SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श अर्धमागधी आगमों का वर्गीकरण वर्तमान जो आगम ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न रूप में वर्गीकृत किया जाता हैं - ११ अंग : १.आयार (आचारांग), २.सूयगड (सूत्रकृतांग), ३.ठाण (स्थानांग), ४.समवाय (समवायांग), ५.वियाहपन्नत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवती), ६. नायाधम्मकहाओं (ज्ञात-धर्मकथा:), ७.उवासगदसाओं (उपासकदशा:), ८.अंतगडदासाओं (अन्तकृद्दशाः), ९.अनुत्तरोववाइदसाओ (अनुत्तरौपपातिकदशा:), १०.पण्हावागरणाई (प्रश्नव्याकरणानि), ११.विवागसुयं (विपाकश्रुतम्), १२.दृष्टिवाद (दिठिवाय), जो विच्छिन्न हुआ है । १२ उपांग : १.उपवाइयं (औपपातिकं), २.रायपसेणइजं (राजप्रसेनजित्कं) अथवा रायपसेणियं (राजप्रश्नीयं), ३.जीवाजीवाभिगम, ४.पण्णवणा (प्रज्ञापना), ५.सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्ति), ६.जम्बुद्दीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति), ७.चंदपण्णत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्ति), ८-१२.निरयावलियासुयक्खंध (निरयावलिकाश्रुतस्कन्ध), ८.निरयावलियाओ (निरयावलिका:), ९.कप्पवडिसियाओ (कल्पावतंसिकाः), १०.पुप्फियाओ (पुष्पिकाः), ११.पुप्फचूलाओ (पुष्पचूला:), १२.वण्हिदसाओ (वृष्णिदशाः) । जहाँ तक उपर्युक्त अंग और उपांग ग्रन्थों का प्रश्न है । श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदाय इन्हें मान्य करते हैं । जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय इन्हीं ग्यारह अंगसूत्रों को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि ये अंगसूत्र वर्तमान में विलुप्त हो गये हैं । उपांगसूत्रों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों में एक रूपता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में बारह उपांगों की न तो कोई मान्यता रही और न वे वर्तमान में इन ग्रन्थों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं । यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, दीपसागरप्रज्ञप्ति आदि नामों से उनके यहाँ कुछ ग्रन्थ अवश्य पाये जाते हैं । साथ ही सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी उनके द्वारा दृष्टिवाद के परिकर्म विभाग के अन्तर्गत स्वीकार किया गया था । ४. मूलसूत्र ___सामान्यतया (१) उत्तराध्ययन, (२) दशवैकालिक, (३) आवश्यक और (४) पिण्डनियुक्ति ये चार मूलसूत्र माने गये हैं। फिर भी मूलसूत्रों की संख्या और नामों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एकरूपता नहीं है। जहाँ तक उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का प्रश्न है इन्हें सभी श्वेताम्बर सम्प्रदायों एवं आचार्यों ने एक मत से मूलसूत्र माना हैं । समयसुन्दर, भावप्रभसूरि तथा पाश्चात्य विद्वानों में प्रो.वेबर, प्रो.वूल्हर, प्रो.सारपेन्टियर, प्रो.विन्टरनित्ज, प्रो.शूबिंग आदि ने एक स्वर से आवश्यक को मूलसूत्र माना है, किन्तु स्थानकवासी एवं तेरापन्थी सम्प्रदाय आवश्यक को मूलसूत्र के अन्तर्गत नहीं मानते हैं। ये दोनो सम्प्रदाय आवश्यक एवं पिण्डनियुक्ति के स्थान पर नन्दी और अनुयोगद्वार को मूलसूत्र मानते हैं । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ आचार्यों ने पिण्डनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र में माना है। इस प्रकार मूलसूत्रों के वर्गीकरण और उनके नामों में एक रूपता का अभाव है । दिगम्बर परम्परा में इन मूलसूत्रों में से दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और आवश्यक मान्य रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001143
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutram Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages566
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, G000, G015, & agam_samvayang
File Size42 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy