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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श द्वारा आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में जो प्रश्न उठाये गये हैं उनका विवरण हमें पालित्रिपिटक में भी उपलब्ध होता है । इससे यह फलित होता है कि औपपातिक का यह अंश कम से कम पालित्रिपिटक जितना प्राचीन तो है ही । जीवाजीवाभिगम के रचनाकाल को निश्चित रूप से बता पाना तो कठिन है, किन्तु इसकी विषय-वस्तु के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वह ग्रन्थ ई.पू. की रचना होनी चाहिये । उपांग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को तो स्पष्टत: आर्य श्याम की रचना माना जाता है । आर्य श्याम का आचार्यकाल वी.नि.सं. ३३५-३७६ के मध्य माना जाता है । अत: इसका रचनाकाल ई.पू. द्वितीय शताब्दी के लगभग निश्चित होता है ।
इसी प्रकार उपांग वर्ग के अन्तर्गत वर्णित चन्दप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति- ये तीन प्रज्ञप्तियाँ भी प्राचीन ही है । वर्तमान में चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दिखाई देता है । किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति में ज्योतिष सम्बन्धी जो चर्चा है वह वेदांग ज्योतिष के समान है, इससे इसकी प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है । यह ग्रन्थ किसी भी स्थिति में ई.पू.प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। इन तीनों प्रज्ञप्तियों का दिगम्बर परम्परा में भी दष्टिवाद के एक अंश--परिकर्म के अन्तर्गत माना है । अत: यह ग्रन्थ भी दृष्टिवाद के पूर्ण विच्छेद एवं सम्प्रदाय-भेद के पूर्व का ही होना चाहिये ।
छेदसूत्रों में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार को स्पष्टत: भद्रबाहु प्रथम की रचना माना गया है अत: इसका काल ई.पू. चतुर्थ-तृतीय शताब्दी के बाद का नहीं हो सकता है । ये सभी ग्रन्थ अचेल परम्परा में भी मान्य रहे हैं, इसी प्रकार निशीय भी अपने मूल रूप में तो आचारांग की ही एक चूला रहा हैं, बाद में उसे पृथक् किया गया है । अत: इसकी प्राचीनता में भी सन्देह नहीं किया जा सकता । याकोबी, शूबिंग आदि पाश्चात्य विद्वानों ने एकमत से छेदसूत्रों की प्राचीनता स्वीकार की है। इस वर्ग में मात्र जीतकल्प ही ऐसा ग्रन्थ हैं जो निश्चित ही परवर्ती है । पं.दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार यह आचार्य जिनभद्र की कृति है । ये जिनभद्र विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता हैं । इनका काल अनेक प्रमाणों से ई.सन्.की सातवीं शती है । अत: जीतकल्प का भी काल वही होना चाहिये । मेरी दृष्टि में पं.दलसुखभाई की यह मान्यता निरापद नहीं हैं, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में इन्द्रनन्दि के छेदपिण्डशास्त्र में जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित्त देने का विधान किया गया है, इससे फलित होता है कि यह ग्रन्थ स्पष्ट रूप से सम्प्रदाय भेद से पूर्व की रचना होनी चाहिये। हो सकता है इसके कर्ता जिनभद्र विशेषावश्यक के कर्ता जिनभद्र से भिन्न हों और उनके पूर्ववर्ती भी हों । किन्तु इतना निश्चित है कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में जो आगमों की सूची मिलती है उसमें जीतकल्प का नाम नहीं है । अत: यह उसके बाद ही रचना होगी । इसका काल भी ई.सन् की पाँचवी शती का उत्तरार्द्ध होना चाहिये । इसकी दिगम्बर और यापनीय परम्परा में मान्यता तभी संभव हो सकती है जब यह स्पष्ट रूप से संघभेद के पूर्व निर्मित हुआ हो । स्पष्ट संघभेद पाँचवी शती के उत्तरार्ध में अस्तित्व में आया है । छेद वर्ग में महानिशीथ का उद्धार आचार्य हरिभद्र ने किया था, यह सुनिश्चित है । आचार्य हरिभद्र का काल ई.सन्. की आठवीं शती माना
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