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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श ४१ की परम्परा समाप्त हो गयी । इनका स्वर्गवास काल वीरनिर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् माना जाता है। इसके पश्चात् स्थूलिभद्र दसपूर्वो के अर्थ सहित और शेष चार पूर्वो के मूल मात्र के ज्ञाता हुए। यथार्थ में तो वे दस पूर्वो के ही ज्ञाता थे । तित्थोगालिय में स्थूलिभद्र को दस पूर्वधरों में प्रथम कहा गया है । उसमें अन्तिम दसपूर्वी सत्यमित्र-पाठभेद से सर्वमित्र- को बताया गया है, किन्तु उनके काल का निर्देश नहीं किया गया है। उसके बाद उस ग्रन्थ में यह उल्लेखित है कि अनुक्रम से भगवान महावीर के निर्वाण के १००० वर्ष पश्चात् वाचक वृषभ के समय में पूर्वगत् श्रुत का विच्छेद हो जायेगा । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दस पूर्वधरों के पश्चात् भी पूर्वधरों की परम्परा चलती रही है, श्वेताम्बरों में अभिन्न-अक्षर दसपूर्वधर और भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर, ऐसे दो प्रकार के वर्गो का उल्लेख है, जो सम्पूर्ण दस पूर्वो के ज्ञाता होते, वे अभिन्न- अक्षर दसपूर्वधर कहे जाते थे और जो आंशिक रूप से दस पूर्वो के ज्ञाता होते थे, उन्हें भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर कहा जाता था । इस प्रकार हम देखते हैं कि चतुर्दश पूर्वधरों के विच्छेद की इस चर्चा में दोनों परम्परा में अन्तिम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु को ही माना गया है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् और दिगम्बर परम्परा के अनुसार १६२ वर्ष पश्चात् चतुर्दश पूर्वधरों का विच्छेद हुआ । यहाँ दोनों परम्पराओं में मात्र आठ वर्षों का अन्तर है । किन्तु दस पूर्वधरों के विच्छेद के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में कोई समरूपता नहीं देखी जाती है । श्वेताम्बर परम्परानुसार आर्य सर्वमित्र और दिगम्बर परम्परा के अनुसार आर्य धर्मसेन या आर्य सिद्धार्थ अन्तिम दस पूर्वी हुए हैं । श्वेताम्बर परम्परा में आर्य सर्वमित्र को अन्तिम दस पूर्वधर कहा गया है । दिगम्बर परम्परा में भगवतीआराधना के कर्ता शिवार्य के गुरूओं के नामों में सर्वगुप्तगणि और मित्रगणि नाम आते हैं किन्तु दोनों में कोई समरूपता हो यह निर्णय करना कठिन है। दिगम्बर परम्परा में दस पूर्वधरों के पश्चात् एकदेश पूर्वधरों का उल्लेख तो हुआ है किन्तु उनकी कोई सूची उपलब्ध नहीं होती। अत: इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की तुलना कर पाना सम्भव नहीं है । पूर्व साहित्य के विच्छेद की चर्चा के पश्चात् तित्थोगालिय में अंग साहित्य के विच्छेद की चर्चा हुई है, जो निम्नानुसार है उसमें उल्लिखित है कि वीरनिर्वाण के १२५० वर्ष पश्चात् विपाकसूत्र सहित छ: अंगों का विच्छेद हो जायेगा । इसके पश्चात् वीरनिर्वाण सं.१३०० में समवायांग का, वीरनिर्वाण सं. १३५० में स्थानांग का, वीरनिर्वाण सं.१४०० में कल्प-व्यवहार का, वीरनिर्वाण सं. १५०० में आयारदशा का, वीरनिर्वाण सं. १९०० में सूत्रकृतांग का और वीरनिर्वाण सं. २००० में निशीथसूत्र का विच्छेद होगा । ज्ञातव्य है कि इसके पश्चात् लगभग अठारह हजार वर्ष तक विच्छेद की कोई चर्चा नहीं है । फिर वीरनिर्वाण सं. २०,००० में आचारांग का, वीरनिर्वाण सं. २०५०० में उत्तराध्ययन का, वीरनिर्वाण सं. २०९०० में दशवैकालिक मूल का और वीरनिर्वाण सं. २१,००० में दशवैकालिक के अर्थ का विच्छेद होगा- यह कहा गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001143
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutram Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages566
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, G000, G015, & agam_samvayang
File Size42 MB
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