नाम राजधानी, सा च स्वावासपर्वतस्यारुणप्रभस्यापरोत्तरतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे । एते च सर्वेऽपि गोस्तूपादयोऽरुणप्रभपर्यवसाना अष्टावप्यावासपर्वता जम्बूद्वीपवेदिकान्तात्प्रत्येकं द्विचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्युदधौ लवणसमुद्रेऽवगाह्यात्रान्तरे वेदितव्याः । एतच्च प्रागेव भावितम् ॥२२-२३॥ सम्प्रत्येतेषामवगाहादिप्रमाणमाह- चत्तारि जोयणसए, तीसं कोसं च उवगया भूमिं । 25 सत्तरस जोयणसए, इगवीसे ऊसिया सव्वे ||२४|| व्या० सर्वेऽष्टावपि गोस्तूपादयः पर्वताः प्रत्येकं चत्वारि योजनशतानि त्रिंशदधिकानि ४३० एकं च क्रोशं १ भूमिमुपगता भूमौ प्रविष्टाः, सप्तदश योजनशतानि एकविंशत्यधिकानि १७२१ उच्छ्रिता उच्चाः । एते च सर्वेऽपि प्रत्येकमेकैकया वेदिकया एकैकेन च वनखण्डेन समन्ततः परिक्षिप्ताः ||२४|| ” इति बृहत्क्षेत्र० मलय० । [पृ०६८ पं० २२] 'नाणंतरायदसगं दंसण चत्तारि उच्च जसकित्ती । एया सोलस पयडी, 30 सुहुमकसायम्मि वोच्छिन्ना ||२३|| व्या०- 'नाणंतरायदसगं' इति, ज्ञानावरणं पञ्चविधमन्तरायं ५४ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ तृतीयं परिशिष्टम् । पञ्चविधम्, ‘दंसण चत्तारि' इति, दर्शनावरणानि चत्वारि चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणाख्यानि, उच्चैर्गोत्रम्, यशःकीर्तिः, इत्येताः षोडश प्रकृतयः सूक्ष्मकषाये बन्धं प्रतीत्य व्यवच्छिन्नाः । एतबन्धस्य साम्परायिकत्वादुत्तरेषु च सम्परायस्य कषायोदयलक्षणस्याभावात् ॥२३॥” इति सटीके प्राचीने कर्मस्तवाख्ये द्वितीये कर्मग्रन्थे । [पृ०८७ पं० ७] "गंगा णं महाणई पवहे छ सकोसाइं जोअणाई विक्खंभेणं अद्धकोसं 5 उव्वेहेणं तयणंतरं च णं.... [जम्बू० ४।७४] । व्या०- अथास्या एव प्रवहमुखयोः पृथुत्वोद्वेधौ दर्शयति- गंगा णमित्यादि, गङ्गा महानदी प्रवहे, यतः स्थानात् नदी वोढुं प्रवर्तते स प्रवहः, पद्यद्रहात्तोरणानिर्गम इत्यर्थः, तत्र षट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण, तथा क्रोशार्द्धमुद्वेधेन, महानदीनां सर्वत्रोद्वेधस्य स्वव्यासपञ्चाशत्तमभागरूपत्वात्, अस्तीति शेषः, तदनन्तरमिति पद्मदहतोरणीयव्यासादनन्तरम्, एतेन यावत् क्षेत्रं स व्यासोऽनुवृत्तस्तावत्क्षेत्रादनन्तरं 10 गङ्गाप्रपातकुण्डनिर्गमादनन्तरमित्यर्थः, एतेन च योऽन्यत्र प्रवहशब्देन मकरमुखप्रणालनिर्गमः प्रपातकुण्डनिर्गमो वाऽभिहितः स नेति, श्रीअभयदेवसूरिपादैः समवायागवृत्तौ श्रीमलयगिरिपादैश्च बृहत्क्षेत्रसमासवृत्तौ पद्मदहतोरणनिर्गमपरत्वेनैव व्याख्यानात्, एवमुद्वेधेऽपि ज्ञेयम् ।" इति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ चतुर्थे वक्षस्कारे ७४ तमसूत्रस्य शान्तिचन्द्रविरचितायां वृत्तौ ॥ [पृ०८९ पं०२२] “पञ्चविंशतिभिर्भावनाभिः, क्रिया पूर्ववत्, प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षण- 15 महाव्रतसंरक्षणाय भाव्यन्त इति भावनाः, ताश्चेमाः- इरियासमिए सया जए, उवेह भुंजेज व पाणभोयणं। आयाणनिक्खेवदुगुंछ संजए, समाहिए संजमए मणोवई ॥१॥ अहस्ससच्चे अणुवीइ भासए, जे कोहलोहभयमेव वजए । स दीहरायं समुपेहिया सिया, मुणी हु मोसं परिवजए सया ॥२॥ सयमेव उ उग्गहजायणे, घडे मतिमं निसम्म सइ भिक्खु उग्गहं । अणुण्णविय भुजिज्ज पाणभोयणं, जाइत्ता साहमियाण उग्गहं ॥३॥ आहारगुत्ते अविभूसियप्पा, इत्थिं न निज्झाइ न संथवेज्जा । बुद्धो 20 मुणी खुड्डकहं न कुज्जा, धम्माणुपेही संधए बंभचेरं ॥४॥ जे सद्दरूवरसगंधमागए, फासे य संपप्प मणुण्णपावए । गिहीपदोसं न करेज पंडिए, स होइ दंते विरए अकिंचणे ॥५॥ गाथाः पञ्च, आसां व्याख्या-ईरणम् ईर्या, गमनमित्यर्थः, तस्यां समितः-सम्यगित ईर्यासमितः, ईर्यासमितता प्रथमभावना, यतोऽसमितः प्राणिनो हिंसेदतः सदा यतः-सर्वकालमुपयुक्तः सन् ‘उवेह भुंजेज व पाणभोयणं' 'उवेह'त्ति अवलोक्य भुञ्जीत पानभोजनम्, अनवलोक्य भुञ्जानः प्राणिनो हिंसेत्, अवलोक्य भोक्तव्यं 25 द्वितीयभावना, एवमन्यत्राप्यक्षरगमनिका कार्या, आदाननिक्षेपौ-पात्रादेर्ग्रहणमोक्षौ आगमप्रसिद्धौ जुगुप्सति-करोत्यादाननिक्षेपजुगुप्सकः, अजुगुप्सन् प्राणिनो हिंस्यात् तृतीयभावना, संयतः-साधुः समाहितः सन् संयमे 'मणोवईत्ति अदुष्टं मनः प्रवर्तयेत्, दुष्टं प्रवर्तयन् प्राणिनो हिंसेत् चतुर्थी भावना, एवं वाचमपि, पञ्चमी भावना, गताः प्रथमव्रतभावनाः । द्वितीयव्रतभावनाः प्रोच्यन्ते-'अहस्ससच्चे'त्ति अहास्यात् सत्यः, हास्यपरित्यागादित्यर्थः, हास्यादनृतमपि ब्रूयात्, अतो हास्यपरित्यागः प्रथमभावना, 30 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । अनुविचिन्त्य-पर्यालोच्य भाषेत, अन्यथाऽनृतमपि ब्रूयात्, द्वितीयभावना, यः क्रोधं लोभं भयमेव वा त्यजेत्, सौंइत्थम्भूतो दीर्घरात्रं-मोक्षं समुपेक्ष्य-सामीप्येन(द्रष्टा) दृष्ट्वा 'सिया' स्यात् मुनिरेव मृषां परिवर्जेत सदा, क्रोधादिभ्योऽनृतभाषणादिति भावनात्रयम्, गता द्वितीयव्रतभावनाः । तृतीयव्रतभावनाः प्रोच्यन्ते-'स्वयमेव' आत्मनैव प्रभुं प्रभुसंदिष्टं वाऽधिकृत्य अवग्रहयाच्चायां प्रवर्तते अनुविचिन्त्य, 5 अन्यथाऽदत्तं गृह्णीयात्, प्रथमभावना, ‘घडे मइमं निसम्म'त्ति तत्रैव तृणाद्यनुज्ञापनायां चेष्टेत मतिमान् निशम्य आकर्ण्य प्रतिग्रहदातृवचनम्, अन्यथा तददत्तं गृह्णीयात्, परिभोग इति द्वितीया भावना, 'सइ भिक्खु उग्गहति सदा भिक्षुरवग्रहं स्पष्टमर्यादयाऽनुज्ञाप्य भजेत, अन्यथाऽदत्तं संगृह्णीयात्, तृतीया भावना, अनुज्ञाप्य गुरुमन्यं वा भुञ्जीत पानभोजनम्, अन्यथाऽदत्तं गृह्णीयात्, चतुर्थी भावना, याचित्वा साधर्मिकाणामवग्रहं स्थानादि कार्यम्, अन्यथा तृतीयव्रतविराधनेति पञ्चमी भावना, 10 उक्तास्तृतीयव्रतभावनाः। साम्प्रतं चतुर्थव्रतभावनाः प्रोच्यन्ते- 'आहारगुत्ते'त्ति आहारगुप्तः स्यात्, नातिमात्रं स्निग्धं वा भुञ्जीत, अन्यथा ब्रह्मव्रतविराधकः स्यात्, प्रथमा भावना, अविभूषितात्मा स्याद्विभूषां न कुर्याद्, अन्यथा ब्रह्मव्रतविराधकः स्यात्, द्वितीया भावना, स्त्रियं न निरीक्षेत तदव्यतिरेकादिन्द्रियाणि नाऽऽलोकयेद्, अन्यथा ब्रह्मव्रतविराधकः स्यात्, तृतीया भावना, 'न संथवेजत्ति न स्त्र्यादिसंसक्तां वसतिं सेवेत, अन्यथा ब्रह्मविराधकः स्यात्, चतुर्थी भावना, बुद्धः अवगततत्त्वः 15 मुनिः साधुः क्षुद्रकथां न कुर्यात् स्त्रीकथां स्त्रीणां वेति, अन्यथा ब्रह्मविराधकः स्यात्, पञ्चमी भावना, 'धम्म(धम्माणु)पेही संधए बंभचेरं'ति निगदसिद्धम्, उक्ताश्चतुर्थव्रतभावनाः । पञ्चमव्रतभावनाः प्रोच्यन्तेयः शब्दरूपरसगन्धानागतान्, प्राकृतशैल्याऽलाक्षणिकोऽनुस्वारः, स्पर्शाश्च संप्राप्य मनोज्ञ-पापकान् इष्टानिष्टानित्यर्थः, गृद्धिम् अभिष्वङ्गलक्षणाम्, प्रद्वेषः प्रकटस्तं न कुर्यात् पण्डितः, स भवति दान्तो विरतोऽकिञ्चन इति, अन्यथाऽभिष्वङ्गादेः पञ्चममहाव्रतविराधना स्यात्, पञ्चापि भावनाः, उक्ताः 20 पञ्चमहाव्रतभावनाः, अथवाऽसम्मोहार्थं यथाक्रमं प्रकटार्थाभिरेव भाष्यगाथाभिः प्रोच्यन्ते– “पणवीस भावणाओ पंचण्ह महव्वयाणमेयाओ । भणियाओ जिणगणहरपुज्जेहिं नवर सुत्तम्मि ॥१॥ इरियासमिइ पढमा आलोइयभत्तपाणभोई य । आयाणभंडनिक्खेवणा य समिई भवे तइया ॥२॥ मणसमिई वयसमिई पाणइवायम्मि होंति पंचेव । हासपरिहारअणुवीइभासणा कोहलोहभयपरिण्णा ॥३॥ एस मुसावायस्स अदिन्नदाणस्स होतिमा पंच । पहुसंदिट्ठ पहू वा पढमोग्गह जाएँ अणुवीई ॥४॥ उग्गहणसील बिइया 25 तत्थोग्गेण्हेज उग्गहं जहियं । तणडगलमल्लगाई अणुण्णवेजा तहिं तहियं ॥५॥ तच्चम्मि उग्गहं तू अणुण्णवे सारिउग्गहे जा उ । तावइय मेर काउं न कप्पई बाहिरा तस्स ॥६॥ भावण चउत्थ साहम्मियाण सामण्णमण्णपाणं तु । संघाडगमाईणं भुंजेज अणुण्णवियए उ ॥७॥ पंचमियं गंतूणं साहम्मियउग्गहं अणुण्णविया । ठाणाई चेएज्जा पंचेव अदिण्णदाणस्स ॥८॥ बंभवयभावणाओ णो अइमायापणीयमाहारे । दोच्च अविभूसणा ऊ विभूसवत्ती न उ हवेजा ॥९॥ तच्चा भावण इत्थीण 30 इंदिया मणहरा ण णिज्झाए । सयणासणा विवित्ता इत्थिपसुविवजिया सेज्जा ॥१०॥ एस चउत्था Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् । ५७ ण कहे इत्थीण कहं तु पंचमा एसा । सद्दा रूवा गंधा रस फासा पंचमी एए ॥११॥ रागद्दोसविवजण अपरिग्गहभावणाउ पंचेव । सव्वा पणवीसेया एयासु न वट्टियं जं तु ॥१२॥” इति आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थेऽध्ययने हारिभद्र्यां वृत्तौ ।। [पृ०१२० पं०७] "सुयं मे आउसंतेण भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पन्नत्ताओ, कतराओ खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पन्नत्ताओ? 5 इमा खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पन्नत्ताओ, तंजधा- सेहे रातिणियस्स पुरतो गंता भवति, आसादणा सेहस्स ॥१॥ सेहे रायणियस्स सपक्खं गंता भवति, आसायणा सेहस्स ॥२॥ सेहे रायणियस्स आसन्नं गंता भवति, आसयणा सेहस्स ॥३॥ एवं एएणं अभिलावेणं सेहे रातिणियस्स पुरओ चिट्ठित्ता भवति, आसायणा सेहस्स ॥४॥ सेहे राईणियस्स सपक्खं चिट्ठित्ता भवति, आसायणा सेहस्स ॥५॥ सेहे रायणियस्स आसन्नं चिट्ठित्ता भवति, आसादणा सेहस्स 10 ॥६॥ सेहे रायणियस्स पुरतो निसीइत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ॥७॥ सेहे रायणियस्स सपक्खं निसीइत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ॥८॥ सेहे रायणियस्स आसन्नं निसीइत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ॥९॥ सेहे रायणियेण सद्धिं बहिया विहारभूमि वा वियारभूमिं वा निक्खंते समाणे पुव्वामेव सेहतराए आयामेइ पच्छा रायणिए, आसादणा सेहस्स ॥१०॥ सेहे रायणिएण सद्धिं बहिया विहारभूमि वा वियारभूमिं वा निक्खंते समाणे तत्थ पुवामेव सेहतराए आलोएति पच्छा रायणिए, 15 आसायणा सेहस्स ॥११॥ केइ रायणियस्स पुव्वं संलवत्तए सिया ते पुव्वामेव सेहतरए आलवेति पच्छा रातिणिए, आसायणा सेहस्स ॥१२॥ सेहे रातिणियस्स रातो वा विआले वा वाहरमाणस्स अज्जो केइ सुत्ते ? के जागरे ? तत्थ सेहे जागरमाणे रातिणियस्स अपडिसुणेत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ॥१३॥ सेहे असणं वा ४ पडिग्गहित्ता पुव्वामेव सेहतरागस्स आलोएइ पच्छा रायणियस्स, आसादणा सेहस्स ॥१४॥ सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता पुव्वामेव 20 सेहतरागस्स पडिदंसेति पच्छा रायणियस्स, आसादणा सेहस्स ॥१५॥ सेहे असणं वा ४ पडिग्गाहेत्ता : तं पुव्वामेव सेहतरागं उवणिमंतेति पच्छा रायणियस्स, आसादणा सेहस्स ॥१६॥ सेहे रायणिएण सद्धिं असणं वा ४ पडिग्गाहेत्ता तं रायणियस्स अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छइ तस्स तस्स खद्धं खद्धं दलयइ, आसादणा सेहस्स ॥१७॥ सेहे असणं वा ४ पडिग्गाहित्ता राइणिएण सद्धिं आहारेमाणे तत्थ सेहे खद्धं खद्धं डाअं डाअं रसितं रसियं ऊसढं ऊसढं मणुण्णं मणुण्णं मणामं 25 मणामं निद्धं निद्धं लुक्खं लुक्खं आहारेत्ता भवइ, आसादणा सेहस्स ॥१८॥ सेहे रायणियस्स वाहरमाणस्स अपडिसुणित्ता भवइ, आसादणा सेहस्स ॥१९॥ सेहे रायणियस्स वाहरमाणस्स तत्थगते चेव पडिसुणेत्ता भवति, आसायणा सेहस्स ॥२०॥ सेहे रायणियस्स किं ति वइत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ॥२१॥ सेहे रायणियं तुमं ति वत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ॥२२॥ सेहे रायणियस्स खद्धं खद्धं वत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ॥२३।। सेहे रायणियं तज्जाएण तज्जाएण पडिभणित्ता 30 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । भवइ, आसादणा सेहस्स ॥२४॥ सेहे रातिणियस्स कहं कहेमाणस्स इति एवं ति वत्ता न भवति, आसायणा सेहस्स ॥२५।। सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स नो सुमरसीति वत्ता भवति, आसादणा सेहस्स ॥२६॥ सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स णो सुमणसे भवति, आसादणा सेहस्स ||२७|| सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स परिसं भेत्ता भवति, आसायणा सेहस्स ॥२८॥ सेहे रायणियस्स 5 कहं कहेमाणस्स कहं आच्छिंदित्ता भवति, आसायणा सेहस्स ॥२९॥ सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स तीए परिसाए अणुट्ठिताए अभिन्नाए अवुच्छिन्नाए अव्वोगडाए दोच्वंपि तमेव कहं कथिता भवति, आसादणा सेहस्स ॥३०॥ सेहे रायणियस्स सेजासंथारगं पाएणं संघट्टित्ता हत्थेणं अणणुण्णवेत्ता गच्छति, आसादणा सेहस्स ॥३१॥ सेहे रायणियस्स सेज्जासंथारए चिट्ठित्ता वा निसीइत्ता वा तुयट्टित्ता वा भवइ, आसायणा सेहस्स ॥३२॥ सेहे रायणियस्स उच्चासणे वा 10 समासणंसि वा चिट्ठित्ता वा निसीयित्ता वा तुयट्टित्ता वा भवति, आसादणा सेहस्स ॥३३॥ एताओ खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पन्नत्ताओ त्ति बेमि ॥” इति दशाश्रुतस्कन्धे तृतीयेऽध्ययने [तृतीयस्यां दशायाम्] । विशेषतो जिज्ञासुभिः दशाश्रुतस्कन्धचूर्णिर्विलोकनीया || [पृ०१३० पं०१५] “साम्प्रतं हैमवतवर्षस्य जीवामाह- सत्तत्तीस सहस्सा, छच्च सया जोयणाण चउसयरा । हेमवयवासजीवा, किंचूणा सोलस कला य ॥५४॥ व्या० 15 सप्तत्रिंशत्सहस्राणि षट् शतानि चतुःसप्ततानि चतुःसप्तत्यधिकानि योजनानां कलाश्च षोडश किञ्चिदूना, एतावती हैमवतवर्षस्य जीवा । तथाहि- हैमवतवर्षस्यावगाह इष्वपरपर्यायः सप्ततिसहस्रप्रमाणः ७०००० । तेन जम्बूद्वीपविष्कम्भः कलारूप एकोनविंशतिलक्षप्रमाण ऊनः क्रियते, जाता अष्टादश लक्षास्त्रिंशत्सहस्राणि १८३०००० । एष राशियथोक्तेनावगाहेन ७०००० गुण्यते, गुणिते च सति जात एककः द्विकः अष्टकः एककः अष्टौ शून्यानि १२८१०००००००० । एष राशिभूयश्चतुर्भिर्गुण्यते, 20 जातः पञ्चकः एककः द्विकः चतुष्कः अष्टौ शून्यानि ५१२४०००००००० । अस्य वर्गमूलानयने लब्धः सप्तकः एककः पञ्चकः अष्टकः द्विकः एककः ७१५८२१ । शेषं तूद्धरति द्विकः नवकः पञ्चकः नवकः पञ्चकः नवकः २९५९५९ । छेदराशिः एककः चतुष्कः त्रिकः एककः षट्कः चतुष्कः द्विकः १४३१६४२ । वर्गमूललब्धस्य तु कलाराशेर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भागो ह्रियते, लब्धानि योजनानां सप्तत्रिंशत्सहस्राणि षट् शतानि चतुःसप्तत्यधिकानि कलाश्च पञ्चदश ३७६७४ 25 क० १५, उद्धरितराश्यपेक्षया किञ्चिदूनैका कला लभ्यते इति परिभाव्य 'किंचूणा सोलस कला य' इत्युक्तम् ॥५४॥" - इति बृहत्क्षेत्र० मलय० ॥ [पृ०१३१ पं०१३, १५७] “अधुनाऽस्यैव हैमवतवर्षस्य धनुःपृष्ठं बाहां चाह- चत्तारि य सत्त सया, अडतीससहस्स दस कला य धणु । बाहा सत्तट्ठिसया, पणपन्ना तिन्नि य कलाओ ॥५५॥ व्या० अष्टात्रिंशत्सहस्राणि सप्त शतानि चत्वारिंशदधिकानि योजनानां दश च 30 कला इत्येतावत्प्रमाणं हैमवतवर्षस्य धनुःपृष्ठम् । तथाहि- हैमवतवर्षस्येषुपरिमाणं सप्ततिसहस्राणि Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् । ७००००। अस्य वर्गे जातः चतुष्कः नवकः शून्यान्यष्टौ ४९०००००००० । एष राशिभूयः षड्भिर्गुण्यते, जातः द्विकः नवकः चतुष्कः अष्टौ च शून्यानि २९४०००००००० । एतत् प्रागुक्ते हैमवतवर्षजीवावर्गे पञ्चकः एककः द्विकः चतुष्कः अष्टौ शून्यानि ५१२४०००००००० इत्येवंपरिमाणे प्रक्षिप्यते, जातः पञ्चकः चतुष्क एककः अष्टकः अष्टौ शून्यानि ५४१८०००००००० । अस्य वर्गमूलानयने लब्धः सप्तकः त्रिकः षट्कः शून्यं सप्तकः शून्यम् ७३६०७० । शेषमुद्धरितं नवकः 5 पञ्चकः पञ्चकः एककः शून्यं शून्यम् ९५५१०० । छेदराशिरेककः चतुष्कः सप्तकः द्विकः एककः चतुष्कः शून्यम् १४७२१४०। वर्गमूललब्धः कलाराशिरेकोनविंशत्या योजनकरणाय भज्यते, लब्धानि योजनानामष्टात्रिंशत्सहस्राणि सप्त शतानि चत्वारिंशदधिकानि योजनानां कलाः दश ३८७४० क० १० ॥ तथा सप्तषष्टिशतानि पञ्चपञ्चाशानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि योजनानां कलास्तिस्रः ६७५५ क० ३ हैमवतवर्षस्य बाहा । तथाहि- महतो धनुःपृष्ठात् हैमवतवर्षसत्कात् अष्टात्रिंशत्सहस्राणि 10 सप्त शतानि चत्वारिंशदधिकानि योजनानां कला दश ३८७४० क० १० इत्येवंपरिमाणात् डहरकं धनुःपृष्ठं क्षुल्लहिमवतः संबन्धि पञ्चविंशतिसहस्राणि द्वे शते त्रिंशदधिके कलाश्चतस्रः २५२३० क० ४ इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, शोधिते च सति तस्मिन् जातं शेषमिदम्- एककः त्रिकः पञ्चकः एककः शून्यं १३५१० कलाश्च षट् ६ । अस्यार्धे लब्धानि योजनानां सप्तषष्टिशतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि तिम्रः कलाः ६७५५ क० ३ ॥५५॥ 15 [पं०१८] “सम्प्रति मेरोः काण्डादिवक्तव्यतामाह- मेरुस्स तिन्नि कंडा, पुढवोवलवइरसक्करा पढमे । रयए य जायरूवे, अंके फलिहे य बीयम्मि ॥३१२॥ एगागारं तइयं, तं पुण जंबूणयामयं होइ । जोयणसहस्स पढम, बाहल्लेणं च बीयं तु ॥३१३॥ तेवढि सहस्साइं, तइयं छत्तीस जोणसहस्सा । व्या० मेरोः पर्वतस्य त्रीणि काण्डानि, काण्डं नाम विशिष्टपरिमाणानुगतो विच्छेदः, तत्र प्रथमे काण्डे पृथिव्युपलवज्रशर्कराः, किमुक्तं भवति ? प्रथमं काण्डं क्वचित्पृथिवीबहुलम्, 20 क्वचिदुपलबहुलम्, क्वचिद्वज्रबहुलम्, क्वचिच्छर्कराबहुलम् । तथा द्वितीयकाण्डे रजतम्, जातरूपम्, अङ्करत्नानि, स्फटिकरत्नानि च, अत्रापीयं भावना- द्वितीयं काण्डं क्वचिद्रजतबहुलम्, क्वचिज्जातरूपबहुलम्, क्वचिदङ्करत्नबहुलम्, क्वचित्स्फटिकरत्नबहुलम् । तृतीयं पुनरेकाकारम्, तच्च सर्वात्मना जाम्बूनदमयम्। उक्तं च- "मंदरस्स णं भंते पव्वयस्स कइ कंडा पन्नत्ता ? गोयमा ! तिन्नि कंडा पन्नत्ता, तंजहा- हेहिल्ले कंडे मज्झिल्ले कंडे उवरिमे कंडे । मंदरस्स णं भंते पव्वयस्स 25 हिडिल्ले कंडे कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पन्नत्ते, तंजहा- पुढवी उवले वइरे सक्करा । मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स मज्झिल्ले कंडे कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! चउविहे पन्नत्ते, तंजहाअंके फलिहे रयए जायरूवे । मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स उवरिमे कंडे कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! एगागारे पन्नत्ते, तंजहा- सव्वजंबूणयामए' [ ] । तत्र प्रथमं काण्डं बाहल्येन योजनसहस्रं योजनसहस्रपरिमाणम्, तच्च भूमाववगाढम्, द्वितीयं तु त्रिषष्टिसहस्राणि, तच्च समतलभूभागादारभ्य 30 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । प्रतिपत्तव्यम्, तृतीयं षट्त्रिंशद्योजनसहस्राणि । एवं काण्डत्रयपरिमितो मेरुर्योजनलक्षप्रमाणः ॥ मेरुस्स उवरि चूला, उव्विद्धा जोयणदुवीसं ॥३१४॥ एवं सव्वग्गेणं, समूसिओ मेरु लक्खमइरित्तं । व्या० मेरोर्लक्षप्रमाणस्योपरि योजनसहस्रप्रमाणायामविष्कम्भस्योपरितनस्य तलस्य बहुमध्यभागे द्वे विंशती (४०) योजनानामुद्विद्धा चूला, एवं सर्वात्मना परिमाणतश्चिन्त्यमानो 5 मेरुयोजनलक्षमतिरिक्तं भवति चत्वारिंशदधिकयोजनलक्षप्रमाणो भवतीत्यर्थः ॥' - इति बृहत्क्षेत्र० मलय० ॥ - [पृ०१४४ पं०२३] “साम्प्रतं महाहिमवतो जीवामाह- तेवन्न सहस्साई, नव य सया जोयणाण इगतीसा । जीवा महाहिमवए, अद्ध कला छक्कलाओ य ॥५६॥ व्या० महाहिमवति पर्वते जीवा त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि नव शतानि एकत्रिंशदधिकानि योजनानां षट् कला: 10 परिपूर्णाः अर्धकला च । तथाहि- महाहिमवतोऽवगाहो लक्षं पञ्चाशत्सहस्राणि १५०००० । अनेन जम्बूद्वीपविष्कम्भः कलारूप एकोनविंशतिलक्षप्रमाण ऊनः क्रियते, ततो जातं शेषं सार्धाः सप्तदश लक्षाः १७५००००। एतावदवगाहेनोक्तरूपेण १५०००० गुण्यते, जातो द्विकः षट्कः द्विकः पञ्चकः अष्टौ शून्यानि २६२५०००००००० । एष राशिः पुनश्चतुर्भिर्गुण्यते, जातः एककः शून्यं पञ्चकः शून्यानि दश १०५००००००००००, एष महाहिमवतो जीवावर्गः, अस्य वर्गमूलमानीयते, लब्धः 15 एककः शून्यं द्विकः चतुष्कः षट्कः नवकः पञ्चकः १०२४६९५ । शेषमुद्धरितमेककः पञ्चकः षट्कः नवकः सप्तकः पञ्चकः १५६९७५ । छेदराशिः द्विकः शून्यं चतुष्कः नवकः त्रिकः नवकः शून्यं २०४९३९० । वर्गमूललब्धस्य तु राशेर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भागो हियते, लब्धानि योजनानां त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि नव शतानि एकत्रिंशदधिकानि कलाः षट् ५३९३१ क० ६ । उद्धरितस्तु कलाराशिरर्धकलानयनाय द्विकेन गुण्यते, ततश्छेदराशिना भज्यते इति लब्धमेकं कलार्धमिति 20 ||५६ ॥” इति बृहत्क्षेत्र मलय० । [पृ०१४८ पं०९] “साम्प्रतमस्यैव महाहिमवतो धनुःपृष्ठं बाहां चाह– सत्तावन्न सहस्सा, धणुपटुं तेणउय दुसय दस य कला । बाहा बाणुउइ सया, छसत्तरा नव कलद्धं च ॥५७॥ व्या० महाहिमवतो धनुःपृष्ठं सप्तपञ्चाशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिनवत्यधिके योजनानां कला दश । तथाहि- महाहिमवत इषुः सार्धलक्षप्रमाण: १५००००, तस्य वर्गो द्विकः द्विकः पञ्चकः शून्यान्यष्टौ 25 २२५०००००००० । एष राशिः षड्भिर्गुण्यते, जात एककः त्रिकः पञ्चकः शून्यानि नव १३५०००००००००, एतत् प्रागभिहिते महाहिमवतो जीवावर्गे एककः शून्यं पञ्चकः शून्यानि दश १०५०००००००००० इत्येवंपरिमाणे प्रक्षिप्यते, जात एककः एककः अष्टकः पञ्चकः शून्यानि नव ११८५०००००००००, अस्य वर्गमूलानयने लब्ध एककः शून्यम् अष्टकः अष्टकः पञ्चकः सप्तकः सप्तकः १०८८५७७ । शेषमिदम् एककः एककः पञ्चकः शून्यं सप्तकः एककः ११५०७१ । 30 छेदराशिर्दिकः एककः सप्तकः सप्तकः एककः पञ्चकः चतुष्क: २१७७१५४ । वर्गमूललब्धस्य कलाराशेर्योजनानयनार्थमेकोनविंशत्या भागो ह्रियते, लब्धानि योजनानां सप्तपञ्चाशत्सहस्राणि द्वे शते Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् । त्रिनवत्यधिके कला दश ५७२९३ क० १० ॥ तथा द्विनवतिशतानि षट्सप्ततानि षट्सप्तत्यधिकानि योजनानां नव कला एकं च कलार्धमित्येतावत्प्रमाणा पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि प्रत्येकं महाहिमवतो बाहा । तथाहि- महतो धनु:पृष्ठान्महाहिमवतः सत्कात् सप्तपञ्चाशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिनवत्यधिके कला दश ५७२९३ क० १० इत्येवंपरिमाणात् लघु धनुःपृष्ठं हैमवतवर्षसंबन्धि योजनानामष्टात्रिंशत्सहस्राणि सप्त शतानि चत्वारिंशदधिकानि कला दश ३८७४० क० १० एवंसङ्ख्यमपनीयते, 5 अपनीते च सति तस्मिन् जातं शेषमिदम् एककः अष्टकः पञ्चकः पञ्चकः त्रिकः १८५५३, अस्यार्धे लब्धानि योजनानां द्विनवतिशतानि षट्सप्तत्यधिकानि नव कला एवं कला) ९२७६ क० ९ अर्धम् १ ॥५७॥” इति बृहत्क्षेत्र० मलय० । [पृ०१५२ पं०३] “केणमित्यादि, केन कारणेन शुक्लपक्षे चन्द्रो वर्द्धते ? केन वा कारणेन चन्द्रस्य कृष्णपक्षे परिहाणिर्भवति, केन वा अनुभावेन प्रभावेण चन्द्रस्य एकः पक्षः कृष्णो भवति 10 एको ज्योत्स्नः - शुक्ल इति ? एवमुक्ते भगवानाह- किण्हमित्यादि, इह द्विविधो राहुस्तद्यथापर्वराहुः नित्यराहुश्च, तत्र पर्वराहुः स उच्यते यः कदाचिदकस्मात् समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं च अन्तरितं करोति, अन्तरिते च कृते लोके ग्रहणमिति प्रसिद्धिः, स इह न गृह्यते, यस्तु नित्यराहुस्तस्य विमानं कृष्णम्, तच्च तथाजगत्स्वाभाव्यात् चन्द्रेण सह नित्यं सर्वकालमविरहितं तथा चतुरङ्गुलेन चतुभिर्रॉलैरप्राप्तं सत् चन्द्रविमानस्याधस्ताच्चरति, तच्चैवं चरत् शुक्लपक्षे 15 शनैः शनैः प्रकटीकरोति चन्द्रमसं कृष्णपक्षे च शनैः शनैरावृणोति, तथा चाह- बावट्ठिमित्यादि, इह द्वाषष्टिभागीकृतस्य चन्द्रविमानस्य द्वौ भागावुपरितनावपाकृत्य शेषस्य पञ्चदशभिर्भागे हृते ये चत्वारो भागा लभ्यन्ते ते द्वाषष्टिशब्देनोच्यन्ते, अवयवे समुदायोपचारात्, एतच्च व्याख्यानं जीवाभिगमचूर्खादिदर्शनतः कृतम्, न पुनः स्वमनीषिकया, तथा चास्या एव गाथाया व्याख्याने जीवाभिगमचूर्णिः- “चन्द्रविमानं द्वाषष्टिभागीक्रियते, ततः पञ्चदशभिर्भागो ह्रियते, तत्र चत्वारो 20 भागा द्वाषष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते, शेषौ द्वौ भागौ, एतावद् दिने दिने शुक्लपक्षस्य राहुणा मुच्यते'' इत्यादि, एवं च सति यत् समवायाङ्गसूत्रम् - 'सुक्कपक्खस्स दिवसे दिवसे चंदो बावडिं भागे परिवड्डईत्ति तदप्येवमेव व्याख्येयम्, सम्प्रदायवशाद्धि सूत्रं व्याख्येयम्, न स्वमनीषिकया, सम्प्रदायश्च यथोक्तस्वरूप इति, तत्र शुक्लपक्षस्य दिवसे यत् यस्मात् कारणात् चन्द्रो द्वाषष्टिं द्वाषष्टिं भागान्- द्वाषष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् यावत्परिवर्धते, कालेन कृष्णपक्षेन पुनर्दिवसे दिवसे 25 तानेव द्वाषष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् क्षपयति परिहापयति । एतदेव व्याचष्टे- पन्नरस इत्यादि, कृष्णपक्षे प्रतिदिवसं राहुविमानं स्वकीयेन पञ्चदशेन भागेन चन्द्रविमानं पञ्चदशमेव भागं वृणोति आच्छादयति, शुक्लपक्षे तु पुनस्तमेव प्रतिदिवसं पञ्चदशभागम् आत्मीयेन पञ्चदशभागेन व्यतिक्रामति मुञ्चति, किमुक्तं भवति ?-कृष्णपक्षे प्रतिपद आरभ्यात्मीयेन पञ्चदशेन पञ्चदशेन भागेन प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागमुपरितनभागादारभ्यावृणोति, शुक्लपक्षे तु प्रतिपद आरभ्य तेनैव क्रमेण 30 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति, तेन जगति चन्द्रमण्डलवृद्धिहानी प्रतिभासेते, स्वरूपतः पुनश्चन्द्रमण्डलमवस्थितमेव । तथा चाह- एवं वड्डइ इत्यादि, एवं राहुविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणानावरणकरणतो वर्धते वर्धमानः प्रतिभासते चन्द्रः, एवं राहुविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणावरणकरणतः प्रतिहानिः प्रतिहानिप्रतिभासो भवति चन्द्रस्य विषये, एतेनैवानुभावेन कारणेन एकः पक्षः कालः 5 कृष्णो भवति, यत्र चन्द्रस्य परिहाणिः प्रतिभासते, एकस्तु ज्योत्स्न: शुक्लो यत्र चन्द्रविषयो वृद्धिप्रतिभासः।” इति सूर्यप्रज्ञप्तेः एकोनविंशतितमे प्राभृते १०० तमसूत्रस्य मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ । (पृ०१५२ पं०१८] "इह द्विविधो राहुस्तद्यथा-पर्वराहुर्नित्यराहुश्च, तत्र पर्वराहुः स उच्यते यः कदाचिदकस्मात् समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं वाऽन्तरितं करोति, अन्तरिते 10 च कृते लोके ग्रहणमिति प्रसिद्धिः, स इह न गृह्यते, यस्तु नित्यराहुस्तस्य विमानं कृष्णं तथाजगत्स्वाभाव्याच्चन्द्रेण सह 'नित्यं' सर्वकालमविरहितं तथा 'चउरंगुलेन' चतुरङ्गुलैप्राप्तं सत् 'चन्द्रस्य' चन्द्रविमानस्याधस्ताच्चरति, तच्चैवं चरत् शुक्लपक्षे शनैः शनैः प्रकटीकरोति चन्द्रमसं कृष्णपक्षे च शनैः शनैरावृणोति, तथा चाह– इह द्वाषष्टिभागीकृतस्य चन्द्रविमानस्य द्वौ भागावुपरितनौ सदाऽनावार्यस्वभावत्वाद् अपाकृत्य शेषस्य पञ्चदशभिर्भागे हृते ये चत्वारो भागा लभ्यन्ते ते 15 द्वाषष्टिशब्देनोच्यन्ते, अवयवे समुदायोपचारात्, एतच्च व्याख्यानमेतस्यैव चूर्णिमुपजीव्य कृतं न स्वमनीषिकया, तथा च तद्ग्रन्थः- “चन्द्रविमानं द्वाषष्टिभागीक्रियते, ततः पञ्चदशभिर्भागोऽपहियते, तत्र चत्वारो भागा द्वाषष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते शेषौ द्वौ, एतावद् दिने दिने शुक्लपक्षस्य राहुणा मुच्यत" इति, एवं च सति यत्समवायाङ्गसूत्रम्- “सुक्कपक्खस्स दिवसे दिवसे बावडिं बावहिँ भागे परिवड्डइ" इति, तदप्येवमेव व्याख्येयम्, संप्रदायवशाद्धि सूत्रं व्याख्येयम्, न 20 स्वमनीषिकया, अन्यथा महदाशातनाप्रसक्तेः, संप्रदायश्च यथोक्तस्वरूप इति, तत्र शुक्लपक्षस्य दिवसे यद् यस्मात् कारणाच्चन्द्रो द्वाषष्टिद्वाषष्टिभागान् द्वाषष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् यावत् परिवर्द्धते, कालेन कृष्णपक्षेण पुनर्दिवसे २ तानेव द्वाषष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् ‘प्रक्षपयति' परिहापयति, एतदेव व्याचष्टे- कृष्णपक्षे प्रतिदिवसं राहुविमानं स्वकीयेन पञ्चदशेन भागेन तं ‘चन्द्र' चन्द्रविमानं पञ्चदशमेव भागं वृणोति' आच्छादयति, शुक्लपक्षे पुनस्तमेव प्रतिदिवसं 25 पञ्चदशभागमात्मीयेन पञ्चदशेन भागेन ‘व्यतिक्रामति' मुञ्चति, किमुक्तं भवति ? कृष्णपक्षे प्रतिपद आरभ्यात्मीयेन पञ्चदशेन पञ्चदशेन भागेन प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागमुपरितन-भागादारभ्यावृणोति, शुक्लपक्षे तु प्रतिपद आरभ्य तेनैव क्रमेण प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति, तेन जगति चन्द्रमण्डलस्य वृद्धिहानी प्रतिभासेते, स्वरूपतः पुनश्चन्द्रमण्डलमवस्थितमेव, तथा चाह- एवं राहुविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणानावरणकरणतो 'वर्द्धते' वर्द्धमानः प्रतिभासते चन्द्रः" इति 30 जीवाभिगमसूत्रस्य तृतीयायां प्रतिपत्तौ द्वितीये उद्देशके मलयगिरिविरचितायां वृत्तौ ॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् । ३ [पृ०१५७ पं०२२] “अधुनाऽस्यैव क्षुल्लहिमवतो धनुःपृष्ठं बाहां चाह- धणुपट्ट कलचउक्कं, पणुवीससहस्स दुसय तीसऽहिया । बाहा सोलद्धकला, तेवन्न सया य पन्नहिया ॥५३॥ व्या० पञ्चविंशतिसहस्राणि द्वे शते त्रिंशदधिके योजनानां कलाश्चतस्रः २५२३० क० ४ इत्येतावत्परिमाणं क्षुल्लहिमवतो धनुःपृष्ठम् । तथाहि- क्षुल्लहिमवतः इषुपरिमाणं त्रिंशत्सहस्राणि कलानाम् ३००००, अस्य वर्गो विधीयते, जातो नवकः अष्टौ शून्यानि ९०००००००० । एष राशिभूयः षड्भिर्गुण्यते, 5 जातः पञ्चकः चतुष्कः अष्टौ शून्यानि ५४०००००००० । एतत् क्षुल्लहिमवतो जीवावर्गे प्रागुक्तस्वरूपे द्विकः द्विकः चतुष्कः चतुष्कः अष्टौ शून्यानि २२४४०००००००० इत्येवंपरिमाणे प्रक्षिप्यते । ततो जातो राशिरयम्- द्विकः द्विकः नवकः अष्टकः अष्टौ शून्यानि २२९८०००००००० । अस्य वर्गमूलानयने लब्धः चतुष्कः सप्तकः नवकः त्रिकः सप्तकः चतुष्कः ४७९३७४ । शेषं तूद्धरितं पञ्चकः षट्कः अष्टकः एककः द्विकः चतुष्कः ५६८१२४ । छेदराशिः नवकः पञ्चकः अष्टकः 10 सप्तकः चतुष्कः अष्टकः ९५८७४८ । वर्गमूललब्धस्तु कलाराशिर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भज्यते, लब्धानि योजनानां पञ्चविंशतिसहस्राणि द्वे शते त्रिंशदधिके चतस्रः कलाः २५२३० क० ४ । तथा त्रिपञ्चाशच्छतानि पञ्चाशदधिकानि योजनानां षोडशार्धकला: सार्धपञ्चदशकलाः ५३५० क० १५३ इत्येतावत्प्रमाणा पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि प्रत्येकं बाहा । तथाहि- महतो धनुःपृष्ठात् क्षुल्लहिमवतः संबन्धिनः पञ्चविंशतिसहस्राणि द्वे शते त्रिंशदधिके योजनानां कलाश्चतस्रः २५२३० 15 क० ४ इत्येवंपरिमाणात् लघु धनुःपृष्ठमुत्तरभरतार्धसंबन्धि चतुर्दश सहस्राणि पञ्च शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि योजनानां कलाश्चैकादश १४५२८ क० ११ इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, शोधिते च सति जातं शेषमिदं दश सहस्राणि सप्त शतानि एककोत्तराणि योजनानां कलाश्च द्वादश १०७०१ क० १२ । एतेषामधे लब्धानि त्रिपञ्चाशच्छतानि पञ्चाशदधिकानि योजनानां कलाः पञ्चदश एकं कलार्धम् ५३५० क० १५ अर्धम् १ ॥५३॥" -इति बृहत्क्षेत्र० मलय० ॥ 20 [पृ०१६२ पं०७] “मोत्तूण सगमबाहं पढमाइ ठिईइ बहुतरं दव्वं । एत्तो विसेसहीणं जावुक्कोसं ति सव्वेसिं ॥८३॥ व्या०- तदेवं कृता स्थितिस्थानप्ररूपणा । सम्प्रति निषेकप्ररूपणावसरः। तत्र च द्वे अनुयोगद्वारे-अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा च । तत्रान्तरोपनिधाप्ररूपणार्थमाह- मोत्तूण त्ति सर्वस्मिन्नपि कर्मणि बध्यमाने आत्मीयमात्मीयमबाधाकालं मुक्त्वा परित्यज्य ऊर्ध्वं दलिकनिक्षेपं करोति । तत्र प्रथमायां स्थितौ समयलक्षणायां प्रभूततरं 25 द्रव्यं कर्मदलिकं निषिञ्चति । एत्तो विसेसहीणं ति इतः प्रथमस्थितेरूज़ द्वितीयादिषु समयसमयप्रमाणासु विशेषहीनं विशेषहीनं कर्मदलिकं निषिञ्चति । तथाहि- प्रथमस्थितेः सकाशात् द्वितीयस्थितौ विशेषहीनम्, ततोऽपितृतीयस्थितौ विशेषहीनम्, ततोऽपि चतुर्थस्थितौ विशेषहीनम्, एवं विशेषहीनं विशेषहीनं तावद्वाच्यं यावत्तत्तत्समय बध्यमानकर्मणामुत्कृष्टा स्थितिश्चरमसमय इत्यर्थः ॥८३॥” इति मलयगिरिसूरिविरचितायां कर्मप्रकृतिवृत्तौ । 30 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । Cx [पृ०१६७ पं०५] "अधुना हरिवर्षस्य जीवामाह- एगुत्तरा नव सया, तेवत्तरिमेव जोयणसहस्सा। जीवा सत्तरस कला, अद्धकला चेव हरिवासे ॥५८॥ व्या० हरिवर्षे हरिवर्षाभिधस्य क्षेत्रस्य जीवा त्रिसप्ततिसहस्राणि नव शतानि एकोत्तराणि योजनानां कलाः सप्तदश अर्धकला च । तथाहि- हरिवर्षस्यावगाहस्त्रीणि लक्षाणि दश सहस्राणि ३१००००, अनेन 5 जम्बूद्वीपविष्कम्भः कलारूप एकोनविंशतिलक्षप्रमाणो हीनः क्रियते, जाताः शेषाः पञ्चदश लक्षा नवतिसहस्राणि १५९००००, एतदुक्तप्रमाणेनावगाहेन ३१०००० गुण्यते, जातः चतुष्कः नवकः द्विकः नवकः अष्टौ शून्यानि ४९२९०००००००० । एष राशिभूयश्चतुर्भिर्गुण्यते, जात एककः नवकः सप्तकः एककः षट्कः शून्यानि चाष्टौ १९७१६०००००००० । एष हरिवर्षस्य जीवावर्गः, अस्य वर्गमूलानयने लब्ध एककः चतुष्कः शून्यं चतुष्कः एककः त्रिकः षट्कः १४०४१३६ । शेष 10 तिष्ठति द्विकः शून्यं नवकः त्रिकः पञ्चकः शून्यं चतुष्कः २०९३५०४ । छेदराशिः द्विकः अष्टकः शून्यम् अष्टकः द्विकः सप्तकः द्विकः २८०८२७२ । ततो योजनकरणार्थं वर्गमूललब्धमेकोनविंशत्या भज्यते, लब्धानि योजनानां त्रिसप्ततिसहस्राणि नव शतानि एकोत्तराणि कलाः सप्तदश ७३९०१ क० १७ । उद्धरितस्तु कलाराशिरर्धकलानयनाय द्विकेन गुण्यते, गुणयित्वा च यथोक्तप्रमाणेन छेदराशिना भज्यते लब्धमेकं कलार्धम्, शेषस्त्वर्धकलाराशिरेवंरूपस्तिष्ठति एककः त्रिकः सप्तकः 15 अष्टकः सप्तकः त्रिकः षट्कः १३७८७३६ ॥५८॥” इति बृहत्क्षेत्र० मलय० ।। [पृ०१७९ पं०११] “साम्प्रतमस्यैव हरिवर्षस्य बाहां धनुःपृष्ठं चाह- बाहा तेर सहस्सा, एगट्ठा तिसय छक्कलऽद्धकला । धणुपट्ट कलं चउक्त्रं, चुलसीइ सहस्स सोलहिया ॥५९॥ व्या० हरिवर्षस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि प्रत्येकं बाहापरिमाणं त्रयोदश सहस्राणि त्रीणि शतानि एकषष्टानि एकषष्ट्यधिकानि योजनानां षट् कलाः एकं च कलार्धम् । तथाहि- महतो धनुःपृष्ठात् 20 हरिवर्षसत्कात् चतुरशीतिर्योजनानां सहस्राणि षोडशाधिकानि कलाश्चतस्रः ८४०१६ क० ४ इत्येवंपरिमाणात् डहरकं धनुःपृष्ठं महाहिमवतः संबन्धि सप्तपञ्चाशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिनवत्यधिके कला दश ५७२९३ क० १० इत्येवंपरिमाणं शोध्यते, शोधिते च सति जातं शेषमिदम्- षड्विंशतिः सहस्राणि सप्त शतानि द्वाविंशत्यधिकानि योजनानां त्रयोदश कलाः २६७२२ क० १३, एतेषामर्धे लब्धानि योजनानां त्रयोदश सहस्राणि त्रीणि शतानि एकषष्ट्यधिकानि षट् च कलाः सार्धाः १३३६१ 25 कलाः ६ अर्धम् । तथा चतुरशीतिर्योजनानां सहस्राणि षोडशाधिकानि चतस्रः कलाः ८४०१६ क० ४ इत्येतावत्परिमाणं हरिवर्षस्य धनुःपृष्ठम् । तथाहि- हरिवर्षस्येषुपरिमाणं तिम्रो लक्षा दश सहस्राणि ३१००००, अस्य वर्गो विधीयते, जातो नवकः षट्कः एककः शून्यान्यष्टौ ९६१०००००००० भूय एष राशिः षड्भिर्गुण्यते, आगतः पञ्चकः सप्तकः षट्कः षट्कः अष्टौ शून्यानि ५७६६००००००००। एतत् हरिवर्षक्षेत्रस्य सत्के एककः नवकः सप्तकः एककः षट्कः शून्यान्यष्टौ 30 १९७१६०००००००० इत्येवंरूपे जीवावर्गे प्रक्षिप्यते, ततो जातो राशिरेवंप्रमाणः- द्विकः पञ्चकः Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् । ६५ चतुष्कः अष्टकः द्विकः शून्यान्यष्टौ २५४८२०००००००० । अस्य वर्गमूलानयने लब्ध एककः पञ्चकः नवकः षट्कः त्रिकः शून्यम् अष्टौ(ष्टकः) १५९६३०८ । शेषमुद्धरति सप्तकः षट्कः नवकः एककः त्रिकः षट्कः ७६९१३६ । छेदराशिः त्रिकः एककः नवकः द्विकः षट्कः एककः षट्कः ३१९२६१६ । वर्गमूललब्धस्तु कलाराशिर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भज्यते, लब्धानि योजनानां चतुरशीतिसहस्राणि षोडशाधिकानि चतस्रः कलाः ८४०१६ क० ४ ॥५९॥" - इति बृहत्क्षेत्र० 5 मलय० । [पृ०१८० पं०३] "पुढविदगअगणिमारुय, इक्किक्के सत्त जोणिलक्खाओ । वणपत्तेय अणंते, दस चउदस जोणिलक्खाओ ॥३५१॥ विगलिंदिएसु दो दो, चउरो चउरो अ नारयसुरेसु । तिरिएसु हुंति चउरो, चउदस लक्खाओ मणुएसु ॥३५२॥ व्या० पृथिव्युदकाग्निमरुतां संबन्धिन्येकैकस्मिन् समूहे सप्त योनिलक्षा भवन्ति, तद्यथा- सप्त पृथिवीनिकाये, सप्तोदकनिकाये, 10 सप्ताग्निनिकाये, सप्त वायुनिकाये । वनस्पतिनिकायो द्विविधः, तद्यथा- प्रत्येकोऽनन्तकायश्च । तत्र प्रत्येकवनस्पतिनिकाये दश योनिलक्षाः, अनन्तवनस्पतिनिकाये चतुर्दश । विकलेन्द्रियेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियरूपेषु प्रत्येकं द्वे द्वे योनिलक्षे, तद्यथा- द्वे योनिलक्षे द्वीन्द्रियेषु, द्वे त्रीन्द्रियेषु, द्वे चतुरिन्द्रियेषु । तथा, चतम्रो योनिलक्षा नारकाणाम्, चतम्रो देवानाम्, तथा तिर्यक्षु पञ्चेन्द्रियेषु चतम्रो योनिलक्षाः, चतुर्दश योनिलक्षा मनुष्येषु । सर्वसङ्ख्यया चतुरशीतिर्योनिलक्षा भवन्ति । 15 उक्तं च- 'नभस्वतः सप्त जलस्य चाग्नेः, क्षितेस्तथा ताश्च निगोदयोद्धे । स्मृताश्चतस्रः किल नारकाणां तथा तिरश्चां त्रिदिवौकसां च ॥१॥ त्रिरीरिते द्वे विकलेन्द्रियाणां चतुर्दश स्युर्मनुजन्मनां च । वनस्पतीनां दश योनिलक्षा, अशीतिरेवं चतुरुत्तरा स्यात् ॥२॥' [ ] इति ॥३५१-३५२॥" - इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ [पृ०१८१ पं०१] “उक्ता ज्योतिष्कविमानवक्तव्यता, सम्प्रति वैमानिकदेवविमानवक्तव्यतामाह- 20 बत्तीसट्ठावीसा बारस अट्ठ य चउरो सयसहस्सा । आरेण बंभलोगा विमाणसंखा भवे एसा ॥११७॥ व्या० ब्रह्मलोकात् ब्रह्मलोकचरमपर्यन्तादारतोऽर्वाक् । किमुक्तं भवति ? ब्रह्मलोकमभिव्याप्य एषा विमानसङ्ख्या भवति, तद्यथा-सौधर्मे कल्पे द्वात्रिंशद्विमानानां शतसहस्राणि ३२००००० । ईशानदेवलोकेऽष्टाविंशतिः २८००००० । सनत्कुमारकल्पे द्वादश १२००००० । माहेन्द्रकल्पेऽष्टौ ८००००० । ब्रह्मलोके कल्पे चत्वारि ४००००० ॥११७॥ तथा– पन्नास चत्त 25 छच्चेव सहस्सा लंतसुक्कसहस्सारे । सय चउरो आणयपाणएसु तिनारणच्चुयए ॥११८॥ व्या० अत्रापि पूर्वार्धे कल्पक्रमेण सङ्ख्यापदयोजना । लान्तके कल्पे पञ्चाशद्विमानानां सहस्राणि ५००००। महाशुक्रे कल्पे चत्वारिंशत्सहस्राणि ४०००० । सहस्रारे कल्पे षट् सहस्राणि ६००० । तथा आनतप्राणतयोर्द्वयोः कल्पयोः समुदितयोश्चत्वारि विमानशतानि ४०० । आरणाच्युतयोर्द्वयोः कल्पयोः समुदितयोस्त्रीणि विमानशतानि ३०० ॥११८।। तथा- इक्कारसुत्तरं हिटिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए। 30 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥११९॥ व्या० अधस्तनेषु त्रिषु ग्रैवेयकेषु समुदितेषु विमानानामेकादशोत्तरशतम् १११ । मध्यमे ग्रैवेयकत्रिके समुदिते सप्तोत्तरं विमानानां शतम् १०७ । उपरितने ग्रैवेयकत्रिके समुदिते शतमेकं विमानानाम् १०० । सर्वपर्यन्तवर्तिनि तु चरमे प्रस्तटे पञ्चैवानुत्तरविमानानि, न विद्यते उत्तरं प्रधानं परं वा येभ्यस्तान्यनुत्तराणि, तानि च तानि विमानानि 5 च अनुत्तरविमानानि ॥११९॥” इति बृहत्संग्रहण्या मलयगिरिसूरिविरचितायां टीकायाम् । [पृ०१८९ पं०२] “भिक्खूपडिमाण दारा ४ । अधिकारो उवधाणेण । जतो आह-भिक्खूणं उवधाणे० गाथा ४७ ॥ भिक्खूणं उवहाणे पगयं तत्थ व हवन्ति निक्खेवा । तिन्नि य पुव्वद्दिट्ठा पगयं पुण भिक्खुपडिमाए ॥१॥ पगयं अधिगारो, णामनिप्फण्णे भिक्खू पडिमा य दुपयं णाम, भिक्खू वण्णेयव्वो पडिमा य । तत्थ भिक्खु त्ति तस्सिं भिक्खुम्मि पडिमासु य 10 णिक्खेवो णामादी ४, दोसु वि तिनि णामट्ठवणादव्वभिक्खू य पुव्वुद्दिट्ठा, स भिक्खूए अधिगारो भावभिक्खूए अधिगारो | भावभिक्खुणो तस्स वि पडिमासु, तासि णामादि तिन्नि पुव्ववण्णिता, उवासगपडिमासु। पगतं अधिगारो भावपडिमाए, सा च भावपडिमा पंचविधा, तंजधा-समाधि० गाथा ४८॥ समाहिओवहाणे य विवेकपडिमाइ य । पदिसंलीणा य तहा एगविहारे य पंचमीया 15 ॥२॥ समाधिपडिमा, उवधाणपडिमा, विवेगपडिमा, पडिसंलीणपडिमा, एगविधारपडिमा । समाधिपडिमा द्विविधा- सुतसमाधिपडिमा चरित्तसमाधिपडिमा य, दर्शनं तदन्तर्गतमेव । सुतसमाधिपडिमा। छावहिँ कहिं ? उच्यते-आयारे० गाथा ४९ ॥ ___आयारे बायाला पडिमा सोलस य वन्निया ठाणे । चत्तारि अ ववहारे मोए दो दो चंदपडिमाओ ॥३॥ आयारे बातालीसं, कहं ? आयारग्गेहिं सत्तत्तीसं, बंभचेरेहिं पंच, एवं 20 बातालीसं आयारे, ठाणे सोलस विभासितव्वा, ववहारे चत्तारि, दो मोयपडिमातो खुड्डिगा महल्लिगा य मोयपडिमा, दो चंदपडिमा - जवमज्झा वइरमज्झा य । एवं एता सुयसमाधिपडिमा छावडिं। एवं च सुयसमाधिपडिमा छावट्ठिया य पन्नत्ता। समाईयमाईया चारित्तसमाहिपडिमाओ ॥४॥ ५०। इमा पंच चारित्तसमाहिपडिमातो तंजधा-सामाइयचरित्तसमाधिपडिमा जाव अधक्खातचरित्त समाधिपडिमा । उवहाणपडिमा दुविधा-भिक्खूणं० गाथा० ५१ ॥ 25 भिक्खूणं उवहाणे उवासगाणं च वन्निया सुत्ते । गणकोवाइविवेगो सन्भिंतरबाहिरो दुविहो ॥५॥ भिक्खूणं उवहाणे बारसपडिमा सुत्ते वन्निजति । उवासगाणं एक्कारस सुत्ते वण्णिता । विवेगपडिमा एक्का सा पुण कोहादि, आदिग्रहणात् सरीर-उवधि-संसारविवेगा । सा समासतो दुविधा-अम्भिंतरगा बाहिरा य । अभिंतरिया कोधादीणं । आदिग्रहणात् माणमायालोभकम्मसंसाराण य। बाहिरिया गणसरीरभत्तपाणस्स य अणेसणिज्जस्स । पडिसलीणपडिमा चउत्था । सा एक्का 30 चेव। सा पुण समासेण दुविधा-इंदियपडिसलीणपडिमा य नोइंदियपडिसलीणपडिमा य । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ तृतीयं परिशिष्टम् । इंदियसंलीणपडिमा पंचविधा-सोतिंदियमादीया० गाथा ५२॥ सोइंदियमादीआ पदिसलीणया चउत्थिया दुविहा । अट्ठगुणसमग्गस्स य एगविहारिस्स पंचमिया ॥६॥ सोतिंदियविसयपयारणिसेहो वा सोतिदियपजुत्तेसु वा अत्थेसु रागद्दोसणिग्गहो । एवं पंचण्ह वि । णोइंदियपडिसंलीणता तिविधाजोगपडिसलीणता कसायपडिसलीणता विवित्तसयणासणसेवणता जधा पन्नत्तीए । अहवा अभिंतरिया बाहिरगा य । एगविहारिस्स एगा चेव, सा य कस्स कप्पति ? आयरियस्स अट्ठगुणोववेतस्स, 5 अट्ठ गुणा आयारसंपदादी समग्गो उववेतो, किं सव्वस्सेव ? नेत्युच्यते-जो सो अतिसेसं गुणेति विज्जादि पव्वेसु । उक्तं च- 'अंतो उवस्सगस्स एगरातं वा दुरातं वा तिरातं वा वसभस्स वा गीतत्थस्स विजादिनिमित्तं' [ ] । एवं छण्णउतिं सव्वग्गेण भावपडिमा ।"- इति दशाश्रुतस्कन्धचूर्णी सप्तम्यां दशायाम् । [पृ०१८९ पं०१०] “मासाई सत्तंता पढमा बिइतइयसत्तराइदिणा । अहराई एगराई 10 भिक्खूपडिमाण बारसगं ॥१८॥३॥ मासा० गाहा । मासादयो मासप्रभृतयः । सप्तान्ताः सप्तमासावसानाः । एकैकमासवृद्ध्या सप्त प्रतिमा भवन्ति । तत्र मासः परिमाणमस्या मासिकी प्रथमा, एवं द्विमासिकी द्वितीया, त्रिमासिकी तृतीया यावत्सप्तमासिकी सप्तमी । पढमा-बिइतइय सत्तराइदिण त्ति सप्तानामुपरि प्रथमा द्वितीया तृतीया च सप्त रात्रि-दिनानि रात्रिंदिवानि यस्यां सा तथा प्रतिमा भवति । तदभिलापश्चैवम्- प्रथमा सप्तरात्रिंदिवेत्यादि । एताश्चादितः क्रमेणाष्टमी 15 नवमी दशमी चेति । अहराइ त्ति । अहोरात्रं परिमाणमस्या अहोरात्रिकी एकादशी । एका रात्रिर्यस्यां सा एकरात्रिरेकरात्रिकीत्यर्थः, द्वादशीति । एवं भिक्षुप्रतिमानामुक्तार्थानां द्वादश परिमाणमस्येति द्वादशकं वृन्दं भवतीति गाथासमासार्थः । पं०११] दंसणवयसामाइयपोसहपडिमाअबंभसच्चित्ते । आरंभपेसउद्दिट्ठवजए समणभूए य ॥१०॥३॥ दंसण० गाहा । दर्शनं च सम्यग्दर्शनम् । व्रतानि चानुव्रतादीनि । सामायिकं 20 च सावद्येतरयोगवर्जनासेवास्वभावम् । पौषधं च पर्वदिनानुष्ठेयमुपवासादि । प्रतिमा च कायोत्सर्गः। अब्रह्म चाब्रह्मचर्यम् । सचित्तं च सचेतनद्रव्यमिति । समाहारद्वन्द्वः । ततस्तस्मिन् विषये । प्रतिमेति प्रकरणगम्यम् । इह च दर्शनादिषु पञ्चसु विधिद्वारेण प्रतिमा, अब्रह्मसचित्तयोस्तु वर्जनद्वारेणेति । तथा आरम्भश्च स्वयं कृष्यादिकरणम्, प्रेषश्च प्रेषणं परेषां कृष्यादिषु प्रवर्तनम्, उद्दिष्टं चाधिकृतं श्रावकमुद्दिश्य सचेतनं सदचेतनीकृतं पक्वं वा, यो वर्जयति परिहरतेऽसावारम्भ-प्रेषोद्दिष्टवर्जकः 25 प्रतिमेति प्रकृतमेव । इह च प्रतिमाप्रतिमावतोरभेदादेवमुपन्यासः । तथा श्रमण: साधुः स इव यः सः श्रमणभूतः । भूतशब्दस्योपमानार्थत्वात् । इहापि प्रतिमाप्रतिमावतोरभेदेनोपन्यासः । चशब्दः समुच्चयार्थः । एतासां च दर्शनप्रतिमा व्रतप्रतिमेत्येवमादिरभिलापो द्रष्टव्यः । इति द्वारगाथासमासार्थः ।।१०।३॥” इति पञ्चाशकस्य श्रीअभयदेवसूरिविरचितायां टीकायाम् ॥ [पृ०१९१ पं०१] “सम्प्रति निषधस्य जीवामाह- चउणउइ सहस्साई, छप्पन्नहियं सयं 30 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । कलाउ दो य । जीवा निसहस्सेसा, धणुपट्टे से इमं होइ ॥६०।। व्या० निषधस्य निषधवर्षधरस्य जीवा एषा यदुत चतुर्नवतिर्योजनानां सहस्राणि शतमेकं षट्पञ्चाशदधिकं द्वे च कले । तथाहिनिषधस्यावगाहः षड् लक्षाः त्रिंशत्सहस्राणि ६३००००, अनेन जम्बूद्वीपविष्कम्भः कलारूप एकोनविंशतिलक्षप्रमाण ऊनः क्रियते, जातं शेषं द्वादश लक्षाः सप्ततिसहस्राणि १२७००००, 5 एतद्यथोक्तेनावगाहेन गुण्यते, जातः अष्टकः शून्यं शून्यम् एककः अष्टौ शून्यानि ८००१००००००००। एष राशिभूयश्चतुर्भिर्गुण्यते, जातः त्रिकः द्विकः शून्यं शून्यं चतुष्कः शून्यान्यष्टौ ३२००४००००००००। एष निषधस्य जीवावर्गः, अस्य वर्गमूलानयने लब्ध एककः सप्तकः अष्टकः अष्टकः नवकः षट्कः षट्कः १७८८९६६ । शेषमिदं षट्कः पञ्चकः शून्यमष्टकः चतुष्कः चतुष्कः ६५०८४४ । छेदराशिः त्रिकः पञ्चकः सप्तकः सप्तकः नवकः त्रिकः द्विकः ३५७७९३२ । वर्गमूललब्धस्य तु 10 राशेर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भागो ह्रियते, लब्धानि योजनानां चतुर्नवतिसहस्राणि शतमेकं षट्पञ्चाशदधिकं द्वे च कले ९४१५६ क० २ । धनुःपृष्ठं धनुःपृष्ठपरिमाणं 'से' तस्य निषधपर्वतस्येदं वक्ष्यमाणं भवति ॥६०॥” इति बृहत्क्षेत्र० मलय० । [पृ०१९४ पं०११] “नव चेव सहस्साइं, छावट्ठाइं सयाई सत्तेव । सविसेस कला चेगा, दाहिणभरहद्धधणुपढें ॥४३॥ व्या० दक्षिणभरतार्धधनुःपृष्ठं धनुःपृष्ठपरिमाणं नव सहस्राणि 15 सप्त शतानि षट्षष्टानि षट्षष्ट्यधिकानि, कला चैकोनविंशतिभागरूपा एका सविशेषा ९७६६ क० १ किञ्चिद्विशेषाधिका, तथाहि- धनुःपृष्ठस्य करणमिदम्- इषुवर्गं षड्गुणं जीवावर्गे प्रक्षिप्य यत्तस्य वर्गमूलं तद्धनुःपृष्ठमिति । तत्र दक्षिणभरतार्धस्येषुः कलारूपः पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चविंशत्यधिकानि ४५२५, अस्य वर्गो द्विकः शून्यं चतुष्कः सप्तकः पञ्चकः षट्कः द्विकः पञ्चकः २०४७५६२५। एष षड्भिर्गुण्यते, जात एककः द्विकः द्विकः अष्टकः पञ्चकः त्रिकः सप्तकः पञ्चकः 20 शून्यम् १२२८५३७५०, एष राशिदक्षिणभरतार्धस्य सत्के जीवावर्गे त्रिकश्चतुष्कस्त्रिकः शून्यमष्टक: शून्यं नवकः सप्तकः पञ्चकः शून्यं शून्यम् ३४३०८०९७५०० इत्येवंरूपे प्रक्षिप्यते, ततो जातो राशिः त्रिकः चतुष्कः चतुष्कः त्रिकः शून्यं नवकः पञ्चकः एककः द्विकः पञ्चकः शून्यम् ३४४३०९५१२५० । अस्य वर्गमूले लब्धम् एककः अष्टकः चत्वारः पञ्चकाः १८५५५५ । शेषस्तूपरितनो राशिर्द्विकः नवकः त्रिकः द्विकः द्विकः पञ्चकः २९३२२५, छेदराशिः त्रिकः सप्तकः 25 त्रय एककाः शून्यम् ३७१११० । वर्गमूललब्धस्य तु राशेर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भागो ह्रियते, लब्धानि योजनानां नव सहस्राणि सप्त शतानि षट्षष्ट्यधिकानि कला चैका ९७६६ क० १ ॥४३॥ [पं०.१४] साम्प्रतमस्यैव वैताढ्यपर्वतस्य धनुःपृष्ठमाह- दस चेव सहस्साइं, सत्तेव सया हवंति तेयाला । धणुपटुं वेयडे, कला य पन्नरस हवंति ॥४५।। व्या० दश सहस्राणि सप्त 30 शतानि त्रिचत्वारिंशानि त्रिचत्वारिंशदधिकानि योजनानां कलाश्च पञ्चदश भवन्ति १०७४३ क० Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् । १५ वैताढ्यस्य धनुःपृष्ठम् । तथाहि- वैताढ्यस्येषुः कलानां चतुःपञ्चाशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ५४७५, अस्य वर्गो विधीयते जातो द्विकः नवकः नवकः सप्तकः पञ्चकः षट्कः द्विकः पञ्चकः २९९७५६२५ । भूय एष राशिः षड्भिर्गुण्यते, जात एककः सप्तकः नवकः अष्टकः पञ्चकः त्रिकः सप्तकः पञ्चकः शून्यम् १७९८५३७५० । एष राशिर्वैताढ्यसत्के जीवावर्गे चतुष्कः एककः चतुष्कः नवकः शून्यं शून्यं नवकः सप्तकः पञ्चकः शून्यं शून्यम् ४१४९००९७५०० इत्येवंरूपे प्रक्षिप्यते, 5 ततो जातमिदम्- चतुष्कः एककः षट्कः षट्कः नवकः नवकः पञ्चकः एककः द्विकः पञ्चकः शून्यम् ४१६६९९५१२५० । अस्य वर्गमूलानयने लब्धं द्वे लक्षे चत्वारि सहस्राणि शतमेकं द्वात्रिंशदधिकं कलानाम् २०४१३२ । शेषस्तूपरितनो राशिस्तिष्ठति सप्तसप्ततिसहस्राणि अष्टौ शतानि षड्विंशत्यधिकानि ७७८२६, छेदराशिश्चतम्रो लक्षा अष्टौ सहस्राणि द्वे शते चतुःषष्ट्यधिके ४०८२६४। वर्गमूललब्धस्तु राशिर्योजनकरणार्थमेकोनविंशत्या भज्यते, लब्धानि योजनानां दश 10 सहस्राणि सप्त शतानि त्रिचत्वारिंशदधिकानि कलाः पञ्चदश १०७४३ क० १५ ॥४५॥” इति बृहत्क्षेत्रसमासे मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ [पृ०२०८ पं०१९] दिगम्बरपरम्परायां तत्त्वार्थराजवार्तिके यादृशमाचाराङ्गादिस्वरूपं वर्णितं तदनोपन्यस्यते- “अङ्गप्रविष्टमाचारादिद्वादशभेदं बुद्ध्यतिशयर्द्धियुक्तगणधरानुस्मृतग्रन्थरचनम् ।१२। भगवदर्हत्सर्वज्ञहिमवन्निर्गतवाग्गङ्गाऽर्थविमलसलिलप्रक्षालितान्तःकरणैः बुद्ध्यतिशयर्द्धियुक्तैर्गण- 15 धरैरनुस्मृतग्रन्थरचनम् आचारादिद्वादशविधमङ्गप्रविष्टमित्युच्यते । तद्यथा-आचारः, सूत्रकृतम्, स्थानम्, समवायः, व्याख्याप्रज्ञप्तिः, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययनम्, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरणम्, विपाकसूत्रम्, दृष्टिवाद इति ।। आचारे चर्याविधानं शुद्ध्यष्टकपञ्चसमितित्रिगुप्तिविकल्पं कथ्यते ।। सूत्रकृते ज्ञानविनयप्रज्ञापना कल्प्याकल्प्यच्छेदोपस्थापना व्यवहारधर्मक्रियाः प्ररूप्यन्ते । 20 स्थाने अनेकाश्रयाणामर्थानां निर्णयः क्रियते । समवाये सर्वपदार्थानां समवायश्चिन्त्यते । स चतुर्विधः-द्रव्यक्षेत्रकालभावविकल्पैः। तत्र धर्माऽधर्मास्तिकायलोकाकाशैकजीवानां तुल्याऽसंख्येयप्रदेशत्वात् एकेन प्रमाणेन द्रव्याणां समवायनाद् द्रव्यसमवायः । जम्बूद्वीपसर्वार्थसिद्ध्यप्रतिष्ठाननरकनन्दीश्वरैकवापीनां तुल्ययोजनशतसहस्रविष्कम्भप्रमाणेन क्षेत्रसमवायनात् क्षेत्रसमवायः। उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योस्तुल्यदशसागरोपमकोटिकोटिप्रमाणात् 25 कालसमवायनात् कालसमवायः । क्षायिकसम्यक्त्वकेवलज्ञानकेवलदर्शनयथाख्यातचारित्राणां यो भावः तदनुभवस्य तुल्यानन्तप्रमाणत्वात् भावसमवायनाद् भावसमवायः । व्याख्याप्रज्ञप्तौ षष्टिव्याकरणसहस्राणि 'किमस्ति जीवः, नास्ति' इत्येवमादीनि निरूप्यन्ते । ज्ञातृधर्मकथायाम् आख्यानोपाख्यानानां बहुप्रकाराणां कथनम् । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । उपासकाध्ययने श्रावकधर्मलक्षणम् । संसारस्यान्तः कृतो यैस्ते अन्तकृतः । नमिमतङ्गगसोमिलरामपुत्रसुदर्शनयमलीकवलीककिष्कम्बलपालाम्बष्ठपुत्रा इत्येते दश वर्धमानतीर्थङ्करतीर्थे । एवमृषभादीनां त्रयोविंशतेस्तीर्थेष्वन्येऽन्ये च दश दशानगारा दश दश दारुणानुपसर्गानिर्जित्य कृत्स्नकर्मक्षयादन्तकृतः दश अस्यां वर्ण्यन्ते इति 5 अन्तकृद्दशा । अथवा, अन्तकृतां दशा अन्तकृद्दशा, तस्याम् अर्हदाचार्यविधिः सिध्यतां च। उपपादो जन्म प्रयोजनं येषां त इमे औपपादिकाः, विजयवैजयन्तजयन्तापराजितसर्वार्थसिद्धाख्यानि पञ्चानुत्तराणि, अनुत्तरेष्वौपपादिका अनुत्तरौपपादिकाः ऋषिदास-धान्य-सुनक्षत्र-कार्तिक-नन्द-नन्दनशालिभद्र-अभय-वारिषेण-चिलातपुत्रा इत्येते दश वर्धमानतीर्थकरतीर्थे । एवमृषभादीनां त्रयोविंशतेस्तीर्थेष्वन्येऽन्ये च दश दशानगारा दश दश दारुणानुपसर्गानिर्जित्य विजयाद्यनुत्तरेषूत्पन्ना 10 इत्येवमनुत्तरौपपादिकाः दशास्यां वर्ण्यन्त इत्यनुत्तरौपपादिकदशा । अथवा, अनुत्तरौपपादिकानां दशा अनुत्तरौपपादिकदशा, तस्यामायुर्वैक्रियिकानुबन्धविशेषः । ___ आक्षेपविक्षेपैर्हेतुनयाश्रितानां प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम्, तस्मिंल्लौकिकवैदिकानामर्थानां निर्णयः । विपाकसूत्रे सुकृतदुःकृतानां विपाकश्चिन्त्यते । 15 द्वादशमङ्गं दृष्टिवाद इति । कौत्कल-काणेविद्धि-कौशिक-हरिस्मश्रु-मांछपिक-रोमश-हारीत मुण्डा-ऽश्वलायनादीनां क्रियावाददृष्टीनामशीतिशतम्, मरीचिकुमार-कपिलोलूक-गार्ग्य-व्याघ्रभूतिवाद्वलि-माठर-मौद्गल्यायनादीनामक्रियावाददृष्टीनां चतुरशीतिः, साकल्य-वल्कल-कुथुमि-सात्यमुनिनारायण-कठ -माध्यन्दिन-मोद-पैप्पलाद- बादरायणाम्बष्ठि - कृ दौ विकायन-वसु जैमिन्यादीनामज्ञानिकुदृष्टीनां सप्तषष्टिः, वशिष्ठ-पाराशर-जनुकर्णि-वाल्मीकि-रोमहर्षिणि-सत्यदत्त20 व्यासैलापुत्रौपमन्यवैन्द्रदत्तायस्थूणादीनां वैनयिकदृष्टीनां द्वात्रिंशत् । एषां दृष्टिशतानां त्रयाणां त्रिषष्ट्युत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते । स पञ्चविधः-परिकर्म सूत्रं प्रथमानुयोगः पूर्वगतं चूलिका चेति।" इति तत्त्वार्थराजवार्तिके १२२०॥ [पृ०२१३ पं० ६] "पज्जायाऽणभिधेयं ठिअमण्णत्थे तयत्थनिरवेक्खं । जाइच्छिअं च नामं जावदव्वं च पाएण ॥२५॥ यत् कस्मिंश्चिद् भृतकदारकादौ इन्द्राद्यभिधानं क्रियते, तद् 25 नाम भण्यते । कथंभूतं तत् ?, इत्याह- पर्यायाणां शक्र-पुरन्दर-पाकशासन-शतमख-हरिप्रभृतीनां समानार्थवाचकानां ध्वनीनामनभिधेयमवाच्यम्, नामवतः पिण्डस्य संबन्धी धर्मोऽयं नाम्न्युपचरितः, स हि नामवान् भृतकदारकादिपिण्डः किलैकेन संकेतितमात्रेणेन्द्रादिशब्देनैवाऽभिधीयते, न तु शेषैः शक्र-पुरन्दर-पाकशासनादिशब्दैः, अतो नामयुक्तपिण्डगतधर्मो नाम्न्युपचरितः पर्यायानभिधेयमिति । पुनरपि कथंभूतं तन्नाम ?, इत्याह- ठिअमण्णत्थे त्ति विवक्षिताद् भृतकदारकादिपिण्डादन्य30 श्चासावर्थश्चाऽन्यार्थो देवाधिपादिः, सद्भावतस्तत्र यत् स्थितम्, भृतकदारकादौ तु संकेतमात्रतयैव Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं परिशिष्टम् । वर्तते, अथवा सद्भावतः स्थितमन्वर्थे अनुगतः संबद्धः परमैश्वर्यादिकोऽर्थो यत्र सोऽन्वर्थः शचीपत्यादिः, सद्भावतस्तत्र स्थितम्, भृतकदारकादौ तर्हि कथं वर्तते ?, इत्याह-तदर्थनिरपेक्षं तस्येन्द्रादिनाम्नोऽर्थस्तदर्थः परमैश्वर्यादिस्तस्य निरपेक्षं संकेतमात्रेणैव तदर्थशून्ये भृतकदारकादौ वर्तते, इति पर्यायानभिधेयम्, स्थितमन्यार्थे, अन्वर्थे वा, तदर्थनिरपेक्षं यत् क्वचिद् भृतकदारकादौ इन्द्राद्यभिधानं क्रियते तद् नाम, इतीह तात्पर्यार्थः । प्रकारान्तरेणाऽपि नाम्नः स्वरूपमाह- यादृच्छिकं 5 चेति, इदमुक्तं भवति- न केवलमनन्तरोक्तम्, किन्त्वन्यत्राऽवर्तमानमपि यदेवमेव यदृच्छया केनचिद् गोपालदारकादेरभिधानं क्रियते, तदपि नाम, यथा डित्थो डवित्थ इत्यादि । इदं चोभयरूपमपि कथंभूतम् ?, इत्याह- यावद्र्व्यं च प्रायेणेति -यावदेतद्वाच्यं द्रव्यमवतिष्ठते तावदिदं नामाऽप्यवतिष्ठत इति भावः । किं सर्वमपि ?, न, इत्याह- प्रायेणेति, मेरु-द्वीप-समुद्रादिकं नाम प्रभूतं यावद्र्व्यभावि दृश्यते, किञ्चित् त्वन्यथाऽपि समीक्ष्यते, देवदत्तादिनामवाच्यानां द्रव्याणां 10 विद्यमानानामप्यपरापरनामपरावर्तस्य लोके दर्शनात् । सिद्धान्तेऽपि यदुक्तम्-“नामं आवकहिअं" [ ]ति तत् प्रतिनियतजनपदादिसंज्ञामेवाऽङ्गीकृत्य, यथोत्तराः कुरव इत्यादि । तदेवं प्रकारद्वयेन नाम्नः स्वरूपमत्रोक्तम्, एतच्च तृतीयप्रकारस्योपलक्षणम्, पुस्तक-पत्र-चित्रादिलिखितस्य वस्त्वभिधानभूतेन्द्रादिवर्णावलीमात्रस्याऽप्यन्यत्र नामत्वेनोक्तत्वादिति । एतच्च सामान्येन नाम्नो लक्षणमुक्तम्, प्रस्तुते त्वेवं योज्यते-यत्र मङ्गलार्थशून्ये वस्तुनि मङ्गलमिति नाम क्रियते, तद् वस्तु नाम्ना नाममात्रेण 15 मङ्गलमिति कृत्वा नाममङ्गलमित्युच्यते । पुस्तकादिलिखितं च यद् मङ्गलमिति वर्णावलीमात्रम्, तदपि नाम च तद् मङ्गलं चेति कृत्वा नाममङ्गलमित्यभिधीयते ॥ इति गाथार्थः ॥२५॥” इति विशेषावश्यकभाष्ये मलधारिहेमचन्द्रसूरिविरचितायां वृत्तौ । [पृ०२२९ पं०१३] इह यादृशं ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य वर्णनं दृश्यते तादृशमेव प्रायोऽक्षरशः नन्दीसूत्रस्य हरिभद्रसूरिविरचितायां वृत्तौ दृश्यते । किन्तु जिनदासगणिमहत्तरविरचितायां चूर्णी 20 अन्यथा दृश्यते, यथा- “तत्थ णातेसु आदिमा दस णाता चेव, ण तेसु अक्खादियादिसंभवो। सेसा णव णाता, तेसु एक्कक्के णाते चत्तालीसं चत्तालीसं अक्खाइयाओ भवंति, तत्थ वि एक्केक्काए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासताई भवंति, तेसु वि एक्केक्काए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइओवक्खाइयसताई भवंति, एवं एते णव कोडीओ । एताओ धम्मकहासु सोहेतव्व त्ति कातुं एकोणवीसाए णाताणं दसण्ह य धम्मकहाणं विसेसो कजति-दस णाता दस णव य 25 धम्मकहातो दसहिं परोप्परं सुद्धा । एवं विसेसे कते सेसा णव णाता, ते णव चत्तालीसाए गुणिता जाता तिण्णि सता सट्ठा अक्खाइयाणं, एते अक्खाइयपंचसतेहिंतो सोधिता, तत्थ सेसं चत्तालं सतं, तं उवक्खाइयपंचसतेहिं गुणितं जाता उवक्खाइताणं सत्तरिं सहस्सा, ते पंचहिं अक्खाइतोवक्खाइयसतेहिं गुणिता एवं जाता अद्भुट्ठातो अक्खाइयकोडीतो ।” इति नन्दीचूर्णी । अभयदेवसूरिभिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य स्वरूपं यादृशं वर्णितं तादृशमेव वर्णनं विधाय 30 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ कतिपयानि विशिष्टानि टिप्पनानि । हरिभद्रसूरिभिः तत्प्रान्ते “एवं गुरवो व्याचक्षते, अन्ये पुनरन्यथा, तदभिप्राय पुनर्वयमतिगम्भीरत्वान्नावगच्छामः, परमार्थं त्वत्र विशिष्टश्रुतविदो विदन्तीत्यलं प्रसङ्गेन" इति नन्दीटीकायामभिहितम् । चूर्णिकारवचनं मनसि निधायैव तैरेतल्लिखितं भवेदिति प्रतीयते ॥ [पृ०२७६ पं०२३] “णेरइय-देव-तित्थंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा हुंति ।.... ॥६६॥ 5 व्या० नारकाः प्राग्निरूपितशब्दार्थाः, देवा अपि, तीर्थकरणशीलास्तीर्थकराः, नारकाश्च देवाश्च तीर्थकराश्चेति विग्रहः, चशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, अस्य च व्यवहितः सम्बन्ध इति दर्शयिष्यामः, एते नारकादयः अवधेः अवधिज्ञानस्य न बाह्या अबाह्या भवन्ति, इदमत्र हृदयम्अवध्युपलब्धस्य क्षेत्रस्यान्तर्वर्तन्ते, सर्वतोऽवभासकत्वात्, प्रदीपवत्, ततश्चार्थादबाह्यावधय एव भवन्ति, नैषां बाह्यावधिर्भवतीत्यर्थः ।.... अथवा अन्यथा व्याख्यायते- नारक-देव-तीर्थकरा 10 अवधेरबाह्या भवन्तीती, किमुक्तं भवति ? नियतावधय एव भवन्ति, नियमेनैषामवधिर्भवतीत्यर्थः ॥" इति आवश्यकसूत्रे हारिभद्र्यां वृत्तौ । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं परिशिष्टम् । श्रीसमवायाङ्गसूत्रटीकायां ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः। उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः | उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः अंतोमुहुत्तमेत्तं चित्तावत्थाण आयरिय उवज्झाए थेर-... [ ] १८८ मेगवत्थुम्मि [ध्यानश० ३] २३३ आयारम्मि अहीए जं.. [आचा० नि० १०] २०९ अज्ज वि धावइ नाणं... [] ११० |आसाढबहुलपक्खे... [उत्तरा० २६।१५] ९९ अज्ज वि न कोइ विउहं.. [] ११० |आसाढे मासे दुपया [उत्तरा० २६।१३, अट्ठ वग्ग त्ति अत्र.. [नन्दी० हारि०] २३४ | ओघिन० २८३] ८७ अट्ठपएसो रूयगो.. [आचा० नि० ४२] २०५ |इंतस्सणुगच्छणया ८ ठियस्स... [ ] १८७ अट्ठमिचउद्दसीसुं... [पञ्चाशक० १०।१७] ३९ इगवीसं कोडिसयं लक्खा... [नन्दी. हारि०] २२९ अट्ठारसपयसहस्साणि पुण... [नन्दी टी०] ७१ | ईसाणे णं भंते [ ] २६७ अणियाणकडा रामा... [आव० नि० ४१५] ३०६ | उग्गाणं भोगाणं ... [आव. नि० २२५] २९३ अणुवेलंधरवासा लवणे... (बृहत्क्षेत्र० ४२०] ६७ | उवसमसंमत्ताओ... [विशेषाव. भा० ५३१] ५५ अतिकार्यमतिस्थौल्यम्,.. [ ] १६६ | उसभस्स पढमभिक्खा... [आव० नि० ३२०] २९३ अरेण छिन्नसेसं... [ ] ९६ | एए खलु पडिसत्तू.. [आव० भा० ४३] ३०६ अभंतरियं वेलं धरंति... [बृहत्क्षेत्र० ४१७] ६६ एक्कागारं तइयं तं पुण... [बृहत्क्षेत्र० ३१३] १३१ अब्भासच्छण १ छंदाणुवत्तणं.... [ ] १८८ एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु.. [बृहत्क्षेत्र० ११९] १८१ अभिइस्स चंदजोगो... [ज्योतिष्क० १६२] १५८ |एक्कारसेक्कवीसा सय... [बृहत्सं० १०५] ४१ अयले भयभेरवाणं... [पर्युषणा. ] एक्को भगवं वीरो.. [आव. नि० २२४] २९२ अयले विजये भद्दे... [आव० भा० ४१] ३०५ एगं व दो व तिण्णि... निशीथभा० २०७५] ४५ अर-मल्लिअंतरे.. [आव० नि० ४२०] १२८ | एगुत्तरा नव सया... [बृहत्क्षेत्र० ५८] १६७ अवसेसा नक्खत्ता.. [ज्योतिष्क० १६५] १५९ एगिदियतेयगसरीरे... असिणाणवियडभोई मउलियडो... | प्रज्ञापना० सू० १५३६-१५३७] २७४ [पञ्चाशक० १०।१८] ३९ एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि... [लोकश्री टीका] २९ असोगो किण्णराणं... [स्थानाङ्गसू० ६५४] २८ एवं वड्डइ चंदो... [सूर्यप्र० १९] १५२ अस्सग्गीवे तारए मेरए [आव० भा० ४२] ३०६ कक्कोडय कद्दमए... [बृहत्क्षेत्र. ४२१] ६७ अह पावित तो संतो... [ ] ११० कलंबो उ पिसायाणं... [स्थानाङ्गसू० ६५४] २८ आयंगुलेण वत्थु उस्सेहपमाणओ... कायव्वा पुण भत्ती... [ ] १८७ [बृहत्सं० गा० ३४९] ११ | किण्हं राहुविमाणं निच्चं... [बृहत्सं० ११६] ५९ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ७४ श्रीसमवायाङ्गसूत्रटीकायां ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धतानां पाठानामकारादक्रमेण सूचिः । उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः | उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः किण्हं राहुविमाणं निच्चं... [सूर्यप्र० १९] १५२ तेवट्ठि सहस्साई... [बृहत्क्षेत्र० ३१४] १३१ कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्.. [ ] २४ | तेवन्नसहस्साइं नव य... [बृहत्क्षेत्र. ५६] १४४ गावी जुए संगामे.. [आव० प्रक्षेप०] ३०५ |दसणवय [पञ्चाशक० १०॥३] १८९ गोयमा ! जहण्णेणं... [प्रज्ञापना० ६५६९] । २८२ दस चेव सहस्साइं... [बृहत्क्षेत्र० ४५] १९४ चंदजस चंदकंता.. [आव० नि० १५९] दस जोयणसहस्सा... [बृहत्क्षेत्र० ४१५] ६६ २९१ दस नवगं गणाण माणं... [आव० नि० २६८] २९ चउ ४ तिय ३ चउरो ४... [ ] २१८ दाहिण दिवड्ड पलियं... [बृहत्सं० ५] ११ चउणउइसहस्साई... [बृहत्क्षेत्र० ६०] १९१ | |दुविहा पण्णवणा पण्णत्ता... [प्रज्ञापना० ३] २५६ चउवीस सहस्साइं नव य... [बृहत्क्षेत्र० ५२] ८६ | देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि.. चउवीसई मुहुत्ता [बृहत्सं० २८१] २८१] [बृहत्क्षेत्र० ४१६] चत्ताला सत्त सया... [बृहत्क्षेत्र० ५५] १३१,१५७ | देहं विमलसुयंधं [ ] २३६ चत्तारि जोयणसए... [बृहत्क्षेत्र० ४२२] ६७ | दो १ साहि २ सत्त... [बृहत्सं० गा० १२] २२ चूलियसीसपहेलिय चोहस... [ ] १८० |दो देसूणुत्तरिल्लाणं... [बृहत्सं० ५] १५ चेत्तासोएसु मासेसु.. [उत्तरा० २६।१३] १३३,१३० | दो वारे विजयाइसु... [विशेषाव० ४३६] १५६ चोद्दस लक्खा सिद्धा.. [ ] २५३ धणुपट्ठ कलचउक्कं... [बृहत्क्षेत्र० ५३] १५७ धणुपट्ठ कलचउक्कं... [बृहत्क्षेत्र० ५९] १७९ जइ एगिदियवेउव्वियसरीरए किं... धम्मो मंगलमुक्कळं [दशवै० ११] ८२,२४८ [प्रज्ञापना सू० १५१५] २७२ नरकाः सीमन्तकादिका... [सूत्रकृताङ्गवृ० ] २५८ जस्स जइ सागरोवम ठिई... [बृहत्सं० २१४] १३ नव चेव सहस्साइं... [बृहत्क्षेत्र० ४३] १९४ जा पढमाए जेट्ठा...[बृहत्सं० गा० २३४] २२ /नवबंभचेरमइओ अट्ठारसपद.. तह देसकालजाणण ... [ ] १८८ [आचा० नि० ११] २१२ तिण्णि सया तेत्तीसा... [आव० नि० ९७१] १९८ नवबंभचेरमइओ... [आचारा० नि० ११] ७१ तित्थयर १ धम्म २ आयरिय... [ ] १८७ | नवमो य महापउमो.. [आव. नि० ३७५] २९५ तिनेव उत्तराई पुणव्वसू.. [जम्बू० प्र०] १५९ नाणं ५ तराय ५ दसगं... [कर्मस्तव० २।२३] ६८ तिविठू य दुविठू य ... [आव० भा० ४०] ३०५ नाभी जियसत्तू या.. [आव० नि० ३८७] २९२ तिहिं ठाणेहिं तारारूवे.. नारयदेवा तिरिमणुयगब्भया... [ ] २६८ निग्गंथ-सक्क-तावस-... [पिण्डनि० ४४५] २१० [स्थानाङ्ग० सू० १४१] २१९ |निच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद.. [ ] २५९ तीसा य १ पण्णवीसा.. [बृहत्सं० २५५] १७९ | नेरइए णं भंते ! नेरइएसु.. ते सोहिज्जंति फुडं.. [नन्दी० हारि०] २३०| भगवती० ४/९/१७३] २८० Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिशिष्टम् । ७५ १९९ उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः | उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः नेरइयदेवतित्थंकरा य... [आव० नि० ६६] २७६ मोक्षे भवे च सर्वत्र,...[] नेरइया १ असुराई १० पुढवाई... [ ] २५८ | मोत्तूण सगमबाहं पढमाए... [कर्मप्र० ८३] १६२ पंच सए छव्वीसे छच्च.. [बृहत्क्षेत्र० २९] ७४ | यथा गौर्गवयस्तथा [मी० श्लो० वा०] २१३ पंचास ५० चत्त ४... [बृहत्सं० ११८] १८१ | योग-क्षेमकृन्नाथः [] पज्जायाणभिधेय [विशेषाव० २५] २१३ | रत्नं निगद्यते तज्जातौ जातौ यदुत्कृष्टम् [ ] ५६ पढमा बहुलपडिवए १ बीया... रसोर्लशौ मागध्याम् [ ] १२५ ज्योतिष्क० २४७] १६४ लहुहिमव हिमव निसढे... [ ] पढमाऽसीइ सहस्सा १.. [बृहत्सं० २४१] १७३ | विगलिंदिएसु दो दो.. [बृहत्सं० ३५२] १८० पढमेत्थ विमलवाहण.. [आव. नि० १५५] २९१ विज्जुपहमालवंते नव नव... [ ] १९९ पणुवीसं कोडिसयं... [नन्दी. हारि०] २३० विज्जुप्पभहरिकूडो.. [बृहत्क्षेत्र० १५६] २०० पयावती य बंभो... [आव० नि० ४११] २९५ वीरं अरिट्ठनेमि... [आव० नि० २२१] ७४ परिनिव्वुया गणहरा.. [आव० नि० ६५८] २९१ संजयवेमाणित्थी संजयि.. [ ] २३६ पलियं १ अहियं २... [बृहत्सं. गा० १४] २२ संवच्छरेण भिक्खा... [आव० नि० ३१९] । २९३ पिंडेसण १ सेज्जि २ रिया... [आव० सं०] २१२ सक्कार १ अब्भुट्ठाणे २... [ ] १८७ पुढवि-दग-अगणि-... [बृहत्सं० ३५१] १८० सज्झाएण पसत्थं झाणं..... पुणव्वसु रोहिणी.. लोकश्री] [उपदेशमाला. गा० ३३८] पन्नरसइभोगेण य.... [सूर्यप्र० १९] १५२ सटुिं नागसहस्सा... [बृहत्क्षेत्र. ४१८] ६६ पुव्वतुडियाडडाववहूहुय तह... [ ] १८० सत्त पाणूणि से थोवे,... [भगवती०६७।४] १७० पुव्वादिअणुक्कमसो गोथुभ...[बृहत्क्षेत्र० ४१९] ६६ सत्त य छ च्चउ चउरो.. [ ] २१२ पोसे मासे चउप्पया [उत्तरा० २६।१३] १३३ सत्तत्तीस सहस्सा छ.. [बृहत्क्षेत्र० ५४] १३० बत्तीस ३२ अट्ठवीसा... [बृहत्सं० ११७] १८१ सत्तावन्न सहस्सा धj... [बृहत्क्षेत्र. ५७] १४८ बहुलस्स सत्तमीए... [ज्योतिष्क० २५०] १६३ सत्थपरिण्णा १ लोग... [आव० सं०] २११ बाधृलोडने [पा० धा० ५] १६२ बावडिं बावहिँ दिवसे... [सूर्यप्र० १९] १५२ सप्त स्वरास्त्रयो ग्रामा,... [ ] १६६ बाहा सत्तट्ठिसए.. [बृहत्क्षेत्र० ५५] समणुन्नमणुन्ने वा... निशीथभा० २१२४] ४७ भरहो सगरो मघवं.. [आव० नि० ३७४] २९५ सयभिसया भरणीओ अद्दा.. १५९,६० मरुदेवि विजय सेणा.. [आव० नि० ३८५] २९२ __ [जम्बू० प्र० ७।१६०] महुरा य कणगवत्थू.... [आव० प्रक्षेप.] ३०५ |सबट्ठिसद्धगअणुत्तरोववाइय.... २७४ मासाई सत्तंता [पञ्चाशक० १८।३] [प्रज्ञा० सू. १५४४] १८९ मेरुस्स तिन्नि कंडा.. [बृहत्क्षेत्र० ३१२] १३१ | सव्वे वि एगदूसेण.. [आव० नि० २२७] २९२ ___२९ २३३ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्रीसमवायाङ्गसूत्रटीकायां ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादक्रमेण सूचिः । पृष्ठाङ्कः . २१४ २९२ २६८ उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः | उद्धृतपाठः . सव्वेसिं आयारो पढमो [आचा० नि० ८] २५० सूच सूचायाम् [ ] सव्वेसिं उत्तरो मेरु [ ] ६३ | सूरे सुदंसणे कुंभे... [आव. नि० ३८९] सहसंमुईयाए समणे [आचा० सू०७४३] ३ | सेसा य तिरियमणुया... [ ] . मागरमेगं १ तिय २... [बृहत्सं० गा० २३३] २१ सोलस भागे काऊण... . सुग्गीवे दढरहे विण्हू.. [आव० नि० ३८८] २९२] [ज्योतिष्क० १११] सुजसा सुव्वय.. [आव० नि० ३८६] २९२ हट्ठस्स अणवगल्लस्स,... सुद्धस्स चउत्थीए... [ज्योतिष्क० २४८] १६४] [भगवती० ६७।४] सुद्धस्स य दसमीए... [ज्योतिष्क० २५१] १६३ | हरिवासे इगवीसा.. [बृहत्क्षेत्र. ३१] सुमइऽत्थ निच्चभत्तेण... [आव० नि० २२८] २९३ ६०,१५२ १६९ २०६ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ सूर्यप्रज्ञप्ति पञ्चमं परिशिष्टम् । श्रीसमवायाङ्गसूत्रटीकायां निर्दिष्टानां विशेषनाम्नामकारादिक्रमेण सूचिः । विशेषनाम पृष्ठाङ्कः विशेषनाम पृष्ठाङ्कः वर्धमान [स्वामी] १,२,३०८ १५२ वर्धमान[सूरि] ३०९ जीवाभिगम १५२,१५८ सुधर्म स्वामी] २,४०,३०८ विमल [नाथ] १४७ महावीर स्वामी] २,३,३५,१३४,१५५, वासुपूज्य १५२ १७१,१८२,१९२, | अनन्तजित् १४१,१४२ १९७,३०८ अनन्तनाथ १४५ जम्बूनामन् २ वीरनाथ १३९ स्थान [= स्थानाङ्गसूत्र ८,२९,१४८,१६०, अरनाथ १२८ १८९,२१८ मल्लिनाथ १२८ चन्द्रप्रज्ञप्ति २६,९९,१७१ कुन्थुनाथ ११८,१२९,१३०, पर्युषणाकल्प २९,१३४,२९९ आवश्यक सूत्र २९,८९,१२८,१३०, । १३९,१४०,१४२, ब्राह्मी[=ऋषभदेवपुत्री] ७१ १४५,१४७,१४९, ब्राह्मी लिपि ७१ १५५,१५६,१६७, मकरसङ्क्रान्ति १७७,१८६,२९९ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति १२१,१६० लोकश्री निशीथ [भाष्य] ९५,९६,१४८,१८१, लोकाश्रीटीकाकृत् २९ २१२ आचार [=आचाराङ्गसूत्र] ३२,७१,९५,१४२, कौटिल्यशास्त्र ११२ १४७,१७९,१८१, राजप्रश्नकृत ११८ १८९,२०९,२२१, दशाश्रुतस्कन्ध १२०,१८९ २४९ पापा मध्यमा नगरी] १४६ अस्थिकग्राम हस्तिपाल [राजा] १४६ शूलपाणियक्ष विमुक्ति[अध्ययन] १४८ जम्बूस्वामी ४०,३०८ मौर्यपुत्र [गणधर] १५५,१९२ निशीथपञ्चमोद्देशकभाष्य मण्डिकपुत्र [गणधर] १५५,१७७ ज्योतिष्करण्डक ६०,१६३ क्षेत्रसमास सूत्रकृत[-सूत्रकृताङ्गसूत्र] ६३,८४,१४८,२१४ |अजित [नाथ] १६४,१८६,२५३ २९ ३५ ४८ १५१ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ समवायाङ्गटीकायां निर्दिष्टानां विशेषनाम्नामकारादिक्रमेण सूचिः । विशेषनाम पृष्ठाङ्कः २३३ १७९ विशाखिल १६६ भरतशास्त्र १६६ अग्निभूति १६७ भरत [चक्रवर्ती] १६९,१७७ सुविधि[नाथ] १६८ पुष्पदन्त [नाथ] १६८ शीतल[नाथ] १६८,१७७ भगवती सूत्र १७०,१७९ अकम्पित[गणधर] १७१ त्रिशिला[महावीरमाता] १७६,२०८ देवानन्दा १७६,२०८ हरिनैगमेषि १७६,२०८ कोशलदेश १७७ श्रेयांसजिन शान्तिजिन[= शान्तिनाथ] १६८,१८६ व्यवहार[सूत्र] १८९ इन्द्रभूति[गणधर] १८९ ऋषभकूट २०० पार्श्वनाथ १९७ आर्यसुधर्मा [गणधर] १९७ पोट्टिल नन्दन[महावीरपूर्वभवनाम] २०८ छत्राग्रनगरी २०८ ब्राह्मकुण्ड[माहणकुण्ड] २०८ ऋषभदत्त २०८ क्षत्रियकुण्ड २०८ सिद्धार्थ[=महावीरपिता] २०८ शाक्य २१० शस्त्रपरिज्ञा २१२ व्याख्या[प्रज्ञप्ति] २२३,२८० समवाय[= समवायाङ्गसूत्र] २२०,३०९ ज्ञाताधर्मकथा २२६ | विशेषनाम पृष्ठाङ्कः | मेघकुमार २२६ उपासकदशा २३१ अन्तकृतदशा नन्दी २३४ नन्दीवृत्ति २३४ अनुत्तरोपपातिकदशा २३६,२३७ प्रश्नव्याकरणानि २३८ विपाकश्रुत २४२ गौतम २४२,२७३ दष्टिवाद[दृष्टिपात] २४७ मूलप्रथमानुयोग २५२ गण्डिकानुयोग २५२ विमलवाहन[कुलकर] २५३ समुद्रविजय नेमिनाथपिता] २५३ ऋषभदेव] १६९,२०८,२५३, २९३ चित्रान्तरगण्डिका २५३ नन्दिटीका जमालि २५४ गोष्ठामाहिल प्रज्ञापना २५६,२६७,२६८, २६९,२७१,२७३, २७४,२७७,२७८ सूत्रकृवृत्तिकृत् २५८ जीवाभिगमचूर्णि २५८ कल्पभाष्य २९१ जिनेश्वर [सूरि] ३०९ बुद्धिसागर[सूरि] ३०९ अभयदेव[सूरि] अणहिलपाटक ३०९ |समवायटीका ३०९ २५३ २०८ २५४ ३०९ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं परिशिष्टम् । तित्थोगालियप्रकीर्णके विद्यमानाः आगमवाचनादि - विच्छेदसम्बन्धिनः अंशाः । अम्हं आयरियाणं सुतीए कण्णाहडं च सोउं जे । तित्थोगाली एयं एगमणा मे निसामेह ॥७०७।। तिण्णिय वासा मासट्ठ अद्ध बावत्तरी च सेसाई । सेसाए चउत्थीए तो जातो वड्डमाणरिसी ॥७०८।। अट्ट य सऽद्धा मासा तिन्नेव हवंति तह य वासाई । सेसाए चउत्थीए तो कालगतो महावीरो ॥७०९।। तम्मि गए गयरागे वोच्छिन्नपुणब्भवे जिणवरिंदे । तित्थोगालिसमासं एगमणा मे निसामेह ॥७१०॥ नाणुत्तमस्स धम्मुत्तमस्स धम्मियजणोवदेसस्स । आसि सुधम्मो सीसो वायरधम्मो य (?प)उरधम्मो ॥७११।। तस्स वि य जंबुणाभो जंबूणयरासितवियसमवण्णो । तस्स वि पभवो सीसो, तस्स वि सेजंभवो सीसो ॥७१२॥ सेजंभवस्स सीसो जसभद्दो नाम आसि गुणरासी । सुंदरकुलप्पसूतो संभूतो नाम तस्सावि ॥७१३।। सत्तमतो थिरबाहू जाणुयसीससुपडिच्छियसुबाहू । नामेण भद्दबाहू अविही(हिं)सा धम्मभद्दो त्ति ॥७१४।। सो वि य चोद्दसपुव्वी बारस वासाई जोगपडिवन्नो । सत्तऽत्थेण निबंधइ अत्थं अज्झयणबंधस्स ॥७१५॥ बलियं च अणावुठ्ठी तइया आसी य मज्झदेसस्स । दुब्भिक्खविप्परद्धा अण्णं विसयं गया साहू ॥७१६।। केहि वि विराहणाभीरुएहिं अइभीरुएहिं कम्माणं । समणेहिं संकिलिलै पच्चक्खायाई भत्ताई ॥७१७।। वेयडकंदरासु य नदीसु सेढी-समुद्दकूलेसु । इहलोगअपडिबद्धा य तत्थ जयणाए वर्टेति ॥७१८।। ते आगया सुकाले सग्गगमणसेसया ततो साहू । बहुयाणं वासाणं मगहाविसयं अणुप्पत्ता ।।७१९।। ते दाई एक्कमेक्कं गयमयसेसा चिरं सुद₹णं । परलोगगमणपच्चागय व्व मण्णंति अप्पाणं ॥७२०।। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थोगालियप्रकीर्णके विद्यमानाः आगमवाचनादि-विच्छेदसम्बन्धिन: अंशाः । ते बेंति एक्कमेक्कं 'सज्झाओ कस्स केत्तिओ धरति?। हंदि हु दुक्कालेणं अम्हं नट्ठो उ सज्झाओ' ।।७२१॥ जं जस्स धरइ कंठे तं तं परियट्टिऊण सव्वेसिं । तो णेहिं पिंडिताई तहियं एक्कारसंगाई ॥७२२॥ ते बेंति “सव्वसारस्स दिट्ठिवायस्स नत्थि पडिसारो । कह पुव्वधरेण विणा पवयणसारं धरेहामो? ॥७२३।। सम्मस्स भद्दबाहुस्स नवरि चोद्दस वि अपरिसेसाई । पुव्वाई अण्णत्थ उ न कहिंचि वि अत्थि पडिसारो ॥७२४।। सो वि य चोद्दसपुव्वी बारस वासाई जोगपडिवन्नो । देज्ज न व देज वा वायणं ति वाहिप्पऊ ताव" ॥७२५॥ संघाडएण गंतूण आणितो संमणसंघवयणेणं ।। सो संघथेरपमुहेहि गणसमूहेहिं आभट्ठो ॥७२६॥ 'तं अजकालियजिणो (?य) वीरसंघो तं (?उ) जायए सव्वो । पुव्वसुयक्कमधारय ! पुव्वाणं वायणं देहि' ॥७२७॥ सो भणति एव भणिए असि (?लि)ट्ठकिलिट्टएण वयणेणं । “न हु ता अहं समत्थो इण्डिं भे वायणं दाउं ॥७२८।। अप्पढे आउत्तस्स मज्झ किं वायणाए कायव्वं ?" एवं च भणियमेत्ता रोसस्स वसं गया साहू ।।७२९।। अह विण्णविंति साहू तं चेव सि पाडिपुच्छणं अम्हं । एव भणंतस्स तुहं को दंडो होइ ? तं मुणसु' ॥७३०॥ सो भणति एव भणिए अविसन्नो वीरवयणनियमेण । 'वजेयव्वो सुयनिण्हतो' त्ति अह सव्वसाहूहिं ॥७३१।। 'तं एव जाणमाणो नेच्छसि ने पाडिपुच्छयं दाउं । तं थाणं पत्तं ते, कह तं पासे ठवीहामो ?' ॥७३२।। बारसविहसंभोगे (य) वज्जए तो तयं समणसंघो । 'जं ने जाइजंतो न वि इच्छसि वायणं दाउं' ॥७३३॥ सो भणति एव भणिए जसभरितो अयसभीरुतो धीरो । “एक्केण कारणेणं इच्छं भे वायणं दाउं ॥७३४।। अप्पट्टे आउत्तो परमढे सुट्ठ दाणि उज्जुत्तो । न वि हं वाहरियव्वो, अहं पि न वि वाहरिस्सामि ॥७३५।। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं परिशिष्टम् । पारियकाउस्सग्गो भत्तट्टितो (? द्वितओ) व अहव सज्झाए । निंतो व अइंतो वा एवं भे वायणं दाहं " ||७३६॥ 'बाढं' ति समणसंघो ‘अम्हे अणुयत्तिमो तुहं छंदं । देहि य, धम्मो(? म्मा)वाहं(? यं) तुम्हं छंदेण घेच्छामो ॥७३७।। जे आसी मेहावी उजुत्ता गहण-धारणसमत्था । ताणं पंचसयाई सिक्खगसाहूण गहियाइं ॥७३८॥ वेयावच्चगरा से एकेक्कसे (स्से)व उव्वि (ट्ठि)या दो दो । भिक्खम्मि अपडिबद्धा दिया य रत्तिं च सिक्खंति ॥७३९।। ते एगसंघसाहू वायणपडिपुच्छणाए परितंता । वाहारं अलहंता तत्थ य जं किंचि असणेता ॥७४०॥ उज्जुत्ता मेहावी सद्धाए वायणं अलभमाणा । अह ते थोवथो(त्थो) वा सव्वे समणा वि निस्सरिया ॥७४१॥ एको नवरि न मुंचति सगडालकुलस्स जसकरो धीरो । नामेण थूलभद्दो अविही(हिं) साधम्मभद्दो त्ति ॥७४२॥ सो नवरि अपरितंतो पयमद्धपयं च तत्थ सिक्खंतो । अन्नेइ भद्दबाहुं थिरबाहू अट्ठ वरिसाइं ॥७४३।। सुंदरअट्ठपयाइं अट्ठहिं वासेहिं अट्ठमं पुव्वं । भिंदति अभिण्णहियतो आमेलेउं अह पवत्तो ॥७४४।। तस्स वि दाई समत्तो तवनियमो एव भद्दबाहुस्स । सो पारिततवनियमो वाहरिउं जे अह पवत्तो ॥७४५॥ अह भणइ भद्दबाहू ‘पढमं ता अट्ठमस्स वासस्स । अणगार ! न हु किलम्मसि भिक्खे सज्झायजोगे य' ॥७४६।। सो अट्ठमस्स वासस्स तेण पढमिल्लयं समाभट्ठो । 'कीस य परितम्मीहं धम्मावाए अहिजंतो' ॥७४७।। एकं ता भे पुच्छं 'केत्तियमेत्तं मि सिक्खितो होजा ? । केत्तियमेत्तं च गयं ? अट्ठहिं वासेहिं किं लद्धं ?' ||७४८।। 'मंदरगिरिस्स पासम्मि सरिसवं निक्खिवेज जो पुरिसो । सरिसवमेतं विगयं मंदरमेत्तं च ते सेसं ' ॥७४९।। सो भणति एव भणिए ‘भीतो न वि ता अहं समत्थो मि । अप्पं च महं आउं बहू (य) सुयमंदरो सेसो' ॥७५०॥ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ तित्थोगालियप्रकीर्णके विद्यमानाः आगमवाचनादि-विच्छेदसम्बन्धिन: अंशाः। 'मा भाहि नित्थरीहिसि अप्प(?य) तरएण वीर ! कालेणं । मज्झ नियमो समत्तो पुच्छाहि दिवा य रत्तिं च' ॥७५१।। सो सिक्खिउं पयत्तो दिट्ठत्थो सुटु दिट्ठिवायम्मि पुव्वक्खतोवसमियं पुव्वगतं पुव्वनिद्दिलं ॥७५२॥ संपति एक्कारसमं पुव्वं अतिवयति वणदवो चेव । झत्ति तओ भगिणीतो दट्ठमणा वंदणनिमित्तं ॥७५३॥ जक्खा य जक्खदिण्णा भूया तह हवति भूयदिण्णा य । सेणा वेणा रेणा भगिणीतो थूलभद्दस्स ॥७५४|| एया सत्तं जणीओ बहुस्सुया नाण-चरणसंपण्णा । सगडालबालियातो भाउं अवलोइउं एंति ॥७५५।। तो वंदिऊण पाए सुभद्दबाहुस्स दीहबाहुस्स । पुच्छंति 'भाउओ णे कत्थ गतो थूलभद्दो ?' त्ति ॥७५६।। अह भणइ नंदराया ‘लाभो ते धीर ! नित्थराहि य णं' । 'बाढं' ति भाणिऊणं अह सो संपत्थितो तत्तो ॥७९३।। अह भणति नंदराया 'वच्चइ गणियाघरं जइ कहंचि । तो णं असच्चवादी तीसे पुरतो विवाएमि' ॥७९४।। सो कुलघरसामिद्धिं गणियाघरसंतियं च सामिद्धिं । पाएण पणोल्लेउं नीती नगरा अणवयक्खो ॥७९५॥ जो एवं पव्वइओ एवं सज्झाय-झाणउज्जुत्तो । गारवकरणेण हिओ सीलभरूव्वहणधोरेयो ||७९६।। जह जह एही कालो तह तह अप्पावराहसंरद्धा । अणगारा पडिणीते निसंसयं उवद्द(?उद्द)वेहिति ॥७९७|| उप्पायणीहि अवरे, केई विजाय उप्पइत्ताणं । विउरुव्विहि विजाहिं दाई काहिंती उड्डाहं ॥७९८।। मंतेहि य चुण्णेहि य कुच्छियविजाहि तह निमित्तेणं । काऊणं उबघायं भमिहिंति अणंतसंसारे" ॥७९९।। अह भणइ थूलभद्दो ‘अन्नं रूवं न किंचि काहामो । इच्छामि जाणिउं जे अहयं चत्तारि पुव्वाई' ॥८००। 'नाहिसि तं पुव्वाई सुयमेत्ताइं च उग्गहाहिति । दस पुण ते अणुजाणे, जाण पणट्ठाई चत्तारि' ॥८०१।। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं परिशिष्टम् । एतेण कारणेण उ पुरिसजुगे अट्ठमम्मि वीरस्स । सयराहेण पणट्ठाई जाण चत्तारि पुव्वाइं ॥८०२।। अणवठ्ठप्पो य तवो तवपारंची य दो वि वोच्छिन्ना । चोद्दसपुव्वधरम्मी, धरंति सेसा उ जा तित्थं ॥८०३।। तं एवमंगवंसो य नंदवंसो य मरुयवंसो य । सयराहेण पणट्ठा समयं सज्झायवंसेण ॥८०४॥ पढमो दसपुव्वीणं सयडालकुलस्स जसकरो धीरो । नामेण थूलभद्दो अविहिंसाधम्मभद्दो त्ति ॥८०५॥ नामेण सच्चमित्तो समणो समणगुणनिउणचिंचइओ । होही अपच्छिमो किर दसपुव्वी धारओ धीरो ॥८०६।। (गा. ८०७-३६. सुयवोच्छेयकमनिरूवणं) एयस्स पुव्वसुयसायरस्स उदहि व्व अपरिमेयस्स । सुणसु जह अथ (?इत्थ) काले परिहाणी दीसते पच्छा ॥८०७॥ पुव्वसुयतेल्लभरिए विज्झाए सच्चमित्तदीवम्मि । धम्मावायनिमिल्लो होही लोगो सुयनिमिल्लो ॥८०८॥ वोलीणम्मि सहस्से वरिसाणं वीरमोक्खगमणाओ । उत्तरवायगवसभे पुव्वगयस्सा भवे छेदो ॥८०९।। वरिससहस्से पुण्णे तित्थोगालीए वड्डमाणस्स । नासीही पुव्वगतं अणुपरिवाडीए जं जस्स ॥८१०॥ पण्णासा वरिसेहिं य बारसवरिससएहिं वोच्छेदो । दिण्णगणि-पूसमित्ते सविवाहाणं छलंगाणं ॥८११॥ नामेण पूसमित्तो समणो समणगुणनिउणचिंचइओ । होही अपच्छिमो किर विवाहसुयधारको धीरो ॥८१२।। तम्मि य विवाहरुक्खे चुलसीतीपयसहस्सगुणकलिओ । सहस च्चिय संभंतो होही गुणनिप्पलो लोगो ॥८१३॥ समवायववच्छेदो तेरसहिं सतेहिं होहि वासाणं । माढरगोत्तस्स इहं संभूतजतिस्स मरणम्मि ॥८१४।। तेरसवरिससतेहिं पण्णासासमहिएहिं वोच्छेदो । अज्जवजतिस्स मरणे ठाणस्स जिणेहिं निद्दिवो ॥८१५।। चोद्दसवरिससतेहिं वोच्छेदो जेट्ठभूतिसमणम्मि । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थोगालियप्रकीर्णके विद्यमाना: आगमवाचनादि-विच्छेदसम्बन्धिनः अंशाः । कासवगोत्ते णेओ कप्प-व्ववहारसुत्तस्स ॥८१६।। भणिदो दसाण छेदो पन्नरससएहिं होइ वरिसाणं । समणम्मि फग्गुमित्ते गोयमगोत्ते महासत्ते ॥८१७।। भारद्दायसगुत्ते सूयगडंगं महासमणनामे । अगुणव्वीससतेहिं जाही वरिसाण वोच्छित्तिं ॥८१८॥ वरिससहस्सेहिं इहं दोहि विसाहे मुणिम्मि वोच्छेदो । वीरजिणधम्मतित्थे होहि निसीहस्स निद्दिट्ठो ८१९।। विण्हुमुणिम्मि मरते हारितगोत्तम्मि होति वीसाए । वरिसाण सहस्सेहिं आयारंगस्स वोच्छेदो ॥८२०॥ अह दूसमाए सेसे होही नामेण दुप्पसहसमणो । अणगारो गुणगारो धम्मागारो तवागारो ॥८२१॥ सो किर आयारधरो अपच्छिमो होहिती भरहवासे । तेण समं आयारो नस्सीहि समं चरित्तेणं ॥८२२।। अणुओगच्छिण्णयारो (?) अह समणगणस्स दावियायारो(?) । आयारम्मि पणढे होहिति तइया अणायारो ॥८२३।। चंकमिउं वरतरं (?तरयं) तिमिसगुहाए व मंधकाराए । न य तइया समणाणं आयारसुते पणट्ठम्मि ॥८२४।। निज्झिणा पासंडा चोरेहिं जणो विलुप्पते अहियं ! होहिंति तया गामा केवलनामावसेसा उ ॥८२५।। वीसाए सहस्सेहिं पंचहिं य सतेहिं होइ वरिसाणं । पूसे वच्छसगोत्ते वोच्छेदो उत्तरज्झाए ॥८२६।। वीसाए सहस्सेहिं वरिससहस्सेहिं (?वरिसाण सएहिं) नवहिं वोच्छेदो । दसवेतालियसुत्तस्स दिण्णसाहुम्मि बोधव्वो ॥८२७।। पविरलगाम-जणवदं पविरलमणुएसु नामदेसेसु । नामेण नाइलो नाम गणहरो होही(होहिइ) महप्पा ॥८२८॥ धम्मम्मि निरालोए जिणमतदुस्सद्दहम्मि लोगम्मि । पव्वावेही सीसं दुप्पसहं नाम नामेणं ॥८२९॥ सो पुण संपतिकाले कामालोएसु देवलोएसु । लोगही(? ट्ठि)ते विमाणे अच्छिति य विमाणितो देवो ॥८३०।। सो सागरगंभीरो देवाउं सागरोवमं तस्स । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं परिशिष्टम् । तत्तो चुओ विमाणा आयाही मज्झदेसम्मि ।।८३१।। सो दाइ अट्ठवासो दियलोयसुहं सुयं अणुगणेतो । पव्वइही दुप्पसहो अणुसठ्ठो नाइलऽज्जेणं ॥८३२।। सो पव्वइतो संतो महया जोगेण सुंदरुज्जोगो । कम्मक्खतोवसमियं सिक्खीहि सुतं दसवे(वि)तालं ॥८३३॥ दसवेतालियधारी पुज्जीहि जणेण जह व दसपुव्वी । सो पुण सुझुतरागं पुज्जीही समणसंघेणं ॥८३४॥ अउणावीससहस्सो(?स्सा) समणा होहिंति सक्कया लोए । दुस्सहदूसमकाले खीणे अप्पावसेसजगे ॥८३५|| धम्मो य जिणाणुमतो राया य जणस्स लोयमजाया । ण(तो) ते हवंति खीणा जं सेसं तं निसामेह ॥८३६।। _[गा. ८३७-७८. दूसमासमाए अंते संघवण्णणाइ] सावगमिहुणं समणो समणी राया तहा अमच्चो य । एते हवंति सेसं अण्णो (य) जणो बहुतरातो ॥८३७।। ओसप्पिणीइमीसे चत्तारि अपच्छिमाई संघस्स । अंतम्मि दूसमाए दससु वि वासेसु एवं तु ॥८३८॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं परिशिष्टम् । श्री आत्मानंदस्वर्गवास अर्द्धशताब्दि जैन सिरिझ नं. ४ श्री हिमवदाचार्यनिर्मिता स्थविरावली (हिमवंतर्थरावली) • संशोधक • मुनिराजश्री पुण्यविजयजी महाराज तथा पंडित लालचंद्र भगवानदास गांधी . • प्रकाशक • आचार्यश्री विजयवल्लभसूरीश्वरजीना शिष्य विजयललितसूरिजीना उपदेशथी बरलुटनिवासी शा. हीराचंद रूपचंदनी मातुश्री टीपुबाईना स्मरणार्थे Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं परिशिष्टम् । ॥ श्री सिद्धाचलमण्डनऋषभदेवस्वामिने नमः ॥ ॥ श्री शान्तिनाथस्वामिने नमः ॥ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ श्री चारूपपार्श्वनाथाय नमः। ॥ श्री गौतमस्वामिने नमः ॥ श्री महावीरस्वामिने नमः ॥ श्री सद्गुरुभ्यो नमः ॥ श्री हिमवदाचार्यनिर्मिता स्थविरावली नमिऊण वद्धमाणं तित्थयरं तं परं पयं पत्तं । इंदभूई गणनाहं कहेमि थेरावली कमसो ॥१॥ सोहम्मं मुणिनाहं पढमं वंदे सुभत्तिसंजुत्तो । जस्सेसो परिवाओ(रो) कप्परुक्खु व्व वित्थरिओ ॥२॥ तप्पयलंकरणं तं जंबूणामं महामुणिं वंदे । चरमं केवलिणं खु जिणमयगयणंगणे मित्तं ॥३॥ पभवं मुणिगणपवरं सुरवरगणवंदियं नमसामि । जस्स कित्तिवित्थारो अज्ज वि भाइ तिहुयणे सयले ॥४॥ सिजंभवं मुणिदं तप्पयगयणे पभायरं वंदे । मणगढें पविरइयं सुयं दसवेआलियं जेण ॥५॥ जसभद्दो मुणिपवरो तप्पयसोहंकरो परो जाओ । अट्ठमणंदो मगहे रज्जं कुणइ तया अइलोही ॥६॥ वंदे संभूइविजयं भद्दबाहुं तहा मुणिं पवरं । चउद्दसपुव्वीणं खु(खलु), चरमं कयसुत्त-निज्जुत्तिं ॥७॥ थूलभद्दो मुणिंदो पयंडामयणासिंधुरंकुसो जयइ । विउला जस्स य कित्ति(त्ती), तिलोयमज्झे सुवित्थरिआ ॥८॥ अजमहागिरिथेरं वंदे जिणकप्पिणं मुणिं पढमं । अजसुहत्थिं थेरं थेरकप्पिणं तहा नाहं ॥९॥ सुट्टिय-सुप्पडिवुड्ढे(बुद्ध) अज्जे दुन्ने वि ते नमसामि । भिक्खुरायकलिंगाहिवेण सम्माणिए जिढे ॥१०॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हिमवदाचार्यनिर्मिता स्थविरावली ____ जं रयणिं च णं वद्धमाणो तित्थयरो निव्वुओ, तम्मि य रयणीए जिट्ठस्स इंदभूइस्स अणगारस्स गोयमस्स केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे । तओ थेरस्स णं अजसुहुम(हम्म)स्स अग्गिवेसायणगुत्तस्स निगंठगणं समप्प इंदभूई वीराओ दुवालसवासेसु विइक्कतेसु निव्वुओ । वीराओ णं वीसेसु वासेसु विइक्कतेसु अज्जसुहम्मा णिव्वुओ । तप्पए अज्जजंबूणामधिज्जो थेरो होत्था, वीराओ सत्तरिवासेसु विइक्कतेसु मयंतरे चउसट्ठीवासेसु विइक्कतेसु पभवसामिणं गणं समप्प अज्जजंबू णिव्वुओ । पभवसामी वि सेजंभवायरियं णियपए ठावित्ता वीराओ पंचहत्तरिवासेसु विइक्कतेसु सग्गं पत्तो। सेजंभवो वि णियपए जसोभदायरियं ठा[व]इत्ता वीराओ णं अडहियन्नवइवासेसु विइक्तेसु सग्गं पत्तो । जसोभद्दो वि णं वीराओ सयाहियडयालीवासेसु विइक्कतेसु सगं पत्तो । तप्पए णं दुवे थेरे अंतेवासी होत्था-अज्जसंभूइविजए माढरसगुत्ते, थेरे अजभद्दबाहू पाइणसगुत्ते । संभूइविजयो वि वीराओ सयाहियछावन्नवासेसु विइक्वंतेसु सगं पत्तो । थेरे णं अजभद्दबाहू वि चरमचउद्दसपुब्विणो सगडालपुत्त-अज्जथूलभदं णियपए ठावइत्ता वीराओ णं सयाहियसत्तरिवासेसु विइक्कतेसु पखेणं भत्तेणं अपाणएणं कुमारगिरिम्मि कलिंगे पडिमं ठिओ सग्गं पत्तो । थेरस्स णं अज्जथूलभद्दस्स दुवे थेरे अंतेवासी होत्था- थेरे अज्जमहागिरी थेरे अजसुहत्थी य । वुच्छिन्ने जिणकप्पे काही जिणकप्पतुलणमिह धीरो । तं वंदे मुणिवसहं महागिरि परमचरणधरं ॥१॥ जिणकप्पिायापरिकम्मं जो कासी जस्स संथवमकासी । कुमरगिरिम्मि सुहत्थी तं अजमहागिरिं वंदे ॥२॥ तेणं कालेणं तेण समएणं समणे भगवं महावीरे विअरइ रायगिहम्मि णयरे । सेणिओ बिंबिसारावरणामधिज्जो णिवो समणस्स भगवओ महावीरस्स समणोवासगो [णायोवेओ सुसड्ढो आसी । पुब्वि णं पासारहाइचलणजुअलपूए गणिग्गंठणिग्गंठीहिं पडिसेविए कलिंगणामधिज्जजणवयमंडण-तित्थभूअ-कुमर-कुमारीणामधिज्ज-पव्वयजुअले तेणं सेणियवरणिवेणं सिरिरिसहेसजिणाहिवस्साईवमणोहरो जिणपासाओ णिम्माइओ होत्था । तम्मि य णं सुवण्णमयी रिसहेसपडिमा सिरिसोहम्मगणहरेहिं पइट्ठिआ आसी । पुणो वि तेणं कालेणं तेणं समएणं तेणेव सेणियवरणिवेणं णिग्गंठाणं णिग्गंठीण य वासावासटुं तम्मि य पव्वयजुअलम्मि अणेगे लेणा उक्किणाइया । तत्थ ठिआ णेगे णिगंठा णिग्गंठिओ णं वासासु धम्मजागरणं कुणमाणा झाणज्झयणजुआ सुहंसुहेणं णाणाविहतवकम्मट्ठिया वासावासं कुणंति। सेणियणिवपुत्तो अजायसत्तू कोणियावरणामधिज्जो णियपिउस्स णं सत्तुभूओ पिउं पंजरम्मि णिक्खिइत्ता चंपेइणामधिजं णयरिं ठावइत्ता तत्थ रज्जं कुणइ। से वि य णं णियपिउ व्व जिणधम्माराहणट्ठो उक्किट्ठो समणोवासओ आसी । तेण वि तित्थभूए कलिंगडे तम्मि य कुमर-कुमारीगिरिजुयले णियणामंकिया पंच लेणा उक्किणाइया । परं पच्छाऽईवलोहाहिमाणाहिदुओ सयं चक्कवट्टित्तमहिलसंतो कयमालदेवमारिओ णरयं पत्तो । वीराओ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं परिशिष्टम् । णं सयरिवासेसु विइक्कतेसु पासस्स णं अरहाओ छट्टे पए थेरे रयणप्पहणामधिज्जे आयरिया संजाया। तेहिं णं उवएसपुरिम्मि एगलक्खाहियअसीइसहस्सा खत्तियपुत्ता पडिबोहिया, जिणधम्म पडिवन्ना उवएसणामधिज्जे वंसे ठाइया । वीराओ णं इगतीसाइवासेसु विइक्कतेसु कोणियपुत्तो उदाइणिवो पाडलिपुतं णयरं ठाइत्ता तत्थ णं मगहाहिवच्चं पालेमाणे चिट्ठइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं केणावि तस्स सत्तुणा तं जिणधम्मम्मि दढं सुसढ नाऊण णिगंठवेसं घित्तूण धम्मकहासावणमिसेणेगंतणं तस्सावासं गंतूणेसो उदाइणिवो मारिओ । समणे भगवं महावीरे णिव्वुए सट्ठिवासेसु विइक्कतेसु पढमो गंदणामधिज्जो णाइपुत्तो पगइहिं पाडलिपुत्तम्मि रज्जे ठाइओ । तस्स णं वंसम्मि कमेणं णंदणामधिज्जा णव णिवा जाया । अट्ठमो य णंदो अईवलोहाहिक्कं तो मिच्छत्तंधो णियवेरोयणमाहणमंतिपेरिओ कलिंगविसयं पाडिऊण पुव् ितत्थ तित्थभूअकुमरपव्वयुप्पिं सेणियणिवकारियरिसहेसजिणपासायं भंजिऊण तओ सोवण्णीयउसभजिणपडिमं चित्तूण पाडलिपुत्तम्मि णियणयरे समागओ। तयणंतरं वीराओ इगसयाहियचउवन्नवासेसु विइक्वंतेसु चाणिगाणुणीयो मोरियपुत्तो चंदगुत्तो णवमं णंदणिवं पाडलिपुत्ताओ णिक्कासीय सयं मगहाहिवो जाओ । से णं पुव्विं मिच्छत्तरत्तो सोगयाणुओ समणाणं णिगंठाणं उप्पिं वि दोसी आसी, पच्छा णं चाणिगाणुणीओ जिणधम्मम्मि दढसड्ढो अईवपरक्कमजुओ जुण(व)णाहिवसिलक्किसेणं सद्धिं मित्तीभूओ सयं णियरज्जवित्थरं कुणमाणो विअरइ । तेणं णिय मोरियसंवच्छरो णियरज्जम्मि ठाइओ । वीराओ णं इगसयाहियचउरासीइवासेसु विइक्कंतेसु चंदगुत्तो णिवो परलोअं पत्तो । तेणं कालेणं तेणं समएणं तस्स पुत्तो बिंदुसारो पाडलिपुत्तम्मि रज्जे ठिओ । से णं जिणधम्माराहओ पवरसड्ढो जाओ। पणवीसवासा जाव रजं पाउणित्ता वीराओ णवाहियदुसयवासेसु विइक्वंतेसु धम्माराहणपरो सगं पत्तो। तओ वीराओ णवाहियदुसयवासेसु विइक्कतेसु तस्स पुत्तो असोओ पाडलिपुत्तम्मि रज्जे ठिओ । से वि य णं पुव् िजिणधम्माणुणीओ आसी । पच्छा रजलाहाओ चउवासाणंतरं सुगयसमणपक्खं काऊण णियं दुच्चं पियदंसीणामधिजं ठाइत्ता सुगयपरूवियधम्माराहणपरो जाओ अईवविक्कमाक्कतमहीयलमंडलो से कलिंग-मरहट्ठ-सुरट्ठाइजणवयाणि साहीणाणि किच्चा तत्थ णं सुगयधम्मवित्थरं काऊणाणेगे सुगयविहारा ठाइया जाव पच्छिमगिरिम्मि विज्झायलाइसु सुगयाइसमणसमणीणं वासावासढे अणेगे लेणा उक्किणाइया, अणेगे सुगयपडिमाओ विविहासणट्ठिआ तत्थ ठाइआ। उजिंतसेलाइणाणाठाणेसु णियणामंकिया आणालेहा थूभसिलाईसु उक्किणाइया । सीहल-चीणबंभाइदीवेसु सुगयधम्मवित्थर8 पाडलिपुत्तम्मि णयरे सुगयसमणाणं गणमेलावगं किच्चा तस्स णं सम्मयाणुसारेणं अणेगे सोगयसमणा तत्थ तेण पेसिया। जिणधम्मिणं णिग्गंठ-णिग्गंठीणं वि सम्माणं कुणमाणो से ताणं पइ कया वि दोसं ण पत्तो । इम्मस्साऽसोअणिवस्साणेगाणं पुत्ताणं मज्झे कुणालणामधिज्जो पुत्तो रजारिहो हुत्था । तं णं विमाउओ अहिखिजमाणं णाऊणाऽसोएण णिवेण णियपगिइजुओ से अवंतीणयरीए ठाइओ । परं विमाउपओगेणं तत्थ से अंधीभूओ । तमढे सोच्चा Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हिमवदाचार्यनिर्मिता स्थविरावली असोअणिवेणं कोहाक्कतेणं तं णियभजं मारित्ता दोसपराऽवरे वि अणेगे रायकुमारा मारिया । पच्छा कुणालपुत्तं संपइणामधिजं रज्जे ठाइत्ता से णं असोअणिवो वीराओ चत्तालीसाहियदोसयवासेसु विइक्कतेसु परलोअं पत्तो । संपइणिवो वि पाडलिपुत्तम्मि णियाणेगसत्तुभयं मुणित्ता तं रायहाणिं तच्चा पुव्विं णियपिउभुत्तिलद्धावंतीणयरीम्मि ठिओ सुहंसुहेणं रजं कुणइ । से णं संपइणिवजीओ पुस्विम्मि भवे एगो दरिदो दु(द)मगो आसी। भोयणट्ठा अजसुहत्थिसमीवे दिक्खिऊणाव्वत्तसामाइअजुओ जावेगं दिणं सामण्णं पाउणित्ता कुणालपुत्तत्ताए समुप्पण्णो आसी। इओ थेरे अजसुहत्थि-आयरिया विहारं कुणमाणा णिग्गंठपरिअरजुआ अवंतीए णयरीए पत्ता । तत्थ णं जिणपडिमारहजत्तम्मि चलमाणा णियपासायगउक्खट्ठिएणं संपइणिवेण ते दिट्ठा । खिप्पामेव जायजाइसमरो से संपइणिवो तेसिं णं अजसुहत्थीणं समीवे समेओ । आयरियाण य वंदिऊण कयंजलिपुडो णियपुव्वजम्मकहं भणित्ताऽईवविणयोवगओ कहइ भयवं । तुम्ह पसाएणं मए दु(द)मगेणावि एवं रजं लद्धं, अह णं किं सुकयं करेमि ? एयं णिववयणं सोच्चा सुयोवयोगोवेएहिं अजेहि वुत्तं- अह तुमि पहावणापुव्वं पुणो वि जिणधम्माराहणं आगमेसिसम्गमुक्खफलदायगं भविस्सइ। इइ सोच्चा संपइणिवेणं तत्थ अवंतीणयरीए बहुणिग्गंठ-णिग्गंठीणं परिसा मेलिया, णियरज्जम्मि जिणधम्मप्पभावणवित्थरट्ठा णाणाविहगामणयरेसु समणा पेसिया, अणज्जजणवए वि जिणधम्मवित्थरो कारिओ, अणेगजिणपडिमोवेयपासायालंकिया पुढवी कारिया । अह वीराओ दोसयतेणउइवासेसु विइक्कतेसु जिणधम्माराहणपरो संपइणिवो सग्गं पत्तो । पाडलिपुत्तम्मि य णयरे असोअणिवपुत्तो पुण्णरहो वि वीराओ तेयालीसाहियदोसयवासेसु विइक्कतेसु सुगयधम्माराहगो रज्जम्मि ठिओ । से वि य णं वीराओ दोसयअसीइवासेसु विइक्कतेसु नियपुत्तं वुड्ढरहं रज्जे ठावइता परलोअं पत्तो । तं वि सुगयधम्माणुगं वुड्ढरहं णिवं मारित्ता तस्स सेणाहिवइ- पुप्फमित्तो वीराओ णं तिसयाहियचउवासेसु विइक्कतेसु पाडलिपुत्तरज्जे ठिओ। अह वेसालीणयराहिवो चेडओ णिवो सिरिमहावीरतित्थयरस्सुक्किट्ठो समणोवासओ आसी । से णं णियभाइणिज्जेणं चंपाहिवेणं कूणिगेणं संगामे अहिणिक्खित्तो अणसणं किच्चा सग्गं पतो । तस्सेगो सोहणरायणामधिज्जो पुत्तो तओ उच्चलिओ णियससुरस्स कलिंगाहिवस्स सुलोयणणामधिज्जस्स सरणं गओ । सुलोयणो वि णिपुत्तो तं सोहणरायं कलिंगरजे ठावइत्ता परलोआतिही जाओ । तेणं कालेणं तेणं समएणं वीराओ अट्ठारसवासेसु विइक्कतेसु से सोहणराओ कलिंगविसए कणगपुरम्मि रज्जे अभिसित्तो । से वि य णं जिणधम्मरओ तत्थ तित्थभूए कुमरगिरिम्मि कयजत्तो उक्किट्ठो समणोवासगो होत्था । तस्स वसे पंचमो चंडरायणामधिजो णिवो वीराओ णं इगसयाहिय-अउणपन्नासेसु वासेसु विइक्कतेसु कलिंगरजे ठिओ । तया णं पाडलिपुत्ताहिवो अट्ठमो णंदणिवो मिच्छत्तंधो अईवलोहाक्कतो कलिंगदेसं पाडिऊण पुट्विं तित्थरूवकुमरगिरिम्मि सेणियणिवकारियजिणपासायं भंजित्ता सोवण्णिय-उसभजिणपडिम चित्तूण पाडलिपुत्तं पत्तो । तयणंतरं तत्थ कलिंगे जणवए तस्स णं सोहणरायस्स वंसे अट्ठमो खेमरायणामधिज्जो णिवो वीराओ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं परिशिष्टम् । णं सत्तवीसाहियदोसयवासेसु विइक्तेसु मगहाहिवो कलिंगरजे ठिओ। तयणंतरं वीराओ दोसयाहियअउणचत्तारिवासेसु विइक्कतेसु मगहाहिवो असोअणिवो कलिंगं जणवयमाक्कम्म खेमरायं णिवं णियाणं मन्नावेइ, तत्थ णं से णियगुत्तसंवच्छरं पवत्तावेइ । तओ णं वीराओ दोसयपणहत्तरिवासेसु विइक्कतेसु खेमरायपुत्तो वुड्ढरायो जिणधम्माराहगो अईवसद्धालुओ कलिंगविसयाहिवो संजाओ। तेण वि तत्थ कुमर-कुमारीगिरिजुअलोवरि समणाणं णिग्गंठाणं णिगंठीणं य वासावासढ़ इक्कारस लेणा उक्किणाइया । तयणंतरं वीराओ णं तिसयवासेसु विइक्कतेसु वुड्रायपुत्तो भिक्खुरायो कलिंगाहिवो संजाओ । तस्स णं भिक्खुरायणिवस्स तिण्णि णामधिजे एवमहिज्जंति- एग णं णिगंठाणं भिक्खूणं भत्तिं कुणमाणो भिक्खुराय त्ति, दुन्नं णियपुव्वयाणुयमहामेहणामधिज्जगयवाहणत्ताए महामेहवाहण त्ति, तीयं णं तस्स सायरतडरायहाणित्ताए खारवेलाहिव त्ति । एसो णं भिक्खुरायो अईवपरक्कमजुओ गयाइसेणाकंतमहियलमंडलो मगहाहिवं पुष्फमित्तं णिवं अहिणिक्खित्ता णियाणम्मि ठाइत्ता पुन्वीं णंदणिवग्गहियुसभेस-सोवण्णपडिमं पाडलिपुत्ताओ पच्छा चित्तूण णियरायहाणिं संपत्तो । तयणंतरं तेण भिक्खूरायणिवेण तत्थ णं कुमरगिरितित्थे पुव्विं सेणियणिवेणं कारियं जिणपासायं पुणो उड्ड(ख)त्तए । सेवणं उसभजिणिंदस्स सोवण्णिया पडिमा अज्जसुहत्थीणं थेराणं अंतेवासिहिं सुट्ठियसुवडिवुड्डा(पडिबुद्धा)यरिएहिं पइट्ठाइया। पुव्विं णं दुवालसवासदुभिक्खे काले अजमहागिरिअजसुहत्थीणं थेराणमणेगे अंतेवासिया सुद्धाहारमलहिज्जमाणा तत्थ णं कुमरगिरिम्मि तित्थे कयाणसणा चत्तदेहा सग्गं पत्ता । पुव्विं तित्थयर-गणहर-परूवियं पवयणं वि बहुसो विणट्ठपायं णाऊण तेणं भिक्खुरायणिवेणं जिणपवयणसंगहढं जिणधम्मवित्थरटुं च संपइणिवु व्व समणाणं णिग्गंठाणं णिग्गंठीणं य एगा परिसा तत्थ कुमारीपव्वय-तित्थम्मि मेलिया । तत्थ णं थेराणं अजमहागिरीणमणुपत्ताणं बलिस्सह-बोहिलिंग-देवायरिय-धम्मसेण-नक्खत्तायरियाइ जिणकप्पितुलणत्तं कुणमाणाणं दुन्नि सया णिग्गंठाणं समागया । अजसुट्टिय-सुवडिवुड्ड(पडिबुद्ध)उमसाइ-सामजाइणं थेरकप्पियाणं वि तिन्नि सया णिग्गंठाणं समागया। अजापोइणीयाईणं अजाणं णिग्गंठीणं तिनि सया समेया । भिक्खुराय-सीचंद-चुण्णय-सेलगाइ समणोवासगाणं सत्त सया तत्थ समागया । भिक्खुरायणिवभज्जापुण्णमित्ताइसावियाण वि सत्त सया समागया । णियभज्जापुत्त-णत्तुअपभिइसमलंकियो भिक्खुराओ णं सव्वाणं णिग्गंठाणं णिग्गंठीण य नमंसित्ता एवं वयासी भो महाणुभावे ! अह तुम्हे वद्धमाणतित्थयरपरूवियधम्मप्पभावणवित्थरट्ठा णं सव्वपरक्कम्मत्ताए उज्जमह । इइ तेणुत्ता सव्वे वि णं णिगंठा णिग्गंठीओ य सम्मया । तयणंतरं लद्धटेणं तेणं भिक्खुरायणिवेणं णाणाविहभत्तिजुत्तेणं पूइया सक्कारि-सम्माणिया ते णं णिग्गंठा णिगंठीओ य मगह-महुरा-बंगाइ-जणवएसु तित्थयरपरूवियजिणधम्मप्पभावणट्ठा णिग्गया । तयणंतरं तेणं भिक्खुरायणिवेणं तत्थ कुमर-कुमारीगिरिजुयलुप्पिं जिणपडिमालंकिया णेगे लेणा उक्किणाइया । तत्थ णं जिणकप्पितुलत्तं कुणमाणा णिगंठा कुमारीगिरिलेणेसु वासावासं णिवसंति । कुमरगिरिम्मि Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ श्री हिमवदाचार्यनिर्मिता स्थविरावली य थेरकप्पिया णिग्गंठा वासावासं णिवसंति । इइ ताणं सव्वाणं णिग्गंठाणं विभाइत्ता कयट्ठो भिक्खुरायणिवो कयंजलिपुडो बलिस्सहुमसाइ-सामजाइणं थेराणं णमंसित्ता जिणपवयणमउडकप्पपायस्स दिट्ठिवायस्स संगहट्ठा विण्णवेइ इइ तेणं णिवेणं चोइएहिं तेहिं थेरेहिं अज्जेहिं य अवसि, जिणपवयणं दिट्ठिवायं णिग्गंठगणाओ थोवं थोवं साहिइत्ता भुज-तालवक्कलाइपत्तेसु अक्खरसन्निवायोवयं कारइत्ता भिक्खुराय-णिवमणोरहं पूरित्ता अजसोहम्मुवएसियदुवालसंगीरक्खआ ते संजाया । समणाणं णिग्गंठाणं णिग्गंठीण य जिणपवयणसुलहबोहढें णं अज्जसामेहिं थेरेहिं य तत्थ पण्णवणा परूविया । उमसाइहिं य थेरेहिं तत्तत्थसुत्तं सणिज्जुइयं परूवियं। थेरेहिं य अजबलिस्सहेहिं य विजापवायपुव्वाओ अंगविजाइसत्थे परूविए । एसो णं जिणसासणप्पभावगो भिक्खुरायणिवो णेगे धम्मकज्जाणि किच्चा सुज्झाणोवेओ वीराओ णं तीसाहियतिसयवासेसु विइक्कंतेसु सग्गं पत्तो । तयणंतरं तस्स पुत्तो वक्करायो कलिंगाहिवो जिणसासणप्पभावगो वीराओ तीसयबावट्ठिवासेसु सुहंसुहेणं णियरजं पाउणित्ता धम्माराहणुज्जुत्तो सग्गं पत्तो । तओ णं तस्स पुत्तो विदुहरायो वि कलिंगाहिवचं पाउणित्ता जिणधम्मे गहियट्ठो णिगंठगणसंथुओ वीराओ णं तिसयपण्णवइवासेसु विइक्कतेसु सगं पत्तो । अहावंतीणयरम्मि संपइणिवस्स णिपुत्तस्स सग्गगमणंतरमसोगणिवपुत्ततिस्सगुत्तस्स बलमित्त-भाणुमित्तणामधिज्जे दुवे पुत्ते वीराओ दोसयचउणवइवासेसु विइक्तेसु रजं पत्ते । ते णं दुन्नि वि भाया जिणधम्माराहगे वीराओ चउवन्नाहियतिसयवासेसु विइक्कतेसु सगं पते । तयणंतरं बलमित्तस्स पुत्तो णभोवाहणो अवंतीरजे ठिओ । से वि य णं जिणधम्माणुगो वीराओ तिसयचउणवइवासेसु विइक्कतेसु सगं पत्तो । तओ तस्स पुत्तो गद्दहीविजोवेओ गद्दहिल्लो णिवो अवंतीणयरे रज पत्तो । अह धारावासम्मि णयरे वेरिसीहणामधिज्जस्स णिवस्स कालिगाभिखेदा(भिधो) कुमारो गुणायरणामणिग्गंठस्सोवएसं सुच्चा जिणधम्म पत्तो णिक्खमित्ता अणगारो जाओ । तस्स णं सरस्सइणामधिज्जा भइणी वि णिक्खमित्ता णिगंठी जाया । अहऽणंतरं विहारं कुणमाणे णिग्गंठ-णिगंठीगणोवेए ते दुन्नि वि भइणी भाया अवंतीणयरुज्जाणे समागए । तत्थ णं आसं खेलिजंतो गद्दहिल्लो णिवो समेओ । तत्थ णं से सरस्सइणिग्गंठीरूवमईव मणोहरं पासित्ता मयणबाणाक्कतो तां बलत्ताए घित्तूण णियंतेउरम्मि ठावइत्ता भुजेइ । कालिगज्जेहिं बहुपत्थिओ वि से दुब्भग्गो तां ण मुंचेइ । कोहाक्कतो कालिगजो तओ विहारं किच्चा सिंधुजणवए पत्तो । तत्थ णं रजं कुणमाणं सामंतणामधिजं सगरायं सुवण्ण-सिहित्ता वजहय-गयाइपयंडसेणोवेयं कालिगजो अवंतीणयरीसमीवे ठावेइ । गद्दहिल्लो वि णियसेणोवेओ बहिं समागओ । तत्थ णं भीसणे जुज्झे जायमाणे गद्दहिल्लो णिवो कालं किच्चा णेरइयातिहिओ जाओ । कालिगजो वि णियभइणिं सरस्सई आलोयणापुव्वं पुणो दिक्खिऊण तओ विहारं कुणमाणो कमेणं भरुअच्चे णयरे समागओ । तओ गद्दहिल्लणिवपुत्तो विक्कमक्कणामधिज्जो तं सामंतणामधिजं सगरायमाक्कम्म वीराओ दसाहियचउसयवासेसु विइक्कंतेसु अवंतीणयरे रजं पत्तो । से वि य णं Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं परिशिष्टम् । विक्कमक्को णिवो अईवपरक्कमजुओ जिणधम्माराहगो परोपयारेगणिट्ठो अवंतीए णयरे रजं कुणमाणो लोगाणमईव पिओ जाओ। एलावच्चसगोत्तं वंदामि महागिरिं सुहत्थिं च । तत्तो कोसिअगुतं बहुलस्स सरिव्वयं वंदे ॥१॥ अजसुहत्थिओ सुट्ठिय-सुप्पडिवुड्डा(बुद्धा)इयावलिया थिरकप्पियाणमावलिया विणिग्गया । जिणकप्पितुलत्तं कुणमाणाणं अजमहागिरीणं बहुल-बलिस्सहाभिक्खे दोवे पहाणसेहे होत्था । हारिअगोत्तं साइं च वंदिमो हारिअं च सामजं । वंदे कोसिअगुत्तं संडिल्लं अजजीयधरं ॥२॥ तिसमुद्दखायकित्तिं दीव-समुद्देसु गहिअपेआलं । वंदे अजसमुदं अक्खुभिय समुद्द-गंभीरं ॥३।। भणगं करगं झरगं पभावगं नाण-दसणगुणाणं । वंदामि अजमंगुं सुअसागरपारगं धीरं ॥४॥ नाणम्मि दंसणम्मि अ तव-विणए निच्चकालमुज्जुत्तं । अजं नंदिलखमणं, सिरसा वंदे पसन्नमणं ॥५।। वडउ वायगवंसो जसवंसो अजनागहत्थीणं । वागरण-करण-भंगिअ-कम्मप्पयडीपहाणाणं ॥६।। जच्चंजणधाउसमप्पहाण-मुद्दिअकुवलयनिहाणं । वउ वायगवंसो रेवइनक्खत्तनामाणं ॥७॥ अयलपुरा णिक्खंते कालिअसुअ-आणुओगिए धीरे । बंभद्दीवगसीहे वायगपयमुत्तमं पत्ते ॥८॥ जेसि इमो अणुओगो पयरइ महुराओ (अजावि) अड्डभरहम्मि । बहुनयरनिग्गयजसे ते वंदे खंदिलायरिए ॥९॥ आर्यमहागिरीणां जिनकल्पितुलनां कुर्वतां बहुलाख्यो विनेयवरो जिनकल्पितुलनामकरोत् । बलिस्सहश्च पश्चात् स्थविरकल्पमभजत् । बलिस्सहशिष्याः स्वात्याचार्याः श्रुतसागरपारगास्तत्त्वार्थसूत्राख्यं शास्त्रं विहितवन्तः । तेषां शिष्यैरार्यश्यामैः प्रज्ञापना प्ररूपिता । श्यामार्यशिष्याः स्थविराः शाण्डिलाचार्याः श्रुतसागरपारगा अभवन् । तेषां शाण्डिल्याचार्याणाम् आर्यजीतधरा-ऽऽर्यसमुद्राख्यौ द्वौ शिष्यावभूताम् । आर्यसमुद्रस्याऽऽर्यमङ्गुनामानः प्रभावकाः शिष्या जाताः । आर्यमंगूनां चाऽऽर्यनंदिलाख्याः शिष्या बभूवुः । आर्यनन्दिलानां चायनागहस्तिनः शिष्या बभूवुः । आर्यनागहस्तिनां चाऽऽयरेवतीनक्षत्राख्याः शिष्या अभवन् । आर्यरेवतीनक्षत्राणां आर्यसिंहाख्याः शिष्या अभवन् । ते च ब्रह्मद्वीपिकाशाखोपलक्षिता अभवन् । तेषामार्यसिंहानां स्थविराणां मधुमित्रा Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हिमवदाचार्यनिर्मिता स्थविरावली ऽऽर्यस्कन्दिलाचार्यनामानौ द्वौ शिष्यावभूताम् । आर्यमधुमित्राणां शिष्या आर्यगन्धहस्तिनोऽतीव विद्वांसः प्रभावकाश्चाभवन् । तैश्च पूर्वस्थविरोत्तंसोमास्वातिवाचकरचिततत्त्वार्थोपरि अशीतिसहस्रश्लोकप्रमाणं महाभाष्यं रचितम्, एकादशांगोपरि चाऽऽर्यस्कन्दिलस्थविराणामुपरोधतस्तैर्विवरणानि रचितानि । यदुक्तं तद्ररचिताचाराङ्गविवरणान्ते यथा थेरस्स महुमित्तस्स सेहेहिं तिपुव्वनाणजुत्तेहिं । मुणिगणविवंदिएहिं ववगयरागाइदोसेहिं ॥१॥ बंभद्दीवियसाहामउडेहिं गंधहत्थिविबुहेहिं । विवरणमेयं रइयं दोसयवासेसु विक्कमओ ॥२॥ आर्यस्कन्दिलाचार्यसम्बन्धश्चैवम्-उत्तरमथुरायां मेघरथाभिधः परमः श्रमणोपासको जिनाज्ञाप्रतिपालको द्विजोऽभवत् । तस्य रूपसेनाऽभिधा सुशीला भार्याऽऽसीत् । तयोः सोमरथाभिधः सोमस्वप्नसूचितः सुतो बभूव । अथैकदा ते ब्रह्मद्वीपिकशाखोपलक्षिताः सिंहाचार्या विहारं कुर्वन्तः क्रमेणोत्तरमथुरोद्याने समागताः । तेषां धर्मदेशनां निशम्य प्राप्तवैराग्येण सोमरथेन चारित्रं गृहीतम् । इतोऽतीव भयंकरो द्वादशाब्दिको दुष्कालो भरता? संजातः । अतोऽर्हन्मार्गानुसारिणः केचन भिक्षवो भिक्षामलभमाना गृहीतानशना वैभार-कुमारगिर्यादिषु संलेखनया स्वर्जग्मुः । पूर्वसंकलितान्येकादशाङ्गानि जिनप्रवचनाधारभूतानि नष्टप्रायाणि संजातानि । दुर्भिक्षान्ते च विक्रमार्कस्यैकशताधिकत्रिपंचाशत्संवत्सरे स्थविरैरार्यस्कन्दिलाचार्यैरुत्तरमथुरायां जैनभिक्षूणां संघो मेलितः । एकशताधिकपंचविंशतिजैनभिक्षवः स्थविरकल्पानुयायिनो मधुमित्र-गन्धहस्त्यादयः संमिलिताः । सर्वेषां सावशेषमुखपाठान् मेलयित्वाऽऽर्यस्कन्दिलैगंधहस्त्याद्यनुमतैरेकादशाङ्गी पुनर्ग्रथिता । स्वल्पमतिभिक्षूणामुपकारार्थं चाऽऽर्यस्कन्दिलस्थविरोत्तंसैः प्रेरिता गन्धहस्तिन एकादशाङ्गानां विवरणानि भद्रबाहुस्वामिविहितनिर्युक्त्यनुसारेण चक्रुः । ततः प्रभृति च प्रवचनमेतत् सकलमपि माथुरीवाचनया भारते प्रसिद्धं बभूव । मथुरानिवासिना श्रमणोपासकवरेणो[पके]शवंशविभूषणेन पोलाकाभिधेन तत् सकलमपि प्रवचनं गन्धहस्तिकृतविवरणोपेतं तालपत्रादिषु लेखयित्वा भिक्षुभ्यः स्वाध्यायार्थं समर्पितम् । एवं श्रीजिनप्रवचनप्रभावनां विधायाऽऽर्यस्कन्दिलस्थविरा व्यधिकद्विशतवैक्रमीयसंवत्सरे मथुरायामेव कृतानशनाः स्वर्गं प्राप्ताः । इति श्रीस्कन्दिलाचार्यसम्बन्धः सम्पूर्णः ॥ ॥ इति श्रीस्कन्दिलाचार्यशिष्यलेशश्रीहिमवदाचार्यनिर्मिता स्थविरावलिका समाप्ता || Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमं परिशिष्टम् । सटीकश्रीसमवायाङ्गसूत्रसम्पादनोपयुक्तग्रन्थसंकेतादिसूचिः । ग्रन्थनाम प्रकाशकादि अनुयोगद्वारसूत्रम् (वृत्तिसहितम्) श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई आचारागसूत्रम् श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई आचाराङ्गसूत्रवृत्तिः आचाराङ्गनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) आवश्यकचूर्णिः श्री ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम आवश्यकनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) आवश्यकभाष्यम् आवश्यकसूत्रस्य मलयगिरिसूरिविरचिता वृत्तिः आवश्यकसूत्रस्य हारिभद्री वृत्तिः नभाष्यम् (नियुक्तिपञ्चकान्तर्गतम्) उत्तराध्ययनसूत्रम् उत्तराध्ययनसूत्रवृत्तिः उपदेशमाला सिद्धर्षिगणिविरचितटीकासहिता ओघनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) ओघनियुक्तिटीका (द्रोणाचार्यविरचिता) कथाकोषप्रकरणम् भारतीय विद्याभवन, मुम्बई कर्मप्रकृतिः मलयगिरिसूरिविरचितवृत्तिसहिता कस्तवः (प्राचीनो द्वितीयः कर्मग्रन्थः) कल्पसूत्रम् चन्द्रप्रज्ञप्तिः जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः देवचन्द्र लालभाइ वि.सं.१९७६ जीवाभिगमसूत्रम् ज्योतिष्करण्डकम् (मलयगिरिविरचितवृत्तिसहितम्) ऋषभदेव केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम तत्त्वार्थसूत्रम् तत्त्वार्थभाष्यम् तत्त्वार्थराजवार्तिकम् भारतीयज्ञानपीठ, दिल्ही, वाराणसी, ई.स.१९९६ तत्त्वार्थसूत्रस्य सिद्धसेनगणिविरचिता वृत्तिः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् दशवैकालिकसूत्र-नियुक्ति-हारिभद्री वृत्तिः दशाश्रुतस्कन्धः नियुक्तिः चूर्णिश्च । पं. श्री मणिविजयजी ग्रन्थमाला, वि.सं.२०११ दशवैकालिकनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमं परिशिष्टम् । ग्रन्थनाम प्रकाशकादि नन्दीसूत्रम् (चूर्णि-हारिभद्रीवृत्तिसहितम्) नियुक्तिपञ्चकम् जैन विश्व भारती, लाडनूं नियुक्तिसंग्रहः श्री हर्षपुष्पामृतजैन ग्रन्थमाला, लाखाबावल निशीथभाष्यम्, निशीथचूर्णिः सन्मतिज्ञानपीठ, आगरा पञ्चाशकम् (अभयदेवसूरिविरचितटीकासहितम्) परिशिष्टपर्व पा० = पाणिनीयव्याकरणम् पा० धा० = पाणिनीयो धातुपाठः पा० सि० = पाणिनीयसिद्धान्तकौमुदी पिण्डनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) प्रकीर्णक (पइन्नयसुत्ताई) श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई प्रज्ञापनासूत्रम् प्रज्ञापनासूत्रस्य हारिभद्री वृत्तिः प्राकृतव्याकरणस्वोपज्ञटीका (हेमचन्द्रसूरिविरचिता) बृहत्कल्पसूत्रभाष्यम् बृहत्क्षेत्रसमासः (मलयगिरिसूरिविरचितवृत्तिसहितः) । जिनशासनआराधना ट्रस्ट, वि.सं.२०४४ बृहत्संग्रहणी (मलयगिरिविरचितवृत्त्या सहिता) जिनशासनआराधना ट्रस्ट, वि.सं.२०४४ भगवतीसूत्रम् भगवतीसूत्रवृत्तिः (अभयदेवसूरिविरचिता) मीमांसाश्लोकवार्तिकम् (न्यायरत्नाकरव्याख्यासहितम्) रत्ना पब्लिकेशन्स, वाराणसी मूलाचारः वट्टकेरविरचितः वसुनन्दिश्रमणविरचितटीकासहितः भारतवर्षीय अनेकान्तविद्वत्परिषद्, ई.स.१९९६ विशेषावश्यकभाष्यम् (मलधारिश्री हेमचन्द्रसूरिविरचितवृत्तिसहितम्) व्यवहारभाष्यम् विश्वभारती, लाडनूं, राजस्थान सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् (बृहवृत्तिसहितम्) सूत्रकृताङ्गनियुक्तिः (वृत्तिसहिता) सूर्यप्रज्ञप्तिः (मलयगिरिसूरिविरचितटीकासहिता) स्थानाङ्गसूत्रम् (वृत्तिसहितम्) श्री महावीरजैनविद्यालय, मुंबई है० धा० = हैमधातुपाठः अपरे संकेताः - गा० = गाथा । भा० = भाष्यम् । टि० = टिप्पनम् । टी० = टीका । पृ० = पृष्ठम् । पं० = पङ्क्तिः । वृ० = वृत्तिः । व्या० = व्याख्या । सू० = सूत्रम् । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं परिशिष्टम् । आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहितस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य शुद्धि-वृद्धिपत्रकम् । [सटीकस्य स्थानाङ्गस्य मुद्रिते विभागत्रयेऽस्माकमनवधानाद् दृष्टिदोषाद् भ्रान्त्यादेर्वा येऽशुद्धाः अपूर्णा वा पाठाः मुद्रिताः तत्स्थाने यादृशः पाठ आवश्यकः स एवात्र दर्शितः, अशुद्धपाठास्तु न दर्शिताः, अत एतत् शुद्धि-वृद्धिपत्रकमुपजीव्य सुधीभिः स्वयमेव तत्र तत्र पाठशुद्ध्यादिकं विधेयम् । इमेऽशुद्धा अपूर्णा वा पाठाः सूक्ष्मेक्षिकया निरीक्ष्य मुनिराजश्रीराजरत्नविजयैः अस्माकं दृष्टिपथमानीता इति तेषामुपकारं मत्वा तेभ्यो धन्यवादं वितरामि । ये पाठा अपसारणीयाः तेषां समीपे x ईदशं चिह्न विहितम् । येषु अक्षरेषु येषां वा अक्षराणां समीपे संशोधनं विहितं तानि अक्षराणि स्थूलाक्षरैर्मुद्रितानि । ये पाठाः वर्धिताः तेषां समीपे * ईदृशं चिह्न विहितम् ।] सटीकस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य प्रथमे विभागे शुद्धपाठाः o . JNO. शुद्धपाठः 'गमाभावप्रसङ्ग इति । ईहाया कहणविहि विराहणा परिग्रहः * [४] एगा कण्हपक्खियाणं वग्गणा । एगा सुक्कपक्खियाणं वग्गणा । एगा कण्हपक्खियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एगा सुक्कपक्खियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं चउवीसादडओ भाणियव्वो । 'मेत्तं च मई पुरं व तव्वा 'ग्रहणेन लेष्ट्वा ' दण्डकः ४ ॥ पिवऽणन्नो खर्जूरादयो पराधान्निवे पादोपगमनम्, किरिया फलं महवय-अणु देवोद्योतोऽपि, पिव तंसं सिंघाडगं पिव १६१ १७६ १९७ २४६ १९ १६ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहितस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य शुद्धि-वृद्धिपत्रकम् । To २५३ २५४ २८० पना ० WWWWW शुद्धपाठः तीए चउत्थचउत्थेण ववसाते पन्नत्ते खित्तं पिव [प्रथमे विभागे गाथाविवरणे शुद्धपाठाः] कहणविहि विराहणा [पृ०३९ पं०१५] एगा सिद्धी [पृ०३९ पं०१५] X पिवऽणन्नो आएसा १ मुक्कवागरणओ वा २ । परिणामः, उप भवन्ति यतो तृतीयोद्देशेऽपि ॥९॥ [पृ०१६१] सीहादिसु [पृ०१६२] नऽण्णेण उ [पृ०१६३] पंच ७ सजीवो त्ति । २२ सद्भावात् सत्यता, १३ मनसि सत्यादि मनोविषयं जगाराइ खज्जग [पृ०२५६] चारित्र [पृ०२७६] आचारस्य [पृ०३०२] एवं बंधोदीर वेय [सटीकस्य स्थानाङ्गस्य प्रथमविभागस्य प्रथमपरिशिष्टे शुद्धपाठा:] शास्त्रान्तरेषु 'अथातो... स्यामः' गणसरीरभत्त सुनिश्चिताप्तागमे १४ घाओ भवइ अनुक्रमेण आनु पुरोहियघरं ० ० ० १०० १०३ १०५ १०६ १३८ १४८ १७१ १७१ ८ Www Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं परिशिष्टम् । पं० २०-२८ WWW WWW १६ ३३५ ३३५ ३३५ ३३५ ३३५ ३३५ ३३७ ३३७ ३३९ ३३९ शुद्धपाठः [पृ०२४५] देवा वि.... टिकायाम् || x मणयं दिट्ठिनिवाओऽहवा अथावयवार्थं बिइएको नियन्त्रयन्ति परिकर्म [सटीकस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य द्वितीयविभागे शुद्धपाठाः] 'मायित्वेन कारणवश पण्णत्ते, छल्लि 'त्यादि सुगममम्, °ऽसभ्या-ऽसद्भूत जम्मि जुयाणओ वरणः, 'नय-सङ्ख्या प्रत्यक्षा-ऽनुमानो रूयावती १ । सोतामणी २ । पन्नत्ता ३ । पन्नत्ता ४ । असीतीलखेहिं वियत्तकिच्चे पायच्छित्ते १ । 'विशिष्टः सर्व एव मरण' भुज्यत इति, इक्ष्वाक्कादौ स इंगालं विज्जा चरणं च नाममेगे, सोवत्थी ऽनेनेत्युप तेन । आशां °लनायाऽऽराधित °मात्ररूपस्या कंदप्प१ देव १९ १५ १९-२० २३ ३४१ ३५७ ३५८ १७ ३७३ ४२१ ४४० ४४४ ४७१ १२ १ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहितस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य शुद्धि-वृद्धिपत्रकम् । ४८५ ४९५ ४९६ ४९९ ५१३ ५२५ ५४३ ५५४ ५६३ ५६३ ५६७ ५८६ ५९७ ६३५ ६३६ ६३७ शुद्धपाठः औत्पत्तिकी । ननु वेदनया समुद्घातः, घृतोदः षष्ठः आव० नि० ७९१, दत्तिलक्षणश्लोकोऽत्रतपोविशेषस्य 'नर्थदण्डः, हिंसि 'व्रतस्य, याव' दठूणं तप्पढमयाए भएणं पुंवेदोपयोगेन दृश्यतां प्रथमं परिशिष्टमत्र ॥ x काले । ७-८ संपसारेइ । पर्यालोचयति । अहमवि णं चोइस्सं १४ 'वयणे पत्थारा 'तमर्थमसत्यमकुर्वन् ८ हसइ । [सटीकस्य स्थानाङ्गस्य द्वितीयविभागस्य प्रथमपरिशिष्टे टिप्पनेषु शुद्धपाठा:] पं० १०, पं०१५, .... पं०७] पं०१८, .... पं०१०] पं०२३, .... पं०१३] ममैतत्कुक्षि' °णाद् गम्यते, 'नेनाऽऽकुल' काशा इति निरुक्त 'न्यनुब 'दयोऽष्टौ ‘वत्थु पडुच्चे 'सूरिविर' णिसेजिंदिय, ६३८ مه سه سه م ___ or ar r r w4RAM ه ه ه ه م Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं परिशिष्टम् । १०१ . * * * * * * 8 : * * * * * * * * * * * * * * * ง ง ง แ 3 4 5 शुद्धपाठः °णावि गेहितो आहाराभावो भत्तकहा वैधयं पलिओ संग्रहस्ततः (इति वा) विसज्जिया, हरिएसेण प्ररूपणलक्षणा.... ... एकमिति तदिदम् णवमे ण याणइ लिङ्गसद्भावः, तं चेव भवे दिव्वो तस्स ॥ * [पृ०४९९ पं०१९] “पढमम्मि सव्वजीवा बीए चरिमे य सव्वदव्वाइं। सेसा महव्वया खलु तदेगदेसेण दव्वाणं ॥२६३७॥ प्रथमे प्राणातिपातनिवृत्तिरूपे व्रते विषयद्वारेण चिन्त्यमाने सर्वजीवास्त्रस-स्थावर-सूक्ष्मेतरभेदा विषयत्वेन द्रष्टव्याः, तदनुपालनरूपत्वात् तस्येति । तथा, द्वितीये मृषावादनिवृत्तिरूपे, चरमे च परिग्रहनिवृत्तिरूपे महाव्रते सर्वद्रव्याणि विषयत्वेन द्रष्टव्यानि । कथम् ?- 'नास्ति पञ्चास्तिकायात्मको लोकः' इति मृषावादस्य सर्वद्रव्यविषयत्वात्, तन्निवृत्तिरूपत्वाच्च द्वितीयव्रतस्य । तथा, मूर्छाद्वारेण परिग्रहस्यापि सर्वद्रव्यविषयत्वात्, चरमव्रतस्य च तन्निवृत्तिरूपत्वादशेषद्रव्यविषयतेति । ‘सेसा' इत्यादि खलुशब्दोऽवधारणे, तस्य च व्यवहितसम्बन्धः, ततश्च शेषाणि महाव्रतानि द्रव्याणां तदेकदेशेनैव भवन्ति इति क्रियाऽध्याहारः । तेषां द्रव्याणामेकदेशस्तदेकदेशस्तेनैव हेतुभूतेन विषयत्वेन भवन्ति, न तु सर्वद्रव्यैरिति भावः । कथम् ? इति चेत्, उच्यते- तृतीयस्य ग्रहणीय-धारणीयद्रव्याऽदत्ताऽऽदानविरतिरूपत्वात्, चतुर्थस्य तु 'रूवेसु वा रूवसहगेसु वा दव्वेसु' इत्यादिवचनाद् रूप-रूपसहगतद्रव्यसम्बन्ध्यब्रह्मविरतिरूपत्वात्, षष्ठस्य च रात्रिभोजनविरमणस्वरूपत्वादिति । एवममीषां सर्वद्रव्यैकदेशविषयता ॥ इति नियुक्तिगाथार्थः ॥२६३७॥” इति विशेषावश्यकभाष्यस्य मलधारिहेमचन्द्रसूरिविरचितायां वृत्तौ । * * Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहितस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य शुद्धि-वृद्धिपत्रकम् । * or or P * * * ง 3 : * * * * * * * * * शुद्धपाठः यावत्कथिकं तस्त्रिधा, 'विषभावनां भावं मातृ 'त्युत्तरं एवंविधा स्त्राणामप्य पधिलाभा' अण्णे पुब्विय गंध' अत्थतो वि तम्मि जो वत्तो श्रुतैर्भवति अविरुद्धं । जोगा य बहुविगप्पा पूर्वार्द्ध कायो यावदनुत्तरो 'नमभि. ५९५॥" - बृहत्कल्पटीका । [पृ० ५५०] इमे उत्तरो उउ.... ... टीका० । x फासभाव केनानन्यभुक्तेन आदिशब्दादागाढपरि °मनेकैः तिष्ठति लघु वसतेरन्तः प्रविशन्ति । हस्ते पाणी 'द्देशानन्तर' रक्खेजा। 'लम्बिता 1 'विषयग्रहण पॅन्थ्यम् अष्टा * * * १०० १०२ १० १०६१ * * * * * * १०६ १०६ १०७ ४ १०८६ १०८ १०८ ११० * * * * Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं परिशिष्टम् । १०३ पृ० पं० or M aaroor orror or or or or १२४ १२६ १२८ १२९ १३३ १४ १३४ १३९ ३ शुद्धपाठः लाभे 'सिओ एग संभावणे तओऽवही सो °जीवापेक्षया जाणऽणुपालणा भावविसुद्धं [पृ०६०८ पं०११] बाह्यचित्तानां [पृ०६०८ पं०२] श्रुत्यवा' सरीरवोच्छे 'मीहाम् अपायं पटहादि अपरतः अप अथागार 'साधूनां विदेह' [सटीकस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य तृतीयविभागे शुद्धपाठाः] 'रब्भंतरते एवं जह सद्दत्थो विपच्चए तत्र 'चूर्णवत्, * ॥ सत्तट्ठाणं सम्मत्तं ॥ [टी०] कूटेष्वपि जीवाणमट्ठ.... वेमाणियाणं । x धीजीवियं इति ४, स्येति ५, भवतीति ८ । x मयट्ठाणे * ॥ नवठ्ठाणं सम्मत्तं ॥ [टी०] अनन्तरं लोगट्ठिती पण्णत्ता ५ । धम्मे णमरहा २३ ६५४ ६७० ६८६ ७०४ ७०९ ७१२ ७१४ ७१८ ७५९ ७५९ ७५९ १७-१८ १९-२० ११ ७०९ ८१० ८३८ ६-७ १० २६ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहितस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य शुद्धि-वृद्धिपत्रकम् । पृ० पं० ८४९ ८७८ ९०३ ९०६ १ ८ २७ ९२ .६ ९४ १३ १०४ १० १०४ १३ १०४ __ १४ १०४ १०८ ८ १०८ १७ १०८ २१ शुद्धपाठः न्यापेक्षया, तिषेधो जीववक्तव्यतां वद्भिर्दया [सटीकस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य तृतीयपरिशिष्टे शुद्धपाठा:] इति आचार्यवसुनन्दि न, स्थूल रेकत्वम् । तथा प्रेरकः प्राह प्राप्ताः, इत्यकृताभ्यागमः । वि नासो पञ्चदश अर्हद्-धर्मा-ऽऽचार्य-वाचक-स्थविर°आदिचरणस्स, बिदिया.... ४४५ ॥ जत्थ जत्थ समयम्मि । न हि ग्गनिलुक्को, अवमओ, - x [पृ०८४७ पं०३] योजनशतानि तदगुरुलघु, सर्वं वस्त्व चंपा महुरा... मिहिला होइ 'युगले गर्भ १०९ १११ १२ १५ ११५ ११५ १२० १३३ १ १४ १ १४ १३५ १३६ १३६ बादरं दोषः १३६ १३७ १३७ १५७ ६ २३ 'द्यकुशलो यस्तस्यात्मीयं °सहस्राणि गुणिता सह हेतुना Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं परिशिष्टम् । १०५ पृ० १५७ १५९ १६४ १६५ 8 9 ง แ * * 9 शुद्धपाठः 'चारे सप्तमेऽधिकारे वसु 'बुगजोइक्खे । 'पदेष्टणाम्, चस्य वार्थत्वात्, घय-गुल-मधु-मज-खज्जग पसुवधा 'कालसमयंसि एगे देवे 'दिय-चक्खिंदियतंजहासुया ! जवणिज्जे दिय-जिब्भिंदिय १६७ १६९ १७१ १७२ १७३ १७३ २१ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि १. मेरुपर्वतस्य स्वरूपम् मेरु पर्वत और गतिशिल ज्योतिषचक्र पंडकवन... 4 नक्षत्र ८८४ योजन चंद्र ८८० योजन ॐ सूर्य ८०० योजन * तारा ७९० योजन . अभिषेक शनि ग्रह ९०० योजन PH शिला + मंगळ ग्रह ८९७ योजन * गुरु ग्रह ८९४ योजन शुक्र ग्रह ८९१ योजन Earol ..... बुध ग्रह ८८८ योजन १००० योजन। mein सोमनस * वन S३६००० याजन MEEM, मेखला KAMAN MIRAM I0 111111A MITTIVRITTAMAT MUNAWATI MITA अभिजीत MANTIDURATIO-AWAN १६२५०० योजन MIN नंदनवन mmyi भद्रशाल १००० योजन | ५०० योजन भूमिस्थाने १०००० योजन विस्तार कंद विभाग पहला कांड १००९०. योजन १० भाग Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । २. जम्बूद्वीपस्य सामान्येन स्वरूपम् Apnyar REES - - Pah NEHR S4 Pph Lho निषध पर्यंत निषध पर्वत तिल महारिमयंत प.Xause ANALANKAR लघुहिमर्वत प. K aal दीर्घवेतालय प. Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । ३. जम्बूद्वीपस्य विशेषतः स्वरूपम् १लाख योजन प्रभास वरदाम माग पुरलाख योजन ५ . HITA अयोध्या . खंड-६ औरवत - 2014 ... TRVA - .. .. ... E३ अनुर तमिमाडापाल 5-४ा वड REP A AAAAAMRAT SOपाती रूप्यकला ना खंड-३ RAMANAVANAA सुवर्णकला नारी - N दिला नारी जातानदीrala कान्ता नगी र प TWधर (CANकया FESED SEdia AGARPAL EEEEEEG NALIGARE NEEDIENA RAJMAAYA DURATI सबERTARA Bघ SEREAam FDMROMAA EHERE REGE AGRAM HEARDPRE Kamsum RaMER MINHERI Minimum । DE 0:mil हरकता महापग्रह दिला नदी KARE EKAN... IMATIALA पद्मद्रह खंड-३ उत्तर भरत IME-४ बाट तानसभडप्रपाता पENER 5.ED ar NWARMINE ॥ : MDU P/भरतक्षेत्र r Pol 4 . चंड : alhi : PA अयोध्या MANY Pासदाम मागध 0 मनिपानियतमा महाक्षेत्रमा PLUS कुलगिरि (पाताल काम Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । ४. अर्धतृतीयद्वीप-समुद्राणां स्वरूपम् To IT0 APNAMAHAARTI IASARMA SHAAI blliAnjay MAMAIRAMMAAR म बनायतप (Sapphirusnsts HTAS asiaTS HTTER . Co" BAIResis बाबय जय FAS forgas भाजन OKSATT NA/AFANIITS VENUE 21ONA TORI सजनाVIRUThe O VEKAITTET COLORS EMAAVA AAAAA MERA yo HALFVERSatar STRIMONSIEVESHETERIA Lails SAMASEAN SSASALARE मREEK LA TYT AAASAB AF NEERI । AMA REERNE PACLUSINE ATEDAATMAA RAA BACAAAAAORRENESS SA IYE S JEI HER AAAAAV KEEELER NATO - D VNAMAVAAD Date AAA -:: TIMRO Y APURNAL LLE. MMA Hamarpa ANCoda Me Fort RA ADDARBP 38 IFET HAIR rcDALA प ANDLE hnuTET JAM रा Hasir happs BRANaONALI बा HEL Phos ppppshp भार444 m All समान पर प MADAAR EMEDMAAAL MAHARARI KAMASKAas MES Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । ५. जम्बूद्वीपत: नन्दीश्वरपर्यन्तानां द्वीप-समुद्राणां स्वरूपम् जंबूद्वीप से नंदीश्वर शाश्वत चैत्य = जिन मंदिर नवीधर ...FHDPES द्वीप त्रिभुलमा पचन तरस समुह HEAD पारस RELIELTS बारुणीवर सका। असा स्वाद करवर समुश रुजसा स्वार बार ZIJEFe लवण सात CA STM + R THESELECT १लाख योजन SS TOTA NEE RRENES ४शास्तजिन सीरवर नव (१) ऋषमानन (२) चंद्रानन (३) वर्धमान (1) वारिष शाश्वत चैत्य ४ अंजन गिरि १६ दधि मुख ३२ तिकर CL-INE जंबू द्वीप से ET समुद्र बाद में उत्तरोत्तर समुद्र असंख्य द्वीप समुद है। और द्वीप द्विगुण माप से जानना। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । ६. चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्य स्वरूपम् जैन दर्शनानुसारे विश्वदर्शन-१४ राजलोक- अन्त लोकाग्रभाग अनंत - अनंत मिद भगवंत । सिद्धशिला - '', अनुत्ता -M E -नव ग्रेवयक अ १२ वैमानिक देवलोक EEFIFE लो का लो MEE नव लोकान्तिक ...V ३ किल्विषिक अनंत -RINAR -अलाकाकाशाचा अचा यानिष चक्र पका वाणव्यनर व्यंतर ५० भवनात मर, पर्वत अमट्य द्वीप समद्रा लप्रभाMAN -नरक शला ५. परमाधामी ७ तिर्छा १० नियंग जंभक लोक घनाधिवलय घनवानवलय तनवातवलय शर्करा प्रभा स नरक वालुका प्रमा -- नरक ३ पंक प्रभा धूम प्रभा नरक५ तमः प्रभा FILTH अलोक त्रसनाडी अलोक Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । ७. अर्धतृतीयद्वीप-समुद्रेषु चन्द्र-सूर्यस्वरूपम् २१ सूर्यो २सूर्यो 12. 15 12. लवण समुद्र २सूया कालोदधि समुद्र २१ सूर्यो Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. घनोदधि-घनवात-तनुवातसमेतायाः त्रिकाण्डमय्या रत्नप्रभापृथिव्याः स्वरूपम् ८ - त्रिकाण्डमय रत्नप्रभा पृथ्वीसंपूर्णमान १ स्थरकाण्ड-१६ह.यो. लाख ८०ह.योजन २ पंककाष्ठ-८५ह.यो. ३ जलका-८०.यो. यो यो यो यो.यो. यो. बाप समद्रा असरच्या MADAINIK Paris - - *बाचन को खरकाण्ड 03201 A - Ac F2 NEEMS? बाजा जलकाण्ड । पककाण्ड -८० .यो. जाडाई-८४ ह-योजन उच्या श आ . . धवलय घनवात बलय म तनखात बलय SHAR का का योजन असंख्य असंख्य २० आ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । ९. छत्रातिच्छत्राकारेणावस्थितानां सप्तानां नारकपृथ्वीनां स्वरूपम् - छत्रानिछत्र आकारे सात नारकी नुं चित्र --~-समभूतला पृथ्वी रत्नप्रभा नारक १८००० यो. सत्यस्व मरावास ---लोक मध्य शर्कराम्रमा ना. १३२००० यो. पलावन १५लाखन. प्रतर- - वालुकाप्रभा ना १२८००० यो. १०लाखन. प्रतर- - पंकप्रमा ना. १२००००यो. अधोलोक मध्य -धूमप्रभा ना. ११८००० यो. ३लाखन. प्रतर-५ १९९९५ न. प्रतर-३ वमन्यमाना. १६०००यो. ५नरकावास प्रतर-१ तमस्तमप्रमा १०८०००यो. अपावण मरासमप्रमा Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । प्रभंकर र अर्थिमाली बराचन HOOL १०. अष्टौ कृष्णराजयः अष्टकृष्णराजी पूर्वदिशा RATTIMAषाण १आय -शुक्राभ 3 HR HTTA Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ ११. लवणसमुद्रे एकस्य दंष्ट्रायां विद्यमानानां सप्तानाम् अन्तरद्वीपानां स्वरूपम् सप्रमाण दर्शन - ९०० यो. AAJA S R 450 ला उपर अंतरद्वीपो। MES । । 1000000000 T] ७०० ८४०० योजन लांबी पर्वतनी दाठा उपर TA conomy ANSNEW MHMAN HERNMENT THESENIOR RECE R काजल AS R AndRAINEEM Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । RE yamay PAN H बननादाट 15 Kaa १२. लवणसमुद्रे विद्यमानानां षट्पञ्चाशत अन्तरद्वीपानां स्वरूपम् K PER ANNADASANA Menit S NEKIMAN Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ चित्राणि । १३. उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपस्य एकस्य कालचक्रस्य मानम् --- १० म - - - प २ ग सुधम 705 ---- कालचक्र ८ - सा की डा -कालचक्र --- को ही ५४ १०९ उत्सर्पिणी ---- अवसर्पिर -- - PORY सागरोपम ४कोडाकोडी सुषमसुषम सा --- सागरोपम ४ कोडाफोडी सुषमसुषम या -- कालचक्र-6. तडा का डी प ०४.--> - -- म - -- । कालचक्र-6-- Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. उत्सेध-आत्म-प्रमाणभेदेन अङ्गुलादीनां मानानां स्वरूपम् आठयवमध्य एक उल्लेघांगुल. छअंगुलबो पाद. बेपादनी देत. वे हाथनी कुक्षी अथवा वाम. चार हाथy धनुष्य अथवा दंड. बैहजार धनुष्यनो अक गाठ. चारंगाउनोअक योजन. चित्राणि । बेठेतनो हाथ. आवा४०० उत्सेधांगुले १प्रमाणागुंल माप आवे. अने बेउमेघांगुले एक वीरप्रभुनु आंगुल थाय M Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. शास्त्रीयाणि व्यावहारिकाणि च विविधानि मानानि अंगुलमान .In Came Pinter वेतमान HO -हाथमान चित्राणि । BAHAR "धनुषमान 1. THULIHLIMIRE Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । १६. वैमानिकप्रस्तराणां स्वरूपम् प. Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । १७. समभूतलापृथ्वीस्थानं व्यन्तर-वानव्यन्तरनिकायस्थानानि च समभूतला पृथ्वी स्थान अने पाणव्यंतर, व्यतर्रानकाय स्थान ARRANT समभूतलापृथ्वी स्थान शून्य पृथ्वी पिण्ड वाणव्यता निकाय स्थान ८०यो. ००० व पृथ्वी पिण्णु 4 . निकाय दक्षिण निकाय स्थान उत्तर निकाय १०० या.१८०० योजन- Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MONI Pains Dasiya FONITORIALSIDAIMAHIMotoramster maMINMEN Rametime online E meiEC w - - Mainesamaya ankuwasangkutan c hips-deci. Milioni seDHNEY. emnid me R ahu .. चित्राणि । जलशिरव %EO 14-- 007 १८. लवणसमुद्रे जलवृद्धिः Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । Tara REAM - a in०००38 HA १९. लवणसमुद्रे जलवृद्धिः लवण समुद्रमा शिवानी दवाव FIR ET समय 74 १०००० 1. Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । २०. चन्द्रविमानस्य राहुणा आवरणेन प्रतिभासमाने हानि-वृद्धी चन्द्रनी नित्य [ध्रुवा राहुथी थती पाक्षिकी हानि-वृद्धिनो देवाव ६GS ध्रुव शुहुन विमान Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Eib leite BBIEBARELI SANSAR PROANRAIMINATAK N AMATPORDPRESS assemewa - GandhiT ANGLOR चित्राणि । kiwanNS Resuneeleon anduatemart- Sorrysmenomenormatiews PREn RIATRINNOVEMBINISTER - RAMAINMEAN I N-13 -23 SARAMVARANE KIDS androine RIMARIE m ine -Mone २१. लवणसमुद्रे जलवेलावृद्धिकारणस्य पातालकलशस्य स्वरूपम् Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. सूर्ययोर्मण्डलानां स्वरूपम् २७ सूर्य सूर्यन परस्पर अन्तरमान R वन्यन्तर २०यो. - --योजन-- ४४८ अबाधा सवालामाल चित्राणि । लवण मबुद्ध Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. जम्बूद्वीपे लवणसमुद्रे च चन्द्रमण्डलानि जम्बूद्धीप अन लवण समुद्र वर्ति चन्दना मंडलो LEH RISPR । सर्वाभ्यन्तर सर्वम्यातरमः - --- - - चित्राणि । . -----.. --... - *- - पवबाग महल लवण समुद्र H जम्बू Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि । २४. अरुणवरसमुद्रादुत्तिष्ठत: तमस्कायस्य स्वरूपम् ॥अरुणवर समुदमांथी उछळतो तमस्काय देखाव॥ - अष्टकृष्णराजी ILAM EPALA TE - ५ । 1ND M । तमस्काय आकार - - सायटीप समुद्र VISITURELATEST अरूणवर खाप HIP रासस MPअरुणवर समद्र Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्राणि। २५. समचतुरस्रसंस्थानस्य संहननानां च स्वरूपम् MAHAR SIS NE HESAR LA EN Dhire SHARE PER Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ van een For Prvate & Petronal Use Only ne lib Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नाकोडा जैन तीर्थ Sou nte nationally For Private & Personal use only www.jainelibrary.eu Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________