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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
में आंशिक रूप से उपलब्ध होती है । इसमें आगम साहित्य के अध्ययन का जो क्रम दिया गया है उससे केवल इतना ही प्रतिफलित होता है कि अंग, उपांग आदि की अवधारणा उस युग में बन चुकी थी । किन्तु वर्तमानकाल में जिस प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है, वैसा वर्गीकरण उस समय तक भी पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं हुआ था । उसमें मात्र अंग, उपांग, प्रकीर्णक इतने ही नाम मिलते हैं । विशेषता यह कि उसमें नन्दीसूत्र व अनुयोगद्वारसूत्र को भी प्रकीर्णकों में सम्मिलित किया गया है । सुखबोधासमाचारी का यह विवरण मुख्य रूप से तो आगम ग्रन्थों के अध्ययनक्रम को ही सूचित करता है । इसमें मुनि जीवनं सम्बन्धी आचार नियमों के प्रतिपादक आगम ग्रन्थों के अध्ययन को प्राथमिकता दी गयी है और सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन बौद्धिक परिपक्वता के पश्चात् हो ऐसी व्यवस्था की गई है ।
इस दृष्टि से एक अन्य विवरण जिनप्रभ ने अपने ग्रन्थ विधिमार्गप्रपा में दिया है। इसमें वर्तमान में उल्लिखित आगमों के नाम तो मिल जाते हैं, किन्तु कौन आगम किस वर्ग का है यह उल्लेख नहीं है । मात्र प्रत्येक वर्ग के आगमों के नाम एक साथ आने के कारण यह विश्वास किया जा सकता है कि उस समय तक चाहे अंग, उपांग आदि का वर्तमान वर्गीकरण पूर्णतः स्थिर न हुआ हो, किन्तु जैसा पद्मभूषण पं. दलसुखभाई का कथन है कि कौन ग्रन्थ किसके साथ उल्लिखित होना चाहिए ऐसा एक क्रम बन गया था, क्योंकि उसमें 'अंग, उपांग, छेद, मूल, प्रकीर्णक एवं चूलिकासूत्रों के नाम एक ही साथ मिलते हैं । विधिमार्गप्रपा में अंग, उपांग ग्रन्थों का पारस्परिक सम्बन्ध भी निश्चित किया गया था । मात्र यही नहीं एक मतान्तर का उल्लेख करते हुए उसमें यह भी बताया गया है कि कुछ आचार्य चन्द्रप्रज्ञप्ति एवं सूर्यप्रज्ञप्ति को भगवती का उपांग मानते हैं । जिनप्रभ ने इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम वाचनाविधि के प्रारम्भ में अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद और मूल इन वर्गों का उल्लेख किया है । उन्होंने विधिमार्गप्रपा को ई. सन् १३०६ में पूर्ण किया था, अतः यह माना जा सकता है कि इसके आस-पास ही आगमों का वर्तमान वर्गीकरण प्रचलन में आया होगा । आगमों के वर्गीकरण की प्राचीन शैली
अर्धमागधी आगम साहित्य के वर्गीकरण की प्राचीन शैली इससे भिन्न रही है । इस प्राचीन शैली का सर्वप्रथम निर्देश हमें नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र ( ईस्वी सन् पाँचवी शती) में मिलता है। उस युग में आगमों को अंगप्रविष्ट व अंगबाय- इन भागों में विभक्त किया जाता था । अंगप्रविष्ट के अन्तर्गत आचारांग आदि १२ अंग ग्रन्थ आते थे । शेष ग्रन्थ अंगबाह्य कहे जाते थे । उसमें
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" एवं कप्पतिप्पाइविहिपुरस्सरं साहू समाणियसयलजोगविही मूलग्गंथ- नंदि - अणुओगदार- उत्तरज्झयणइसिभासिय- अंग- उपांग-पइन्नय-छेयग्गंथ-आगमे वाइज्जा" - विधिमार्गप्रपा ॥
“अण्णे पुण चंदपण्णत्तिं सूरपण्णत्तिं च भगवईउवंगे भणति । तेसिं मएण उवासगदसाईण पंचण्हमंगाणंमुवंगं निरयावलियासुयवरवंधो ।” ओ.रा.जी.पण्णवणा.सू.जं.चं.नि.क.क.पुप्फ. वहिदसा । आयाराइउवंगा नायव्वा आणुपुव्वीए ॥ उवंगविही।”विधिमार्गप्रपा ॥
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