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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
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'श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य जो आगम ग्रन्थ हैं, यापनीय संघ शायद उन सभी को मानता था, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि दोनों के आगमों में कुछ पाठभेद था और उसका कारण यह हो कि उपलब्ध वल्लभी वाचना के पहले की कोई वाचना (संभवत: माथुरी वाचना ) यापनीय संघ के पास थी, क्योंकि विजयोदयाटीका में आगमों के जो उद्धरण हैं वे श्वेताम्बर आगमों में बिल्कुल ज्यों के त्यों नहीं बल्कि कुछ पाठभेद के साथ मिलते हैं । यापनीयों के पास स्कंदिल की माथुरी वाचना के आगम थे यह मानने में एक बाधा आती है, वह यह कि स्कंदिल की वाचना का काल वीरनिर्वाण ८२७- ८४० अर्थात् ईसा की तृतीय शती का अन्त और चतुर्थ शती का प्रारम्भ है, जबकि संघभेद उसके लगभग २०० वर्ष पहले ही घटित हो चुका था । किन्तु पं. नाथुरामजी यह शंका इस आधार पर निरस्त हो जाती हैं कि वास्तविक सम्प्रदाय भेद ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी न होकर पाँचवी शती में हुआ यद्यपि यह माना जाता है कि फल्गुमित्र की परम्परा की कोई वाचना थी, किन्तु इस वाचना के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश कहीं भी उपलब्ध नहीं है । निष्कर्ष यह है कि यापनीय आगम वही थे, जो उन नामों से आज श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध है । मात्र उनमें किंचित् पाठभेद था तथा भाषा की दृष्टि से शौरसेनी का प्रभाव अधिक था । यापनीय ग्रन्थों में आगमों के जो उद्धरण मिलते है उनमें कुछ तो वर्तमान श्वेताम्बर परम्परा के आगमो में अनुपलब्ध हैं, कुछ पाठान्तर के साथ उपलब्ध हैं। जो अनुपलब्ध हैं, उनके सम्बन्ध में दो विकल्प हैं- प्रथम यह कि मूलागमों के वे अंश बाद के श्वेताम्बर आचार्यो ने अगली वाचना में निकाल दिये और दूसरा यह कि वे अंश यापनीय मान्यता के प्रक्षिप्त अंश हो । किन्तु प्रथम विकल्प में इसलिए विश्वास नहीं होता कि यदि परवर्ती वाचनाओं में वे सब बातें, जो उस युग के आचार्यो को मान्य नहीं थी या उनकी परम्परा के विरुद्ध थी, निकाल दी गई होती तो वर्तमान श्वेताम्बर आगमों में अचेलता के समर्थक सभी अंश निकाल दिये जाने चाहिए थे । मुझे ऐसा लगता है कि आगमों की वाचनाओं (संकलन) के समय केवल वे ही अंश नहीं आ पाये थे जो विस्मृत हो गये थे अथवा पुनरावृत्ति से बचने के लिए "जाव" पाठ देकर वहाँ से हटा दिये गये थे। मान्यता भेद के कारण कुछ अंश जानबूझकर निकाले गये हो, ऐसा कोई भी विश्वसनीय प्रमाण हमें नहीं मिलता है । किन्तु यह हो सकता है कि वे अंश किसी अन्य गण की वाचना के रहे हो, जिनके प्रतिनिधि उस वाचना में सम्मिलित नहीं थे । कुछ ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं कि विभिन्न गणों में वाचना-भेद या पाठभेद होता था । विभिन्न गणों के निर्माण का एक कारण वाचना भेद भी माना गया है । यह कहा जाता है कि महावीर के ग्यारह गणधरों की नौ वाचनाएँ थी अर्थात् महावीर के काल में भी वाचना-भेद था । क्योंकि प्रत्येक वाचनाचार्य की अध्यापन शैली भिन्न होती थी । ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में शब्द के स्थान पर अर्थ पर बल दिया जाता था, तीर्थंकर को अर्थ का प्रवर्तक माना गया था जबकि वैदिक परम्परा शब्द प्रधान थी । यही कारण है कि जैनो ने यह माना कि चाहे शब्द भेद हो, पर अर्थ - भेद नहीं होना चाहिए । यही कारण है कि वाचना भेद बढ़ते गये । हमें यापनीय ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक उद्धरणों से वर्तमान आगमों के पाठों का जो पाठभेद मिलता है उनका कारण वाचना-भेद है, अर्थ
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