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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
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इससे स्पष्ट होता है कि जब दिगम्बर आचार्यों ने इस यापनीय ग्रन्थ को अपने में समाहित किया होगा तो इसकी मूल गाथाओं के शब्दों में भी हेर-फेर कर दिया होगा । यदि पं.कैलाशचन्द्रजी ने उन सभी स्थलों का जहाँ उन्हें पाठभेद प्रतीत हुआ, निर्देश किया होता तो सम्भवत: हम अधिक प्रमाणिकता से कुछ बात कह सकते थे । टीका और मूल के सारे अन्तरों को हम भी अभी तक खोज नहीं पाये हैं । अत: अभी तो उनके मत को ही विश्वसनीय मानकर संतोष करेंगे । स्वयंभू के रिट्ठनेमिचरिउ (हरिवंशपुराण) में भी इसी प्रकार की छेड़-छाड हुई थी। इस सन्दर्भ में पं.नाथुरामजी प्रेमी (जैन साहित्य और इतिहास, पृ.२०२ ) लिखते हैं- “इनमें तो संदेह नहीं है कि इस अन्तिम अंश में मुनि जसकित्ति (यशकीर्ति) का भी हाथ है परन्तु यह कितना है यह निर्णय करना कठिन हैं । बहुत कुछ सोच-विचार के बाद हम इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि मुनि जसकित्ति को इस ग्रन्थ की कोई ऐसी जीर्ण-शीर्ण प्रति मिली थी जिसके अन्तिम पत्र नष्ट-भ्रष्ट थे और शायद अन्य प्रतियाँ दुर्लभ थीं, इसलिए उन्होंने गोपगिरि (ग्वालियर) के समीप कुमरनगरी के जैन मन्दिर में व्याख्यान करने के लिए इसे ठीक किया अर्थात् जहाँ-जहाँ जितना अंश पढ़ा नहीं गया था या नष्ट हो गया था, उसको स्वयं रचकर जोड़ दिया और जहाँ-जहाँ जोड़ा, वहाँवहाँ अपने परिश्रम के एवज में अपना नाम भी जोड़ दिया ।" इससे स्पष्ट है कि कुछ दिगम्बर आचार्यों ने दूसरों की रचनाओं को भी अपने नाम पर चढ़ा लिया ।
इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ति में भी पर्याप्त रूप से मिलावट हुई है । जहाँ “तिलोयपण्णत्ति" का ग्रन्थ-परिमाण ८००० श्लोक बताया गया है वहाँ वर्तमान तिलोयपण्णत्ति का श्लोक-परिमाण ९३४० है अर्थात् लगभग १३४० श्लोक अधिक हैं । पं.नाथुरामजी प्रेमी के शब्दों में- ये इस बात के संकेत देते हैं कि पीछे से इसमें मिलावट की गयी है । इस सन्दर्भ में पं.फूलचन्द्रशास्त्री के, जैन साहित्य भास्कर, भाग ११, अंक प्रथम में प्रकाशित “वर्तमान तिलोयपण्णत्ति और उसके रचनाकार का विचार" नामक लेख के आधार पर वे लिखते हैं-"उससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ अपने असल रूप में नहीं रहा है। उसमें न केवल बहुत सा लगभग एक अष्टमांश प्रक्षिप्त हैं, बल्कि बहुत-सा परिवर्तन और परिशोध भी किया गया हैं, जो मूल ग्रन्थ कर्ता के अनुकूल नहीं हैं।" इसी प्रकार कसायपाहुडसुत्त की मूल गाथाएँ १८० थी, किन्तु आज उसमें २३३ गाथाएँ मिलती हैं- अर्थात् उसमें ५३ गाथाएँ परवर्ती आचार्यों द्वारा प्रक्षिप्त हैं । यही स्थिति कुन्दकुन्द के समयसार, वट्टकेर के मूलाचार आदि की भी है। प्रकाशित संस्करणों में भी गाथाओं की संख्याओं में बहुत अधिक अन्तर हैं । समयसार के ज्ञानपीठ के संस्करण में ४१५ गाथायें हैं तो अजिताश्रम संस्करण में ४३७ गाथायें । मूलाचार के दिगम्बर जैनग्रन्थमाला के संस्करण मे १२४२ गाथाएँ हैं तो फलटण के संस्करण में १४१४ गाथाएँ है अर्थात् १६२ गाथाएँ अधिक हैं, यह सब इस बात का प्रमाण है कि दिगम्बर परम्परा के आचार्यों ने श्वेताम्बरों और यापनीयों की अपेक्षा बहुत अधिक प्रक्षेप एवं परिवर्तन किया है । इन उल्लेखों के अतिरिक्त वर्तमान में भी इस प्रकार के परिवर्तनों के प्रयास हुए हैं । जैसे “धवला" के सम्पादन के समय मूल ग्रन्थ षट्खण्डागम से "संजद" पद
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