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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
रहेगा और न कभी होगा । यह सदैव था, सदैव है और सदैव रहेगा । यह ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है ।" इस प्रकार जैन चिन्तक एक ओर प्रत्येक तीर्थंकर के उपदेश के आधार पर उनके प्रमुख शिष्यों के द्वारा शब्द-रूप में आगमों की रचना होने की अवधारणा को स्वीकार करते हैं तो दूसरी ओर अर्थ या कथ्य की दृष्टि से समरूपता के आधार पर यह भी स्वीकार करते हैं कि अर्थ रूप से जिन-वाणी सदैव थी और सदैव रहेगी । वह कभी भी नष्ट नहीं होती है । विचार की अपेक्षा से आगमों की शाश्वतता और नित्यता मान्य करते हुए भी जैन परम्परा उन्हें शब्द रूप से सृष्ट और विच्छिन्न होने वाला भी मानती है । अनेकान्त भाषा में कहें तो तीर्थंकर की अनवरत परम्परा की दृष्टि से आगम शाश्वत और नित्य है, जबकि तीर्थंकर विशेष की शासन की अपेक्षा से वे सृष्ट एवं अनित्य हैं ।
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वैदिक साहित्य में वेदों के पश्चात् क्रमशः ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों का क्रम आता है । इनमें ब्राह्मण ग्रन्थ मुख्यतः यज्ञ-याग सम्बन्धी कर्मकाण्डों का विवरण प्रस्तुत करते है। अतः उनकी शैली और विषय वस्तु दोनों ही अर्धमागधी आगम साहित्य से भिन्न है । आरण्यकों के सम्बन्ध में अभी तक सम्यक् अध्ययन नहीं कर पाया हूँ अतः उनसे अर्धमागधी आगम साहित्य की तुलना कर पाना मेरे लिये सम्भव नहीं है । किन्तु आरण्यकों में वैराग्य, निवृत्ति एवं वानप्रस्थ जीवन के अनेक तथ्यों के उल्लेख होने से विशेष तुलनात्मक अध्ययन द्वारा उनमें और जैन आगमों में समरूपता को खोजा जा सकता है ।
जहाँ तक उपनिषदों का प्रश्न है उपनिषदों के अनेक अंश आचारांग, इसिभासियाइं आदि प्राचीन अर्धमागधी आगम साहित्य में भी यथावत् उपलब्ध होते हैं । याज्ञवल्क्य, नारद, कपिल, असितदेवल, अरुण, उद्दालक, पाराशर आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख एवं उपदेश इसिभासियाई, आचारांग, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में उपलब्ध हैं । इसिभासियाइं में याज्ञवल्क्य का उपदेश उसी रूप में वर्णित है, जैसा वह उपनिषदों में मिलता है । उत्तराध्ययन के अनेक आख्यान, उपदेश एवं कथाएँ मात्र नाम-भेद के साथ महाभारत में भी उपलब्ध है । प्रस्तुत प्रसंग में विस्तारभय से वह सब तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है । इनके तुलनात्मक अध्ययन हेतु इच्छुक पाठकों को इसिभासियाई की मेरी भूमिका एवं जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन खण्ड १ एवं २ देखने की अनुशंसा करके इस चर्चा को यहीं विराम देता हूँ । पालित्रिपिटक और जैनागम
पालित्रिपिटक और जैनागम अपने उद्भव स्रोत की अपेक्षा से समकालिक कहे जा सकते है, क्योंकि पालित्रिपिटक के प्रवक्ता भगवान बुद्ध और जैनागमों के प्रवक्ता भगवान महावीर समकालिक ही है । इसलिए दोनों के प्रारम्भिक ग्रन्थों का रचनाकाल भी समसामयिक है । दूसरे जैन परम्परा और बौद्ध परम्परा दोनों ही भारतीय संस्कृति की श्रमणधारा के अंग है अतः दोनों की मूलभूत जीवन-दृष्टि एक ही है । इस तथ्य की पुष्टि जैनागमों और पालित्रिपिटक के तुलनात्मक अध्ययन
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