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________________ चतुर्थ परिशिष्टम् । ७५ १९९ उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः | उद्धृतपाठः पृष्ठाङ्कः नेरइयदेवतित्थंकरा य... [आव० नि० ६६] २७६ मोक्षे भवे च सर्वत्र,...[] नेरइया १ असुराई १० पुढवाई... [ ] २५८ | मोत्तूण सगमबाहं पढमाए... [कर्मप्र० ८३] १६२ पंच सए छव्वीसे छच्च.. [बृहत्क्षेत्र० २९] ७४ | यथा गौर्गवयस्तथा [मी० श्लो० वा०] २१३ पंचास ५० चत्त ४... [बृहत्सं० ११८] १८१ | योग-क्षेमकृन्नाथः [] पज्जायाणभिधेय [विशेषाव० २५] २१३ | रत्नं निगद्यते तज्जातौ जातौ यदुत्कृष्टम् [ ] ५६ पढमा बहुलपडिवए १ बीया... रसोर्लशौ मागध्याम् [ ] १२५ ज्योतिष्क० २४७] १६४ लहुहिमव हिमव निसढे... [ ] पढमाऽसीइ सहस्सा १.. [बृहत्सं० २४१] १७३ | विगलिंदिएसु दो दो.. [बृहत्सं० ३५२] १८० पढमेत्थ विमलवाहण.. [आव. नि० १५५] २९१ विज्जुपहमालवंते नव नव... [ ] १९९ पणुवीसं कोडिसयं... [नन्दी. हारि०] २३० विज्जुप्पभहरिकूडो.. [बृहत्क्षेत्र० १५६] २०० पयावती य बंभो... [आव० नि० ४११] २९५ वीरं अरिट्ठनेमि... [आव० नि० २२१] ७४ परिनिव्वुया गणहरा.. [आव० नि० ६५८] २९१ संजयवेमाणित्थी संजयि.. [ ] २३६ पलियं १ अहियं २... [बृहत्सं. गा० १४] २२ संवच्छरेण भिक्खा... [आव० नि० ३१९] । २९३ पिंडेसण १ सेज्जि २ रिया... [आव० सं०] २१२ सक्कार १ अब्भुट्ठाणे २... [ ] १८७ पुढवि-दग-अगणि-... [बृहत्सं० ३५१] १८० सज्झाएण पसत्थं झाणं..... पुणव्वसु रोहिणी.. लोकश्री] [उपदेशमाला. गा० ३३८] पन्नरसइभोगेण य.... [सूर्यप्र० १९] १५२ सटुिं नागसहस्सा... [बृहत्क्षेत्र. ४१८] ६६ पुव्वतुडियाडडाववहूहुय तह... [ ] १८० सत्त पाणूणि से थोवे,... [भगवती०६७।४] १७० पुव्वादिअणुक्कमसो गोथुभ...[बृहत्क्षेत्र० ४१९] ६६ सत्त य छ च्चउ चउरो.. [ ] २१२ पोसे मासे चउप्पया [उत्तरा० २६।१३] १३३ सत्तत्तीस सहस्सा छ.. [बृहत्क्षेत्र० ५४] १३० बत्तीस ३२ अट्ठवीसा... [बृहत्सं० ११७] १८१ सत्तावन्न सहस्सा धj... [बृहत्क्षेत्र. ५७] १४८ बहुलस्स सत्तमीए... [ज्योतिष्क० २५०] १६३ सत्थपरिण्णा १ लोग... [आव० सं०] २११ बाधृलोडने [पा० धा० ५] १६२ बावडिं बावहिँ दिवसे... [सूर्यप्र० १९] १५२ सप्त स्वरास्त्रयो ग्रामा,... [ ] १६६ बाहा सत्तट्ठिसए.. [बृहत्क्षेत्र० ५५] समणुन्नमणुन्ने वा... निशीथभा० २१२४] ४७ भरहो सगरो मघवं.. [आव० नि० ३७४] २९५ सयभिसया भरणीओ अद्दा.. १५९,६० मरुदेवि विजय सेणा.. [आव० नि० ३८५] २९२ __ [जम्बू० प्र० ७।१६०] महुरा य कणगवत्थू.... [आव० प्रक्षेप.] ३०५ |सबट्ठिसद्धगअणुत्तरोववाइय.... २७४ मासाई सत्तंता [पञ्चाशक० १८।३] [प्रज्ञा० सू. १५४४] १८९ मेरुस्स तिन्नि कंडा.. [बृहत्क्षेत्र० ३१२] १३१ | सव्वे वि एगदूसेण.. [आव० नि० २२७] २९२ ___२९ २३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001143
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutram Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages566
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, G000, G015, & agam_samvayang
File Size42 MB
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