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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
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में समाहित किये- क्योंकि दोनों में भाषा एवं विषय-वस्तु दोनों ही दृष्टि से कम ही अन्तर था। माथुरी वाचना के आगम या तो उन्हें उपलब्ध ही नहीं थे अथवा भाषा एवं विषय-वस्तु दोनों की अपेक्षा भिन्नता अधिक होने से उन्होंने उसे आधार न बनाया हो । फिर भी देवर्धि को परम्परा से प्राप्त जो आगम थे. इनका और माथरी वाचना के आगमों का मलस्रोत तो एक ही था । हो सकता है कि दोनों में कालक्रम में भाषा एवं विषय-वस्तु की अपेक्षा क्वचित् अन्तर आ गये हों । अत: यह दृष्टिकोण भी समुचित नहीं होगा कि देवर्धि की वल्लभी वाचना के आगम माथुरी वाचना के आगमों से नितान्त भिन्न थे । यापनीयों के आगम
यापनीय संघ के आचार्य आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प,निशीथ, व्यवहार, आवश्यक आदि आगमों को मान्य करते थे । इस प्रकार आगमों के विच्छेद होने की जो दिगम्बर मान्यता है, वह उन्हें स्वीकार्य नहीं थी । यापनीय आचार्यों द्वारा निर्मित किसी भी ग्रन्थ में कहीं भी यह उल्लेख नही हैं कि अंगादि-आगम विच्छिन्न हो गये हैं। वे आचारांग, सुत्रकृतांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन. निशीथ. बहत्कल्प, व्यवहार, कल्प आदि को अपनी परम्परा के ग्रन्थों के रूप में उद्धरित करते थे । इस सम्बन्ध में आदरणीय पं.नाथूराम प्रेमी (जैन साहित्य और इतिहास, प्र.९१) का यह कथन द्रष्टव्य है-"अक्सर ग्रन्थकार किसी मत का खण्डन करने के लिए उसी मत के ग्रन्थों का हवाला दिया करते हैं और अपने सिद्धान्त को पुष्ट करते हैं परन्तु इस टीका (अर्थात् भगवती-आराधना की विजयोदया टीका) में ऐसा नहीं हैं, इसमें तो टीकाकार ने अपने ही आगमों का हवाला देकर अचेलता सिद्ध की है।"
आगमों के अस्तित्व को स्वीकार कर उनके अध्ययन और स्वाध्याय सम्बन्धी निर्देश भी यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में स्पष्ट रूप से उपलब्ध होते हैं । मूलाचार (५/८०-८२) में चार प्रकार के आगम ग्रन्थों का उल्लेख हैं- १.गणधर कथित, २.प्रत्येकबुद्ध कथित, ३.श्रुतकेवलि कथित और ४.अभिन्न दशपूर्वी कथित ।
. इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि संयमी पुरुषों एवं स्त्रियों अर्थात् मुनियों एवं आर्यिकाओं के लिए अस्वाध्यायकाल में इनका स्वाध्याय करना वर्जित है किन्तु इनके अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका अस्वाध्यायकाल में पाठ किया जा सकता हैं, जैसे- आराधना (भगवतीआराधना या आराधनापताका), नियुक्ति, मरणविभक्ति, संग्रह (पंचसंग्रह या संग्रहणीसूत्र), स्तुति (देविंदत्थुय), प्रत्याख्यानं (आउरपच्चक्खाण एवं महापच्चक्खाण), धर्मकथा (ज्ञाताधर्मकथा) तथा ऐसे ही अन्य ग्रन्थ।
यहाँ पर चार प्रकार के आगम ग्रन्थों का जो उल्लेख हुआ है, उस पर थोड़ी विस्तृत चर्चा अपेक्षित है, क्योंकि मूलाचार की मूलगाथा में मात्र इन चार प्रकार के सूत्रों का उल्लेख हुआ है। उसमें इन ग्रन्थों का नाम निर्देश नहीं है । मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दि न तो यापनीय परम्परा से सम्बद्ध थे और न उनके सम्मुख ये ग्रन्थ ही थे । अत: इस प्रसंग में उनकी प्रत्येक-बुद्धकथित
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